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Jun 30, 2017

नोट कर लीजिए नोटबंदी जैसा ही बेमतलब साबित होगा जीएसटी

जीएसटी लागू करने के पीछे आम उपभोक्ता को राहत पहुँचाने की मंशा उतनी नहीं है जितना बड़े कारोबारियों और राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय कॉर्पोरेट घरानों का दबाव.....

पीयूष पंत, वरिष्ठ पत्रकार 
आज रात बारह बजते ही प्रधानमंत्री मोदी संसद भवन के सेन्ट्रल हाल में घंटा बजवाएंगे और एक ऐप के माध्यम से देश के अब तक के सबसे बड़े कर सम्बन्धी सुधार का आगाज़ करेंगे। पूरे देश में समान कर व्यवस्था को लागू करने वाले जीएसटी यानी वस्तु एवं सेवा कर को भारतीय अर्थव्यवस्था और धंधा करने के तरीके में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने वाले कदम के रूप में पेश किया जा रहा है।

ये कितना क्रांतिकारी होगा यह तो आगामी वर्षों (दिनों में नहीं) में ही पता चलेगा, लेकिन जितने गाजे-बाजे के साथ इसकी शुरुआत की जा रही है उसके पीछे छिपा राजनीतिक मन्तव्य साफ़ नज़र आ रहा है। नोटबंदी की ही तरह जीएसटी को भी प्रधानमंत्री मोदी का एक ऐतिहासिक और साहसी निर्णय बताया जा रहा है।
कोशिश एक बार फिर मोदी की छवि को चमकाने की ही हो रही है। नोटबंदी के समय उत्तर प्रदेश का चुनाव सामने था और अब गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश के चुनाव और 2019 का आम चुनाव सामने हैं। सच्चाई तो ये है कि जीएसटी का निर्णय अकेले मोदी का निर्णय नहीं है। जीएसटी लाने की कवायद तो 2003 से ही चालू है और विभिन्न सरकारों के कार्यकाल के दौरान इसे लाये जाने के प्रयास और घोषणाएं होती रही हैं, फिर चाहे वो वाजपेयी की एनडीए सरकार हो या मनमोहन सिंह की दोनों यूपीए सरकारें।
यह भी आम जानकारी है कि इस नई कर व्यवस्था को लागू करने के पीछे आम उपभोक्ता को राहत पहुँचाने की मंशा उतनी नहीं है जितना कि बड़े कारोबारियों और राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय कॉर्पोरेट घरानों का दबाव।
चूंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा उठाये गए हर एक महत्वपूर्ण कदम को अपने प्रशस्ति गान में तब्दील करवा लेने में महारथ रखते हैं, इसीलिये मूलतः विज्ञान भवन में संपन्न होने वाले इस कार्यक्रम के स्थल को बदलवा कर उन्होंने इसे संसद भवन के केंद्रीय कक्ष में स्थानांतरित करवा दिया, ताकि कार्यक्रम के साथ-साथ मोदी को भी अतिरिक्त महत्व मिल सके।
गौरतलब है कि संसद भवन के केंद्रीय कक्ष में अभी तक केवल तीन कार्यक्रम हुए हैं. जब देश आजाद हुआ तब उस आजादी का उत्सव मनाया गया था। फिर 1972 में जब आजादी की सिल्वर जुबली मनाई गई थी। इसके बाद 1997 में आजादी की गोल्डन जुबली पर आधी रात को कार्यक्रम हुआ था। निसंदेह उन तीनों महान आयोजनों की तुलना कर व्यवस्था में सुधार की योजना से नहीं की जा सकती है। कांग्रेस पार्टी की भी यही आपत्ति है।
कुछ लोग इसे मोदी की नासमझी कह सकते हैं, लेकिन मुझे लगता है कि यह सब सप्रयास किया जा रहा है। दरअसल मोदी खुद को भारत का सबसे सफ़ल और लोकप्रिय प्रधानमंत्री साबित करने पर तुले हैं। यही कारण है कि वे अक्सर भारत के प्रथम व लोकप्रिय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के समकक्ष खड़ा होने की जद्दोजहद में दिखाई देते हैं, बल्कि उनकी नक़ल करने की असफल कोशिश करते हुए भी दिखते हैं।
कोई ताज्जुब नहीं होगा कि आज आधी रात प्रधानमंत्री मोदी संसद से सम्बोधन करते हुए पंडित नेहरू के आज़ादी के बाद दिए गए 'ट्रिस्ट विथ डेस्टनी' वाले भाषण की नक़ल उतारते नज़र आएं। आपको शायद याद हो कि प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी जी ने नेहरू स्टाइल में एक-दो बार अपने कोट की जेब में गुलाब का फूल लगाने का प्रयास किया था, लेकिन बाद में उन्हें कोट की जेब में कमल का फूल कढ़वा कर ही काम चलाना पड़ा।
इसी तरह अक्सर मोदी देश विदेश में बच्चों को दुलारने का विशेष ध्यान रखते हैं ताकि केवल पंडित नेहरू को ही बच्चों के चाचा के रूप में न याद किया जाय। वैसे प्रधानमंत्री मोदी की ये खूबी तो है कि वे सफल लोगों की खूबियों को आत्मसात करने में तनिक भी संकोच नहीं करते हैं।
आपको याद होगा कि 2014 के आम चुनाव के प्रचार के दौरान नरेंद्र मोदी अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के जुमले 'येस वी कैन' का धड़ल्ले से इस्तेमाल करते दिखाई दिए थे। याद रहे कि किसी भी प्रधानमंत्री की लोकप्रियता और सफलता इतिहास खुद दर्ज़ करता है, न कि प्यादे और चाटुकार।
जहां तक जीएसटी से होने वाले फायदे की बात है तो वो तो कई वर्षों बाद ही पता चल पायेगा। फिलहाल तो स्तिथि लखनऊ की भूलभुलैय्या जैसी है। हर कोई इसके नफे- नुक़सान को समझने की कोशिश कर रहा है। खुद सरकार के वित्त मंत्री जेटली और शहरी विकास मंत्री वेंकैय्या नायडू यह कह चुके हैं कि जीएसटी के फायदे दीर्घ काल में ही पता चलेंगे, अल्पकाल में तो इससे महंगाई बढ़ने और जीडीपी कम होने की ही संभावना है।
यानी मोदी जी जब तक अति प्रचारित आपके इस कदम से अर्थव्यवस्था को फायदे मिलने शुरू होंगे तब तक छोटे और मझोले व्यापारी कुछ उसी तरह दम तोड़ चुके होंगे जैसे नोटबंदी के बाद छोटे और मझोले किसान।
खबर है कि कल मोदी जी जीएसटी को लेकर दिल्ली में एक रैली निकालेंगे। उम्मीद है अब आपको मेरी बात समझ में आ रही होगी।

