Aug 22, 2010

क्रांतिकारी संगठन न हुआ ब्यूटीपार्लर की दुकान हो गयी


कम्युनिस्ट आंदोलन के इतिहास में यह एकमात्र संगठन होगा जिसका सर्वेसर्वा एक व्यक्ति है जो संगठन का सबसे बड़ा राजनीतिकार और सिद्धांतकार है। उसकी पत्नी संगठन की सबसे बड़ी लेखिका, कवयित्री और सिद्धांतकार है। उसका बेटा संगठन का सबसे बड़ा लेखक, बुद्धिजीवी है और संगठन को डेलीगेट करता है।

रामप्रकाश अनंत 

आजकल जनज्वार पर रिवॉल्यूशनरी कम्युनिस्ट लीग (भारत) नाम के वामपंथी संगठन के बारे में बहस चल रही है। यह बहस इसी संगठन से अलग हुए लोगों ने आरंभ की है और इन लोगों ने इस संगठन पर परिवारवाद, नैतिक पतन और ठगी के आरोप लगाये हैं। इन आरोपों के जवाब में रिवॉल्यूशनरी कम्युनिस्ट लीग की केंद्रीय सदस्य मीनाक्षी और जयपुष्प ने इसी ब्लॉग पर अपने लेख लिखे हैं। 

मीनाक्षी ने अपने लेख ‘छिछोरों की मुंशीगिरी में लगे हैं साहित्यकार’ में लिखा है-‘जनज्वार पर हमारे खिलाफ इतना छपने के बाद चुप्पी को देखकर वाकई कहा जा सकता है कि भारत के बुद्धिजीवी समाज के अंतर्विवेक को लकवा मार गया है।’

समझ में नहीं आता कि इस संगठन के लोगों में इतना अहंकार क्यों है? अगर इस तरह के आरोप किसी संगठन पर लगते हैं तो उसका यह दायित्व है कि वह उनका जवाब दे। संगठन खुद तो इन आरोपों को जवाब देने के लायक नहीं समझता है और लेखक और बुद्धिजीवियों  से उम्मीद करता है कि उसकी मुंशीगिरी करें। अगर वे चुप हैं तो वह उन्हें गाली देता है।

कात्यायिनी : दुकान में क्रांति 
संगठन के लोगों का यह कहना ठीक हो सकता है कि कम्युनिस्ट आंदोलन पर बात करने के लिए ब्लॉग उपयुक्त माध्यम नहीं है, लेकिन उन्हें यह भी सोचना चाहिए कि वे अपने सार्वजनिक पत्र-पत्रिकाओं में दूसरे संगठनों के बारे में नितांत घटिया भाषा में घटिया आरोप सार्वजनिक रूप से क्यों लगाते हैं? माओवादियों की राजनीतिक लाइन पर उपयुक्त मंच पर बहस हो सकती है, परंतु जब राज्य सत्ता तक उन्हें आतंकवादी नहीं कह रही है और आप लंबे समय से सार्वजनिक रूप से उन्हें आतंकवादी कह रहे हैं। 20 अगस्त का अपने संगठन के ही पूर्व साथी अरुण यादव का लेख देखें। उन्होंने ही लिखा है कि जून 2005 के खटीमा आंदोलन में 140 में से आपके संगठन के चार लोग जेल में थे और दूसरे आंदोलनकर्ता क्रांतिकारी संगठन, क्रांतिकारी लोक अधिकार संगठन (क्रालोस) के बारे में आपने निम्न बुर्जुआ अर्थवादी, अराजकतावादी, संघधिपत्ववादी कहा था। 

संगठन के जिन भूतपूर्व साथियों ने संगठन पर गंभीर आरोप लगाये हैं उन्हें मीनाक्षी ने छिछोरे, निखट्टू, फिसड्डी या भ्रष्ट बताया है। हो सकता हे उनकी बात सही हो और इसका जवाब तो उन्हीं लोगों को देना है जैसे अरुण यादव ने दिया है। जहां पूरी व्यवस्था ही घटिया पूंजीवादी व्यवस्था में जी रही हो वहां दस-बीस लोगों के बारे में ऐसी बातें जान लेने से आम पाठक पर क्या प्रभाव पड़ता है? लेकिन इससे उन लोगों द्वारा लगाये गये आरोपों का महत्व तिल भर भी कम नहीं हो जाता। अगर कोई लेखक, बुद्धिजीवी या पाठक इन आरोपों को संदेह की नजर से देखता है तो संजीव की तरह उन्हें गरियाकर आप अपने दायित्व से मुक्त नहीं हो पायेंगे। 

