Aug 22, 2010

चंदे के हमारे व्यक्तिगत स्रोत है




हमलोगों का यह पुराना और बार-बार दुहराया गया संकल्प है कि हम अपने प्रकाशन, अपने पत्र-पत्रिकाओं और संस्थाओं के लिए कोई भी सशर्त सांस्थानिक अनुदान (देशी पूँजीपतियों से, बहुराष्ट्रीय कम्पनियों से, उनके ट्रस्टों से, फण्डिंग एजेंसियों/एन.जी.ओ से, चुनावी पार्टियों से और सरकार से) नहीं लेते, केवल व्यक्तिगत सहयोग लेते हैं -- नियमित रूप से मज़दूर बस्तियों में कूपन काटते हैं, कालोनियों-बसों-ट्रेनों में पर्चा अभियान चलाते हैं, और नुक्कड़ नाटक-गायन आदि करते हैं।
रही हमारी बात, तो कुत्तों के भौंकने से हाथी की चाल पर कोई असर नहीं पड़ता। तमाम ''महामहिमों'' की भविष्यवाणियों को झुठलाकर हमने दो दशक की अपनी पथान्वेषी यात्रा पूरी की है, आगे भी हमारी यात्रा यूँ ही जारी रहेगी। जिन्हें पक्ष चुनना है, वे पक्ष चुनेंगे। जो ‘फे़न्स-सिटर’ हैं, वे किनारे बैठकर जग का मुजरा लेते रहेंगे.
वैसे यहाँ यह भी बता दें कि इन भगोड़ों के पाप का घड़ा अब भरने के क़रीब है। ब्लॉग पर नाम लेकर जिस तरह इन्होंने कीचड़ उछाला है, अब यदि हम मानहानि की क़ानूनी कार्रवाई करते हैं तो किसी साथी को यह शिकायत नहीं हो सकती कि राजनीतिक विवाद को हम बुर्जुआ अदालत में क्यों लेकर गये। 

कात्यायिनी 

''रणभूमि को अपने आँचल से ढँककर निशा जब योद्धाओं को एक-दूसरे से अलग कर देती है तो दिन भर के परिणाम निकालने की घड़ी आ जाती है। तब क्षति और सफलताओं का हिसाब लगाया जाता है। पराजित प्रतिद्वन्द्वी अँधेरे की आड़ में पीछे हटने को उत्सुक होता है और अन्धकार में उसका पीछा करने की जोखिम को टालकर विजेता अपनी जीत के उत्सव व आनन्द में मग्न हो जाते हैं। रणभूमि में केवल शव एवं घायल ही बचे रहते हैं, और तब इनके बीच उन लुटेरों की काली-काली आकृतियाँ दिखने लगती हैं जो सबकी जेबें टटोलते हैं, हाथों से अँगूठियाँ उतारते हैं या फिर छातियों से क्रॉस। लड़ाई के बाद की रात पर तो केवल लुटेरों का ही अधिकार होता है।

''कल तक वे लड़ाई के ख़तरों के डर से खाइयों और नालों में छिपे पड़े थे, अभी कल ही उनमें से बहुत सारे आज की हारी हुई सेना में भर्ती थे या यूँ कहिये कि उनके नाम भर दर्ज थे। पर रात के अँधेरे ने उन्हें इतना साहसी बना डाला है कि अब वे उन्हीं लोगों के ढाल-कवच व हीरे-जवाहरात नोचने की जल्दी में हैं जिनकी कल तक वे गला फाड़-फाड़कर जय-जयकार कर रहे थे। लुटेरे तो लुटेरे ही होते हैं -- विजय की स्थिति में उनका काम होता है सबसे अधिक जोश दिखाना और पराजय की दशा में वे अपने हताहत हुए साथियों की जेबें टटोलते हैं।''

उपरोक्त पंक्तियाँ रूस के सुविख्यात कम्युनिस्ट राजनीतिक कर्मी और साहित्यालोचक वात्स्लाव वोरोव्स्की (1871-1923) के लेख ‘लड़ाई के बाद की रात’ (साहित्य और सौन्दर्यशास्त्र: बीसवीं शताब्दी का साहित्य, खण्ड-1, पृ. 68, साहित्य अकादमी और रादुगा प्रकाशन, 1989) से ली गयी हैं। सन्दर्भ है 1905-07 की रूसी क्रान्ति की पराजय के बाद का राजनीतिक-सांस्कृतिक परिदृश्य। वोरोव्स्की के अनुसार, क्रान्ति की पराजय के बाद रूसी बुद्धिजीवी वर्ग का एक बड़ा हिस्सा रात के अँधेरे में युद्धक्षेत्र में लूटमार करने वाले लुटेरों की भूमिका निभा रहा था।
1905-07 की क्रान्ति की पराजय के बाद की स्थिति के बारे में क्रुप्सकाया ने भी एक जगह लिखा है कि बहुतेरे पराजित मानस कम्युनिस्ट उस समय सन्देहवाह-सर्वनिषेधवाद-अराजकतावाद के शिकार हो गये थे और कुछ ऐसे भी थे जो ‘डिप्रेशन’, ‘अल्कोहलिज़्म', ‘व्यक्तिगत पतन’ और ‘रथलेस सेक्सुअलिज़्म’ की चपेट में आ गये थे।

आज कम्युनिस्ट आन्दोलन विश्‍वस्तर पर जिस विपर्यय और गतिरोध का सामना कर रहा है, वह अभूतपूर्व है। ऐसे में अकुण्ठ जड़सूत्रवाद और निर्द्वन्द्व ''मुक्त चिन्तन'' के साथ-साथ हमें यदि सीमाहीन और निर्लज्ज किस्म की राजनीतिक-सांस्कृतिक पतनशीलता के विकट उदाहरण देखने को मिल रहे हैं और कुत्सा-प्रचार के लम्बे अभियानों का साक्षी होना पड़ रहा है तो यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है।
विगत लगभग चार-पाँच वर्षों से लगातार हमलोगों को, विशेष तौर पर व्यक्तिगत स्तर पर, घिनौने कुत्सा-प्रचारों, तोहमतों और गालियों का शिकार बनाया जाता रहा है। यूँ तो, गतिरोध तोड़कर नयी राह निकालने के प्रयासों-प्रयोगों के क्रम में, विगत तीन दशकों से हमलोगों पर तरह-तरह के लेबल लगाये जाते रहे हैं और फ़तवेबाज़ियाँ की जाती रही हैं। कभी ‘प्रच्छन्न त्रात्स्कीपंथी’ कहा गया, कभी ‘कुर्सीतोड़ बुद्धिजीवी’, कभी कहा गया कि ‘वर्ग संघर्ष की आँच से बचकर साहित्य-संस्कृति में रमने वाले लोग हैं’, तो कभी यह भविष्यवाणी की गयी कि ‘साहित्य व मीडिया में कैरियर बनाने के बाद जल्दी ही घर बैठ जायेंगे।’ फिर कुत्सा अभियान का अलग चरण शुरू हुआ जब यह बात ज़ोर-शोर से फैलायी गयी कि यह एक परिवार-विशेष और निकटवर्तियों की मण्डली है, जिसका काम बस किताबें छापकर मार्क्‍सवाद का व्यापार करना और सम्पत्ति एकत्र करना है। इसी दौरान मुँहामुँही बुद्धिजीवी और राजनीतिक मण्डलियों में यह बात फैलायी गयी कि कात्यायनी का सारा लेखन तो वस्तुतः उनके पति करते हैं। इसकी शुरुआत पहले राजनीतिक हलकों में एक ''महान नेता'' की शह पर हुई जो एक दशक तक (साथ काम करते हुए) मेरे असुविधाजनक प्रश्‍नों-आपत्तियों से आजिज आ चुके थे और जिन्हें मैंने पुरुषवादी मानसिकता से ग्रस्त बताकर खुद ही आफ़त मोल ले ली थी। बहरहाल, यह अफ़वाह जब साहित्यिक मण्डलियों तक पहुँची (या पहुँचायी गयी) तो फिर क्या था! जंगल की आग की तरह फैली। विडम्बना तो यह थी कि कुछ ही वर्षों बाद मेरे तलाक़ की अफ़वाह भी फैला दी गयी!

