Oct 9, 2010

आन्दोलन की राह पर हिण्डालको


उत्तर प्रदेश के सोनभद्र में बिड़ला समूह की एल्युमिनियम उत्पादक कंपनी  'हिण्डालको'ठेका मजदूरों का कईवर्षों  से शोषण  कर  रही है,जिसके  खिलाफ संगठित हो   आवाज  उठाने  वालों  को कम्पनी  प्रबंधन दबंगई के बूते 
खामोश करानाचाहता है.आन्दोलन, मांगो और हो रहे उत्पीडन पर  सोनभद्र से  दिनकर कपूर की रिपोर्ट.


बिडला समूह की अल्युमिनियम उत्पादक कंपनी 'हिण्डालको'में ठेकेदारी के तहत काम करने वाले मजदूरों ने जिलाधिकारी के कहने  पर ६ अक्टूबर को आन्दोलन  स्थगित कर दिया था। जिलाधिकारी ने  आन्दोलनरत मजदूरों के प्रतिनिधियों को आश्वासन दिया था कि दो दिन के अन्दर उपश्रमायुक्त पिपरी के यहाँ वार्ता कर लंबित समस्याओं का समाधान कराया जायेगा और किसी भी मजदूर का उत्पीड़न और छंटनी नहीं की जायेगी। साथ ही मजदूरों पर लादे गये मुकदमों सहित 4अक्टूबर को हुयी घटना की जांच पुलिस से करायी जायेगी। जांच के बाद ही कोई कार्यवाही होगी।
 
उन्होंने यह भी कहा कि वर्तमान समय में जारी पंचायत चुनाव को देखते हुए प्रशासनिक व्यवस्था, कानून व्यवस्था के कारण तात्कालिक रूप से हम लोग आन्दोलन को स्थगित करें। चुनाव के बाद इस पूरे औद्योगिक क्षेत्र के संविदा श्रमिकों की समस्याओं के निस्तारण के लिए वह स्वयं विभिन्न औद्योगिक इकाइयों के प्रबन्ध तंत्र और संविदा मजदूरों के प्रतिनिधियों के बीच वार्ता की पहल करेंगे। जिलाधिकारी के इस आश्वासन के बाद राष्ट्रहित, प्रदेशहित और उद्योगहित को देखते हुए हमने अपने आन्दोलन को स्थगित किया।

मगर बड़े दुःख के साथ कहना पड़ रहा है कि आन्दोलन समाप्ति के बाद प्रबंध तंत्र ने संविदा मजदूरों का जबर्दस्त उत्पीड़न शुरु कर दिया है। लगभग 200से भी ज्यादा मजदूरों को काम से निकाल दिया गया है। संचार क्रांति के इस युग में संविदा मजदूरों के मोबाइल को फैक्टरी के अन्दर ले जाने पर रोक लगा दी गयी है। मजदूरों से हिण्डालको सुरक्षाकर्मियों द्वारा जबरन गेट पास छीना जा रहा है। मजदूर नेताओं और उनके प्रतिनिधियों की घेराबंदी शुरु कर दी गयी है।

चार अक्टूबर की हुई दुर्भाग्यपूर्ण घटना यानी पत्रकारों के साथ कथित दुव्यर्वहार की बात पर मजदूर नेताओं के खेद प्रकट करने के बाद भी हिण्डालको के इशारे पर पत्रकारों की तरफ से प्रशासन और पुलिस ने नेताओं पर मुकदमा कायम कराया। हमने इस स्थिति से बार-बार प्रशासन और प्रबन्ध तंत्र को अवगत कराया,लेकिन मजदूरों के उत्पीड़न को रोकने की दिशा में कोई कार्यवाही नहीं हुई। दरअसल,प्रशासन का यह रुख बेहद गैरजवाबदेह और लापरवाहीपूर्ण है। इससे मजदूरों में गहरा आक्रोश है। रेणुकूट में यह एक बहुत ही बड़े तनाव को जन्म दे रहा है। है। यह बातें रेनूकूट में आयोजित पत्रकार वार्ता में मजदूर नेताओं ने पे्रस से कही।

पत्रकार वार्ता में जन संघर्ष मोर्चा के प्रतिनिधि,श्रम संविदा संघर्ष समिति के अध्यक्ष और नगर पंचायत अध्यक्ष अनिल सिंह, प्रगतिशील मजदूर सभा के अध्यक्ष द्वारिका सिंह, मजदूर मोर्चा के संयोजक राजेश सचान, कांग्रेस पीसीसी सदस्य बिन्दू गिरि और ठेका मजदूर यूनियन के अध्यक्ष सुरेन्द्र पाल ने सम्बोधित किया।

मजदूर नेताओं ने कहा कि हिण्डालकों से लेकर अनपरा, ओबरा, रेनूसागर, लैकों, सीमेन्ट, कोयला और बिजली की औद्योगिक इकाइयों में हजारों की संख्या में काम कर रहे संविदा श्रमिक निर्मम शोषण के शिकार हैं। एक ही कार्यस्थल पर बीस-पचीस वर्षों से कार्यरत होने के बावजूद उन्हे नियमित नहीं  किया जा रहा है. उन्हें न्यूनतम मजदूरी तक नहीं दी जाती। कानूनी प्रावधान होने के बाद भी हाजरी कार्ड, वेतन पर्ची, रोजगार कार्ड, बोनस, डबल ओवरटाइम और सार्वजनिक अवकाश नहीं दिया जाता है। यहां तक कि इपीएफ की कटौती के बावजूद उसकी कोई रसीद नहीं  दी जाती है।

इतना ही नही यदि कोई मजदूर जायज मांग के लिए आवाज उठाता है तो उसे बिना किसी नियम-कानून की परवाह किए काम से ही निकाल दिया जाता है।  जिन मांगों के बारे में हिण्डालको प्रबंधन कहता रहता है कि हम इन्हें दे रहे हैं, उन्हें  मांगने पर भी मजदूरों के ऊपर बर्बर लाठीचार्ज किया गया, कई मजदूरों के लाठियों और राड   से मारकर हाथ-पैर तोड़े गए। इन समस्याओं और इन्हें उठाने वाले लोकतांत्रिक आंदोलनों के प्रति शासन-प्रशासन एवं प्रबंध तंत्रों का रूख बेहद गैरजबाबदेह और लापरवाह बना रहता है। मजदूरों को हड़ताल जैसी कार्यवाहियों के लिए मजबूर किया जाता है। स्थिति इतनी बुरी है कि हड़तालों के बाद हुए समझौतों का पालन होता। इसीलिए जिला प्रशासन की वादाखिलाफी और गैरजवाबदेही के विरुद्ध अपनी समस्याओं के समाधान के लिए मजदूरों ने कभी भी हड़ताल पर जाने का नोटिस कल जिलाधिकारी और उप श्रमायुक्त को सौंपा है। आन्दोलन को  पत्रकार मेहंदी हसन,अजीम खाँ, चन्दन, नसीम, प्रदीप, मारी (सभासदगण), नौशाद, राजेश कुमार राय, राम अभिलाख, सुमन झा, रामजी वर्मा, धर्मेन्द्र, महेन्द्र सिंह आदि ने समर्थन किया है.


