Jul 1, 2017

ऐसे 'बहादुर’, 'चरित्रवान’ और 'देशभक्त’ थे गांधी के हत्यारे



नाथूराम एक टपोरी किस्म का व्यक्ति था जिसे कतिपय हिंदू उग्रवादियों ने गांधी की हत्या के लिए भाडे पर रखा हुआ था। जेल में उसकी चिकित्सा रपटों से पता चलता है कि उसका मस्तिष्क अधसीसी के रोग से ग्रस्त था...
अनिल जैन, वरिष्ठ पत्रकार
महात्मा गांधी के हत्यारे गिरोह के सरगना नाथूराम गोडसे को महिमामंडित करने के जो प्रयास इन दिनों किए जा रहे हैं, वे नए नहीं हैं। गोडसे का संबंध राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से बताया जाता रहा है और इसीलिए गांधीजी की हत्या के बाद देश के तत्कालीन गृह मंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने संघ पर प्रतिबंध लगा दिया था।

हालांकि संघ गोडसे से अपने संबंधों को हमेशा नकारता रहा है और अपनी इस सफाई को पुख्ता करने के लिए वह गोडसे को गांधी का हत्यारा भी मानता है और उसके कृत्य को निंदनीय करार भी देता है। लेकिन सवाल उठता है कि आखिर क्या वजह है कि केंद्र में भारतीय जनता पार्टी के सत्तारूढ होने के बाद ही गोडसे को महिमामंडित करने का सिलसिला तेज हो गया?
इस सिलसिले में एकाएक उसका मंदिर बनाने के प्रयास शुरू हो गए। उसकी 'जयंती’ और 'पुण्यतिथि’ मनाई जाने लगी। उसे 'चिंतक’ और यहां तक कि 'स्वतंत्रता सेनानी’ और 'शहीद’ भी बताया जाने लगा। सवाल है कि तीन साल पहले केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार बनने के साथ ही गोडसे भक्तों के इस पूरे उपक्रम के शुरू होने को क्या महज संयोग माना जाए या कि यह सबकुछ किसी सुविचारित योजना के तहत हो रहा है?
गांधी के जिस हत्यारे को इस तरह महिमामंडित किया जा रहा है, उसके बारे में यह जानना दिलचस्प है कि वह गांधी की हत्या से पहले तक क्या था? क्या वह चिंतक था, ख्याति प्राप्त राजनेता था, हिंदू महासभा का जिम्मेदार पदाधिकारी या स्वतंत्रता सेनानी था?
दरअसल नाथूराम गोडसे कभी भी इतनी ऊचाइयों के दूर-दूर तक भी नहीं पहुंच पाया था। पुणे शहर के उसके मोहल्ले सदाशिव पेठ के बाहर उसे कोई नहीं जानता था, जबकि तब वह चालीस वर्ष की आयु के समीप था। नाथूराम स्कूल से भागा हुआ छात्र था। नूतन मराठी विद्यालय में मिडिल की परीक्षा में फेल हो जाने पर उसने पढ़ाई छोड दी थी। उसका मराठी भाषा का ज्ञान कामचलाऊ था। अंग्रेजी का ज्ञान होने का तो सवाल ही नहीं उठता।
उसके पिता विनायक गोडसे डाकखाने में बाबू थे, जिनकी मासिक आय पांच रुपए थी। नाथूराम अपने पिता का लाडला था क्योंकि उसके पहले जन्मे उनके सभी पुत्र मर गए थे। इसीलिए अंधविश्वास के वशीभूत होकर मां ने नाथूराम की परवरिश बेटी की तरह की। उसे नाक में नथ पहनाई जिससे उसका नाम नाथूराम हो गया। उसकी आदतें और हरकतें भी लडकियों जैसी हो गई।
नाथूराम के बाद उसके माता-पिता को तीन और पुत्र पैदा हुए थे जिनमें एक था गोपाल, जो नाथूराम के साथ गांधी-हत्या में सह अभियुक्त था। नाथूराम की युवावस्था किसी खास घटना अथवा विचार के लिए नहीं जानी जाती। उस समय उसके हमउम्र लोग भारत में क्रांति का अलख जगा रहे थे, जेल जा रहे थे, शहीद हो रहे थे। स्वाधीनता संग्राम की इस हलचल से नाथूराम का जरा भी सरोकार नहीं था।
अपने नगर पुणे में वह रोजी-रोटी के ही जुगाड में लगा रहता था। इस सिलसिले में उसने सांगली शहर में दर्जी की दुकान खोल ली थी। उसके पहले वह बढ़ई का काम भी कर चुका था और फलों का ठेला भी लगा चुका था।