विगत करीब पाँच वर्षों से जो कुत्सा-प्रचार किया जा रहा है, वह तीसरा चरण है जो घृणित और घनघोर निजी है। तमाम पोथों-पुलिन्दों का सारतत्व यह है कि (1) हम कोई राजनीतिक समूह नहीं बल्कि अपराधी गिरोह हैं जो सम्पत्तियाँ हड़पते हैं, किताबों का व्यापार करते हैं, (2) राजनीतिक ग्रुप के नाम पर महज़ एक परिवार है (और कुछ चेले-चपाटे हैं) और नेतृत्व के नाम पर बस एक व्यक्ति है जो तानाशाह और अति सुविधाजीवी है, (3) कात्यायनी की सभी रचनाएँ वास्तव में उसके पति की हैं। और उसके बेटे को भी ‘प्रोमोट’ किया जाता है। इसी आशय के बहुतेरे आरोप हैं, पर केन्द्रीय बिन्दु यही हैं।

कहने की ज़रूरत नहीं कि इस तरह की बातों का जवाब नहीं दिया जा सकता। यह मार्क्‍सवाद की राजनीतिक संस्कृति भी नहीं है। लेनिन व्यक्तिगत कुत्सा-प्रचारों का जवाब देने के क़तई हामी नहीं थे और बार-बार इस बात पर बल देते थे कि कुत्सा-प्रचार की अपनी एक राजनीति होती है। उनका कहना था कि बात राजनीतिक लाइन और उसके अमल पर की जा सकती है। मार्क्‍सवादी नज़रिया बिल्कुल साफ़ है। यदि कोई या कुछ लोग व्यक्तिगत तौर पर ग़लत हैं तो उनकी राजनीति भी ग़लत होगी या तार्किक परिणति के तौर पर कालान्तर में ग़लत हो जायेगी। इसका विपरीत भी सही है। यदि कुछ कर्तव्यनिष्ठ-सत्यनिष्ठ व्यक्ति भी लगातार ग़लत राजनीति को मानें और लागू करें तो कालान्तर में उनका व्यक्तिगत जीवन भी आदर्शच्युति और पतन का शिकार हो जायेगा। अतः विचार और विवाद का मसला किसी राजनीति लाइन का सैद्धान्तिक-व्यावहारिक पक्ष ही हो सकता है। यदि कतिपय व्यक्तियों के व्यक्तिगत चरित्र और आचरण को लेकर लेख-पत्र-दस्तावेज़ लिखे जायें तो सच्चाई की जाँच कैसे होगी? क्या सभी वाम क्रान्तिकारी ग्रुपों के प्रतिनिधियों को लेकर कोई जाँच कमेटी ('क्रान्तिकारी सी.बी.आई.') बनायी जायेगी? और यह काम यदि कुछ लोग करते हैं और वे संगठन-विशेष से निकाले गये कुछ पतित और भगोड़े हों जो अपना निजी हिसाब चुका रहे हों, या फिर यदि वे कुछ ऐसे पतित लोग हों जो ‘स्टेट एजेण्ट’ या घुसपैठिये की भूमिका निभाते हुए वाम की पाँतों में शंका-सन्देह फैलाने का काम कर रहे हों, तो इस सच्चाई का पता कैसे लगाया जा सकेगा? इसीलिए लेनिनवादी पद्धति इस बात पर बल देती है कि राजनीतिक लाइन और उसके अमल को ही आलोचना और वाद-विवाद का विषय बनाया जा सकता है। जो ऐसा करने के बजाय मसालेदार, चटपटी गालियों और व्यक्तिगत घिनौने आरोपों को ही मुख्य माध्यम बना रहे हैं, उनके चरित्र और चेहरे को पहचानना कठिन नहीं होना चाहिए। यदि उनकी बातों पर वाम दायरे का कोई व्यक्ति ग़ौर करता है और उन्हें सन्देह और सवालों के कटघरे में नहीं खड़ा करता तो यह सचमुच दुर्भाग्यपूर्ण है।

यहाँ यह सवाल उठाया जा सकता है कि क्या सिर्फ़ किसी राजनीतिक संगठन की राजनीतिक लाइन और उसके व्यवहार पर ही बात की जा सकती है, उसके नेताओं-कार्यकर्ताओं के व्यक्तिगत जीवन और आचरण पर नहीं? तो हमारा उत्तर होगा कि अवश्य की जा सकती है और अनिवार्यतः की जाती है। हर राजनीतिक समूह का एक-एक घटक व्यक्ति अपने आचरण-व्यवहार के लिए अपने समूह के साथियों के समक्ष जवाबदेह होता है और लेनिनवादी सांगठनिक सिद्धान्त इसके लिए सामूहिक चौकसी, जवाबदेही व आलोचना की एक समूची प्रणाली तजवीज करता है। समूह के भीतर के अतिरिक्त, समूह/संगठन का हर व्यक्ति जनता के जिस हिस्से के बीच काम करता है, वहाँ भी अपने निजी आचरण-व्यवहार के लिए जवाबदेह होता है। लेकिन कहीं से उठकर कोई भी व्यक्ति, कोई निष्कासित व्यक्ति या कोई अन्य संगठन यदि किसी संगठन या उसके किसी व्यक्ति पर कोई निजी तोहमत लगा दे तो सच का निर्णय आख़िर किस प्रकार होगा? इसीलिए लेनिनवादी पद्धति एकमात्र राजनीतिक लाइन और उसके अमल के आधार पर ही चीज़ों को तय करने की बात करती है। हाँ, कोई दो संगठन जब पूर्ण राजनीतिक एकता हासिल कर लेते हैं तो सांगठनिक एकता से पहले वे एक-दूसरे की कार्यकर्ता नीति, वित्तीय नीति, सांगठनिक ढाँचे और आन्तरिक जीवन के हर पहलू की सूक्ष्म जाँच-पड़ताल अवश्य करते हैं।

