Showing posts with label fast. Show all posts
Showing posts with label fast. Show all posts

Jul 4, 2011

राजनीतिक महत्वाकांक्षा के शिकार बाबा रामदेव

बाबा अच्छा-भला योग क्रिया के क्षेत्र में मीडिया, विशेष र टीवी चैनल, की कृपा से देश-विदेश में खूब नाम पैदा करने लगे थे। नाम कमाते-कमाते उन्होंने इसी योग के क्षेत्र से दाम’ भी खूब पैदा किया...

तनवीर जाफरी

संतों की भारतीय राजनीति में सक्रियता कल भी थीआज भी है और संभवत: भविष्य में भी रहेगी। भारतीय संविधान जब देश के किसी भी नागरिक को सक्रिय राजनीति में भाग लेनेमतदान रने तथा चुनाव लडऩे की इजाज़त देता है, तो साधु-संत समाज राजनीति से कैसे  दूर रह सकता है। सत्ता सुख, सरकारी धन दौलत पर ऐशपरस्ती तथा सत्ता शक्ति की तात और इसके रिश्मे राजनीति जैसे पेशे से सीधे तौर पर जुड़े हुए हैं इसलिए अन्य कोई पेशा किसी को  अपनी ओर आकर्षित करे या न करे, राजनीति और इसमें पाया जाने वाला 'ग्लैमर' निश्चित रूप से सभी को अपनी ओर आकर्षित करता है।

भारतीय राजनीति का दुर्भाग्य है कि उसमें शिक्षा-दीक्षापढ़ाई-लिखाई और किसी प्रकार के प्रशिक्षण की कोई आवश्यकता नहीं होती, इसलिए इसमें तमाम ऐसे लोग भी सक्रिय हो जाते हैं जो अनपढ़ तो होते ही हैं साथ ही कई क्षेत्रों में भाग्य आज़माने के बाद भी असफल रहे होते हैं, मगर राजनीति में ऐसे लोग भी सफल होने की उम्मीद रखते हैं। इस सोच का मुख्य कारण है भारतीय राजनीति का मतों पर आधारित होना। 

राजनीतिज्ञ यह जानता है कि देश में साठ से लेर सत्तर फीसदी आबादी अशिक्षित और भोली-भाली है। इस बहुसंख्यक वर्ग को तरह-तरह के प्रलोभन, वादों, आश्वासनों तथा जाति-धर्म, वर्ग या किसी अन्य ताने-बाने में उलझा कर अपनी ओर आकर्षित किया जा सता है। यह सोच भी तमाम नाकारा किस्म के लोगों को न केवल राजनीति में पर्दापण के अवसर उपलब्ध राती है बल्कि इस प्रवृति के लोग राजनीति के क्षेत्र में दम रखते ही बड़े-बड़े सुनहरे सपने भी सजोने लग जाते हैं। बाबा रामदेव के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ है। बाबा अच्छा-भला योग क्रिया  के क्षेत्र में मीडिया विशेषर टीवी चैनलस की कृपा से देश-विदेश में खूब नाम पैदा करने लगे थे। नाम कमाते-कमाते उन्होंने इसी योग के क्षेत्र से दाम भी खूब पैदा किया। बताया जाता है कि रामदेव इसी योग के  चमत्कारस्वरूप तथा योगा जगत से सम्पर्क में आने वाले धनपतियों की दान दक्षिणा से लगभग 11 सौ रोड़ की संपत्ति के स्वामी बन चुके हैं।

