कात्यायनी बैठकों में लगातार कहती रहीं(कुछ बुद्धिजीवियों को भी यह झांसा देती रही हैं)कि मैं मलिन बस्तियों में जाऊंगी, लेकिन वे भूल से भी किसी बस्ती में नहीं गईं.इसकी कभी आलोचना नहीं हुई.ऊपर से बेईमानी यह कि वे अपने सभी भाषणों और लेखों में साहित्यकारों को गाली देते हुए नहीं थकती कि वे मजदूर बस्तियों में नहीं जाते हैं.
जनार्दन कुमार
साथियों मेरा यह लेख ‘जनचेतना’को जवाब नहीं है,बल्कि इस उपक्रम को परिवर्तन की शक्ति मानने वालों से मैं मुखातिब हूँ. मैंने इस संगठन में 2000 -2010 तक काम किया है.वहाँ किस तरह का जीवन जिया है उसी में से कुछ आप सबसे साझा करना चाहता हूँ.
बात की शुरुआत कॉमरेड अरविंद सिंह और अपने बीच की कुछ घटनाओं से करना चाहूँगा.मुझे वर्ष2002में गोरखपुर इकाई से नोएडा भेजा गया था.यहाँ हमारे आर्गनाइजर अरविंद सिंह ही थे.वे मुख्य रूप से दिल्ली और हरियाणा के कामों के साथ लखनऊ और पंजाब के कामों में सहयोग करते थे.कई मामलो में देखने पर लगता था कि अरविन्द सिंह एक साथ दो धरातल पर जी रहे हैं.एक वह जिसे वह अपनी समझ से कम्युनिज्म समझते थे और दूसरा जो संगठन और उसकी लाइन कहती थी.
मेरी यह समझ कैसे बनी इसके मैं कुछ अनुभव बताता हूँ.एक बार नोएडा में उत्तर प्रदेश के मऊ जिला के मर्यादपुर से बिगुल के संपादक,मुद्रक और प्रकाशक डॉक्टर दूधनाथ के नेतृत्व में बिरहा टीम गाना गाने आई थी. उस टीम की महिला साथी समीक्षा से उसी दौरान मेरी करीबी बनी और हम दोनों ने 2005में शादी कर ली.शादी होने से पहले कि प्रक्रिया ये रही कि नोएडा में बिरहा कार्यक्रम हो जाने के बाद समीक्षा गोरखपुर वापस चलीं गईं थी.इधर अरविंद को सबसे करीब पाकर मैंने अपने प्रेम के बारे में उनसे बात की.मुझे वह रात आज भी याद है और उस समय करीब दस बज रहे थे. मेरे प्रेम का इजहारे बयान सुनकर अरविन्द ने कहा था, ' यह सहज-सरल बात सुनकर ख़ुशी हुई.' अरविन्द की जेब में उस समय 30 रूपए थे,उन्होंने मुझे आइसक्रीम खिलायी और बधाई देते हुए गले लगा लिया था.
उस रात के कुछ दिनों बाद अरविंद के गोरखपुर जाने का कार्यक्रम बना.अरविन्द गोरखपुर जा रहे हैं यह सुनकर मैं खुश हुआ और समीक्षा के नाम लिखा हुआ पत्र मैंने उन्हें सौप दिया.समीक्षा गोरखपुर में मीनाक्षी के नेतृत्व में काम कर रही थी.अरविन्द के वहां पहुंचते ही समीक्षा के सामने ही मीनाक्षी ने कहा 'गई थी बिरहा गाने और लीपपोत कर चली आई.'लेकिन वहाँ अरविंद ने एक शब्द भी नहीं कहा और बचकर मेरा पत्र समीक्षा को दे दिया था.मगर समीक्षा को पत्र देते हुए मीनाक्षी ने भी देख लिया था.
उसके अगले दिन मीनाक्षी ने 'अपने तकनीक'से पत्र को हथिया लिया और पूरा पढ़ने के बाद अरविंद पर यह कहते हुए बरस पड़ी थीं कि 'अच्छा तुम भी इन सब चीजों को बढ़ावा दे रहे हो.'मीनाक्षी ने आगे कहा कि यह सब भी तुम्हारा की किया-धरा है .मीनाक्षी का इशारा लीपापोती की ओर था जो वह पहले कह चुकी थीं.मीनाक्षी की इस प्रतिक्रिया पर अरविंद ने कुछ नहीं कहा सिवाय मुस्कुराने के.बता दें कि मीनाक्षी और अरविन्द सिंह पति -पत्नी रहे हैं और कॉमरेड अरविन्द सिंह अब हमारे बीच नहीं हैं.