पुणे में मई 191० में जन्मे नाथूराम के जीवन की पहली खास घटना थी सितम्बर 1944 में जब हिंदू महासभा के नेता लक्ष्मण गणेश थट्टे ने सेवाग्राम में धरना दिया था। उस समय महात्मा गांधी भारत के विभाजन को रोकने के लिए मोहम्मद अली जिन्ना से वार्ता करने मुंबई जाने वाले थे। चौतीस वर्षीय नाथूराम थट्टे के सहयोगी प्रदर्शनकारियों में शरीक था। उसका इरादा खंजर से बापू पर हमला करने का था, लेकिन आश्रमवासियों ने उसे पकड लिया था।
उसके जीवन की दूसरी बडी घटना थी एक वर्ष बाद यानी 1945 की, जब ब्रिटिश वायसराय ने भारत की स्वतंत्रता पर चर्चा के लिए राजनेताओं को शिमला आमंत्रित किया था। तब नाथूराम पुणे की किसी अनजान पत्रिका के संवाददाता के रूप मे वहां उपस्थित था।
गांधीजी की हत्या के बाद जब नाथूराम के पुणे स्थित आवास तथा मुंबई में उसके के घर पर छापे पडे थे तो मारक अस्त्रों का भंडार पकडा गया था जिसे उसने हैदराबाद के निजाम पर हमला करने के नाम पर बटोरा था। यह अलग बात है कि इन असलहों का उपयोग कभी नहीं किया गया। मुंबई और पुणे के व्यापारियों से अपने हिंदू राष्ट्र संगठन के नाम पर नाथूराम ने बेशुमार पैसा जुटाया था जिसका उसने कभी कोई लेखा-जोखा किसी को नहीं दिया।
उपरोक्त सभी तथ्यों का बारीकी से परीक्षण करने पर निष्कर्ष यही निकलता है कि अत्यंत कम पढा-लिखा नाथूराम एक टपोरी किस्म का व्यक्ति था जिसे कतिपय हिंदू उग्रवादियों ने गांधी की हत्या के लिए भाडे पर रखा हुआ था। जेल में उसकी चिकित्सा रपटों से पता चलता है कि उसका मस्तिष्क अधसीसी के रोग से ग्रस्त था। यह अडतीस वर्षीय बेरोजगार, अविवाहित और दिमागी बीमारी से त्रस्त नाथूराम किसी भी मायने में सामान्य मन:स्थिति वाला व्यक्ति नहीं था।
उसने गांधीजी की हत्या का पहला प्रयास 2०जनवरी, 1948 को किया था। अपने सहयोगी मदनलाल पाहवा के साथ मिलकर नई दिल्ली के बिडला भवन पर बम फेंका था, जहां गांधीजी दैनिक प्रार्थना सभा कर रहे थे। बम का निशाना चूक गया था। पाहवा पकड़ा गया था, मगर नाथूराम भागने में सफल होकर मुंबई में छिप गया था।
दस दिन बाद वह अपने अधूरे काम को पूरा करने करने के लिए फिर दिल्ली आया था। नाथूराम को उसके प्रशंसक एक धर्मनिष्ठ हिंदू के तौर पर भी प्रचारित करते रहे हैं लेकिन तीस जनवरी की ही शाम की एक घटना से साबित होता कि नाथूराम कैसा और कितना धर्मनिष्ठ था। गांधीजी पर पर तीन गोलियां दागने के पूर्व वह उनका रास्ता रोककर खडा हो गया था।
पोती मनु ने नाथूराम से एक तरफ हटने का आग्रह किया था क्योंकि गांधीजी को प्रार्थना के लिए देरी हो गई थी। धक्का-मुक्की में मनु के हाथ से पूजा वाली माला और आश्रम भजनावाली जमीन पर गिर गई थी। लेकिन नाथूराम उसे रौंदता हुआ ही आगे बढ गया था 2०वीं सदी का जघन्यतम अपराध करने।
जो लोग नाथूराम गोडसे से जरा भी सहानुभूति रखते हैं उन्हें इस निष्ठुर हत्यारे के बारे में एक और प्रमाणित तथ्य पर गौर करना चाहिए। गांधीजी को मारने के दो सप्ताह पहले नाथूराम ने काफी बडी राशि का अपने जीवन के लिए बीमा करवा लिया था ताकि उसके पकडे और मारे जाने पर उसका परिवार आर्थिक रूप से लाभान्वित हो सके।
