क्या कभी सुना कि वनों को बचाने के लिए प्रयासरत लोगों को प्रशासन की ओर से पुरस्कार देने की बजाय उनके नाम वारंट जारी किया गया हो? हैरानी इसलिए भी कि यह घटना तब हुई, जब देश को आजाद हुए तीन दशक से भी ज्यादा समय बीत चुका था....
देहरादून से मनु मनस्वी
‘पर्यावरण बचाओ’, ‘जंगल बचाओ’ की पीपनी बजाकर टीआरपी बटोरने वाले अपने इंडिया में अब तक पर्यावरण संरक्षण के नाम पर काम कम और शोशेबाजी ही ज्यादा हुई है। हकीकत में काम उतना नजर नहीं आता, जितना होना चाहिए था। हां, पर्यावरण के कुछ कथित ठेकेदारों ने इसकी आड़ में तमाम पुरस्कारों से अपने ड्राइंगरूम जरूर गुलजार कर लिए।
इस देश की व्यवस्था ही ऐसी है कि जो न हो जाए, कम है। पर्यावरण संरक्षण के नाम पर अनाप-शनाप तमगे बटोरकर रातों-रात स्टार बनने वाले तथाकथित ठेकेदारों ने भले ही पर्यावरण बचाने के नाम पर कोरी नौटंकी भर की हो, लेकिन इसकी बदौलत वे सरकारी सम्मान और जरूरी सुविधाएं तो हासिल कर ही लेते हैं, बाकी देश और पर्यावरण जाए भाड़ में, इन्हें कोई मतलब नहीं।
वन, पर्यावरण और गंगा सफाई ऐसे सदाबहार मुद्दे हैं, जो इन ठेकेदारों के लिए रोजगार का जरिया बने हुए हैं। इन्हीं मुद्दों से उनकी रोजी रोटी चल रही है। दुर्भाग्य से इन सबमें पीछे रह जाते हैं पर्यावरण संरक्षण के वे सच्चे सिपाही, जिन्हें न तो कभी किसी पुरस्कार की ख्वाहिश रही, न ही किसी तारीफ की।वे तो बस निस्वार्थ भाव से अपना काम करते रहे।
इन्हीं लोगों के निस्वार्थ त्याग का नतीजा था कि देश में नया वन अधिनियम प्रकाश में आ सका। हालांकि आज भी अवैध रूप से वनों का कटान जारी है, किंतु वन अधिनियम के अस्तित्व में आ जाने से वन माफिया पर कुछ अंकुश तो लगा ही है, जो ब्रिटिशकालीन राज की वन नीति में नहीं था। वहां तो वन माफिया को अवैध कटान की खुली छूट राजस्व के नाम पर सरकार ने खुद दे रखी थी।
गौरतलब है कि उत्तराखंड के जंगलों को वन माफिया से बचाने के लिए 1970 की शुरुआत में गढ़वाल के ग्रामीणों ने अहिंसात्मक तरीके से एक अनूठी पहल करते हुए पेड़ों से चिपककर हजारों-हजार पेड़ों को कटने से बचाया। यह अनूठा आंदोलन ‘चिपको आंदोलन’ नाम से प्रसिद्ध हुआ था। यह आंदोलन वर्तमान उत्तराखंड के चमोली जिले के हेंवलघाटी से गौरा देवी के नेतृत्व में शुरु होकर टिहरी से लेकर उत्तर प्रदेश के कई गांवों में इस कदर फैला कि इसने वन माफिया की नींद उड़ा दी।
इस आंदोलन में महिलाओं ने बढ़ चढ़कर भाग लिया। आलम यह था कि कहीं भी किसी जंगल में वनों के कटने की खबर मिलती तो गांव की महिलाएं पेड़ों को बचाने के लिए आगे आ जातीं। वे न वन माफिया का विरोध करतीं और न उनसे उलझतीं। बस पेड़ों से चिपककर खड़ी हो जातीं। अब निहत्थी महिलाओं पर आरी कैसे चलाई जा सकती थी। सो हर बार वन माफिया खाली हाथ लौट जाते। धीरे-धीरे वन माफिया के हौसले पस्त होते गए और चिपको आंदोलन परवान चढ़ता रहा।
