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Jul 1, 2017

जब वन संरक्षण के लिए जारी हुआ वारंट



क्या कभी सुना कि वनों को बचाने के लिए प्रयासरत लोगों को प्रशासन की ओर से पुरस्कार देने की बजाय उनके नाम वारंट जारी किया गया हो? हैरानी इसलिए भी कि यह घटना तब हुई, जब देश को आजाद हुए तीन दशक से भी ज्यादा समय बीत चुका था....
देहरादून से मनु मनस्वी
‘पर्यावरण बचाओ’, ‘जंगल बचाओ’ की पीपनी बजाकर टीआरपी बटोरने वाले अपने इंडिया में अब तक पर्यावरण संरक्षण के नाम पर काम कम और शोशेबाजी ही ज्यादा हुई है। हकीकत में काम उतना नजर नहीं आता, जितना होना चाहिए था। हां, पर्यावरण के कुछ कथित ठेकेदारों ने इसकी आड़ में तमाम पुरस्कारों से अपने ड्राइंगरूम जरूर गुलजार कर लिए।

इस देश की व्यवस्था ही ऐसी है कि जो न हो जाए, कम है। पर्यावरण संरक्षण के नाम पर अनाप-शनाप तमगे बटोरकर रातों-रात स्टार बनने वाले तथाकथित ठेकेदारों ने भले ही पर्यावरण बचाने के नाम पर कोरी नौटंकी भर की हो, लेकिन इसकी बदौलत वे सरकारी सम्मान और जरूरी सुविधाएं तो हासिल कर ही लेते हैं, बाकी देश और पर्यावरण जाए भाड़ में, इन्हें कोई मतलब नहीं।
वन, पर्यावरण और गंगा सफाई ऐसे सदाबहार मुद्दे हैं, जो इन ठेकेदारों के लिए रोजगार का जरिया बने हुए हैं। इन्हीं मुद्दों से उनकी रोजी रोटी चल रही है। दुर्भाग्य से इन सबमें पीछे रह जाते हैं पर्यावरण संरक्षण के वे सच्चे सिपाही, जिन्हें न तो कभी किसी पुरस्कार की ख्वाहिश रही, न ही किसी तारीफ की।वे तो बस निस्वार्थ भाव से अपना काम करते रहे।
इन्हीं लोगों के निस्वार्थ त्याग का नतीजा था कि देश में नया वन अधिनियम प्रकाश में आ सका। हालांकि आज भी अवैध रूप से वनों का कटान जारी है, किंतु वन अधिनियम के अस्तित्व में आ जाने से वन माफिया पर कुछ अंकुश तो लगा ही है, जो ब्रिटिशकालीन राज की वन नीति में नहीं था। वहां तो वन माफिया को अवैध कटान की खुली छूट राजस्व के नाम पर सरकार ने खुद दे रखी थी।
गौरतलब है कि उत्तराखंड के जंगलों को वन माफिया से बचाने के लिए 1970 की शुरुआत में गढ़वाल के ग्रामीणों ने अहिंसात्मक तरीके से एक अनूठी पहल करते हुए पेड़ों से चिपककर हजारों-हजार पेड़ों को कटने से बचाया। यह अनूठा आंदोलन ‘चिपको आंदोलन’ नाम से प्रसिद्ध हुआ था। यह आंदोलन वर्तमान उत्तराखंड के चमोली जिले के हेंवलघाटी से गौरा देवी के नेतृत्व में शुरु होकर टिहरी से लेकर उत्तर प्रदेश के कई गांवों में इस कदर फैला कि इसने वन माफिया की नींद उड़ा दी।
इस आंदोलन में महिलाओं ने बढ़ चढ़कर भाग लिया। आलम यह था कि कहीं भी किसी जंगल में वनों के कटने की खबर मिलती तो गांव की महिलाएं पेड़ों को बचाने के लिए आगे आ जातीं। वे न वन माफिया का विरोध करतीं और न उनसे उलझतीं। बस पेड़ों से चिपककर खड़ी हो जातीं। अब निहत्थी महिलाओं पर आरी कैसे चलाई जा सकती थी। सो हर बार वन माफिया खाली हाथ लौट जाते। धीरे-धीरे वन माफिया के हौसले पस्त होते गए और चिपको आंदोलन परवान चढ़ता रहा।
यह वो दौर था, जब अंग्रेजों के समय बनाई गई वन नीति ही देश में लागू थी। देश का अपना वन अधिनियम प्रकाश में नहीं आया था। वन उपज से राजस्व के नाम पर पुरानी वन नीति वन माफिया के अनुकूल थी, जिसकी आड़ लेकर वन माफिया धड़ल्ले से वनों के कटान में लगे हुए थे और जो भी उनकी राह में आता, उसे इसका दंड भुगतना पड़ता।
ऐसा ही एक मामला जनवरी 1978 का है। सुंदरलाल सकलानी नामक एक ठेकेदार ने वर्ष 1978 में वन विभाग उत्तरप्रदेश से 95 हजार रुपए में लाॅट संख्या 40 सी/77-78 शिवपुरी रेंज टिहरी गढ़वाल में चीड़ आदि के करीब 671 पेड़ काटने का ठेका लिया।