क ओर रामदेव योग के क्षेत्र में आगे बढ़ते हुए अपना जनाधार बढ़ाते गए, तो दूसरी ओर आम लोगों की ही तरह देश के लगभग सभी दलों के राजनेता भी रामदेव की ओर खिंच कर आने लगे।  इसका कारण यह था कि उनके योग शिविरों में आने वाले सैड़ों लोगों से राजनेता अपनी हॉबी’ के मुताबि रू-ब-रू होना चाहते थे। सर्वविदित है कि हमारे देश में नेताओं का भीड़ से बहुत गहरा रिश्ता है। भीड़ को संबोधित रने, उसे अपना चेहरा दिखाने तथा उससे संवाद स्थापित करने के लिए नेता तमाम प्रकाके हथकंडे अपना सता है। ऐसे में किसी भी नेता को रामदेव के योगशिविर में जाने से आखिर क्या आपत्ति हो सकती थी, वहां तो भीड़ के दर्शन के साथ हेल्थ केयर टिप्सतो बोनस में प्राप्त होने थे।
बाबा रामदेव ने भी राजनीतिज्ञों से अपने संबंधों का भरपूर लाभ उठाते हुए योग और आयुर्वेद संबंधी साम्राज्य का न केवल राष्ट्रीय, बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक विस्तार किया। इसी दौरान उन्होंने धीरे-धीरे पतंजलि योगपीठदिव्य योग मंदिर, दिव्य फार्मेसी और आगे चलर भारत स्वाभिमान ट्रस्ट नामक संस्थानों व संगठनों की स्थापना र डाली। पर लगता है कि बाबा को लगभग ग्यारह सौ रोड़ रुपये का विशाल साम्राज्य स्थापित करने के बाद भी तसल्ली नहीं हुई और उन्हें ऐसी गलतफहमी पैदा होने लगी कि क्यों न देश की राजनीति को अपने नियंत्रण में लेकर इस देश की सत्ता पर भी नियंत्रण रखा जाए। उन्हें यह भी मुगालता होने लगा कि उनका खुद का व्यक्तित्व ही कुछ निराला है, तभी तो सत्ता और विपक्ष का बड़ा से बड़ा नेता उनके योग शिविर में उनके निमंत्रण पर खिंचा चला आता है।

इस मुगालते ने धीरे-धीरे अहंकार का वह रूप धारण र लिया, जिसने बाबा रामदेव के मुंह से अहंकामें यह तक निलवा दिया, 'जब देश के राष्ट्रपति व प्रधानमंत्री मेरे चरणों में बैठते हों, फिर आखिर मैं क्यों प्रधानमंत्री बनना चाहूंगा।' इतने अहंकार भरे शब्द शायद ही अब तदेश के किसी प्रमुख व्यक्ति या साधु-संत के मुख से निले हों। शायद योग शिविर के नाम पर लाखों लोगों को इकट्ठा करने वाले इस योगगुरु को यह भ्रम भी हो गया होगा कि जो भीड़ उन्हें विश्वविख्यात योगऋषि बना सती है, उसी के कन्धों पर सवार होर वे देश की लोतांत्रिक-राजनीतिक व्यवस्था पर भी ब्ज़ा जमा सते हैं। हो सकता है इसीलिए बाबा रामदेव ने विदेशों से काला धन वापसी का मुद्दा कुछ इस अंदाज़ में उठाया गोया देश में वही अकेले ऐसे व्यक्ति हों जिन्हें विदेशों से काला धन वापस मंगाने की सबसे अधिचिंता हो या देश की जनता ने उन्हें इस काके लिए अधिकृत कर दिया हो।

दरअसल, रामदेव ने आम लोगों को भावनात्मक रूप से अपने साथ जोडऩे की  गरज़ से मुद्दा तो काले धन की वापसी का उठाया, लेकिन धीरे-धीरे वे देश में अपनी राजनीतिक शक्ति को भी तौलने लगे। पिछले संसदीय चुनावों में स्वाभिमान ट्रस्ट द्वारा शत-प्रतिशत मतदान रने की अपील के साथ पूरे देश में तमाम जगहों पर रैलियां भी निकाली गईं। यह सब कार्रवाई केवल नवगठित भारत स्वाभिमान संगठन’ की ज़मीनी हकीकत को मापने तथा इसे प्रचारित रने के लिए की गई थी। मगर राजनीतिक तिड़मबाजि़यों से अनभिज्ञ रामदेव की भारतीय राजनीति के क्षितिज पर चमने की मनोकामना आखिरकार उस समय धराशायी हो गई जब वे रामलीला मैदान से अपने समर्थकों और अनुयायियों को उनके हाल पर छोड़ र स्वयं पुलिस से डर र किसी महिला के कपड़े पहनर भाग निले। पुलिस ने इसी हालत में उनको गिरफ्तार कार लिया।