स्तालिन ने एक जगह बहुत मार्के की बात कही है। उनका कहना है कि सामरिक युद्ध में हम दुश्मन के सबसे कमज़ोर पक्ष पर वार करते हैं, लेकिन राजनीतिक युद्ध में हम उसके सबसे मज़बूत पक्ष पर हमला करते हैं। यही कम्युनिस्ट नीति है। कुत्सा-प्रचारक हमारे बारे में जो बातें करते हैं, यदि वे सही भी होतीं तो एक सच्चा कम्युनिस्ट उन्हें नहीं बल्कि हमारी राजनीति को निशाना बनाता। देश के जो भी संजीदा कम्युनिस्ट ग्रुप रहे हैं, उन्होंने हमारे साथ तमाम तीखे मतभेदों के बावजूद हमारे ख़िलाफ़ जारी व्यक्तिगत गाली-गलौज और आरोपों पर कान नहीं दिया। जिन कुछ लोगों के दिमाग में शंका पैदा हुई, उन्हें सफ़ाई देना हम इंक़लाबी शान के ख़िलाफ़ समझते हैं। उनसे तो हम बस यही कहेंगे कि मार्क्‍सवाद की राजनीतिक संस्कृति और तौर-तरीक़े का अध्ययन करें। चन्द लोगों के (उनकी पृष्ठभूमि और राजनीति जाने बगैर) कुत्सा-प्रचार से प्रभावित होकर शंकालु हो जाने वाले राजनीतिक ग्रुपों को सफ़ाई देना तो दूर उनसे बातचीत करना भी हम अपनी तौहीन समझते हैं।

तब हमसे आप पूछ सकते हैं कि ब्लॉग पर इतनी चर्चा करना क्या अपने आप में सफ़ाई देना नहीं है? वाजिब सवाल है। कुत्सा-प्रचार मुहिम यदि राजनीतिक हलकों तक ही रहती तो हम इस पर कोई सफ़ाई नहीं देते। ज़्यादा से ज़्यादा, हमारे समय में कुत्सा-प्रचार की राजनीति और संस्कृति पर कभी एक निबन्ध लिख देते। पर जिन कुछ भगोड़ों ने हमारे विरुद्ध कुत्सा-प्रचार को अपना जीवन-लक्ष्य बना रखा है, उन्होंने देश भर के (हिन्दी के अतिरिक्त बंगला, तेलुगू, मराठी, पंजाबी आदि भाषाओं के भी) लेखकों को हमारे ख़िलाफ़ बाक़ायदा पुस्तिकाएँ छपाकर भेजीं, पत्र और ई-मेल और अब ब्लॉग (‘जनज्वार’ ब्लॉग) पर भी कचरा उड़ेलना शुरू कर दिया है। तब से हमें बहुत से बुद्धिजीवियों के फोन आ चुके हैं कि हमलोगों को ख़ामोशी तोड़कर कुछ बोलना चाहिए (ज़ाहिर है कि इनमें से भी कुछ आदतन मज़े लेने वाले ग़ैरपक्षधर क़िस्म के लोग हैं और कुछ हमारे या क्रान्तिकारी वाम आन्दोलन के जेनुइन शुभचिन्तक हैं)। राजनीतिक दायरे के भीतर जो तौर-तरीक़े लागू होते है, वे हूबहू बुद्धिजीवी हलकों में लागू नहीं होते। जब आम बुद्धिजीवियों के बीच सारे मसले उठा दिये गये और कम्युनिस्टों की खिल्ली उड़ाने वालों और नफ़रत करने वालों के बीच भी उन्हें आम चर्चा का विषय बना दिया गया है, तब हमने चुप्पी तोड़ने का फै़सला किया है। फिर भी हम सारे मसलों पर सफ़ाई देने के बजाय (जो हमारे स्वाभिमान के विरुद्ध है) मुख्यतः सोचने और फै़सले लेने के ‘अप्रोच’ और पद्धति पर कुछ सवाल उठायेंगे और महज़ कुछ बुनियादी, अकाट्य तथ्यों का उल्लेख करेंगे, जिनसे कुत्सा-प्रचार की सारी अट्टालिका एकबारगी भरभराकर गिर जायेगी। (वैसे यहाँ यह भी बता दें कि इन भगोड़ों के पाप का घड़ा अब भरने के क़रीब है। ब्लॉग पर नाम लेकर जिस तरह इन्होंने कीचड़ उछाला है, अब यदि हम मानहानि की क़ानूनी कार्रवाई करते हैं तो किसी साथी को यह शिकायत नहीं हो सकती कि राजनीतिक विवाद को हम बुर्जुआ अदालत में क्यों लेकर गये। अब यह मसला नागरिक सम्मान का है और जैसा हमारे कई लेखक मित्रों ने पहले ही सुझाया था, हम यथा समय क़ानूनी कार्रवाई भी करेंगे।)

(1) पहला सवाल हमारा यह है कि जो कुत्सा-प्रचारकों का गिरोह है, उसकी अपनी राजनीति क्या है? ये कौन लोग हैं? ऐसा कत्तई नहीं था कि ये लोग एक साथ (या अलग-अलग) इन सवालों को उठाते हुए कभी हमारा साथ छोड़कर चले गये हों। ये लोग पन्‍द्रह वर्षों के दौरान अलग-अलग समयों पर अलग हुए लोग हैं। कुछ बार-बार अनुशासनहीनता या नैतिक कदाचार के कारण निकाले गये, कुछ निलम्बित किये गये और फिर वापस नहीं आये, कुछ भय, डिप्रेशन या अराजनीतिक पारिवारिक जीवन की चाहत के कारण या अन्य किसी निजी कमज़ोरी के कारण पीछे हटे या क्रमशः निष्क्रिय होते गये और फिर अचानक वर्तमान कुत्सा-प्रचार मुहिम के दौरान आश्चर्यजनक रूप से सक्रिय होकर सामने आये। इन सभी के बीच कभी कोई साझा बिन्दु नहीं था और अब जो एकमात्र ‘कॉमन मिनिमम प्रोग्राम’ है, वह है हमारे ऊपर तरह-तरह की तोहमतों की झड़ी लगाना। हम चुनौतीपूर्वक कहना चाहते हैं कि अजय, प्रदीप, घनश्याम आदि किस कारण से निलम्बित किये गये, अरुण यादव को किस आरोप में निष्कासित किया गया, आदेश किस कारण से घर गया, यदि रत्ती भर भी साहस और नैतिकता है तो ब्लॉग पर इन सच्चाइयों का भी उल्लेख किया जाना चाहिए! यह जानना भी ज़रूरी है कि ये सभी लोग वर्तमान समय में करते क्या हैं? इनमें से ज़्यादातर टुटपुँजिया बुर्जुआ अखबारों में कलमघसीटी करते हैं, कुछ एन.जी.ओ. के मुलाज़िम हैं, एक ठेका-पट्टी का काम करता है, एक ख़ानदानी सूदख़ोरी की जमापूँजी पर जीने वाला निठल्ला है, एक सरकारी मुलाज़िम व खाँटी ट्रेडयूनियनिस्ट है, एक टुटपुँजिया दलाल वक़ील है और एक है जो तराई के मज़दूरों में अर्थवादी राजनीति करता है। तराई में अर्थवादी राजनीति करने वाले के ख़िलाफ़ राजनीतिक संघर्ष पहले से था। उसने अचानक अलग होने की घोषणा की पर अलग होने के बाद उसने व्यक्तिगत तोहमतों के साथ ही हमारे ऊपर कई राजनीतिक सवाल भी उठाये। लेकिन अन्य जितने भी हैं वे सभी व्यक्तिगत कारणों से निष्कासित, निलम्बित या रिटायर होकर अपने धंधों में लग जाने वाले लोग हैं जिनके सिर पर निम्न बुर्जुआ प्रतिशोध का भूत सवार है। क्या वे नहीं समझते कि ब्लॉग जैसे माध्यमों का इस्तेमाल करके और गैर-वामपंथी बुद्धिजीवियों तक को पोथे-पुलिन्दे भेजकर वे किसी एक व्यक्ति या संगठन या समूह को नहीं बल्कि कम्युनिज़्म और पूरे वाम आन्दोलन को लांछित कर रहे हैं?