17 जनवरी 1978 को जब ठेकेदार के मजदूरों द्वारा कटान कार्य की भनक ग्रामीणों को लगी, तब चिपको आंदोलन से जुड़े कार्यकर्ताओं ने पेड़ों से चिपककर इस कटान का विरोध किया। ग्रामीणों के क्रोध और अपना नुकसान होता देख ठेकेदार सुंदरलाल सकलानी ने चिपको आंदोलनकारियों को धमकी दी, लेकिन वे पेड़ न कटने देने की अपनी जिद पर अड़े रहे।
अंततः कटान कार्य में बाधा पड़ती देख ठेकेदार ने कटान रोक तो दिया, परंतु इसकी शिकायत तत्कालीन मजिस्ट्रेट नरेन्द्रनगर से की, जिस पर मजिस्ट्रेट ने ऐसा वारंट जारी किया, जिस पर आश्चर्य तो होता ही है, बल्कि यह ब्रिटिशकालीन राज की तानाशाही की भी याद दिलाता था। साथ ही यह उस समय प्रचलित वन नीति के अस्तित्व पर सवाल भी खड़े करता था कि आखिर यह वन नीति किसके लिए बनाई गई थी?
अपने हक की लकड़ी पाने तक के लिए गिड़गिड़ाते ग्रामीणों के लिए ब्रिटिशकालीन वन नीति किसी सजा से कम नहीं थी। वह भी तक, जबकि ग्रामीण वृक्षों को अपने पुत्र की तरह समझकर उन्हें सहेजते थे।
बहरहाल, ठेकेदार सुंदरलाल सकलानी की शिकायत के बाद मजिस्ट्रेट ने इस घटना में आरोपी पांच व्यक्तियों रामराज बडोनी पुत्र श्री सत्यप्रसाद बडोनी, ग्राम साबली, टिहरी गढ़वाल, दयाल सिंह पुत्र श्री हरि सिंह, निवासी पाली गांव, कुंवर सिंह उर्फ कुंवर प्रसून पुत्र श्री गबर सिंह, निवासी कुड़ी गांव, जीवानंद श्रीयाल पुत्र श्री शंभूलाल, ग्राम जखन्याली व धूम सिंह पुत्र बेलम सिंह, निवासी पिपलैथ नरेन्द्रनगर के विरुद्ध वारंट जारी कर प्रत्येक पर एक हजार रुपए का जुर्माना लगाया।
कारण बताते हुए वारंट में लिखा गया कि दोषियों द्वारा ठेकेदार का विरोध कर सरकारी काम में बाधा पहुंचाई गई, जिससे ठेकेदार और मजदूरों के बीच आपसी रंजिश बढ़ रही है और किसी भी समय शांति भंग होने की आशंका है।
स अजीबोगरीब और अपनी तरह के इकलौते वारंट के जारी होने के बाद पांचों आरोपी भूमिगत हो गए और प्रशासन की पकड़ में नहीं आए। उस समय एक हजार रुपए का जुर्माना बड़ी रकम थी। ये सभी तथाकथित आरोपी प्रशासन की आंखों से बचते हुए लगातार चिपको आंदोलन को परवान चढ़ाते रहे और अहिंसात्मक रूप से वनों को बचाने के अपने मिशन पर लगे रहे।
इनमें से कुंवर प्रसून और रामराज बडोनी ने तो बाद में पत्रकारिता के माध्यम से भी इस आंदोलन को परवान चढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका भी निभाई। इसी वर्ष इस घटना के बाद उत्तराखंड की वीरांगनाओं ने जन आंदोलन के इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ा, जब अनेकों महिलाओं समेत पर्यावरण के हितैषियों ने 9 फरवरी 1978 को नरेन्द्रनगर टाउनहाॅल में टिहरी वृत के वनों की हो रही नीलामी के खिलाफ अहिंसात्मक तरीके से प्रदर्शन किया।
प्रदर्शनकारी ढोल, नगाड़े व थालियां बजाते हुए 8 फरवरी की शाम को ही नरेन्द्रनगर पहुंच गए। अहिंसात्मक तरीके से चल रहा यह प्रदर्शन प्रशासन को बर्दाश्त नहीं हुआ और सुबह पांच बजे प्रदर्शनकारियों को घसीटकर सड़क पर फेंक दिया गया। प्रदर्शनकारियों ने भी हार नहीं मानी और ठिठुरती सुबह ठंडी सड़क पर भजन-कीर्तन करते रहे।
आंदोलनकारियों का कहना था कि जब नैनीताल, अल्मोड़ा, कोटद्वार और देहरादून में वनों की नीलामी नहीं हुई तो टिहरी वृत के वनों को ‘वैज्ञानिक दोहन’ के नाम पर क्यों नीलाम किया जा रहा है? उनकी मांग थी कि वन नीति में परिवर्तन किए जाने तक नीलामी रोक दी जाए।
सत्ता तक अपनी आवाज पहुंचाने के लिए महिलाओं के नेतृत्व में लोगों ने शांतिपूर्ण ढंग से प्रतिकार करते हुए पुलिस का घेरा तोड़कर नीलामी हाॅल में प्रवेश किया। इस अहिंसात्मक प्रदर्शन से घबराकर अधिकारी ने 9 तारीख को नीलामी स्थगित कर आश्वासन दिया कि अगले दिन 10 तारीख को अगली नीलामी की घोषणा की जाएगी। आश्वासन के बाद सत्याग्रही हाॅल में ही बैठकर वन चेतना के गीत गाने लगे और अगले दिन का इंतजार करने लगे।
