May 31, 2016

इस धंधे में नौकरी मिलने का एक मात्र पैमाना संपर्क, जाति और जुगाड़ है...

कई सारे पत्रकार सोशल मीडिया पर बता रहे हैं कि आज पत्रकारिता दिवस है। लोग एक दूसरे को बधाइयां दे रहे हैं। मैं भी इस मौके पर कुछ कहना चाहता हूँ। मगर कहने से पहले एक सफाई । मैं वर्तमान के बारे अपने अनुभव शेयर करूँगा क्योंकि इतिहास का गर्व मैं कभी महसूस नहीं कर पाया...
● पत्रकारिता एक मात्र धंधा है जहाँ आप पत्रकारिता करने के आलावा जो भी करें उसके लिए प्रोत्साहित किये जाते हैं, आपको तवज्जो मिलती है..लाइजनिंग, सेटिंग, बारगेनिंग, क्रिमिनल एक्टिविटी ...दूसरे किसी धंधे में ऐसा नहीं होता। गौर करें यह सभी अंग्रेजी के शब्द हैं पर हिंदी पत्रकारिता इसे सर्वाधिक अपने व्यवहार में उतारती है, वरिष्ठ इसे परंपरा की तरह नए में रोपते हैं। 
●सभी धंधों की मांग होती है उच्च गुणवत्ता। पर इस धंधे में उच्च गुणवत्ता लाने वालों की नौकरी हमेशा बोरिया-बिस्तर समेटने की मुद्रा में होती है। कहा जाता है- नोटिस तुम्हें खुद झेलनी होगी, मानहानी के मामले में नौकरी जायेगी, तेज न बनो, पॉलिसी समझो, नौकरी जायेगी, नहीं चलेगी एक्टिविस्ट टाइप पत्रकारिता।

● उदाहरण के लिए आप स्टील के धंधे को लें। इसकी गुणवत्ता इंजिनियरिंग विभाग तय करता होगा क्योंकि वही इसके काबिल है। पर पत्रकारिता की गुणवत्ता का मापदंड संपादकीय विभाग को छोड़कर दूसरे सभी विभाग तय करते हैं। मोटा सच ये है कि संपादकीय सिर्फ अंगूठा लगाता है।

● यह एक मात्र धंधा है जहाँ प्रोडक्ट प्रोड्यूस यानि अख़बार निकालने वालों की सैलरी सभी अन्य विभागों मार्केटिंग, सेल्स, प्रोडक्शन, प्रिंटिंग, सर्कुलेशन से कम होती है।

● अगर कोई सर्वे हो और उन्हें दूसरे काम का विकल्प दिया जाय तो मीडिया हाउसों में काम करने वाले 80 फिसदी कर्मचारी-पत्रकार नौकरी छोड़ना पसंद करेंगे।

● जिस धंधे का बहुतायत किसी आनंद, संतुष्टि, महत्वाकांक्षा या फितरत के कारण काम नहीं कर रहा, बल्कि पेट, परिवार और ईएमआई की मज़बूरी में ख़ट रहा है उसकी गुणवत्ता की बात करना टाइम पास है।

● अख़बारों और टीवी चैनलों की सबसे बड़ी वर्कफोर्स स्ट्रिंगर हैं, किसी मीडिया हॉउस को राष्ट्रीय बनाने की वह धुरी हैं पर उनकी औसत सैलरी 500 रुपये प्रतिमाह भी नहीं है।

● अभिव्यक्ति के इस धंधे में जो सबसे कम अभिव्यक्ति करता है, सबकुछ सह लेता है, वह आसमान में उड़ता है और जो बोलता है वह इस पेज से उस पेज पर गरई पकड़ता है।

● जिनको लिखने नहीं आता वह संपादक बनते हैं और जो लिखना जानते हैं उनकी सबसे बड़ी उपयोगिता संपादकीय के 3 सौ शब्द लिखने में साबित होती है।

