Aug 22, 2010

वह मनु स्मृति का गुणगान करती रही


कैसे कार्यकर्ताओं को पढ़ाई छोड़ने पर मज़बूर किया जाता रहा है और कात्यायिनी आपका पुत्र उच्च शिक्षा की डिग्रियां जुटाते हुए उसी संगठन का राष्ट्रीय संयोजक बन जाता है? कैसे यह ग्रुप आज तक देश भर में शशि-कात्यायनी ग्रुप के नाम से जाना जाता है?

अशोक पाण्डेय 

लुटेरे तो लुटेरे ही होते हैं -- विजय की स्थिति में उनका काम होता है सबसे अधिक जोश दिखाना और पराजय की दशा में वे अपने हताहत हुए साथियों की जेबें टटोलते हैं।''

यह पंक्ति कात्यायनी के जनज्वार पर हमारे द्वारा उठाये गये प्रश्नों के जवाब में लिखे गये लेखों के उत्तर वाले आलेख के आरंभ में ही है। इसका अर्थ हम जब उन्हें केन्द्र में रखकर लगाते हैं तो लगता है कि वह अब पराजय को स्वीकार करने लगी हैं। 

तभी तो राजनैतिक बहस का अलाप करते-करते वह हम सब के ख़ानदानों का आकलन करने पर लगी हैं कि कौन धनी किसान का बेटा है, कौन सूदखोर का बेटा है वगैरह-वगैरह्। यही नहीं हमारे रोज़गार का भी उन्होंने बड़ी तफ़्सील से ब्यौरा दिया है, उन कामों का जिनसे मिली तनख़्वाह से हमारी जेबों में अपना ख़र्च चलाने भर की रक़म आती है। वह न भी बतातीं तो भी यह सब जानते थे कि हमारे जीवनस्तर और हमारी आय का संबंध कोई रहस्य नहीं है…आयकर विभाग में हमारे आय-व्यय के खाते हैं…लेकिन अब जेब टटोलने की उनकी आदत ठहरी…वैसे क्या यही बात वह अपने संदर्भ में कह सकती हैं?

क्या वह बतायेंगी कि जिस उच्चमध्यवर्गीय जीवन स्तर में वह जीवन-यापन कर रही हैं उसका ख़र्च कहां से आता है? उनकी जेबें कौन भरता है? सत्यम की आय के स्रोत तो विश्व बैंक से यूनिसेफ़ और निजी कारपोरेट्स तक हैं, वह अनुवादों में अपना पसीना गिराते हैं…लेकिन आप की आय का स्रोत क्या है? आप कौन सी नौकरी करती हैं? क्या लिखने से मिली रायल्टी इतनी है जिससे यह जीवन स्तर निबाह किया जा सके?

अगर नहीं तो क्या जनता से, मज़दूर बस्ती से मिला चंदा इसके लिये उपयोग किया जाता है? क्या यह भी आपके क्रांति कार्यक्रम का अनिवार्य हिस्सा है? अब आपके और शशि के आनुवांशिक विश्लेषण और क्रांतिकारिता के अंतर्संबंध के बारे में हम नहीं पूछेंगे…हम यह नहीं मानते कि यह किसी व्यक्ति के आंकलन का प्रगतिशील तरीका है। कवितायें चूंकि आपके नाम से छपती हैं इसलिये मैं स्पष्ट रूप से मानता हूं कि वे आपकी हैं। मेरा प्रश्न उनके कंटेंट से है…ख़ैर उस पर बात कभी किसी और मंच से।

अभिनव सिन्हा : नेता का बेटा हुआ नेता  
 जो ऐसा करने के बजाय मसालेदार, चटपटी गालियों और व्यक्तिगत घिनौने आरोपों को ही मुख्य माध्यम बना रहे हैं, उनके चरित्र और चेहरे को पहचानना कठिन नहीं होना चाहिए। ‘ जो ऐसा करने के बजाय मसालेदार, चटपटी गालियों और व्यक्तिगत घिनौने आरोपों को ही मुख्य माध्यम बना रहे हैं, उनके चरित्र और चेहरे को पहचानना कठिन नहीं होना चाहिए। 