आधी रात को जब सत्याग्रही नींद के आगोश में थे, तो अचानक पुलिस दल ने घेरा डालकर सबको गिरफ्तार कर लिया। आंदोलनकारियों का आरोप था कि कुछ महिलाओं के साथ अभद्रता भी की गई। तीन घंटे तक नरेन्द्रनगर थाने के बाहर ट्रक में ठूंसे रखने के बाद पौने पांच बजे के करीब उन्हें टिहरी जेल पहुंचाया गया।
गिरफ्तार किए गए 23 आंदोलनकारियों में से नौ महिलाएं थीं और इन सभी में से अधिकांश हेंवलघाटी के थे, जो चिपको आंदोलन का प्रमुख केन्द्र रहा। इन महिलाओं में थीं गोरी देवी, पिंगला देवी, ज्ञानदेई देवी, मीमी देवी, पारो देवी, मुस्सी देवी, सुदेशा, श्यामा देवी एवं जानकी देवी थीं, जबकि अन्य थे दयाल सिंह, रामराज बडोनी, आलोक उपाध्याय, विजय जरधारी, जगदंबा कोठियाल, उपेन्द्र दत्त, हुक्म सिंह, दयाल सिंह, प्रताप शिखर, वचन सिंह, धूम सिंह, कुंवर प्रसून, सोबन सिंह तथा गिरवीर सिंह।
इस सूची में उन पांच में से चार आंदोलनकारी भी सम्मिलित थे, जिनके नाम वह अजीबोगरीब वारंट जारी हुआ था। इस घटना ने ब्रिटिशकालीन जुल्मोसितम की यादें ताजा कर दी थीं। इस घटना के संबंध में हेंवलघाटी वन सुरक्षा समिति जाजल द्वारा एक विज्ञप्ति भी जारी की गई थी।
इन दो घटनाओं ने उस समय पूरे देश को झकझोरकर रख दिया और अखबारों में ये खबरें प्रमुखता से प्रकाशित हुईं। आखिरकार तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार ने इस पर संज्ञान लिया और नतीजा यह हुआ कि देश को नया वन अधिनियम प्राप्त हुआ।
जिन पांच लोगों के नाम वारंट जारी किया गया था उन्हें न तो किसी सरकार ने तवज्जो दी और न ही कभी उनकी सुध ही ली गई। इन सत्याग्रहियों को भले ही सरकार से कुछ न मिला हो, परंतु उन्हें इस बात की खुशी है कि उनके प्रयासों से देश में नया वन अधिनियम अस्तित्व में आ सका, जिसके लिए वे संघर्षरत थे।
हालांकि उन्हें इस बात का मलाल भी है कि कई ऐसे लोगों को पर्यावरण के नाम पर पुरस्कारों से नवाजा गया है, जो धरातल पर कहीं नहीं ठहरते और जिन लोगों ने वनों के लिए अपना सर्वस्व दांव पर लगा दिया, वे गुमनामी में जीने को मजबूर हैं।
जिस गौरा देवी ने चिपको आंदोलन के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया, उनके गांव के हालात अब भी जस के तस हैं। यहां तक कि उनके बारे में विस्तृत जानकारी तक उपलब्ध नहीं है, जबकि सोशल मीडिया के जरिये कई तथाकथित पर्यावरणविदों ने अपनी उपलब्धियों को बढ़ा-चढ़ाकर बखान किया और जमकर उसका लाभ हासिल किया।
इन आंदोलनकारियों में से एक ऋषिकेश स्थित शीशमझाड़ी में रह रहे रामराज बडोनी का कहना है कि सरकार को वनों के विषय में जानकारी रखने वाले ऐसे आंदोलनकारियों से अवश्य समय-समय पर राय लेते रहनी चाहिए, जिन्होंने जीवन भर वनों के बीच ही गुजारा है।
केवल एअरकंडीशंड कमरों में बैठकर पर्यावरण की सुरक्षा की कल्पना करना ही बेमानी है। लेकिन यहां तो ‘घर की मुर्गी दाल बराबर’ वाली स्थिति है। बाहर से आकर पर्यावरण विद सरकार को बताते हैं कि प्रदेश के वनों को बचाने के लिए क्या करना है। यह बेहद दुखद है।
बहरहाल, दुखद है कि उत्तर प्रदेश से अलग होने के बाद वन संपदा से समृद्ध उत्तराखंड में वनों का अवैध कटान जारी है। राज्य में वन तस्कर बेखौफ होकर वनों को नंगा कर रहे हैं और महकमा अपने निठल्लेपन का ठीकरा एक दूसरे पर फोड़कर ही खुश है। महकमे और माफिया की मिलीभगत के चलते हर वर्ष सैकड़ों-हजारों अच्छे भले पेड़ों की बलि ले ली जाती है।
सबूत मिटाने के लिए पेड़ों के ठूंठ तक का नामोनिशां मिटा दिया जाता है और जनता व प्रशासन की आंखों में धूल झोंकने के लिए वनाग्नि का हवाला देकर काले कारनामों पर पर्दा डाल दिया जाता है। यदि राज्य सरकार प्रदेश के वनों को बचाने में सफल हो पाती है तो ही वनों के लिए संघर्षरत इन सत्याग्रहियों का संघर्ष सफल कहा जाएगा।

