आधा दर्जन लोगों पर हमला करने और कई मवेशियों को अपना शिकार बनाने वाले एक बाघ की मौत से सरकार इतनी आहत हुयी है कि उसने दो महिलाओं समेत सात लोगों को जेल में डाल दिया है...
कमल भट्ट
आदमी की कीमत पर बाघ की सुरक्षा को महत्वपूर्ण मानने वाली सरकार और प्रशासन ने बाघों के मामले में जो रवैया अपनाया है उससे लोग न केवल डरे हैं, बल्कि उनके लिए इधर कुंआ, उधर खाई वाली स्थिति है। एक तरफ ग्रामीणों को बाघ के हमले का डर है तो दूसरी तरफ अपनी बात कहने पर जेल का रास्ता तैयार है।
पिंजरे में जलता हुआ बाघ |
गौरतलब है कि सरकार के लिए बाघ को बचाना प्राथमिकता में है। जितने बाघ बचेंगे,सरकार को ईनाम मिलेगा। पिछले महीने 22 -23 मार्च को पौड़ी जनपद का एक सुदूरवर्ती गांव अचानक स्थानीय और राष्ट्रीय मीडिया की सुर्खियां बन गया। कोटद्वार से सत्तर किलोमीटर दूर रिखणीखाल विकासखण्ड के धामधार गांव में ग्रामीणों ने एक बाघ को इसलिये जिन्दा जला दिया कि उसने एक सप्ताह तक उनके मवेशियों को अपना निवाला बना दिया और तीन लोगों को जख्मी कर दिया।
घटना को देखने-सुनने वालों को लगा कि इस गांव के लोगों ने किस क्रूरता के साथ तमाम कायदे-कानूनों को ताक में रखकर एक निरीह प्राणी को मार डाला। उत्तराखण्ड जैसे राज्य में जहां की सरकार बाघ के संरक्षण पर ही जिन्दा है उसके लिये इस ‘पवित्र काम’ में व्यवधान डालने वाले लोग किसी राष्ट्रद्रोही से कम नहीं हो सकते। परिणामस्वरूप दो महिलाओं सहित सात लोगों को संगीन धाराओं में जेल में डाल दिया गया। उनकी जमानत किसी अदालत में नहीं हो पा रही है। गांव के लोगों से प्रशासन को इतना खतरा हुआ कि गांव के बाहर पीएसी का पहरा लगा दिया गया।
बाघ को मारने की सरकारी कहानी का यह एक पक्ष है। दूसरा पक्ष इस बात को उद्घाटित करता है कि वन विभाग और सरकारी नुमाइंदों के लिए आम आदमी का जीवन कितना सस्ता है। बाघ मारने की यह कहानी धामधार गांव की है। यहां पिछले महीने 22 मार्च को एक गुलदार शेखर चंद्र की गौशाला में घुस आया।
इससे पहले एक अन्य ग्रामीण नरेंद्र कुमार की गाय को बाघ ने मार डाला था, इसलिये लोग सतर्क थे। गौशाला में जानवरों की आवाज सुनकर ग्रामीणों को पता चला कि गुलदार गौशाला में घुस आया है। उन्होंने गौशाला के दरवाजे को बाहर से बंद कर ताला लगा दिया। ग्रामीणों ने चाबी रथुआढाब के रेंजर को सौंप दी। उन्हें उम्मीद थी कि वन विभाग वाले बाघ को ऐसी जगह छोडक़र आयेंगे जहां से जानवरों और लोगों की हिफाजत की जा सकेगी। लेकिन रेंजर और उनके अधीनस्थों ने बाघ का क्या किया, इसका पता लोगों को नहीं चल पाया।
बाइस मार्च को वन विभाग ने इस पर कोई कार्यवाही नहीं की। रात तकरीबन नौ बजे रेंजर और उनके साथ आये कर्मचारियों ने गौशाले का ताला खोलकर बाघ को बाहर निकाल दिया। इसके बाद बाघ बाहर गांव में खुला घूमने लगा। आजाद होने के एक घंटे बाद यानी रात के दस बजे बाघ ने दो ग्रामीणों गजे सिंह और यशपाल पर हमला कर उन्हें बुरी तरह घायल कर दिया। दूसरे दिन सुबह पांच बजे भगत सिंह नामक व्यक्ति को बुरी तरह घायल कर दिया। उसका इलाज राजधानी के दून अस्पताल में चल रहा है।
गांव में उत्पात मचाने के बाद इत्तफाक से बाघ फिर से शेखर चंद्र की गौशाला में घुस गया। वन विभाग की कार्यवाही से आक्रोशित और बाघ से डरे ग्रामीणों ने फिर से गौशाला में ताला लगाकर बाघ को बंद कर दिया। वन विभाग ने बाघ को फिर से गांव में छोड़ दिया। इस खबर से लोगों का आक्रोशित होना स्वाभाविक था।