● इस धंधे में नौकरी मिलने का एक मात्र पैमाना संपर्क, जाति और जुगाड़ है। संघी-वामपंथी-समाजवादी होना अतिरिक्त योग्यता है। साक्षात्कार संस्थान के मानक को बनाये रखने का जरिया भर है जिससे कंपनी के राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय वैल्यू में कमी न आये। यह ठीक वैसे ही है जैसे आप हर साल अपरेजल फार्म भरते हैं पर उससे पहले ही तय हो चुका होता है कि सबकी सालाना सैलरी कितनी बढ़नी है।

अब आप कह सकते हैं कि जब इतना कुछ नकारात्मक है तो आप क्यों हैं पत्रकारिता में, छोड़ क्यों नहीं देते। हो सकता है कुछ मित्र फोन करें कि नौकरी चली जायेगी भाई।

इसपर मेरा बस कहना है दोस्तों मैं पत्रकारिता को जीता हूँ, इसलिये लिख रहा हूँ। आप भी लिखिए। डंके की चोट पर 'हम कह कर लेंगे' तो सूरत बदलेगी।

बाजार सक्षम और विवेकवान लोगों को भी कम स्पेस नहीं देता। जरुरत है तो पत्रकारिता की काई को साफ़ करने की, क्योंकि हमने काई देखते - देखते पानी के अस्तित्व को ही भुला दिया है। ‪#‎hamtobolenge‬

May 27, 2016

आपने किसानों को बचाने वाली पोस्ट शेयर होते देखी है...

मैं अक्सर देखता हूं किसी सैनिक के मारे जाने पर पोस्ट घूमने लगती है। पोस्ट शेयर करने वाले लोग अपील करते हैं इसे ज्यादा से ज्यादा लाइक करें, यह देश का सपूत है, इसने देश की रक्षा में अपनी जान गंवाई है। इस पोस्ट को देखते हुए मुझे किसानों की अक्सर याद आती है। 

सोचता हूं आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या अब तीन लाख से उपर हो चुकी है पर इनकी सुरक्षा, समृद्धि और सबलता को बनाए रखने की कोई अपील करती पोस्ट क्यों नहीं दिखती ? जो किसान सैनिकों के पेट पालते हैं, सीमा पर उन्हें खड़े होने लायक बनाते हैं, वह क्या इतने भी महान और कद्र के काबिल नहीं कि उनके जीवन बचाने की गारंटी की भी राष्ट्रीय अपील हो, स्वत:स्फूर्त ढंग से लोग हजारों की संख्या में शेयर करें और सरकार से गारंटी लें कि अगर अगला किसान मरा तो अच्छा नहीं होगा। सरकार को चेताएं कि आत्महत्या रूकी नहीं तो हम सोशल मीडिया से सड़कों पर उतर आएंगे। 

आप खुद देखिए कि सीमा पर तैनात सैनिक के मरने पर 30 लाख से 1 करोड़ तक मिलते हैं पर जो किसान देश को खड़ा होने लायक बनाता है, जिसका अन्न खाकर देश डकार लेता है, उसकी आत्महत्या के बाद कैसी छिछालेदर मचती है। उसने कर्ज और खेती में नुकसान के कारण आत्महत्या की है, यही साबित करने के लिए उसे अधिकारियों को घूस देना पड़ता है। किसान के मरने के बाद उसके बचे परिवार को मुआवजे के लिए बीडीओ, लेखपाल, एसडीएम, क्लर्क, चपरासी समेत नेताओं की इस कदर जी हजूूरी करनी पड़ती है कि भिखमंगे भी शर्मिंदा हो जाएं। 

क्या हम अपने देश के लोगों के त्याग को बांटकर देखेंगे। एक ही घर, गांव और परिवार से निकले सैनिकों और किसानों की संयुक्त भूमिका देश की सीमा से लेकर देश के शरीर को सबल बनाने में एक सी नहीं है। अगर है तो नजरिया बदलिए, एकजुट होइए और किसानों को बचाने के लिए आगे आइए। ​क्योंकि आप भी जानते हेैं और ह भी, सीमा तभी बचेगी जब सैनिक बचेगा,  और सैनिक तभी बचेगा जब किसान बचेगा। किसान नहीं बचा तो न सीमा बचेगी, न सैनिक बचेंगे और न ही देश। 