ये आपके ही आप्त वचन हैं…मैं पूछना चाहता हूं कि आपके ब्लाग पर शालिनी और मीनाक्षी के नाम से लगी पोस्टों में आलोचकों के लिये जिन सामंती और स्त्रीविरोधी गालियों का उपयोग किया गया है, उसे क्या समझा जाये? आपने ख़ुद व्यक्तिगत प्रहारों से कभी परहेज नहीं किया है। यह कैसी क्रांतिकारिता है जिसमें पत्नी से डरना जैसे फ्रेज़ का उपयोग गाली की तरह किया जाता है। क्या इसका सीधा अर्थ यह नहीं हुआ कि पत्नी को काबू में रखा जाना चाहिये? हम कैसे न मान लें कि आपका संगठन इन पितृसत्तात्मक मूल्यों का वाहक है…ख़ासकर तब जब यह मुहावरा आपकी पारिवारिक सदस्य तथा संगठन की अब वरिष्ठ हो चली सदस्य मीनाक्षी के पत्र में उपयोग किया गया है?

आपने हमसे हमारी राजनीति पूछी है…तो मैं बता दूं कि हम कहीं से उठकर आ गये लोग ज़रूर हैं क्योंकि हमारे पीछे आपकी तरह पहचान देने वाला मठ नहीं है लेकिन इस एक ख़ूबी को छोड़ दें तो उसी साहित्यिक-सांस्कृतिक जगत के निवासी हम भी हैं जहां की आप हैं। इस जगत के लोग हमें भी जानते हैं, भले आप से कम।

हमारा लिखा भी पब्लिक डोमेन में प्रिंट और नेट दोनों पर उपलब्ध है और वह हमारी राजनीति को जानना चाहने वाला कोई भी व्यक्ति जान सकता है। यह अलग बात है कि आप हमें सरकारी मुलाज़िम और ट्रेडयूनियन कर्मी से ज़्यादा कुछ मानने को तैयार न हों, मीनाक्षी हमें छोटा-मोटा बुद्धिजीवी मानें और इस बात पर सीना पीटें कि हाय वह संगठन में रहकर ज्ञान की पंजीरी ले गया… समय की क़ैद में रहने वाले आत्ममुग्ध कभी नहीं देख पाते की चौदह वर्षों में वक़्त की नदी में कितना पानी बह चुका होता है। 

हमें न छोटा-मोटा होने में कोई शर्म है, न मठ न बना पाने का अफसोस…हमने बड़ा बनने और मठ बनाने के सपने नहीं पाले थे…हम तो दुनिया बदलने और एक बेहतर दुनिया के सपने आंखों में लिये आपके जाल में फंस गये थे। आपने हम सबके घर बैठने का उपहास किया है। आप जिस आइलैण्ड में रहती हैं उसके बाहर भी बहुत बड़ी दुनिया है…और हम वहां अपने-अपने तरीके से सक्रिय हैं…उसके लिये हमें आपका सर्टिफिकेट नहीं चाहिये। विलासिता का जीवन जीने वाले होलटाइमर्स से मेहनत की कमाई खाने वाले हम सर्वहारा ख़ुद को बेहतर मानते हैं।

सच्चे कम्यूनिस्ट की ख़ूब कही आपने…वह सब मैने भी अपने जीवन में कभी नहीं अपनाया…हमारा सवाल आपके धार्मिक आचरण से है भी नहीं, विभाजन में कौन से भाई-भाई अलग हुए और क्यूं ये हम ख़ूब जानते हैं…पिता से राजनैतिक तौर पर लग हुआ पुत्र संपत्ति में हिस्सा मांगने कैसे पहुंच जाता है यह भी हम बहस में नहीं लाना चाहते। 

 कात्यायिनी : गालियों की परम्परा 
हमारा बस यह पूछना है कि कैसे नेतृत्वकारी निकाय पर एक ही परिवार का कब्ज़ा हो जाता है? कैसे इस लंबे दौर में परिवार के किसी सदस्य पर कोई सवाल नहीं उठता? कैसे एक कुनबा धीरे-धीरे विशिष्ट सुविधाभोगी वर्ग में तब्दील हो जाता है? कैसे आपकी , शशि प्रकाश की, सत्यम की और अभिनव की तो एक पब्लिक पह्चान दिखाई देती है लेकिन इसके अलावा इस लंबे दौर में किसी और के नाम से छपा कुछ नहीं दिखाई देता ( दिवंगत का अरविंद का नाम हम जानबूझकर नहीं ले रहे, जो जवाब देने के लिये उपस्थित नहीं उसे इस बहस में हम नहीं खींचना चाहते)। 