आपको ठंडे दिमाग से इन आरोपों का स्पष्टीकरण देना ही होगा। इन आरोपों से तिलमिलाई मीनाक्षी ने गाली-गलौज की भाषा में जो तर्क पेश किये हैं उन पर कौन विश्वास करेगा? परिवारवाद पर ऐसे जवाब तो मुलायम सिंह भी दे देते हैं। आपने तर्क दिया है कि आप दूसरे लोगों की तरह परिवार के सदस्यों को क्रांतिकारिता की आग से बचाते नहीं हैं, बल्कि परिवार को भी क्रांतिकारिता से जोड़ते हैं। दूसरे संगठनों में भी ऐसे लोग हैं जिन्होंने अपने परिवार के लोगों को संगठन से जोड़ा है। फर्क सिर्फ इतना है कि उन लोगों के परिवार के सदस्य समर्पित कार्यकर्ता की तरह संगठन में कार्य करते हैं, जबकि आपने क्रांतिकारिता से जो परिवार जोड़ा है उसके सभी सदस्य संगठन के नेतृत्व के शीर्ष  पर हैं। 

कम्युनिस्ट आंदोलन के इतिहास में यह एकमात्र संगठन होगा जिसका सर्वेसर्वा एक व्यक्ति है जो संगठन का सबसे बड़ा राजनीतिकार और सिद्धांतकार है। उसकी पत्नी संगठन की सबसे बड़ी लेखिका, कवयित्री और सिद्धांतकार है। उसका बेटा संगठन का सबसे बड़ा लेखक, बुद्धिजीवी है और संगठन को डेलीगेट करता है। बिना किसी लोकतांत्रिक चुनाव प्रक्रिया के उसके करीबी रिश्तेदार पोलित ब्यूरो एवं विभिन्न मोर्चों पर शीर्ष  नेतृत्व पर काबिज हैं। संगठन को सीधे-सीधे इन प्रश्नों का जवाब देना चाहिए। 

सत्येंद्र कुमार के बारे में मीनाक्षी ने जो बातें लिखी हैं, वो काफी हास्यास्पद हैं। उन्होंने लिखा है-‘इस व्यक्ति के साथ तो संगठन प्रयोग कर रहा था कि वर्ग शत्रु  को संगठन में रगड़कर काम कराकर कम्युनिस्ट बनाया जा सकता है या नहीं।’ यानी संगठन ने अभिनव प्रयोग किया और इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि 'वर्ग शत्रु  को कम्युनिस्ट नहीं बनाया जा सकता। जबकि यह एक स्थापित तथ्य है कि उच्च वर्ग का व्यक्ति अपने वर्गीय चरित्र का सर्वहाराकरण कर ले तो कम्युनिस्ट हो सकता है। चाओ-एन-लाई उच्च वर्ग से थे, फिर भी अंत तक ईमानदार कम्युनिस्ट बने रहे। ऐसे उदाहरणों से इतिहास भरा पड़ा है. 

सत्येंद्र कुमार के बारे में ही लिखा है कि वह तो अपनी बेटियों को आधुनिक बनाने के लिए संगठन में आया था और उसका एजेंडा पूरा हो गया तो संगठन छोड़कर चला गया। कोई व्यक्ति अपनी बेटियों को आधुनिक बनाने के लिए एक क्रांतिकारी कम्युनिस्ट संगठन में 10-12 साल तक काम करता रहे, ऐसी सोच ही अपने आपमें हास्यास्पद है। गोया क्रांतिकारी संगठन न हुआ ब्यूटीपार्लर की दुकान हो गयी, जो लोग अपनी बेटियों की साज-सज्जा कराकर आधुनिक बनाने के लिए संगठन में आते हैं। 

संगठन को चाहिए कि उस पर जो आरोप लगे हैं उन्हें स्पष्ट करे। अपने पक्ष में न लिखने के कारण लेखकों और बुद्धिजीवियों को गरियाने से कोई फायदा नहीं होगा।


4 comments:

  1. सावधान इस
    अपने को ही क्रांति का ठेकेदार मानने वालो का नया फरमान
    अगर आप धनि किसान या सूदखोर खानदान से आते है या फिर एन जी ओ, मिडियाकर्मी, सरकारी मुलाजिम या साहित्यकार है तो
    आप क्रन्तिकारी काम से बेदखल कर दिए गये

    ReplyDelete
  2. Rajaram, gorakhpurMonday, August 23, 2010

    are bhai ajay tumharee site khul kyon nahin rahee hai, katyayini ne kya cyber war kara diya. bhai pata nahin mujhe to laga ki haijaik kar le gayin, akhir unke pass sarvadhik chetannsheel majdoor hain.

    ReplyDelete
  3. kabir chatterjeeMonday, August 23, 2010

    कात्यायिनी जी,

    अब बुद्धिजीवी और आपके भाषा में "भगोरो" को गाली देने से कोई फ़ायदा नहीं. जिस भाषा, शैली, पद्धति और राजनेतिक-संस्कृति का आपलोग आजतक निर्माण और प्रयोग करते रहे (अक्सर अपने "दुश्मनों" - और बिरादराना संगठनो के खिलाफ भी) आज आप लोग उसी का शिकार हो चुकें हैं. जनज्वार के ज्यादातर लोगों नेव्यक्तिगत "गाली" गलोज के सहारे बात करना तो आप लोगो से ही सिखा है! खेर , उनकी गालिओं के पीछे की दर्द को आप कभी समझ ही नहीं पाए. अगर हम आज तक गाली -गोलोज से भरपूर आपके पत्रिकाओं को पड़ते रहे (ये सोचकर की गालिओ के पीछे भी एक राजनेतिक आलोचना हो सकता है) - तो हम जनज्वार को भी पढ़ेंगे. और थोडा सा भी नेतिक साहस आप लोगो में अभी भी है तो इन साथियों द्वारा उठाये गए प्रश्नों का जवाब दे.

    और कृपया करके लेनिन का "राजनेतिक लाइन का आलोचना" वाला ढोंग न रचे. आपने अपने पुरे करियर में जिस तरह से हर किसी संगठन को गाली दिया है - वह किसी लेनिनवादी सोच का परिचायक तो नहीं लगता. "एन. जी . ओ: एक भयंकर साम्राज्यवादी कुचक्र" वाले किताब में क्या आपने "पि. एस. यु" करके एक संगठन को भरपूर व्यक्तिगत गाली नहीं दिया है? क्या उसमे आप लोगो ने उस संगठन का कौन सा लीडर कौन सा एन. जी. ओ. में काम करता है -और किस तरह से वे परिवार वादी है, साम्राज्यवाद का दलाल है - ये सब चर्चा नहीं किया है (वो लेख मिनाक्षी की नाम से छपा था) ? अब देखना ये है की सत्यम के बारे में आपको क्या कहना है ? ये केसा नीति है "अपने लिए कुछ और मापदंड और दुसरो के लिए कुछ और"? लगता हे "गेर-लोकतान्त्रिक" इस समाज के एक पुरोधा "चाणक्य" से आप लोगो ने काफी कुछ सिखा है! (वेसे राजनेतिक आलोचना में आप लोग serious होते तो नीलाभ जी का पत्र का जरुर जवाब देते. वेसे देते भी तो केसे- पितृसत्ता के बारे में आपका कोई समझ होता तभी न!)

    और "प्रोबोधन" की तो आप बात ही न करें तो बेहतर है. प्रोबोधन-आधुनिकता का आपलोगों का कितना समझ है वो तो आपके पितृसत्तात्मक मुहावोरो को पढने से ही पता लगता है (पेंट गीली हो जाना, बीवी से डरना, पेटीकोट-बाज, मौगा, सम्लेगिगता का विरोध...उसका मजाक बनाना...). इन पितृसत्तात्मक सोच और संस्कृति की विरोध तो "बुर्ज्जुआ नारीवादी " आज से चार दशक पहले ही कर चुकें हैं. और वो भी काफी सफल तरीके से - पच्छिम के देशो में. साम्यवादी होने के नाते आपको तो इनसे और आगे जाना चाहिए था. बुर्जुआ प्रोबोधन की मूल्यों को तो आप अभी हजम नहीं कर पाए; चले समाजवादी प्रोवोधन की बात करने. औकात तो देखो इनका. आपके ही पद्धति का प्रोयोग करे तो ऐसा लगता है- इस अहंकार के पीछे आपके दबंग जाती से belong करना - इसका जरुर कोई ताल्लुक है! ये पढके किस लगा- जरुर बताइयेगा!