उनकी दूसरी बड़ी किरकिरी उस समय हुई जब वे नींबू-पानी व शहद ग्रहण करने के बावजूद स्वयं को अनशनकारीबताते रहे। उन्हें सबसे अधिमुंह की तब खानी पड़ी, जब इस तथाथित अनशन को समाप्त रने के लिए भी केंद्र सरकार का कोई प्रतिनिधि उन्हें मनाने नहीं गया। उन्होंने कुछ संतों की गुज़ारिश पर अपनी कोई मांग पूरी हुए तथा किसी सरकारी आश्वासन के बिना नशन तोड़ दिया। अब यही बाबा रामदेव राजनीति से वास्तविक  साक्षात्कार’ होने के पश्चात काले धन की वापसी पर तो कम बोलते दिखाई दे रहे हैं, मगर अब उन्हें लोगों को यह बताना पड़ रहा है कि वे रामलीला मैदान से क्यों भागे, उन्होंने औरतों के कपड़े किन परिस्थितियों में पहने तथा अपना तथाकथित अनशन उन्हें कैसे  तोडऩा पड़ा।

अब वे अपनी धन-सपत्ति तथा तमाम आरोपित अनियमितताओं का जवाब देते फिर रहे हैं। रामलीला मैदान से उनके भेष बदल कर पलायन करने की घटना को भी संत समाज कायरतापूर्ण कार्रवाई बता रहा है जबकि बाबा रामदेव और उनके समर्थक इसे वक्त की ज़रूरत तथा सूझबूझ भरा दम बता रहे हैं। बहरहाल बाबा रामदेव की मुश्किलें निकट भविष्य में खत्म होती दिखाई नहीं दे रही हैं। प्रत्येक आने वाला दिन उनके लिए विशेषकर उनके महत्वाकांक्षी राजनीतिक अस्तित्व के लिए बहुत चुनौतीपूर्ण होने जा रहा है।

ल तक जिस अहंकार से रामदेव ने अन्ना हज़ारे के लिए यह कहा था कि-अन्ना हज़ारे पहले महाराष्ट्र तक सीमित थे उन्हें अपने मंच पर लाकर राष्ट्रीय स्तर पर मैंने उनका परिचय देशवासियों से कराया। जिस अन्ना हज़ारे के जंतर-मंतर पर आयोजित अनशन को बौना करने की गरज़ से उन्होंने अपना रामलीला मैदान का शोआयोजित किया था, अब वही अन्ना अपने भविष्य के कार्यक्रम में रामदेव को अपनी शर्तों के साथ शामिल करने की बात कह रहे हैं। खबर तो यह भी है कि 16 अगस्त के अन्ना हज़ारे प्रस्तावित अनशन में रामदेव से जनता के बीच में बैठ कर अनशन में शरीक होने की बात की जा रही है, न कि मंच सांझा करने की बात। उधर प्रवर्तन निदेशालय बाबा रामदेव द्वारा इकट्ठी की गई 1100 करोड़ की संपत्ति की जांच करने में इस संदेह के कारण लग गया है कि कहीं रामदेव द्वारा फेमा नियमों का उल्लंघन तो नहीं किया गया?

रामदेव के परम सहयोगी बालकृष्ण पर दो पासपार्ट रखने तथा इन पासपोर्ट पर कई विदेशी यात्राएं करने जैसे आरोप लग रहे हैं। कुल मिला कर हम यह कह सकते हैं कि बाबा रामदेव को योग ने तो आसमान पर चढ़ा दिया लेकिन राजनीतिक  महत्वाकांक्षा उन्हें ले डूबी। 

लेखक हरियाणा साहित्य अकादमी के भूतपूर्व सदस्य और राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय मसलों के प्रखर टिप्पणीकार हैं.



