Jan 24, 2016

आज का एकलव्य होता तो एक बाल नोचकर न देता द्रोणाचार्य को

संघर्ष में विजित, पराजित और सक्रिय रहने वाले दलितों को एकलव्य क्यों कहना है? 

यह उदाहरण अपने आप में ब्राम्हणवाद को मजबूत नहीं करता। 

मैं यह इसलिए पूछ रहा हूं कि रोहित वुमेला के मौत के बाद फिर एक बार यह शब्द तेजी से ट्रेंड करने लगा है। वह भी उसके पक्षधरों द्वारा। 

एक तरफ आप कहते हैं, दलितों का महाकाव्य अभी लिखा जाना है और दूसरी तरफ शोषकों के महाकाव्य में रचित चरित्र को सिर—आंखों पर बैठाते हैं। आप महिषासुर को पुर्नपरिभाषित कर रहे हैं, लेकिन आज के युग में आदर्श बन रहे दलितों को एकलव्य से आगे नहीं जाने दे रहे। 

रही होगी उस समय एकलव्य की कोई मजबूरी जो उसने द्रोणाचार्य को अपना अंगूठा दे दिया, लेकिन आज का दलित एक बाल नोचकर न दे। उल्टे वह सदियों का हिसाब ले ले। क्या वह इतने के बाद भी एकलव्य की तरह ईमोशनल वारफेयर में फंसेगा ? 


आपको लगता है कि अगर किसी दलित ने महाभारत लिखी होती तो अपना धर्म न निभाने वाले द्रोणाचार्य के प्रति वह वैसा ही रवैया बरतता जैसा व्यास ने बरता है। नहीं न। न ही धनुष विद्या में निपुण एकलव्य बकलोल होता, जो अपनी बेइज्जती इस कदर भूल जाता कि वह अपना अस्त्र 'अंगूठा' ही दान कर दे। 


पूरा महाभारत 'कर्म करो फल की चिंता मत करो' के सूत्र वाक्य का समाहार है तो क्या एकलव्य का यही कर्म था। 


एक काबिल दलित का अंगूठा देना ब्राम्हणवाद की उस परंपरावादी समझ को पुष्ट नहीं करता है कि तुम चाहे जितने काबिल हो जाओ, बुद्धि में तुम हमसे पार न पा पाओगे, हम तुम्हें कमतर करके ही छोड़ेंगे। मतलब वे अनंतकाल तक एकलव्य पैदा करते रहेंगे। 


पर आज का दलित इस श्रेष्ठता बोध को क्यों जारी रहने दे और खुद हीनताबोध में क्यों जिए ।

1 comment:

  1. बहुत दुखद है कि शोषण करने वालों का बालबांका नहीं हो रहा है और वंचित समुदाय की एकता ही बार-बार खंडित हो रही है|

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