Jun 19, 2017

भाजपा सरकार ने की कृषि बजट में 17 फीसदी की कटौती

प्रदेश में भाजपा सरकार आने के बाद प्रदेश में पहली बार किसी किसान के आत्महत्या की बात सामने आई, सवाल यह कि ऐसे हालात में किसान खुदकुशी न करें तो क्या करें...
देहरादून से अरविंद शेखर की रिपोर्ट
जब तन खटाकर भी खेती फायदे का सौदा न रह गई हो। खेती से अपने बच्चों-परिवार के भले के लिए लिया कर्ज किसान आत्मा पर बोझ बन जा रहा हो। ऋण देने वाली सरकारी संस्थाएं क्रूर सूदखोर महाजन की याद दिलाते हुए नोटिस पर नोटिस भेज रही हों। चुनावी वादे के बावजूद केंद्र और प्रदेश की सरकारें किसानों की कर्ज माफी से इनकार कर चुकी हों। ऐसे अंधेरे हालात में किसी के सामने दो रास्ते होते हैं या तो वह हालात या व्यवस्था से लड़ने का रास्ता चुने या नाउम्मीदी में मौत को गले लगा ले।

बेरीनाग के सरतोला के किसान सुरेंद्र सिंह ने दूसरा रास्ता चुना। जहर खाकर खुदकुशी कर ली। संभवत: प्रदेश में किसी अन्नदाता की कर्ज के कारण की गई यह पहली आत्महत्या है। सवाल यह है कि सरकार क्या इस घटना से जागेगी और अपनी नीतियों में सुधार करेगी और कृषि बजट में की गई कटौती पर पुनर्विचार करेगी। गौरतलब है कि उत्तराखंड की त्रिवेंद्र सरकार ने कृषि बजट में 17 फीसदी कटौती की भारी कटौती कर दी है, जबकि प्रदेश के किसान पहले से ही 11 हजार करोड़ के कर्जदार हैं। 
उत्त्तराखंड में भी दूसरे प्रदेशों की तरह किसान खुदकुशी की ओर बढ़े इसके हालात लंबे समय से बन रहे हैं। सरकारी आंकड़े ही बताते हैं कि 2003 से 2013 यानी 10 साल में राज्य के किसानों पर बकाया कर्ज में बेतहाशा बढ़ोतरी हुई है।
2003 में 7.2 फीसद किसान की कर्ज के जाल में थे 2013 तक यह तादाद 38.27 फीसद पहुंच गई। देश के 11 पहाड़ी राज्यों में बकाया कर्ज वाले किसानों के औसत यानी 24.9 फीसद से यह कहीं ज्यादा है। इन हालात में किसान कहां जाएं।
प्रदेश में कुल कृषि क्षेत्र ही नहीं बुवाई वाला क्षेत्रफल भी लगातार घटता जा रहा है, जबकि एनएसएसओ के 70वें चक्र के सव्रेक्षण के मुताबिक राज्य की 59.9 फीसद परिवारों की आय का मुख्य स्रोत खेती है और केवल 0.6 फीसद आबादी ही ऐसी है जिसकी आय का अधिकांश हिस्सा कृषि से जुड़े कामों से नहीं आता।
कृषि वृद्धि दर भी 2013-14 में ऋणात्मक यानी - 2.19 फीसद हो गई थी जो 2015-16 में कुछ सुधरी और 4.19 हो गई। प्रदेश में 74 फीसद किसान सीमांत किसान है। जबकि 17 फीसद लघु, सात फीसद अर्ध मध्यम, दो फीसद मध्यम और बड़े किसान लगभग नगण्य हैं। सवाल यही नहीं है 2011 की जनगणना के मुताबिक प्रदेश में कुल कर्मकरों में से पहाड़ में 55.46 फीसद तो हरिद्वार व ऊधमसिंह नगर यानी मैदान में 51.23 फीसद कृषि कर्मकर हैं।
पहाड़ की तो 93 फीसद किसान छोटी या बिखरी जोतों वाले हैं। 2005 और 2013 के यानी पांचवें व छठे आर्थिक सर्वेक्षण पर नजर डालें तो जहां कृषि से मिलने वाले रोजगार में 34.25 फीसद कमी आई है। वहीं कृषि विभाग के ही आंकड़े बताते हैं कि राज्य स्थापना के समय कृषि क्षेत्र 7.70 लाख हेक्टेयर था लेकिन 2015-16 में यह 0.72 हेक्टेयर घटकर 6.98 लाख हेक्टेयर ही रह गया। इतना ही नहीं प्रदेश के सकल घरेलू उत्पाद में भी कृषि के योगदान में लगातार कमी आ रही है।
2004-05 के स्थिर मूल्यों पर राज्य के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का अंश जहां 16.60 फीसद था वह 2013-14 में घटकर करीब आधा यानी 8.94 फीसद ही रह गया। राज्य की आर्थिकी में भी कृषि व उससे जुड़े क्षेत्रों का योगदान को भी देखें तो पिछले दस बरस में करीब 23 फीसद से घटकर महज 14 फीसद ही रह गया है।
पहाड़ में तो कुल कृषि क्षेत्र के महज नौ फीसद में ही खेती हो रही है और वह भी जंगली जानवरों के हमलों और सिंचाई की व्यवस्था न होने के चलते दिक्कत में है। ये ही वजहें है कि खेती किसानी को अलाभकारी सौदा मानते हुए किसान खेती छोड़ बेहतर जिंदगी की तलाश में कहीं और चले जा रहे हैं। एनएसएसओ के ही आंकड़े बताते हैं कि 2003 में जहां प्रदेश की 74.94 फीसद आबादी खेती पर निर्भर थी वहीं दस साल यानी 2013 तक वह घटकर 64.3 फीसद ही रह गई।
17 फीसद घटाया कृषि का बजट
कृषि संकट से जूझ रहे उत्तराखंड में प्रदेश सरकार ने कृषि का बजट 17 फीसद से अधिक घटा दिया है। 2016-17 में कृषि बजट 37476.89 लाख रुपये रखा गया था। मौजूदा सरकार ने 2017-18 के लिए 30971.46 लाख रुपये का प्राविधान रखा है। जो कि पिछले वित्तीय वर्ष की तुलना में लगभग 17.35 फीसद कम है। इस मसले पर जब कृषिमंत्री सुबोध उनियाल से संपर्क किया गया तो पहले को कहा गया कि कृषि मंत्री बैठक में व्यस्त हैं बाद में बात करा दी जाएगी मगर बाद में संपर्क करने पर फोन स्विच ऑफ मिला।
किसानों पर 10968 करोड़ का कर्ज
राज्य विधानसभा में वित्त व संसदीय कार्य मंत्री प्रकाश पंत की ओर से पेश आंकड़ों के मुताबिक प्रदेश में 699094 किसानों ने 10968 करोड़ रुपये का कर्ज लिया है। इस कर्ज का एक वर्ष का ब्याज ही 934. 32 करोड़ है। यह तो वह कर्ज है जो किसानों ने सरकारी बैंकों या सहकारी संस्थाओं से लिया है। सूदखोरों से लिए कर्ज के आंकड़े तो न जाने कितने होंगे। केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली कह ही चुके हैं कि किसानों की कर्ज माफी में केंद्र मदद नहीं कर सकता।