Oct 8, 2010

आखिरी यजमान

 कहानी

यजमान अक्सर उदाहरण दिया करते कि पंडितजी को देखो, अच्छा हो या बुरा, ऊँच मिले या नीच, कृष्ण हो या सुदामा हमेशा उं नमो शिवाय ही कहते हैं। लेकिन पंडितजी के अपने गांव में इस प्रताप की कभी कोई चर्चा नहीं होती। गांव में पंडितजी निकलते तो छुप-छुपाकर लड़के बस इतना ज्ञान चाहते कि ‘ए बाबा नेवलवा के केतना बड़ होला हो।’

अजय प्रकाश

छह हजार आबादी और ढाई हजार वोटों वाले हंड़िया गांव में पंडित श्याम सुंदर तिवारी की यजमानी चौचक चल रही थी। भविष्य में भी इस रोजगार में मंदी आने के आसार नहीं थे। पंडितजी के मरने से पहले कोई प्रतिद्वंदी मैदान में कूदने वाला नहीं था। अगर कोई चाहे तो कूद भी नहीं सकता था। कारण कि यजमानी रजवाडों जैसी चलती है, एकदम खानदानी। पट्टीदारी का भी घालमेल नहीं चलता। गर किसी ने इसकी कोशिश की तो पंडितजी ने उसको घर तक दौड़ाकर फजीहत किया।

एक दफा पंडितजी का पैर घोड़ा गाड़ी (टमटम) से गिरकर टूट गया। चलने-फिरने में असमर्थ हो गये। इधर यजमानों के यहां कथा-पूजा, शादी-ब्याह का दौर-दौरा पहले की तरह चलता रहा। पर पंडितजी नदारद। सर्दी-बुखार का तो पंडितजी ने कभी ख्याल ही नहीं किया। यजमानों के लिए पंडितजी हमेशा हाजिर होते थे। इसी लक्षण से प्रभावित हो स्कूल जाते बच्चे पंडित जी को देखते ही बोल पड़ते- ‘पंडित जात अन्हरिया रात, एक मुटठी चूड़ा पर दौड़लजात।' मगर अब टूटे पांव लेकर यजमानी में बेचारे कैसे जाते।

भगंदर की वजह से पंडितजी की पीड़ा  

इसी दुर्दिन का चांस लेकर एक दिन दूसरे ब्राह्मण ने यजमानी में दखल देने की हिमाकत की थी। पंडितजी को पंडिताइन ने जब यह संदेशा सुनाया तो वो गरजते हुए चौकी से एकदम कूद पड़े थे। उन्हें याद ही नहीं रहा कि पांव दवाओं के भरोसे है, उनके नहीं। दर्द के मारे बिलबिलाकर चौकी पर पसर गये। उस पंडित के दरवाजे न पहुंचपाने की भरपाई वह चौकी पर लेटे-लेटे ही उसकी मां-बहन के अंग विशेष में हाथी का, घोड़े का अंगविशेष डालकर कर रहे थे। पंडितजी ने इस दौरान जिस सबसे छोटे जानवर के अंगविशेष की चर्चा की वह नेवला था। पंडितजी को लगा कि आवाज उसके दरवाजे तक नहीं पहुंच पा रही है तो वे और जोर से दहाड़ने लगे। चिल्ला कर गाली बकने से खांसी उठती तो पंडितजी बीच-बीच में उं नमो शिवाय कर लेते।
‘भेज द अपनी माई के, नापवा उनहीं के दे देब’-पंडितजी सुनते ही यह जवाब ऐसे फेंकते जैसे उन्हें सवाल का हमेशा  इंतजार रहता हो। पंडितजी जी लड़कों के सवाल पर पर कुछ महीने पहले तक मां-बहन दोनों को नाप देने के लिए बुलाया करते थे, लेकिन एक दिन गांव में बहन के नाम पर बलवा  होने से बचा। तब बिचौलियों में सहमति बनी कि इस काम के लिए सिर्फ मां को बुलाया जाये। इसमें वादी कौन था, दोषी कौन इसका फैसला गांववाले करें, मगर बहनों को बुलाने पर ऐतराज करने वालों के बीच यह आम सहमति थी कि बहनों को लपेटना ठीक नहीं, वह दूसरे की घर की अमानत होती हैं। मगर गांव में उठने वाले इन झमेलों से पंडितजी के कैरियर पर कभी कोई संकट नहीं आया।

यजमानों के गांव ‘हड़ियां’ में पंडितजी के सामने से बच्चा गुजरे या बूढ़ा, पांय लागीं कहे बिना नहीं आगे बढ़ता। यह दीगर बात थी कि उम्र ढलने के साथ पंडितजी का शरीर हंड़िया गावं की चौहद्दी को समेट नहीं पा रहा था। हर बार कोई न कोई यजमान शाम हो जाने, थकान लगने या पेट खराब होने से छूट जाता। पंडितजी की यह हालत देख एकाध बार पट्टीदारों के बेटों ने कहा भी कि ‘दो चार यजमानी हमारे बीच साझा कर दो चाचा।’ मगर पंडित श्याम सुंदर तिवारी इस बात पर बुढ़ौती में भी जवानी के दिनों जैसे तरना उठते थे और कहते, ‘जैसे जमीन, जैसे जोरू वैसे यजमानी।’ मतलब साफ था पंडितजी जबतक जीयेंगे, यजमानी का रस पियेंगे। उनका फलसफा था खाने का मजा खिचड़ी (मकर संक्राति) में और कमाने का दशहरा में।

यजमान बच्चे जैसे उज्जवल होगा पंडितजी का बचपन
हर साल की तरह इस बार भी पंडितजी खिचड़ी की  दान-दक्षिणा पूरब और उत्तर टोले से बटोरते हुए जब दक्षिण टोला पहुंचे तो तीन बज चुके थे। जाडे़ का दिन था,सो सांझ घिरते चली आ रही थी, लेकिन पंडितजी को राहत महसूस हुई कि वहां दही-चूड़ा नहीं खाना पडे़गा और न ही बासी खिचड़ी कंपकपी लायेगी। वहां तो गर्मागर्म पूरी और खीर मिलेगी। सोचकर पंडितजी के मुंह में पानी आ गया। मुंह में पानी आते ही पंडितजी के भीतर तत्क्षण आत्मआलोचना जागी और उन्हें लगा कि यह तो छूद्रता है। पंडितजी को ऐसा कोई एहसास कभी होता नहीं था। संयोग ही था जो पंडितजी को ऐसा लगा था। नहीं तो पंडितजी कहा करते थे,‘जो ब्राह्मण खाने से भगे उसके असल ब्राह्मण होने पर संदेह है।’ उन्हें जैसे ही यह बात याद आयी, पंडितजी के कदम तेज हो गये और सोचने लगे वह भी क्या उम्र थी जब अपना निपटाकर दूसरे की यजमानी में कूद जाते थे और आज अपना ही आखिरी यानी चौदहवां यजमान नहीं समेटा पा रहा है।

दक्षिण टोले में केवल एक ही घर में यजमानी थी, फौजी के घर में। फौजी कश्मीर में तैनात था और पत्नी घर में। वह पति के दीर्घायु के लिए पर्व, त्योहार, दान-दक्षिणा किया करती थी। ऐसा करने से पत्नी को इलहाम होता था कि इसका असर सीधे पति पर होगा और दुश्मन की तरफ से दागी गयी गोली उसके शौहर को लगने के बजाय किसी और को लग जायेगी।

पत्नी की मान्यता भी थी कि चार सालों से मोर्चे पर तैनात पति के सुरक्षित बचे रहने में पंडित श्याम सुंदर तिवारी का विशेष प्रताप है। हालांकि आज जब पंडित उसके दरवाजे पहुंचे तो वह बेशब्री में बोल पड़ी ‘पंडितजी कहां लिपटा जाते हैं। पहर बीत गया, बच्चे भूख से तड़प रहे हैं और आप हैं कि सरक-सरक के आ रहे हैं।’

पंडित जी इस पर कुछ बोले नहीं सिर्फ उं नमो शिवाय बुदबुदाये, लेकिन फौजी की पत्नी जवाब की चाह में पंडितजी को घूरे जा रही थी। इसको भांप वे बोले ‘चिंता न करो स्वामिनी, काज यथाशीघ्र किये देता हूं।’ पंडितजी के सूत्र वाक्य का गृहिणी पर असर हुआ। उसे लगा कि पंडितजी की निगाह में उसकी इतनी इज्जत तो है ही, जितनी इज्जत दूरदर्शन  के सीरियल में नौकर मालकिन की करता है।

इस संतोष के साथ वह ठंडा हो चुके भोजन को गर्म करने लगी। मां को ऐसा करते देख बच्चे रसोई के दरवाजे पर टेक लेकर 'खाना दो, खाना दो' का टेर देने लगे। टेर तो दोपहर के पहले से ही वे दे रहे थे। तब फौजी की पत्नी ने सिक्कों से बच्चों का मुंह बंद किया था जिसे लेकर वह बनिये की दुकान की तरफ लुढक गये थे। मगर अबकी उनकी भूख की भरपाई में उठने वाली आवाजें तीक्ष्ण थीं। छोटे वाले को मां ने सिक्का पकड़ा फुसलाने की कोशिश की तो उसने बिना कुछ बोले सिक्के को जुठन वाली बाल्टी में डाल दिया।

पंडित जी फिर कुछ बुदबुदाने जैसा करने लगे, लेकिन बच्चे काहे को मानें। फौजी की पत्नी ने बच्चों का राम-लक्ष्मण कहा, जय-वीरू बोला। यहां तक कि सिपाही और साधुओं का डर कराया। बाजार से कुछ खरीदने का बहाना पकड़ाने की कोशिश की, पर बच्चे खाने के सिवाय कुछ और सुनने का तैयार ही नहीं थे।