यह वो दौर था, जब अंग्रेजों के समय बनाई गई वन नीति ही देश में लागू थी। देश का अपना वन अधिनियम प्रकाश में नहीं आया था। वन उपज से राजस्व के नाम पर पुरानी वन नीति वन माफिया के अनुकूल थी, जिसकी आड़ लेकर वन माफिया धड़ल्ले से वनों के कटान में लगे हुए थे और जो भी उनकी राह में आता, उसे इसका दंड भुगतना पड़ता।
ऐसा ही एक मामला जनवरी 1978 का है। सुंदरलाल सकलानी नामक एक ठेकेदार ने वर्ष 1978 में वन विभाग उत्तरप्रदेश से 95 हजार रुपए में लाॅट संख्या 40 सी/77-78 शिवपुरी रेंज टिहरी गढ़वाल में चीड़ आदि के करीब 671 पेड़ काटने का ठेका लिया।
17 जनवरी 1978 को जब ठेकेदार के मजदूरों द्वारा कटान कार्य की भनक ग्रामीणों को लगी, तब चिपको आंदोलन से जुड़े कार्यकर्ताओं ने पेड़ों से चिपककर इस कटान का विरोध किया। ग्रामीणों के क्रोध और अपना नुकसान होता देख ठेकेदार सुंदरलाल सकलानी ने चिपको आंदोलनकारियों को धमकी दी, लेकिन वे पेड़ न कटने देने की अपनी जिद पर अड़े रहे।
अंततः कटान कार्य में बाधा पड़ती देख ठेकेदार ने कटान रोक तो दिया, परंतु इसकी शिकायत तत्कालीन मजिस्ट्रेट नरेन्द्रनगर से की, जिस पर मजिस्ट्रेट ने ऐसा वारंट जारी किया, जिस पर आश्चर्य तो होता ही है, बल्कि यह ब्रिटिशकालीन राज की तानाशाही की भी याद दिलाता था। साथ ही यह उस समय प्रचलित वन नीति के अस्तित्व पर सवाल भी खड़े करता था कि आखिर यह वन नीति किसके लिए बनाई गई थी?
अपने हक की लकड़ी पाने तक के लिए गिड़गिड़ाते ग्रामीणों के लिए ब्रिटिशकालीन वन नीति किसी सजा से कम नहीं थी। वह भी तक, जबकि ग्रामीण वृक्षों को अपने पुत्र की तरह समझकर उन्हें सहेजते थे।
बहरहाल, ठेकेदार सुंदरलाल सकलानी की शिकायत के बाद मजिस्ट्रेट ने इस घटना में आरोपी पांच व्यक्तियों रामराज बडोनी पुत्र श्री सत्यप्रसाद बडोनी, ग्राम साबली, टिहरी गढ़वाल, दयाल सिंह पुत्र श्री हरि सिंह, निवासी पाली गांव, कुंवर सिंह उर्फ कुंवर प्रसून पुत्र श्री गबर सिंह, निवासी कुड़ी गांव, जीवानंद श्रीयाल पुत्र श्री शंभूलाल, ग्राम जखन्याली व धूम सिंह पुत्र बेलम सिंह, निवासी पिपलैथ नरेन्द्रनगर के विरुद्ध वारंट जारी कर प्रत्येक पर एक हजार रुपए का जुर्माना लगाया।
कारण बताते हुए वारंट में लिखा गया कि दोषियों द्वारा ठेकेदार का विरोध कर सरकारी काम में बाधा पहुंचाई गई, जिससे ठेकेदार और मजदूरों के बीच आपसी रंजिश बढ़ रही है और किसी भी समय शांति भंग होने की आशंका है।
इस अजीबोगरीब और अपनी तरह के इकलौते वारंट के जारी होने के बाद पांचों आरोपी भूमिगत हो गए और प्रशासन की पकड़ में नहीं आए। उस समय एक हजार रुपए का जुर्माना बड़ी रकम थी। ये सभी तथाकथित आरोपी प्रशासन की आंखों से बचते हुए लगातार चिपको आंदोलन को परवान चढ़ाते रहे और अहिंसात्मक रूप से वनों को बचाने के अपने मिशन पर लगे रहे।