पर जब मेरी चिट्ठी देने के बाद अरविन्द सिंह वापस दिल्ली आए तो उन्होंने मुझसे कहा कि तुम्हारा पत्र पहुँचाने में मुझे थोड़ी दिक्कत हुई.अरविन्द सिंह ने सीधे तो नहीं, मगर हमें इसका एहसास दिला गए कि मुझसे अब पत्र मत भिजवाना.सरसरी तौर पर मैंने यह बात आप सबको इसलिए बताई जिससे कि समझा जा सके कि अरविंद किस दोहरे जीवन को एक साथ जी रहे थे. दूसरा इस समय ताव ठोककर मीनाक्षी सबको जो गालियाँ दे रही हैं.यह कोई नयी बात नहीं हैं,बल्कि उनका और उनके संगठन का प्रेम और महिलाओं के प्रति नजरिया कैसा है उस बर्बरता का नमूनाभर है.
इस संगठन के सर्वाधिक जिम्मेदार साथियों में से एक मीनाक्षी स्टील टेम्परिंग के नाम पर महिला साथियों के साथ नौकरानी की तरह ट्रीट करती थीं.मसलन खाना बनवाना,कपड़े धुलवाना,पैर दबवाना, नाख़ून से मैल निकलवाना और फेशियल करवाना आदि आदि.ये सब अरविंद की अनुपस्थिति में होता था.
यह लोग संगठन से बाहर जा चुकी लड़कियों को इतनी जल्दी भूल गयीं, आश्चर्य होता है.अभी तो महिला साथियों ने सिर्फ कुछ टिप्पणियां लिखीं हैं,उनके साथ जो इनका व्यहार था उसे सुनकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं.गोरखपुर के जाफराबाद के घर में जिसका नाम संस्कृति कुटीर है वहां दो फोन रिसीवर लगे थे.मीनाक्षी की आदत थी कि किसी लड़की कार्यकर्त्ता के पास फोन आता था तो वह सबकी बातें दुसरे रिसीवर से सुना करती थीं. अगर वह कहीं व्यस्त हैं तो समीक्षा से कहती थीं, जरा देखो क्या बात हो रही है. ये सब अपने उन साथियों के साथ होता था जो अपना घर-परिवार, रोजी-रोटी छोड़ समाजवाद के लिए, एक बेहतर दुनिया बनाने के लिए कुर्बानियों की भावना से यहाँ रह रहे थे या रह रही थीं.
कुनबा ही नेता : जनता को मौका कब मिलेगा |
आज वही भुक्तभोगी लोग जब इनके बारे में सच बता रहे हैं तो कैसा इनका चीत्कार निकल रहा है,लेकिन मेरा विश्वास है कि पाठक सिर्फ इन्हीं के लिखे जवाबों को से असलियत समझ सकते है. साथी आदेश, मीनाक्षी का बेहद आदर करते थे और समझाने के लिए कहें तो बहन की तरह प्यार करते थे.उनके बारे में मीनाक्षी समीक्षा को हिदायत देती थी कि देखो ज्यादा खाता है,लालची है कम परोसा करो,उसे इतना सलाद काटकर क्यों देती हो आदि -आदि. सुनील चौधरी के साथ भी इससे कुछ अलग व्यहार नहीं होता था.
सभी पाठकों को इस संगठन के नेताओं के विवेक की सराहना करनी चाहिए.मीनाक्षी,कात्यायिनी और अन्य लोगों के जनज्वार पर छपे लेखों से जाहिर होता है कि संगठन का अपने संबंधियों के क्रान्तिकारीकरण पर बड़ा जोर है और यह वहां हो भी रहा है,मगर यह किस कीमत पर हो रहा है और कैसे,यह मैं आप सबसे जरूर साझा करना चाहूँगा.