Jun 15, 2011

अनशनकारी संत की मौत से फिर खुली सांस्कृतिक राष्ट्रवादियों की पोल


टीवी चैनल्स पर अपनी आभा बिखेरने के शौकीन कई संत तथा सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, रामसेतु, गऊ व गंगा बचाओ जैसे आंदोलनों में अग्रणी भूमिका निभाने वाली भारतीय जनता पार्टी के तमाम नेता भी अपने वोट साधने के उद्देश्य से बाबा रामदेव के आगे-पीछे होते दिखाई दे रहे थे...

निर्मल रानी

स्वामी निगमानंद
हरिद्वार स्थित मातृ सदन के संत स्वामी निगमानंद गंगा नदी की रक्षा का संकल्प निभाते हुए इस दुनिया को अलविदा कह गए। मातृ सदन हरिद्वार स्थित संतों का वह आश्रम है जो समय -समय पर गंगा नदी की स्वच्छता व पवित्रता की खातिर और उसे प्रदूषण व पर्यावरण के दुष्प्रभावों से बचाने के लिए समय-समय पर संघर्ष करता रहता है। मातृ सदन से जुड़े संत मीडिया प्रचारआर्थिक सहायता अथवा राजनैतिक सर्मथन के बिना ही गंगा नदी की स्वच्छता एवं निर्मलता को बरकरार रखने के अभियान में लगे रहते हैं।

यहां के संतों ने गंगा नदी में हो रहे अवैध खनन को रोकने का संकल्प लिया है। जो लोग गत दो तीन दशकों से हरिद्वार, ऋषिकेश तथा गंगा के आसपास के किनारे के क्षेत्रों से इत्तेफाक रखते हैं वे जानते होंगे कि कुछ समय पहले तक गंगा नदी के दोनों ओर स्टोन क्रशर माफिया ने अपने अनगिनत क्रशर लगा रखे थे। यह क्रशर गंगा नदी में बह कर आने वाले तथा नदी के किनारे के पत्थरों को तोड़-पीस कर अपना व्यापार चला रहे थे।

परिणामस्वरूप ऐसे सभी क्षेत्रों में हर समय आकाश में धूल मिट्टी उड़ा करती थी तथा अवैध खनन के कारण गंगा नदी भी अपने प्राकृतिक स्वरूप से अलग होने लगी थी। यह मातृ सदन के संतों के संघर्ष का ही परिणाम था कि उन्होंने अनशन,धरना तथा आमरण अनशन तक करके सरकार व न्यायालय का ध्यान बार-बार इस ओर आकर्षित किया। इसके परिणामस्वरूप तमाम स्टोन क्रेशर बन्द भी कर दिए गए।
लेकिन कुछ ऊंची पहुंच रखने वाले क्रशर मालिक अभी भी अवैध खनन का अपना धंधा जारी रखे हुए थे। इन्हीं क्रशर को बंद कराने के लिए मातृ सदन के संत निगमानंद ने 2008 में आमरण अनशन किया था। 73 दिनों के इस आमरण अनशन के कारण वे उस समय भी कोमा में चले गए थे। उसी समय से उनका शरीर काफी कमज़ोर हो गया था तथा शरीर के कई भीतरी अंगों ने काम करना या तो बंद कर दिया था या कम कर दिया था। लेकिन मानसिक रूप से वे चेतन दिखाई देते थे। अपनी इस अस्वस्थता के बावजूद गंगा रक्षा अभियान का उनका संकल्प बिल्कुल पुख्ता था। 