कैसे कार्यकर्ताओं को पढ़ाई छोड़ने पर मज़बूर किया जाता है और आपका पुत्र उच्च शिक्षा की डिग्रियां जुटाते हुए उसी संगठन का राष्ट्रीय संयोजक बन जाता है? कैसे यह ग्रुप आज तक देश भर में शशि-कात्यायनी ग्रुप के नाम से जाना जाता है? आपके क्रोध का प्रमुख कारण यह लगता है कि क्यों नहीं हिन्दी का बौद्धिक जगत आपके समर्थन में आंदोलन छेड़ देता। मैं आपसे पूछना चाहता हूं कि जिस आंदोलन को आपने विघटित और पतित घोषित कर दिया है उससे समर्थन की ऐसी उत्कंठा क्यूं? 

क्यूं अपने ऊपर संकट आने पर आप बार-बार भाग कर उसी साहित्यिक बिरादरी के पास जाती हैं जिसकी भर्त्सना आपके लेखन का अनिवार्य हिस्सा है? और कब इस समाज की किसी सामूहिक लड़ाई का आप हिस्सा बनीं? चलते-चलते आपने विभूति प्रकरण कहकर जिस ओर इशारा किया है उस मुद्दे पर विभूति नारायण राय और रवीन्द्र कालिया की बर्खास्तगी के लिये चली किस मुहिम का हिस्सा थीं आप? या कहां आपने अलग से उस पर कोई आपत्ति दर्ज़ करवायी? इसके पहले विश्वरंजन प्रकरण पर आपने कहां और क्या कहा? जब उदयप्रकाश आपके पुराने घर गोरखपुर में आदित्यनाथ से पुरस्कृत हो आये थे तो आप या आपके संगठन ने वहां के किस विरोध कार्यक्रम में हिस्सा लिया या फिर स्वतंत्र रूप से कौन सा विरोध किया? 

कब आप जनता के पक्ष में किसी संस्थान से टकराईं? कब आप किसी सामूहिक प्रतिरोध का हिस्सा बनीं? वैसे आलोक धन्वा को कुछ कहने का नैतिक अधिकार आपने तभी खो दिया था जब ग्वालियर में महिला दिवस पर आप वैश्य समाज के महिला मिलन समारोह का हिस्सा बनीं थीं। इस मासूम जवाब के बावज़ूद कि आप को भारतेंदु समाज के नाम से भ्रम हो गया था, या आने के पहले कार्ड नहीं देखा था…आप आने के बाद भी बहिष्कार कर सकती थीं…लेकिन वह कौन सा मोह था कि संचालिका मनु स्मृति का गुणगान करती रही और आप चुपचाप मंच पर बैठ एसी का आनन्द लेतीं रहीं?

और अंत में आपके ब्लाग विमर्श पर…अब जब आप ख़ुद ब्लाग पर आकर जवाब दे चुकी हैं तो इस माध्यम को गरियाने से कोई फायदा नहीं…मैं भी ब्लाग को कोई क्रांतिकारी माध्यम नहीं मानता…समयांतर के ताज़ा अंक में मैने यह साफ़ लिखा भी है, लेकिन संवाद के एक सहज माध्यम के रूप में इसका अपना महत्व है…और यह अकारण तो नहीं कि आपका संगठन और उससे जुड़े लोग तमाम ब्लाग चला रहे हैं। 

यह अलग बात है कि जहां हिन्दी के तमाम बुद्धिजीवियों में इस माध्यम से आत्मप्रचार से बचने का कल्चर रहा है वहीं आपके ब्लाग सिर्फ़ यही कर रहे हैं…जनज्वार ने आपके आरोप को भी छापने की हिम्मत दिखाई है अगर आप में वह नैतिक बल हो तो वे सवाल छापें जिनके जवाब में आप तलवारे भांज रही हैं। रही बात धमकियों की तो कात्यायनी वे दिन हवा हुए जब मियां साहब फ़ाख़्ते उड़ाया करते थे…आपके पास अकूत धनबल है, मुक़दमें लड़ने का लंबा अनुभव है तो हमारे पास सच का साहस!



