May 5, 2017

'माओवादियों ने राजनीति के लिए सबसे निरीह लोगों को चुना'

वरिष्ठ पत्रकार शुभ्रांशु चौधरी ने माओवादी प्रवक्ता को लिखा खुला खत, कहा आपने बस्तर के आदिवासी को लड़ना सिखाया, इसके लिए इतिहास आपको साधुवाद देगा पर अब आदिवासियों के कंधों पर बंदूक लादना बंद करो...पढ़िए पूरा पत्र



 प्रिय वासु 

पिछले हफ्ते बहुत दिन बाद आपकी आवाज़ सुनकर अछा लगा. आपने माओवादी प्रवक्ता की तरह किसी अज्ञात स्थान से एक ऑडियो विकल्प के नाम से भेजा. पहले तो लग रहा था वह ​किसी और की आवाज़ है पर धीरे धीरे स्पष्ट होता गया कि वह आपकी ही आवाज़ है. हो सकता है वह आपकी आवाज़ न हो. न विकल्प आपका सही नाम है और न वासु, पर आपके आंदोलन के 50वीं वर्षगाँठ पर कुछ बात आपसे करना ज़रूरी हैं।

पिछले दिनों 26 जवानों को एक हमले में मारकर आपका आंदोलन एक बार फिर देश में चर्चा में है. आपने अपने ऑडियो संदेश में कहा है कि सुरक्षा बल के जवानों के द्वारा पिछले दिनों आम आदिवासी पर किये गए “पाशविक अत्याचार” का बदला लेने के लिए आपकी पार्टी ने यह हमला किया. 50 की उम्र सिर्फ इस तरह के हमले और प्रतिहमले के लिए ही होती है?

आप और हम एक दूसरे को अब लगभग 30 साल से जानते हैं। एक पत्रकार की तरह आप माओवादी आंदोलन में मेरे पहले संपर्क सूत्र थे. एक राजनीतिज्ञ की तरह आपके जज्बे और समर्पण को मैं अब भी सलाम करता हूँ, आप सभी बहुत मेहनती हैं, पर आपकी यह मेहनत आपको, आपकी राजनीति को और आपका साथ देने वाले आदिवासियों को कहाँ लेकर जा रही है? 

आपके बड़े नेता मुझे कहते हैं कि अगले 50 साल में पूंजीवाद अपने ही बोझ तले ध्वस्त हो जाएगा तब आपकी राजनीति एक विकल्प की तरह सामने होगी। यह एक बेहद विवादास्पद सोच है. उस समय तक आप और मैं दोनों नहीं होंगे, पर जिन आदिवासियों के कंधे पर बंदूक रखकर आप यह प्रयोग कर रहे हैं वे कहाँ होगे? क्या वे आपकी जनताना सरकार के कब्ज़े में पूंजीवादी व्यवस्था से बेहतर स्थिति में होंगे? 

आप एक नव लोकतांत्रिक क्रांति के लिए लड़ रहे हैं. आप कहते हैं उसके बाद समाजवाद आएगा और उसके भी बाद कम्यूनिज्म और यह सब आप आम जनता की भलाई के लिए कर रहे हैं। दुनिया में बेहतर लोकतंत्र के लिए तरह-तरह के प्रयोग हो रहे हैं. वे प्रयोग भी अधिक सफल नहीं हैं, पर मुझे लगता है तकनीक की मदद से किए जा रहे कुछ प्रयोग आपके प्रयोग से तो अधिक आशा जगाते हैं।
 
आपके बड़े नेता आज भी फ्रांस की क्रांति के युग में ही जी रहे हैं और उसके ही सपने बेच रहे हैं. फ्रांस में इस समय कई चरण में चुनाव हो रहे हैं और बेहद असमंजस की स्थिति है, वहां जनता को नवफासीवाद और नवउदारवाद के बीच ही चुनाव करना है. पर वहां इस पर खासी बहस हो रही है और आशा है इन सब जददोजहद के बीच पूरी मानव जाति के लिए धीरे धीरे बेहतर रास्ते निकलेंगे कि हमारी राजनीति कैसी होनी चाहिए।
 
आपने अपनी राजनीति के लिए जंगल की खामोशी, लुका-छुपी और दुनिया के सबसे निरीह लोग को चुना है जहां बहस की गुंजाइश लगभग शून्य है। आज 50 साल बाद भी आदिवासी और महिला आपकी सर्वोच्च समितियों में नहीं हैं। जब हम जैसे उच्च वर्ग के लोग आपकी पार्टी में आने लगभग बंद हो गए हैं और जब आपके सभी उम्रदराज़ नेता थोड़े साल में एक के बाद एक मर जाएंगे तब पार्टी का दिशा निर्धारण कौन करेगा? या आप आदिवासियों को गंभीरता से सुनना शुरू करेंगे?