May 20, 2016

छत्तीसगढ़ में कलेक्टर ऐसे देता है पत्रकार को धमकी

जरा इस आॅडियो का सुनिए.
 https://soundcloud.com/janjwar/aud-20160520-wa00021
जगदलपुर कलेक्टर अमित कटारिया पत्रकार कमल शुक्ला को कैसे गालियां दे रहे हैं और मसल देने की धमकी दे रहे हैं। उन्हें मक्खी और दो—कौड़ी का बोल रहे हैं। जगदलपुर के वरिष्ठ पत्रकार कमल शुक्ला कलेक्टर से बातचीत में उसी कार्यक्रम का हवाला दे रहे हैं जिसमें वह और उनके करीब दर्जन भर पत्रकार साथी हफ्ते पहले दिल्ली आए थे। इन पत्रकार साथियों का दिल्ली आने और जंतर—मंतर पर प्रदर्शन् करने का मकसद छत्तीसगढ़ सरकार और पुलिस द्वारा पत्रकारों पर की जा रही ज्यादती थी।

आॅडिया की पूरी बातचीत यहां पढ़ सकते हैं 

कलेकटर अमित कटारिया :-  हेलो
पत्रकार कमल शुक्ला:- हा सर नमस्कार में कमल शुक्ला बोल रहा हु ..
कलेकटर अमित कटारिया :- हा हा नमस्कार
पत्रकार कमल शुक्ला:- आपका पोस्ट देखा सर में कल वाला
कलेकटर अमित कटारिया :- हा हा ...
पत्रकार कमल शुक्ला:-उस समय भी आप एकदम से निर्णय ले लिये थे कि हमारा आंदोलन नक्सली प्रेरित है कर के ..और कल वाला पोस्ट देखा .. तो मेरे को समझ आ गया की सर क्या गंदा मानसिकता है आपका ..एकदम से आप ऐसा सोच लिये है की नक्सली लोग उनको बुला लेंगे..दिल्ली से ..JNU से की आप धमकाओ लोगो को ...
कलेकटर अमित कटारिया :-  क्या बोला तू ..क्या बोला तू
पत्रकार कमल शुक्ला:- तू तड़ाक क्यों बोल रहे है सर.
कलेकटर अमित कटारिया :- क्या बोला तू गन्दी मानसिकता ..तेरी इतनी हिम्मत दो कौड़ी का आदमी..साला तू किससे बात कर रहा है जानता है?इतनी हिम्मत हो गई साल तुझे मसल दूंगा..
पत्रकार कमल शुक्ला :- मसल दोगे न सर मसलने के लिए पैदा हुए है..
कलेकटर अमित कटारिया :-  चूजे,मच्छर, मक्खी है तू..
पत्रकार कमल शुक्ला :- हम तो मच्छर मक्खी पैदा होते है सर ..

