कई सारे पत्रकार सोशल मीडिया पर बता रहे हैं कि आज पत्रकारिता दिवस है।
लोग एक दूसरे को बधाइयां दे रहे हैं। मैं भी इस मौके पर कुछ कहना चाहता
हूँ। मगर कहने से पहले एक सफाई । मैं वर्तमान के बारे अपने अनुभव शेयर
करूँगा क्योंकि इतिहास का गर्व मैं कभी महसूस नहीं कर पाया...
●
पत्रकारिता एक मात्र धंधा है जहाँ आप पत्रकारिता करने के आलावा जो भी करें
उसके लिए प्रोत्साहित किये जाते हैं, आपको तवज्जो मिलती है..लाइजनिंग,
सेटिंग, बारगेनिंग, क्रिमिनल एक्टिविटी ...दूसरे किसी धंधे में ऐसा नहीं होता।
गौर करें यह सभी अंग्रेजी के शब्द हैं पर हिंदी पत्रकारिता इसे सर्वाधिक
अपने व्यवहार में उतारती है, वरिष्ठ इसे परंपरा की तरह नए में रोपते हैं।
●सभी धंधों की मांग होती है उच्च गुणवत्ता। पर इस धंधे में उच्च गुणवत्ता
लाने वालों की नौकरी हमेशा बोरिया-बिस्तर समेटने की मुद्रा में होती है।
कहा जाता है- नोटिस तुम्हें खुद झेलनी होगी, मानहानी के मामले में नौकरी
जायेगी, तेज न बनो, पॉलिसी समझो, नौकरी जायेगी, नहीं चलेगी एक्टिविस्ट टाइप
पत्रकारिता।
● उदाहरण के लिए आप स्टील के धंधे को लें। इसकी गुणवत्ता इंजिनियरिंग विभाग तय करता होगा क्योंकि वही इसके काबिल है। पर पत्रकारिता की गुणवत्ता का मापदंड संपादकीय विभाग को छोड़कर दूसरे सभी विभाग तय करते हैं। मोटा सच ये है कि संपादकीय सिर्फ अंगूठा लगाता है।
● यह एक मात्र धंधा है जहाँ प्रोडक्ट प्रोड्यूस यानि अख़बार निकालने वालों की सैलरी सभी अन्य विभागों मार्केटिंग, सेल्स, प्रोडक्शन, प्रिंटिंग, सर्कुलेशन से कम होती है।
● अगर कोई सर्वे हो और उन्हें दूसरे काम का विकल्प दिया जाय तो मीडिया हाउसों में काम करने वाले 80 फिसदी कर्मचारी-पत्रकार नौकरी छोड़ना पसंद करेंगे।
● जिस धंधे का बहुतायत किसी आनंद, संतुष्टि, महत्वाकांक्षा या फितरत के कारण काम नहीं कर रहा, बल्कि पेट, परिवार और ईएमआई की मज़बूरी में ख़ट रहा है उसकी गुणवत्ता की बात करना टाइम पास है।
● अख़बारों और टीवी चैनलों की सबसे बड़ी वर्कफोर्स स्ट्रिंगर हैं, किसी मीडिया हॉउस को राष्ट्रीय बनाने की वह धुरी हैं पर उनकी औसत सैलरी 500 रुपये प्रतिमाह भी नहीं है।
● अभिव्यक्ति के इस धंधे में जो सबसे कम अभिव्यक्ति करता है, सबकुछ सह लेता है, वह आसमान में उड़ता है और जो बोलता है वह इस पेज से उस पेज पर गरई पकड़ता है।
● जिनको लिखने नहीं आता वह संपादक बनते हैं और जो लिखना जानते हैं उनकी सबसे बड़ी उपयोगिता संपादकीय के 3 सौ शब्द लिखने में साबित होती है।
● इस धंधे में नौकरी मिलने का एक मात्र पैमाना संपर्क, जाति और जुगाड़ है। संघी-वामपंथी-समाजवादी होना अतिरिक्त योग्यता है। साक्षात्कार संस्थान के मानक को बनाये रखने का जरिया भर है जिससे कंपनी के राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय वैल्यू में कमी न आये। यह ठीक वैसे ही है जैसे आप हर साल अपरेजल फार्म भरते हैं पर उससे पहले ही तय हो चुका होता है कि सबकी सालाना सैलरी कितनी बढ़नी है।