माना जाता है श्याम सुन्दर इसी में से एक हैं
फौजी की पत्नी से जब नहीं रहा गया तो वह पंडितजी के सुनने जितनी आवाज में बड़बड़ाने लगी -‘पैसे तो मैं बाभनों, बनियों से ज्यादा देती हूं लेकिन ये मेरे दरवाजे सबसे बाद में आते हैं। कहते हैं अगर एक शूद्र के घर पहले आ गया तो दूसरे उससे पूजा नहीं करवायेंगे। किसी से कम हूं मैं? केवल एक जाति ही तो छोटी है कि बच्चों को भोजन के भंडार में रहते हुए अबतक खाये बिना बिलबिलाना पड़ रहा है।’ पूरी के लिए कड़ाही में हाथ डालते छोटे बेटे को रोककर गिड़गिड़ाती हुई फौजी की पत्नी बोली ‘बस पांच मिनट रूक जा बाबू, फिर जितना मन करे उतना खाना।’यह कहते हुए उसके चेहरे से ऐसा लग रहा था मानो वह गुजारिश कर रही हो कि इस पाप की भागीदार मैं नहीं हूं, मुझे माफ करना भगवान।

पंडित श्याम  सुंदर तिवारी लाई और चिउड़ा झटपट बटोरकर खाने के लिए पीढ़ा पर विराजमान हो गये। संतों की तरह पांव पर पांव चढ़ाकर बैठे पंडितजी ने बच्चों की तरफ देखकर कहा- ‘सब्र करो बालकों, भूख से मुक्ति का समय आ गया।’पर बच्चों की पंडित की बात में कोई दिलचस्पी नहीं दिख रही थी, वे बार-बार पूड़ी बेलते हाथ को और कढ़ाही से बाहर आ रही फूली- फूली पूड़ियों  को देख रहे थे। वैसे ही जैसे कुत्ते निहारते है खाना खाते आदमी को। यह देखकर पंडितजी ने फौजी की पत्नी को आदेश के अंदाज में कहा कि ‘ब्राह्मण के अन्न ग्रहण करने से पहले बच्चों के मुंह में अन्न का दाना नहीं जाने देना, नहीं तो तुम्हारे द्वारा किये जा रहे ये सारे सत्कर्म, दुश्कर्म में बदल जायेंगे।’

‘नहीं- नहीं पंडित जी, सुबह से एक दाना भी इनके मुंह  में नहीं गया है। ये देखिये।' छोटे वाले का मुंह चियारकर फौजी की पत्नी ने पंडितजी को दिखा दिया। मुंह चियराई बच्चे के लिए एक हादसे जैसा रहा जिसके बाद वह रोते हुए मां के पीछे की ओर सरक गया। बड़ा बेटा पूड़ी पर निगाह लगाये दीवार से लगकर उहक रहा था और पीछे पहुंचा छोटा बेटा कभी सब्जी में तो कभी खीर में हाथ डालने की कोशिश में लगा हुआ था। इसका आभास पंडित जी को हो गया, तो पूछ पड़े कि ‘ अरे छोटा वाला कहां है?'
'यहीं है पंडित जी।' फौजी की बीवी बोली.

पंडितजी- ‘अन्न आदि के पास बच्चों को नहीं रखते। खासकर जब भोजन बन गया हो और ब्राह्मण देवता को खिलाना हो तो कत्तई नहीं। ऐसा करो उसे आंगन में रख जाओ। कम-से-कम आंगन तुम्हारा इतना ऊंचा है कि जब तक कोई उठाकर उसे रखेगा नहीं, वहीं पड़ा रहेगा।
पंडितजी का सुझाव मान तुरंत फौजी की पत्नी ने बच्चे को आंगन में गिराने के अंदाज में रख दिया, लेकिन बच्चा आंगन की चौखट पर चढ़ आया। यह बात बच्चे की मां को भी मालूम थी कि छोटा वाला बड़ा हो गया है और वह आंगन की ऊँचाई लांघ आता है, लेकिन पंडितजी के संतोष के लिए रख गयी थी.

तभी अपनी तरफ बढ़ता देख पंडितजी चिल्लाये- ‘रोको, नहीं तो विनाश हो जायेगा। तुम समझ नहीं रही हो, अगर इसने मेरे भोजन को छूकर अपवित्र कर दिया तो इसका सीधा प्रभाव गृहस्वामी पर पडे़गा। तुम्हें पता है, मेरे अलावा पंडित गांव का कोई और ब्राह्मण किसी शूद्र के यहां पूजा-पाठ नहीं कराता, अन्न ग्रहण करना तो दूर। तुम क्या जानो एक बार तुम्हारे यहां आने के बाद मुझे इक्कीस दिन पीपल के पेड़ के नीचे तप करना पड़ता है, तब जाकर मैं सही-सलामत रह पाता हूं। वह तो तुम्हारे आदमी ने बहुत हाथ-पैर जोड़े थे तो मैं आ जाता हूं।’

वह सकपकाई सी अभी कुछ और बोल पाती इससे पहले ही पंडित फिर कह पड़े, ‘चलो छोड़ो, ये सब बात किसी से कहने-सुनने की नहीं है। अच्छा यह बताओ कि मैंने बेटे की भर्ती की जो बात तुम्हारे आदमी से की थी, उसके बारे में कभी मोबाइल पर उसने कुछ बताया क्या... अब तो तेरा मर्द सूबेदार हो गया है, भर्ती भले न करता हो, लेकिन करने वालों के बीच तो उसका रोज का उठना-बैठना है, है कि नहीं।’

फौजी की पत्नी पंडित की पहली और दूसरी बात को जोड़कर समझने की कोशिश  कर रही थी। उसके दिमाग में गृहस्वामी... पाप.......असर... जूठा... .नाश... टेलिफोन... सूबेदार... यह सारे शब्द आपस में गड्ड-मड्ड हो रहे थे। उसके चेहरे पर इत्मीनान का भाव लौटता देख लगा कि उसने उलझ रहे शब्दों को सजा लिया है, लेकिन तभी देखती क्या है कि- छोटा बेटा पंडितजी के बगल में सरककर आ गया है और उनकी थाली से एक पूरी  हाथ में ले ली। अब फौजी की पत्नी को काटो तो खून नहीं... जरा सी भी पंडितजी ने हरकत की तो छोटे का हाथ पंडित के हाथ से टकरायेगा और फिर...

फौजी की बीवी ने सब्र से काम लिया। पंडित जी देखते इससे पहले ही लड़के की आंख मां से मिली और वह बेटे को एकटक घूरने लगी। उसे घूरता देख पंडितजी कन्फ्यूजन मोड में चले गये गये और उनके गाल का रंग ललिया गया। पंडितजी शर्माते हुए पूछे, ‘कइसा लग रहा हूं, बड़े गौर से देख रही हो रे।’ मगर वह बच्चे को लगातार घूरती रही और पता नहीं किस अंदाज में इशारा किया कि बच्चा पूड़ी थाली में छोड़ पीछे लौट गया। पंडितजी बच्चे की छुई पुड़ी को जब मुंह में डाले तो बोल पड़े- ‘आजकल चक्की वाले पता नहीं क्या मिलाकर गेहूं पीस देते हैं।’
पंडित की बात सुनते ही दीवार से लगकर उहकरहा फौजी का बड़ा बेटा खिलखिलाकर हंस पड़ा। पूड़ी बेल रही फौजी की बीबी भी घुटनों के बीच मुंह टिकाकर हूं-हूँ .....हंसती रही।

शायद अब ऐसे हों
पीछे लौटा बच्चा चेहरे पर खिलंद्दड़ी मुस्कान लिए थाली की तरफ एक बार फिर लौटने लगा। अभी थाली से दो-चार इंच दूर रहा होगा कि फौजी की पत्नी झपट पड़ी। झटके से गोद में लेकर चांटा लगाते हुए चिल्लाई- ‘पंडितजी छिया खात हैं, छीः! ओआ... नहीं... पील्लू... गूह...धीरज रख, खीर-पूरी दूँगी... ये छीया है।’ यह कहते हुए चूल्हे के पास बैठ गयी

