प्रधानमंत्री अपने भाषणों में दोहराते रहे हैं कि वह कश्मीर से आतंकवाद का सफाया कर देंगे, पर असलियत कुछ और ही सामने आ रही है। हर रोज सेना और नागरिकों में टकराहट बढ़ रही है, आतंकवादी हमले बढ़ रहे हैं और पत्थरबाजों की बढ़ती संख्या से राज्य में अमन चाहने वाले लोग हलकान में हैं।
जनज्वार। साउथ एशिया टेरेरिज्म पोर्टल 'एसएटीपी' की रिपोर्ट के अनुसार जम्मू—कश्मीर में 2009 के बाद से सबसे ज्यादा सेना और सुरक्षा बलों के 88 जवान 2016 में मारे गए। वहीं इस वर्ष 2017 में 30 अप्रैल तक 15 जवान मारे जा चुके हैं।
2016 में पिछले 7 सालों में सबसे ज्यादा सैनिकों का मारा जाना इसलिए भी आश्चर्यजनक है क्योंकि 2016 ही वह साल है जब प्रधानमंत्री मोदी ने तमाम मंचों से कहा कि वह कश्मीर में आतंकवाद का सफाया कर देंगे। नोटबंदी की शुरुआत 8 नवंबर और नोटबंदी का समय खत्म होने के दिन 31 मार्च को प्रधानमंत्री ने कहा कि आतंकवाद खत्म होगा। वैसे में उसी साल का आंकड़ा सबसे ज्यादा होना बताता है कि सरकार और जनता, भाषण और असलियत में फर्क लंबा है।
इन आंकड़ों से साफ है कि मोदी सरकार जैसे वादे कर रही है वैसे परिणाम देखने को नहीं मिल रहे, अलबत्ता सेना के जवानों की कुर्बानी बढ़ती जा रही है और साथ ही कश्मीर में तनाव भी बढ़ता जा रहा है।
एसएटीपी के आंकड़ों के अनुसार 1990 से लेकर 2007 के बीच औसत 800 नागरिक हर साल मारे जाते रहे, जो अब कम हो गया है। 2016 में सिर्फ 14 आम नागरिक सेना और आतंकियों के हमलों और मुठभेड़ों में मारे गए।
यह आंकड़़ा इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि बीएसएफ की 200वीं बटालियन के हेड कांस्टेबल प्रेम सागर और सेना के 22वें सिख रेजिमेंट के नायब सूबेदार परमजीत सिंह की पाकिस्तानी सैनिकों द्वारा भारतीय सीमा में घुसकर हत्या कर दिए जाने के बाद सरकार तरह—तरह के वादों से आम जनता को उद्वेलित कर भ्रम में डाल रही है।
भ्रम की इन स्थितियों के कारण कश्मीर के बाहर की जनता जहां कश्मीरियों को देश को दुश्मन और आतंकियों का दोस्त समझने लगी है तो कश्मीर के व्यापक आवाम में फिर से यह भाव बढ़ता जा रहा है कि भारत हमारा देश नहीं हो सकता।
यही वजह है कि कश्मीर और घाटी के दूसरे जिलों में राष्ट्रविरोधी नारा लगाने वालों की संख्या दिन—प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। पहले जहां प्रदर्शनकारियों और पत्थर फेंकने वालों में समाज के ज्यादातर अराजक तत्व या अलगाववादी विचारों शामिल हुआ करते थे, अब 2 महीनों से हो रहे प्रदर्शनों में स्कूली छात्रों और बच्चों व किशारों की संख्या बहुतायत में है।
वर्ष 1990 से लेकर 2007 के बीच औसत 800 नागरिक हर साल मारे जाते रहे। हालांकि एसएटीपी के आंकड़ों के अनुसार पिछले 7 वर्षों में सबसे कम 14 नागरिक भी 2016 में ही मारे गए। इस वर्ष 30 अप्रैल तक आतंकवादी हमलों और मुठभेड़ों में सेना और सुरक्षा बलों के 15 जवान मारे जा चुके हैं।
पिछले तीन दशकों में 1990 से लेकर 2010 तक कश्मीर में सर्वाधिक हिंसा हुई, पर 2011 इन वर्षों के मुकाबले अधिक शांतिपूर्ण रहा।
7 वर्षों में मारे गए सैनिकों का आंकड़ा
वर्ष मारे गए सैनिकों की संख्या
2009 78
2010 69
2011 30
2012 17
2013 61
2014 51
2015 41
2016 88
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