(2) फलां संगठन में फलां व्यक्ति को ''भाई साहब'' या ''चचा'' या ''दादा'' या ''मोल्हूप्रसाद'' कहते हैं, फलां व्यक्ति फलां व्यक्ति का यह या वह लगता है, फलां संगठन ने अपना सम्मेलन या प्लेनम सरकारी गेस्ट हाउस-रेस्ट हाउस-हॉस्टल में किया, फलां प्रतिष्ठान फलां राजनीतिक संगठन से जुड़ा है... ब्लॉग व वेबसाइट पर इस क़िस्म की बातें करने वाले को क्या ग़द्दार और सरकारी एजेण्ट नहीं माना जाना चाहिए? क्या ये राजनीतिक सवाल हैं या यह ऐसे सांगठनिक-तकनीकी मसले हैं, जिनपर अपने घनघोर राजनीतिक विरोधी के सन्दर्भ में भी चर्चा नहीं की जानी चाहिए? हम ऐसी बातों के सही-ग़लत होने के सवाल पर जाते ही नहीं। हमारा सवाल यह है कि ऐसी बातों की राजनीतिक प्रासंगिकता क्या है? ऐसे ''तथ्य'' किस उद्देश्य से प्रस्तुत किये जा रहे हैं? फिर भी यदि कोई ऐसे लोगों का ''चाल-चेहरा-चरित्र'' नहीं पहचान पाता तो उसकी आँखों का इलाज हक़ीम लुक़मान भी नहीं कर सकते।

(3) क्या कारण है कि भगोड़ों का यह गिरोह हमलोगों के पुस्तक प्रतिष्ठानों, प्रकाशन-संस्थाओं, ट्रस्टों आदि (वैसे राजनीति के नये मुल्ला, जनाब नीलाभ जी ने फ़तवा जारी कर ही दिया है कि ट्रस्ट आदि बनाना राजनीतिक संगठनों का काम नहीं होता और हम अपना इतना भी अवमूल्यन नहीं कर सकते कि ऐसे राजनीतिक मसलों पर उनसे बहस करें और तर्क एवं तथ्य से उन्हें ग़लत सिद्ध करने में अपना समय ज़ाया करें) की चर्चा तो करता है लेकिन मज़दूर वर्ग के बीच हमारे कामों की - गोरखपुर में छह माह लम्बे चले मज़दूर आन्दोलन की, दिल्ली के 25 हज़ार बादाम मज़दूरों की हड़ताल की, मेट्रो के असंगठित मज़दूरों के बीच हमारे काम और उनके शानदार संघर्ष की या लुधियाना के फैक्ट्री मज़दूरों के बीच हमारे काम की चर्चा तक नहीं करता? क्या कारण है कि गोरखपुर में युवाओं के जुझारू सामाजिक आन्दोलन तथा दिल्ली और पंजाब में छात्रों-युवाओं के बीच हमारे काम की ये लोग चर्चा तक नहीं करते? क्या कारण है कि गोरखपुर में और अन्य जगहों पर हिन्दुत्ववादी फ़ासिस्टों के विरुद्ध हमारी निर्भीक मुहिम का (तीन बार तो जनचेतना की प्रदर्शनी वैन भगवा गिरोह के गुण्डे तोड़ चुके हैं) ये लोग नाम तक नहीं लेते? इसलिए कि इनका मकसद यह बताना है कि हम लोग सिर्फ़ किताबें छापते-बेचते और सम्पत्ति जोड़ते हैं? क्यों इनसे वाम हलके का कोई भी बुद्धिजीवी उठकर यह सवाल नहीं पूछता कि ‘पार्टनर, तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है?’ ये लोग किन ताक़तों के साथ खड़े हैं, क्या यह बात एकदम साफ़ नहीं है?