वर्ष 2008 के अनशन के बाद भी जब गंगा को प्रदूषित करने व क्षति पहुंचाने वाले कई क्रेशर बंद नहीं हुए तो 19 फरवरी 2011 से वे अपनी अस्वस्थता के बावजूद पुन: अनशन पर बैठ गए। उनके जीवन का यह अंतिम गंगा बचाओ आमरण अनशन 27अप्रैल को उस समय समाप्त कराया गया जब उत्तराखंड राज्य की पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। अनशन के 68वें दिन हुई संत निगमानंद की इस गिरफ्तारी का कारण राज्य सरकार द्वारा उनकी जान व स्वास्थ की रक्षा करना बताया गया और उन्हें स्वास्थ लाभ के लिए हरिद्वार के जि़ला अस्पताल में भर्ती कराया गया। जब यहां भी उनका स्वास्थय नहीं सुधरा तब उन्हें देहरादून के जौली ग्रांट स्थित हिमालयन इंस्टिच्यूट हॉस्पिटल में भर्ती करा दिया गया। यहां वे 2 मई 2011 से पुन: कोमा में चले गए। इसी के साथ-साथ उनकी चेतना भी जाती रही।
अस्पताल द्वारा उनके स्वास्थ के संबंध में 4 मई को जारी की गई रिपोर्ट में चिकित्सकों द्वारा इस बात का भी खुलासा किया गया कि उनके शरीर में कुछ ज़हरीले पदार्थ पाए गए हैं। इस रिपोर्ट के बाद मातृ सदन के संतों व उनके समर्थकों को इस बात का संदेह होने लगा कि संत निगमानंद जैसे आमरण अनशनकारी को ज़हर देकर मारने का प्रयास किया जा रहा है। और आखिरकार आमरण अनशन के कारण शरीर में आई कमज़ोरी, चेतन अवस्था का चला जाना तथा शरीर में ज़हरीले पदार्थों का पाया जाना जैसे सिलसिलेवार घटनाक्रमों ने इस महान एवं समर्पित संत को 13 जून को हमसे छीन लिया। यह भी एक अजीब इत्तेफाक है कि संत निगमानंद का निधन जिस हिमालयन इंस्टिच्यूट हॉस्पिटल देहरादून में हुआ उसी अस्पताल में योग गुरु बाबा रामदेव भी अपने विवादित अनशन के परिणामस्वरूप आई कमज़ोरी के चलते भर्ती थे।

रामदेव के उसी अस्पताल में भर्ती रहने के दौरान वहां तथाकथित सांस्कृतिक राष्ट्रवादियों का तांता लगा हुआ था। टी वी चैनल्स पर अपनी आभा बिखेरने के शौकीन कई संत तथा सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, रामसेतुगऊ व गंगा बचाओ जैसे आंदोलनों में अग्रणी भूमिका निभाने वाली भारतीय जनता पार्टी के तमाम नेता भी अपने वोट साधने के उद्देश्य से बाबा रामदेव के आगे-पीछे होते दिखाई दे रहे थे। इनमें से कोई भी साधु-संतकोई भी भाजपाई नेता अथवा उत्तराखंड सरकार का कोई भी प्रतिनिधि संत निगमानंद से मिलने व उन्हें देखने की तकलीफ उठाना नहीं चाह रहा था। 

संतों या नेताओं से क्या शिकवा किया जाए उन्हें देखने व उनकी आवाज़ को बुलंद करने के लिए तो वह मीडिया भी नहीं पहुंचा जोकि उसी अस्पताल के बाहर 24 घंटे डेरा डाले हुए था तथा बाबा रामदेव की सांसें व उनके पल्स रेट गिन रहा था। कुछ लोगों का तो यह भी आरोप है कि हिमालयन हॉस्पिटल में बाबा रामदेव जैसे वीआईपी एवं पांच सितारा अनशनकारी के भर्ती होने की वजह से ही पूरे अस्पताल का ध्यान रामदेव के स्वास्थय की देखभाल की ओर चला गया। इसी कारण तीमारदारी की अवहेलना का शिकार निगमानंद ने दम तोड़ दिया। उस अस्पताल में भर्ती और भी कई मरीज़ों व उनके परिजनों ने इस बात की शिकायत की कि रामदेव के वहां भर्ती होने के कारण उनके मरीज़ों की देखभाल ठीक ढंग से नहीं हो पा रही थी।
संत निगमानंद की मौत ने एक बार फिर कई प्रश्रों को जन्म दे दिया है। पहला सवाल तो यह कि हमारे देश में धर्म रक्षा,गऊ रक्षा, गंगा रक्षा तथा भारतीय राष्ट्रीय संस्कृति की रक्षा करने का दावा करने वाला एक विशेष संगठन तथा राजनैतिक दल जोकि स्वयं को सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का सबसे बड़ा प्रहरी बताता है उसके सदस्यों व प्रतिनिधियों ने गंगा रक्षा का संकल्प लेते हुए स्वयं इस प्रकार के आंदोलन क्यों नहीं किए? दूसरा सवाल यह है कि उत्तराखंड में सत्तारुढ़ भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने गंगा की तथा पर्यावरण की रक्षा के निहित संतों की मांग को मानते हुए तत्काल उन स्टोन क्रेशर तथा खदानों में हो रहे अवैध खनन को बंद क्यों नहीं करायाऔर इन सबसे प्रमुख बात यह कि राज्य के मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल बाबा रामदेव से मिलने जिस समय हिमालयन हॉस्पिटल पहुंचे उस समय भी संत निगमानंद उसी अस्पताल में भर्ती थे तथा अपनी जिन्दगी की अंतिम सांसें गिन रहे थे। 