May 12, 2016

शादियों में सबके अपने कोने होते हैं

शादियों में सबके अपने कोने होते हैं और हर कोई अपने परिचितों—दोस्तों के साथ किसी न किसी टॉपिक पर लगा रहता है। मुझे भी एक कोने में जगह मिली और कुछ लोग वहां एक हॉट सामाजिक सवाल पर लगे हुए थे। सवाल बिल्कुल समय से था और वास्ता उसका सबसे था।
टॉपिक था मोबाइल में पासवर्ड डालना सही है या गलत, नैतिक है या अनैतिक। और क्या जो लोग अपनी मोबाइल में पासवर्ड डालते हैं उन्हें संदेहास्पद माना जाए, अनैतिक कहा जाए। क्या मोबाइल पासवर्ड को डिजिटल चरित्र प्रमाण पत्र के तौर पर लिया जाए!
देर तक इस मसले पर बहस होती रही। सबने अपने अनुभव और समझदारी की बातें कीं। बहस कर रहे लोगों ने एक स्वर में माना भी कि जो पासवर्ड डालते हैं, वह संदेहास्पद होते हैं।
बहस कर रहे ये लोग ईमानदार किस्म के थे कि इन्होंने उदाहरण के तौर पर खुद को भी शामिल करने से गुरेज नहीं किया। माना कि वे सभी खुद भी पासवर्ड डालते हैं और सबको भाई, बाप, दोस्त , पति , पत्नी, प्रेमी, प्रेमिका से कुछ न कुछ छुपाना होता है। एक ने तो यह भी कहा कि वह इसलिए पासवर्ड डालता है क्योंकि उसका बॉस इधर—उधर टहलते हुए किसी का फोन उठाकर देखने लगता है।
हमारी सरकार और पार्टियां भले ही जनता को किसी और सामाजिक मसले की ओर खींचकर ले जाएं लेकिन आप भी मानेंगे कि आजकल मोबाइल में पासवर्ड का सवाल एक राष्ट्रीय सांस्कृतिक विमर्श का विषय बना हुआ है। कोई ऐसी सार्वजनिक जगह नहीं जहां युवा आपको ऐसी बातें करते न दिख जाएं।
लेकिन आप इस सवाल पर सोचें और कुछ राय दें उससे पहले बात यह कि पासवर्ड डालना ही क्यों है? यह समस्या बनी ही क्यों? किसी और कि मोबाइल, कोई और छूता ही क्यों है, किस नैतिक साहस के साथ देखता है, उसे चेक करता है। थोड़ी भी शर्म नहीं आती ऐसे लोगों को। फिर वह क्यों रहते हैं एक साथ, एक छत के नीचे या क्यों खाते हैं कसमें एक—दूसरे के संग होने की, जीने की। इतना न्यूनतम विश्वास एक दूसरे के लिए हमारे में नहीं बचा है फिर हम बराबरी और भरोेसे का समाज बना कैसे सकते हैं।
पर इन सबके बीच सबसे घातक तो यह है कि जिसकी मोबाइल चेक हो रही है वह भी और जो चेक कर रहा है वह भी, इस घटिया हरकत को महान भारतीय परंपरा की मान रहा है। वह प्राइवेसी जैसे किसी मानवाधिकार या अधिकार को समझता ही नहीं है। वह इस खेल में खुद को भागीदार बना रहा है पर इस वाहियात हरकत पर नफरत या विरोध में दो शब्द नहीं दर्ज करा पा रहा। हालत यह है कि जब जिसको मौका मिलता है, वह चेक कर लेता है। इस मामले में सभी आरोपी हैं और सभी पीड़ित। कभी जो आरोपी है वह पीड़ित बन जाता है और कभी पीड़ित, आरोपी।
हमारे भीतर इतनी जनतांत्रिक चेतना और भरोसा का बोध नहीं है कि हम बुलंद हो बोल सकें कि प्राइवेसी भी कोई चीज होती है भाई।
मैं डिजिटल होते समाज का इसे एक बड़ा सवाल मानता हूं क्योंकि इससे समाज तकनीकी से तो आधुनिक हो रहा है पर चेतना के स्तर पर हमारी समझ पुरानी, दकियानूस और डिक्टेट करने वाली बनी हुई है। इस समझदारी के रहते चाहे हम इंसान ही डिजिटल क्यों न बना लें पर हम अपने देश और समाज को बराबरी, सहजता और सम्मान वाला कभी न बना पाएंगे। ‪#‎hamtobolenge‬

मर्दो का बहुमत औरतों के बारे में जनमत कैसे बनाता है...

मर्दो का बहुमत औरतों के बारे में जनमत कैसे बनाता है, उसका एक मजमून देखिए।

दिल्ली के राजीव चौक मेट्रो स्टेशन पर यात्रियों के चढ़ने के साथ चटाक की आवाज आई। साफ था कि किसी के गाल पर जोर का तमाचा लगा है। देखा तो पता चला कि तमाचा एक लड़की ने एक लड़के के गाल पर मारा है। तमाचा मारने वाली लड़की, लड़के को डांट रही थी। बदतमीज और बेशर्म बोल रही थी। लड़का भौचक था जबकि भीड़ तत्पर निगाहों से दोनों को देख रही थी।

लड़का अकबकाते हुए बोला, 'मैंने क्या किया, मैंने क्या किया। इतनी भीड़ में धक्का लग गया तो मैं क्या करूं।'
लड़की, 'धक्का लगा है। बताउं मैं तुम्हें। एक और जोर की लगाउंगी तो सब याद आ जाएगा।'

