Jul 1, 2017

जब वन संरक्षण के लिए जारी हुआ वारंट



क्या कभी सुना कि वनों को बचाने के लिए प्रयासरत लोगों को प्रशासन की ओर से पुरस्कार देने की बजाय उनके नाम वारंट जारी किया गया हो? हैरानी इसलिए भी कि यह घटना तब हुई, जब देश को आजाद हुए तीन दशक से भी ज्यादा समय बीत चुका था....
देहरादून से मनु मनस्वी
‘पर्यावरण बचाओ’, ‘जंगल बचाओ’ की पीपनी बजाकर टीआरपी बटोरने वाले अपने इंडिया में अब तक पर्यावरण संरक्षण के नाम पर काम कम और शोशेबाजी ही ज्यादा हुई है। हकीकत में काम उतना नजर नहीं आता, जितना होना चाहिए था। हां, पर्यावरण के कुछ कथित ठेकेदारों ने इसकी आड़ में तमाम पुरस्कारों से अपने ड्राइंगरूम जरूर गुलजार कर लिए।

इस देश की व्यवस्था ही ऐसी है कि जो न हो जाए, कम है। पर्यावरण संरक्षण के नाम पर अनाप-शनाप तमगे बटोरकर रातों-रात स्टार बनने वाले तथाकथित ठेकेदारों ने भले ही पर्यावरण बचाने के नाम पर कोरी नौटंकी भर की हो, लेकिन इसकी बदौलत वे सरकारी सम्मान और जरूरी सुविधाएं तो हासिल कर ही लेते हैं, बाकी देश और पर्यावरण जाए भाड़ में, इन्हें कोई मतलब नहीं।
वन, पर्यावरण और गंगा सफाई ऐसे सदाबहार मुद्दे हैं, जो इन ठेकेदारों के लिए रोजगार का जरिया बने हुए हैं। इन्हीं मुद्दों से उनकी रोजी रोटी चल रही है। दुर्भाग्य से इन सबमें पीछे रह जाते हैं पर्यावरण संरक्षण के वे सच्चे सिपाही, जिन्हें न तो कभी किसी पुरस्कार की ख्वाहिश रही, न ही किसी तारीफ की।वे तो बस निस्वार्थ भाव से अपना काम करते रहे।
इन्हीं लोगों के निस्वार्थ त्याग का नतीजा था कि देश में नया वन अधिनियम प्रकाश में आ सका। हालांकि आज भी अवैध रूप से वनों का कटान जारी है, किंतु वन अधिनियम के अस्तित्व में आ जाने से वन माफिया पर कुछ अंकुश तो लगा ही है, जो ब्रिटिशकालीन राज की वन नीति में नहीं था। वहां तो वन माफिया को अवैध कटान की खुली छूट राजस्व के नाम पर सरकार ने खुद दे रखी थी।
गौरतलब है कि उत्तराखंड के जंगलों को वन माफिया से बचाने के लिए 1970 की शुरुआत में गढ़वाल के ग्रामीणों ने अहिंसात्मक तरीके से एक अनूठी पहल करते हुए पेड़ों से चिपककर हजारों-हजार पेड़ों को कटने से बचाया। यह अनूठा आंदोलन ‘चिपको आंदोलन’ नाम से प्रसिद्ध हुआ था। यह आंदोलन वर्तमान उत्तराखंड के चमोली जिले के हेंवलघाटी से गौरा देवी के नेतृत्व में शुरु होकर टिहरी से लेकर उत्तर प्रदेश के कई गांवों में इस कदर फैला कि इसने वन माफिया की नींद उड़ा दी।
इस आंदोलन में महिलाओं ने बढ़ चढ़कर भाग लिया। आलम यह था कि कहीं भी किसी जंगल में वनों के कटने की खबर मिलती तो गांव की महिलाएं पेड़ों को बचाने के लिए आगे आ जातीं। वे न वन माफिया का विरोध करतीं और न उनसे उलझतीं। बस पेड़ों से चिपककर खड़ी हो जातीं। अब निहत्थी महिलाओं पर आरी कैसे चलाई जा सकती थी। सो हर बार वन माफिया खाली हाथ लौट जाते। धीरे-धीरे वन माफिया के हौसले पस्त होते गए और चिपको आंदोलन परवान चढ़ता रहा।
यह वो दौर था, जब अंग्रेजों के समय बनाई गई वन नीति ही देश में लागू थी। देश का अपना वन अधिनियम प्रकाश में नहीं आया था। वन उपज से राजस्व के नाम पर पुरानी वन नीति वन माफिया के अनुकूल थी, जिसकी आड़ लेकर वन माफिया धड़ल्ले से वनों के कटान में लगे हुए थे और जो भी उनकी राह में आता, उसे इसका दंड भुगतना पड़ता।
ऐसा ही एक मामला जनवरी 1978 का है। सुंदरलाल सकलानी नामक एक ठेकेदार ने वर्ष 1978 में वन विभाग उत्तरप्रदेश से 95 हजार रुपए में लाॅट संख्या 40 सी/77-78 शिवपुरी रेंज टिहरी गढ़वाल में चीड़ आदि के करीब 671 पेड़ काटने का ठेका लिया।
17 जनवरी 1978 को जब ठेकेदार के मजदूरों द्वारा कटान कार्य की भनक ग्रामीणों को लगी, तब चिपको आंदोलन से जुड़े कार्यकर्ताओं ने पेड़ों से चिपककर इस कटान का विरोध किया। ग्रामीणों के क्रोध और अपना नुकसान होता देख ठेकेदार सुंदरलाल सकलानी ने चिपको आंदोलनकारियों को धमकी दी, लेकिन वे पेड़ न कटने देने की अपनी जिद पर अड़े रहे।
अंततः कटान कार्य में बाधा पड़ती देख ठेकेदार ने कटान रोक तो दिया, परंतु इसकी शिकायत तत्कालीन मजिस्ट्रेट नरेन्द्रनगर से की, जिस पर मजिस्ट्रेट ने ऐसा वारंट जारी किया, जिस पर आश्चर्य तो होता ही है, बल्कि यह ब्रिटिशकालीन राज की तानाशाही की भी याद दिलाता था। साथ ही यह उस समय प्रचलित वन नीति के अस्तित्व पर सवाल भी खड़े करता था कि आखिर यह वन नीति किसके लिए बनाई गई थी?
अपने हक की लकड़ी पाने तक के लिए गिड़गिड़ाते ग्रामीणों के लिए ब्रिटिशकालीन वन नीति किसी सजा से कम नहीं थी। वह भी तक, जबकि ग्रामीण वृक्षों को अपने पुत्र की तरह समझकर उन्हें सहेजते थे।
बहरहाल, ठेकेदार सुंदरलाल सकलानी की शिकायत के बाद मजिस्ट्रेट ने इस घटना में आरोपी पांच व्यक्तियों रामराज बडोनी पुत्र श्री सत्यप्रसाद बडोनी, ग्राम साबली, टिहरी गढ़वाल, दयाल सिंह पुत्र श्री हरि सिंह, निवासी पाली गांव, कुंवर सिंह उर्फ कुंवर प्रसून पुत्र श्री गबर सिंह, निवासी कुड़ी गांव, जीवानंद श्रीयाल पुत्र श्री शंभूलाल, ग्राम जखन्याली व धूम सिंह पुत्र बेलम सिंह, निवासी पिपलैथ नरेन्द्रनगर के विरुद्ध वारंट जारी कर प्रत्येक पर एक हजार रुपए का जुर्माना लगाया।
कारण बताते हुए वारंट में लिखा गया कि दोषियों द्वारा ठेकेदार का विरोध कर सरकारी काम में बाधा पहुंचाई गई, जिससे ठेकेदार और मजदूरों के बीच आपसी रंजिश बढ़ रही है और किसी भी समय शांति भंग होने की आशंका है।
स अजीबोगरीब और अपनी तरह के इकलौते वारंट के जारी होने के बाद पांचों आरोपी भूमिगत हो गए और प्रशासन की पकड़ में नहीं आए। उस समय एक हजार रुपए का जुर्माना बड़ी रकम थी। ये सभी तथाकथित आरोपी प्रशासन की आंखों से बचते हुए लगातार चिपको आंदोलन को परवान चढ़ाते रहे और अहिंसात्मक रूप से वनों को बचाने के अपने मिशन पर लगे रहे।
इनमें से कुंवर प्रसून और रामराज बडोनी ने तो बाद में पत्रकारिता के माध्यम से भी इस आंदोलन को परवान चढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका भी निभाई। इसी वर्ष इस घटना के बाद उत्तराखंड की वीरांगनाओं ने जन आंदोलन के इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ा, जब अनेकों महिलाओं समेत पर्यावरण के हितैषियों ने 9 फरवरी 1978 को नरेन्द्रनगर टाउनहाॅल में टिहरी वृत के वनों की हो रही नीलामी के खिलाफ अहिंसात्मक तरीके से प्रदर्शन किया।
प्रदर्शनकारी ढोल, नगाड़े व थालियां बजाते हुए 8 फरवरी की शाम को ही नरेन्द्रनगर पहुंच गए। अहिंसात्मक तरीके से चल रहा यह प्रदर्शन प्रशासन को बर्दाश्त नहीं हुआ और सुबह पांच बजे प्रदर्शनकारियों को घसीटकर सड़क पर फेंक दिया गया। प्रदर्शनकारियों ने भी हार नहीं मानी और ठिठुरती सुबह ठंडी सड़क पर भजन-कीर्तन करते रहे।
आंदोलनकारियों का कहना था कि जब नैनीताल, अल्मोड़ा, कोटद्वार और देहरादून में वनों की नीलामी नहीं हुई तो टिहरी वृत के वनों को ‘वैज्ञानिक दोहन’ के नाम पर क्यों नीलाम किया जा रहा है? उनकी मांग थी कि वन नीति में परिवर्तन किए जाने तक नीलामी रोक दी जाए।
सत्ता तक अपनी आवाज पहुंचाने के लिए महिलाओं के नेतृत्व में लोगों ने शांतिपूर्ण ढंग से प्रतिकार करते हुए पुलिस का घेरा तोड़कर नीलामी हाॅल में प्रवेश किया। इस अहिंसात्मक प्रदर्शन से घबराकर अधिकारी ने 9 तारीख को नीलामी स्थगित कर आश्वासन दिया कि अगले दिन 10 तारीख को अगली नीलामी की घोषणा की जाएगी। आश्वासन के बाद सत्याग्रही हाॅल में ही बैठकर वन चेतना के गीत गाने लगे और अगले दिन का इंतजार करने लगे।
आधी रात को जब सत्याग्रही नींद के आगोश में थे, तो अचानक पुलिस दल ने घेरा डालकर सबको गिरफ्तार कर लिया। आंदोलनकारियों का आरोप था कि कुछ महिलाओं के साथ अभद्रता भी की गई। तीन घंटे तक नरेन्द्रनगर थाने के बाहर ट्रक में ठूंसे रखने के बाद पौने पांच बजे के करीब उन्हें टिहरी जेल पहुंचाया गया।
गिरफ्तार किए गए 23 आंदोलनकारियों में से नौ महिलाएं थीं और इन सभी में से अधिकांश हेंवलघाटी के थे, जो चिपको आंदोलन का प्रमुख केन्द्र रहा। इन महिलाओं में थीं गोरी देवी, पिंगला देवी, ज्ञानदेई देवी, मीमी देवी, पारो देवी, मुस्सी देवी, सुदेशा, श्यामा देवी एवं जानकी देवी थीं, जबकि अन्य थे दयाल सिंह, रामराज बडोनी, आलोक उपाध्याय, विजय जरधारी, जगदंबा कोठियाल, उपेन्द्र दत्त, हुक्म सिंह, दयाल सिंह, प्रताप शिखर, वचन सिंह, धूम सिंह, कुंवर प्रसून, सोबन सिंह तथा गिरवीर सिंह।
इस सूची में उन पांच में से चार आंदोलनकारी भी सम्मिलित थे, जिनके नाम वह अजीबोगरीब वारंट जारी हुआ था। इस घटना ने ब्रिटिशकालीन जुल्मोसितम की यादें ताजा कर दी थीं। इस घटना के संबंध में हेंवलघाटी वन सुरक्षा समिति जाजल द्वारा एक विज्ञप्ति भी जारी की गई थी।
इन दो घटनाओं ने उस समय पूरे देश को झकझोरकर रख दिया और अखबारों में ये खबरें प्रमुखता से प्रकाशित हुईं। आखिरकार तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार ने इस पर संज्ञान लिया और नतीजा यह हुआ कि देश को नया वन अधिनियम प्राप्त हुआ।
जिन पांच लोगों के नाम वारंट जारी किया गया था उन्हें न तो किसी सरकार ने तवज्जो दी और न ही कभी उनकी सुध ही ली गई। इन सत्याग्रहियों को भले ही सरकार से कुछ न मिला हो, परंतु उन्हें इस बात की खुशी है कि उनके प्रयासों से देश में नया वन अधिनियम अस्तित्व में आ सका, जिसके लिए वे संघर्षरत थे।
हालांकि उन्हें इस बात का मलाल भी है कि कई ऐसे लोगों को पर्यावरण के नाम पर पुरस्कारों से नवाजा गया है, जो धरातल पर कहीं नहीं ठहरते और जिन लोगों ने वनों के लिए अपना सर्वस्व दांव पर लगा दिया, वे गुमनामी में जीने को मजबूर हैं।
जिस गौरा देवी ने चिपको आंदोलन के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया, उनके गांव के हालात अब भी जस के तस हैं। यहां तक कि उनके बारे में विस्तृत जानकारी तक उपलब्ध नहीं है, जबकि सोशल मीडिया के जरिये कई तथाकथित पर्यावरणविदों ने अपनी उपलब्धियों को बढ़ा-चढ़ाकर बखान किया और जमकर उसका लाभ हासिल किया।
इन आंदोलनकारियों में से एक ऋषिकेश स्थित शीशमझाड़ी में रह रहे रामराज बडोनी का कहना है कि सरकार को वनों के विषय में जानकारी रखने वाले ऐसे आंदोलनकारियों से अवश्य समय-समय पर राय लेते रहनी चाहिए, जिन्होंने जीवन भर वनों के बीच ही गुजारा है।
केवल एअरकंडीशंड कमरों में बैठकर पर्यावरण की सुरक्षा की कल्पना करना ही बेमानी है। लेकिन यहां तो ‘घर की मुर्गी दाल बराबर’ वाली स्थिति है। बाहर से आकर पर्यावरण विद सरकार को बताते हैं कि प्रदेश के वनों को बचाने के लिए क्या करना है। यह बेहद दुखद है।
बहरहाल, दुखद है कि उत्तर प्रदेश से अलग होने के बाद वन संपदा से समृद्ध उत्तराखंड में वनों का अवैध कटान जारी है। राज्य में वन तस्कर बेखौफ होकर वनों को नंगा कर रहे हैं और महकमा अपने निठल्लेपन का ठीकरा एक दूसरे पर फोड़कर ही खुश है। महकमे और माफिया की मिलीभगत के चलते हर वर्ष सैकड़ों-हजारों अच्छे भले पेड़ों की बलि ले ली जाती है।
सबूत मिटाने के लिए पेड़ों के ठूंठ तक का नामोनिशां मिटा दिया जाता है और जनता व प्रशासन की आंखों में धूल झोंकने के लिए वनाग्नि का हवाला देकर काले कारनामों पर पर्दा डाल दिया जाता है। यदि राज्य सरकार प्रदेश के वनों को बचाने में सफल हो पाती है तो ही वनों के लिए संघर्षरत इन सत्याग्रहियों का संघर्ष सफल कहा जाएगा।