Jun 27, 2017

'फखरूद्दीन' जैसा राष्ट्रपति चाहते हैं मोदी, जिसमें न कैबिनेट का हो झामा न अधिका​रियों का हस्तक्षेप

25 जून 1975 को देश पर आपातकाल थोपने वाली कांग्रेसी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के दूसरे रूप माने जाने वाले मोदी कई मामलों में उनकी राह पर आगे बढ़ रहे हैं....

संविधान के नियमों को ताक पर रख इमरजेंसी लगाने के लिए इंदिरा ने एक ऐसे रबर स्टांप राष्ट्रपति फखरूद्दीन अहमद का इस्तेमाल किया था, जो देश पर बेवजह आपातकाल थोपते वक्त राष्ट्रपति कम, प्रधानमंत्री के भक्त अधिक नजर आए थे। मोदी के समक्ष सार्वजनिक तस्वीरों में झुके नजर आ रहे आगामी राष्ट्रपति पद के प्रबल दावेदार रामनाथ कोविंद को देख विश्लेषकों और राजनीतिक टिप्पणीकारों की आम समझदारी बन रही है कि आने वाले समय में मोदी के लिए कोविंद, 'फखरूद्दीन' साबित होंगे।
आपातकाल की पूर्व संध्या पर पढ़िए, समकालीन तीसरी दुनिया के जून 2011 अंक से राष्ट्रपति के नाम प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का अत्यंत गोपनीय पत्र जो राष्ट्रपति कार्यालय की फाइल में मिला था। यह गोपनीय पत्र और शाह आयोग की रिपोर्ट आपको समझने में मदद देगी कि कहीं मोदी के नेतृत्व में चल रही राजनीति और देश को आतापकाल के काले रास्तों की ओर तो नहीं ले जाया जा रहा है?
आदरणीय राष्ट्रपति जी,
जैसा कि कुछ देर पहले आपको बताया गया है कि हमारे पास जो सूचना आयी है उससे संकेत मिलता है कि आंतरिक गड़बड़ी की वजह से भारत की सुरक्षा के लिए गंभीर संकट पैदा हो गया है। यह मामला बेहद जरूरी है। 
मैं निश्चय ही इस मसले को कैबिनेट के समक्ष ले जाती लेकिन दुर्भाग्यवश यह आज रात में संभव नहीं है। इसलिए मैं आप से इस बात की अनुमति चाहती हूं कि भारत सरकार (कार्य संपादन) अधिनियम 1961 संशोधित नियम 12 के अंतर्गत कैबिनेट तक मामले को ले जाने की व्यवस्था से छूट मिल जाय। सुबह होते ही कल मैं इस मामले को सबसे पहले कैबिनेट में ले जाऊंगी। 
इन परिस्थितियों में और अगर आप इससे संतुष्ट हों तो धारा 352-1 के अंतर्गत एक घोषणा किया जाना बहुत जरूरी हो गया है। मैं उस घोषणा का मसौदा आपके पास भेज रही हूं। जैसा कि आपको पता है धरा-353 (3) के अंतर्गत इस तरह के खतरे के संभावित रूप लेने की स्थिति में, जिसका मैंने उल्लेख किया है, धारा-352 (1) के अंतर्गत आवश्यक घोषणा जारी की जा सकती है। 
मैं इस बात की संस्तुति करती हूं कि यह घोषणा आज रात में ही की जानी चाहिए भले ही कितनी भी देर क्यों न हो गयी हो और इस बात की सारी व्यवस्था की जाएगी कि इसे जितनी जल्दी संभव हो सार्वजनिक किया जाएगा। 
आदर सहित
भवदीय
(इंदिरा गांधी)
प्रधानमंत्री, भारत सरकार 
नयी दिल्ली, 25 जून 1975