7 comments:

  1. सफ़ेद झूठ का बेमिसाल उदाहरण-
    ''इनमें पूरा समय लगाने वालों को भरण-पोषण भत्ता मिलता है। पाई-पाई का पारदर्शी हिसाब होता है। वैसे भी हमारे प्रकाशन घाटे में ही चलते हैं।''
    आज बाहर हो चुके किसी को कभी किसी प्रकार का भत्ता मिला हो तो जरुर लिखियेगा

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  2. देखिये अशोक ,अजय ,अरुण ,आदेश और ऐसे ही तक़रीबन दो दर्जन साथियों ... जरा कात्याय्नी , मीनाक्षी , और शशि एंड कंपनी के नाराज़गी की वजह समझिये , आप लोग उनके रोजी रोटी पे हमला कर रहे हैं... हाँ कार्यकर्ताओं से तो मुझे कोई शिकायत नहीं है उनको ऐसा बोलते देख... मुझे आप लोग ही याद आ रहे हैं, आप लोग कैसे लड़ जाया करते थे इन लोगों को जब कोई कुछ कहता था. कितने ही ऐसे लोग है जिन्होंने अपने घर वालों की शक्लें भी नहीं देखीं फिर मुड कर (आज की शालिनी की तरह). शर्म आनी आनी चाहिए कात्यायनी और मीनाक्षी को कि ऐसे लोगों के सवालों के जवाब देने की बजाये वो शालीनता की सारी हदें पार कर जा रही हैं. वैसे दूसरों को गाली देना ही इनकी राजनीति है. चलिए ये तो इन लोगों की महानता है की मीनाक्षी जी ने आप को छोटा मोटा बुद्धिजीवी मान लिया (बेशक संगठन में बंटने वाले ज्ञान की पंजीरी के दम पर ही सही) वर्ना आज तक तो ये लोग यही मानते रहे हैं की लेनिन के बाद सारा ज्ञान सीधे शशि प्रकाश को ट्रान्सफर हो गया है. तभी तो ये ज्ञान वो अपने मठ में पंजीरी की तरह बांटते थे. अब देखिये देने वाले ने कोई कमी न की किसको क्या मिला ये तो मुकद्दर की बात है.... मीनाक्षी जी का मुकद्दर शायद इत्ता अच्छा नहीं है क्योंकि लगता है कि उनको इस पंजीरी की एक भी फांक नहीं मिली इसीलिए तो संगठन में इतने दिनों रहने के बाद भी वो मूर्ख ही हैं. कात्यायनी जी ने जहाँ कोटेशन की आड़ में धीर गंभीर बनने की कोशिश की (हालांकि सफल नहीं रहीं) .. पर मीनाक्षी तो बुद्धिजीवी होने का नाटक भी ठीक से नहीं कर पायीं. कोटेशन छोड़ दिया जाये तो सवालों की जवाब की बजाये सिर्फ गालियाँ...... नीलाभ पतित... मुकुल, आदेश, अजय विघटित.... अरुण, अशोक छि थू धिक्कार .... दूसरे लोग मनोरोग से ग्रसित, तमाम कवि लेखक महत्वकांछी जोंक .... सारे बुद्धिजीवी निठल्ले प्रलापी.... संसार के सभी लोग केंचुए.... (बतौर मीनाक्षी- भारत के बुद्धिजीवी समाज के अंतर्विवेक को लकवा मार गया है।) और फिर जो खरा तपा सोना बचता है. वो है शशिप्रकाश, मीनाक्षी,जयसिघ, क्यों यही तर्क है न इन लोगों का? और ये चाहते हैं कि लोग इसे मान लें! क्योंकि ये लोग जब गालियाँ देते हैं तो उसके साथ लेनिन , माओ, मार्क्स की कोटेशन चस्पा कर देते हैं. (शुक्र है कोटेशन तो बोलते हैं ,वो भी नहीं बोलेंगे तो सिर्फ गालियाँ ही बचेंगी. ) यही है इन लोगों की सारी क्रांतिकारिता.
    अब मै मीनाक्षी जी से क्या कहूँ कि लोग आपसे ये नहीं पूछ रहे की फलाना समय में स्टालिन ने क्या कहा था? वो हम पढ़ लेंगे . किताबें बेचीं हैं आपने वो भी पूरे प्रोफिट के साथ. लोग तो आपसे ये पूछ रहे हैं कि आप इस ठगी के धंधे को क्रांति का जामा पहना कर क्रांति को बदनाम क्यूँ कर रहे हैं?
    मीनाक्षी लाख कहें पर मार्क्सवाद कोई धर्म नहीं है कि उसकी कोटेशन को दिन में दस बार दोहराया जाये. न ही भाषा में सिर्फ छि! थू! धिक्कार जैसे ही शब्द होते हैं. विज्ञान से परिचित होने के लिए कार्यकर्ताओं को उनके गैस चेंबर से निकलना होगा और उस सीखे हुए विज्ञान को दूसरों में बांटने के लिए जरुरी है कि वो भाषा के दूसरे शब्द भी सीखें.