ऐसे 'बहादुर’, 'चरित्रवान’ और 'देशभक्त’ थे गांधी के हत्यारे



नाथूराम एक टपोरी किस्म का व्यक्ति था जिसे कतिपय हिंदू उग्रवादियों ने गांधी की हत्या के लिए भाडे पर रखा हुआ था। जेल में उसकी चिकित्सा रपटों से पता चलता है कि उसका मस्तिष्क अधसीसी के रोग से ग्रस्त था...
अनिल जैन, वरिष्ठ पत्रकार
महात्मा गांधी के हत्यारे गिरोह के सरगना नाथूराम गोडसे को महिमामंडित करने के जो प्रयास इन दिनों किए जा रहे हैं, वे नए नहीं हैं। गोडसे का संबंध राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से बताया जाता रहा है और इसीलिए गांधीजी की हत्या के बाद देश के तत्कालीन गृह मंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने संघ पर प्रतिबंध लगा दिया था।

हालांकि संघ गोडसे से अपने संबंधों को हमेशा नकारता रहा है और अपनी इस सफाई को पुख्ता करने के लिए वह गोडसे को गांधी का हत्यारा भी मानता है और उसके कृत्य को निंदनीय करार भी देता है। लेकिन सवाल उठता है कि आखिर क्या वजह है कि केंद्र में भारतीय जनता पार्टी के सत्तारूढ होने के बाद ही गोडसे को महिमामंडित करने का सिलसिला तेज हो गया?
इस सिलसिले में एकाएक उसका मंदिर बनाने के प्रयास शुरू हो गए। उसकी 'जयंती’ और 'पुण्यतिथि’ मनाई जाने लगी। उसे 'चिंतक’ और यहां तक कि 'स्वतंत्रता सेनानी’ और 'शहीद’ भी बताया जाने लगा। सवाल है कि तीन साल पहले केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार बनने के साथ ही गोडसे भक्तों के इस पूरे उपक्रम के शुरू होने को क्या महज संयोग माना जाए या कि यह सबकुछ किसी सुविचारित योजना के तहत हो रहा है?
गांधी के जिस हत्यारे को इस तरह महिमामंडित किया जा रहा है, उसके बारे में यह जानना दिलचस्प है कि वह गांधी की हत्या से पहले तक क्या था? क्या वह चिंतक था, ख्याति प्राप्त राजनेता था, हिंदू महासभा का जिम्मेदार पदाधिकारी या स्वतंत्रता सेनानी था?
दरअसल नाथूराम गोडसे कभी भी इतनी ऊचाइयों के दूर-दूर तक भी नहीं पहुंच पाया था। पुणे शहर के उसके मोहल्ले सदाशिव पेठ के बाहर उसे कोई नहीं जानता था, जबकि तब वह चालीस वर्ष की आयु के समीप था। नाथूराम स्कूल से भागा हुआ छात्र था। नूतन मराठी विद्यालय में मिडिल की परीक्षा में फेल हो जाने पर उसने पढ़ाई छोड दी थी। उसका मराठी भाषा का ज्ञान कामचलाऊ था। अंग्रेजी का ज्ञान होने का तो सवाल ही नहीं उठता।
उसके पिता विनायक गोडसे डाकखाने में बाबू थे, जिनकी मासिक आय पांच रुपए थी। नाथूराम अपने पिता का लाडला था क्योंकि उसके पहले जन्मे उनके सभी पुत्र मर गए थे। इसीलिए अंधविश्वास के वशीभूत होकर मां ने नाथूराम की परवरिश बेटी की तरह की। उसे नाक में नथ पहनाई जिससे उसका नाम नाथूराम हो गया। उसकी आदतें और हरकतें भी लडकियों जैसी हो गई।
नाथूराम के बाद उसके माता-पिता को तीन और पुत्र पैदा हुए थे जिनमें एक था गोपाल, जो नाथूराम के साथ गांधी-हत्या में सह अभियुक्त था। नाथूराम की युवावस्था किसी खास घटना अथवा विचार के लिए नहीं जानी जाती। उस समय उसके हमउम्र लोग भारत में क्रांति का अलख जगा रहे थे, जेल जा रहे थे, शहीद हो रहे थे। स्वाधीनता संग्राम की इस हलचल से नाथूराम का जरा भी सरोकार नहीं था।
अपने नगर पुणे में वह रोजी-रोटी के ही जुगाड में लगा रहता था। इस सिलसिले में उसने सांगली शहर में दर्जी की दुकान खोल ली थी। उसके पहले वह बढ़ई का काम भी कर चुका था और फलों का ठेला भी लगा चुका था।
पुणे में मई 191० में जन्मे नाथूराम के जीवन की पहली खास घटना थी सितम्बर 1944 में जब हिंदू महासभा के नेता लक्ष्मण गणेश थट्टे ने सेवाग्राम में धरना दिया था। उस समय महात्मा गांधी भारत के विभाजन को रोकने के लिए मोहम्मद अली जिन्ना से वार्ता करने मुंबई जाने वाले थे। चौतीस वर्षीय नाथूराम थट्टे के सहयोगी प्रदर्शनकारियों में शरीक था। उसका इरादा खंजर से बापू पर हमला करने का था, लेकिन आश्रमवासियों ने उसे पकड लिया था।
उसके जीवन की दूसरी बडी घटना थी एक वर्ष बाद यानी 1945 की, जब ब्रिटिश वायसराय ने भारत की स्वतंत्रता पर चर्चा के लिए राजनेताओं को शिमला आमंत्रित किया था। तब नाथूराम पुणे की किसी अनजान पत्रिका के संवाददाता के रूप मे वहां उपस्थित था।
गांधीजी की हत्या के बाद जब नाथूराम के पुणे स्थित आवास तथा मुंबई में उसके के घर पर छापे पडे थे तो मारक अस्त्रों का भंडार पकडा गया था जिसे उसने हैदराबाद के निजाम पर हमला करने के नाम पर बटोरा था। यह अलग बात है कि इन असलहों का उपयोग कभी नहीं किया गया। मुंबई और पुणे के व्यापारियों से अपने हिंदू राष्ट्र संगठन के नाम पर नाथूराम ने बेशुमार पैसा जुटाया था जिसका उसने कभी कोई लेखा-जोखा किसी को नहीं दिया।
उपरोक्त सभी तथ्यों का बारीकी से परीक्षण करने पर निष्कर्ष यही निकलता है कि अत्यंत कम पढा-लिखा नाथूराम एक टपोरी किस्म का व्यक्ति था जिसे कतिपय हिंदू उग्रवादियों ने गांधी की हत्या के लिए भाडे पर रखा हुआ था। जेल में उसकी चिकित्सा रपटों से पता चलता है कि उसका मस्तिष्क अधसीसी के रोग से ग्रस्त था। यह अडतीस वर्षीय बेरोजगार, अविवाहित और दिमागी बीमारी से त्रस्त नाथूराम किसी भी मायने में सामान्य मन:स्थिति वाला व्यक्ति नहीं था।
उसने गांधीजी की हत्या का पहला प्रयास 2०जनवरी, 1948 को किया था। अपने सहयोगी मदनलाल पाहवा के साथ मिलकर नई दिल्ली के बिडला भवन पर बम फेंका था, जहां गांधीजी दैनिक प्रार्थना सभा कर रहे थे। बम का निशाना चूक गया था। पाहवा पकड़ा गया था, मगर नाथूराम भागने में सफल होकर मुंबई में छिप गया था।
दस दिन बाद वह अपने अधूरे काम को पूरा करने करने के लिए फिर दिल्ली आया था। नाथूराम को उसके प्रशंसक एक धर्मनिष्ठ हिंदू के तौर पर भी प्रचारित करते रहे हैं लेकिन तीस जनवरी की ही शाम की एक घटना से साबित होता कि नाथूराम कैसा और कितना धर्मनिष्ठ था। गांधीजी पर पर तीन गोलियां दागने के पूर्व वह उनका रास्ता रोककर खडा हो गया था।
पोती मनु ने नाथूराम से एक तरफ हटने का आग्रह किया था क्योंकि गांधीजी को प्रार्थना के लिए देरी हो गई थी। धक्का-मुक्की में मनु के हाथ से पूजा वाली माला और आश्रम भजनावाली जमीन पर गिर गई थी। लेकिन नाथूराम उसे रौंदता हुआ ही आगे बढ गया था 2०वीं सदी का जघन्यतम अपराध करने।
जो लोग नाथूराम गोडसे से जरा भी सहानुभूति रखते हैं उन्हें इस निष्ठुर हत्यारे के बारे में एक और प्रमाणित तथ्य पर गौर करना चाहिए। गांधीजी को मारने के दो सप्ताह पहले नाथूराम ने काफी बडी राशि का अपने जीवन के लिए बीमा करवा लिया था ताकि उसके पकडे और मारे जाने पर उसका परिवार आर्थिक रूप से लाभान्वित हो सके।
