Mar 5, 2017

बनारस में हो रही राष्ट्रीय पत्रकारिता का एक मजमून

इन दिनों कई संपादक संवाददाता बन गए हैं। वह बनारस में जमे हुए हैं। उन्हीं में से किसी एक को मेरे एक जानकार से मेरा नंबर मिला। उनका फोन आया, अब बात सुनिये...

''अजय भाई, कोई मुद्दा बताइये जो बनारस का असल सवाल बने...''

मैं, ''दर्जन भर गंदे नालों को दिखाइए जो सीधे गंगा में गिरते हैं और बताइये नमामि गंगे कैसे बनारस में दम तोड़ रहा है।''

संपादक, ''ये बहुत ही रिपिटेड मुद्दा है।''

मैं, ''सडकों और आवाजाही की सुविधा को दिखाकर बताइये कि करोड़ों के फंड, प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र होने और यूनेस्को से मिले विश्व धरोहर के दर्जे के बावजूद तीसरे दर्जे का शहर बना हुआ है।''

संपादक, ''चुनाव में कौन पढता है इन मुद्दों को। कोई चुनावी मुद्दा बताइये।''

मैं, ''मोदी महिलाओं के पक्षधर बनते हैं। बनारस में विधवा, परित्यक्त औरतें और भीख मांगने वाली महिलाओं की आबादी लाखों में है, इसपर कर दीजिए। और बताइये कि जहाँ सभी पार्टियों के धुरंधर हैं वहां आधे वोट की भागीदार औरत कहाँ है चुनाव में, प्रचार में।''

संपादक, ''यह तो मोदी को बेवजह टारगेट करना हो जायेगा। यह कोई आज की समस्या तो है नहीं।''

मैं' ''तो ठीक है आप बीएचयू पर करिये। बताइये कि अस्पताल से लेकर विश्विद्यालय तक कैसे दिन प्रतिदिन संसाधनों की कमी से घिरते जा रहे हैं। एक जगह शिक्षक नहीं तो दूसरे जगह सुविधा नहीं। महंगा इलाज और महँगी शिक्षा तो हैं ही। जबकि बिहार यूपी मिलाके 18 जिलों की उम्मीद है यहाँ के अस्पताल और विश्वविद्यालय से।''

संपादक, ''बहुत एकेडेमिक टाइप सवाल हैं। अच्छा...फिर बात करता हूँ आपसे। मोदी जी का जरा रोड शो कवर कर लूँ। थैंक्यू डियर।''

Mar 3, 2017

कार्यकर्ताओं के लिए नारा है—पहले इटिंग फिर सेटिंग

कल उत्तर प्रदेश के सबसे पिछड़े जिलों की 49 सीटों पर चुनाव है। उसमें से एक जिला मेरा भी है। और आपको जानकर खुशी होगी कि फाइट में देखा जा रहा कोई एक कैंडिडेट ऐसा नहीं है जो विकास आदि हवाई जुमलों पर चुनाव लड़ रहा हो। वह हिंदू—मुस्लिम और जाति के मूलाधार पर खड़ा होकर पैसे से वोटर खरीदने की ठोस रणनीति पर चुनाव मैदान में है...

आज चुनाव पर्व की पूर्व संध्या पर कई इलाकों में पैसे बंट रहे हैं। सुनने में आ रहा है कि इसमें बरहज विधानसभा क्षेत्र नंबर वन है। यहां पैसा बांटने में कंपटीशन है कि कौन ज्यादा देता है। यह वही बरहज है जहां कभी देवराहा बाबा पाए जाते थे और उनसे आशीर्वाद लेने इंदिरा गांधी पहुंचा करती थीं।

इन दिनों इस विधानसभा से प्रधानमंत्री मोदी के प्रधान सचिव नृपेंद्र मिश्रा आते हैं। उनके गांव कसीली मिश्र में लोग बड़े फक्र से बताते भी हैं कि उनके गांव ने सांसद, जज और बड़े—बड़े लोग दिए हैं। पर इसी फक्र से वह लोग यह भी बताते हैं कि गांव के कुल 560 वोट में से 400 वोट सिर्फ एक ही कैंडिडेट को बिक चुके हैं।