    जाते जाते एक बात और बकौल कात्यायनी "स्तालिन ने एक जगह बहुत मार्के की बात कही है। उनका कहना है कि सामरिक युद्ध में हम दुश्मन के सबसे कमज़ोर पक्ष पर वार करते हैं, लेकिन राजनीतिक युद्ध में हम उसके सबसे मज़बूत पक्ष पर हमला करते हैं। " ये बात स्टालिन ने नहीं ग्राम्शी ने की थी।

    पवन मेराज मेरी दुआ है शालिनी तुम कभी सच न जान पाओ...(तब शायद तुम अपने आप से भी नज़रें नहीं मिला पओगी)

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  3. शिवप्रताप राय, लखनऊSunday, August 22, 2010

    कात्यायिनी से मैं भी लखनऊ में एक दफ्तर में चंदा माँगते हुए मुखातिब हुआ था. वह काफी देर तक हुज्जत करती रहीं कि वह महान काम करती हैं और हम दफ्तरी जीवन जीने वाले आरामतलब लोग हैं. उन्होंने बिगुल अख़बार पकडाया तो मैंने कहा यह मुझे समझ नहीं आता तो उन्होंने ने टका सा जवाब दिया तो कोई नहीं सहयोग दे दीजिये. आगे बात होती रहेगी. वह कहती गयीं की आर्थिक सहयोग सबसे तुक्ष सहयोग होता है. मुझे भी लगा कि किसी संगठन में जुड़कर काम करना सबसे अच्छा होता है. मगर एक दिन मेरे विभाग के सचिव ने ने कहा कि वह किताब खरीदने निराला नगर के जनचेतना जा रहा है, तो मैं भी वहां साथ हो लिया.
    वहां देखता हूँ कि मुझ तुक्ष के सामने उस सचिव के आवभगत करने में जनचेतना के कार्यकर्त्ता ऐसे जुटे हैं मानों वह क्रांति करने नहीं अधिकारिओं को पटाने आये हैं. एक के बाद एक तारीफ कि आपका वह आदेश बहुत अच्छा था. जब वह जाने लगा था कात्यायिनी और एक और लड़की पीछे-पीछे आयी और सचिव से पूछने लगे कि सर वह विज्ञापन भगत सिंह संकल्प यात्रा के लिए डेल्ही से मानगे करा दीजिये. तो उसने कहा कि हो जायेगा मैंने बिल्डर से कह दिया है.
    मैं अवाक् कि विज्ञापन तो यहाँ बिल्डर भी दे रहे हैं, और हमारे सचिव के सामने तो ये ऐसे पेश आ रहे थे मानों वह इनका देवता हो और मैं वही तुक्ष. आपलोगों ने यह बहुत अच्छा काम किया है.मैं आपमें से किसी से परिचित नहीं हूँ लेकिन आप सब लोगों बधाई. खासकर इस ब्लॉग के संचालक को.

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  4. kabir chatterjeeMonday, August 23, 2010

    katyayini ji...