भीड़ और भी तत्परता से कभी लड़के की तरफ तो कभी लड़की ओर ताके जा रही थी। लड़का वहीं गेट पर खड़ा रहा और गुस्से में तमतमाई लड़की दूसरे बोगी की ओर बढ़ गयी। थोड़ी देर में लड़का भी दूसरी ओर खिसक लिया।

तबतक ट्रेन मंडी हाउस से आगे बढ़ चुकी थी और मौन भीड़ विमर्श की मुद्रा में आ चुकी थी। विमर्श की शुरुआत करते हुए एक दक्षिण भारतीय हिंदी बोलने वाले सज्जन ने कहा, 'मैंने देखा नहीं कि लड़के ने क्या किया, लेकिन जब इतनी परेशानी रहती तो इन लोगों को लेडिज बोगी में जाना चाहिए। बताइए, मारने का क्या? पलट कर वह भी मार दे फिर हम ही लोग कहेंगे कि लेडिज पर हाथ उठाता है।'

बात को आगे बढ़ाते हुए एक दूसरे अधेड़ ने कहा, 'मैंने भी नहीं देखा कि लड़के ने क्या किया पर इन लड़कियों के साथ अपराध इसीलिए हो रहे हैं कि मर्दों का यह कोर्इ् वैल्यू ही नहीं समझतीं। जब कोई लड़की ऐसे सरेआम मर्द को बेइज्जत करेगी तो क्या होगा। अगर वह लड़का अपने पर आ जाए और कुछ कर दे तो। वैसे भी तेजाब फेंकने की कितनी घटना होने लगी हैं आजकल।'

तीसरी राय एक नौजवान की ओर से आई, 'ऐसी लड़कियों के ही बलात्कार होते हैं। कैसे ठुमक के चली गयी। अरे क्या किया होगा लड़के ने। भीड़ में धक्का ही लगा होगा न। क्यों चलती है मेट्रो से। इतने ही नखरे हैं तो गाड़ी से चला करे, बोल दे बाप को।'

चौथी राय उस आदमी की ओर से आई जिसके गले में मिनिस्ट्री आॅफ होम अफेयर्स का आईकार्ड गले में लटका था। उनके विचार में, 'पता नहीं लड़के ने लड़की के साथ किया क्या पर इसमें मैं लड़की से ज्यादा मां—बाप को दोषी मानता हूं। वह बेटियों को पारिवारिक मूल्य सिखा नहीं रहे। मेरी भी बेटियां हैं, हमलोग भी परिवार वाले हैं, कभी कोई संस्कारी लड़की ऐसा करेगी नहीं। वह सह लेगी चुपचाप। आखिर क्या मिला उस लड़की को। जो बात छुपी हुई थी वह सबके बीच आ गई, क्या इज्जत रह गयी।'

ऐसी घटनाओं के एकाध किस्से आपके पास भी होंगे। पर इस घटना में आपने गौर किया होगा कि राय बनाने वालों में से किसी को पता नहीं कि लड़के ने लड़की के साथ क्या किया, किस रूप में छेड़खानी की, क्योें लड़की ने चाटा मारा। पर राय बना ली, अगल—बगल वालों को प्रभावित किया। इतना ही नहीं राय बनाने वाले ये लोग जहां काम करते होंगे, पढ़ते होंगे या रहते होंगे, वहां भी कल को औरतों—लड़कियों की बात आने पर आंखों देखी इस साक्ष्य को कुर्सी पर मुक्का मारकर दावे के साथ पेश करेंगे।

पर आप सब जोकि इस घटना के प्रत्यक्षदर्शी नहीं है, सिर्फ इस वाकये के एक पाठक भर हैं, क्या प्रत्यक्षदर्शियों के जनमत बनाने की इस प्रक्रिया के साथ आप खड़े होना जायज मानते हैं। नहीं न। फिर इसे रोकिए, चुप मत बैठिए क्योंकि बहुमत द्वारा जनमत बनाने का यह तरीका बहुत ही खतरनाक है। सिर्फ औरतों के लिए नहीं बल्कि पूरे समाज के लिए, एक सक्षम मुल्क के लिए।' ‪#‎metrodairy‬