Jun 15, 2017

जिम कार्बेट के होटल मजदूर आंदोलन की राह पर

उत्तराखंड। रामनगर जिले के ढिकुली के मनुमहारानी होटल में काम करने वाले श्रमिकों ने होटल प्रबंधक पर अपना दो माह का बकाया वेतन न दिये जाने का आरोप लगाते हुये प्रशासन से वेतन दिलाये जाने की गुहार लगाई है। 


इस मामले में पीड़ितों ने स्थानीय एसडीएम का दरवाजा खटखटाते हुये उन्हें एक ज्ञापन सौंपते हुये कोतवाली व श्रम प्रवर्तन अधिकारी को शिकायत की है। रिजोर्ट में काम कर रहे श्रमिक भाजपा नेता गणेश रावत की अगुवाई में प्रशासनिक भवन पहुंचे जहां श्रमिकों ने जोरदार नारेबाजी करते हुए प्रदर्शन किया। 

इस दौरान उन्होंने एसडीएम परितोष वर्मा को सौंपे गये ज्ञापन में रिसोर्ट प्रबंधक मनोज कुमार शर्मा पर आरोप लगाते हुये कहा कि उनके द्वारा उन्हें दो माह का वेतन नहीं दिया जा रहा है। जब भी वह प्रबंधक अपने वेतन की बात करते हैं, तो रिसोर्ट प्रबंधक उन्हें नौकरी से निकालने की धमकी देता रहता है। वेतन न मिलने के कारण उनके परिवार का जीवन-यापन मुश्किल भरा हो गया है। 

श्रमिकों का कहना है कि रिसोर्ट स्वामी द्वारा रिसोर्ट जुकासो कम्पनी को लीज पर दिया गया है, जिसकी लीज की अवधि पूरी होने वाली है। ऐसे में उनके सामने वेतन का संकट खड़ा हो गया है। इस मामले में एसडीएम वर्मा ने श्रमिकों को आश्वासन देते हुये कहा कि उनका पूरा वेतन होटल प्रबंधक से दिलाया जायेगा। इसके बाद श्रमिकों ने कोतवाली पुलिस व श्रम प्रवर्तन कार्यालय में भी विधिवत अपनी शिकायत दर्ज कराई। 

इस मामले में भाजपा नेता गणेश रावत का कहना है कि कार्बेट नेशनल पार्क के आस-पास डेढ़ सौ से अधिक रिसोर्ट कार्यरत हैं, लेकिन इन रिसोर्ट में कार्यरत श्रमिकों की कोई भी संगठित यूनियन न होने के चलते इनका लगातार उत्पीड़न किया जा रहा है, जबकि रिसोर्ट स्वामियों ने अपने हितों की रक्षा के लिये अपना स्वयं का संगठन बना रखा है। 

रावत ने श्रम अधिकारी से मांग की है कि क्षेत्र में कार्यरत सभी श्रमिकों की यूनियन बनाकर उनके हितों का संरक्षण किया जाये, अन्यथा श्रम विभाग के खिलाफ भी व्यापक तौर पर आंदोलन छेड़ा जायेगा। 

इस दौरान ज्ञापन देने वालों में वीरेन्द्र रावत, संजय बिष्ट, गणेश रावत, सूरज, छोटेलाल, महेश, मनोज, गुलाब हुसैन, सूरज, किशोर सहित अनेकों लोग मौजूद थे।

Jun 15, 2011

अनशनकारी संत की मौत से फिर खुली सांस्कृतिक राष्ट्रवादियों की पोल


टीवी चैनल्स पर अपनी आभा बिखेरने के शौकीन कई संत तथा सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, रामसेतु, गऊ व गंगा बचाओ जैसे आंदोलनों में अग्रणी भूमिका निभाने वाली भारतीय जनता पार्टी के तमाम नेता भी अपने वोट साधने के उद्देश्य से बाबा रामदेव के आगे-पीछे होते दिखाई दे रहे थे...

निर्मल रानी

स्वामी निगमानंद
हरिद्वार स्थित मातृ सदन के संत स्वामी निगमानंद गंगा नदी की रक्षा का संकल्प निभाते हुए इस दुनिया को अलविदा कह गए। मातृ सदन हरिद्वार स्थित संतों का वह आश्रम है जो समय -समय पर गंगा नदी की स्वच्छता व पवित्रता की खातिर और उसे प्रदूषण व पर्यावरण के दुष्प्रभावों से बचाने के लिए समय-समय पर संघर्ष करता रहता है। मातृ सदन से जुड़े संत मीडिया प्रचारआर्थिक सहायता अथवा राजनैतिक सर्मथन के बिना ही गंगा नदी की स्वच्छता एवं निर्मलता को बरकरार रखने के अभियान में लगे रहते हैं।

यहां के संतों ने गंगा नदी में हो रहे अवैध खनन को रोकने का संकल्प लिया है। जो लोग गत दो तीन दशकों से हरिद्वार, ऋषिकेश तथा गंगा के आसपास के किनारे के क्षेत्रों से इत्तेफाक रखते हैं वे जानते होंगे कि कुछ समय पहले तक गंगा नदी के दोनों ओर स्टोन क्रशर माफिया ने अपने अनगिनत क्रशर लगा रखे थे। यह क्रशर गंगा नदी में बह कर आने वाले तथा नदी के किनारे के पत्थरों को तोड़-पीस कर अपना व्यापार चला रहे थे।

