कुल सीटें 403.
हर सीट पर औसत प्रत्याशियों की संख्या 17 से 20.
इनमें से जीतने के लिए लड़ते हैं कम से कम 5.
जीतने के लिए लड़ने वाले प्रत्याशियों में प्रति प्रत्याशी औसत खर्च 2 करोड़ यानी 10 करोड़ लगाकर लड़ते हैं 5 प्रत्याशी.
शेष 10 से 15 प्रत्याशी निपट लेते हैं 5 करोड़ में.
यानी कुल मिलाकर एक विधानसभा में सभी प्रत्याशियों ने मिलकर खर्च किया 15 करोड़. 15 करोड़ को 403 सीटों से गुणा करते हैं तो उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव का खर्च सिर्फ प्रत्याशियों के लिए 6045 करोड़ बैठता है. पर विधानसभा पहुंचा एक और मंत्री बना औसत 60 में से एक. विधानसभा त्रिशंकु हो गयी, तो फिर मातम ही सहारा। राष्ट्रपति शासन लग गया तो चौतरफा नुकसान. यानी रिस्क बहुत बड़ा और लाभ के खेल में सिर्फ कोई एक शामिल.
तीन बार विधायक और दो बार मंत्री रह चुके नेता ने जब चुनावी खर्चे का हिसाब सिलसिलेवार सुना दिया तो आखिर मुझसे पूछा, ''क्या यह खर्चा किसी को ईमानदार रहने देगा. अगर आप कह रहे हैं कि हम लूट का प्रतिनिधित्व करते हैं तो क्या कोई एक विधायक 5 साल में 15 करोड़ लूट पाता है? नहीं न। फिर फायदे में कौन रहा नेता या नेता को बनाने वाले.''
मंत्री आगे बोले, ''भारत में नेता बनाया जाता है, कोई नेता बनता नहीं है. आसपास के लोग आपको लाभ लायक समझते हैं, वही नेता बनाते हैं नहीं तो बहारकर फेंक देते हैं. राहुल गांधी नेतागिरी नहीं करना चाहते, उनको शउर भी नहीं पर लट्ठ लेकर उनसे नेतागिरी करवाई जा रही है, क्योंकि करवाने वाले जानते हैं वह लाभ लायक हैं. रही बात ईमानदारी से चुनाव लड़ने की तो पूरे प्रदेश में सामान्य सीट पर कोई एक प्रत्याशी बताइए जो करोड़पति न हो और मुकाबले में हो। सिर्फ एक सीट पर.''
मंत्री आखिर में बोले, ''चुनाव में ईमानदारी की बात करना भी एक बाजार है. बेईमानी से वसूली का बाजार। क्या नाम बताउं, मेरे एक मित्र हैं. उनसे मैंने राजनीति का पाठ पढ़ा. वह भी चुनाव लड़े, पर कभी जीते नहीं. एक बार संयोग से मैं और वो दोनों एक ही विधानसभा से खड़े हुए. हम दोनों उस बार हार गए, पर एक राज की बात कहूं, मैंने अपना वोट उन्हीं को दिया था।''
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