राष्ट्रपति अहमद द्वारा आपातकाल की घोषणा
संविधान के अनुच्छेद 352 के खंड 1 के अंतर्गत प्राप्त अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए मैं, फखरूद्दीन अली अहमद, भारत का राष्ट्रपति इस घोषणा के जरिए ऐलान करता हूँ कि गंभीर संकट की स्थिति पैदा हो गयी है जिसमें आंतरिक गड़बड़ी की वजह से भारत की सुरक्षा के सामने खतरा पैदा हो गया है। 
नयी दिल्ली, राष्ट्रपति / 25 जून 1975
कैबिनेट से कोई सलाह नहीं, खुफिया विभाग का खुला दुरुपयोग किया था इंदिरा ने 
कैबिनेट सचिव बी.डी. पांडेय को 25-26 जून की रात में लगभग साढ़े चार बजे प्रधानमंत्री निवास से फोन आया जिसमें कहा गया कि सवेरे छह बजे मंत्रिमंडल की एक बैठक होनी है। उन्हें इस बात की हैरानी थी कि 25 और 26 की रात में इतने बड़े पैमाने पर गिरफ्तारी का आदेश किसने और कैसे जारी किया। सामान्य तौर पर इस तरह के सभी निर्देश गृहमंत्रालय के जरिए जारी होते थे और उनके संचार के अपने चैनल थे। 
बी.डी.पांडेय के अनुसार 26 जनवरी 1975 से पहले कैबिनेट की किसी भी बैठक में इसका जिक्र नहीं हुआ था कि देश के हालात इस कदर खराब हो गए हैं कि इमरजेंसी लगाने की जरूरत पड़ रही है। 
इंटेलिजेंस ब्यूरो के डायरेक्टर आत्मा जयराम ने अपने बयान में बताया कि देश में इमरजेंसी लगा दी गयी है। इसकी जानकारी उन्हें 26 जून को अपने दफ्तर जाने के बाद ही हुई। 
भारत सरकार के गृह सचिव एस.एल.खुराना को इसकी जानकारी 26 जून को सवेरे छह बजे उस समय हुई जब उन्हें कैबिनेट मीटिंग की सूचना मिली। वह लगभग साढ़े छह बजे पहुंचे तो उन्होंने देखा कि कैबिनेट की बैठक चल रही थी। 
पूर्व कानून और न्यायमंत्री एच.आर.गोखले को इमरजेंसी लगने की जानकारी पहली बार तब हुई जब 26 जून 1975 को सबेरे वह मंत्रिमंडल की बैठक में भाग लेने पहुंचे। आपातकाल की घोषणा के बारे में न तो उनसे और न उनके मंत्रालय से किसी तरह का सलाह मशविरा किया गया। 
शाह कमीशन की रिपोर्ट ने पाया कि भारत में उस समय कहीं भी ऐसी कोई असाधारण स्थिति नहीं पैदा हुई थी जिसकी वजह से सामाजिक, आर्थिक अथवा कानून की ऐसी समस्या पैदा हुई हो जो आंतरिक इमरजेंसी की घोषणा के लिए बाध्य करे। सरकारी दस्तावेजों से आयोग ने निम्नांकित तथ्यों को जुटाया, 
1. आर्थिक मोर्चे पर किसी भी तरह का खतरा नहीं था। 
2. कानून और व्यवस्था के बारे में हर पखवाड़े आने वाली रपटों से पता चलता है कि सारे देश में स्थिति पूरी तरह नियंत्रण में थी। 
3. इमरजेंसी की घोषणा से एकदम पहले की अवधि पर ध्यान दें तो राज्य सरकारों की ओर से गृहमंत्रालय को कोई भी ऐसी रिपोर्ट प्राप्त नहीं हुई थी जिसमें कानून और व्यवस्था के बिगड़ने का संकेत मिलता हो। 
4. आंतरिक इमरजेंसी लगाने के सिलसिले में 25 जून 1975 से पूर्व गृहमंत्रालय ने किसी भी तरह की योजना नहीं तैयार की थी। 