पंडितजी निवाला मुंह में डालने को थे, लेकिन फौजी की बीवी की बात सुन वह उस मुद्रा में आ गये जैसे बच्चे स्टेचू  का खेल खेलते वक्त हो जाते हैं। पंडितजी को एकबारगी लगा जो निगला है सब बाहर आ जायेगा। हाथ न ऊपर  हो रहा था न नीचे। हाथ में ली हुई तस्मयी (खीर) और पूडी जिसको उन्होंने अमृत समझकर खाया था, उसे बनाने वाली ने ही छीया कह दिया। क्या करें! पूड़ियां अब उन्हें बिष्टा में सनी हुई जान पड़ीं। उनके माथे पर गहरा बल पड़ने लगा और हाथ ने धीरे-धीरे जमीन की ओर झुकना शुरू कर दिया।

बोलने के बाद फौजी की पत्नी काठ हो गयी थी। करे तो अब क्या करे,क्या सफाई दे? सोच रही थी, ‘पंडितजी अगर मेरी विधर्मी जुबान को चरणों में मांगे तो मैं अभी दराती उठाकर सौंप दूं। हे भगवान! कुछ भी करो, लेकिन पंडितजी भोजन की थाल से न उठने दो। सारा धर्म नष्ट हो जायेगा भगवान।’

फौजी के पत्नी के मुंह से निकला भगवान शब्द पंडितजी तक पहुंचा तो उन्होंने ऊंह  किया। मानो कुछ पूछ रहे हों। तभी फौजी की पत्नी ने जो देखा वैसा आश्चर्य इससे पहले नहीं देखा था। उसने देखा कि पंडितजी का हाथ जो थोड़ा नीचे झुककर स्थिर हो गया था वह हिला और निवाला मुंह में डालते हुए पंडितजी ने कहा- ‘अरे बच्चे तो भगवान का रूप होते हैं, उनके लिए कुछ भी कहना जायज है। तस्मई अच्छी बनी है थोड़ा और ले आओ।’

फौजी की पत्नी कटोरे में खीर डालने लगी तो पंडितजी ने पूछा ‘क्या कह रहा था तेरा मर्द, मेरे बेटे की भर्ती के बारे में। बेटे की नौकरी लग जाये तो हमें भी चैन आये।’ पंडितजी भोजन में दुबारा जुट गये और फौजी की बीवी मर्द को फोन मिलाकर पंडितजी के बेटे की नौकरी की पैरवी करने में लग गयी।

( इस वर्ष के दलित साहित्य वार्षिकी से साभार कहानी)

Oct 6, 2010

तीस सितंबर

बाबरी मस्जिद मामले में मालिकाने को लेकर आये फैसले पर  एक नज़्म...



मुकुल सरल



दिल तो टूटा है बारहा लेकिन

एक भरोसा था वो भी टूट गया

किससे शिकवा करें, शिकायत हम

जबकि मुंसिफ ही हमको लूट गया



ज़लज़ला याद दिसंबर का हमें

गिर पड़े थे जम्हूरियत के सुतून

इंतज़ामिया, एसेंबली सबकुछ

फिर भी बाक़ी था अदलिया का सुकून




छै दिसंबर का ग़िला है लेकिन

ये सितंबर तो चारागर था मगर

ऐसा सैलाब लेके आया उफ!

डूबा सच और यकीं, न्याय का घर




उस दिसंबर में चीख़ निकली थी

आह! ने आज तक सोने न दिया

ये सितंबर तो सितमगर निकला

इस सितंबर ने तो रोने न दिया


(इंतज़ामिया- कार्यपालिका, एसेंबली- विधायिका, अदलिया- न्यायपालिका, चारागर- इलाज करने वाला,चिकित्सक)


(सामाजिक सरोकारों से जुड़े पत्रकार और कवि मुकुल सरल से mukulsaral@gmail.comपर संपर्क किया जा सकता है.)

Oct 4, 2010

जज साहबानो से गुजारिश



मुस्लिम छात्रों के बीच काम करने वाले संगठन 'सिमी' जो कि अब प्रतिबंधित है, के पूर्व अध्यक्ष शाहिद बदर फलाही बाबरी मस्जिद मालिकाने के फैसले को मुस्लिम विरोधी मानते हैं. अदालत से मुस्लिमों को क्या उम्मीद थी और अब उनकी आगे की क्या रणनीति है को लेकर  शाहिद बदर से जनज्वार की विशेष बातचीत.
खेद है कि तीन दिन पहले  हुई इस बातचीत को हम आज प्रकाशित कर पा रहे हैं...


साक्षात्कार सुनने के लिए नीचे  बाएं ओर क्लिक करें !

Oct 1, 2010

खाप नहीं, पंचायत का फैसला कहें !


जहाँ फैसला उत्तर प्रदेश में होने वाली परीक्षाओं की तरह लीक हो रहा हो,जजों से पहले जनता ही जजमेंट कर रही हो और बाद में अदालत पंचायत की खानापूर्ति, वैसे में वामपंथी भर्त्सना की जुगाली कर अपने होने का एहसास दर्ज कराते रहें, आखिर यह कैसी प्रगतिशील विडम्बना है.

अजय प्रकाश

हरियाणा में खाप पंचायतों की सुनवाइयों में आते-जाते एक पत्रकार मित्र एक दिन अचानक भड़क गए और उन्होंने अभिव्यक्ति की  आज़ादी का उपयोग करते हुए खापों की मौजूदगी पर सवाल दाग दिया. मित्र जहाँ सवाल दाग रहे थे वह कैथल का एक चौराहा था और उनकी अभिव्यक्ति की आज़ादी को काफी देर से एक चौधरी सब्र से सुन रहा था. उससे रहा न गया तो उसने मित्र को अपने करीब आने का इशारा किया.

चौधरी ने पत्रकार मित्र से कहा, 'बात तो तू ठीक केह र्रेआ है छोरे, पर म्हारे को जे समझ में नहीं आ रहा है कि ऐसा होत्ता क्यों नहीं?'

मित्र थोड़ा घबडा गए और सामाजिक हालात,सामंती समाज और साम्राज्यवाद के कहर के बारे में कुछ बुदबुदाने लगे. उन्होंने जो अंतिम वाक्य  बोला वही साफ़ से सुनाई दिया कि 'तभी तो बदलेगा...' 

मित्र की बात सुन चौधरी जोर-जोर से हंसने लगा.उसने बगल में मौजूद हजाम की दुकान से ऐनक मंगाया और मित्र को और नजदीक आने का इशारा किया. नजदीक का इशारे होते ही मित्र घबराये.

चौधरी उनको ऐनक दिखाते हुए बोला, 'इसमें तू अपना चेहरा देख और पहचान की तू है ना.'

'हाँ मैं ही हूँ' - मित्र का चेहरा इतना बताने में बिलकुल ललिया चुका था.

चौधरी बोला, 'तू दुबारा देख तू ही है ना!',

मित्र ने कहा 'लगता तो मैं ही हूँ...वैसे'

फिर तीसरी बार चौधरी चढ़ बैठने के अंदाज़ में बोला, 'अबकी ध्यान से देख, बता तू ही है ना'

तो मित्र बोल पड़े, 'नहीं, शायद मैं नहीं... मैं नहीं...'

हम साथ-साथ हैं : आप किसके साथ
चौधरी ऐनक एक तरफ रखते हुए बोला,'छोरे अभी तो ठीक से मैंने तुझे डपटा भी नहीं कि तू अपना चेहरा भूलने लगा और बात करता है कि खाप क्यों है, हत्याएं क्यों हैं. कभी हमारे साथ दिन तो गुजार,  खुद ही पता पड़ जावेगा कि लिखने और करने में पूरे एक जीवन का फर्क कैसे होवे है.जब बिन गिनती के लाठियां गिरती हैं,सरेआम फांसी दी जाती है और सरेराह बलात्कार होता है तो वहां कलम कहीं नहीं होती. वहां होवे है परिवार और समाज. तुम्हारे जैसे थानों में रहे हैं कि आंसुओं की गिनती ठीक-ठीक कर सकें.तुम्हारे बाद जो नखादे बैठते हैं विश्लेषण करने, वह तो और भी निराले हैं. मानो उनके महान वचनों को पढ़कर सत्ता हिल जाती है और खाप के पापियों को दिव्यज्ञान हो जाता है.'

चौधरी आगे बोला 'और सुण! जब तक तेरे जैसे खाप विरोधी रहेंगे, तबतक खापों का कुछ न होने का. छोरे तू तो ऐसा सेनापति है जिसने न तलवार देखी ना धार, पर सर कटाने के लिए झुका दिया. तेरे जैसों ने ही बंटाधार किया है, नहीं तो खाप कब की खाट पर पहुँच चुकी होती.'