एक कथित ऐतिहासिक मिशन को लेकर चलने वाला व्यक्ति बीमा कंपनी से हर्जाना कमाना चाहता था। अदालत में मृत्युदंड से बचने के लिए नाथूराम के वकील ने दो चश्मदीद गवाहों के बयानों में विरोधाभास का सहारा लिया था। उनमें से एक ने कहा था कि पिस्तौल से धुआं नहीं निकला था। दूसरे ने कहा था कि गोलियां दगी थी और धुआं निकला था। नाथूराम के वकील ने दलील दी थी कि धुआं नाथूराम की पिस्तौल से नहीं निकला, अत: हत्या किसी और की पिस्तौल से हो सकती है। माजरा कुछ मुंबइयां फिल्मों जैसा रचने का एक भौंडा प्रयास था। मकसद था कि नाथूराम संदेह का लाभ पाकर छूट जाए।
नाथूराम का मकसद कितना पैशाचिक रहा होगा, इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि गांधीजी की हत्या के बाद पकडे जाने पर खाकी निकर पहने नाथूराम ने अपने को मुसलमान बताने की कोशिश की थी। इसके पीछे उसका मकसद देशवासियों के रोष का निशाना मुसलमानों को बनाना और उनके खिलाफ हिंसा भडकाना था।
ठीक उसी तरह जैसे इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सिखों के साथ हुआ था। पता नहीं किन कारणों से राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने हत्यारे के नाम का उल्लेख नहीं किया लेकिन उनके संबोधन के तुरंत बाद गृह मंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने आकाशवाणी भवन जाकर रेडियो पर देशवासियों को बताया कि बापू का हत्यारा एक हिंदू है। ऐसा करके सरदार पटेल ने मुसलमानों को अकारण ही देशवासियों का कोपभाजन बनने से बचा लिया।
कोई भी सच्चा क्रांतिकारी या आंदोलनकारी जेल में अपने लिए सुविधाओं की मांग नहीं करता है। लेकिन नाथूराम ने गांधीजी को मारने के बाद अंबाला जेल के भीतर भी अपने लिए सुविधाओं की मांग की थी, जिसका कि वह किसी भी तरह से हकदार नहीं था। वैसे भी उसे स्नातक या पर्याप्त शिक्षित न होने के कारण पंजाब जेल नियमावली के मुताबिक साधारण कैदी की तरह ही रखा जाना था।
नाथूराम और उसके सह अभियुक्तों की देशभक्ति के पाखंड की एक और बानगी देखिए: वह आजाद भारत का बाशिंदा था और उसे भारतीय कानून के तहत ही उसके अपराध के लिए मृत्युदंड की सजा सुनाई गई थी। फिर भी उसने अपने मृत्युदंड के फैसले के खिलाफ लंदन की प्रिवी कांउसिल में अपील की थी। उसका अंग्रेज वकील था जान मेगा। अंग्रेज जजों ने उसकी अपील को खारिज कर दिया था। गांधीजी की हत्या का षडयंत्र रचने में नाथूराम का भाई गोपाल गोडसे भी शामिल था, जो अदालत में जिरह के दौरान खुद को गांधी-हत्या की योजना से अनजान और बेगुनाह बताता रहा।
अदालत ने उसे आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी। गोपाल जेल में हर साल गांधी जयंती के कार्यक्रम में बढ-चढकर शिरकत करता था। ऐसा वह प्रायश्चित के तौर पर नहीं बल्कि अपनी सजा की अवधि में छूट पाने के लिए करता था, क्योंकि जेल के नियमों के मुताबिक ऐसा करने पर सजा की अवधि में छूट मिलती है। तो इस तरह गोपाल गोडसे अपनी सजा की पूरी अवधि के पहले ही रिहाई पा गया था।
महात्मा गांधी को मुस्लिम परस्त मानने वाले इस तथाकथित हिंदू ह्दय सम्राट के पुणे में सदाशिव पेठ स्थित घर का नंबर 786 था जिसके मायने होते हैं : बिस्मिल्लाहिर रहमानिर्रहीम। सदाशिव पेठ में वह अक्सर गुर्राता था कि उसका भाई नाथूराम शहीद है। वह खुद को भी एक राष्ट्रभक्त आंदोलनकारी बताता था और बेझिझक कहा करता था कि एक अधनंगे और कमजोर बूढे की हत्या पर उसे कोई पश्चाताप अथवा अफसोस नहीं है।
नाथूराम के साथ जिस दूसरे अभियुक्त को फांसी दी गई थी वह था नारायण आप्टे। नाथूराम का सबसे घनिष्ठ दोस्त और सहधर्मी। ब्रिटिश वायुसेना में नौकरी कर चुका आप्टे पहले पहले गणित का अध्यापक था और उसने अपनी एक ईसाई छात्रा मनोरमा सालवी को कुंवारी माँ बनाने का दुष्कर्म किया था। हालांकि उसकी पत्नी और एक विकलांग पुत्र भी था। शराबप्रेमी आप्टे ने गांधी हत्या से एक दिन पूर्व यानी 29 जनवरी, 1948 की रात पुरानी दिल्ली के एक वेश्यालय में गुजारी थी और उस रात को उसने अपने जीवन की यादगार रात बताया था। यह तथ्य उससे संबंधित अदालती दस्तावेजों में दर्ज है।
गांधी हत्याकांड का चौथा अभियुक्त विष्णु रामकृष्ण करकरे हथियारों का तस्कर था। उसने अनाथालय में परवरिश पाई थी। गोडसे से उसका परिचय हिंदू महासभा के कार्यालय में हुआ था। एक अन्य अभियुक्त दिगम्बर रामचंद्र बडगे जो सरकारी गवाह बना और क्षमा पा गया, पुणे में शस्त्र भण्डार नामक दुकान चलाता था। नाटे, सांवले और भेंगी आंखों बडगे ने अपनी गवाही में विनायक दामोदर सावरकर को हत्या की साजिश का सूत्रधार बताया था लेकिन पर्याप्त सबूतों के अभाव में सावरकर बरी हो गए थे।
इन दिनों कुछ सिरफिरे और अज्ञानी लोग योजनाबद्ध तरीके से नाथूराम गोडसे को उच्चकोटि का चिंतक, देशभक्त और अदम्य नैतिक ऊर्जा से भरा व्यक्ति प्रचारित करने में जुटे हुए हैं। यह प्रचार सोशल मीडिया के माध्यम से चलाया जा रहा है। उनके इस प्रचार का आधार नाथूराम का वह दस पृष्ठीय वक्तव्य है जो बडे ही युक्तिसंगत, भावुक और ओजस्वी शब्दों में तैयार किया गया था और जिसे नाथूराम ने अदालत में पढा था। इस वक्तव्य में उसने बताया था कि उसने गांधीजी को क्यों मारा। कई तरह के झूठ से भरे इस वक्तव्य में दो बडे और हास्यास्पद झूठ थे।
एक यह कि गांधीजी गोहत्या का विरोध नहीं करते थे और दूसरा यह कि वे राष्ट्रभाषा के नहीं, अंग्रेजी के पक्षधर थे। दरअसल, यह वक्तव्य खुद गोडसे का तैयार किया हुआ नहीं था। वह कर भी नहीं सकता था, क्योंकि न तो उसे मराठी का भलीभांति ज्ञान था, न ही हिंदी का, अंग्रेजी का तो बिल्कुल भी नहीं।
अलबत्ता उस समय दिल्ली में ऐसे कई हिंदूवादी थे जिनका हिंदी और अंग्रेजी पर समान अधिकार और प्रवाहमयी शैली का अच्छा अभ्यास था। इसके अलावा वे वैचारिक तार्किकता में भी पारंगत थे। माना जा सकता है कि उनमें से ही किसी ने नाथूराम की ओर से यह वक्तव्य तैयार कर जेल में उसके पास भिजवाया होगा और जिसे नाथूराम ने अदालत में पढा होगा।
आप्टे की फांसी के दिन (15 नवम्बर 1949) अम्बाला जेल के दृश्य का आंखों देखा हाल न्यायमूर्ति जीडी खोसला ने अपने संस्मरणों में लिखा है, जिसके मुताबिक गोडसे तथा आप्टे को उनके हाथ पीछे बांधकर फांसी के तख्ते पर ले जाया जाने लगा तो गोडसे लड़खड़ा रहा था। उसका गला रूधा था और वह भयभीत और विक्षिप्त दिख रहा था। आप्टे उसके पीछे चल रहा था।
उसके भी माथे पर डर और शिकन साफ दिख रही थी। तो ऐसे 'बहादुर’, 'चरित्रवान’ और 'देशभक्त’ थे ये हिंदू राष्ट्र के स्वप्नदृष्टा, जिन्होंने एक निहत्थे बूढे, परम सनातनी हिंदू और राम के अनन्य-आजीवन भक्त का सीना गोलियों से छलनी कर दिया। ऐसे हत्यारों को प्रतिष्ठित करने के प्रयास तो शर्मनाक हैं ही, ऐसे प्रयासों पर सत्ता में बैठे लोगों की चुप्पी भी कम शर्मनाक और खतरनाक नहीं।