5. इंटेलिजेंस ब्यूरो ने 12 जून 1975 से लेकर 25 जून 1975 के बीच की अवधि की कोई भी ऐसी रिपोर्ट गृहमंत्रालय को नहीं दी थी जिससे यह आभास हो कि देश की आंतरिक स्थिति इमरजेंसी लगाने की मांग करती है। 
6. गृहमंत्रालय ने प्रधानमंत्री के पास ऐसी कोई रिपोर्ट नहीं दी जिसमें उसने देश की आंतरिक स्थिति पर चिंता प्रकट की हो। 
7. गृह सचिव, कैबिनेट सचिव और प्रधानमंत्री के सचिव जैसे वरिष्ठ अधिकारियों को इमरजेंसी की घोषणा के मुद्दे पर विश्वास में नहीं लिया गया लेकिन प्रधानमंत्री के तत्कालीन अतिरिक्त निजी सचिव आर.के.धवन शुरू से ही इमरजेंसी की घोषणा की तैयारियों में लगे रहे। 
8. गृहमंत्री ब्रह्मानंद रेड्डी की बजाय गृह राज्यमंत्री ओम मेहता को काफी पहले से इस मुद्दे पर विश्वास में लिया गया। केवल कुछ मुख्यमंत्रियों और दिल्ली के लेफ्टिनेंट गर्वनर को इमरजेंसी लगाने के बारे में विश्वास में लिया गया। 
9. दिल्ली के लेफ्टिनेंट गर्वनर और हरियाणा, पंजाब, मध्य प्रदेश, राजस्थान, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्रियों को प्रधानमंत्री द्वारा आंतरिक आपातकाल के अंतर्गत संभावित कार्रवाई की अग्रिम जानकारी दी गयी लेकिन इस तरह की कोई अग्रिम जानकारी उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, तमिलनाडु, जम्मू कश्मीर, त्रिपुरा, उड़ीसा, केरल, मेघालय और केन्द्र शासित प्रदेशों की सरकारों को नहीं दी गयी। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री हेमवती नंदन बहुगुणा ने बताया कि आपातकाल की घोषणा के बारे में उनको 26 जून की सुबह उस समय जानकारी मिली जब वह केंद्रीय मंत्रियों उमाशंकर दीक्षित और केशव देव मालवीय के साथ नाश्ते की मेज पर थे और इस खबर से उन लोगों को भी उतनी ही हैरानी हुई। 
इमरजेंसी का आदेश गृहमंत्रालय से और मंत्रिमंडल सचिवालय के जरिए आना चाहिए 
जैसा कि पहले ही उल्लेख किया जा चुका है प्रधानमंत्री ने राष्ट्रपति को भेजे गए अपने ‘अत्यंत गोपनीय’ पत्र में बताया था कि भारत सरकार (कार्य निष्पादन) अधिनियम 1961 के नियम 12 के अंतर्गत अपने अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए उन्होंने इस निर्णय की सूचना कैबिनेट को नहीं दी है और वह इसका उल्लेख सुबह होते ही सबसे पहले कैबिनेट में करेंगी।
शाह आयोग की सिफारिशें 
खुफिया विभाग का दुरुपयोग
आयोग ने सिफारिश की कि इस बात की पूरी सावधानी बरती जाय और हर तरह के उपाय किए जाएं ताकि खुफिया विभाग को सरकार अथवा सरकार में शामिल किसी व्यक्ति द्वारा अपने निजी हित के लिए राजनीतिक जासूसी के उपकरण के रूप में इस्तेमाल न किया जा सके। इस मुद्दे पर अगर जरूरी हो तो सार्वजनिक बहस चलायी जाए।