चौधरी ने हरियाणवी में करीब यही बातें कहीं थीं.उसकी इतनी बातें सुनने के बाद हमलोग गाड़ी में बैठे तो ड्राइवर ने कहा,- 'बुड्ढा लोकल था,अच्छा किया कुछ बोला नहीं, आखिर आप लोगों ने कोई खाप का विरोध तो किया नहीं था.'

चौधरी की वह बात आज फिर एक बार बाबरी मस्जिद मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आये फैसले के बाद सच साबित होती दिख रही है. वह इसलिए कि अपने को प्रगतिशील कहने वाला समाज ऐसी प्रतिक्रिया कर रहा है जैसे उसे ऐसे फैसले की उम्मीद तो थी ही नहीं.या इसे दूसरी तरह से देखें तो लग रहा है कि लेखक-पत्रकार इंतज़ार में रहे हों कि फैसला जैसे ही आएगा, मुसलमानों के पक्ष में दे दनादन...

सत्ता की आलोचना को भी पर्याप्त तैलीय बनाकर पेश करने वाले इन चूके हुए खिलाडियों को देख कई बार लगता है कि वह किसी मामले में हस्तक्षेप से ज्यादा अपने होने का सबूत देते हैं कि लोग उन्हें लुप्तप्राय न मान लें. हो सकता है अपने होने का सबूत देने के लिए कल से वह मुस्लिम समाज को गरियायें, जो कि दिल में कसक लिए सिर्फ इस बात पर खुश हैं कि चलो एक फैसला तो आया.

जुबान से कैसे रुकेगा रेला                                                                 फोटो- बीबीसी
चौधरी की बात याद करें 'कभी हमारे साथ दिन तो गुजार, खुद ही पता पड़ जावेगा कि लिखने और करने में पूरे एक जीवन का फर्क कैसे होवे है.' शायद इसीलिए मुसलमान बुझे मन से सही, मगर फैसले पर वह तल्ख़ प्रतिक्रिया नहीं दे रहे हैं जैसी तथाकथित वामपंथी दे रहे हैं. यानी साफ है कि अपने होने का सबूत देने वाले तथाकथित वामपंथी अभी भी बोल रहे हैं और कल भी बोलेंगे.मगर जियेंगे मुसलमान और सामने होंगे हिन्दू, जहाँ कहीं नजर नहीं आयेंगे ये लोग.

वर्ष 1949 से चले आ रहे इस मुकदमे में जरा इन जैसे तथाकथित प्रगतिशीलों का कोई रोल हो तो बताएं, जो फैसले के बाद कागज काले किये जा रहे हैं.साथ ही कोई यह बताये की इस फैसले के आने के बाद किसी वामपंथी पार्टी ने इस सन्दर्भ में आगे कुछ करने की सोची है. अगर ऐसी कहीं से सूचना हो तो स्वागत है. क्योंकि इतिहास पूछेगा कि बात बहादुर वामपंथियों कि क्या भूमिका थी, जब वे फैसले में कांग्रेस पार्टी की जरूरत और भाजपा के असर को गिनवा रहे थे.

बात दूर कि न करें.अयोध्या से अगला जिला आजमगढ़ है जहाँ दर्जनों निर्दोष मुस्लिम नौजवान आतंकवादियों के नाम पर फर्जी तरीके से जेलों में भरे जाते रहे,जिला बदर होते रहे.मगर विरोध में एक भी मुकम्मिल आवाज वामपंथियों की ओर से नहीं उठी. किसी वामपंथी पार्टी के बुद्धिजीवी-लेखक संगठन ने यह जहमत नहीं उठाई कि इन फर्जी गिरफ्तारियों के खिलाफ आजमगढ़ में विरोध दर्ज कराया जाये.जिन लोगों ने कोशिश की उनको कई बार संगठन के भीतर आलोचनाएँ झेलनी पड़ीं और दुत्कारा गया.

मौजू बाबरी मस्जिद मामले पर मालिकाने के फैसले को देखें तो यह बात बड़ी साफ़ है कि पिछले पखवाड़े भर से यह खबर आम थी कि फैसला निर्मोही अखाड़े के पक्ष में आएगा, इसलिए बलवे की कोई गुंजाइश नहीं है. फिर दृश्य बदला और सर्वोच्च न्यायालय का हस्तक्षेप हुआ. तय समय 24 सितम्बर को इलाहाबाद उच्च न्यायायलय का आने वाला फैसला लंबित होता दिखा. मगर सर्वोच्च न्यायालय का दुबारा आदेश आया कि उच्च न्यायालय विवादित भूमि पर अधिकार के मामले में 30 सितम्बर को फैसला दे. सर्वोच्च न्यायालय ने यह आदेश 28 सितम्बर को दिया. उसी शाम यह चर्चा होने लगी कि जमीन तीन हिस्सों में बंटेगी.

ऐसे में सवाल उठता है जहाँ फैसला उत्तर प्रदेश में होने वाली परीक्षाओं की तरह लीक हो रहा हो,जजों से पहले जनता ही जजमेंट कर रही हो और बाद में अदालत पंचायत की खानापूर्ति, वैसे में वामपंथी भर्त्सना की जुगाली कर अपने होने का एहसास दर्ज कराते रहें, आखिर यह कैसी प्रगतिशील विडम्बना है.


Sep 30, 2010

धर्मांध प्रदेश


जनता ने महसूस किया वह  एक ऐतिहासिक भूल थी तथापि फैसला आया  कि वह धार्मिक उन्माद फैलाने वालों को संरक्षण प्रदान नहीं करेगी.जनता के इस निर्णय से उन्माद फैलाने वालों में बेचैनी फैल गयी और वे हुआं- हुआं करने लगे...


अजय प्रकाश

घटना प्राचीन है वर्णन अर्वाचीन। बहुत समय पहले की बात है,उस समय दक्षिण एशिया में एक धर्मदेश था। उस धर्म देश में धर्मांध लोग अपने-अपने धर्म के प्रति अंधभक्ति रखते। धर्मांध जन सामान्यतया एक-दूसरे के प्रति सहिष्णुता का परिचय देते। कभी-कभार मच्छरदानी के अंदर से या कमरे के ‘बिलोक’ से अपने धर्म को श्रेष्ठ साबित करने के चक्कर में दो-दो हाथ कर लेते। बाद में वे अफसोस भी करते। इस तरह वे अपने देश की दो महान नदियों के नाम पर बनी संस्कøति को समृद्ध करते।

प्रदेश में ज्ञानवान, ओजवान तथा बुद्धिमान लोगों की भी एक प्रजाति बसती, जो अनुदान, महादान या इसी तरह का कोई और दान लेकर देशभर में सहिष्णुता, सौहार्द बनाये रखने के लिए ‘कलमिया कसरत’ करते। जब कभी उन्हें यह लगता कि जनता ने उनको विलुप्त प्राय मान लिया है तो वे दो चार दिन जिंदाबाद-मुर्दाबाद की मौसमी कसरत भी कर लिया करते। इस प्रकार धर्मांध प्रदेश की जनता सुख-चैन से रहा करती।


धर्मान्धियों  की जीत और जश्न: मगर अब अफ़सोस भी
 परंतु एक अप्रत्याशित घटना ने धर्मांध प्रदेश समेत पूरे ‘धर्मदेश’ का ढांचा बदल कर रख दिया।

कुछ साल पहले हुई एक घटना की सुनवायी चल रही थी। मामला एक धार्मिक संप्रदाय द्वारा दूसरे धार्मिक संप्रदाय की धर्मस्थली को ढहाये जाने का था। वैसे इस घटना के बाद धर्मांध जनता ने महसूस किया कि यह एक ऐतिहासिक भूल थी तथापि जनता ने यह फैसला किया कि वह धार्मिक उन्माद फैलाने वालों को संरक्षण प्रदान नहीं करेगी,जिसकी वजह से धार्मिक उन्माद फैलाने वालों में बेचैनी फैल गयी और वे हुआं-हुआं करने लगे.