एक कथित ऐतिहासिक मिशन को लेकर चलने वाला व्यक्ति बीमा कंपनी से हर्जाना कमाना चाहता था। अदालत में मृत्युदंड से बचने के लिए नाथूराम के वकील ने दो चश्मदीद गवाहों के बयानों में विरोधाभास का सहारा लिया था। उनमें से एक ने कहा था कि पिस्तौल से धुआं नहीं निकला था। दूसरे ने कहा था कि गोलियां दगी थी और धुआं निकला था। नाथूराम के वकील ने दलील दी थी कि धुआं नाथूराम की पिस्तौल से नहीं निकला, अत: हत्या किसी और की पिस्तौल से हो सकती है। माजरा कुछ मुंबइयां फिल्मों जैसा रचने का एक भौंडा प्रयास था। मकसद था कि नाथूराम संदेह का लाभ पाकर छूट जाए।
नाथूराम का मकसद कितना पैशाचिक रहा होगा, इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि गांधीजी की हत्या के बाद पकडे जाने पर खाकी निकर पहने नाथूराम ने अपने को मुसलमान बताने की कोशिश की थी। इसके पीछे उसका मकसद देशवासियों के रोष का निशाना मुसलमानों को बनाना और उनके खिलाफ हिंसा भडकाना था।
ठीक उसी तरह जैसे इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सिखों के साथ हुआ था। पता नहीं किन कारणों से राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने हत्यारे के नाम का उल्लेख नहीं किया लेकिन उनके संबोधन के तुरंत बाद गृह मंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने आकाशवाणी भवन जाकर रेडियो पर देशवासियों को बताया कि बापू का हत्यारा एक हिंदू है। ऐसा करके सरदार पटेल ने मुसलमानों को अकारण ही देशवासियों का कोपभाजन बनने से बचा लिया।
कोई भी सच्चा क्रांतिकारी या आंदोलनकारी जेल में अपने लिए सुविधाओं की मांग नहीं करता है। लेकिन नाथूराम ने गांधीजी को मारने के बाद अंबाला जेल के भीतर भी अपने लिए सुविधाओं की मांग की थी, जिसका कि वह किसी भी तरह से हकदार नहीं था। वैसे भी उसे स्नातक या पर्याप्त शिक्षित न होने के कारण पंजाब जेल नियमावली के मुताबिक साधारण कैदी की तरह ही रखा जाना था।
नाथूराम और उसके सह अभियुक्तों की देशभक्ति के पाखंड की एक और बानगी देखिए: वह आजाद भारत का बाशिंदा था और उसे भारतीय कानून के तहत ही उसके अपराध के लिए मृत्युदंड की सजा सुनाई गई थी। फिर भी उसने अपने मृत्युदंड के फैसले के खिलाफ लंदन की प्रिवी कांउसिल में अपील की थी। उसका अंग्रेज वकील था जान मेगा। अंग्रेज जजों ने उसकी अपील को खारिज कर दिया था। गांधीजी की हत्या का षडयंत्र रचने में नाथूराम का भाई गोपाल गोडसे भी शामिल था, जो अदालत में जिरह के दौरान खुद को गांधी-हत्या की योजना से अनजान और बेगुनाह बताता रहा।
अदालत ने उसे आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी। गोपाल जेल में हर साल गांधी जयंती के कार्यक्रम में बढ-चढकर शिरकत करता था। ऐसा वह प्रायश्चित के तौर पर नहीं बल्कि अपनी सजा की अवधि में छूट पाने के लिए करता था, क्योंकि जेल के नियमों के मुताबिक ऐसा करने पर सजा की अवधि में छूट मिलती है। तो इस तरह गोपाल गोडसे अपनी सजा की पूरी अवधि के पहले ही रिहाई पा गया था।
महात्मा गांधी को मुस्लिम परस्त मानने वाले इस तथाकथित हिंदू ह्दय सम्राट के पुणे में सदाशिव पेठ स्थित घर का नंबर 786 था जिसके मायने होते हैं : बिस्मिल्लाहिर रहमानिर्रहीम। सदाशिव पेठ में वह अक्सर गुर्राता था कि उसका भाई नाथूराम शहीद है। वह खुद को भी एक राष्ट्रभक्त आंदोलनकारी बताता था और बेझिझक कहा करता था कि एक अधनंगे और कमजोर बूढे की हत्या पर उसे कोई पश्चाताप अथवा अफसोस नहीं है।