यह इसलिए भी जरूरी है कि आलोचना करने वालों के बारे में यह लगातार कह रहे हैं कि 10-12 साल या 5-6 साल पहले निकले गए लोग हैं.अब देखना है कि मेरे और समीक्षा समेत देहाती किसान मजदूर यूनियन के उन छह साथियों के बारे में क्या कहते हैं जो चंद महीने पहले ही यह कहकर संगठन से अलग हो गए हैं कि कात्यायिनी और शशि प्रकाश का कुनबा चाहे जो करे लेकिन क्रांति नहीं कर सकता.
इनके दोहरे आचरण की एक मिसाल देखिये.एक कांफ्रेंस में बिगुल के संपादक डॉ.दूधनाथ से मेरी भेंट हुई और हालचाल हुआ.मैं बता दूँ कि दूधनाथ रिश्ते में मेरे ससुर लगते हैं.इन क्रांतिकारी महिलाओं ने हमारे मुलाकात की जानकारी शशि प्रकाश तक जा पहुंचाई. उसके बाद शशि प्रकाश ने यह कहते हुए कि ससुर दामाद जैसा कुछ मामला हो गया है, इस पर मेरी घंटे नहर आलोचना करते रहे.
वहीँ 24 जुलाई 2009 की गोष्ठी और एक मई 2010 के प्रदर्शन में लता ( अभिनव की पत्नी यानी कात्यायिनी और शशि प्रकाश की बहु ) बेबी मौसी ( मीनाक्षी का प्यारा नाम ), रूबी मौसी ( सत्यम की पत्नी ),नमिता मौसी, कविता मौसी कहकर इन सभी क्रांतिकारी बहनों को संबोधित करती रही,तब यह रिश्ता इनके भीतर गुदगुदी पैदा कर रहा था.इसकी आलोचना शशि प्रकाश ने कभी नहीं की क्योंकि वह 24कैरेट क्रांतिकारी कुनबे से ताल्लुक रखती थी,शशि प्रकाश कि बहु थी.
एक दूसरा वाकया मेरी कमाई को लेकर है.मैंने पोलिटेक्निक करने के बाद संगठन में काम करते हुए नोएडा के सेक्टर 11 के बिजली ऑफिस में अपरेंटिस करना शुरू किया जिसके बदले मुझे 14 सौ रुपये मिलते थे. तब संगठन यह कहते हुए मेरी तनख्वाह लेता रहा कि किसी भी तरह की आमदनी पार्टी फुंद में जाता है.वहीँ एक दफा कात्यायिनी का कहीं से पैसा मिला तो उन्होंने बेटा और नेता अभिनव के लिए कंप्यूटर खरीदा.ऐसे तमाम दोहरे मापडंडों को झेलते हुए हमलोग यहाँ तक पहुंचे.
अब आइए जरा पत्र-पत्रिकाओं के घाटे के बहाने अभियान चलाने की बात का जिक्र करें जिसके बारे में दावा किया जाता है कि पांच स्रोतों से सहयोग नहीं लिया जाता है.कात्यायिनी ने अपने लेख में लिखा है कि 'पत्र-पत्रिकाओं और संस्थाओं के लिए कोई भी सशर्त सांस्थानिक अनुदान (देशी पूँजीपतियों से,बहुराष्ट्रीय कम्पनियों से,उनके ट्रस्टों से, फण्डिंग एजेंसियों/एन.जी.ओ से,चुनावी पार्टियों से और सरकार से)नहीं लेते,केवल व्यक्तिगत सहयोग लेते हैं --नियमित रूप से मज़दूर बस्तियों में कूपन काटते हैं,कालोनियों-बसों-ट्रेनों में पर्चा अभियान चलाते हैं और नुक्कड़ नाटक-गायन आदि करते हैं.'आखिर कात्यायिनी किसकी आंखों में धूल झोंक रही है.हाथ में कलम पकड़ने के बाद शायद वह भूल गयीं कि इस बार सवाल पूछने वाले बुद्धिजीवी नहीं वह कार्यकर्त्ता हैं जो आपके लिए पैसा उगाह कर लाते थे. 50-50 हजार रुपए के दो विज्ञापन गाजिआबाद विकास प्राधिकरण और भारत हेवी इलेक्ट्रिकल लिमिटेड से देवेंद्र और मैंने खुद लिए थे और 10-20 हजार और सीधे चंदा देने वालों की ती कोई गिनती ही नहीं है.
