Jan 27, 2016

गणेश चतुर्थी की इस व्रत कथा को मत पढ़िए आप !

आज गणेश चतुर्थी है। पुत्र की आस में महिलाएं यह व्रत रखती हैं। हिंदू धर्म अनुया​ईयों मुताबिक गणेश चतुर्थी का व्रत करने से पुत्र प्राप्ति की संभावनाएं प्रबल हो जाती हैं। प्रबलता का ही असर है कि व्रत का रेंज दिल्ली से दौलताबाद तक है और व्रत रखने वाली महिलाओं में अनपढ़, पढ़, सूपढ़ से लेकर सामंती, प्रगतिशील, डिजायनर तक शामिल हैं। संयोग से इससे मेरा घर भी अछूता नहीं है।

व्रत के पीछे एक लोक कथा है। शाम को कुछ खाने से पहले इस लोक कथा को महिलाएं सामूहिक रूप से सुनती—सुनाती हैं। पर उससे भी पहले वह गणेश भगवान के लिए भोजन का एक मामूली हिस्सा निकालकर अलग रख देती हैं। मान्यता है कि रात में गणेश भगवान आकर खायेंगे।

हालांकि महानगरी पुरोहितों के एक सर्वे में पाया गया है कि कथा को सुनने—सुनाने की परंपरा का शहरों में तेजी से लोप हो रहा है। पर उन्हें एक दूसरी बात से संतोष है। सुनने—सुनाने की परंपरा के लोप से व्रत वाली महिलाओं में ज्यादा कमी नहीं दर्ज की जा रही है। सर्वे में इसका कारण धर्म के प्रति कम होती आस्था को नहीं बल्कि अलगाववादी—आधुनिक और महानगरी संस्कृति माना गया है। वहीं गांवों में इस परंपरा के अक्षुण्य बने रहने पर हर्ष भी जताया गया है।

कथा के मुताबिक एक ही गांव में दो बहनों की शादी हुई। एक बहन संपन्न थी और दूसरी विपन्न। विपन्न यानी गरीब बहन दिन—प्रतिदिन एक—एक सामान के लिए मोहताज होती जा रही थी। थोड़े ​ही दिनों उसकी स्थिति भूखों मरने की आ गई।

मरने से बचने का कोई और रास्ता न देख उसने संपन्न बहन के यहां कामवाली बाई का काम शुरू कर दिया। अब वह सुबह से शाम तक झाड़ू—पोछा, बर्तन—बासन काम करने लगी। लेकिन संपन्न बहन निहायत घमंडी और कंजूस थी। वह अपनी गरीब बहन को काम के बदले धान की भूसी और चावल का झाड़न यानी खुद्दी देती थी।

वह बेचारी उसी भूसी और चावल को फेटकर रोटी बनाती और किसी साग के साथ खा लेती। इस तरह उसका जीवन जैसे—तैसे चल रहा था। उधर उसकी बहन दिनों—रात संपन्नता की सीढ़ियां चढ़ रही थी।

समय बीता गणेश चतुर्थी आई। उसने भी व्रत रखा। पर उस दिन भी उसकी बहन ने उसे धान की भूसी और चावल का झाड़न ​ही दिया। उसने रोटी और साग बनाया, थोड़ा गणेश जी के लिए रख दिया और बाकी खाकर सो गइे।

देर रात गणेश जी आए। पूछे, 'मेरे लिए क्या रखी हो। मैं बहुत भूखा हूं।'

उसने कहा, 'मेरे पास क्या है। पड़ी है आधी रोटी और साग, जाओ खा लो।'

भगवान को भक्त के यहां ही खाना था इसलिए खा लिए गणेश जी, लेकिन 56 भोग खाने वाले गणेश को भूसी कहां पचती। सो, उनको झाड़ा लग गया। मतलब ट्वायलेट यानी टट्टी।

पेट में गुड़गुड़ से बेचैन गणेश ने उस औरत से पूछा कहां जाउं।

उसने कहा, 'क्या रखा है इस घर में, यहीं कर लो टट्टी, किसी भी कोने में।'

