प्रधानमंत्री मोदी और मुख्यमंत्री अखिलेश के बीच चले गधा विमर्श के बाद पूरा देश गधों को लेकर संवेदनशील दिखा। टीवी स्टूडियो से लेकर चुनाव मैदान तक में गधे जैसे उपेक्षित जीव को सम्मान मिल रहा है और उसके बरख्स खड़ा होना नेताओं को सौभाग्य का आभास दे रहा है...
अजय प्रकाश
मोदी जी द्वारा खुद को देश का सबसे भरोसमंद गधा घोषित करने के बाद असली गधों और उनके मालिकों को बहुत खुशी हुई है। पर उनका दो टूक कहना है कि जिस गुजराती गधे की तुलना में मोदी जी ने गधा होना स्वीकार किया है, वह किसी काम के नहीं होते, सिर्फ देखने में सुदंर होते हैं बाकि वेल्ले होते हैं।
गाजियाबाद के हिंडन नाले को पार करने के बाद कांशीराम आवास योजना के तहत चारमंजिला कॉलोनियां दिखती हैं। इन कॉलोनियों को बनाने की योजना की स्वीकृति उत्तर प्रदेश की तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती ने दी थी। मकसद था कि गरीबों को शहरी इलाकों में रहने के सस्ते घर मिल सकें।
इन घरों को बनाने में गधों की बहुत बड़ी भूमिका रही है। हरियाणा के झज्जर से आए दारा के मुताबिक, 'गधे पांच मंजिल तक आसानी से चढ़ जाते हैं। इंसानों पर काम पर लगाए जाने के मुकाबले यह बहुत सस्ते भी पड़ते हैं। पर मुश्किल यह है कि हमें 1 महीने काम मिलता है और 4 महीने बैठ कर खाना पड़ता है।'
उनसे हम पूछते हैं कि आपको पता है कि मोदी जी ने खुद को देश का सबसे जिम्मेदार गधा कहा है। यह भी कहा है कि मैं गधों की तरह बिना थके आपके लिए खटता रहता हूं।
बात सुन दारा हंसते हुए कहते हैं, 'हम गरीब लोग हैं, इतनी बड़ी बातें कहां से जान पाएंगे। अपना तो बस यही काम है, लट्ठ लेकर इन गधों को चुगाना।' पर दारा मानते हैं गधे के सबसे बड़ी बात है कि वह थकता नहीं है। उसे आप 24 घंटे खटा लो और सिर्फ आधे घंटे धूल में लोटने को दे दो तो वह फिर अगले 24 घंटे के लिए तैयार हो जायेगा। यहां तक कि उसे कुछ खाने की भी जरूरत नहीं पड़ेगी।
बन रहे मकानों के बीच दारा टीन शेड लगाकर रह रहते हैं। इनके साथ हरियाणा के ही भिवानी जिले के रामपाल प्रजापति भी रहते हैं। उनके पास भी 10 गधे हैं। वह हमें गधों के लगने वाले मेलों के बारे में बताते हैं। वे लोग झज्जर, बागपत आदि क्षेत्रों में लगने वाले गधा मेलों से गधे खरीदते हैं। उनकी प्राथमिकता में छोटे गधे होते हैं जो आसानी से सीढ़ियों पर चढ़ सकें। इस तरह उन्हें गधे सबसे सस्ते पड़ते हैं। मजबूत गधे दूर से सामान ढोने आदि के काम आते हैं।
रामपाल की बात सुन हमारे साथ गए सामाजिक कार्यकर्ता नन्हेलाल रामपाल को दुबारा बताते हैं कि गधों की चर्चा प्रधानमंत्री मोदी ने की है और खुद को गधा कहा है। इस पर रामपाल जोर से हंसते हैं और कहते हैं चलो इसी बहाने गधे चर्चा में आये। लेकिन रामपाल जानना चाहते हैं कि आखिर इतने बड़े आदमी को गधों के सहारे की क्या जरूरत पड़ी और उन्होंने किन गधों की बात की, सभी गधे काम के नहीं होते।
हमारी टीम के साथी जनार्दन चौधरी उन्हें उस पूरे वाकये को बताते हैं कि कैसे उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने गुजरात के गधों पर व्यंग्य किया, जिसके बाद प्रधानमंत्री मोदी ने खुद को गधा कहा और बताया कि मैं जनता का गधा हूँ और बिना थके 24 घंटे देश के लिए खटता रहता हूँ।
यह जानकर गधों के दोनों मालिक बेहद खुश होते हैं।