(4) क्या सैकड़ों कार्यकर्ता, ऐक्टिविस्ट और हमदर्द इस क़दर ग़ुलाम और विवेकहीन हो सकते हैं कि व्यक्ति-विशेष और परिवार-विशेष के बँधुआ हो जायें? हम सबसे अधिक दुहराये जाने वाले, परिवार के प्रश्‍न पर पहली बार अपनी अवस्थिति स्पष्ट करना चाहते हैं। हम समझते हैं कि सच्चा कम्युनिस्ट वही है जो दूसरों के बच्चों से भगतसिंह की राह पर चलने का आह्वान करने से पहले अपने बच्चे को उस राह पर डाले, जो अपने जीवनसाथी, माँ-बाप, भाई-बहन सबको क्रान्ति की राह पर लाने को प्रेरित करे (यह बात अलग है कि वे आयें या न आयें)। सच्चा कम्युनिस्ट वह है जो यदि पूरावक़्ती कार्यकर्ता हो तो सम्पत्ति-सम्बन्धों से निर्णायक विच्छेद करे। सच्चा कम्युनिस्ट वह है जो निजी जीवन में शादी-ब्याह से लेकर अन्तिम संस्कार तक धार्मिक रीति-रिवाज़ों को नहीं माने और जात-पाँत को नहीं माने। भगोड़े जानते हैं कि हम सभी ने शुरू से इन उसूलों को जीवन में उतारा है और साथियों के परिवार के परिवार आन्दोलन में आये हैं। यह हमारे लिए गर्व की बात है। आखिरकार, भगोड़े इस बात की चर्चा क्यों नहीं करते कि राजनीति में यदि पूरे के पूरे परिवार आये हैं तो उसूली मतभेद होने पर भाई-भाई, भाई-बहन और बाप-बेटा तक अलग राजनीतिक राह के राही बने हैं। यह भी हमारे लिए गर्व की बात है। यह भी हमलोगों का घोषित आदर्श और व्यवहार है कि सीधे सैद्धान्तिक कार्य और नेतृत्वकारी ज़िम्मेदारी किसी को भी नहीं दी जाती। हर व्यक्ति शुरुआत छात्रों-युवाओं और बुनियादी स्तर पर मेहनतकश वर्गों को संगठित करने से ही करता है। हर व्यक्ति को सामान ढोने, स्टॉल लगाने, झाड़ू-पोछा, खाना-बनाने और मेहनत-मजूरी का काम सीखना-करना होता है, मज़दूरों के बीच रहना होता है, चाहे वह कई भाषाओं का ज्ञाता और पीएच.डी. ही क्यों न हो! हम सभी इसी प्रक्रिया से आये हैं। यदि कोई नेतृत्व के किसी व्यक्ति का बेटा/बेटी हो तो उसे और सख़्ती से स्वयं इस प्रक्रिया से गुज़रना होता है और स्वयं पैरों के नीचे अपनी ज़मीन बनानी होती है। इसका अबतक कोई अपवाद नहीं हुआ है, क्योंकि हमारा मानना है कि, गैर-जनवादी एशियाई समाज में पार्टियों के भीतर भाई-भतीजावाद और विशेषाधिकार की प्रवृत्तियाँ अनुकूल वस्तुगत आधार के कारण तेज़ी से फल-फूल सकती हैं। परिवारों को क्रान्ति की आग में झोंका जाना चाहिए पर इससे जुड़ी हुई ज़िम्मेदारियों का भी निर्वाह किया जाना चाहिए -- यह हम भली-भाँति समझते हैं। पर हम यह भी समझते हैं कि यह भारत है और यहाँ महज़ परिवारों के होने से ही परिवारवाद का आरोप लगाया जा सकता है और उसपर सहज विश्‍वास भी किया जा सकता है। हमारे बीच बहुतेरे स्‍त्री-पुरुष साथी ऐसे हैं जो साथ-साथ राजनीतिक-सांस्कृतिक काम करते हुए एक-दूसरे के जीवन सहचर बने। अब यदि रिश्तेदारी जोड़ते हुए कोई उन्हें परिवार घोषित कर दे, तो यह कितनी ओछी घटिया बात है -- इस पर भी सोचा जाना चाहिए। जहाँ तक किसी को भी ‘प्रोमोट’ किये जाने का सवाल है, हमारे यहाँ सभी संगठनकर्ता स्वतंत्र जिम्मेदारियाँ उठाते हैं, रोज़-रोज़ बौद्धिक-व्यावहारिक गतिविधियाँ करते हुए वे लोगों के बीच हैं। वहाँ चीज़ें एकदम साफ़ हैं। हमने तो कई बुद्धिजीवी मित्रों से कहा भी (और हमारा यह खुला प्रस्ताव है) कि आप ऐसे आरोपों पर सवाल पूछकर हमें अपमानित करने के बजाय छुट्टी लेकर आइये, हमारे पुस्तक प्रतिष्ठान व प्रकाशनों के कार्यालयों पर कुछ दिन बिताइये और कुछ दिन दिल्ली, पंजाब, उत्तर प्रदेश के हर कार्यक्षेत्र में कार्यकर्ताओं के बीच बिताइये। इसतरह आप स्वयं सच्चाई से परिचित हो जायेंगे।

(5) यहीं पर सम्पत्ति खड़ा करने के सवाल पर कुछ बातें। पहली बात, तकनीकी-क़ानूनी कारणों के कुछ अपवादों को छोड़कर, हमारे बीच जो भी पूरावक़्ती कार्यकर्ता हैं उनकी कोई निजी सम्पत्ति नहीं है और हर स्तर पर हर व्यक्ति की सुविधाओं और खर्चे आदि की पाई-पाई की पूर्ण पारदर्शी जवाबदेही होती है। तकनीकी-क़ानूनी कारणों से (जैसे किसी पहले से चल रहे मुक़दमे के कारण या ट्रस्ट/सोसाइटी को हस्तांतरण में किसी क़ानूनी पेंच के चलते विलम्ब होने के कारण) यदि कोई भवन/भूखण्ड किसी व्यक्ति के नाम से है भी तो हमारे बीच के हर व्यक्ति की जानकारी में और इस समझदारी के आधार पर है कि वह व्यक्तिगत सम्पत्ति कत्तई नहीं है। यदि कोई व्यक्ति क़ानूनी स्थिति का लाभ उठाकर कल को अपना दावा ठोंक भी दे तो उसे सभी साथी एक सेकण्ड की देर किये बिना संगठन से बाहर का रास्ता दिखा देंगे। दूसरी बात, प्रकाशन और पुस्तक-प्रतिष्ठान सामूहिक स्तर पर कमेटियाँ चलाती हैं। व्यक्तिगत लाभ की गुंजाइश ही नहीं है। इनमें पूरा समय लगाने वालों को भरण-पोषण भत्ता मिलता है। पाई-पाई का पारदर्शी हिसाब होता है। वैसे भी हमारे प्रकाशन घाटे में ही चलते हैं। जनता से विविध माध्यमों से नियमित सहयोग (कूपन काटना, पर्चा अभियान चलाना, नुक्कड़ नाटक, पोस्टर व कार्ड आदि कला-सामग्री बनाकर बेचना) जुटाकर ही हम इन्हें चलाते हैं और नयी किताबें छापते हैं। ''सम्पत्ति खड़ा करने'' जैसी बातें करने वाले लोग वे लोग हैं जो ऐसे हर सामूहिक उद्यम के प्रति सन्देह पैदा करके उन्हें ‘डैमेज’ करना चाहते हैं, और परिवर्तनकामी राजनीति को लांछित-कलंकित करना चाहते हैं।

(6) कुछ कवि मित्रों ने फोन करके पुरज़ोर आग्रह किया है कि चुप रहने के बजाय मुझे इस अपमानजनक आरोप पर भी बोलना चाहिए कि मेरा लेखन मेरा है ही नहीं। मुझे समझ नहीं आता कि इसपर क्या कहा जा सकता है। साहित्य की औसत समझ वाला व्यक्ति भी यह नहीं कह सकता, एक ईडियट या गधा ही कह सकता है। मेरी और शशिप्रकाश की विचारधारा एक है, जीवन का रास्ता एक है, जीने के तरीके में भी काफ़ी कुछ एकता है (जो अर्जित एकता है) लेकिन हम लोग शैली व रूप की दृष्टि से और काफ़ी हद तक विषयवस्तु के दायरे की दृष्टि से, दो स्कूलों के कवि हैं। शशिप्रकाश की कविता मूलतः ‘सब्जेक्टिव पोयट्री’ और ‘पोलिटिकल पोयट्री’ है। मेरी कविताओं का मिज़ाज अलग है। मुझे बीस वर्षों से बिरादर कवि-लेखक जानते है, गोष्ठियों-सेमिनारों में संवाद होते रहे हैं, फिर भी ऐसी ओछी बातें होती हैं तो इसका कारण एक है कि एक स्वतंत्र स्‍त्री को अपमानित करने की सबसे कारगर कोशिश यह होती है कि उसे व्यक्तित्वहीन घोषित कर दिया जाये।