इनमें से कुंवर प्रसून और रामराज बडोनी ने तो बाद में पत्रकारिता के माध्यम से भी इस आंदोलन को परवान चढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका भी निभाई। इसी वर्ष इस घटना के बाद उत्तराखंड की वीरांगनाओं ने जन आंदोलन के इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ा, जब अनेकों महिलाओं समेत पर्यावरण के हितैषियों ने 9 फरवरी 1978 को नरेन्द्रनगर टाउनहाॅल में टिहरी वृत के वनों की हो रही नीलामी के खिलाफ अहिंसात्मक तरीके से प्रदर्शन किया।
प्रदर्शनकारी ढोल, नगाड़े व थालियां बजाते हुए 8 फरवरी की शाम को ही नरेन्द्रनगर पहुंच गए। अहिंसात्मक तरीके से चल रहा यह प्रदर्शन प्रशासन को बर्दाश्त नहीं हुआ और सुबह पांच बजे प्रदर्शनकारियों को घसीटकर सड़क पर फेंक दिया गया। प्रदर्शनकारियों ने भी हार नहीं मानी और ठिठुरती सुबह ठंडी सड़क पर भजन-कीर्तन करते रहे।
आंदोलनकारियों का कहना था कि जब नैनीताल, अल्मोड़ा, कोटद्वार और देहरादून में वनों की नीलामी नहीं हुई तो टिहरी वृत के वनों को ‘वैज्ञानिक दोहन’ के नाम पर क्यों नीलाम किया जा रहा है? उनकी मांग थी कि वन नीति में परिवर्तन किए जाने तक नीलामी रोक दी जाए।
सत्ता तक अपनी आवाज पहुंचाने के लिए महिलाओं के नेतृत्व में लोगों ने शांतिपूर्ण ढंग से प्रतिकार करते हुए पुलिस का घेरा तोड़कर नीलामी हाॅल में प्रवेश किया। इस अहिंसात्मक प्रदर्शन से घबराकर अधिकारी ने 9 तारीख को नीलामी स्थगित कर आश्वासन दिया कि अगले दिन 10 तारीख को अगली नीलामी की घोषणा की जाएगी। आश्वासन के बाद सत्याग्रही हाॅल में ही बैठकर वन चेतना के गीत गाने लगे और अगले दिन का इंतजार करने लगे।
आधी रात को जब सत्याग्रही नींद के आगोश में थे, तो अचानक पुलिस दल ने घेरा डालकर सबको गिरफ्तार कर लिया। आंदोलनकारियों का आरोप था कि कुछ महिलाओं के साथ अभद्रता भी की गई। तीन घंटे तक नरेन्द्रनगर थाने के बाहर ट्रक में ठूंसे रखने के बाद पौने पांच बजे के करीब उन्हें टिहरी जेल पहुंचाया गया।
गिरफ्तार किए गए 23 आंदोलनकारियों में से नौ महिलाएं थीं और इन सभी में से अधिकांश हेंवलघाटी के थे, जो चिपको आंदोलन का प्रमुख केन्द्र रहा। इन महिलाओं में थीं गोरी देवी, पिंगला देवी, ज्ञानदेई देवी, मीमी देवी, पारो देवी, मुस्सी देवी, सुदेशा, श्यामा देवी एवं जानकी देवी थीं, जबकि अन्य थे दयाल सिंह, रामराज बडोनी, आलोक उपाध्याय, विजय जरधारी, जगदंबा कोठियाल, उपेन्द्र दत्त, हुक्म सिंह, दयाल सिंह, प्रताप शिखर, वचन सिंह, धूम सिंह, कुंवर प्रसून, सोबन सिंह तथा गिरवीर सिंह।