पर रामपाल प्रजापति बताते हैं कि जिन गधों से मोदी जी अपनी तुलना कर रहे हैं, वह गुजरात के बीड़ यानी जंगल के गधे हैं और वह किसी काम के नहीं होते हैं। मेरे बेटे ने बताया था कि आजकल अमिताभ बच्चन गधों का प्रचार कर रहे हैं। वे वेल्ले होते हैं, वेल्ले। जैसे नीलगायें होती हैं, एकदम वैसे ही। वह सिर्फ दिखने में ही सुदंर दिखते हैं, काम लो तो या फिर वह मर जाएंगे या भाग जाएंगे। प्रधानमंत्री को चाहिए कि वह अपनी तुलना हमारे गधों से करें जो सच में बिना थके काम करते रहते हैं।
इसके बाद गधों के मालिक गधों की चर्चा के बजाय खुद के बारे में बताने लगते हैं। वे कहते हैं, हम गरीब लोग अपने गधों के साथ गधा बनने के लिए हैं ही, पर आप प्रधानमंत्री से कहियेगा कि वह गधा बनने की जगह प्रधानमंत्री ही बने रहें और हमारे और गधों की जिंदगी को बेहतर करने के लिए कुछ करें।
ग़ाज़ियाबाद की सिद्धार्थ विहार योजना को बसाने में गधों बड़ी भूमिका निभाई है। दारा के अनुुसार गधे इंसानों की तरह बड़े सलीके से 5वीं मंजिल तक ईंट, सीमेंट, बालू और बजरी पहुंचाते हैं। एक दिन में 10 गधे और 2 आदमी मिलकर सिर्फ 2 हजार ईंट चढ़ा पाते हैं, जिसके बदले उन्हें 2 हजार मिलता है। 2 हजार में से गधों के खाने-खर्चे के लिए 5 से 6 सौ रुपया आता है और शेष 14-15 सौ में 2 लोगों में बंटवारा होता है।
|
सिराज : लद्धु घोड़े और गधे का अंतर बताते हुए |
दारा के मुताबिक पिछले 4 महीनों से उन्हें मजदूरी नहीं मिली है। इनका कहना है, ठेकेदार टाल देता है कि अधिकारी पेमेंट नहीं कर रहे, अधिकारी कहते हैं सरकार पेमेंट नहीं कर रही। इसलिए आप मोदी जी को हमारी तरफ से राम-राम बोलिएगा और हमारी पेमेंट करा दें, बड़ी कृपा होगी।
वहां से आगे बढ़ने पर हमारी मुलाकात सिराज से होती है। वह दो खच्चरों को चरा रहा है। मगर बातचीत में पता चलता है कि हमारा अनुमान गलत है और वे खच्चर नहीं हैं।
सिराज कहता है, हम लद्धु घोड़े पालते हैं। गदहे नहीं पालते। हाँ, हम गदही जरूर पाल लेते हैं। गदहों के साथ समस्या यह है कि उन्हें अगर गदही दिख गयी फिर वह उसके पीछे-पीछे चल देते हैं। फिर उन्हें ढूंढ़ते रहो।
लद्धु घोड़ों के बारे में सिराज बताता है, ये घोड़ों की नस्ल होती है, जबकि गधे और खच्चर एक नस्ल के हैं। गधों की कीमत इन घोड़ों के मुकाबले आधी होती है। दूसरा हम धोबियों-प्रजापतियों में कहावत भी है, घोड़े अपने लिए कमाते हैं और गधे दूसरों के लिए।
इस अंतर को समझाते हुए सिराज कहता है, गधा किसी भी गदही को देखते ही उसके पीछे भागेगा, उस पर चढ़ेगा। उससे गदही गाभिन होगी पर गदहा तो अपना दम खो देगा। पर लद्धु घोड़ा ऐसा नहीं करता। वह इनकी तरह बेसब्र नहीं होता।
'गधा एक खोज' के बाद यह सोचना हमारे लिए बाकि रह गया था कि मोदी जी को संभवत: गधों के बारे में वह ज्ञान नहीं रहा होगा जो 18 वर्षीय सिराज को इतनी कम उम्र में है। अगर होता फिर वह अपनी तुलना वासनाजन्य बेसब्री के शिकार गधों से करने की जल्दबाजी बिल्कुल न करते।
चूंकि मामला प्रधानमंत्री से जुड़ा था, इसलिए हम इस बात पर और आश्वस्त होने के लिए फिर दोनों गधा मालिकों से मिले। तब उन्होंने भी सिराज की बात पर मोहर लगाते हुए कहा, 'गधों में ये समस्या तो है, गदहियों को देखने के बाद काबू में नहीं आते।'