जहाँ तक वैचारिक लेखन का सवाल है, उसके बारे में लगे हाथों कुछ बातें स्पष्ट कर दूँ। मेरा जो भी वैचारिक लेखन है (स्‍फुट टिप्पणियों, डायरियों व छिटफुट लेखों को छोड़कर) उसका अधिकांश हिस्सा सामूहिक विचार-विमर्शों (लिखने के पहले और लिखने के बाद) सुझावों, आलोचनाओं से इस क़दर प्रभावित होता है कि काफ़ी हद तक सामूहिक उत्पाद होता है -- यह बात मैं अकुण्ठ भाव से स्वीकार करती हूँ। जब किसी मंच से अपने समूह का प्रतिनिधित्व करते हुए मैं कोई पर्चा या आलेख पढ़ती हूँ तो वह पूरी तरह से हमारे पूरे समूह का विचार होता है। जिस बुद्धिजीवी ने भी किसी जन संगठन में काम किया है, वह इस बात को भली-भाँति जानता समझता है।

(7) कुत्सा-प्रचारकों के चरित्र को स्पष्ट करने के लिए एक और तथ्य पर दृष्टि डालें। इनके बीच का एक पतित तत्व जो सूदख़ोरी के ख़ानदानी धन पर जीने वाला एक अकर्मण्य सामाजिक परजीवी है, वह अपने गाली पुराण में स्वयं को परिकल्पना प्रकाशन का तथा जनचेतना प्रदर्शनी वाहन का ''मालिक'' बताता है तथा लिखता है कि हमलोग कार्यकर्ताओं से ''बेगारी'' करवाते हैं और ''भीख'' मँगवाते हैं। यह कहकर इस व्यक्ति ने स्वयं को ही नंगा कर लिया है। परिकल्पना प्रकाशन का ''मालिक'' वह या कोई भी व्यक्ति कभी नहीं था। एक कमेटी थी जिसमें वह भी था और उसने शुरू करते समय आर्थिक सहयोग किया था। इसी तरह प्रदर्शनी वाहन में भी उसने बड़ा हिस्सा सहयोग दिया था और वाहन उसी के नाम पर लिया गया था। अब बाहर जाने के बाद भी वह अपने को प्रकाशन व वैन का ''मालिक'' बता रहा है। यदि उसमें रत्ती भर भी कम्युनिस्ट संस्कार होते तो (यदि पूरा सहयोग उसी का होता तो भी) वह अपने को ''मालिक'' कदापि नहीं कहता और जहाँ तक कार्यकर्ताओं को भिखमंगा कहना है तो यह तो उसकी हिमाक़त के साथ ही इन लोगों की वर्गदृष्टि का ही एक जीता-जागता प्रमाण है। हमलोगों का यह पुराना और बार-बार दुहराया गया संकल्प है कि हम अपने प्रकाशन, अपने पत्र-पत्रिकाओं और संस्थाओं के लिए कोई भी सशर्त सांस्थानिक अनुदान (देशी पूँजीपतियों से, बहुराष्ट्रीय कम्पनियों से, उनके ट्रस्टों से, फण्डिंग एजेंसियों/एन.जी.ओ से, चुनावी पार्टियों से और सरकार से) नहीं लेते, केवल व्यक्तिगत सहयोग लेते हैं -- नियमित रूप से मज़दूर बस्तियों में कूपन काटते हैं, कालोनियों-बसों-ट्रेनों में पर्चा अभियान चलाते हैं, और नुक्कड़ नाटक-गायन आदि करते हैं। एक पूरी तरह से अनुत्पादक निठल्ला यदि इन कार्रवाइयों के ज़रिए जनता के बूते राजनीतिक-सांस्कृतिक काम खड़ा करने के गौरवपूर्ण सामूहिक उपक्रम को ''भीख माँगना'' और ''बेगारी करना'' कहता है तो वह हर सामाजिक कार्यकर्ता के ऊपर आसमान में सिर उठाकर थूकने की कोशिश कर रहा है। इस बारे में हमें और कुछ नहीं कहना है।

(8) एक और तथ्य ग़ौरतलब है। ये सभी पतित तत्व का. अरविन्द के निधन के बाद से लेकर अबतक लगातार यह प्रचार करते रहे हैं कि नेतृत्व ने का. अरविन्द की कोई सुध नहीं ली और उन्हें मरने के लिए अकेला छोड़ दिया, कि वे गोरखपुर निर्वासन के तौर पर भेजे गये थे... आदि-आदि। हद तो यह थी कि का. अरविन्द के माता-पिता तक को यह कहकर पूर्वाग्रहित करने की घृणित कोशिश की गयी। का. अरविन्द का निधन कितना आकस्मिक (मल्टिपल ऑर्गन फे़ल्योर के कारण) था, इसके डाक्टरी प्रमाण तो हैं ही, उनकी अंतिम साँस तक जुझारू-समर्पित कार्यकर्ताओं की टीम उनके पास खड़ी थी। देर रात नर्सिंग होम में भरती कराये जाने के अगले दिन रोग की गम्भीरता का पता चला तब पी.जी.आई. लखनऊ में भरती की तैयारी हो चुकी थी। दिल्ली, लखनऊ, पंजाब से साथी रवाना हो चुके थे। पर का. अरविन्द को लखनऊ या दिल्ली ला पाने की स्थिति ही नहीं थी, डॉक्टर यह परामर्श देने को क़तई तैयार नहीं थे। यह एकमात्र ऐसी बात है जिसकी चर्चा करते हुए हमें अपार क्षोभ और दुःख होता है। क्या कोई इस हद तक भी कमीनगी पर आमादा हो सकता है कि ऐसे मसले को भी दुष्प्रचार का विषय बनाये?

दिलचस्प बात यह है कि का. अरविन्द के जीवन काल में ये सभी तत्व उन्हें घृणिततम हमलों का निशाना बनाते रहे और अब वे उनके प्रति सहानुभूतिपूर्ण शब्दों की बारिश कर रहे हैं। दिलचस्प यह भी है कि इनमें से चन्द एक अपवादों को छोड़कर सभी को का. अरविन्द ने ही अलग-अलग समयों पर निष्कासित या निलम्बित किया था। पिछले दिनों किसी के पूछने पर एक भगोड़े ने कहा कि का. अरविन्द शरीफ़ दब्बू थे और उनसे यह सब करवाया जाता था। इस देश का क्रान्तिकारी वाम आन्दोलन का. अरविन्द के व्यक्तित्व से दो दशकों से परिचित था। हिन्दी प्रदेश के अधिकांश लेखक-पत्रकार भी उन्हें जानते थे। अब यह उनके तय करने की बात है कि क्या का. अरविन्द ऐसे दब्बू व्यक्ति थे कि जो चाहे उनसे जो करा ले? दूसरी बात यह कि वे स्वयं नेतृत्व के अग्रणी व्यक्ति थे। यह भला कौन नहीं जानता?