रूह कंपा देने वाली है पिता और चाचा की यह अमानवीयता




एक के बाद एक प्रकाश में आ रही अमानवीयता की घटनाओं के बीच एक पिता और चाचा द्वारा किया गया यह अपराध अक्षम्य तो है ही, औरत के प्रति असंवेदनशीलता का चरम भी है...
पंजाब के लुधियाना जिले के जान्डी में 28 जून को तीन महीने की एक गर्भवती महिला का उसके देवर और पति ने जबर्दस्ती पेट दबाकर भ्रूण गिरा दिया, क्योंकि उसके पेट में एक कन्या भ्रूण पल रहा है। महिला के साथ जबरन पेट दबाकर किए गए गर्भपात में महिला की जान चली गई। महिला को पहले से एक बेटी थी।
इंडियन एक्सप्रेस में छपी एक खबर के मुताबिक लुधियाना के जान्डी में रहने वाले इरविंदर सिंह की पत्नी मनजीत कौर गर्भवती थी। यह बात जानने पर उसने भ्रूण का लिंग जानने के लिए मनजीत के न चाहने के बावजूद टेस्ट करवाया। जब उसे पता चला कि मनजीत के पित इरविंदर को पता चला कि गर्भ में लड़की पल रही है तो वो गुस्से में पागल हो गया।
उसने पहले तो पत्नी को गर्भपात के लिए गोलियां खिलाईं, पर जब गोलियों से भी मनजीत का गर्भपात नहीं हुआ तो इरविंदर ने अपने भाई निर्मल सिंह के साथ मिलकर उसका पेट इतनी तेजी से दबाया कि भ्रूण बाहर आ गया। जोर—जबर्दस्ती से हुई इस घटना में मनजीत की जान चली गई।
एक महिला जो यह जानने के बाद कि वह गर्भ से है, अपनी आने वाली औलाद को लेकर हजारों सपने देखने लगती है। मनजीत की आंखों में भी कुछ ऐसे ही सपने पल रहे थे। इसीलिए वह लिंग परीक्षण टेस्ट भी नहीं करवाना चाहती थी, क्योंकि वह जानती थी कि अगर गर्भ में पल रहा भ्रूण कन्या होगा तो ये लोग उसे इस दुनिया में आने ही नहीं देंगे। और हुआ भी कुछ ऐसा ही।
2011 में इरविंदर सिंह के साथ मनजीत की शादी हुई थी। पोस्ट ग्रेजुएट मनजीत के पिता के मुताबिक उनकी बेटी घरेलू हिंसा की शिकार थी। जब से मनजीत ने एक बेटी को जन्म दिया था इरविंदर उसके साथ खराब व्यवहार करने लगा था। पति—पत्नी के बीच काफी तनाव रहता था। ये जानने के बाद कि कोख में आया दूसरा भ्रूण भी लड़की है, वो पागल हो गया था, इसलिए उसने अपने भाई के साथ मिलकर मनजीत का पेट जबरन दबाया जिसमें गर्भपात के साथ—साथ मनजीत की भी मौत हो गई।
वहीं मनजीत के ससुरालियों ने उसके पिता के आरोपों को खारिज करते हुए पुलिस को बताया कि भ्रूण का टेस्ट हमने नहीं उसके पिता ने करवाया था। अभी यह स्पष्ट नहीं हो पाया है कि भ्रूण परीक्षण किसने करवाया था।
सवाल ये नहीं है कि भ्रूण का टेस्ट किसने करवाया, सवाल यह भी है कि प्रतिबंधित होने के बावजूद यह सब इतने धड़ल्ले से चल रहा है। अगर यह प्रतिबंधित होता, तो एक अजन्मे बच्चे और उसकी मां को इतनी दर्दनाक मौत नहीं मिलती।
पुलिस ने दोनों आरोपियों इरविंदर सिंह और निर्मल सिंह को गिरफ्तार कर लिया है। एसएसपी सुरजीत सिंह ने बताया कि आरोपी इरविंदर सिंह ने यह बात कबूल कर ली है कि उसने गर्भपात के लिए गोलियां खरीदी थीं। पर उनका कहना है कि भ्रूण की जांच तब हुई जब वह अपने मायके गयी थी।

भाजपा विधायक की गुंडागर्दी से सहमे मुसलमान

विधायक के बेटे से हुआ झगड़ा, सब्जी व्यापारी के बेटे को उठाकर ले गए विधायक के लोग

लखीमपुर खीरी, जनज्वार। उत्तर प्रदेश के जिला लखीमपुर खीरी के गोला विधायक अरविंद गिरी के बेटे और भाजपा समर्थकों ने आज दिन में गोला मंडी में खुलकर गुंडागर्दी का प्रदर्शन किया और योगी की मुस्तैद पुलिस उन गुंडों का मुंह ताकती रह गई। मंडी के व्यापारी इस उम्मीद में थे कि पुलिस इन पर कोई कार्रवाई करेगी, मगर पुलिस विधायक जी के आदेश का इंतजार करती रही।
विधायक के इशारे पर हुई गुंडागर्दी के बाद कुछ ऐसा हाल था मंडी का
करीब दो—तीन दिन पहले भाजपा के गोला विधायक अरविंद गिरी के बेटे अमन गिरी और गोला मंडी व्यापारी इसाक के बेटे अरशद के बीच गोला के अलीगंज रोड पर ओवरटेकिंग को लेकर झगड़ा हो गया। झगड़े के बाद विधायक के बेटे ने अमन गिरी ने भाजपा समर्थकों और अपने जानने वालों के साथ अरशद और उसके दो और साथियों की पिटाई की। इस बात का अरशद के घर वालों को जब पता चला तो वे पुलिस में शिकायत के बजाय इस उम्मीद में चुप हो गए कि विधायक जी आएंगे तो उनसे मिलकर बातचीत होगी। घटना के वक्त विधायक शहर में मौजूद नहीं थे।
लेकिन आज विधायक के आने के बाद गोला मंडी में कोहराम मच गया। करीब दो सौ लोगों की भीड़ ने गोला मंडी में पहुंचकर व्यापारियों के सारे कागजात फाड़ दिए, उनकी सब्जियां बिखेर दीं और उनके साथ मारपीट की। कहा जा रहा है कि यह सबकुछ विधायक अरविंद गिरी के इशारे पर किया गया।
इस घटना से मुसलमान इसलिए सहमे हुए हैं क्योंकि गोला मंडी में ज्यादातर दुकानें मुस्लिम व्यापारियों की हैं और वे किसी भी तरह का बवाल नहीं चाहते।
गोला के पूर्व विधायक विनय तिवारी का कहना है कि भाजपा विधायक ने यह गुंडागर्दी साम्प्रदायिक मंशा से की है, ताकि हिंदुओं—मुस्लिमों में टकराव की स्थिति पैदा कर उसका फायदा उठाया जा सके। पर समाजवादी पार्टी सामाजिक समरसता को किसी भी कीमत पर भंग नहीं होने देगी। साथ ही पूर्व सपा विधायक ने यह भी कहा कि वह प्रशासन से मिलकर मामले को निपटाने की कोशिश करेंगे।
देखें वीडियो : 

Jun 30, 2017

पहली बार हिंदी की राजनीतिक कविता सोशल मीडिया पर वायरल

इससे पहले सेक्स, प्रेम और समाज के दमित तबकों के व्यक्तिगत अनुभवों पर लिखी कविताएं सोशल मीडिया पर वायरल होती रही हैं, मगर यह पहली बार है कि राजनीतिक कविता सोशल मीडिया पर वायरल हुई है। वरिष्ठ कवि मदन कश्यप की लिखी कविता 'क्योंकि वह जुनैद था' हाल ही में दिल्ली से पलवल जाती ट्रेन में मारे गए जुनैद पर आधारित है। साम्प्रदायिक कारणों से हुई जुनैद की हत्या का मसला इतना बड़ा हो गया है कि प्रधानमंत्री तक को इस पर बयान देना पड़ा है और देशभर में लोग गौरक्षकों की गुंडागर्दी के खिलाफ लामबंद होने लगे हैं। ऐसे में इस कविता का वायरल होना बताता है कि समाज में हिंदूवादी कट्टरपंथ के खिलाफ लोग व्यापक स्तर पर खड़े हो रहे हैं।
ट्रेन में मारे गए जुनैद की मां

क्योंकि वह जुनैद था
मदन कश्यप, वरिष्ठ कवि और लेखक
चलती ट्रेन के खचाखच भरे डिब्बे में
चाकुओं से गोद-गोद कर मार दिया गया
क्योंकि वह जुनैद था
झगड़ा भले ही हुआ बैठने की जगह के लिए
लेकिन वह मारा गया
क्योंकि वह जुनैद था
न उसके पास कोई गाय थी
न ही फ़्रिज में माँस का कोई टुकड़ा
फिर भी मारा गया क्योंकि वह जुनैद था
सारे तमाशबीन डरे हुए नहीं थे
लेकिन चुप सब थे क्योंकि वह जुनैद था
डेढ़ करोड़ लोगों की रोजी छिन गयी थी
पर लोग नौकरी नहीं जुनैद को तलाश रहे थे
जितने नये नोट छापने पर खर्च हुए
उतने का भी काला धन नहीं आया था
पर लोग गुम हो गये पैसे नहीं 
जुनैद को खोज रहे थे
सबको समझा दिया गया था
बस तुम जुनैद को मारो
नौकरी नहीं मिली जुनैद को मारो
खाना नहीं खाया जुनैद को मारो
वायदा झूठा निकला जुनैद को मारो
माल्या भाग गया जुनैद को मारो
अडाणी ने शांतिग्राम बसाया जुनैद को मारो
जुनैद को मारो
जुनैद को मारो
सारी समस्याओं का रामबान समाधान था
जुनैद को मारो
ज्ञान के सारे दरवाजों को बंद करने पर भी
जब मनुष्य का विवेक नहीं मरा
तो उन्होंने उन्माद के दरवाजे को और चौड़ा किया 
जुनैद को मारो!!
ईद की ख़रीदारी कर हँसी-ख़ुशी घर लौट रहा
पंद्रह साल का एक बच्चा 
कितना आसान शिकार था
चाकुओं से गोद-गोद कर धीरे-धीरे मारा गया
शायद हत्यारों को भी गुमान न था
कि वे ही पहुँचाएंगे मिशन को अंजाम तक
कि इतनीआसानी से मारा जाएगा जुनैद
चाकू मारने के हार्डवर्क से पराजित हो गया
अंततः मनुष्यता का हावर्ड

अश्लील नहीं, खूबसूरत है ये बॉडी

इन तस्वीरों में अश्लीलता नहीं, बल्कि स्पोर्ट्स स्पिरिट झलकती है....

