तैश पोठवारी की कविता
कोई तरंग नहीं दौड़ी थी उसके मन में
देशभक्ति की
इससे पहले उसका बाप उसे गालियां निकाले
उसके निक्कमेपन पर
वो निकल जाता था दौड़ लगाने
खेतों के पास वाली सड़क पर
इस तरह वो फ़ौज में दाखिल हुआ
दो रोटी के टुकड़े और कुछ कमा सकने की एवज में
उसने खाई देशभक्ति की कसम
जहां उससे उसका दिमाग लेकर
उसके हाथ में पकड़ा दी गई बन्दूक
ट्रेनिंग में वह मां बहन की गालियां खाता रहा
अफसर के घर झाड़ू लगाता रहा
अपने परिवार के साथ दो पल बिता सकने की ख्वाहिश को दिल में दफ़न कर
वो खाता रहा धक्के
अपने बिस्तरबंद के साथ
जम्मू, इलाहाबाद, अम्बाला, गुवाहाटी, बंगलौर
जहां भी गया
देशभक्ति के लिए नहीं
अपने और बीवी बच्चों के पेट की खातिर
एक दिन उसे खड़ा कर दिया गया सीमा पर
अपनी ही तरह दिखने वाले
बलि के बकरों के आगे
कसाई के जयकारे लगाना जिनकी मज़बूरी थी
वह मारा गया
अपने घर परिवार से बहुत दूर
मक्कार कसाई की गंदी राजनीति को जिन्दा रखने के लिए
कल 26 जनवरी के दिन
उसकी विधवा जाएगी दिल्ली
बूचड़खाने के मालिक के हाथों
शहीदी का प्रमाणपत्र लाएगी
और सारी उम्र पेंशन के लिए
बैंक की लाइन में धक्के खाएगी
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