विगत पाँच वर्षों से दर्जन भर पतित तत्वों के एक गिरोह ने राजनीति से लेकर संस्कृति की दुनिया तक, देशव्यापी पुस्तिका-वितरण से लेकर ब्लॉग तक घनघोर कुत्सा-प्रचार का जो उत्पात मचा रखा है, वह हमारे लिए ज़रा भी आश्चर्य की बात नहीं है। पाश से शब्द उधार लेकर कह सकते हैं कि यह भी हमारे वक़्तों में ही होना था। हम ऐतिहासिक विपर्यय से पैदा हुए वैचारिक स्खलनों, नैतिक पतनों और निजी प्रतिबद्धताओं के विघटन के दौर में जी रहे हैं। ऐसे में हम चाहे जितना अलग रहने की कोशिश करें, टुच्ची घटिया चर्चाओं के कीचड़ में पैर फँसने का जोखिम बना ही रहता है। आज क्रान्तिकारी वाम राजनीति के एक दौर का विघटन हो रहा है और नया दौर अभी गति नहीं पकड़ सका है। डी.जी.पी. विश्‍वरंजन के आयोजन में ‘गोली दागो पोस्टर’ के कवि आलोकधन्वा जैसे लोगों की शिरकत तथा विभूति नारायण राय प्रकरण जैसी घटनाओं से वाम सांस्कृतिक आन्दोलन का निकृष्ट-पतित अवसरवादी परिदृश्य भी सामने है। छोटे-छोटे बौने ब्लॉगों की दुकान खोलकर चपड़-चर्चा कर रहे हैं और मठाधीश होने का मुग़ालता पाले बैठे हैं। ऐसे में यदि बुर्जुआ मीडिया और एन.जी.ओ. के कुछ पतित तत्व एक तरफ़ लाल कलगी लगाकर क्रान्तिकारी स्वाँग रचायें और दूसरी ओर बुद्धिजीवी समुदाय को कुत्सा-प्रचार की मसालेदार सामग्री परोसकर किसी ‘जेनुइन’ साहसिक सामाजिक प्रयोग को कलंकित-लांछित करने की कोशिश करें तो इसमें भला आश्चर्य की क्या बात?

रही हमारी बात। तो कुत्तों के भौंकने से हाथी की चाल पर कोई असर नहीं पड़ता। तमाम ''महामहिमों'' की भविष्यवाणियों को झुठलाकर हमने दो दशक की अपनी पथान्वेषी यात्रा पूरी की है, आगे भी हमारी यात्रा यूँ ही जारी रहेगी। जिन्हें पक्ष चुनना है, वे पक्ष चुनेंगे। जो ‘फे़न्स-सिटर’ हैं, वे किनारे बैठकर जग का मुजरा लेते 
रहेंगे। यही जीवन की गति है.



8 comments:

  1. आइये जरा देख लेते है ये कार्य कर्ताओ को कैसे स्वतंत्र चेतना से लैस करते है
    १ सुरेन्द्र प्रताप जब संगठन से अलग हुए थे तो उन्होंने संगठन के बारे में कुछ आलोचना लिखी थी और विभिन्न कार्य क्षेत्रो में जाकर वे साथियों को देना चाहते थे जब वे गोरखपुर गये तो हम लोग अरविन्द के साथ उन्नाव में ट्रेन अभियान में थे मिनाक्षी का अरविन्द को फोन आया मै उनके पास था जिससे हमें पता चला की सुरेन्द्र गोरखपुर गये है लेकिन हमसे हमेशा उनकी आलोचनावों की बात होती कभी भी उन्होंने क्या लिखा है उसे हमें पढ़ने के लिए उपलब्ध नहीं कराया गया और हमें पता था की यदि हम अपने से उनका पत्र मांग लेते तो हमारे ऊपर आउट sider का आरोप हमेशा के लिए लग jata
    2 मुकुल जब संगठन से अलग हुए तो शशि से होने वाले पत्रचार को वे भी जुड़े और निकाले गये सभी लोगों को पढ़ाना चाहते थे क्योकि वे जानते थे अन्दर के लोगों को भी उनका ग्रुप पढ़ने नहीं देगा मेरे लिए उन्होंने जन चेतना पर पत्र भेज दिया था मै जब जन चेतना खोलने पहुंचा तो मुझे वो पत्र मिल गया मैंने वो पत्र खोला ही था की का अरविन्द वहाँ आ गये और उन्होंने ये कहा की इसमें पार्टी की गुप्त बाते ओपन की गई इसे न पढो और फिर वो पत्र मैंने उन्हें दे दिया अगर उस पत्र को पढने को मै फिर भी मांग लेता तो न जाने फिर कितने दिनों तक अपने ही साथियों के बीच इतनी उपेक्षा झेलनी पड़ती की मै कुंठित हो जाता और लगने लगता की मैंने कितना बड़ा पार्टी विरोधी काम कर दिया
    ३ यही पत्र जब lucknow जनचेतना गया तो शालिनी जी को मिला था जो अपने पिता को लगातार गालिया देते हुए अपने को महान स्त्री चेता घोषित करने में लगी है उस समय एक कोर्ट केश में कात्यायनी गोरखपुर कोर्ट में मेरे साथ ही थी शालिनी का फ़ोन आया की मुकुल का पत्र आया है क्या करे मेरे ही सामने कात्यायनी ने पत्र खोलने से ही मना कर दिया था
    मै जब संगठन से निकाल दिया गया तब मुकुल से वो पत्र हमें पढ़ने को मिला था और मैंने गोरखपुर में जो आज बेबाक बेलौस के साथी है उनके घर जाकर वो पत्र पढवाया था इनके सगठन ने इन्हें पढ़ने को नहीं दिया था
    आन्दोलन में और कहा क्या चल रहा है वे क्या लिख पढ़ रहें हमेशा उसको आलोचनात्मक ढंग से प्रस्तुत करके अपनी श्रेठाथा के द्वारा ये माहैल बनाया जाता है की देश दुनिया के कामों से बेखबर कार्यकर्त्ता अपनी ही श्रेठाता के नसे में चूर रहते है यही हमारी मुर्खता का चरम था आन्दोलन का कोई व्यक्ति इस प्रकार की सोच को इनके किसी भी कार्यकर्त्ता से मिलकर सहज ही देख सकता है
    यही कात्यायनी के उन आरोपों को समझा जा सकता है जब वे कहती की इनका कामन एजेंडा कैसे हो गया पार्टी अपने भीतर पैदा होने वाले किसी अन्तर्विरोध के पैदा होने से पहले ही उसकी हत्या कर देती है इसलिए आज तक यहाँ कोई दो लाइन का संगर्ष पार्टी में कभी नहीं रहा अलग अलग लोग अपने सवालो को लेकर घुटते रहें और अलग होते रहें बाहर आने के बाद हम लोगों जब अपने अपने अनुभव साझा किया तो यही तस्वीर उभरी जिसकी एक झलक भर जन ज्वार के माध्यम से सबके सामने आई है बहुत से साथी अभी दूर दूर ऐसे है जिनकी पंहुंच नेट तक नहीं है लेकिन फोन से वे इसका पूरा समर्थन की बात कर रहें है