धामधार और उसके आसपास के गांवों के एक-डेढ़ हजार लोग गांव में इकट्ठा हो गये। इस खबर को सुनकर वन विभाग के आला अधिकारी भी मौके पर पहुंच गये। ग्रामीणों को समझाते हुए डीएफओ ने आश्वासन दिया कि इस बार बाघ को पिंजरे में कैद किया जायेगा। विभाग ने बाघ को पिंजरे में कैद कर लिया। ग्रामीणों को आश्वस्त करते हुए वनाधिकारियों ने कहा कि इसे दूर जंगल में छोड़ दिया जायेगा। ग्रामीण बाघ को चिडिय़ाघर में छोडऩे की मांग करने लगे।
ग्रामीणों के मुताबिक झल्लाये रेंजर ने उनसे कहा चिडिय़ाघर में उसके गुजारे के लिए हमें आठ-दस किलो मांस के पैसे प्रतिदिन के हिसाब से देने होंगे। इसके लिए विभाग के पास पैसा नहीं है, इसलिए बाघ को जंगल में ही छोड़ा जायेगा। विभाग के अडिय़ल रवैये से क्षुब्ध होकर डेढ़ हजार लोगों ने पिंजरे में कैद बाघ पर मिट्टी का तेल डालकर आग लगा दी।
वन विभाग और प्रशासन के लिए यह बड़ी घटना थी, वन्य जंतु अधिनियम के अधीन घोर अपराध था। प्रशासन हरकत में आया। उसने वन्य जंतु अधिनियम-1972 की धारा 9, 52, 53 और आईपीसी की धारा 147, 252, 332 के तहत दो महिलाओं सहित सात लोगों को बाघ मारने के जुर्म में जेल भेज दिया।
यहां से बाघ और आदमी के बीच का संघर्ष शुरू हो गया है। सरकार और कानून बाघ के पक्ष में हैं,जबकि ग्रामीणों के सामने एक तरफ लोकतंत्र के कानून को बचाने की जिम्मेदारी है,दूसरी ओर फिर से बाघ का निवाला बनने का संकट। फिलहाल कानून ने अपना काम किया है। जिला न्यायालय पौड़ी से ग्रामीणों की जमानत खारिज हो गयी है। गिरफ्तार लोगों में बाघ के हमले में गंभीर रूप से घायल यशपाल की मां भी शामिल है। जिन लोगों को आरोपी बनाया गया है उसमें धामधार के अलावा कुमाल्डी, छर्ता, ढिकोलिया और कदरासी का एक-एक ग्रामीण भी शामिल है।
इस पूरे मामले में प्रशासन ने जो रवैया अपनाया है, वह लोकतंत्र में रहने वाले लोगों की सुरक्षा को लेकर नये सवाल खड़े करता है। ग्रामीणों को डराने के लिए प्रशासन ने गांव के बाहर भारी पुलिस बल लगा दिया। इसमें पीएसी की एक टुकड़ी भी शामिल है। गांवों में गेहूं की फसल कटने को तैयार है। ग्रामीण बाघ के डर से खेतों में नहीं जा रहे हैं। पड़ोस के चौडग़ांव में बाघ देवेंद्र कुमार नामक व्यक्ति को घायल कर चुका है।
बाघ के डर से गांवों की खड़ी फसल बर्बाद हो रही है। देखभाल न होने से सुअर भी खेती को नुकसान पहुंचा रहे हैं। इस बीच क्षेत्र के कई छोटे-बड़े नेताओं के हस्तक्षेप के बाद पीएसी तो हटा दी गयी है, लेकिन लोगों का भय दूर नहीं हुआ है। गांव में पांच बजे बाद कफ्र्यू का सा माहौल है। लोग अपने घरों में कैद हैं। एक तरफ बाघ का खतरा है, दूसरी तरफ प्रशासन का। अब धामधार गांव की किस्मत बाघ तय करेगा, क्योंकि सरकार की नजर में ग्रामीण बाघ के हत्यारे हैं।
(पाक्षिक पत्रिका ‘जनपक्ष आजकल’ से साभार)
'ग्रामीणों के मुताबिक झल्लाये रेंजर ने उनसे कहा चिडिय़ाघर में उसके गुजारे के लिए हमें आठ-दस किलो मांस के पैसे प्रतिदिन के हिसाब से देने होंगे। इसके लिए विभाग के पास पैसा नहीं है, इसलिए बाघ को जंगल में ही छोड़ा जायेगा। विभाग के अडिय़ल रवैये से क्षुब्ध होकर डेढ़ हजार लोगों ने पिंजरे में कैद बाघ पर मिट्टी का तेल डालकर आग लगा दी।'
ReplyDeleteसरकार के बाघ बचाओ अभियान की यही असलियत है..आँखें खोलने वाली खबर है.
bagh bachane ke naam par karodon gapak rahe logon kee sachai batane ke liye abhar.
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