गणेश जी कूद—कूद कर चारों कोनों में हगे। हगने के बाद पिछवाड़ा धोने का पानी भी नहीं था घर में, सो गरीब भक्त के सिर पर पोंछ गए।

सुबह हुई। उसकी संपन्न बहन आई। गरीब बहन के घर में सोना ही सोना था। यहां तक उसकी मांग और सिर पर भी। गणेश जी बिष्टा नहीं सोना हगे थे। वह गरीब के घर में खाद नहीं सोना छिड़क गए थे।

संपन्न बहन पूछने लगी कि रातों—रात यह सब कैसे हुआ।

गरीब बहन जो अब गरीब नहीं रह गई थी, उसने पूरी रात की कथा सुनाई।

लालची बहन के कलेजे पर सांप लोट गया। वह और धन इकट्ठा करने के लिए मचलने लगी। पर संकट था कि गणेश चतुर्थी साल में एक ​ही दिन आता है। ऐसे में उसके पास कोई चारा नहीं था और वह इस दिन का इंतजार करने लगी।

साल का वह दिन आया। बड़ी तैयारी के साथ संपन्न बहन ने अपने का उसी रूप में पेश किया जैसी माली हालत में गणेश जी ने उसकी गरीब बहन को पाया था।

वह एक खाली झोपड़ी में भूसी की रोटी और साग खाकर लेटी थी। गणेश जी आए। उसने वही जवाब दिया जो उसकी बहन ने दिया था।

फिर क्या था, अबकी भी गणेश जी चारों कोनों पर हग दिए और पिछवाड़ा उसके सिर पर पोंछ गए।

उसका घर बदबू से भर गया था। इस बार गणेश हगने में सोना नहीं बिष्टा दे गए थे। एक लालची के यहां, एक घमंडी और कंजूस के यहां।

शिक्षा — आप समझ ही गए होंगे। लालच बुरी बला।

उपसंहार — पर आज भी करोड़ों हिंदू धर्मावलंबी महिलाएं गणेश जी के सोना हगने की उम्मीद में व्रत रखे जा रही हैं और मर्द रखवाए जा रहे हैं।

चुनौती — यह देखना होगा कि अबतक गणेश जी ने कितने महिलाओं की मांग में गूह लपेटा है और कितनों में सोना।

सवाल — भारत में बढ़ते मल कचरे के पीछे कहीं सीधे गणेश जी तो जिम्मेदार नहीं हैं। 

Jan 24, 2016

प्रकाश भाई तुम क्या इतनी तकलीफ में थे!

​साहित्यिक मसलों को लेकर सक्रिय रहने वाले अनिल जनविजय के वाल पर अभी थोड़ी देर पहले देखा कि उन्होंने युवा कवि प्रकाश की मौत के बारे में सूचना दी है। लिखा है कि प्रकाश ने नींद की गोलियां खा ली थींं, जिससे उनकी मौत हो गयी।  आत्महत्या का कारण अबतक साफ नहीं हो सका है। 

वह अक्षय उपाध्याय स्मृति शिखर सम्मान से सम्मानित थे और उनका एक कविता संग्रह  'होने की सुगन्ध' भी छप चुका था।

प्रकाश से मैं परिचित था और उनसे दिल्ली के मंडी हाउस, कॉफी हाउस और भगत सिंह पार्क पर कई दफा मुलाकात हुई थी। हम उन दिनों नई सांस्कृतिक मुहिम के पक्षधरों के साथ भगत सिंह पार्क में बैठते थे, जिसमें वह भी शरीक होने आते थे। उन्होंने कई मौकों पर अपनी कविताएं भी सुनाई थीं। 

उनके साथी कवि और पत्रकार पंकज चौधरी ने हम सब से पहली बार उनसे भेंट कवि के रूप में ही कराई थी। वह अपनी उम्र से अधिक और गंभीर दिखते थे। उन्हें देखकर लगता था कि वह भदेस बॉडी लैग्वेज के आदमी और दिल्ली उनकी कद्र नहीं कर पाएगी। 