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  2. "स्तालिन ने एक जगह बहुत मार्के की बात कही है। उनका कहना है कि सामरिक युद्ध में हम दुश्मन के सबसे कमज़ोर पक्ष पर वार करते हैं, लेकिन राजनीतिक युद्ध में हम उसके सबसे मज़बूत पक्ष पर हमला करते हैं। " - कात्यायनी

    ये बात स्टालिन ने नहीं ग्राम्शी ने की थी।

    कात्यायनी के बाकी वाग-वितण्डा पर मुझे कुछ नहीं कहना। वह अपने संस्थागत भ्रष्टाचार और कुत्सित परिवारवाद को छिपाने के लिए क्लासिकल-मार्क्सवाद की गुदड़ी में छिपने का प्रयास कर रही हैं।

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  3. श्रीप्रकाश, नागपुरSunday, August 22, 2010

    समय रहते सारे राज खुल जायेंगे. आपलोगों का ग्रुप नक्सलबाड़ी की परंपरा का कितना हिमायती हैं, हम बखूबी जानते हैं. सभी संगठनों को पानी पे के गरिआने वालों तुम्हारे पास गलियन क्या काम पद गयीं या अभी गालियाँ जाता रहे हो. तुम्हारे ही अपने लोगों ने सवाल उठाये तो जवाब तुमलोग उनके जांघिये में खोजने लगे. अभी तो ये कार्यकर्ता हैं कल को दूसरे संगठन वाले भी तुम पर यही सवाल उठाएंगे. कात्यायिनी शर्म नहीं आती तुम्हे यह कहते हुए कि तुमलोगों की आमदनी का जरिया व्यक्तिगत सहयोग है. सत्यम वर्मा की सीवी देखी नहीं क्या...जरा देख लेना वर्ल्ड बैंक का कितने सिक्के तेरे और शशि प्रकाश की जेबों में खनकते हैं...बेचारा सत्यम...

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  4. katyayini ye batayen ki aapke khilaf koi parch batega to aap gali dengi, document logon ko dega to aap baukhla jayengi. aapko sahi rai dun to agar aap in chijon se itna pareshan ho jati hain aur aapke pati lajvvab to aapko salah hai ki is bihad raste ka kam band kar prakashak ban jaiye aur sahi kamkaj ka mahual banaiye. yah bachkani baat maat kijiye ki mukadama kar dengi. thodi samjhdaron si baat kijiye anyatha abhi to aapki bahar bhadd pit rahi, ab andar ke karykarta bhi vidroh kar denge fir hijadon kee gainti ke liye aapko sammelan bulana pad jayega.
    rahi baat mukadamen ki to aapki agar iccha hai to utar jaiye, pata chal jayega ki rogan kranti ka kasie utarata hai.

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  5. मेरा कात्यायानिजी से कुछ सवाल है /
    क्या उनका प्रकाशन भारत के बुर्जुवा क़ानून के तहत पंजीकृत है, और हर साल उनका प्रकाशन आय व्यव का हिसाब बुर्जुवा सरकार को देता है ? अगर हां तो चंदे की रकम और आय व्यय को यहाँ सबके सामने क्यों नहीं भेज देती है / जिसे बुर्जुवा सरकार कहती है उसके क़ानून को पालन करती है भारत सरकार इनके ऊपर राजद्रोह का मुकदमा कब लगायेगी ? कार्यकर्ताओ को सीखाने पढाने के लिए बुर्जुवा सरकार और खुद उसी सरकार के कानून को पालन करने वाली क्रांतिकारी / यह कैसी क्रांतिकारिता है /

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  6. dharmendra singhMonday, August 23, 2010

    katyayini aaplogon ke sangathan ne aajtak kitni baar burjua netaon aur gundon se mafi mangi hai.agar aapne khulasa nahin kiya to main karunga.

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  7. kabir chatterjeeMonday, August 23, 2010

    katyayini ji...

    कृपया करके लेनिन का "राजनेतिक लाइन का आलोचना" वाला ढोंग न रचे. आपने अपने पुरे करियर में जिस तरह से हर किसी संगठन को गाली दिया है - वह किसी लेनिनवादी सोच का परिचायक तो नहीं लगता. "एन. जी . ओ: एक भयंकर साम्राज्यवादी कुचक्र" वाले किताब में क्या आपने "पि. एस. यु" करके एक संगठन को भरपूर व्यक्तिगत गाली नहीं दिया है? क्या उसमे आप लोगो ने उस संगठन का कौन सा लीडर कौन सा एन. जी. ओ. में काम करता है -और किस तरह से वे परिवार वादी है, साम्राज्यवाद का दलाल है - ये सब चर्चा नहीं किया है (वो लेख मिनाक्षी की नाम से छपा था) ? अब देखना ये है की सत्यम के बारे में आपको क्या कहना है ? ये केसा नीति है "अपने लिए कुछ और मापदंड और दुसरो के लिए कुछ और"? लगता हे "गेर-लोकतान्त्रिक" इस समाज के एक पुरोधा "चाणक्य" से आप लोगो ने काफी कुछ सिखा है! (वेसे राजनेतिक आलोचना में आप लोग serious होते तो नीलाभ जी का पत्र का जरुर जवाब देते. वेसे देते भी तो केसे- पितृसत्ता के बारे में आपका कोई समझ होता तभी न!)

    और "प्रोबोधन" की तो आप बात ही न करें तो बेहतर है. प्रोबोधन-आधुनिकता का आपलोगों का कितना समझ है वो तो आपके पितृसत्तात्मक मुहावोरो को पढने से ही पता लगता है (पेंट गीली हो जाना, बीवी से डरना, पेटीकोट-बाज, मौगा, सम्लेगिगता का विरोध...उसका मजाक बनाना...). इन पितृसत्तात्मक सोच और संस्कृति की विरोध तो "बुर्ज्जुआ नारीवादी " आज से चार दशक पहले ही कर चुकें हैं. और वो भी काफी सफल तरीके से - पच्छिम के देशो में. साम्यवादी होने के नाते आपको तो इनसे और आगे जाना चाहिए था. बुर्जुआ प्रोबोधन की मूल्यों को तो आप अभी हजम नहीं कर पाए; चले समाजवादी प्रोवोधन की बात करने. औकात तो देखो इनका. आपके ही पद्धति का प्रोयोग करे तो ऐसा लगता है- इस अहंकार के पीछे आपके दबंग जाती से belong करना - इसका जरुर कोई ताल्लुक है! ये पढके किस लगा- जरुर बताइयेगा!

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  8. कात्यायनी ने सत्येन्द्र को सूदखोर पूंजीपति कहा है. यह भी कहा है कि पूंजीपतियों से चन्दा नहीं लेते. यह भी कहा है कि प्रकाशन और वाहन के लिए सत्येन्द्र से ही लाखों का चन्दा लिया गया. क्या निर्लज्जता की कोई सीमा नहीं है?

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