'बॉडी इश्यू में छपी खिलाड़ियों की नग्न तस्वीरों के जरिए एथलीटों की कड़ी मेहनत, अनुशासन और फोकस को प्रदर्शित करना हमारा मकसद है। पत्रिका के बॉडी इश्यू में अपने चाहने वाले खिलाड़ियों की खूबसूरत तस्वीरों को देखकर इनके चाहने वाले खुश होंगे। इन तस्वीरों में अश्लीलता नहीं, बल्कि स्पोर्ट्स स्पिरिट झलकती है।' ये कहना है दुनियाभर में स्पोर्टस की बेहतरीन पत्रिकाओं में शुमार ईएसपीएन का।
ईएसपीएन का इस बार का वार्षिक बॉडी अंक जुलाई में आयेगा। 2017 के बॉडी इश्यू वार्षिकांक के लिए टेनिस स्टार कैरोलीन वोज़्नियाकी ने फोटोशूट करवाया है। मिक्सड मार्शल आर्ट्रस खिलाड़ी वाटरसन भी इस अंक में अपनी विशेष अंदाज में नजर आएंगी। वह कहती भी हैं, मुझे अपने शरीर पर गर्व है, और अपने खूबसूरत शरीर को बॉडी मैगजीन के लिए फोटोशूट करवाना मुझे अच्छा लगा। इन खिलाड़ियों के अलावा विभिन्न खेलों के अनेक खिलाड़ियों ने अपने निर्वस्त्र फोटोशूट इस अंक के लिए करवाये हैं।
गौरतलब है कि ईएसपीएन की बॉडी मैगजीन के लिए अब तक दुनियाभर के मशहूर एथलीट न्यूड और सेमी न्यूड फोटोशूट करवा चुके हैं। इसकी प्रसिद्धि का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इसमें खेल जगत के हर क्षेत्र के खिलाड़ियों ने हिस्सा लिया। जिनमें नाथन एड्रियन, जेक अर्रिटा, एंटोनियो ब्राउन, एम्मा कोबर्न, कोर्टनी कोनॉग्यू, ऐलेना डेल डोन, रयान डन्जेगी, एडलाइन ग्रे, ग्रेग लौगनीस, कॉनर मैकग्रेगर, वॉन मिलर, क्रिस मॉसियर, नजिंगा प्रेस्कोड, क्रिस्टन प्रेस, अप्रैल रॉस, अलिसा सेली, क्लाएरा शील्ड्स, विन्स विल्फोर्क समेत न जाने कितने दिग्गज एथलीटों के नाम शामिल हैं।
स्विट्जरलैंड के टेनिस स्टार स्टानिस्लास वावरिंका और अमेरिकी महिला फुटबॉल खिलाड़ी अली क्रीगर भी स्पोर्ट्स चैनल ईएसपीएन की मैग्जीन ‘द बॉडी’ के 2015 के अंक के लिए न्यूड फोटोशूट करवा चुके हैं। पत्रिका के लिए क्रीगर ने न्यूड अवस्था में सुनहरी गेंद पैरों के नीचे दबाये हुए पोज दिया था।
2015 में अमेरिकी बास्केटबॉल खिलाड़ी केविन वीजली लव, डिआंद्रे जॉर्डन, अमेरिकी जिमनास्ट एली रेजमैन, स्विमर नताली, अमेरिकी हेप्टएथलीट कैंट मैकमिलन समेत 24 एथलीटों ने पत्रिका के लिए न्यूड फोटोशूट करवाया था। टेनिस स्टार ईएसपीएन के इस वार्षिकांक के लिए अमेरिकी स्टार वीनस विलियम्स और टॉमस बर्डिख भी न्यूड फोटोशूट करवा चुके हैं।
स्पोर्टस चैनल की मैगजीन ईएसपीएन ने आर्थिक संकट से उबरने के लिए 2009 में बॉडी मैगजीन शुरू करने की योजना बनाई थी। 2009 में टेनिस सुपरस्टार सेरेना विलियम्स की कवर फोटो वाला 'बॉडी इश्यू' जब प्रकाशित होकर आया तो इसने खेल प्रेमियों के बीच तहलका मचा दिया था।
खिलाड़ियों की जब नग्न फोटोशूट को लेकर कई बार आलोचना का सामना करना पड़ा, तो वे कहते हैं कि बॉडी मैगजीन ने न्यूड फोटोशूट को अलग पहचान दी है और इसे जिस तरीके से लोगों के सामने पेश किया जा रहा है, उससे नग्न काया के प्रति लोगों की धारणा को बदलने का काम भी किया है।
जहां तक खिलाड़ियों की निर्वस्त्र फोटोशूट का सवाल है तो टेनिस की दिग्गज खिलाड़ी गर्भवती सेरेना विलियम्स ने भी एक दूसरी पत्रिका वेनिटी फेयर के मुखपृष्ठ के लिए निर्वस्त्र फोटोशूट करवाया है। इस बारे में सेरेना विलियम्स कहती हैं, मेरी देह छवि नकारात्मक है,' मगर इस बात को दरकिनार कर उन्होंने फोटोशूट करवाया है। साथ ही वह महिलाओं को यह संदेश देना नहीं भूलतीं कि, मैं महिलाओं को यह बताना चाहती हूँ कि यह ठीक है, आपकी काया जैसी भी हो, आप आंतरिक और बाहरी रूप से खूबसूरत हो सकते हैं।

नोट कर लीजिए नोटबंदी जैसा ही बेमतलब साबित होगा जीएसटी

जीएसटी लागू करने के पीछे आम उपभोक्ता को राहत पहुँचाने की मंशा उतनी नहीं है जितना बड़े कारोबारियों और राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय कॉर्पोरेट घरानों का दबाव.....

पीयूष पंत, वरिष्ठ पत्रकार 
आज रात बारह बजते ही प्रधानमंत्री मोदी संसद भवन के सेन्ट्रल हाल में घंटा बजवाएंगे और एक ऐप के माध्यम से देश के अब तक के सबसे बड़े कर सम्बन्धी सुधार का आगाज़ करेंगे। पूरे देश में समान कर व्यवस्था को लागू करने वाले जीएसटी यानी वस्तु एवं सेवा कर को भारतीय अर्थव्यवस्था और धंधा करने के तरीके में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने वाले कदम के रूप में पेश किया जा रहा है।

ये कितना क्रांतिकारी होगा यह तो आगामी वर्षों (दिनों में नहीं) में ही पता चलेगा, लेकिन जितने गाजे-बाजे के साथ इसकी शुरुआत की जा रही है उसके पीछे छिपा राजनीतिक मन्तव्य साफ़ नज़र आ रहा है। नोटबंदी की ही तरह जीएसटी को भी प्रधानमंत्री मोदी का एक ऐतिहासिक और साहसी निर्णय बताया जा रहा है।
कोशिश एक बार फिर मोदी की छवि को चमकाने की ही हो रही है। नोटबंदी के समय उत्तर प्रदेश का चुनाव सामने था और अब गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश के चुनाव और 2019 का आम चुनाव सामने हैं। सच्चाई तो ये है कि जीएसटी का निर्णय अकेले मोदी का निर्णय नहीं है। जीएसटी लाने की कवायद तो 2003 से ही चालू है और विभिन्न सरकारों के कार्यकाल के दौरान इसे लाये जाने के प्रयास और घोषणाएं होती रही हैं, फिर चाहे वो वाजपेयी की एनडीए सरकार हो या मनमोहन सिंह की दोनों यूपीए सरकारें।
यह भी आम जानकारी है कि इस नई कर व्यवस्था को लागू करने के पीछे आम उपभोक्ता को राहत पहुँचाने की मंशा उतनी नहीं है जितना कि बड़े कारोबारियों और राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय कॉर्पोरेट घरानों का दबाव।
चूंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा उठाये गए हर एक महत्वपूर्ण कदम को अपने प्रशस्ति गान में तब्दील करवा लेने में महारथ रखते हैं, इसीलिये मूलतः विज्ञान भवन में संपन्न होने वाले इस कार्यक्रम के स्थल को बदलवा कर उन्होंने इसे संसद भवन के केंद्रीय कक्ष में स्थानांतरित करवा दिया, ताकि कार्यक्रम के साथ-साथ मोदी को भी अतिरिक्त महत्व मिल सके।
गौरतलब है कि संसद भवन के केंद्रीय कक्ष में अभी तक केवल तीन कार्यक्रम हुए हैं. जब देश आजाद हुआ तब उस आजादी का उत्सव मनाया गया था। फिर 1972 में जब आजादी की सिल्वर जुबली मनाई गई थी। इसके बाद 1997 में आजादी की गोल्डन जुबली पर आधी रात को कार्यक्रम हुआ था। निसंदेह उन तीनों महान आयोजनों की तुलना कर व्यवस्था में सुधार की योजना से नहीं की जा सकती है। कांग्रेस पार्टी की भी यही आपत्ति है।
कुछ लोग इसे मोदी की नासमझी कह सकते हैं, लेकिन मुझे लगता है कि यह सब सप्रयास किया जा रहा है। दरअसल मोदी खुद को भारत का सबसे सफ़ल और लोकप्रिय प्रधानमंत्री साबित करने पर तुले हैं। यही कारण है कि वे अक्सर भारत के प्रथम व लोकप्रिय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के समकक्ष खड़ा होने की जद्दोजहद में दिखाई देते हैं, बल्कि उनकी नक़ल करने की असफल कोशिश करते हुए भी दिखते हैं।
कोई ताज्जुब नहीं होगा कि आज आधी रात प्रधानमंत्री मोदी संसद से सम्बोधन करते हुए पंडित नेहरू के आज़ादी के बाद दिए गए 'ट्रिस्ट विथ डेस्टनी' वाले भाषण की नक़ल उतारते नज़र आएं। आपको शायद याद हो कि प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी जी ने नेहरू स्टाइल में एक-दो बार अपने कोट की जेब में गुलाब का फूल लगाने का प्रयास किया था, लेकिन बाद में उन्हें कोट की जेब में कमल का फूल कढ़वा कर ही काम चलाना पड़ा।
इसी तरह अक्सर मोदी देश विदेश में बच्चों को दुलारने का विशेष ध्यान रखते हैं ताकि केवल पंडित नेहरू को ही बच्चों के चाचा के रूप में न याद किया जाय। वैसे प्रधानमंत्री मोदी की ये खूबी तो है कि वे सफल लोगों की खूबियों को आत्मसात करने में तनिक भी संकोच नहीं करते हैं।
आपको याद होगा कि 2014 के आम चुनाव के प्रचार के दौरान नरेंद्र मोदी अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के जुमले 'येस वी कैन' का धड़ल्ले से इस्तेमाल करते दिखाई दिए थे। याद रहे कि किसी भी प्रधानमंत्री की लोकप्रियता और सफलता इतिहास खुद दर्ज़ करता है, न कि प्यादे और चाटुकार।
जहां तक जीएसटी से होने वाले फायदे की बात है तो वो तो कई वर्षों बाद ही पता चल पायेगा। फिलहाल तो स्तिथि लखनऊ की भूलभुलैय्या जैसी है। हर कोई इसके नफे- नुक़सान को समझने की कोशिश कर रहा है। खुद सरकार के वित्त मंत्री जेटली और शहरी विकास मंत्री वेंकैय्या नायडू यह कह चुके हैं कि जीएसटी के फायदे दीर्घ काल में ही पता चलेंगे, अल्पकाल में तो इससे महंगाई बढ़ने और जीडीपी कम होने की ही संभावना है।
यानी मोदी जी जब तक अति प्रचारित आपके इस कदम से अर्थव्यवस्था को फायदे मिलने शुरू होंगे तब तक छोटे और मझोले व्यापारी कुछ उसी तरह दम तोड़ चुके होंगे जैसे नोटबंदी के बाद छोटे और मझोले किसान।
खबर है कि कल मोदी जी जीएसटी को लेकर दिल्ली में एक रैली निकालेंगे। उम्मीद है अब आपको मेरी बात समझ में आ रही होगी।