मुख्यमंत्री निशंक ने रामदेव से तो मुलाकात की, परंतु उसी अस्पताल में भर्ती संत निगमानंद की उन्होंने कोई खबर ही नहीं ली। बात यहीं खत्म हो जाती तो भी गऩीमत था। लेकिन मुख्यमंत्री निशंक ने बाबा रामदेव से मिलने के बाद उनके स्वास्थय को लेकर एक झूठा बवंडर खड़ा करने की कोशिश की। उन्होंने यह तक कह डाला कि स्वामी रामदेव किसी भी समय कोमा में भी जा सकते हैं। उनका रक्तचाप भी बहुत अधिक ऊपर व बहुत अधिक नीचे जा रहा है। जबकि रामदेव की सेहत पर पल-पल नज़र रखने वाले चिकित्सकों ने साफ कर दिया था कि रामदेव के कोमा में जाने जैसी कोई समस्या नहीं है।
कितने आश्चर्य की बात है कि गंगा की रक्षा का संकल्प लिए हुए जो संत उसी अस्पताल में कोमा में जा चुका है तथा अचेत अवस्था में अपनी जिन्दगी की आखरी सांसे ले रहा है उस संत के स्वास्थय, उसके कोमा में जाने तथा उसके आमरण अनशन के कारणों की तो मुख्यमंत्री निशंक को इतनी भी परवाह नहीं कि वह उससे मिलने के लिए अपने बहुमूल्य समय में से कुछ पल निकाल सके। 

रामदेव जैसे राजनैतिक संत से मिलने के लिए तो मुख्यमंत्री हिमालयन अस्पताल तक जा पहुंचे लेकिन जो संत वास्तव में भारतीय संस्कृति का प्रतीक समझी जाने वाली गंगा नदी की रक्षा के संकल्प को लेकर अपनी जान की बाज़ी लगाए बैठा है उससे मिलने का उनके पास कोई समय नहींआखिर यह कैसा सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और साधु-संतों की प्रतिष्ठा, मान-मर्यादा व उनकी गरिमा की रक्षा की यह कैसी बातें?
स्वीर का दूसरा पहलू यह भी बताया जा रहा है कि उत्तराखंड का खनन मफीया प्रदेश की सरकार के साथ अपनी खुली सांठगांठ रखता है। बताया जा रहा है कि इस सांठगांठ के पीछे का कारण भ्रष्टाचार तथा मोटी रिश्वत है। और इसी भ्रष्टाचार के चलते सांस्कृतिक राष्ट्रवादगंगा रक्षा,साधुसंत सम्मान जैसे ढकोसलों और यहां तक कि गंगा को बचाने के लिए दी गई एक त्यागी संत की जान की कुर्बानी तक की अनदेखी कर दी गई। अब तो यह आम लोगों को ही सोचना होगा कि तथाकथित सांस्कृतिक राष्ट्रवादियों का वास्तविक चेहरा क्या है और अपनी राजनैतिक ज़रूरतों के अनुसार जनता को वरगलाने के लिए समय-समय पर यह कैसा रूप धारण करते हैं।



लेखिका उपभोक्ता मामलों की विशेषज्ञ हैं और सामाजिक-राजनीतिक विषयों पर भी लिखती हैं.