परिणामस्वरूप ऐसे सभी क्षेत्रों में हर समय आकाश में धूल मिट्टी उड़ा करती थी तथा अवैध खनन के कारण गंगा नदी भी अपने प्राकृतिक स्वरूप से अलग होने लगी थी। यह मातृ सदन के संतों के संघर्ष का ही परिणाम था कि उन्होंने अनशन,धरना तथा आमरण अनशन तक करके सरकार व न्यायालय का ध्यान बार-बार इस ओर आकर्षित किया। इसके परिणामस्वरूप तमाम स्टोन क्रेशर बन्द भी कर दिए गए।
लेकिन कुछ ऊंची पहुंच रखने वाले क्रशर मालिक अभी भी अवैध खनन का अपना धंधा जारी रखे हुए थे। इन्हीं क्रशर को बंद कराने के लिए मातृ सदन के संत निगमानंद ने 2008 में आमरण अनशन किया था। 73 दिनों के इस आमरण अनशन के कारण वे उस समय भी कोमा में चले गए थे। उसी समय से उनका शरीर काफी कमज़ोर हो गया था तथा शरीर के कई भीतरी अंगों ने काम करना या तो बंद कर दिया था या कम कर दिया था। लेकिन मानसिक रूप से वे चेतन दिखाई देते थे। अपनी इस अस्वस्थता के बावजूद गंगा रक्षा अभियान का उनका संकल्प बिल्कुल पुख्ता था। 

वर्ष 2008 के अनशन के बाद भी जब गंगा को प्रदूषित करने व क्षति पहुंचाने वाले कई क्रेशर बंद नहीं हुए तो 19 फरवरी 2011 से वे अपनी अस्वस्थता के बावजूद पुन: अनशन पर बैठ गए। उनके जीवन का यह अंतिम गंगा बचाओ आमरण अनशन 27अप्रैल को उस समय समाप्त कराया गया जब उत्तराखंड राज्य की पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। अनशन के 68वें दिन हुई संत निगमानंद की इस गिरफ्तारी का कारण राज्य सरकार द्वारा उनकी जान व स्वास्थ की रक्षा करना बताया गया और उन्हें स्वास्थ लाभ के लिए हरिद्वार के जि़ला अस्पताल में भर्ती कराया गया। जब यहां भी उनका स्वास्थय नहीं सुधरा तब उन्हें देहरादून के जौली ग्रांट स्थित हिमालयन इंस्टिच्यूट हॉस्पिटल में भर्ती करा दिया गया। यहां वे 2 मई 2011 से पुन: कोमा में चले गए। इसी के साथ-साथ उनकी चेतना भी जाती रही।
अस्पताल द्वारा उनके स्वास्थ के संबंध में 4 मई को जारी की गई रिपोर्ट में चिकित्सकों द्वारा इस बात का भी खुलासा किया गया कि उनके शरीर में कुछ ज़हरीले पदार्थ पाए गए हैं। इस रिपोर्ट के बाद मातृ सदन के संतों व उनके समर्थकों को इस बात का संदेह होने लगा कि संत निगमानंद जैसे आमरण अनशनकारी को ज़हर देकर मारने का प्रयास किया जा रहा है। और आखिरकार आमरण अनशन के कारण शरीर में आई कमज़ोरी, चेतन अवस्था का चला जाना तथा शरीर में ज़हरीले पदार्थों का पाया जाना जैसे सिलसिलेवार घटनाक्रमों ने इस महान एवं समर्पित संत को 13 जून को हमसे छीन लिया। यह भी एक अजीब इत्तेफाक है कि संत निगमानंद का निधन जिस हिमालयन इंस्टिच्यूट हॉस्पिटल देहरादून में हुआ उसी अस्पताल में योग गुरु बाबा रामदेव भी अपने विवादित अनशन के परिणामस्वरूप आई कमज़ोरी के चलते भर्ती थे।

रामदेव के उसी अस्पताल में भर्ती रहने के दौरान वहां तथाकथित सांस्कृतिक राष्ट्रवादियों का तांता लगा हुआ था। टी वी चैनल्स पर अपनी आभा बिखेरने के शौकीन कई संत तथा सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, रामसेतुगऊ व गंगा बचाओ जैसे आंदोलनों में अग्रणी भूमिका निभाने वाली भारतीय जनता पार्टी के तमाम नेता भी अपने वोट साधने के उद्देश्य से बाबा रामदेव के आगे-पीछे होते दिखाई दे रहे थे। इनमें से कोई भी साधु-संतकोई भी भाजपाई नेता अथवा उत्तराखंड सरकार का कोई भी प्रतिनिधि संत निगमानंद से मिलने व उन्हें देखने की तकलीफ उठाना नहीं चाह रहा था। 