दिल्ली पहले चमक देखती है, फिर काबिलियत तौलती है। संभवत: इसीलिए कुछ समय बाद वह उत्तर प्रदेश के आगरा में हिंदी संस्थान से निकलने वाली पत्रिका से जुड़ गए। इस बीच उनका कई दफा दिल्ली आना हुआ और दो—चार बार सार्वजनिक जगहों पर हाय—हैल्लो भी हुई। बातचीत में उन्होंने बताया था कि शादी हो चुकी है। 

मुझे नहीं मालुम कि वह कहां के थे, किस तरह से संघर्ष करते हुए दिल्ली तक आए थे। पर उनके आगरा चले जाने के बाद भी उनके मित्र पंकज चौधरी और अभिनेता राकेश उनकी जीवटता और संघर्ष के किस्से अक्सर सुनाते थे। उनकी बातों को याद करते हुए अब लग रहा है कि वह आदमी हमारे बीच का चार्ली चै​प्लीन था जो मुस्कुराते हुए चला गया। 

फ्रीलांसिंग, मामूली अखबारी लेखन, कम पैसे का अनुवाद और करीब—करीब मुफ्त की प्रूफ​​रीडिंग के जरिए जीने वाले युवा साहित्यकारों की जिंदगी कितनी मुश्किलों भरी होती है, उसके वह जिंदा मिसाल थे। इतनी कठिनाइयां झेलने वाला आदमी क्या इससे भी बड़ी परेशानी में था और अकेला भी कि वह हमारे बीच से चला गया। सच में प्रकाश भाई, तुम क्या इतनी तकलीफ में थे!

संघर्ष के दिनों में मकान मालिकों की भभकियां, होटल वालों की वार्निंग और दोस्तों की बकाएदारी हम सब के जीवन की दैनंदिन रही है और वह उनके जीवन की भी थी। उनके रूम पार्टनर रहे राकेश अक्सर एक किस्सा उनके बारे में सुनाते थे, जिसके बाद सभी लहालोट हो जाते थे। 

वह काम की तलाश में एक बार दरियागंज स्थित किरण प्रकाशन के दफ्तर गए। प्रकाशक ने उन्हें प्रूफरीडिंग या संपादन का काम देने के लिए बुला रखा था। दफ्तर के दरवाजे पर खड़े हुए तो दिखा कि प्रकाशक देवता को अगरबत्ती दिखा रहा है। उन्हें काम की जरूरत इस कदर थी वह हर कीमत पर काम हथिया लेना चाहते थे।

यह सोचते हुए वह एक तरफ दरवाजे से अंदर दाखिल हो रहे थे और दूसरी तरफ प्रकाशक को इंप्रैस करनी की तरकीबें सोच रहे थे। तभी बिजली का तार उनके पैरो से लटपटाकर टूट गया, वह गिरने को हुए और बिजली चली गई। 

कमरा अंधकार से भर गया। अगरबत्ती दिखा रहा प्रकाशक चिढ़ गया। उसने जल्दी से अगरबत्ती धूपदान में खोंसी और गुस्से में पूछा, 'कौन हो बावले।' 

'सर मैं प्रकाश'। 

कमरे में फैले अंधकार के बाद यह हमारे मित्र प्रकाश का जवाब था। इसके बाद हम सभी हंस पड़ते थे। 

मैंने अबतक नौकरी के लिए श्रद्धांजलि लिखी है। मतलब पत्रकारिता के लिए। लेकिन आज एक परिचित का लिख रहा हूं जिसके साथ मैंने कुछ पल बिताएं हैं, कुछ यादें हैं, सार्वजनिक मुलाकातों की सही। 

मन कह रहा है लोग शायद बुरा मानें। बुरा मानने वाले माफ करेंगे पर एक परिचित इंसान की श्रद्धांजलि देवताओं जैसी कैसे लिखी जा सकती है। 

पुरस्कार - डिग्रियां लौटा देना ही त्याग का महाभियान

एक ब्राम्हण कवि ने
बेहद आत्मीय पलों में कहा
मैंने दलितों पर कभी कोई कविता नहीं लिखी
उनका दुख नहीं लिख पाया