    कृपया करके लेनिन का "राजनेतिक लाइन का आलोचना" वाला ढोंग न रचे. आपने अपने पुरे करियर में जिस तरह से हर किसी संगठन को गाली दिया है - वह किसी लेनिनवादी सोच का परिचायक तो नहीं लगता. "एन. जी . ओ: एक भयंकर साम्राज्यवादी कुचक्र" वाले किताब में क्या आपने "पि. एस. यु" करके एक संगठन को भरपूर व्यक्तिगत गाली नहीं दिया है? क्या उसमे आप लोगो ने उस संगठन का कौन सा लीडर कौन सा एन. जी. ओ. में काम करता है -और किस तरह से वे परिवार वादी है, साम्राज्यवाद का दलाल है - ये सब चर्चा नहीं किया है (वो लेख मिनाक्षी की नाम से छपा था) ? अब देखना ये है की सत्यम के बारे में आपको क्या कहना है ? ये केसा नीति है "अपने लिए कुछ और मापदंड और दुसरो के लिए कुछ और"? लगता हे "गेर-लोकतान्त्रिक" इस समाज के एक पुरोधा "चाणक्य" से आप लोगो ने काफी कुछ सिखा है! (वेसे राजनेतिक आलोचना में आप लोग serious होते तो नीलाभ जी का पत्र का जरुर जवाब देते. वेसे देते भी तो केसे- पितृसत्ता के बारे में आपका कोई समझ होता तभी न!)

    और "प्रोबोधन" की तो आप बात ही न करें तो बेहतर है. प्रोबोधन-आधुनिकता का आपलोगों का कितना समझ है वो तो आपके पितृसत्तात्मक मुहावोरो को पढने से ही पता लगता है (पेंट गीली हो जाना, बीवी से डरना, पेटीकोट-बाज, मौगा, सम्लेगिगता का विरोध...उसका मजाक बनाना...). इन पितृसत्तात्मक सोच और संस्कृति की विरोध तो "बुर्ज्जुआ नारीवादी " आज से चार दशक पहले ही कर चुकें हैं. और वो भी काफी सफल तरीके से - पच्छिम के देशो में. साम्यवादी होने के नाते आपको तो इनसे और आगे जाना चाहिए था. बुर्जुआ प्रोबोधन की मूल्यों को तो आप अभी हजम नहीं कर पाए; चले समाजवादी प्रोवोधन की बात करने. औकात तो देखो इनका. आपके ही पद्धति का प्रोयोग करे तो ऐसा लगता है- इस अहंकार के पीछे आपके दबंग जाती से belong करना - इसका जरुर कोई ताल्लुक है! ये पढके किस लगा- जरुर बताइयेगा!

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  5. Katyayni, khuda ko naheen manti to janta se to daro.

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  6. शशि-कात्यायनी पार्टी का पतन, स्टालिनवाद के कुल पतन का हिस्सा भर है। उस मूल राजनीति पर कोई बात नहीं, जिसके चलते RCLI यहां पहुंचा, तो सिर्फ व्यक्तियों की आलोचना से क्या होगा? जरूरत सवालों को और गंभीरता से देखे जाने की है। भारत में स्टालिनवाद और माओवाद के कार्यक्रम पर आधारित बड़ी पार्टियों के चलते उसी कार्यक्रम पर टिकी किसी नई पार्टी के लिए जगह थी ही नहीं। शशि जैसे बौनों ने भरसक कोशिश की कि किसी तरह इन पार्टियों की किसी सार्थक आलोचना पर नई पार्टी खड़ी की जाय, मगर यह संभव ही नहीं था। चूंकि इन पार्टियों की हर आलोचना अंततः स्टालिन और माओ के कार्यक्रमों की आलोचना में बदल जाती थी। कार्यक्रम तैयार कर पाने और पार्टी बना पाने की इस विफलता अऔर अक्षमता ने RCLI को अंदर से जर्जर कर दिया। शशि कात्यायनी ने ट्रस्टों प्रकाशनों के नाम पर दुकानें खोल लीं। कार्यकर्ताओं ने अपने अपने निष्कर्ष निकाले और अपनी अपनी राह लीं।

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  7. शिवप्रताप जी की पोस्ट के बाद कहने के लिए क्या बच जाता है? बुर्जुआ सत्ता की पूंछ पकड़ने को तत्पर इन गुलाबी क्रांतिकारियों के बारे में और कुछ कहने की गुंजाईश ही नहीं बचती।
    मेरा आप सभी साथियों से आग्रह यही है कि इन लफ़्फ़ाजों को किनारे कर क्रांति के महत्वपूर्ण प्रश्नों की ओर मुड़ा जाय। इनकी व्यक्तिगत आलोचना की जगह राजनीतिक आलोचना को दी जाय।

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