जनता को उनकी प्रत्येक घोषणाओं,वायदों में धार्मिक उन्माद की ही बू आती। वह जहाँ भी जाते लोग अपनी जमात में लोग उन्हें शामिल नहीं करते.अतः इस संकट से उबरने के लिए धर्मांवादियों ने चिंतन बैठक की। जिसमें यह फरमान जारी किया गया कि ‘जनता का संरक्षण प्राप्त करने के लिए जनता से सच्चाई बयान करो।’

अतः सुनवायी के दौरान उन्मादी धर्मोन्मादी प्रमुख ने कहा-‘हे धर्मदेश की धर्मांध जनता!हम तुच्छ इंसानों में यह शक्ति कहां कि जो इतना बड़ा फसाद करायें। धर्म देश के मुक्त होने के पहले या बाद में जितने भी बंटवारे,दंगे, कत्लेआम हुए उसके हम साधन मात्र थे, साध्य होने की कूवत हममें कहां है? वह सब तो उस परमपिता परवदिगार---की बदौलत हो पाया। हे महान जनता,इसके साक्ष्य इतिहास से लेकर वर्तमान तक में भरे पड़े हैं। पिछले वर्षों में हमारे द्वारा कराये गये कत्लेआम की प्रेरणा भी वहीं से प्राप्त हुई थी।

अतः मैं महामहिम उच्चतम न्यायालय में पूर्ण आस्था रखते हुए गीता की कसम खाकर कहता हूं कि ‘मस्जिद हमने नहीं उसी ने गिरायी 'एक्ट आफ गॉड।’

धर्मोन्मादी की उक्त बातें सुनकर जनता की ओर से तत्काल एक सभा बुलायी गयी। जिसमें यह प्रस्ताव पारित हुआ कि ‘प्रदेश में ही नहीं, देश में ही नहीं दुनिया में चैन की जिंदगी बसर करने वाली जनता को बेचैन करने वाले मूल तत्व का पता चल गया है। अतः हम प्रदेश वासियों का नैतिक कर्तव्य है,चाहे वह स्त्री हो या पुरुष,बच्चा हो कि बूढ़ा, ‘उसको’ ढूंढ़ने में मदद करे।

प्रदेश भर की जनता एकजुट होकर उसकी तलाश में जुट गयी। बच्चों,महिलाओं और पुरुषों की अलग-अलग टीमें बनायी गयीं। महिलाओं-बच्चों ने अपने घर में बने आस्थागृहों को तोड़ा, घर में लगे कैलेण्डरों, फोटो आदि को फांड़-फूड़, कूंच-कांचकर देखा कहीं उस आस्तीन के सांप का पता नहीं चला। बड़ों ने बड़े-बड़े स्थलों को ढहाया, नेव तक खोद डाले गये। इस प्रकार धर्मांध प्रदेश में ही नहीं पूरे ‘धर्म -देश’ में धर्म विशेष के धार्मिक स्थलों का सफाया कर दिया गया।

इस महाभियान में पूरे ‘धर्म देश’ की जनता शामिल हो गयी थी। परंतु पता न चल पाने के कारण लोग मायूस थे।

अब सन्यासी नहीं बनेंगे दंगाई:  खेलेंगे-देखेंगे खेल
पुनः सभा बुलायी गयी। ‘परवदिगार’ को गिरफ्तार किये जाने की तरकीबों पर सलाह-मशविरा हुआ। अंत में तय हुआ चूंकि धर्मदेश की जनता सदियों से यह सुनती आ रही है कि सभी धर्मों के ईश्वर एक होते हैं,लोगों ने सिर्फ उच्चारण की सुविधा के अनुसार अलग-अलग नाम रखे हुए हैं। हो न हो ‘वह’ जरूर किसी बिरादर आस्था की जगह पर छुपा होगा। अतः धर्मदेश की जनता सर्वसम्मति से यह निर्णय लेती है कि देश में स्थित इस तरह की सभी संस्थाओं को नष्ट कर दिया जाये और ‘परमपिता’ जनता की अदालत में पेश किया जाये,जहां ‘पैगम्बर’ के लिए फांसी की सजा मुकम्मल की गयी है। इसको अंजाम देते हुए इस बात का विशेष ध्यान रखा जाये कि जो लोग जिसमें आस्था रखते हों उनको ही (विशेष रूप) उनके स्थलों को नष्ट करने की इजाजत दी जाये।

चूंकि इन स्थलों में वैसे तामझाम नहीं थे इसलिए जनता ने इनका काम कम समय में ही तमाम कर दिया।

इन सबके बाद जो हुआ वह कहीं अधिक दिलचस्प था। इन स्थलों के ध्वसत होने के बाद धर्मांध प्रदेश के लोगों ने अपने प्रदेश का नाम बदल देने का फैसला किया तथा ‘जिम्मेदार’ संस्था को आवेदन लिखा। इसके बारे में लोगों का कहना था कि वे अब हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई, से ‘इंसान’ हो गये हैं। अब वे नये तरह के कायदे-कानून बनायेंगे।

स्त्रियां अब सड़कों पर चलते समय किसी तरह का चिरकुट नही ओढ़ा करतीं। बच्चे आपस में मिल-जुलकर खेला-पढ़ा करते। लोग संगीत, साहित्य, कला, खेल में रुचि लेने लगे। और इस प्रकार ‘भगवान’ धीरे-धीरे इतिहास की किताबों में दर्ज हो गया।

लेकिन अचानक एक सुबह भारी भीड़ प्रदेश की तरफ बढ़ती हुई दिखी। प्रदेश की जनता ने उनको पहचान लिया।

लोग कहने लगे, ‘वो देखो-इनमें तो दाढ़ी वाले, चुरकी वाले, पगड़ी वाले सभी एक साथ हैं---ये तो सभी एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं।’
ये तो नारे भी लगा रहे हैं----तख्ती पर कुछ---‘हमारे धार्मिक अड्डों को बसाओ,हम ईश्वर के प्रतिनिधि हैं।’
मगर ये अजायबघर से बाहर कैसे आये?इनको तो बच्चों के मनोरंजन के लिये रखा गया था-बाशिंदे सोचने लगे।

फिर लोगों ने सोचा जब ये आ ही गये हैं तो इनको सुधारगृहों में डाल दिया जाय तथा श्रम करके उपार्जन करने की मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा दी जाय। लोगों के इस फैसले के बाद से खबर लिखे जाने तक सबकुछ ठीक-ठाक होने की सूचना है और सरकार है कि फिर अमन बहाली नहीं कर पा रही है.  

Sep 29, 2010

'प्रधानमंत्री बाबरी विध्वंस टाल सकते थे'


बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद पीवी नरसिंह राव सरकार से इस्तीफा देने वाले कैबिनेट मंत्री माखनलाल फोतेदार से अजय प्रकाश की बातचीत




बाबरी मस्जिद विध्वंस कांड की जांच कर रहे लिब्रहान आयोग ने कभी आपको गवाह के तौर पर बुलाया ?

सत्रह वर्षों की जांच प्रक्रिया के दौरान आयोग ने अगर एक दफा भी मुझे बुलाया होता तो रिपोर्ट में यह जानकारी सार्वजनिक हुई होती। उन्होंने क्यों नहीं बुलाया यह बताने में मेरी दिलचस्पी नहीं है। मैं इतना भर कह सकता हूं कि अगर कोई बात इस संदर्भ में आयोग ने हमसे की होती तो तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव का जो सुघड़ चेहरा रिपोर्ट पेश होने के बाद देश के सामने उजागर हुआ है,वह सबसे अधिक दागदार होता।

आप मानते हैं कि संघ और भाजपा विध्वंस के लिए जितने जिम्मेदार हैं उससे कत्तई कम दोषी नरसिंह राव नहीं हैं?

मैं तुलनात्क रूप से विध्वंस की जिम्मेदारी नरसिंह राव पर तो नहीं डालता,लेकिन मानता हूं कि राव चाहते तो वो उस धार्मिक उन्माद को टाल सकते थे जिसकी वजह से मस्जिद टूटी और देश एक बार फिर आजादी के बाद दूसरी बार इतने बड़े स्तर पर सांप्रदायिक धड़ों में बंट गया।

नरसिंह राव कैसे टाल सकते थे?

राव से हमने जून में ही कहा था कि जो लोग इस बलवे का माहौल बना रहे हैं,उनसे आप शीघ्र  बात कीजिए। मेरा जाती तजुर्बा है कि ये मसले कोई भी अदालत तय नहीं कर सकती। यह बात चूंकि मैंने कैबिनेट में कही थी इसलिए उन्होंने मान ली। लेकिन दूसरे ही दिन मेरी अनुपस्थिति में कई दौर की बैठकें चलीं और तय हो गया कि छह दिसंबर तक कुछ भी नहीं करेंगे,जब तक अदालत का फैसला नहीं आ जाता।
क्या नरसिंह राव को स्थिति बेकाबू होने का अंदाजा नहीं था?