अब आप कह सकते हैं कि जब इतना कुछ नकारात्मक है तो आप क्यों हैं पत्रकारिता में, छोड़ क्यों नहीं देते। हो सकता है कुछ मित्र फोन करें कि नौकरी चली जायेगी भाई।
इसपर मेरा बस कहना है दोस्तों मैं पत्रकारिता को जीता हूँ, इसलिये लिख रहा हूँ। आप भी लिखिए। डंके की चोट पर 'हम कह कर लेंगे' तो सूरत बदलेगी।
बाजार सक्षम और विवेकवान लोगों को भी कम स्पेस नहीं देता। जरुरत है तो पत्रकारिता की काई को साफ़ करने की, क्योंकि हमने काई देखते - देखते पानी के अस्तित्व को ही भुला दिया है। #hamtobolenge
● उदाहरण के लिए आप स्टील के धंधे को लें। इसकी गुणवत्ता इंजिनियरिंग विभाग तय करता होगा क्योंकि वही इसके काबिल है। पर पत्रकारिता की गुणवत्ता का मापदंड संपादकीय विभाग को छोड़कर दूसरे सभी विभाग तय करते हैं। मोटा सच ये है कि संपादकीय सिर्फ अंगूठा लगाता है।
● यह एक मात्र धंधा है जहाँ प्रोडक्ट प्रोड्यूस यानि अख़बार निकालने वालों की सैलरी सभी अन्य विभागों मार्केटिंग, सेल्स, प्रोडक्शन, प्रिंटिंग, सर्कुलेशन से कम होती है।
● अगर कोई सर्वे हो और उन्हें दूसरे काम का विकल्प दिया जाय तो मीडिया हाउसों में काम करने वाले 80 फिसदी कर्मचारी-पत्रकार नौकरी छोड़ना पसंद करेंगे।
● जिस धंधे का बहुतायत किसी आनंद, संतुष्टि, महत्वाकांक्षा या फितरत के कारण काम नहीं कर रहा, बल्कि पेट, परिवार और ईएमआई की मज़बूरी में ख़ट रहा है उसकी गुणवत्ता की बात करना टाइम पास है।
● अख़बारों और टीवी चैनलों की सबसे बड़ी वर्कफोर्स स्ट्रिंगर हैं, किसी मीडिया हॉउस को राष्ट्रीय बनाने की वह धुरी हैं पर उनकी औसत सैलरी 500 रुपये प्रतिमाह भी नहीं है।
● अभिव्यक्ति के इस धंधे में जो सबसे कम अभिव्यक्ति करता है, सबकुछ सह लेता है, वह आसमान में उड़ता है और जो बोलता है वह इस पेज से उस पेज पर गरई पकड़ता है।
● जिनको लिखने नहीं आता वह संपादक बनते हैं और जो लिखना जानते हैं उनकी सबसे बड़ी उपयोगिता संपादकीय के 3 सौ शब्द लिखने में साबित होती है।
● इस धंधे में नौकरी मिलने का एक मात्र पैमाना संपर्क, जाति और जुगाड़ है। संघी-वामपंथी-समाजवादी होना अतिरिक्त योग्यता है। साक्षात्कार संस्थान के मानक को बनाये रखने का जरिया भर है जिससे कंपनी के राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय वैल्यू में कमी न आये। यह ठीक वैसे ही है जैसे आप हर साल अपरेजल फार्म भरते हैं पर उससे पहले ही तय हो चुका होता है कि सबकी सालाना सैलरी कितनी बढ़नी है।
अब आप कह सकते हैं कि जब इतना कुछ नकारात्मक है तो आप क्यों हैं पत्रकारिता में, छोड़ क्यों नहीं देते। हो सकता है कुछ मित्र फोन करें कि नौकरी चली जायेगी भाई।
इसपर मेरा बस कहना है दोस्तों मैं पत्रकारिता को जीता हूँ, इसलिये लिख रहा हूँ। आप भी लिखिए। डंके की चोट पर 'हम कह कर लेंगे' तो सूरत बदलेगी।
बाजार सक्षम और विवेकवान लोगों को भी कम स्पेस नहीं देता। जरुरत है तो पत्रकारिता की काई को साफ़ करने की, क्योंकि हमने काई देखते - देखते पानी के अस्तित्व को ही भुला दिया है। #hamtobolenge
No comments:
Post a Comment