May 4, 2017

कश्मीर में उलटी पड़ी असलियत, 7 सालों में सबसे ज्यादा मोदी सरकार में मारे गए सैनिक

प्रधानमंत्री अपने भाषणों में दोहराते रहे हैं कि वह कश्मीर से आतंकवाद का सफाया कर देंगे, पर असलियत कुछ और ही सामने आ रही है। हर रोज सेना और नागरिकों में टकराहट बढ़ रही है, आतंकवादी हमले बढ़ रहे हैं और पत्थरबाजों की बढ़ती संख्या से राज्य में अमन चाहने वाले लोग हलकान में हैं। 

जनज्वार। साउथ एशिया टेरेरिज्म पोर्टल 'एसएटीपी' की रिपोर्ट के अनुसार जम्मू—कश्मीर में 2009 के बाद से सबसे ज्यादा सेना और सुरक्षा बलों के 88 जवान 2016 में मारे गए। वहीं इस वर्ष 2017 में 30 अप्रैल तक 15 जवान मारे जा चुके हैं। 


2016 में पिछले 7 सालों में सबसे ज्यादा सैनिकों का मारा जाना इसलिए भी आश्चर्यजनक है क्योंकि 2016 ही वह साल है जब प्रधानमंत्री मोदी ने तमाम मंचों से कहा कि वह कश्मीर में आतंकवाद का सफाया कर देंगे। नोटबंदी की शुरुआत 8 नवंबर और नोटबंदी का समय खत्म होने के दिन 31 मार्च को प्रधानमंत्री ने कहा कि आतंकवाद खत्म होगा। वैसे में उसी साल का आंकड़ा सबसे ज्यादा होना बताता है कि सरकार और जनता, भाषण और असलियत में फर्क लंबा है। 

इन आंकड़ों से साफ है कि मोदी सरकार जैसे वादे कर रही है वैसे परिणाम देखने को नहीं मिल रहे, अलबत्ता सेना के जवानों की कुर्बानी बढ़ती जा रही है और साथ ही कश्मीर में तनाव भी बढ़ता जा रहा है। 