यह एक कैंडिडेट पिछले छह महीनों से विधानसभा में काम कर रहे हैं। काम का स्वरूप वोटरों को तरह—तरह से खरीदना और लाभ पहुंचाना है। किसी का इन्होंने नाद बनवा दिया है तो किसी की बेटी शादी में कुछ पैसे पकड़ा दिए हैं तो कहीं—कहीं सोलर लाइट लगवा दी है। या फिर दवा दिला दी। यानी यह पिछले छह महीनों से गरीबों की सेवा कर रहे हैं।

जहां यह सब वह नहीं कर पाए वहां सीधे कैश की व्यवस्था है।

जानकारी के मुताबिक छह महीने पहले ही इनके होटल में एक बैठक हुई और वहां से करीब 150 स्मार्ट फोन उन लोगों को दिए गए जो इलाके में घूम—घूम कर भैया के पक्ष में माहौल बनाएंगे। इस सुविधा का विकास हुआ और उन्होंने चुनाव नजदीक आने पर कार्यालय पहुंचने वाले हर व्यक्ति को सफारी सूट की सुविधा उपलब्ध करा दी।

कार्यकर्ताओं के लिए नारा है — पहले इटिंग फिर सेटिंग। मतलब कार्यालय आने वाला व्यक्ति को पहले खिलाया—पिलाया जाता है फिर उसे उपहार में सफारी सूट दिया जाता है, जिससे वह सेट होकर प्रचार में लगे।

आखिर में,

भक्त खुश हो सकते हैं क्योंकि 49 में से ज्यादातर सीटों पर भाजपा सीेधे टक्कर में है।

Mar 2, 2017

वह चुनाव जीत जाएंगे और हम पत्रकारिता हार जाएंगे

मीडिया कहती है हम काउंटर व्यू छापते हैं। बगैर उसके कोई रिपोर्ट नहीं छापते। कल आपने विकास दर की रिपोर्ट पर कोई काउंटर व्यू देखा। क्या देश के सभी अर्थशास्त्री मुजरा देखने गए थे...

या संपादकों को रतौंधी हो गयी थी? या संपादकों को 'शार्ट मीमोरी लॉस' की समस्या है, जो 'एंटायर पॉलि​टिक्स का विद्यार्थी', 'वैश्विक अर्थशास्त्र' का जानकार बना घूम रहा है और संपादक मुनीमों की तरह राम—राम एक, राम—राम दो लिख और लिखवा रहे हैं।

हालत ​देखिए कि संपादकों की मुनीमगीरी से मिले साहस में वह विद्यार्थी अमर्त्य सेन जैसे अर्थशास्त्रियों का मखौल उड़ा रहा है और हम पत्रकारिता के युवा हैं जो पेट भरपाई के एवज में जादुई आंकड़ों के कट—पेस्ट को सही साबित करने में एड़ी से चोटी लगा रहे हैं।

सवाल है कि क्या इन संपादकों को अपने ही अखबारों में छपी रपटें और टीवी फुटेज नहीं दिखी? लगातार दो महीने जिससे अखबार भरे रहे, टीवी चैनलों का बहुतायत समय नोटबंदी की समस्याओं पर केंद्रित रहा, वह समस्या क्या एकाएक जादुई ढंग से दुरुस्त हो गयी। 

आईएमएफ की रिपोर्ट, एनआरआई द्वारा देश से ले जाया गया 12 लाख करोड़ रुपया, 13 लाख लोगों की बेरोजगारी, 60 प्रतिशत नरेगा मजदूरों की बढ़त सब बेमानी साबित हो गए। और एकाएक विकास दर 7 प्रतिशत से अधिक पहुंच गई।

क्या तथ्य, आंकड़े, शोध, समझदारी, साहस संपादकों के लिए 'चूरन' वाली नोट हो गए हैं कि जब जैसा मन किया तब तैसा छाप दिया। या सत्ता के दबाव में वह इतने रीढ़विहीन हो गए हैं जो सत्ता के बयान को जनता के मन की बात मान लेने की 'मजबूर जिद' के शिकार हैं? या फिर पत्रका​रिता इंदिरा गांधी के उस दौर से गुजर रही है, जब बैठने के लिए कहने पर संपादक लेटने के लिए दरी साथ लिए घूमते थे।

सामान्य ज्ञान से भी आप सोचें तो जिन दिनों में देश ठप था, रुपए की आवाजाही मामूली थी, मानव संसाधन का बहुतायत पंक्तियों में खड़ा था, चाय और पान की दुकानों तक पर बिक्री के लाले पड़े थे, उन दिनों में विकास दर कैसे बढ़ सकती है?