सिर्फ पैसा जुटाने के लिए आह्वान के अलग से कुछ विशेष अंक प्रकाशित हुए थे और स्मारिका (चौंकिए मत यह आपकी एक अलग प्रकार की छवि है जिससे किसी बड़ी तिजोरी को खोलकर माल निकाल लिया जाए और काम हो जाने पर उसी घर के सामने उसे गाली दिया जाए)का प्रकाशन तीन बार हुआ था.इसमें बिल्डरों और सरकारी विज्ञापनों की भरमार थी.वैसे तो राकेश ने अपनी जानकारी में सभी प्रतियाँ जलवा दी थीं फिर भी कहेंगी तो भरोसे के लिए उसे भी जनज्वार पर प्रकाशित कर दिया जायेगा.
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जनदुर्ग बनाने के लिए मेरी जिम्मेदारी नोएडा कि झुग्गियों में मास्टर बनकर पढ़ाने की थी.अरविंद हमारी पूरी मदद करते थे,लेकिन समय न मिल पाने के कारण कभी रात में झुग्गियों में नहीं रुक पाए.यह बात मैंने अपनी रिपोर्ट में बता दी थी.26 जुलाई 2005को यही आरोप लगा कर अरविन्द के काम को फ्लाप घोषित कर दिया गया और अरविंद को वहाँ से हटा दिया गया और झुग्गी के काम को ठप कर दिया गया.
इसके उलट कात्यायनी बैठकों में लगातार कहती रहीं(कुछ बुद्धिजीवियों को भी यह झांसा देती रही हैं)कि मैं मलिन बस्तियों में जाऊंगी लेकिन वे भूल से भी किसी बस्ती में नहीं गईं.इसकी कभी आलोचना नहीं हुई.ऊपर से बेईमानी यह कि वे अपने सभी भाषणों और लेखों में साहित्यकारों को गाली देते हुए नहीं थकती कि वे मजदूर बस्तियों में नहीं जाते हैं.
कात्यायनी जब गोरखपुर जाती हैं तो अनुराग बाल ट्रस्ट के बच्चों में यह माहौल बनाया जाता था कि बहुत बड़ी नेता आ रही हैं.मीट-मुर्गे का प्रबंध होता था.जब वे चली जाती थीं तो बच्चों से कहा जाता था कि मीट खा लिया अब एक हफ्ते तक खाने-पीने की चीजों में कटौती की जाएगी.क्या ये घटनाएँ किसी मानवीय संवेदना और राजनीतिक चरित्र की पुष्टि नहीं करती हैं.
आइए जरा उनकी नैतिकता और आदर्श को विस्तार से जान लें जिनके लिए पूरा क्रांतिकारी आंदोलन का नैतिक आदर्श पतित और विघटित हो चुका है.अरविंद को नोएडा से हटाने के बाद राकेश को लेकर शशि ने वहाँ के कामों की जिम्मेदारी ली थी. यह बात कांफ्रेंस की रिपोर्ट में भी दर्ज है. जब सचिव के नेतृत्व में सीधे काम शुरू हुआ तबसे वहाँ की रोटी की समस्या हल हो गई है,कुछ हीनभावना से ग्रस्त कार्यकर्ता संगठन की जिम्मेदारी उठाने के लिए आगे आए हैं.
फिर कुछ ही दिनों में पूरे काम का बेड़ा गर्क करने की आलोचना शुरू हुई और इसके लिए खलनायक राकेश और टीम को बनाया गया. निश्चय ही राकेश जिम्मेदार थे भी, लेकिन मेरा सवाल है कि यह काम तो शशि प्रकाश के नेतृत्व में शुरू हुआ था तो उनकी असफलताओं पर कौन बात करेगा,उन्हें कौन शीत निष्क्रियता में डालेगा,सोचने की छुट्टी उन्हें कौन देगा और अंत में शशि प्रकाश को कौन भगौड़ा कहेगा.
ऐतिहासिक रूप शशि और कात्यायनी के सिर पर कभी असफलता का ताज नहीं चढ़ा है.इस दौरान ही एक और घृणित घटना को अंजाम दिया गया.यह इतना अशोभनीय है कि उसका यहाँ जिक्र भी नहीं किया जा सकता है. लेकिन इसके लिए जिम्मेदार राकेश का शशि ने बखूबी बचाव किया सिर्फ इसलिए कि वह पैसा जुटाने में माहिर थे. राकेश को छुट्टी दिए जाने के बाद भी शशि प्रकाश ने कहा कि वह रुपया जुटाता रहे.