एसएटीपी के आंकड़ों के अनुसार 1990 से लेकर 2007 के बीच औसत 800 नागरिक हर साल मारे जाते रहे, जो अब कम हो गया है। 2016 में सिर्फ 14 आम ना​गरिक सेना और आतंकियों के हमलों और मुठभेड़ों में मारे गए। 

य​​ह आंकड़़ा इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि बीएसएफ की 200वीं बटालियन के हेड कांस्टेबल प्रेम सागर और सेना के 22वें सिख रेजिमेंट के नायब सूबेदार परमजीत सिंह की पाकिस्तानी सैनिकों द्वारा भारतीय सीमा में घुसकर हत्या कर दिए जाने के बाद सरकार तरह—तरह के वादों से आम जनता को उद्वेलित कर भ्रम में डाल रही है। 

भ्रम की इन स्थितियों के कारण कश्मीर के बाहर की जनता जहां कश्मीरियों को देश को दुश्मन और आतंकियों का दोस्त समझने लगी है तो कश्मीर के व्यापक आवाम में फिर से यह भाव बढ़ता जा रहा है कि भारत हमारा देश नहीं हो सकता। 

यही वजह है कि कश्मीर और घाटी के दूसरे जिलों में राष्ट्रविरोधी नारा लगाने वालों की संख्या दिन—प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। पहले जहां प्रदर्श​नकारियों और पत्थर फेंकने वालों में समाज के ज्यादातर अराजक तत्व या अलगाववादी विचारों शामिल हुआ करते थे, अब 2 महीनों से हो रहे प्रदर्शनों में स्कूली छात्रों और बच्चों व किशारों की संख्या बहुतायत में है।  

वर्ष 1990 से लेकर 2007 के बीच औसत 800 नागरिक हर साल मारे जाते रहे। हालांकि एसएटीपी के आंकड़ों के अनुसार पिछले 7 वर्षों में सबसे कम 14 ना​गरिक भी 2016 में ही मारे गए। इस वर्ष 30 अप्रैल तक आतंकवादी हमलों और मुठभेड़ों में सेना और सुरक्षा बलों के 15 जवान मारे जा चुके हैं। 

पिछले तीन दशकों में 1990 से लेकर 2010 तक कश्मीर में सर्वाधिक हिंसा हुई, पर 2011 इन वर्षों के मुकाबले अधिक शांतिपूर्ण रहा। 

7 वर्षों में  मारे गए सैनिकों  का आंकड़ा

वर्ष              मारे गए सैनिकों की संख्या
2009           78
2010           69 
2011           30 
2012           17
2013           61  
2014           51  
2015           41 
2016           88 
    

Feb 26, 2017

मोदी जी वाले गधे वेल्ले हैं, वेल्ले

प्रधानमंत्री मोदी और मुख्यमंत्री अखिलेश के बीच चले गधा विमर्श के बाद पूरा देश गधों को लेकर संवेदनशील दिखा। टीवी स्टूडियो से लेकर चुनाव मैदान तक में गधे जैसे उपेक्षित जीव को सम्मान मिल रहा है और उसके बरख्स खड़ा होना नेताओं को सौभाग्य का आभास दे रहा है... 




अजय प्रकाश 

मोदी जी द्वारा खुद को देश का सबसे भरोसमंद गधा घोषित करने के बाद असली गधों और उनके मालिकों को बहुत खुशी हुई है। पर उनका दो टूक कहना है ​कि जिस गुजराती गधे की तुलना में मोदी जी ने गधा होना स्वीकार किया है, वह किसी काम के ​नहीं होते, सिर्फ देखने में सुदंर होते हैं बाकि वेल्ले होते हैं। 

गाजियाबाद के हिंडन नाले को पार करने के बाद कांशीराम आवास योजना के तहत चारमंजिला कॉलोनियां दिखती हैं। इन कॉलोनियों को बनाने की योजना की स्वीकृति उत्तर प्रदेश की तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती ने दी थी। मकसद था कि गरीबों को शहरी इलाकों में रहने के सस्ते घर मिल सकें। 