Jun 27, 2017

मोदी की तारीफ में एक शब्द नहीं बोले अमेरिकी राष्ट्रपति



मोदी की अमेरिका यात्रा पर पढ़िये पूर्व आईपीएस वीएन राय का लेख, जिन्होंने भारत के कई प्रधानमंत्रियों के साथ अमेरिका यात्रा की है। संयोग से अब की वह प्रधानमंत्री की यात्रा में तो नहीं पर अमेरिका में मौजूद थे...

मोदी के अमेरिका पहुँचने पर हवाई अड्डे पर उनके स्वागत के लिए बमुश्किल एक मेयर का पहुंचना बताता है कि अमेरिका में हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदर दास मोदी की क्या कद्र और कितना महत्व है। भारत में मोदी के चाहने वालों के लिए यह किसी सदमे से कम नहीं है, क्योंकि चाहने वालों को सरकार पोषित मीडिया ने बता रखा है कि मोदी की अमेरिका में धाकड़ छवि है
पर यहां सबकुछ उल्टा देखने को ही मिला। बड़ी बात तो यह है कि अमेरिका के वाशिंगटन स्थित व्हाइट हाउस में भारतीय प्रधानमंत्री मोदी का पारम्परिक रूप से लॉन पर मीडिया के सामने रस्मी स्वागत करते हुए अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प ने मोदी की व्यक्तिगत तारीफ में एक शब्द भी नहीं कहा।
इससे जाहिर होता है कि मोदी को ट्रम्प ने कोई भाव नहीं दिया, जबकि मोदी की ट्रम्प से पहली मुलाकात थी। पहली मुलाकात में यह रवैया आश्चर्य में डालने वाला है। यह आश्चर्य इसलिए भी है कि सरकार पोषित मीडिया ने देश को बहुप्रचारित स्तर पर बता रखा है कि मोदी की पूछ अमेरिकी शासकों में दूसरे किसी भी भारतीय प्रधानमंत्री के मुकाबले बहुत ज्यादा है।
जानकारों को पूर्व भारतीय प्रधानमंत्री राजीव गाँधी, नरसिम्हा राव, अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह की तारीफ में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपतियों के कसीदे याद हैं। ओबामा ने तो मनमोहन सिंह को विश्व के श्रेष्ठतम अर्थशास्त्रियों में शामिल बताया था। यह वही मनमोहन सिंह हैं जिनकी छवि भारतीय समाज में अब एक मौनी बाबा की बना के रख दी गयी है।
ऐसे 'मौनी बाबा' के मुकाबले मोदी का स्वागत टांय-टांय फिस्स होना, मोदी की वैश्विक छवि पर एक सवालिया निशान खड़ा करता है?
हालांकि कुछ का कहना है कि जिस ट्रम्प को बस अपनी तारीफ़ की ही आदत है, वह मोदी की तारीफ कैसे करता? एक अन्य विचार है कि मोदी में तारीफ लायक है भी क्या? कुछ भी हो, इसी ट्रम्प ने इसी व्हाइट हाउस लॉन पर कुछ ही दिन पहले रूमानिया जैसे अदने से देश के राष्ट्रपति की तारीफ़ के बिंदु भी ढूंढ लिए थे।
मोदी का व्यक्तिगत अपमान इसलिए भी हुए चुभने वाला हो जाता है कि उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद भारत ने अमेरिकी युद्ध इंडस्ट्री से रिकार्ड तोड़ युद्ध का सामान खरीद कर अमेरिकी अर्थव्यवस्था को जम कर सहारा दिया है।
भारत ने 2009 में अमेरिका से 200 मिलियन डॉलर की जंगी खरीद, 2016 में नौ बिलियन डॉलर तक पहुँच गयी है। स्वयं ट्रम्प ने अपने स्वागत भाषण में इसक जिक्र किया, विशेषकर भारत द्वारा 100 जहाज खरीदने के समझौते का।
दूसरे शब्दों में, जो पैसा देश के विकास में लगाना चाहिए था, वह अमेरिकी रोजगारों को पैदा करने में मोदी सरकार लगा रही है। जबकि इसके बदले में अमेरिका कोई ऐसा आश्वासन भी नहीं दे रहा कि भारतीय कंप्यूटर प्रोफेशनल पर आ रहे प्रतिबंध कुछ ढीले किये जाएंगे। नारायण मूर्ति की इनफ़ोसिस पर तो अभी-अभी एक भारी भरकम जुर्माना भी ठोका गया है।
हालाँकि ट्रम्प ने भारत को विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र अवश्य कहा, और यह भी कि दोनों देशों के संविधान के पहले तीन शब्द एक समान 'वी द पीपल' हैं। शायद लोकतंत्र की इस कसौटी पर जोर देने के बाद ट्रम्प को लगा हो कि इस सन्दर्भ में मोदी का अपना ट्रैक रिकॉर्ड इस योग्य नहीं कि उनकी तारीफ की जा सके। उन्होंने सरकारी काम-काज में मोदी सरकार के भ्रष्टाचार विरोधी दावों का जिक्र अवश्य किया, शायद इसलिए की अमेरिकी कंपनियों को भारत में घूस देने से छूट मिल जाय।
भारत में बिका हुआ मीडिया मोदी की अमेरिका यात्रा को जैसा भी बढ़ा-चढ़ा कर पेश कर रहा हो, अमेरिकी मीडिया में बहुत कम और वह भी नेगेटिव बातें ही आ रही हैं। भारतीय दूतावास ने डॉलर शक्ति से एक दोयम श्रेणी के अख़बार में मोदी के हस्ताक्षरों का लेख छपवाया, जिसकी अमेरिकी मीडिया में कोई चर्चा नहीं हुयी अंतरराष्ट्रीय ख्याति के 'इकनॉमिस्ट' ने लिखा है कि मोदी की शोहरत पूंजीपतियों को धड़ाधड़ जमीन दिलाने की तो है पर व्यापक औद्योगिक विज़न की नहीं।
ट्रम्प के हाथों मोदी की उपेक्षा, ट्रम्प की जीत पर दीवाली मनाने वाले मोदी भक्तों को निराश तो करेगी ही।

मनुस्मृति से ज्यादा अन्यायपूर्ण शास्त्र ​खोजना कठिन

कहा जाता है कि मनुस्मृति हिंदुओं का आधार है--उनके सारे कानून,समाज-व्यवस्था का
ओशो, विश्वप्रसिद्ध भारतीय चिंतक और दार्शनिक

अगर एक ब्राह्मण एक शूद्र की लड़की को भगाकर ले जाये तो कुछ भी पाप नहीं है। यह तो सौभाग्य है शूद्र की लड़की का। लेकिन अगर एक शूद्र, ब्राह्मण की लड़की को भगाकर ले जाये तो महापाप है। और हत्या से कम, इस शूद्र की हत्या से कम दंड नहीं। यह न्याय है! और इसको हजारों साल तक लोगों ने माना है।
जरूर मनाने वाले ने बड़ी कुशलता की होगी। कुशलता इतनी गहरी रही होगी, जितनी कि फिर दुनिया में पृथ्वी पर दुबारा कहीं नहीं हुई। ब्राह्मणों ने जैसी व्यवस्था निर्मित की भारत में, ऐसी व्यवस्था पृथ्वी पर कहीं कोई निर्मित नहीं कर पाया, क्योंकि ब्राह्मणों से ज्यादा बुद्धिमान आदमी खोजने कठिन हैं। बुद्धिमानी उनकी परंपरागत वसीयत थी।
इसलिये ब्राह्मण शूद्रों को पढ़ने नहीं देते थे क्योंकि तुमने पढ़ा कि बगावत आई।
स्त्रियों को पढ़ने की मनाही रखी क्योंकि स्त्रियों ने पढ़ा कि बगावत आई।