संघर्ष कम नहीं हैं उनके
जीत का सिलसिला भी कम नहीं
पर मैं नहीं लिख पाया

नहीं लिख पाने की आत्मस्विकारोक्ति पर
दशकों तक
खूब तालियां पीटी गयीं संस्कृति के सभागारों में
वर्षों तक
भावविह्वल श्रोताओं से कालीनें होती रहीं गिलीं
आज भी
पुर्नजागरण के सिपाही आंसू पोछने के लिए बांटते फिरते हैं रूमाल

बहरहाल
कुछ ने इसे सदी की महाआत्मस्विकारोक्ति कहा
कुछ ने कहा जातिवाद के विघटन का महाआख्यान
बात निकली तो दूर तलक गई और
दलितों पर एक हर्फ न लिखने वाला कवि
महाकवि बना
उस देश में जिस देश में 80 फीसदी रहते हैं शूद्र, म्लेच्छ और नीच

अब वही
कविता का प्रतिमान है
संघर्ष का नया नाम है
विद्रोहियों की शान है
जातिवाद ख़त्म करने की पहली पहचान है...
भक्त कहते हैं
उसके बिना साहित्य बियाबान है

मैं पूछता हूँ,
सदियों बाद स्वीकार कर लेना ही
बराबरी का कीर्तिमान है
और
पुरस्कार - डिग्रियां लौटा देना ही त्याग का महाभियान !

आज का एकलव्य होता तो एक बाल नोचकर न देता द्रोणाचार्य को

संघर्ष में विजित, पराजित और सक्रिय रहने वाले दलितों को एकलव्य क्यों कहना है? 

यह उदाहरण अपने आप में ब्राम्हणवाद को मजबूत नहीं करता। 

मैं यह इसलिए पूछ रहा हूं कि रोहित वुमेला के मौत के बाद फिर एक बार यह शब्द तेजी से ट्रेंड करने लगा है। वह भी उसके पक्षधरों द्वारा। 

एक तरफ आप कहते हैं, दलितों का महाकाव्य अभी लिखा जाना है और दूसरी तरफ शोषकों के महाकाव्य में रचित चरित्र को सिर—आंखों पर बैठाते हैं। आप महिषासुर को पुर्नपरिभाषित कर रहे हैं, लेकिन आज के युग में आदर्श बन रहे दलितों को एकलव्य से आगे नहीं जाने दे रहे। 

रही होगी उस समय एकलव्य की कोई मजबूरी जो उसने द्रोणाचार्य को अपना अंगूठा दे दिया, लेकिन आज का दलित एक बाल नोचकर न दे। उल्टे वह सदियों का हिसाब ले ले। क्या वह इतने के बाद भी एकलव्य की तरह ईमोशनल वारफेयर में फंसेगा ? 


आपको लगता है कि अगर किसी दलित ने महाभारत लिखी होती तो अपना धर्म न निभाने वाले द्रोणाचार्य के प्रति वह वैसा ही रवैया बरतता जैसा व्यास ने बरता है। नहीं न। न ही धनुष विद्या में निपुण एकलव्य बकलोल होता, जो अपनी बेइज्जती इस कदर भूल जाता कि वह अपना अस्त्र 'अंगूठा' ही दान कर दे। 


पूरा महाभारत 'कर्म करो फल की चिंता मत करो' के सूत्र वाक्य का समाहार है तो क्या एकलव्य का यही कर्म था। 


एक काबिल दलित का अंगूठा देना ब्राम्हणवाद की उस परंपरावादी समझ को पुष्ट नहीं करता है कि तुम चाहे जितने काबिल हो जाओ, बुद्धि में तुम हमसे पार न पा पाओगे, हम तुम्हें कमतर करके ही छोड़ेंगे। मतलब वे अनंतकाल तक एकलव्य पैदा करते रहेंगे। 


पर आज का दलित इस श्रेष्ठता बोध को क्यों जारी रहने दे और खुद हीनताबोध में क्यों जिए ।