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राकेश को दस हजार रुपए और दो मोबाइल फोन देकर एक अलग जगह रहने के लिए भेज दिया गया था.एक मोबाइल विज्ञापनदाता अधिकारीयों,बि ल्डरों से बतियाने के लिए और दूसरा संगठन के लोगों से बात करने के लिए. कुछ ही दिन बाद राकेश को फिर से कोआप्ट कर लिया गया. राकेश को इस दशा में पहुँचाने में भी संगठन का ही पूरा दोष है,क्योंकि मनोवैज्ञानिक अपराध से पैदा होने वाली ऐसी प्रवृत्तियों के कई उदाहरण हैं जिन पर अभी किसी साथी ने नहीं लिखा है, उसे भी सामने लाया जाना चाहिए.
इसी तरह देवेंद्र को जब गुंडो के अंदाज में पीटने की योजना तहत हमलोगों को भेजा गया तो, संयोग से सेक्टर 24 थाने की पुलिस ने रंगेहाथों पकड़ लिया.पीटने वाले दस्ते में मैं,समीक्षा,जयपुष्प,रुपेश, नन्दलाल और गौरव शामिल थे. पकडे जाने पर कोई उपाय होता न देख राकेश ने समीक्षा से झूठा बयान दिलवाया कि देवेन्द्र छीटाकशी करता है. मैंने जब रोहिणी के सेक्टर 16में शशि प्रकाश के सामने हो रही बैठक में सवाल उठाया और कहा कि यह कैसी नैतिकता है तो बस उन्होंने इतना कहा कि 'हमलोग कार्यवाही करने में असफल रहे,देवेन्द्र को पीटने में असफल रहे.' मैं पूछता हूँ कि क्या अपनी पत्नी और बहु से शशि प्रकाश यह बात कहलवा पाएँगे?
बकायदा यह कहा जाता है कि ट्रेन अभियानों में अगर टीटी रोके या किसी आफिस में अधिकारी अभियान न चलाने दें तो महिलाओं को आगे कर देना चाहिए. इन बातों से शशि के आदर्शों के निहितार्थ साफ हो जाते हैं. इनके यहां जब भी कोई सवाल उठाता है तो उसे उसके राजनीतिक जीवन की पूरी कमजोरियाँ खोलकर उसका पूरा इतिहास बता दिया जाता है.इस समय इस संगठन का जनवाद देखने लायक होता है.चारों तरफ से हमले शुरू हो जाते हैं. कहा जाता है, तुम तो आउटसाइडर हो, पतित हो, कायर हो.
सवाल उठाने वाले कार्यकर्ता को इस तरह के विशेषणों से नवाज कर पूरे ग्रुप में उसे दुश्मन की तरह पेश किया जाता है. इसके बाद उस चैप्टर को बंद मान लिया जाता है. उसके बाद वे यह प्रचार करने से नहीं चूंकते कि वह तो संगठन के ज्ञान की पंजीरी से सफल हुआ है.
इस लेख से देहाती मजदूर किसान यूनियन के साथियों समेत बिगुल के संपादक,मुद्रक और प्रकाशक डॉक्टर दूधनाथ की सहमती.
यार यह तो अमानवीयता की हद है, अब तो वामपंथी संगठनों को और उनसे जुड़े बुद्धिजीवियों को इनसे सवाल करना चाहिए कि अब यह सामूहिक तौर पर जवाब दें.
ReplyDeleteकात्यायनी तथा उनके साथियों का ऐसा काम अभी तक साहित्यिक बिरादरी में अनदेखा रह गया है. जाने कैसे?
ReplyDeleteanurag
इसी बार के दिल्ली में लगे विश्व पुस्तक मेले में बंगाल के एक वामपंथी नेता ने शशि प्रकाश से पूछा कि आपके संगठन पर आरोप लगता रहा है कि आपलोग लोगों के घरों पर कब्ज़ा करते हैं, जमीन कब्जाते हैं और संपत्ति इकट्ठी करते हैं. इस पर शशि प्रकाश ने कहा 'हाँ कब्जाते हैं और बन्दूक की नोक पर कब्जाते हैं. जो ऐसा कह रहे थे उनसे कह देना जो चाहे वह कर लें.'- अपने को वामपंथी नेता कहने वाले शशि प्रकाश का फिल्म 'घोसला का खोसला' के विलेन के जैसे जवाब देना क्या जाहिर कर्ता है. आख़िरकार टक्कर लेने वाले सामने आ ही गए. शशि प्रकाश कहा गयी तुम्हारी बन्दूक अब तो निकल ले नहीं तो दुकान में मंदी आ जाएगी.