इस सूची में उन पांच में से चार आंदोलनकारी भी सम्मिलित थे, जिनके नाम वह अजीबोगरीब वारंट जारी हुआ था। इस घटना ने ब्रिटिशकालीन जुल्मोसितम की यादें ताजा कर दी थीं। इस घटना के संबंध में हेंवलघाटी वन सुरक्षा समिति जाजल द्वारा एक विज्ञप्ति भी जारी की गई थी।
इन दो घटनाओं ने उस समय पूरे देश को झकझोरकर रख दिया और अखबारों में ये खबरें प्रमुखता से प्रकाशित हुईं। आखिरकार तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार ने इस पर संज्ञान लिया और नतीजा यह हुआ कि देश को नया वन अधिनियम प्राप्त हुआ।
जिन पांच लोगों के नाम वारंट जारी किया गया था उन्हें न तो किसी सरकार ने तवज्जो दी और न ही कभी उनकी सुध ही ली गई। इन सत्याग्रहियों को भले ही सरकार से कुछ न मिला हो, परंतु उन्हें इस बात की खुशी है कि उनके प्रयासों से देश में नया वन अधिनियम अस्तित्व में आ सका, जिसके लिए वे संघर्षरत थे।
हालांकि उन्हें इस बात का मलाल भी है कि कई ऐसे लोगों को पर्यावरण के नाम पर पुरस्कारों से नवाजा गया है, जो धरातल पर कहीं नहीं ठहरते और जिन लोगों ने वनों के लिए अपना सर्वस्व दांव पर लगा दिया, वे गुमनामी में जीने को मजबूर हैं।
जिस गौरा देवी ने चिपको आंदोलन के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया, उनके गांव के हालात अब भी जस के तस हैं। यहां तक कि उनके बारे में विस्तृत जानकारी तक उपलब्ध नहीं है, जबकि सोशल मीडिया के जरिये कई तथाकथित पर्यावरणविदों ने अपनी उपलब्धियों को बढ़ा-चढ़ाकर बखान किया और जमकर उसका लाभ हासिल किया।
इन आंदोलनकारियों में से एक ऋषिकेश स्थित शीशमझाड़ी में रह रहे रामराज बडोनी का कहना है कि सरकार को वनों के विषय में जानकारी रखने वाले ऐसे आंदोलनकारियों से अवश्य समय-समय पर राय लेते रहनी चाहिए, जिन्होंने जीवन भर वनों के बीच ही गुजारा है।
केवल एअरकंडीशंड कमरों में बैठकर पर्यावरण की सुरक्षा की कल्पना करना ही बेमानी है। लेकिन यहां तो ‘घर की मुर्गी दाल बराबर’ वाली स्थिति है। बाहर से आकर पर्यावरण विद सरकार को बताते हैं कि प्रदेश के वनों को बचाने के लिए क्या करना है। यह बेहद दुखद है।
बहरहाल, दुखद है कि उत्तर प्रदेश से अलग होने के बाद वन संपदा से समृद्ध उत्तराखंड में वनों का अवैध कटान जारी है। राज्य में वन तस्कर बेखौफ होकर वनों को नंगा कर रहे हैं और महकमा अपने निठल्लेपन का ठीकरा एक दूसरे पर फोड़कर ही खुश है। महकमे और माफिया की मिलीभगत के चलते हर वर्ष सैकड़ों-हजारों अच्छे भले पेड़ों की बलि ले ली जाती है।
सबूत मिटाने के लिए पेड़ों के ठूंठ तक का नामोनिशां मिटा दिया जाता है और जनता व प्रशासन की आंखों में धूल झोंकने के लिए वनाग्नि का हवाला देकर काले कारनामों पर पर्दा डाल दिया जाता है। यदि राज्य सरकार प्रदेश के वनों को बचाने में सफल हो पाती है तो ही वनों के लिए संघर्षरत इन सत्याग्रहियों का संघर्ष सफल कहा जाएगा।