इन घरों को बनाने में गधों की बहुत बड़ी भूमिका रही है। हरियाणा के झज्जर से आए दारा के मुताबिक, 'गधे पांच मंजिल तक आसानी से चढ़ जाते हैं। इंसानों पर काम पर लगाए जाने के मुकाबले यह बहुत सस्ते भी पड़ते हैं। पर मुश्किल यह है कि हमें 1 महीने काम मिलता है और 4 महीने बैठ कर खाना पड़ता है।' 

उनसे हम पूछते हैं कि आपको पता है कि मोदी जी ने खुद को देश का सबसे जिम्मेदार गधा कहा है। यह भी कहा है कि मैं गधों की तरह बिना थके आपके लिए खटता रहता हूं। 

बात सुन दारा हंसते हुए कहते हैं, 'हम गरीब लोग हैं, इतनी बड़ी बातें कहां से जान पाएंगे। अपना तो बस यही काम है, लट्ठ लेकर इन गधों को चुगाना।' पर दारा मानते हैं गधे के सबसे बड़ी बात है कि वह थकता नहीं है। उसे आप 24 घंटे खटा लो और सिर्फ आधे घंटे धूल में लोटने को दे दो तो वह फिर अगले 24 घंटे के लिए तैयार हो जायेगा। यहां तक कि उसे कुछ खाने की भी जरूरत नहीं पड़ेगी। 

बन रहे मकानों के बीच दारा टीन शेड लगाकर रह रहते हैं। इनके साथ हरियाणा के ही ​भिवानी जिले के रामपाल प्रजापति भी रहते हैं। उनके पास भी 10 गधे हैं। वह हमें गधों के लगने वाले मेलों के बारे में बताते हैं। वे लोग झज्जर, बागपत आदि क्षेत्रों में लगने वाले गधा मेलों से गधे खरीदते हैं। उनकी प्राथमिकता में छोटे गधे होते हैं जो आसानी से सीढ़ियों पर चढ़ सकें। इस​ तरह उन्हें गधे सबसे सस्ते पड़ते हैं। मजबूत गधे दूर से सामान ढोने आदि के काम आते हैं।

रामपाल की बात सुन हमारे साथ गए सामाजिक कार्यकर्ता नन्हेलाल रामपाल को दुबारा बताते हैं कि गधों की चर्चा प्रधानमंत्री मोदी ने की है और खुद को गधा कहा है। इस पर रामपाल जोर से हंसते हैं और कहते हैं चलो इसी बहाने गधे चर्चा में आये। लेकिन रामपाल जानना चाहते हैं कि आखिर इतने बड़े आदमी को गधों के सहारे की क्या जरूरत पड़ी और उन्होंने किन गधों की बात की, सभी गधे काम के नहीं होते। 

हमारी टीम के साथी जनार्दन चौधरी उन्हें उस पूरे वाकये को बताते हैं कि कैसे उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने गुजरात के गधों पर व्यंग्य किया, जिसके बाद प्रधानमंत्री मोदी ने खुद को गधा कहा और बताया कि मैं जनता का गधा हूँ और बिना थके 24 घंटे देश के लिए खटता रहता हूँ। 

यह जानकर गधों के दोनों मालिक बेहद खुश होते हैं। 

पर रामपाल प्रजापति बताते हैं कि जिन गधों से मोदी जी अपनी तुलना कर रहे हैं, वह गुजरात के बीड़ यानी जंगल के गधे हैं और वह किसी काम के नहीं होते हैं। मेरे बेटे ने बताया था कि आजकल अमिताभ बच्चन गधों का प्रचार कर रहे हैं। वे वेल्ले होते हैं, वेल्ले। जैसे नीलगायें होती हैं, एकदम वैसे ही। वह सिर्फ दिखने में ही सुदंर दिखते हैं, काम लो तो या फिर वह मर जाएंगे या भाग जाएंगे। प्रधानमंत्री को चाहिए कि वह अपनी तुलना हमारे गधों से करें जो सच में​ बिना थके काम करते रहते हैं। 