तुम किसके पक्ष में हो प्यारे

अजय प्रकाश 
तुम दलितों के पक्ष में नहीं हो कि वह आरक्षण चाहते हैं,
तुम मुसलमानों का पक्ष नहीं लेते कि वह देश हड़पना चाहते हैं,
तुम पिछड़ों को नहीं चाहते कि वह क्रीमी लेयर का मजा ले रहे हैं,
तुम आदिवासियों को नहीं चाहते कि वह असभ्य हैं,
तुम औरतों को नहीं चाहते कि वह तुम्हारे लिए इस सदी की सबसे बड़ी चुनौती हैं,
तुम बच्चों को भी नहीं चाहते कि वह आबादी बढ़ा रहे हैं
अलबत्ता तुम मनुष्यता को भी नहीं चाहते कि उसे तुमने अवसरवादी घोषित कर रखा है !
तुम चाहते क्या हो प्यारे,
तुम किसके पक्ष में हो,
कौन है तुम्हारी घोषित चाहत !
आज तुम खुद ही बताओ
पूरा खुलकर
हो सके तो मुनादी कराओ
पर बताओ जरूर
हम भी देखें !
तुम्हारी कैसी कायनात है
जिसमेें मनुष्य नहीं
सिर्फ सवर्ण रहते हैं...

आवाज सुनाने के लिए छात्र ने की आत्महत्या

हैदराबाद विश्वविद्यालय का छात्र और उसके साथी जबतक आंदोलन में थे, देश में उनकी कोई चर्चा नहीं थी। उनके समर्थन में आंदोलनों का कोई सिलसिला होता नहीं दिख रहा था और न ही सोशल मीडिया पर खबर ट्रेंड कर रही थी। आज भी उनमें से जो चार बचे हुए हैं, उनकी कोई चर्चा नहीं है, सिवाय की उन्हें विश्विद्यालय ने बर्खास्तगी निरस्त कर वापस ले लिया है.

क्या अब छात्रों को भी अपनी समस्याओं पर सरकार, समाज और मीडिया का ध्यान दिलाने के लिए आत्महत्या का रास्ता चुनना होगा। 


किसान पहले से ही इस रास्ते पर हैं। मैं आंध्र, विदर्भ और बुंदेलखंड के किसानों के बीच जितनी दफा भी रिपोर्टिंग करने गया हर बार पाया कि आत्महत्या करने वाले किसानों का बहुतायत इसे उपाय के तौर पर लेता है। उन्हें यह रास्ता 'हारे का हरिनाम' जैसा लगता है। 

निराश किसान कभी कर्जमाफी, कभी बैंक की धमकी—बेइज्जती से बचने तो कभी इसलिए आत्महत्या कर लेते हैं कि परिवार को कुछ अनुकंपा राशि मिल जाएगी और दुख थोड़ा कम होे जाएगा। 

आखिर हम देश को किस रास्ते पर ले जा रहे हैं। हमें पूरी ताकत लगाकर इसे रोकना होगा। एक सभ्य समाज के लिए यह सांस लेने जितनी जरूरी शर्त होनी चाहिए। हम कैसे देश हैं, जहां सिर्फ अपनी बात सुनाने के लिए जान देनी पड़ रही है। यह कैसा लोकतंत्र है जहां देश मजबूत और जनता कमजोर हो रही है।

Jul 17, 2012

सोनिया के गुड्डा हैं मनमोहन


जनज्वार. पहले टाइम मैगजीन ने और अब इंग्लैड के एक प्रमुख अखबार ‘द इंडिपेंडेंट’ ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की काबिलियत पर सवाल उठाया है। पिछले दिनों टाइम मैगजीन ने भारत में अर्थशास्त्री के तौर पर प्रचारित हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को ‘अंडरअचीवर’ यानी असफल कहा था, जिस पर देश और दुनिया के स्तर पर काफी प्रतिक्रिया हुई थी। 