और नहीं बढ़ सकती तो अगर उत्तर प्रदेश चुनाव जीतने के बाद मोदी और उनकी पार्टी के अध्यक्ष ​अमित शाह बढ़ी विकास दर को नया चुनावी जुमला बोल दें फिर आप कहां के रह जाएंगे?

क्या आप नहीं मानते कि वह चुनाव जीत जाएंगे और आप पत्रकारिता हार जाएंगे?

Feb 28, 2017

गुरमेहर कौर से डरने लगे हैं अमित शाह

भाजपा अध्यक्ष अमित शाह को अंदाजा नहीं था कि एक अकेली लड़की गुरमेहर कौर भाजपा के लिए इतनी बड़ी चुनौती बन जायेगी। अन्यथा वह विद्यार्थी परिषद वालों को चूं तक नहीं करने देते। लेकिन अब मामला हाथ से बाहर जा चुका है और उनको उत्तर प्रदेश के शहरी मतदाताओं के छिटकने का डर सता रहा है....


दरअसल, भाजपा को लगा था कि पार्टी को उत्तर प्रदेश के पश्चिम में जाटों के विरोध के कारण वोट का जो नुकसान हुआ है, उसकी भरपाई पूर्वी उत्तर प्रदेश कर देगा। पर 15, 23 और 27 फरवरी के चुनाव में भाजपा कुछ खास नहीं कर पाई। आरएसएस ने कहा है हम सत्ता में नहीं आ रहे।

आखिरी बाजी के तौर पर अध्यक्ष अमित शाह ने 4 और 8 मार्च के चुनाव को माना। इसी के मद्देनजर अमित शाह ने अपना और सहयोगियों का लखनऊ से बोरिया बिस्तर समेटवाकर बनारस पहुंचवा दिया।

पर पार्टी सूत्र बता रहे हैं, अब अमित शाह का सपना पूरा होने का चांस कम लग रहा है। शहरी वोटरों में कारगिल शहीद की बेटी की चर्चा है। दूसरी पार्टियों के समर्थक हर तरफ शहीद की बेटी का माहौल बना रहे हैं। कारगिल शहीद की बेटी होने की वजह से भाजपा प्रचारक मुश्किल में हैं क्योंकि यह शहीद, सेना, शहादत, बॉर्डर इनके लिए हॉट केक होते हैं।

प्रांत की जिम्मेदारी निभा रहे एक आरएसएस से जुड़े जानकार का कहना है, अमित शाह और उत्तर प्रदेश की टीम दिल्ली में फोन पर फोन किये जा रही है कि लड़की के मामले को समेटो। इसी के तहत एबीवीपी ने अपनी ओर से कारगिल शहीद की बेटी को गाली और बलात्कार की धमकी देने वालों के खिलाफ मुकदमा भी दर्ज कराने की कोशिश की है। पर बवाल और सामूहिक और व्यापक होता जा रहा है। गृहराज्य मंत्री ने उल्टा बोलकर बड़ी मुश्किल खड़ी हो गयी है। यह हमारे लिए बहुत बड़ी चुनौती है।

मैंने उनसे पूछा, आप ऐसा कैसे मान रहे हैं? और बीजेपी ने उल्टा बोला ही क्यों? उन्होंने कहा, 'भाजपा की सामान्य रणनीति चढ़ बैठने की है। जब न संभले फिर नरम होना है। भाजपा ने यह आरएसएस से उधार लिया है। पर आज हमेशा नहीं चल सकता।

उन्होंने आगे कहा, 'आज ही बीएचयू की महिला शाखा बनारस शहर में प्रचार करने गयी थी। लोगों ने कारगिल की बेटी पर सवाल पूछ-पूछ कर मुश्किल कर दिया। बनारस के रविन्द्रपुरी के एक महिला होस्टल से लड़कियों ने भाजपा प्रचारकों को भगा ही दिया।'