    ReplyDelete
  4. कात्यायिनी जी,

    अब बुद्धिजीवी और आपके भाषा में "भगोरो" को गाली देने से कोई फ़ायदा नहीं. जिस भाषा, शैली, पद्धति और राजनेतिक-संस्कृति का आपलोग आजतक निर्माण और प्रयोग करते रहे (अक्सर अपने "दुश्मनों" - और बिरादराना संगठनो के खिलाफ भी) आज आप लोग उसी का शिकार हो चुकें हैं. जनज्वार के ज्यादातर लोगों ने व्यक्तिगत "गाली" गलोज के सहारे बात करना तो आप लोगो से ही सिखा है! खेर , उनकी गालिओं के पीछे की दर्द को आप कभी समझ ही नहीं पाए. अगर हम आज तक गाली -गोलोज से भरपूर आपके पत्रिकाओं को पड़ते रहे (ये सोचकर की गालिओ के पीछे भी एक राजनेतिक आलोचना हो सकता है) - तो हम जनज्वार को भी पढ़ेंगे. और थोडा सा भी नेतिक साहस आप लोगो में अभी भी है तो इन साथियों द्वारा उठाये गए प्रश्नों का जवाब दे.

    और कृपया करके लेनिन का "राजनेतिक लाइन का आलोचना" वाला ढोंग न रचे. आपने अपने पुरे करियर में जिस तरह से हर किसी संगठन को गाली दिया है - वह किसी लेनिनवादी सोच का परिचायक तो नहीं लगता. "एन. जी . ओ: एक भयंकर साम्राज्यवादी कुचक्र" वाले किताब में क्या आपने "पि. एस. यु" करके एक संगठन को भरपूर व्यक्तिगत गाली नहीं दिया है? क्या उसमे आप लोगो ने उस संगठन का कौन सा लीडर कौन सा एन. जी. ओ. में काम करता है -और किस तरह से वे परिवार वादी है, साम्राज्यवाद का दलाल है - ये सब चर्चा नहीं किया है (वो लेख मिनाक्षी की नाम से छपा था) ? अब देखना ये है की सत्यम के बारे में आपको क्या कहना है ? ये केसा नीति है "अपने लिए कुछ और मापदंड और दुसरो के लिए कुछ और"? लगता हे "गेर-लोकतान्त्रिक" इस समाज के एक पुरोधा "चाणक्य" से आप लोगो ने काफी कुछ सिखा है! (वेसे राजनेतिक आलोचना में आप लोग serious होते तो नीलाभ जी का पत्र का जरुर जवाब देते. वेसे देते भी तो केसे- पितृसत्ता के बारे में आपका कोई समझ होता तभी न!)

    और "प्रोबोधन" की तो आप बात ही न करें तो बेहतर है. प्रोबोधन-आधुनिकता का आपलोगों का कितना समझ है वो तो आपके पितृसत्तात्मक मुहावोरो को पढने से ही पता लगता है (पेंट गीली हो जाना, बीवी से डरना, पेटीकोट-बाज, मौगा, सम्लेगिगता का विरोध...उसका मजाक बनाना...). इन पितृसत्तात्मक सोच और संस्कृति की विरोध तो "बुर्ज्जुआ नारीवादी " आज से चार दशक पहले ही कर चुकें हैं. और वो भी काफी सफल तरीके से - पच्छिम के देशो में. साम्यवादी होने के नाते आपको तो इनसे और आगे जाना चाहिए था. बुर्जुआ प्रोबोधन की मूल्यों को तो आप अभी हजम नहीं कर पाए; चले समाजवादी प्रोवोधन की बात करने. औकात तो देखो इनका. आपके ही पद्धति का प्रोयोग करे तो ऐसा लगता है- इस अहंकार के पीछे आपके दबंग जाती से belong करना - इसका जरुर कोई ताल्लुक है! ये पढके किस लगा- जरुर बताइयेगा!

    ReplyDelete