अब इंग्लैंड के अखबार ‘द इंडिपेंडेंट’ ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया का ‘गुड्डा’ बताकर भारतीय प्रधानमंत्री की काबिलियत पर दोहरा दाग लगा दिया है। हालांकि अखबार में खबर छपने के बाद दुनिया भर में हो रही चर्चाओं से घबड़ाए अखबार ने अपने वेबसाइट संस्करण से गुड्डा यानी ‘पूडल’ शब्द हटाकर ‘पपेट’ यानी कठपुतलि किया, लेकिन अब वेबसाइट पर ‘अंडरअचीवर’ के तौर पर भारतीय प्रधानमंत्री को रेखांकित किया गया है। 

लेकिन अखबार में छपे लेख को नहीं बदला गया है। ‘मनमोहन सिंह ः सेवियर आॅर सोनियाज पुडल’ यानी ‘मुक्तिदाता या सोनिया के गुड्डा’ लेख में कहा गया है, ‘मनमोहन सिंह की बड़ी मुश्किल यह है कि उनके पास कोई वास्तविक राजनीतिक ताकत नहीं है और उनकी प्रधानमंत्री के तौर पर मौजूदगी सोनिया के कारण बनी हुई है।’ अखबार ने प्रधानमंत्री के मंत्रीमंडल में उनके कमजोर व्यक्तित्व की ओर इशारा करते कहा है, ‘कभी वह अपने कैबिनेट को भी नियंत्रित नहीं कर पाते।’ 

गौरतलब है कि मुख्यधारा की भारतीय मीडिया अपने प्रधानमंत्री के लिए इस तरह की शब्दावलियों के इस्तेमाल से बचती रही है। फैसले न लेने की अक्षमता को लेकर कई मौकों पर  मीडिया ने प्रधानमंत्री की नरम शब्दों में आलोचना रखी है, जबकि उनके ढुलमुल रवैयों से उनके मंत्रीमंडल में दागी मंत्रियों की बहुतायत बनी हुई है। हाल ही में टीम अन्ना ने उनके मंत्रीमंडल को अबतक का सबसे भ्रष्ट मंत्रिमंडल करार दिया है, जिसमें आधे से अधिक मंत्री किसी न किसी भ्रष्टाचार के आरोपों के घेरे में हैं। 

देश की प्रमुख विपक्षी दलों से जुड़े कुछ नेताओं ने प्रधानमंत्री के लिए कड़े शब्दों जैसे अक्षम, मुंह ताकने वाला आदि शब्दावलियों का इस्तेमाल किया है। भारत में लोग देश के प्रधानमंत्री को मोम की गुडि़या, रोबोट या सोनिया का स्टांप भी कहते रहे हैं। 

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Aug 12, 2011

बच्चा चुराने वाले आठ सौ गैंग सक्रिय

देश के पैमाने पर औसतन हर घंटे में एक बच्चा गायब होता है।  देशभर में चौबीस घंटे में कुल 24 लोगों के जिगर के टूकड़ों को छिन कर जिंदगी के अंधेरे में ढकेल दिया जाता है...

संजय स्वदेश

अपने बच्चे को चहकते देख हर मां-बाप का मन गदगद हो जाता है। जरा सोचिये, जब यही मासूम दुनिया समझने की होश संभालने से पहले ही लापता हो जाए। क्या बीतती होगी ऐसे लोगों पर। जिस जिगर के टुकड़े को हर मुसीबत से बचाने के लिए लोग दु:खों का पहाड़ झेल लेते हैं, वह एक दिन अचानक गुम होकर नर्क की दुनिया में चला जाता है।

देश लंबा-चौड़ा है। आबादी बड़ी है। संभव हो आपके आसपास कोई ऐसा नहीं मिले, जिसके बच्चे होश दुनिया समझने से पहले गायब हो चुके हो। पर आपको जानकार यह आश्चर्य होगा, लेकिन एक हकीकत यह है कि आज देशभर में करीब आठ सौ गैंग सक्रिय होकर छोटे-छोटे बच्चों को गायब करने के धंधे में लगे हैं। यह रिकार्ड सीबीआई का है। मां-बाप का जिगर का जो टुकड़ा दु:खों की हर छांव से बचता रहता है, वह इस गैंग में चंगुल में आने के बाद एक ऐसी दुनिया में गुम हो जाता है, जहां से न बाप का लाड़ रहता है और मां के ममता का आंचल।