नाथूराम के साथ जिस दूसरे अभियुक्त को फांसी दी गई थी वह था नारायण आप्टे। नाथूराम का सबसे घनिष्ठ दोस्त और सहधर्मी। ब्रिटिश वायुसेना में नौकरी कर चुका आप्टे पहले पहले गणित का अध्यापक था और उसने अपनी एक ईसाई छात्रा मनोरमा सालवी को कुंवारी माँ बनाने का दुष्कर्म किया था। हालांकि उसकी पत्नी और एक विकलांग पुत्र भी था। शराबप्रेमी आप्टे ने गांधी हत्या से एक दिन पूर्व यानी 29 जनवरी, 1948 की रात पुरानी दिल्ली के एक वेश्यालय में गुजारी थी और उस रात को उसने अपने जीवन की यादगार रात बताया था। यह तथ्य उससे संबंधित अदालती दस्तावेजों में दर्ज है।
गांधी हत्याकांड का चौथा अभियुक्त विष्णु रामकृष्ण करकरे हथियारों का तस्कर था। उसने अनाथालय में परवरिश पाई थी। गोडसे से उसका परिचय हिंदू महासभा के कार्यालय में हुआ था। एक अन्य अभियुक्त दिगम्बर रामचंद्र बडगे जो सरकारी गवाह बना और क्षमा पा गया, पुणे में शस्त्र भण्डार नामक दुकान चलाता था। नाटे, सांवले और भेंगी आंखों बडगे ने अपनी गवाही में विनायक दामोदर सावरकर को हत्या की साजिश का सूत्रधार बताया था लेकिन पर्याप्त सबूतों के अभाव में सावरकर बरी हो गए थे।
इन दिनों कुछ सिरफिरे और अज्ञानी लोग योजनाबद्ध तरीके से नाथूराम गोडसे को उच्चकोटि का चिंतक, देशभक्त और अदम्य नैतिक ऊर्जा से भरा व्यक्ति प्रचारित करने में जुटे हुए हैं। यह प्रचार सोशल मीडिया के माध्यम से चलाया जा रहा है। उनके इस प्रचार का आधार नाथूराम का वह दस पृष्ठीय वक्तव्य है जो बडे ही युक्तिसंगत, भावुक और ओजस्वी शब्दों में तैयार किया गया था और जिसे नाथूराम ने अदालत में पढा था। इस वक्तव्य में उसने बताया था कि उसने गांधीजी को क्यों मारा। कई तरह के झूठ से भरे इस वक्तव्य में दो बडे और हास्यास्पद झूठ थे।
एक यह कि गांधीजी गोहत्या का विरोध नहीं करते थे और दूसरा यह कि वे राष्ट्रभाषा के नहीं, अंग्रेजी के पक्षधर थे। दरअसल, यह वक्तव्य खुद गोडसे का तैयार किया हुआ नहीं था। वह कर भी नहीं सकता था, क्योंकि न तो उसे मराठी का भलीभांति ज्ञान था, न ही हिंदी का, अंग्रेजी का तो बिल्कुल भी नहीं।
अलबत्ता उस समय दिल्ली में ऐसे कई हिंदूवादी थे जिनका हिंदी और अंग्रेजी पर समान अधिकार और प्रवाहमयी शैली का अच्छा अभ्यास था। इसके अलावा वे वैचारिक तार्किकता में भी पारंगत थे। माना जा सकता है कि उनमें से ही किसी ने नाथूराम की ओर से यह वक्तव्य तैयार कर जेल में उसके पास भिजवाया होगा और जिसे नाथूराम ने अदालत में पढा होगा।
आप्टे की फांसी के दिन (15 नवम्बर 1949) अम्बाला जेल के दृश्य का आंखों देखा हाल न्यायमूर्ति जीडी खोसला ने अपने संस्मरणों में लिखा है, जिसके मुताबिक गोडसे तथा आप्टे को उनके हाथ पीछे बांधकर फांसी के तख्ते पर ले जाया जाने लगा तो गोडसे लड़खड़ा रहा था। उसका गला रूधा था और वह भयभीत और विक्षिप्त दिख रहा था। आप्टे उसके पीछे चल रहा था।
उसके भी माथे पर डर और शिकन साफ दिख रही थी। तो ऐसे 'बहादुर’, 'चरित्रवान’ और 'देशभक्त’ थे ये हिंदू राष्ट्र के स्वप्नदृष्टा, जिन्होंने एक निहत्थे बूढे, परम सनातनी हिंदू और राम के अनन्य-आजीवन भक्त का सीना गोलियों से छलनी कर दिया। ऐसे हत्यारों को प्रतिष्ठित करने के प्रयास तो शर्मनाक हैं ही, ऐसे प्रयासों पर सत्ता में बैठे लोगों की चुप्पी भी कम शर्मनाक और खतरनाक नहीं।

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