जहाँ फैसला उत्तर प्रदेश में होने वाली परीक्षाओं की तरह लीक हो रहा हो,जजों से पहले जनता ही जजमेंट कर रही हो और बाद में अदालत पंचायत की खानापूर्ति, वैसे में वामपंथी भर्त्सना की जुगाली कर अपने होने का एहसास दर्ज कराते रहें, आखिर यह कैसी प्रगतिशील विडम्बना है.
अजय प्रकाश
हरियाणा में खाप पंचायतों की सुनवाइयों में आते-जाते एक पत्रकार मित्र एक दिन अचानक भड़क गए और उन्होंने अभिव्यक्ति की आज़ादी का उपयोग करते हुए खापों की मौजूदगी पर सवाल दाग दिया. मित्र जहाँ सवाल दाग रहे थे वह कैथल का एक चौराहा था और उनकी अभिव्यक्ति की आज़ादी को काफी देर से एक चौधरी सब्र से सुन रहा था. उससे रहा न गया तो उसने मित्र को अपने करीब आने का इशारा किया.
चौधरी ने पत्रकार मित्र से कहा, 'बात तो तू ठीक केह र्रेआ है छोरे, पर म्हारे को जे समझ में नहीं आ रहा है कि ऐसा होत्ता क्यों नहीं?'
मित्र थोड़ा घबडा गए और सामाजिक हालात,सामंती समाज और साम्राज्यवाद के कहर के बारे में कुछ बुदबुदाने लगे. उन्होंने जो अंतिम वाक्य बोला वही साफ़ से सुनाई दिया कि 'तभी तो बदलेगा...'
मित्र की बात सुन चौधरी जोर-जोर से हंसने लगा.उसने बगल में मौजूद हजाम की दुकान से ऐनक मंगाया और मित्र को और नजदीक आने का इशारा किया. नजदीक का इशारे होते ही मित्र घबराये.
चौधरी उनको ऐनक दिखाते हुए बोला, 'इसमें तू अपना चेहरा देख और पहचान की तू है ना.'
'हाँ मैं ही हूँ' - मित्र का चेहरा इतना बताने में बिलकुल ललिया चुका था.
चौधरी बोला, 'तू दुबारा देख तू ही है ना!',
मित्र ने कहा 'लगता तो मैं ही हूँ...वैसे'
फिर तीसरी बार चौधरी चढ़ बैठने के अंदाज़ में बोला, 'अबकी ध्यान से देख, बता तू ही है ना'
तो मित्र बोल पड़े, 'नहीं, शायद मैं नहीं... मैं नहीं...'
चौधरी ऐनक एक तरफ रखते हुए बोला,'छोरे अभी तो ठीक से मैंने तुझे डपटा भी नहीं कि तू अपना चेहरा भूलने लगा और बात करता है कि खाप क्यों है, हत्याएं क्यों हैं. कभी हमारे साथ दिन तो गुजार, खुद ही पता पड़ जावेगा कि लिखने और करने में पूरे एक जीवन का फर्क कैसे होवे है.जब बिन गिनती के लाठियां गिरती हैं,सरेआम फांसी दी जाती है और सरेराह बलात्कार होता है तो वहां कलम कहीं नहीं होती. वहां होवे है परिवार और समाज. तुम्हारे जैसे थानों में रहे हैं कि आंसुओं की गिनती ठीक-ठीक कर सकें.तुम्हारे बाद जो नखादे बैठते हैं विश्लेषण करने, वह तो और भी निराले हैं. मानो उनके महान वचनों को पढ़कर सत्ता हिल जाती है और खाप के पापियों को दिव्यज्ञान हो जाता है.'
चौधरी आगे बोला 'और सुण! जब तक तेरे जैसे खाप विरोधी रहेंगे, तबतक खापों का कुछ न होने का. छोरे तू तो ऐसा सेनापति है जिसने न तलवार देखी ना धार, पर सर कटाने के लिए झुका दिया. तेरे जैसों ने ही बंटाधार किया है, नहीं तो खाप कब की खाट पर पहुँच चुकी होती.'
चौधरी ने हरियाणवी में करीब यही बातें कहीं थीं.उसकी इतनी बातें सुनने के बाद हमलोग गाड़ी में बैठे तो ड्राइवर ने कहा,- 'बुड्ढा लोकल था,अच्छा किया कुछ बोला नहीं, आखिर आप लोगों ने कोई खाप का विरोध तो किया नहीं था.'
चौधरी की वह बात आज फिर एक बार बाबरी मस्जिद मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आये फैसले के बाद सच साबित होती दिख रही है. वह इसलिए कि अपने को प्रगतिशील कहने वाला समाज ऐसी प्रतिक्रिया कर रहा है जैसे उसे ऐसे फैसले की उम्मीद तो थी ही नहीं.या इसे दूसरी तरह से देखें तो लग रहा है कि लेखक-पत्रकार इंतज़ार में रहे हों कि फैसला जैसे ही आएगा, मुसलमानों के पक्ष में दे दनादन...