स्त्रियों को ब्राह्मणों ने समझा रखा था, पति परमात्मा है। लेकिन पत्नी परमात्मा नहीं है! यह किस भांति का प्रेम का ढंग है?कैसा ढांचा है? इसलिये पति मर जाये तो पत्नी को सती होना चाहिये, तो ही वह पतिव्रता थी।
लेकिन कोई शास्त्र नहीं कहता कि पत्नी मर जाये तो पति को उसके साथ मर जाना चाहिये, तो ही वहपत्नीव्रती था। ना, इसका कोई सवाल ही नहीं।
पुरुष के लिये शास्त्र कहता है कि जैसे ही पत्नी मर जाये,जल्दी से दूसरी व्यवस्था विवाह की करें।
उसमें देर न करें। लेकिन स्त्री के लिये विवाह की व्यवस्था नहीं है। इसलिये करोड़ों स्त्रियां या तो जल गईं और या विधवा रहकर उन्होंने जीवन भर कष्ट पाया। और यह बड़े मजे की बात है, एक स्त्री विधवा रहे, पुरुष तो कोई विधुर रहे नहीं; क्योंकि कोई शास्त्र में नियम नहीं है उसके विधुर रहने का।
तो भी विधवा स्त्री सम्मानित नहीं थी, अपमानित थी। होना तो चाहिये सम्मान, क्योंकि अपने पति के मर जाने के बाद उसने अपने जीवन की सारी वासना पति के साथ समाप्त कर दी। और वह संन्यासी की तरह जी रही है। लेकिन वह सम्मानित नहीं थी। घर में अगर कोई उत्सव-पर्व हो तो विधवा को बैठने का हक नहीं था। विवाह हो तो विधवा आगे नहीं आ सकती।
बड़े मजे की बात है; कि जैसे विधवा ने ही पति को मार डाला है! इसका पाप उसके ऊपर है। जब पत्नी मरे तो पाप पति पर नहीं है, लेकिन पति मरे तो पाप पत्नी पर है! अरबों स्त्रियों को यह बात समझा दी गई और उन्होंने मान लिया। लेकिन मानने में एक तरकीब रखनी जरूरी थी कि जिसका भी शोषण करना हो, उसे अनुभव से गुजरने देना खतरनाक है और शिक्षित नहीं होना चाहिये। इसलिये शूद्रों को,स्त्रियों को शिक्षा का कोई अधिकार नहीं।
तुलसी जैसे विचारशील आदमी ने कहा है कि 'शूद्र, पशु, नारी,ये सब ताड़न के अधकारी।' इनको अच्छी तरह दंड देना चाहिये। इनको जितना सताओ, उतना ही ठीक रहते हैं।
'शूद्र, ढोल, पशु,नारी...' ढोल का भी उसी के साथ--जैसे ढोल को जितना पीटो,उतना ही अच्छा बजता है; ऐसे जितना ही उनको पीटो, जितना ही उनको सताओ उतने ही ये ठीक रहते हैं। यही धारा थी। इनको शिक्षित मत करो, इनके मन में बुद्धि न आये, विचार न उठे। अन्यथा विचार आया, बगावत आई। शिक्षा आई, विद्रोह आया।
विद्रोह का अर्थ क्या है? विद्रोह का अर्थ है, कि अब तुम जिसका शोषण करते हो उसके पास भी उतनी ही बुद्धि है, जितनी तुम्हारे पास। इसलिये उसे वंचित रखो।

गन्ना की कीमतें नहीं बढ़ाएंगे योगी, कहा दाम बढ़ाने से मिल मालिकों की टूटती है कमर

जनज्वार, लखनऊ। आपातकाल के 42 साल पूरे होने के मौके कल 25 जून को देश के कई हिस्सों में जब बहुतेरे राजनीतिज्ञ आपातकाल के काले दिनों को याद कर रहे थे, तब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ लखनऊ के आम महोत्सव में अपनी गरिमामयी उपस्थिति दर्ज करा रहे थे।

लखनऊ के इंदिरा गांधी प्रतिष्ठान में लगे आम महोत्सव का दर्शन लाभ लेते हुए मुख्यमंत्री योगी ने कहा कि हमारे राज्य में अच्छे आमों की उत्पादकता और बढ़ाई जानी चाहिए। उन्होंने यूपी से आमों के कम निर्यात पर भी चिंता जाहिर की। उन्होंने कई मंत्रियों की गरिमामयी उपस्थिति के बीच महाराष्ट्र के अल्फांसो आम का उदाहरण देते हुए कहा कि हमारे आमों का अभी निर्यात बढ़ाना यानी बहुराष्ट्रीयकरण होना बाकि है।
योगी ने इसी बीच किसानों के प्रति सरोकार जाहिर करते हुए कहा कि गन्ने की कीमत बढ़ाने से मिल मालिकों की कमर टूट जाती है, इसलिए सरकार गन्ने की कीमत बढ़ाने की बजाय किसानों के फसल की उत्पादकता 3 से 4 गुना बढ़ाने पर जोर देगी। योगी के मुताबिक गन्ने की कीमतें बढ़ाना समस्या का समाधान नहीं है।
हालांकि योगी ने अपनी बातों में यह नहीं बताया कि उत्पादकता में 3 से 4 गुना बढ़ोतरी का रहस्य कैसे पूरा होगा? कौन सा बीज, खाद, पानी और नस्लें यह राष्ट्रवादी सरकार किसानों को उपलब्ध कराएगी जिससे किसान एकाएक उत्पादन बढ़ा लेंगे।
गन्ना का कटोरा कहे जाने वाले लखीमपुर खीरी के सपा उपाध्यक्ष क्रांति कुमार सिंह कहते हैं, 'योगी सरकार मिल मालिकों की गोद में बैठकर किसानों को पुचकारने का नाटक कर रही है। सरकार केवल गन्ना के बदले निकलने वाली चीनी की कीमत के आधार पर मिल मालिकों का मुनाफा देखती है पर उससे निकलने वाला सीरा जिससे शराब बनती है, चेपुआ जिससे कागज और बिजनी बनती है, अगर इस मुनाफे को जोड़ दिया जाए तो पता चलेगा कि किसकी कमर टूट रही है और किसका पेट खाली रह जा रहा है।'
अलबत्ता योगी यह बताना नहीं भूले कि प्रदेश सरकार का खजाना खाली होने के बावजूद उनकी सरकार ने किसानों के लिए 36 हजार करोड़ रुपए कि कर्जमाफी की घोषणा की, जिसको मीडिया ने इस रूप में प्रचारित किया था कि किसानों की कर्जमाफी हो गयी है।
जबकि असलियत खुद मुख्यमंत्री जानते हैं कि किसानों की कर्जमाफी की घोषणा के 3 महीने बाद भी बजट का 1 रुपया सरकार ने बैंकों को जारी नहीं किया है और न ही अब तक किसी किसान का एक टका भी माफ हुआ है।
रही बात गन्ना किसानों की चिंता की तो चुनाव में ही भाजपा ने वादा किया था कि किसानों का बकाया 14 दिनों में दे दिया जाएगा, जबकि अभी 30 फीसदी किसानों को सरकार भुगतान नहीं करा सकी है। इसके अलावा सपा सरकार में भाजपा ने कहा था, हमारी सरकार आएगी तब हम गन्ना से कीमत 306 और 315 की बजाए कम से कम 350 कर देंगे।
पर अब सरकार बनने के बाद प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ किसानों को समृद्धि और विकास की नयी परिभाषा समझाने लगे हैं। उन्हें अब किसानों के पेट की नहीं पूंजीपतियों की कमर की चिंता सताने लगी है।
और योगी ने आम महोत्सव में दशहरी का स्वाद लेते हुए दो टूक गन्ना किसानों को बता दिया है कि वह गन्ना की कीमतों को नहीं बढ़ाने वाले  हैं।

आखिर आपातकाल की संभावनाओं से इनकार क्यों नहीं कर पाए आडवाणी

देश में बढ़ती हिंसा और सरकारी मशीनरी के दुरुपयोग की बढ़ती खबरों के बीच फिर से एक बार यह बहस चल पड़ी है कि देश क्या अघोषित आपातकाल की नाकाबंदी के दौर में ढकेला जा रहा है...
वरिष्ठ पत्रकार अनिल जैन का विश्लेषण
कल की रात 25 जून, 1975 आजाद भारत के इतिहास की वह तारीख है जब तत्कालीन हुकूमत ने देश में आपातकाल लागू कर लोकतंत्र और नागरिक आजादी को बंधक बना लिया था। पूरे बयालीस साल हो गए हैं उस दौर को, लेकिन उसकी काली यादें अब भी लोगों के जेहन में अक्सर ताजा हो उठती हैं। उन यादों को जिंदा रखने का काफी कुछ श्रेय उन लोगों को जाता है जो आज देश की हुकूमत चला रहे हैं। उनका अंदाज-ए-हुकूमत लोगों में आशंका पैदा करता रहता है कि देश एक बार फिर आपातकाल की ओर बढ रहा है।

दो साल पहले आपातकाल के चार दशक पूरे होने के मौके पर उस पूरे कालखंड को शिद्दत से याद करते हुए भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता और देश के पूर्व उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने भी देश में फिर से आपातकाल जैसे हालात पैदा होने का अंदेशा जताया था।
आडवाणी ने एक अंग्रेजी अखबार को दिए साक्षात्कार में देश को आगाह किया था कि लोकतंत्र को कुचलने में सक्षम ताकतें आज पहले से अधिक ताकतवर है और पूरे विश्वास के साथ यह नहीं कहा जा सकता कि आपातकाल जैसी घटना फिर दोहराई नहीं जा सकतीं। बकौल आडवाणी, 'भारत का राजनीतिक तंत्र अभी भी आपातकाल की घटना के मायने पूरी तरह से समझ नहीं सका है और मैं इस बात की संभावना से इनकार नहीं करता कि भविष्य में भी इसी तरह से आपातकालीन परिस्थितियां पैदा कर नागरिक अधिकारों का हनन किया जा सकता है।
आज मीडिया पहले से अधिक सतर्क है, लेकिन क्या वह लोकतंत्र के प्रति प्रतिबद्ध भी है? कहा नहीं जा सकता। सिविल सोसायटी ने भी जो उम्मीदें जगाई थीं, उन्हें वह पूरी नहीं कर सकी हैं। लोकतंत्र के सुचारु संचालन में जिन संस्थाओं की भूमिका होती है, आज भारत में उनमें से केवल न्यायपालिका को ही अन्य संस्थाओं से अधिक जिम्मेदार ठहराया जा सकता है।' 