इसके बाद गधों के मालिक गधों की चर्चा के बजाय खुद के बारे में बताने लगते हैं। वे कहते हैं, हम गरीब लोग अपने गधों के साथ गधा बनने के लिए हैं ही, पर आप प्रधानमंत्री से कहियेगा कि वह गधा बनने की जगह प्रधानमंत्री ही बने रहें और हमारे और गधों की​ जिंदगी को बेहतर करने के लिए कुछ करें।  

ग़ाज़ियाबाद की सिद्धार्थ विहार योजना को बसाने में गधों बड़ी भूमिका निभाई है। दारा के अनुुसार गधे इंसानों की तरह बड़े सलीके से 5वीं मंजिल तक ईंट, सीमेंट, बालू और बजरी पहुंचाते हैं। एक दिन में 10 गधे और 2 आदमी मिलकर सिर्फ 2 हजार ईंट चढ़ा पाते हैं, जिसके बदले उन्हें 2 हजार मिलता है। 2 हजार में से गधों के खाने-खर्चे के लिए 5 से 6 सौ रुपया आता है और शेष 14-15 सौ में 2 लोगों में बंटवारा होता है। 

सिराज : लद्धु घोड़े और गधे का अंतर बताते हुए
दारा के मुताबिक पिछले 4 महीनों से उन्हें मजदूरी नहीं मिली है। इनका कहना है, ठेकेदार टाल देता है कि अधिकारी पेमेंट नहीं कर रहे, अधिकारी कहते हैं सरकार पेमेंट नहीं कर रही। इसलिए आप मोदी जी को हमारी तरफ से राम-राम बोलिएगा और हमारी पेमेंट करा दें, बड़ी कृपा होगी। 

वहां से आगे बढ़ने पर हमारी मुलाकात सिराज से होती है। वह दो खच्चरों को चरा रहा है। मगर बातचीत में पता चलता है कि हमारा अनुमान गलत है और वे खच्चर नहीं हैं। 

सिराज कहता है, हम लद्धु घोड़े पालते हैं। गदहे नहीं पालते। हाँ, हम गदही जरूर पाल लेते हैं। गदहों के साथ समस्या यह है कि उन्हें अगर गदही दिख गयी फिर वह उसके पीछे-पीछे चल देते हैं। फिर उन्हें ढूंढ़ते रहो। 

लद्धु घोड़ों के बारे में सिराज बताता है, ये घोड़ों की नस्ल होती है, जबकि गधे और खच्चर एक नस्ल के हैं। गधों की कीमत इन घोड़ों के मुकाबले आधी होती है। दूसरा हम धोबियों-प्रजापतियों में कहावत भी है, घोड़े अपने लिए कमाते हैं और गधे दूसरों के लिए।  

इस अंतर को समझाते हुए सिराज कहता है, गधा किसी भी गदही को देखते ही उसके पीछे भागेगा, उस पर चढ़ेगा। उससे गदही गाभिन होगी पर गदहा तो अपना दम खो देगा। पर लद्धु घोड़ा ऐसा नहीं करता। वह इनकी तरह बेसब्र नहीं होता।

'गधा एक खोज' के बाद यह सोचना हमारे लिए बाकि रह गया था कि मोदी जी को संभवत: गधों के बारे में वह ज्ञान नहीं रहा होगा जो 18 वर्षीय सिराज को इतनी कम उम्र में है। अगर होता फिर वह अपनी तुलना वासनाजन्य बेसब्री के शिकार गधों से करने की जल्दबाजी बिल्कुल न करते।

चूंकि मामला प्रधानमंत्री से जुड़ा था, इसलिए हम इस बात पर और आश्वस्त होने के लिए फिर दोनों गधा मालिकों से मिले। तब उन्होंने भी सिराज की बात पर मोहर लगाते हुए कहा, 'गधों में ये समस्या तो है, गदहियों को देखने के बाद काबू में नहीं आते।'