जवानों के हक में

तैश पोठवारी की कविता 

कोई तरंग नहीं दौड़ी थी उसके मन में
देशभक्ति की
इससे पहले उसका बाप उसे गालियां निकाले
उसके निक्कमेपन पर
वो निकल जाता था दौड़ लगाने
खेतों के पास वाली सड़क पर
इस तरह वो फ़ौज में दाखिल हुआ
दो रोटी के टुकड़े और कुछ कमा सकने की एवज में
उसने खाई देशभक्ति की कसम
जहां उससे उसका दिमाग लेकर
उसके हाथ में पकड़ा दी गई बन्दूक
ट्रेनिंग में वह मां बहन की गालियां खाता रहा
अफसर के घर झाड़ू लगाता रहा
अपने परिवार के साथ दो पल बिता सकने की ख्वाहिश को दिल में दफ़न कर
वो खाता रहा धक्के
अपने बिस्तरबंद के साथ
जम्मू, इलाहाबाद, अम्बाला, गुवाहाटी, बंगलौर
जहां भी गया
देशभक्ति के लिए नहीं
अपने और बीवी बच्चों के पेट की खातिर
एक दिन उसे खड़ा कर दिया गया सीमा पर
अपनी ही तरह दिखने वाले
बलि के बकरों के आगे
कसाई के जयकारे लगाना जिनकी मज़बूरी थी
वह मारा गया
अपने घर परिवार से बहुत दूर
मक्कार कसाई की गंदी राजनीति को जिन्दा रखने के लिए
कल 26 जनवरी के दिन
उसकी विधवा जाएगी दिल्ली
बूचड़खाने के मालिक के हाथों
शहीदी का प्रमाणपत्र लाएगी
और सारी उम्र पेंशन के लिए
बैंक की लाइन में धक्के खाएगी

Feb 26, 2017

मोदी जी वाले गधे वेल्ले हैं, वेल्ले

प्रधानमंत्री मोदी और मुख्यमंत्री अखिलेश के बीच चले गधा विमर्श के बाद पूरा देश गधों को लेकर संवेदनशील दिखा। टीवी स्टूडियो से लेकर चुनाव मैदान तक में गधे जैसे उपेक्षित जीव को सम्मान मिल रहा है और उसके बरख्स खड़ा होना नेताओं को सौभाग्य का आभास दे रहा है... 




अजय प्रकाश 

मोदी जी द्वारा खुद को देश का सबसे भरोसमंद गधा घोषित करने के बाद असली गधों और उनके मालिकों को बहुत खुशी हुई है। पर उनका दो टूक कहना है ​कि जिस गुजराती गधे की तुलना में मोदी जी ने गधा होना स्वीकार किया है, वह किसी काम के ​नहीं होते, सिर्फ देखने में सुदंर होते हैं बाकि वेल्ले होते हैं। 

गाजियाबाद के हिंडन नाले को पार करने के बाद कांशीराम आवास योजना के तहत चारमंजिला कॉलोनियां दिखती हैं। इन कॉलोनियों को बनाने की योजना की स्वीकृति उत्तर प्रदेश की तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती ने दी थी। मकसद था कि गरीबों को शहरी इलाकों में रहने के सस्ते घर मिल सकें। 

इन घरों को बनाने में गधों की बहुत बड़ी भूमिका रही है। हरियाणा के झज्जर से आए दारा के मुताबिक, 'गधे पांच मंजिल तक आसानी से चढ़ जाते हैं। इंसानों पर काम पर लगाए जाने के मुकाबले यह बहुत सस्ते भी पड़ते हैं। पर मुश्किल यह है कि हमें 1 महीने काम मिलता है और 4 महीने बैठ कर खाना पड़ता है।' 

उनसे हम पूछते हैं कि आपको पता है कि मोदी जी ने खुद को देश का सबसे जिम्मेदार गधा कहा है। यह भी कहा है कि मैं गधों की तरह बिना थके आपके लिए खटता रहता हूं। 