आपातकाल कैसा था और उसके मायने क्या हैं? दरअसल यह उस पीढी को नहीं मालूम जो सत्तर के दशक में या उसके बाद पैदा हुई है और आज या तो जवान है या प्रौढ हो चुकी है। लेकिन उस पीढी को यह जानना जरूरी है और उसे जानना ही चाहिए कि आपातकाल क्या था?
साठ और सत्तर के दशक में विपक्षी दलों के कार्यकर्ताओं खासकर समाजवादियों के बीच सरकार विरोधी दो नारे खूब प्रचलित थे। एक था- 'लाठी-गोली-सेंट्रल जेल, जालिमों का अंतिम खेल' और दूसरा था- 'दम है कितना दमन में तेरे, देखा है और देखेंगे-कितनी ऊंची जेल तुम्हारी, देखी है और देखेंगे।' दोनों ही नारे आपातकाल के दौर में खूब चरितार्थ हुए। विपक्षी दलों के तमाम नेता-कार्यकर्ता, सरकार से असहमति रखने वाले बुद्धिजीवी, लेखक, कलाकार, पत्रकार आदि जेलों में ठूंस दिए गए थे। यही नहीं, तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की रीति-नीति का विरोध करने वाले सत्तारूढ़ कांग्रेस के भी कुछ दिग्गज नेता जेल के सींखचों के पीछे भेज दिए गए थे।
दरअसल, बिहार और गुजरात के छात्र आंदोलनों ने इंदिरा गांधी की हुकूमत की चूलें हिला दी थीं और उसी दौरान समाजवादी नेता राजनारायण की चुनाव याचिका पर आए इलाहबाद हाईकोर्ट के फैसले ने आग में घी काम किया था। इसी सबसे घबराकर इंदिरा गांधी ने अपनी सत्ता बचाने के लिए देश पर आपातकाल थोपा था। इंदिरा गांधी इतनी सशंकित और भयाक्रांत हो चुकी थी कि आपातकाल लागू करने से कुछ घंटे पहले ही उन्होंने अपने विश्वस्त और पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री सिद्धार्थशंकर रे से मंत्रणा के दौरान आशंका जताई थी कि वे अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन की 'हेट लिस्ट' में हैं और कहीं ऐसा तो नहीं कि निक्सन उनकी सरकार का भी उसी तरह तख्ता पलट करवा दे, जैसा कि उन्होंने चिली के राष्ट्रपति सल्वादोर अलेंदे का किया है।
उन्हें इस बात की भी शंका थी कि उनके मंत्रिमंडल में शामिल कुछ लोग सीआईए के एजेंट हो सकते हैं। उनके शक और डर का आलम यह था कि उन्होंने उस समय के उत्तर प्रदेश के कांग्रेसी मुख्यमंत्री हेमवती नंदन बहुगुणा के बंगले पर भी जासूसी के लिए आईबी का डीएसपी रैंक का अधिकारी तैनात कर दिया था।
आपातकाल की घोषणा के साथ ही सभी नागरिकों के मौलिक अधिकार निलंबित कर दिए गए। अभिव्यक्ति का ही नहीं, लोगों के पास जीवन का अधिकार भी नहीं रह गया। 25 जून की रात से ही देश भर में विपक्षी नेताओं-कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी का दौर शुरू हो गया। जयप्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई, चौधरी चरणसिंह, मधु लिमए, अटलबिहारी वाजपेयी, बीजू पटनायक, लालकृष्ण आडवाणी, मधु दंडवते आदि तमाम विपक्षी नेता मीसा यानी आंतरिक सुरक्षा कानून के तहत गिरफ्तार कर लिए। जो लोग पुलिस से बचकर भूमिगत हो गए, पुलिस ने उनके परिजनों को परेशान करना शुरू कर दिया। किसी के पिता को, तो किसी की पत्नी या भाई को गिरफ्तार कर लिया गया। गिरफ्तारी का आधार तैयार करने के लिए तरह-तरह के मनगढ़ंत और अविश्सनीय हास्यास्पद आरोप लगाए गए।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिंदी विभागाध्यक्ष डॉ. रघुवंश को रेल की पटरियां उखाड़ने का आरोप लगाकर गिरफ्तार किया गया। जबकि हकीकत यह थी कि उनके दोनों हाथ भी ठीक से काम नहीं करते थे। इसी तरह मध्य प्रदेश के एक बुजुर्ग समाजवादी कार्यकर्ता पर आरोप लगाया गया कि वे टेलीफोन के खंभे पर चढ़कर तार काट रहे थे। प्रख्यात कवयित्री महादेवी वर्मा को उनकी लिखी बहुत पुरानी एक कविता का मनमाना अर्थ लगाकर गिरफ्तार करने की तैयारी इलाहबाद के जिला प्रशासन ने कर ली थी। लेकिन जब श्रीमती गांधी को उनके करीबी एक पत्रकार ने यह जानकारी देने के साथ ही याद दिलाया कि महादेवी जी पंडित नेहरू को अपने भाई समान मानती थीं, तब कहीं जाकर श्रीमती गांधी के हस्तक्षेप से उनकी गिरफ्तारी रुकी। 

बात गिरफ्तारी तक ही सीमित नहीं थी, जेलों में बंद कार्यकर्ताओं को तरह-तरह से शारीरिक और मानसिक यातनाएं देने का सिलसिला भी शुरू हो गया। कहीं-कहीं तो निर्वस्त्र कर पिटाई करने, पेशाब पिलाने, उन्हें खूंखार अपराधी और मानसिक रुप से विक्षिप्त कैदियों के साथ रखने और उनकी बैरकों सांप-बिच्छू और पागल कुत्ते छोड़ने जैसे हथकंडे भी अपनाए गए। ऐसी ही यातनाओं के परिणामस्वरुप कई लोगों की जेलों में ही मौत हो गई, तो कई लोग गंभीर बीमारियों के शिकार हो गए।
सोशलिस्ट पार्टी की कार्यकर्ता रहीं कन्नड़ फिल्मों की अभिनेत्री स्नेहलता रेड्डी का नाम ऐसे ही लोगों में शुमार है, जिनकी मौत जेल में हो गई थी। समाजवादी नेता जार्ज फर्नांडिस आपातकाल की घोषणा होते ही भूमिगत हो गए थे और उन्होंने अपने कुछ अन्य भूमिगत सहयोगियों की मदद से तानाशाही का मुकाबला करने का कार्यक्रम बनाया था। सरकार उनके इस अभियान को लेकर बुरी तरह आतंकित थी, लिहाजा जार्ज की गिरफ्तारी के लिए दबाव बनाने के मकसद से उनके भाई लॉरेंस और माइकल फर्नांडिस को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। उनसे जार्ज का सुराग लगाने के लिए उन्हें जेल में बुरी तरह से यातनाएं दी गईं।
कई मीसा बंदियों ने अपने-अपने राज्यों के हाईकोर्ट में बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर की थी, लेकिन सभी स्थानों पर सरकार ने एक जैसा जवाब दिया कि आपातकाल में सभी मौलिक अधिकार निलंबित है और इसलिए किसी भी बंदी को ऐसी याचिका दायर करने का अधिकार नहीं है। जिन हाईकोर्टों ने सरकारी आपत्ति को रद्द करते हुए याचिकाकर्ताओं के पक्ष में निर्णय दिए, सरकार ने उनके विरुद्ध न केवल सुप्रीम कोर्ट में अपील की बल्कि उसने इन याचिकाओं के पक्ष में फैसला देने वाले न्यायाधीशों को दंडित भी किया।
असुरक्षा बोध से बुरी तरह ग्रस्त श्रीमती गांधी को उस दौर में अगर सर्वाधिक विश्वास किसी पर था तो वह थे उनके छोटे बेटे संजय गांधी। संविधानेत्तर सत्ता केंद्र के तौर उभरे संजय गांधी आपातकाल के पूरे दौर में सरकारी आतंक के पर्याय बन गए थे। सबसे पहले उन्होंने दिल्ली को सुंदर बनाने का बीड़ा उठाया। इस सिलसिले में उनके बदमिजाज आवारा दोस्तों की सलाह पर दिल्ली को सुंदर बनाने के नाम पर लालकिला और जामा मस्जिद के नजदीक तुर्कमान गेट के आसपास की बस्तियों को बुलडोजरों की मदद से उजाड़ दिया गया, जिससे बड़ी तादाद में लोग बेघर हो गए। कुछ लोगों ने प्रतिरोध करने की कोशिश की तो उन्हें गोलियों से भून दिया गया।
अपनी प्रगतिशील छवि बनाने के लिए संजय गांधी ने उस दौर में इंदिरा गांधी के बीस सूत्रीय कार्यक्रम से इतर पांच सूत्रीय कार्यक्रम पेश किया था, जिसके प्रचार-प्रसार में पूरी सरकारी मशीनरी झोंक दी गई थी। उस बहुचर्चित पांच सूत्रीय कार्यक्रम में सबसे ज्यादा जोर परिवार नियोजन पर था। इस कार्यक्रम पर अमल के लिए पुरुषों और महिलाओं की नसबंदी के लिए पूरा सरकारी अमला झोंक दिया गया था अपने राजनीतिक आकाओं को खुश करने के लिए जिला कलेक्टरों और अन्य प्रशासनिक अधिकारियों पर ज्यादा से ज्यादा लोगों की नसबंदी करने का ऐसा जुनून सवार हुआ कि वे पुलिस की मदद से रात में गांव के गांव घिरवाकर लोगों की बलात नसबंदी कराने लगे। आंकड़े बढ़ाने की होड़ के चलते इस सिलसिले में बूढ़ों-बच्चों, अविवाहित युवक-युवतियों तक की जबरन नसबंदी करा दी गई। सर्वत्र त्राहि-त्राहि मच गई थी, लेकिन कहीं से भी प्रतिरोध की कोई आवाज नहीं उठ रही थी।
उस कालखंड की ऐसी हजारों दारुण कथाएं हैं। कुल मिलाकर उस दौर में हर तरफ आतंक, अत्याचार और दमन का बोलबाला था। सर्वाधिक परेशानी का सामना उन परिवारों की महिलाओं, बच्चों और बुजुर्गों को करना पड़ा, जिनके घर के कमाने वाले सदस्य बगैर किसी अपराध के जेलों मे ठूंस दिए गए थे। आखिरकार पूरे 21 महीने बाद जब चुनाव हुए तो जनता ने अपने मताधिकार के जरिए इस तानाशाही के खिलाफ शांतिपूर्ण ढंग से ऐतिहासिक बगावत की और देश को आपातकाल के अभिशाप से मुक्ति मिली। लेकिन उन 21 महीनों में जो जख्म देश के लोकतंत्र को मिले उनमें से कई जख्म आज भी हरे हैं।
यह सच है कि आपातकाल के बाद से अब तक लोकतांत्रिक व्यवस्था तो चली आ रही है। हालांकि सरकारों की जनविरोधी विरोधी नीतियों के प्रतिरोध का दमन करने की प्रवृत्ति अभी भी कायम है, लेकिन किसी भी सरकार ने नागरिक अधिकारों के हनन का वैसा दुस्साहस नहीं किया है, जैसा आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी और उनकी सरकार ने किया था।