अंदाजा क्यों नहीं था। मैं नवंबर में उत्तर प्रदेश के दौरे पर गया था। साथ में प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी भी थे। पूर्वी और पष्चिमी उत्तर प्रदेके पांच जिलों में जलसे किये। गोरखपुर से लेकर गाजियाबाद तक मुस्लिमों के बीच जो भय का माहौल दिखा वह हैरत में डालने वाला था। हमारे साथी और कांग्रेसी नेता नारायण दत्त तिवारी ने एक चर्चा के दौरान मुझे बताया कि कल्याण सिंह का मेरे घर के बगल में एक घर है। वहां जोर-शोर से रंगाई-पुताई का काम चल रहा है और सभी कह रहे हैं कि जैसे ही 6 दिसंबर को मस्जिद टूटेगी, वे इस्तीफा यहीं बैठकर देंगे। नारायण दत्त ने जोर देकर कहा कि मैं कई बार राव साहब से कह चुका, जरा आप भी उनका ध्यान इन तैयारियों की तरफ दिलाइए। सुनने में ये बातें गप्प लग सकती हैं,लेकिन इस तरह की हर जानकारियों समेत वहां हो रहे हर महत्वपूर्ण घटनाक्रमों की जानकारी राव तक हर समय पहुंचायी।

यानी तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के इस्तीफे की तैयारी पहले से थी?

बिल्कुल। हमने यही बात तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंहराव से भी कही कि कल्याण सिंह इस्तीफा लेकर बैठे हुए हैं ,वह सिर्फ मस्जिद ढहने के इंतजार में हैं। अगर अपने चाल में वे कामयाब होने के बाद इस्तीफा सौंपते  तो सिवाय अफसोस और दंश  झेलने के हमारे मुल्क के पास क्या बचेगा।

कांग्रेस सरकार को इस तैयारी की जानकारी कितने महीने पहले से थी?

बाकी की तो छोड़िए,6दिसंबर को ग्यारह बजे दिन में मेरे पास एक वकील दोस्त का फोन आया कि पहली गुंबद कारसेवकों ने ढहा दी है। उसके ठीक बाद प्रेस ट्रस्ट के विशेष संवाददाता हरिहर स्वरूप का फोन आया कि कारसेवक मस्जिद में घुसने लगे हैं। फिर मैंने तत्काल नरसिंह राव से बात की और कहा कि जो हमने पहले कहा,वह तो हो नहीं पाया लेकिन अब भी समय है कि सरकार को तुरंत बर्खास्त कर हथियारबंद फौंजें तैनात कर दीजिए। अभी सिर्फ एक ही गुंबद टूटा है। हम मस्जिद को बचा ले गये तो भविष्य हमें इस रूप में याद रखेगा कि एक लोकतांत्रिक सरकार ने हर कौम को बचाने की कोशिश की।
शायद आप उस दिन इस सिलसिले में राष्ट्रपति  से भी मिले थे?

जब साफ़ हो गया कि प्रधानमंत्री कान नहीं दे रहे हैं तो तत्कालीन राष्ट्रपति शंकरदयाल शर्मा से मैं साढे़ पांच बजे शाम को मिलने गया। मैं उनसे कुछ कहता,उससे पहले ही वे बच्चों की तरह फूट-फूट कर रोने लगे। बातचीत में उन्होंने बताया कि अभी राज्यपाल आये थे लेकिन वे बता रहे थे कि नरसिंह राव ने उन्हें निर्देश दिया है कि वह तब तक बर्खास्तगी रिपोर्ट उत्तर प्रदेश सरकार को न भेजें जब तक वे नहीं कहते। इसी बीच राष्ट्रपति के पास संदेश आया कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने इस्तीफा दे दिया।

बहरहाल शाम छह बजे कैबिनेट की आकस्मिक बैठक में मुझे पता चला कि मस्जिद गिरा दिये जाने के अपराध में कल्याण सिंह सरकार को बर्खास्त किया जा रहा है। तब मैंने कहा कि उसने अपना काम पूरा करके सरकार के मुंह पर इस्तीफा फेंक दिया है।

नरसिंह राव कैबिनेट में और कौन मंत्री थे, जिन्होंने आपका बाबरी मस्जिद मसले पर आपका साथ दिया था?

नाम मैं किसी का नहीं ले सकता। मगर इतना तो था ही जब कभी भी मैंने यह मसला कैबिनेट के बीच या मंत्रियों से आपसी बातचीत में लाया तो किसी ने कभी विरोध नहीं किया।

नरसिंह राव की भूमिका का जो सच इतना बेपर्द रहा है,वह जांच करने वाले कमीशन लिब्रहान को क्यों नहीं सूझा?

मैं सिर्फ इतना कहता हूं कि यह आयोग नरसिंह राव की संदिग्ध भूमिका को झुठला नहीं सकता।

कहा जा रहा है कि कभी कांग्रेस नेतृत्व के साथ बैठने वाले फोतेदार हाशिये पर हैं। इसलिए नरसिंह राव पर आपकी बयानबाजी राजनीतिक लाभ की जुगत भर है?
अगर इस जुगत से समाज के सामने एक सच खुलता है तो हमें कहने वालों की कोई परवाह नहीं है।


Sep 28, 2010

पहाड़ से पनाह मांगते लोग


बारिश की मार ने राज्य के हर गांव में हाहाकार मचा रखा है। बच्चे स्कूल नहीं जा पा रहे हैं,किसान खेतों से महरूम हैं,बुजुर्ग  घरों में जान बचाकर दुबके हैं जो कभी भी  ध्वस्त हो सकते हैं।  मुनाफाखोरी की चिंता से लकदक   विकास ने पहाड़ के जनजीवन को किस कदर तबाह किया है,उन पहलुओं को उजागर करती उत्तराखंड   से एक रिपोर्ट  

सुनीता भट्ट

‘हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए, अब हिमालय से कोई गंगा  निकलनी चाहिए।’ लोगों के दर्द को आवाज देने वाली ये पंक्तियां हिमालयवासियों के लिए अब अधिक पीर देने वाली साबित हो रही हैं। बंगाल की खाड़ी से इस साल उठे प्रचंड मानसून से लोग इतने दुखी हैं कि वे विकराल हो चुकी नदियों से थमने की प्रार्थना कर रहे हैं।

गंगा, यमुना, मंदाकिनी, पिंडर, सरयू, धौली, काली, कोसी, रामगंगा समेत तमाम नदियों ने प्रलयंकारी रूप धारण किया हुआ है। विद्युत परियोजनाएं ठप पड़ी हैं,जो बन रही थीं,वे मलबे के ढेर में तब्दील हो चुकी हैं। टिहरी झील का जलस्तर पहाड़ ही नहीं,मैदानों तक को आतंकित किए हुए है। गर्मी में ऊंचे पहाड़ों पर प्रवास के लिए लोग नीचे के गांवों में नहीं आ पा रहे हैं,जबकि सर्दी शुरू होने से वहां बर्फवारी होने वाली है और ऐसे परिवारों में बूढ़े, महिलाएं और जानवर भी  हैं।


 जगह-जगह टूटी जीवन की डोर                                          फोटो- जनपक्ष  

कई दिनों से पहाड़ में अखबार नहीं पहुंच सके हैं और रेडियो- टीवी  बंद पड़े हैं। सैकड़ों गाड़ियां रास्तों में अटकी हैं। परिवहन व्यवस्था लड़खड़ाने की वजह से लोग अपने परिजनों का हाल जानने नहीं पहुंच पा रहे हैं। राज्य की प्रतियोगी परीक्षाएं टालनी पड़ी हैं,जबकि बाहरी राज्यों में हुई परीक्षाओं से उत्तराखण्ड के कई अभ्यर्थी वंचित रह गये हैं। अधिकतर क्षेत्रों में लंबे समय से रसोई गैस की आपूर्ति नहीं हो सकी है,जबकि ईंधन की लकड़ी सूखने का नाम नहीं ले रही। छुट्टी का वारंट लेकर निकले सैकड़ों सैनिक स्टेषनों पर दिन काट रहे हैं।