सत्ता की आलोचना को भी पर्याप्त तैलीय बनाकर पेश करने वाले इन चूके हुए खिलाडियों को देख कई बार लगता है कि वह किसी मामले में हस्तक्षेप से ज्यादा अपने होने का सबूत देते हैं कि लोग उन्हें लुप्तप्राय न मान लें. हो सकता है अपने होने का सबूत देने के लिए कल से वह मुस्लिम समाज को गरियायें, जो कि दिल में कसक लिए सिर्फ इस बात पर खुश हैं कि चलो एक फैसला तो आया.
चौधरी की बात याद करें 'कभी हमारे साथ दिन तो गुजार, खुद ही पता पड़ जावेगा कि लिखने और करने में पूरे एक जीवन का फर्क कैसे होवे है.' शायद इसीलिए मुसलमान बुझे मन से सही, मगर फैसले पर वह तल्ख़ प्रतिक्रिया नहीं दे रहे हैं जैसी तथाकथित वामपंथी दे रहे हैं. यानी साफ है कि अपने होने का सबूत देने वाले तथाकथित वामपंथी अभी भी बोल रहे हैं और कल भी बोलेंगे.मगर जियेंगे मुसलमान और सामने होंगे हिन्दू, जहाँ कहीं नजर नहीं आयेंगे ये लोग.
वर्ष 1949 से चले आ रहे इस मुकदमे में जरा इन जैसे तथाकथित प्रगतिशीलों का कोई रोल हो तो बताएं, जो फैसले के बाद कागज काले किये जा रहे हैं.साथ ही कोई यह बताये की इस फैसले के आने के बाद किसी वामपंथी पार्टी ने इस सन्दर्भ में आगे कुछ करने की सोची है. अगर ऐसी कहीं से सूचना हो तो स्वागत है. क्योंकि इतिहास पूछेगा कि बात बहादुर वामपंथियों कि क्या भूमिका थी, जब वे फैसले में कांग्रेस पार्टी की जरूरत और भाजपा के असर को गिनवा रहे थे.
बात दूर कि न करें.अयोध्या से अगला जिला आजमगढ़ है जहाँ दर्जनों निर्दोष मुस्लिम नौजवान आतंकवादियों के नाम पर फर्जी तरीके से जेलों में भरे जाते रहे,जिला बदर होते रहे.मगर विरोध में एक भी मुकम्मिल आवाज वामपंथियों की ओर से नहीं उठी. किसी वामपंथी पार्टी के बुद्धिजीवी-लेखक संगठन ने यह जहमत नहीं उठाई कि इन फर्जी गिरफ्तारियों के खिलाफ आजमगढ़ में विरोध दर्ज कराया जाये.जिन लोगों ने कोशिश की उनको कई बार संगठन के भीतर आलोचनाएँ झेलनी पड़ीं और दुत्कारा गया.
मौजू बाबरी मस्जिद मामले पर मालिकाने के फैसले को देखें तो यह बात बड़ी साफ़ है कि पिछले पखवाड़े भर से यह खबर आम थी कि फैसला निर्मोही अखाड़े के पक्ष में आएगा, इसलिए बलवे की कोई गुंजाइश नहीं है. फिर दृश्य बदला और सर्वोच्च न्यायालय का हस्तक्षेप हुआ. तय समय 24 सितम्बर को इलाहाबाद उच्च न्यायायलय का आने वाला फैसला लंबित होता दिखा. मगर सर्वोच्च न्यायालय का दुबारा आदेश आया कि उच्च न्यायालय विवादित भूमि पर अधिकार के मामले में 30 सितम्बर को फैसला दे. सर्वोच्च न्यायालय ने यह आदेश 28 सितम्बर को दिया. उसी शाम यह चर्चा होने लगी कि जमीन तीन हिस्सों में बंटेगी.
ऐसे में सवाल उठता है जहाँ फैसला उत्तर प्रदेश में होने वाली परीक्षाओं की तरह लीक हो रहा हो,जजों से पहले जनता ही जजमेंट कर रही हो और बाद में अदालत पंचायत की खानापूर्ति, वैसे में वामपंथी भर्त्सना की जुगाली कर अपने होने का एहसास दर्ज कराते रहें, आखिर यह कैसी प्रगतिशील विडम्बना है.
सही समय पर सही चोट.इन्हें वामपंथी नहीं बात्पंथी कहना चाहिए.
ReplyDeleteचलो छोडो भी यहां जान बची तो काफी है। जिंदा रहे तो और मस्जिदें तामीर कर लेंगे। वैसे भी इबादत तो करते नहीं थे वहां। और फिर उदार बहुसंख्यक समाज ने तिहाई हिस्सा दे तो दिया है। अब और क्या चाहिए?