बात सुन दारा हंसते हुए कहते हैं, 'हम गरीब लोग हैं, इतनी बड़ी बातें कहां से जान पाएंगे। अपना तो बस यही काम है, लट्ठ लेकर इन गधों को चुगाना।' पर दारा मानते हैं गधे के सबसे बड़ी बात है कि वह थकता नहीं है। उसे आप 24 घंटे खटा लो और सिर्फ आधे घंटे धूल में लोटने को दे दो तो वह फिर अगले 24 घंटे के लिए तैयार हो जायेगा। यहां तक कि उसे कुछ खाने की भी जरूरत नहीं पड़ेगी। 

बन रहे मकानों के बीच दारा टीन शेड लगाकर रह रहते हैं। इनके साथ हरियाणा के ही ​भिवानी जिले के रामपाल प्रजापति भी रहते हैं। उनके पास भी 10 गधे हैं। वह हमें गधों के लगने वाले मेलों के बारे में बताते हैं। वे लोग झज्जर, बागपत आदि क्षेत्रों में लगने वाले गधा मेलों से गधे खरीदते हैं। उनकी प्राथमिकता में छोटे गधे होते हैं जो आसानी से सीढ़ियों पर चढ़ सकें। इस​ तरह उन्हें गधे सबसे सस्ते पड़ते हैं। मजबूत गधे दूर से सामान ढोने आदि के काम आते हैं।

रामपाल की बात सुन हमारे साथ गए सामाजिक कार्यकर्ता नन्हेलाल रामपाल को दुबारा बताते हैं कि गधों की चर्चा प्रधानमंत्री मोदी ने की है और खुद को गधा कहा है। इस पर रामपाल जोर से हंसते हैं और कहते हैं चलो इसी बहाने गधे चर्चा में आये। लेकिन रामपाल जानना चाहते हैं कि आखिर इतने बड़े आदमी को गधों के सहारे की क्या जरूरत पड़ी और उन्होंने किन गधों की बात की, सभी गधे काम के नहीं होते। 

हमारी टीम के साथी जनार्दन चौधरी उन्हें उस पूरे वाकये को बताते हैं कि कैसे उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने गुजरात के गधों पर व्यंग्य किया, जिसके बाद प्रधानमंत्री मोदी ने खुद को गधा कहा और बताया कि मैं जनता का गधा हूँ और बिना थके 24 घंटे देश के लिए खटता रहता हूँ। 

यह जानकर गधों के दोनों मालिक बेहद खुश होते हैं। 

पर रामपाल प्रजापति बताते हैं कि जिन गधों से मोदी जी अपनी तुलना कर रहे हैं, वह गुजरात के बीड़ यानी जंगल के गधे हैं और वह किसी काम के नहीं होते हैं। मेरे बेटे ने बताया था कि आजकल अमिताभ बच्चन गधों का प्रचार कर रहे हैं। वे वेल्ले होते हैं, वेल्ले। जैसे नीलगायें होती हैं, एकदम वैसे ही। वह सिर्फ दिखने में ही सुदंर दिखते हैं, काम लो तो या फिर वह मर जाएंगे या भाग जाएंगे। प्रधानमंत्री को चाहिए कि वह अपनी तुलना हमारे गधों से करें जो सच में​ बिना थके काम करते रहते हैं। 

इसके बाद गधों के मालिक गधों की चर्चा के बजाय खुद के बारे में बताने लगते हैं। वे कहते हैं, हम गरीब लोग अपने गधों के साथ गधा बनने के लिए हैं ही, पर आप प्रधानमंत्री से कहियेगा कि वह गधा बनने की जगह प्रधानमंत्री ही बने रहें और हमारे और गधों की​ जिंदगी को बेहतर करने के लिए कुछ करें।  

ग़ाज़ियाबाद की सिद्धार्थ विहार योजना को बसाने में गधों बड़ी भूमिका निभाई है। दारा के अनुुसार गधे इंसानों की तरह बड़े सलीके से 5वीं मंजिल तक ईंट, सीमेंट, बालू और बजरी पहुंचाते हैं। एक दिन में 10 गधे और 2 आदमी मिलकर सिर्फ 2 हजार ईंट चढ़ा पाते हैं, जिसके बदले उन्हें 2 हजार मिलता है। 2 हजार में से गधों के खाने-खर्चे के लिए 5 से 6 सौ रुपया आता है और शेष 14-15 सौ में 2 लोगों में बंटवारा होता है। 