उन्नीस सितंबर को हुई अतिवृश्टि से इस पहाड़ी राज्य के 60 लोगों की जान चली गई। बारिश से लगभग 175 लोग काल-कवलित हो चुके हैं,सैकड़ों लोग लापता हैं और 1200लोग गंभीर  रूप से घायल हैं। एक अनुमान के मुताबिक राज्यभर में सात हजार से अधिक पशु मारे जा चुके हैं,जबकि राष्ट्रीय पार्कों में मारे गए वन्यजीवों की गणना नहीं की जा सकी है। आठ हजार परिवारों को सुरक्षित स्थानों पर ले जाकर शिविरों और स्कूलों में ठहराया गया है। राज्य में 30 हजार हैक्टेअर कृषि भूमि  नष्ट हुई है।

बारिश की मार ने पर्वतीय राज्य के हर गांव-तोक में हाहाकार मचा रखा है। बच्चे स्कूल नहीं जा पा रहे हैं,किसान खेतों से महरूम हैं,बच्चे-बुजुर्ग ऐसे घरों में जान बचाकर दुबके हैं जो कभी भी  ध्वस्त हो सकते हैं। बीमारों को अस्पतालों तक नहीं ले जाया जा सकता। जिन गांवों में लोग हताहत हैं, उन्हें बाहर निकालना सेना के लिए मुश्किल है। कई गांवों में तो दर्जनों मृतकों की चिताएं साथ जलीं।

सड़कें ध्वस्त होने से गांवों के साथ कस्बों,नगरों तक में दाल-रोटी का संकट है। बड़े इलाके में दूध और राशन नहीं पहुंच रहा है। बिजली गायब है, जबकि दुकानों से डीजल, पैट्रोल, केरोसिन, सब्जियों, दालों का कोटा खत्म हो चुका है। अस्पतालों में दवाएं नहीं हैं। सैकड़ों मोबाइल टावर ध्वस्त हो गए हैं,जहां मोबाइल काम कर भी  रहे हैं,वहां बैटरी जवाब दे चुकी है। ऊंचे पहाड़ों में पर्वतारोहण पर गए यात्रियों की कोई खबर नहीं है,जबकि हजारों तीर्थयात्री रास्तों में फंसे हुए हैं।

अतिक्रमण का परिणाम: सबकुछ तहस-नहस                      फोटो- जनपक्ष  

गेहूं-चावल लेकर सेना के जो हैलीकॉप्टर राहत कार्य में लगे हैं,बादलों की घनी चादर लगने से घूमकर वापस लौट रहे हैं। पूरे पहाड़ में पेयजल लाइनें ध्वस्त होने से पीने के पानी का संकट है। डाक सेवायें बाधित होने से मनीऑर्डर व्यवस्था ठप है। जिला मुख्यालयों समेत राजधानी के आसपास के गांवों का भी  संपर्क आपस में कटा हुआ है। सेब की खेती को बाजार तक ले जाने वाले मार्ग टूटने से वह रास्ते में खडे ट्रकों में सड़ रही है। खड़ी फसलें और खेत  पूरी तरह से चौपट हो चुके हैं। सिंचाई नहरें सिरे से गायब हैं। खेतों और पहाड़ों में जहां-तहां दरारें हैं। घोड़ों-खच्चरों पर लदकर पहुंच रहा महंगा सामान लोग खरीद नहीं पा रहे हैं। मुनस्यारी और मोरी जैसे पिछड़े क्षेत्रों में प्याज 150 तथा टमाटर 80 रुपए किलो बिक रहा है। अल्मोड़ा जैसी जगह में तो एक अंडे की कीमत 12रुपए तक वसूली जा रही है। आपदा से निबटने को केन्द्र से भेजी गई एनडीआरएफ की टीम हरिद्वार और ऋषिकेश से ऊपर जाने का साहस नहीं जुटा पा रही है।

अधिकतर जिलों में बारिश का पुराना रिकॉर्ड टूट गया है। राज्य में इस समय 1300से अधिक सड़कें पूरी तरह से क्षतिग्रस्त हैं। इनमें राष्ट्रीय राजमार्गों समेत लोनिवि की सड़कें शामिल हैं। कोई  सड़क ऐसी नहीं बची है जो कम से कम चार-पांच जगह से न टूटी हो। सड़कों की मरम्मत को गए 125बुलडोजर मलबे के बीच फंसे हैं। अंतरराष्ट्रीय सीमाओं और हिमाचल को जोड़ने वाली सड़कों समेत चारधाम यात्रा मार्ग ठप पड़े हैं। सीमावर्ती जिलों में बने सैन्य
शिविर तक बारिश से नहीं बच पाए।

आपदा की मार
  • आपदा से बागेश्वर के सुमगढ़ गांव में बादल फटने से 18 स्कूली बच्चों की मृत्यु
  • प्रदेश भर में जनजीवन पूरी तरह से अस्त-व्यस्त, अब तक 175 मौतें, 1200 घायल, सैकड़ों लापता
  • अल्मोड़ा के बाल्टा और देवली गांव में एक ही दिन में 43 लोगों की बादल फटने से मौत
  • पर्वतारोहण पर गए एक कर्नल और मेजर की एवलांस में मौत, एक गायब
  • पर्वतारोहण पर गए अलग-अलग अभियानों में फ्रेंच, ऑस्ट्रियन, कजाक, ब्रिटिश दल मार्गों में फंसे
  • चिन्यालीसौंड़ के 15 गांव टिहरी झील में समाए, सैकड़ों लोग बेघर हो गये
  • चारधाम यात्रा को निकली 340 बसें जगह-जगह यात्रा रूट में अटकीं, हजारों यात्री फंसे
  • श्रीनगर में आईटीबीपी के जवान शिविर ध्वस्त होने से फंसे, उन्हें मुश्किल से निकाला जा सका
  • गौला में जीप गिरने से सात लोगों की मौत, अलकनंदा में एक टूरिस्ट बस और पुलिस जीप गिरी
  • 11 पर्वतीय जिलों समेत 2 मैदानी जिलों हरिद्वार और उधमसिंहनर में भारी नुकसान
मूसलाधार बारिश से 2500पेयजल लाइनें टूट गई हैं। तीन हजार से अधिक गांवों में पीने का पानी नहीं हैं। यहां के लोग बारिश का पानी उबालकर पी रहे हैं। 3000 नहरें, 1000 विद्युत लाइनें और हजारों बिजली के पोल ध्वस्त हुए हैं। हरिद्वार में रेलवे ट्रैक  पर मलवा आने से चार दिन तक रेल सेवाएं बाधित रहीं। हल्द्वानी में जलस्तर बढ़ने से नदी का पानी रेलवे ट्रैक पर आ गया। कई दिनों तक जौलीग्रांट हवाई अड्डे से उड़ानें नहीं भरी जा सकीं। आठ सौ से अधिक स्कूल भवन  क्षतिग्रस्त घोशित कर दिए गये हैं, जबकि 200 से अधिक गांवों को स्थायी रूप से विस्थापित करने की चुनौती है। टिहरी बांध के सहयोगी कोटेश्वर बांध समेत दो दर्जन से अधिक जलविद्युत परियोजाएं क्षतिग्रस्त हो गई हैं। प्रदेश  सरकार ने 25000 करोड़ से अधिक के नुकसान का आकलन किया है।

मानसरोवर में फंसे यात्री                                             

बारिश के नुकसान का वास्तविक आकलन होना अभी शेष है। लोगों को राहत देने के लिए मिले धन को मानवीय संवेदना और ईमानदारीपूर्वक खर्च करने की जरूरत है। साथ ही प्रदेश के विकास के लिए दूरगामी नीति बनाना आवश्यक है। तबाही बनकर आयी बारिश  विवेकहीन रूप से बना दी गयीं तमाम सड़कों पर प्रश्नचिह्न तो लगाती ही है,वहीं बड़ी जलविद्युत परियोजनाओंके खतरे से भी आगाह करा  रही है। एक तरफ नदियां अपने तट वापस मांग रही हैं, तो  चोटियों में बसे सैकड़ों गांवों को सुरक्षित स्थानों पर बसाने की  जिम्मेदारी सरकार के सामने है। जाहिर है ऐसे में आम नागरिकों का दायित्व भी  सरकार और मशीनरी से कुछ कम नहीं है।

 (लेखिका सामाजिक सरोकारों से जुड़ी पत्रकार हैं, उनसे sunitabhatt10@gmail.com  पर संपर्क किया जा सकता है)