ReplyDeleteअजय जी, आपका यह लेख बिलकुल अच्छा नहीं लगा. यह बात सच नहीं है कि वामपंथियों ने इस मामले पर कभी कुछ नहीं किया. हा, यह जरुर कहा जा सकता है कि उनके प्रयास बहुत कारगर नहीं रहे हैं. लेकिन इसका कारण यह हैं कि वे कमजोर हैं, आज पुरे वामपंथी आन्दोलन ही कमजोर हैं. लेकिन आप तो वामपंथियों के बातूनी होने को ही सबसे बड़ा दोष मान रहे हैं. यह अच्छा संकेत नहीं है. आखिर बुर्जुआ बुद्धिजीवी भी तो यही कहकर वामपंथियों को गालिया दे रहे हैं. दूसरी बात - तमाम मुख्यधारा के अख़बार-टीवी देखिये- ऐसा कहा जा रहा है मानों अब तो पूरा न्याय हो चूका है. मुसलमान दंगे की डर से इस फेसले को भले ही मान ले - लेकिन इसके पीछे की दर्द को समझना और उन्हें शब्द देना जरुरी है- जो वामपंथी बुद्धिजीवी आज कर रहे हैं. और मुझे लगता है -सही कर रहे हे. तीसरी बात- जरा आपके पोस्ट पर सचिन द्वारा दिए गए कमेन्ट को पढ़िए - "मस्जिद तो मिल गया. अब उन्हें और क्या चाहिए". क्या यह हिन्दुत्ववादी मानसिकता नहीं है? आपका निशाना एइसे लोगो पर होना चाहिए न की बेचारे वामपंथी बुद्धिजीवियों पर. वे तो पहले से ही बदनाम किये जा रहे हैं. अगर सही में कुछ सार्थक करना हैं - तो चलिए बात करते हैं -कि केसे वामपंथी आन्दोलन को मजबूत किया जा सके. कलम का प्रयोग सृजन के लिए करें, सार्थक आलोचना के लिए करें - न कि अपनी ही विरासत को बेकारकी गालियाँ देने के लिए.
ReplyDeleteकबीर चटर्जी, दिल्ली
कबीर ने बड़ी उम्मीद से अजय प्रकाश को संबोधित किया है. भाई तुम्हारे में समझदारी होगी तो इतिहास देखना कभी पत्रकार ऐसों की उम्मीद पर गौर नहीं करते बल्कि जो है उसे लिखते हैं. बाबरी मस्जिद मामले में वामपंथियों -प्रगतिशीलों के रवैये पर गलत लिखा गया है तो वह बताएं सही क्या है.
ReplyDeleteमैं बस इतना कहूँगा,यह सतही मगर सही विश्लेषण है.
प्रिय अजय तुम भी अपनी दुन्दुभी आप बजाने वाले ही निकले. मैं ने एक प्रतिक्रिया तुम्हें भेजी थी पर चूंकि तुमने वामपन्थियों को सब धान बाईस पसेरी के हिसाब से गालियां देने का बीड़ा उठा लिया है वह तुम्हें अच्छी नहीं लगी. -- नीलाभ
ReplyDeleteअजय सबह,
ReplyDeleteआप बुरी तरह कुंठित है यह बात समझ में आती है. रोज रोज सिर्फ वामपंथियों को गली देते है. पोस्ट मार्डन शैली में लिखते है. जिस में अंत और शुरुआत का अतापता नही होता. आप जैसे लेखक सिर्फ कन्फयूस करते है. आपके इतिहास के ज्ञान पर शक होता है. थोडा पढ़ा कीजिये लिखने से पहले. आप के लेखों से टाइमस ऑफ़ इंडिया के एडिटोरिअल कि बू आती है.
आपका
शुभचिंतक
गुरु अजय तुम किस बिल में हाथ दाल रहे हो. हमारी तुमसे पहचान नहीं है , बस जनज्वार पढता हूँ इसलिए राय है इनपर समय न गवाओ, ये सिर्फ आलोचना करने के अधिकारी हैं सुनने के तो कत्तई नहीं. तुम्हारे लिखने को बर्दास्त नहीं कर पाएंगे. बिहार के एक साहित्यकार हैं सृंजय, जिन्होंने कामरेड का कोट नाम से एक शानदार कहानी लिखी थी, जिसके बाद से अबतक वामपंथियों ने उन्हें आगे नहीं आने दिया. तमाम वामपंथी भी इसे मानते हैं. तुम शुक्र समझो कि किसी वामपंथी को तुम्हारे लेख से टाइमस ऑफ इंडिया के सम्पादकीय की गंध आयी, नहीं तो आमतौर पर ये तुम्हारे जैसों के लिए दो कौड़ी का इस्तेमाल किया करते हैं. शुभचिंतक ने पता नहीं तुम्हारे कितने लेख देखे हैं मगर तमगा लगा गए, अजय पोस्टमोर्देनिस्ट है.अब तुम तय कर लो सृंजय बनना है या कुछ और क्योंकि इनके भीतर रहकर आलोचना का भ्रम मत पालना अन्यथा तुम कहाँ खोओगे, पाता नहीं चलेगा. मैं इसलिए कह सकता हूँ क्योंकि तुम्हारे लिखने में वामपंथी झुकाव है.
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