हमने सुना है सुकमा हमले के बाद 100 से अधिक स्थानीय आदिवासियों पर मुकदमा दर्ज हुआ है। आशंका है कि जैसे ही मेहमान पत्रकारों का दल वहां से हटेगा, उन पर फिर से अकथ्य अत्याचार शुरू होंगे और फलस्वरूप आपकी ताकत और बढ़ेगी और आप फिर से एक और बड़ा हमला करेंगे। हमारी तरफ तो कल्पनाशीलता को जैसे कैंसर हो गया है, पर आप सोचने—समझने वाले तथाकथित क्रांतिकारियों की सोच को लकवा मारा हुआ है?

सरकार की गलत नीतियों के कारण बस्तर के आदिवासी आपके वहां आने के 10 साल बाद आप से जुड़ना शुरू हुए थे और जहां तक मेरी जानकारी है, अब वे आपका साथ छोड़ने का मन बना रहे हैं. माओ देवता के पोंगापंथी पुजारी और आपके अधिकतर दाम्भिक और भ्रष्ट बड़े नेताओं से तो मुझे कोई आशा नहीं है, पर आप जैसे मध्यम दर्जे के नक्सली नेता इस बारे में क्या सोचते हैं? क्या आप आदिवासियों को अपना रास्ता चुनने का मौक़ा देंगे?

आपने बस्तर के आदिवासी को लड़ना सिखाया, इसके लिए इतिहास आपको साधुवाद देगा, पर जब आज आपका आंदोलन कहीं आगे बढ़ता नज़र नहीं आता तो इस 50 साल की जददोजहद के बाद जिन लोगों ने आपका सबसे अधिक साथ दिया या उनके लिए कुछ हासिल करना एक बेहतर राजनीतिक उद्देश्य नहीं लगता? लिट्टे का उदाहरण सामने है. 72 की तरह ही, शहर को घेरने के बजाय आप एक बार फिर से घिरते नज़र आ रहे हैं।

आपका 99 फीसदी आदिवासी कैडर अपने जल, जंगल, जमीन और स्वाभिमान की लड़ाई लड़ रहा है जो अधिकार इस देश के संंविधान के तहत उनको दिए हुए हैं। क्या आप अपनी ताकत में समझ जोड़कर कुछ ऐसा नहीं कर सकते कि इसी सड़ी-गली व्यवस्था में जनतांत्रिक तकनीक की मदद से भारत के अच्छे लोगों को जोड़कर एक ऐसी संख्या बनाई जाए कि भारत का लोकतंत्र उसके बहुसंख्य गरीबो की बेहतरी के लिए काम करे? यह बंदूक लेकर लड़ने से अधिक कठिन काम है।

मेरे एक संगीतज्ञ मित्र थे जब उनको किसी साथी कलाकार की बुराई करनी होती थी तो वे कहते थे “वह बहुत मेहनती है”| जाहिर है सिर्फ मेहनत से अच्छा संगीत नहीं तैयार होता। इतनी विषम परिस्थितियों भी आप बड़े—बड़े हमले करने की क्षमता रखते हैं, इससे घोर असहम​ति के बावजूद आपकी मेहनत काबिल-ए-तारीफ है, पर कुछ कालजयी करने के लिए मेहनत के साथ सोच जरूरी होती है। ये ठीक है कि कॉमरेड कभी नहीं थकता, पर थोड़ा आराम करो वासु और अपने आदिवासी कॉमरेड के साथ थोड़ी और बात करो, बेहतर रास्ता वे ही सुझाएंगे...

 ( लेखक ने छत्तीसगढ़ के माओवादियों पर “उसका नाम वासु नहीं” नाम से एक किताब लिखी है जो माओवादी कार्यकर्ता वासु के जीवन पर आधारित है ) 

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