सिराज : लद्धु घोड़े और गधे का अंतर बताते हुए
दारा के मुताबिक पिछले 4 महीनों से उन्हें मजदूरी नहीं मिली है। इनका कहना है, ठेकेदार टाल देता है कि अधिकारी पेमेंट नहीं कर रहे, अधिकारी कहते हैं सरकार पेमेंट नहीं कर रही। इसलिए आप मोदी जी को हमारी तरफ से राम-राम बोलिएगा और हमारी पेमेंट करा दें, बड़ी कृपा होगी। 

वहां से आगे बढ़ने पर हमारी मुलाकात सिराज से होती है। वह दो खच्चरों को चरा रहा है। मगर बातचीत में पता चलता है कि हमारा अनुमान गलत है और वे खच्चर नहीं हैं। 

सिराज कहता है, हम लद्धु घोड़े पालते हैं। गदहे नहीं पालते। हाँ, हम गदही जरूर पाल लेते हैं। गदहों के साथ समस्या यह है कि उन्हें अगर गदही दिख गयी फिर वह उसके पीछे-पीछे चल देते हैं। फिर उन्हें ढूंढ़ते रहो। 

लद्धु घोड़ों के बारे में सिराज बताता है, ये घोड़ों की नस्ल होती है, जबकि गधे और खच्चर एक नस्ल के हैं। गधों की कीमत इन घोड़ों के मुकाबले आधी होती है। दूसरा हम धोबियों-प्रजापतियों में कहावत भी है, घोड़े अपने लिए कमाते हैं और गधे दूसरों के लिए।  

इस अंतर को समझाते हुए सिराज कहता है, गधा किसी भी गदही को देखते ही उसके पीछे भागेगा, उस पर चढ़ेगा। उससे गदही गाभिन होगी पर गदहा तो अपना दम खो देगा। पर लद्धु घोड़ा ऐसा नहीं करता। वह इनकी तरह बेसब्र नहीं होता।

'गधा एक खोज' के बाद यह सोचना हमारे लिए बाकि रह गया था कि मोदी जी को संभवत: गधों के बारे में वह ज्ञान नहीं रहा होगा जो 18 वर्षीय सिराज को इतनी कम उम्र में है। अगर होता फिर वह अपनी तुलना वासनाजन्य बेसब्री के शिकार गधों से करने की जल्दबाजी बिल्कुल न करते।

चूंकि मामला प्रधानमंत्री से जुड़ा था, इसलिए हम इस बात पर और आश्वस्त होने के लिए फिर दोनों गधा मालिकों से मिले। तब उन्होंने भी सिराज की बात पर मोहर लगाते हुए कहा, 'गधों में ये समस्या तो है, गदहियों को देखने के बाद काबू में नहीं आते।' 

Feb 20, 2017

नादानियां बचपन की...

साईयारा फिल्मस के बैनर तले बन रही बॉलीवुड फिल्म "नादानियां बचपन की" की शूटिंग भरतपुर स्थित सोनेरा गांव में पूरी की गयी। यह फिल्म स्वच्छ भारत अभियान को केंद्र में रखकर निर्मित की गयी है।

फिल्म निर्माता संजय तिवारी और निर्देशक सूरज पाण्डे के मुताबिक फिल्म पूरी तरह से स्वच्छ भारत अभियान मिशन पर आधारित है। इस फिल्म की एक खासियत यह भी है कि इसमें सभी नये कलाकारों को मौका दिया गया है। इसी का नतीजा है कि सभी कलाकारों ने फिल्म में बहुत ज्यादा मेहनत की है।। इस बात का अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है क़ि फिल्म की शूटिंग केवल दस दिनों में समाप्त कर एक नया रिकार्ड कायम किया गया।

फिल्म के निर्देशक सूरज पाण्डे दिल्ली के पहले ऐसे निर्देशक हैं जिन्होंने दिल्ली में रहकर अपनी पूरी मेहनत, लगन व ईमानदारी के साथ फिल्म बनाकर एक और नया रिकार्ड बनाया। निर्देशक सूरज पाण्डे ने 22 साल की कम उम्र में ही फिल्म निर्देशन कर  फिल्म इंडस्ट्री में दिल्ली की छवि को न केवल सुधारा है बल्कि दिल्ली व देश के अन्य नए उभरते कलाकारों के लिए भी आशा की किरण बनकर उभरे हैं।