किसी के अंग को निकाल कर दूसरे में प्रत्यारोपित कर दिया जात है, तो किसी को देह के धंधे में झोंक दिया जाता है। कुछ मजदूरी की भेंट चढ़ जाते हैं।  जब देश में करीब 800 गिरोह सक्रिय है कि तो जाहिर है बड़ी संख्या में बच्चे भी गायब होते होंगे। जरा गायब बच्चों का आंकड़ा देखिये। देश के पैमाने पर औसतन हर घंटे में एक बच्चा गायब होता है। मतलब देशभर में चौबीस घंटे में कुल 24 लोगों के जिगर के टूकड़ों को छिन कर जिंदगी के अंधेरे में ढकेल दिया जाता है। तेज रफ्तार जिंदगी में जब संवेदना से सरोकार दूर होते जा रहे हों,  तक यह पढ़ते हुए शायद ही किसी को आश्चर्य हो कि देश की जो राजधानी अपनी सौवीं वर्षगांठ मना रही हैं, वहीं रोज सात बच्चे लापता हो जाते हैं। भयावह स्थिति यह है कि इनमें से आधे से कम ही बच्चों का पता लग पाता है।

खबरों कहती हैं कि लापता होने वाले बच्चों का इस्तेमाल अंग प्रतिरोपण व्यापार, देह व्यापार और बाल मजदूरी के लिए होता है। उच्चतम न्यायालय ने लापता बच्चों का पता लगाने के लिए विशेष दल का गठन करने की बात कही थी, लेकिन इस बारे में हमारी असंवेदनशील सरकार ने अब तक कोई ठोस कदम नहीं उठाये। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट के अनुसार, लगभग 44,000 बच्चे हर साल लापता हो जाते हैं और उनमें से करीब 11,000 का ही पता लग पाता है।

लापता होने वाले अधिकतर बच्चे गरीब परिवार के होते है । ऐसे परिवार के लोग जब थाने में रिपोर्ट लिखवाने जाते हैं तो पहले उन्हें टरकाया जाता है। यदि रिपोर्ट लिख भी ली जाए तो उन्हें ढूंढ़ने में पुलिस भी लापरवाही बरतती है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने इस घृणित अपराध को रोकने के लिए कई सुझाव दिये। पर सुझाव तो सुझाव होते हैं, आदेश नहीं। जब उच्चतम न्यायालय के आदेश पर अभी तक ठोस कदम नहीं उठे तक भला सरकार इतनी असानी से ऐसे सुझावों को क्यों माननें लगे।

कुछ वर्ष पहले स्लम डॉग मिलेनियर आई थी, तब इस तरह गायब बच्चों की एक दर्दनाक हकीकत से रूपहले परदे पर दिखी। देश में ढेरों-चर्चाएं हुई। मगर कहीं से कोई संवदेना की ऐसी मजबूत आंधी नहीं चली जो एक आंदोलन बन कर सरकार को कटघरे में खड़ी करती।

आपको मजेदार बात बताये, हर दिन हर घंटे गायब होने वाले बच्चों का यह आंकड़ा 11 अगस्त को संसद में शून्य काल के दौरान भाजपा और कांग्रेस के संवेदनशील सदस्यों ने शुन्यकाल में उठाया गया। सदस्य ने सवाल पूछा। सरकार ने जवाब दिया कि वह इसको लेकर गंभीर है। सरकार के जवाब में कहीं नहीं लगा कि मामूसों की तबाह होती जिंदगी में उसका दिल पसीजता भी है। चर्चा दूसरे विषय पर चल पड़ी। न उम्मीद की किरण दिखी न ऐसे मासूमों की रक्षा के लिए सरकार की दृढ़ता। भाजपा के मनसुखभाई वासवा और एस एस रामासुब्बू ऐसे गंभीर सवाल को उठाने के लिए बधाई के पात्र है।