संतों या नेताओं से क्या शिकवा किया जाए उन्हें देखने व उनकी आवाज़ को बुलंद करने के लिए तो वह मीडिया भी नहीं पहुंचा जोकि उसी अस्पताल के बाहर 24 घंटे डेरा डाले हुए था तथा बाबा रामदेव की सांसें व उनके पल्स रेट गिन रहा था। कुछ लोगों का तो यह भी आरोप है कि हिमालयन हॉस्पिटल में बाबा रामदेव जैसे वीआईपी एवं पांच सितारा अनशनकारी के भर्ती होने की वजह से ही पूरे अस्पताल का ध्यान रामदेव के स्वास्थय की देखभाल की ओर चला गया। इसी कारण तीमारदारी की अवहेलना का शिकार निगमानंद ने दम तोड़ दिया। उस अस्पताल में भर्ती और भी कई मरीज़ों व उनके परिजनों ने इस बात की शिकायत की कि रामदेव के वहां भर्ती होने के कारण उनके मरीज़ों की देखभाल ठीक ढंग से नहीं हो पा रही थी।
संत निगमानंद की मौत ने एक बार फिर कई प्रश्रों को जन्म दे दिया है। पहला सवाल तो यह कि हमारे देश में धर्म रक्षा,गऊ रक्षा, गंगा रक्षा तथा भारतीय राष्ट्रीय संस्कृति की रक्षा करने का दावा करने वाला एक विशेष संगठन तथा राजनैतिक दल जोकि स्वयं को सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का सबसे बड़ा प्रहरी बताता है उसके सदस्यों व प्रतिनिधियों ने गंगा रक्षा का संकल्प लेते हुए स्वयं इस प्रकार के आंदोलन क्यों नहीं किए? दूसरा सवाल यह है कि उत्तराखंड में सत्तारुढ़ भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने गंगा की तथा पर्यावरण की रक्षा के निहित संतों की मांग को मानते हुए तत्काल उन स्टोन क्रेशर तथा खदानों में हो रहे अवैध खनन को बंद क्यों नहीं करायाऔर इन सबसे प्रमुख बात यह कि राज्य के मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल बाबा रामदेव से मिलने जिस समय हिमालयन हॉस्पिटल पहुंचे उस समय भी संत निगमानंद उसी अस्पताल में भर्ती थे तथा अपनी जिन्दगी की अंतिम सांसें गिन रहे थे। 

मुख्यमंत्री निशंक ने रामदेव से तो मुलाकात की, परंतु उसी अस्पताल में भर्ती संत निगमानंद की उन्होंने कोई खबर ही नहीं ली। बात यहीं खत्म हो जाती तो भी गऩीमत था। लेकिन मुख्यमंत्री निशंक ने बाबा रामदेव से मिलने के बाद उनके स्वास्थय को लेकर एक झूठा बवंडर खड़ा करने की कोशिश की। उन्होंने यह तक कह डाला कि स्वामी रामदेव किसी भी समय कोमा में भी जा सकते हैं। उनका रक्तचाप भी बहुत अधिक ऊपर व बहुत अधिक नीचे जा रहा है। जबकि रामदेव की सेहत पर पल-पल नज़र रखने वाले चिकित्सकों ने साफ कर दिया था कि रामदेव के कोमा में जाने जैसी कोई समस्या नहीं है।
कितने आश्चर्य की बात है कि गंगा की रक्षा का संकल्प लिए हुए जो संत उसी अस्पताल में कोमा में जा चुका है तथा अचेत अवस्था में अपनी जिन्दगी की आखरी सांसे ले रहा है उस संत के स्वास्थय, उसके कोमा में जाने तथा उसके आमरण अनशन के कारणों की तो मुख्यमंत्री निशंक को इतनी भी परवाह नहीं कि वह उससे मिलने के लिए अपने बहुमूल्य समय में से कुछ पल निकाल सके। 

रामदेव जैसे राजनैतिक संत से मिलने के लिए तो मुख्यमंत्री हिमालयन अस्पताल तक जा पहुंचे लेकिन जो संत वास्तव में भारतीय संस्कृति का प्रतीक समझी जाने वाली गंगा नदी की रक्षा के संकल्प को लेकर अपनी जान की बाज़ी लगाए बैठा है उससे मिलने का उनके पास कोई समय नहींआखिर यह कैसा सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और साधु-संतों की प्रतिष्ठा, मान-मर्यादा व उनकी गरिमा की रक्षा की यह कैसी बातें?
स्वीर का दूसरा पहलू यह भी बताया जा रहा है कि उत्तराखंड का खनन मफीया प्रदेश की सरकार के साथ अपनी खुली सांठगांठ रखता है। बताया जा रहा है कि इस सांठगांठ के पीछे का कारण भ्रष्टाचार तथा मोटी रिश्वत है। और इसी भ्रष्टाचार के चलते सांस्कृतिक राष्ट्रवादगंगा रक्षा,साधुसंत सम्मान जैसे ढकोसलों और यहां तक कि गंगा को बचाने के लिए दी गई एक त्यागी संत की जान की कुर्बानी तक की अनदेखी कर दी गई। अब तो यह आम लोगों को ही सोचना होगा कि तथाकथित सांस्कृतिक राष्ट्रवादियों का वास्तविक चेहरा क्या है और अपनी राजनैतिक ज़रूरतों के अनुसार जनता को वरगलाने के लिए समय-समय पर यह कैसा रूप धारण करते हैं।



लेखिका उपभोक्ता मामलों की विशेषज्ञ हैं और सामाजिक-राजनीतिक विषयों पर भी लिखती हैं.




Jun 13, 2011

कैसे रुकेगा इन रजनियों का शोषण!


कुछ समय तक तो रजनी के करनाल निवासी ससुरालियों ने भरपूर मान-सम्मान दिया। पति भी उससे प्यार करता था। इस बीच रजनी के दो बच्चे हो गए। फिर अचानक न जाने क्यों रजनी से परिवार वालों का मन भर गया और ससुराली वाले आए दिन मारपीट करने लगे...