फिल्म में सकारात्मक भूमिकाओं को निभाने वाले उत्कर्ष गुप्ता और अक्शु राजपूत हैं, वहीं भूपेन्द्र सिंह यानी रोकेट भईया सपोर्टिंग भूमिका में हैं, जो कि फिल्म में बच्चों की नादानियों से लेकर उनके बड़े होने तक उनका साथ निभाते हैं| कैलाश ठाकुर ने फिल्म में कामेडी का समा बांधा है| नेगेटिव किरदारों में साजिद, सैम गर्ग और वासु शर्मा ने जान डालने का काम किया है। साजिद ने नेगेटिव भूमिका निभाने के साथ-साथ DOP व चीफ असिस्टेन्ट डायरेक्टर और एक्शन डायरेक्टर का भी काम बेहतरीन तरीके से कर मल्टी टैलेन्टेड होने का सबूत दिया है।

प्रोडक्शन मैनेजर टराई इवेंट एण्ड ईस्टरटेनमेंट राज ईरानी ने किया, जिन्होंने एक किरदार भी निभाया है। फिल्म के प्रोडक्शन कंट्रोलर की कमान भूपेन्द्र सिंह ने संभाली और फिल्म के लाईन प्रोड्यूसर भूरा फोजदार  हैं। को. प्रोड्यूसर हिमांशु चौधरी हैं|

फिल्म की शूटिंग पूरी करने में सोनेरा गाँव के योगदान को नहीं भुलाया जा सकता है। ग्रामीणों की सहयोगी भूमिका के चलते ही यह फिल्म इतने कम समय में पूरी हो पायी।

फिल्म निर्माता संजय तिवारी ने डायरेक्टर सूरज पाण्डे की मेहनत , लगन व ईमानदारी को देख कर उन्हें 3 अन्य फिल्में बनाने की जिम्मेदारी सौंपी है जिनमें से एक फिल्म की शूटिंग मार्च अंत तक शुरू हो जाएगी |

"नादानियां बचपन की" फिल्म 9 जून 2017 को रिलीज होगी।

Feb 17, 2017

चुनावों की महफिल में जाति ही हीरोइन है, बाकि सब साइड रोल में

70 साल में लोकतंत्र ने सबसे ज्यादा आकर्षण जाति में पैदा किया है फिर आकर्षित कोई और मुद्दा कैसे करेगा...

अजय प्रकाश

यूपी के महाराजगंज से गोरखपुर आयी पैसेंजर से उतरे कई लोगों से मेरी बात हुई। ज्यादातर लोग कैंडिडेट के हारने-जीतने का विश्लेषण जातिगत आधार पर कर रहे थे। उसमें सवर्ण-अवर्ण-मुस्लिम सभी थे।

धीरे-धीरे भीड़ बढ़ गयी। खुद को भीड़ से घिरता देख मैं सीढ़ियों पर चढ़ गया और पूछा, ''आज़ादी के 70 साल बाद भी वोट देने के लिए जाति ही क्यों उत्साहित और आकर्षित करती है।''

महाराजगंज के नौतनवां से आये छबीलाल राजभर ने बुलंद आवाज में कहा, ''70 साल में लोकतंत्र ने सबसे ज्यादा आकर्षण जाति में पैदा किया है फिर आकर्षित कोई और मुद्दा कैसे करेगा। हीरोइन तो ​हीरोइन होती है! चुनाव में जाति ही हीरोइन है, बाकि सब साइड रोल में हैं।'' 

छबीलाल गोरखपुर के रेती चौराहे पर एक साड़ी के दुकान में सेल्समैन का काम करते हैं। वह रोज कैंपियरगंज से गोरखपुर पैंसेजर से ही आते—जाते हैं। उनकी बात सुन कुछ युवा और दूसरे लोग सहमति जताते हैं।

इसी भीड़ से एक कुली की आवाज बाहर आती है और वह यह बोलते हुए निकल जाता है कि ''सर, यहां कुली जैसा छोटा काम भी जाति के बिना नहीं मिलता है, बड़े कामों   में तो हईए है।'' 

कुली बात सुन गोरखपुर विश्वविद्यालय में हिंदी और समाजशास्त्र से बीए कर रहे तीसरे साल के छात्र राकेश गौतम कुछ यों जाहिर करते हैं, ''कोई माने या न माने यहां जाति ही सबकुछ की निर्धारक है। इंसाफ पाना हो, नौकरी जुगाड़नी हो, अपराध कर जेल से छूटना हो, अस्पताल में मरीज भर्ती कराना हो, थाने में मुकदमा दायर कराना हो या फिर लेखपाल से जमीन की सही नापी करानी हो, सब जगह सबसे भरोसे के साथ जाति ही खड़ी होती है। विकास, सरकार, प्रशासन सिर्फ जुमले हैं, जो हर पांच साल बाद एक बार चुनाव में रिवाज की तरह दुहरा दिए जाते हैं।''

राकेश गौतम दलित जाति से हैं और वे खुद जातिवाद को खत्म करने के पक्ष में हैं। पर वह कहते हैं, चाहने और होने में बहुत फर्क है। यह समाज ही ऐसा है जहां बगैर जाति संरक्षण के आपको जीने नहीं दिया जाएगा। वह बताते हैं, ''गंभीर रूप से मेरी बीमार मां तबतक गोरखपुर मेडिकल कॉलेज में भर्ती नहीं की गयीं जबतक 'पासवान' नेता का फोन नहीं आ गया। और पासवान नेता ने इसलिए फोन किया, क्योंकि वह भी दलित हैं, मेरा गांव उनका समर्थक है और उनके इशारे पर वोट देता है।''

राकेश की बात सुन गोरखपुर के एक नजदीकी कस्बे पिपराइच से आने वाले शिक्षक रोहित त्रिपाठी कहते हैं, ''दलितों और पिछड़ी जातियों ने देश में जातिवाद से दुर्गंधित कर दिया है। यह विकास, शिक्षा, प्रशासन को नहीं देखते, सिर्फ जाति देखते हैं। दलितों को इससे कोई मतलब नहीं है कि कौन खड़ा है, कैसा प्रत्याशी है,बस उन्हें हाथी का बटन याद है।'' 

रोहित​ त्रिपाठी की बात सुन एक आदमी ने भोजपुरी में पूछा, ''बाबू अपने के का कईल जाला।'' भोजपुरी में यह सम्मानजनक संबोधन कहा जाता है।

रोहित ने बताया कि वह गोरखपुर के रामगढ़ तालाब की ओर बने एक प्राइवेट डिग्री कॉलेज में शिक्षक हैं और वह काफी पढ़े—लिखे हैं। उन्होंने एमफिल और पीएचडी दोनों किया है। जैसे ही त्रिपाठी ने कॉलेज का नाम बताया, पूछने वाले आदमी ने कॉलेज की पूरी हिस्ट्री बता डाली। 

कॉलेज हिस्ट्री से पता चला कि रोहित जो कि खुद ब्राह्मण हैं, जहां पढ़ाते हैं वह एक ब्राह्मण माफिया का कॉलेज है और चपरासी से लेकर शिक्षक तक ज्यादातर ब्राह्मण हैं। ब्राह्मणों में भी त्रिपाठी—तिवारी ब्राम्हणों की तादाद ज्यादा है, क्योंकि माफिया—नेता इसी टाइटिल का है।

इस तथ्य पर रोहित त्रिपाठी थोड़े विचलित होते हैं पर बड़े ताव से कहते हैं, ''वह तो रिश्तेदारी और गांव वाली बात है इसलिए वहां त्रिपाठी ज्यादा हैं।'' 

भोजपुरी में सवाल करने वाले आदमी ने कहा, ''बबुआ तोहरे जातिवाद रिश्तेदारी और हमारा जातिवाद दुर्गंध। है न। पर ई रहते जातिवाद कभी न खत्म होगा। चुनाव की हीरोइन तभी बदलेगी जब आप वाला जातिवाद भी जातिवाद कहलाएगा, अभी तो वह विकास, प्रशासन और सरकार के नाम से जाना जाता है।'