जगमोहन रौतेला

उत्तराखण्ड राज्य निर्माण के सपने लगातार दरकते जा रहे हैं। राज्य से रोजगार की तलाश में पलायन करने वाले लोगों की संख्या पहले के मुकाबले लगातार बढ़ती जा रही है। राज्य के पानी और जवानी का उपयोग राज्य हित में करने की रणनीति आज भी नहीं बन पायी है। इस सबके बीच एक दु:खद और शर्मनाक बात यह है कि महिला सशक्तीकरण के नारों के बीच यहां की बेटियां भी सुरक्षित नहीं हैं।

एक अनुमानित आंकड़े के अनुसार प्रतिवर्ष लगभग दो हजार लड़कियां ऐसी हैं जिन्हें गृहस्थ जीवन की खुशहाल जिंदगी के नाम पर आज भी दूसरे राज्यों में बदहाल और जिल्लत भरी जिंदगी जीने को मजबूर किया जा रहा है। इनमें से अधिकतर लड़कियों को हरियाणा, मुजफ्फरनगर,  मेरठ और गाजियाबाद आदि स्थानों में ब्याह कर ले जाया जा रहा है।

कुछ को शादी के बहाने ले जाकर जिस्म के धंधे में धकेला जा रहा है, तो कुछ जो थोड़ी किस्मत वाली होती हैं किसी की रखैल बनकर रह जाती हैं। यह सिलसिला पिछले कई दशकों से जारी है। राज्य बनने के बाद उम्मीद की जा रही थी कि महिला सशक्तीकरण के चलते यहां की स्थिति में सुधार होगा, मगर हालात जस के तस बने हुए हैं।

राज्य में ताजा मामला उत्तरकाशी जिले के नौगांव का सामने आया है। इस गांव की रजनी को लगभग चार साल पहले ब्याह कर करनाल (हरियाणा) ले जाया गया। कुछ समय तक तो रजनी के करनाल निवासी ससुरालियों ने भरपूर मान-सम्मान दिया। पति भी उससे प्यार करता था। इस बीच रजनी के दो बच्चे हो गए। फिर अचानक न जाने क्यों रजनी से परिवार वालों का मन भर गया और ससुराली वाले आए दिन मारपीट करने लगे। पांच अप्रैल 2011  का दिन रजनी के जीवन में तूफान लेकर आया, जब उसके ससुरालियों ने रात के अंधेरे में उसे मारपीट कर घर से बाहर निकाल दिया।

अपने सात माह के मासूम बच्चे के साथ रजनी ने काली अंधेरी रात खुले आसमान के नीचे बितायी। दो साल के बड़े लडक़े को ससुरालियों ने अपने ही पास रख लिया। अपने साथ हुए अन्याय की शिकायत रजनी ने करनाल के जिला लघु सचिवालय के अधिकारियों से की, जिन्होंने उसे जिला महिला संरक्षण अधिकारी सविता राणा के पास भेजा, जिन्होंने रजनी को सुरक्षा के लिहाज से एम.डी.डी. अनाथ आश्रम में भेज दिया और उसके ससुरालियों को सम्मन जारी किया।

करनाल के शिव कॉलोनी निवासी सत्यपाल सिंह ने अपने पुत्र पवन कुमार का विवाह चार साल पहले रजनी से किया था। ससुराल में कुछ दिन की इज्जत के बाद जब रजनी से मारपीट होने लगी तो एक दिन गुस्से में उसके ससुर सतपाल सिंह ने उसे एक ऐसी कड़वी सच्चाई से अवगत कराया, जिसे सुन कर रजनी के पैरों तले की जमीन खिसक गई।

रजनी के ससुर ने बताया कि उसे ब्याह कर नहीं, बल्कि बीस हजार रुपये में उसके मां-बाप से खरीद कर लाया गया था। रजनी को अपने ससुर की बातों पर यकीन नहीं हुआ। जब उसने अपने पति पवन कुमार से सच्चाई जाननी चाही तो अपने पिता की बात के विपरीत पवन ने कहा कि उसे ब्याह कर ही लाया गया है, लेकिन जिस तरह रजनी को अकारण घर से मारपीट कर निकाल दिया गया, उससे इस बात को बल मिलता है कि रजनी को खरीदकर ही ले जाया गया था।

यह एक कटु सत्य है कि पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में नवजात लड़कियों की संख्या में लगातार कमी हो रही है। इसका एक बड़ा और शर्मनाक कारण कन्या भ्रूण हत्या भी है। लड़कियों को जन्म देने से रोकने वाला यहां का समाज अपने परिवार के तथाकथित वंश को चलाने के लिए उत्तराखण्ड, पश्चिमी बंगाल, छत्तीसगढ़, झारखण्ड और बिहार से गरीब परिवारों की गरीब लड़कियों को कथित शादी करके ले जाता है। इन लड़कियों से शादी करने के एवज में वह लडक़ी के मां-बाप और बातचीत करवाने वाले परिवार के नजदीकी लोगों को पैसा भी देता है, ताकि भविष्य में कोई कानूनी अड़चन आने पर वह अपना मुंह बंद रखें।

अपना कथित वंश चलाने के लिए तथाकथित शादी करके लायी जाने वाली लड़कियों में से अधिकांश को लडक़े पैदा और उसके कुछ बड़ा होने पर रजनी की तरह ही ठोकर खाने को घर से बाहर कर दिया जाता है। ये लड़कियां आर्थिक तंगी और अपने मायके के रास्तों के बारे में अनजान होने से मायके भी नहीं लौट पाती हैं। कुछ मायके लौट भी गयी तो गरीब मां-बाप उसके कथित ससुरालियों के खिलाफ कोई कानूनी कार्यवाही नहीं कर पाते।

लड़कियों को कथित ब्याह के लिए खरीदने में मदद करने वाले कई गिरोह भी सक्रिय हैं। ऐसे ही कुछ गिरोहों के लोगों को पिछले दिनों टिहरी, पौड़ी, अल्मोड़ा और चम्पावत में पकड़ा भी जा चुका है, लेकिन रजनी जैसे शर्मनाक घटनाक्रम रुकने का नाम नहीं ले रहे हैं।



पाक्षिक पत्रिका 'जनपक्ष आजकल' से साभार.