ReplyDelete'कात्यायनी जब गोरखपुर जाती हैं तो अनुराग बाल ट्रस्ट के बच्चों में यह माहौल बनाया जाता था कि बहुत बड़ी नेता आ रही हैं.मीट-मुर्गे का प्रबंध होता था'- बहुत अच्छा लेकिन जहाँ जाकर कात्यायिनी मुर्गा खाती हैं वहां जिस दलित महिला का घर कब्जाया है उसके बारे में कोई बताओ भाई. याद है कि उसने इनके ऊपर एससीएसटी के तहत मुक़दमा भी कराया था. आह्वान का दफ्तर उसी में अभी भी है या बदल गया. पहले दलितों के घर पर कब्ज़ा और अब दलितों को गाली, यह कैसी कवयित्री है.
ReplyDeleteप्रमोद, गोरखपुर
koi katyayini ka phone no. batao.main usase hisab magunga. uske sangathan valon ne hamse bahut paisa men vasula hai. jab vah pani pike lagatar do ghante bolati thi to mujhe bhi lagta tha kuch dikkat hai, ab samajh men aaya. uska no. bhejen to main khabar lun ki tumharee politics kya hai partner. janardan aapka likha padhakar mera dil bhar aaya, main aapke sath hun.
ReplyDeletedevendra singh
patna
कात्यायिनी जी,
ReplyDeleteअब बुद्धिजीवी और आपके भाषा में "भगोरो" को गाली देने से कोई फ़ायदा नहीं. जिस भाषा, शैली, पद्धति और राजनेतिक-संस्कृति का आपलोग आजतक निर्माण और प्रयोग करते रहे (अक्सर अपने "दुश्मनों" - और बिरादराना संगठनो के खिलाफ भी) आज आप लोग उसी का शिकार हो चुकें हैं. जनज्वार के ज्यादातर लोगों ने व्यक्तिगत "गाली" गलोज के सहारे बात करना तो आप लोगो से ही सिखा है! खेर , उनकी गालिओं के पीछे की दर्द को आप कभी समझ ही नहीं पाए. अगर हम आज तक गाली -गोलोज से भरपूर आपके पत्रिकाओं को पड़ते रहे (ये सोचकर की गालिओ के पीछे भी एक राजनेतिक आलोचना हो सकता है) - तो हम जनज्वार को भी पढ़ेंगे. और थोडा सा भी नेतिक साहस आप लोगो में अभी भी है तो इन साथियों द्वारा उठाये गए प्रश्नों का जवाब दे.
और कृपया करके लेनिन का "राजनेतिक लाइन का आलोचना" वाला ढोंग न रचे. आपने अपने पुरे करियर में जिस तरह से हर किसी संगठन को गाली दिया है - वह किसी लेनिनवादी सोच का परिचायक तो नहीं लगता. "एन. जी . ओ: एक भयंकर साम्राज्यवादी कुचक्र" वाले किताब में क्या आपने "पि. एस. यु" करके एक संगठन को भरपूर व्यक्तिगत गाली नहीं दिया है? क्या उसमे आप लोगो ने उस संगठन का कौन सा लीडर कौन सा एन. जी. ओ. में काम करता है -और किस तरह से वे परिवार वादी है, साम्राज्यवाद का दलाल है - ये सब चर्चा नहीं किया है (वो लेख मिनाक्षी की नाम से छपा था) ? अब देखना ये है की सत्यम के बारे में आपको क्या कहना है ? ये केसा नीति है "अपने लिए कुछ और मापदंड और दुसरो के लिए कुछ और"? लगता हे "गेर-लोकतान्त्रिक" इस समाज के एक पुरोधा "चाणक्य" से आप लोगो ने काफी कुछ सिखा है! (वेसे राजनेतिक आलोचना में आप लोग serious होते तो नीलाभ जी का पत्र का जरुर जवाब देते. वेसे देते भी तो केसे- पितृसत्ता के बारे में आपका कोई समझ होता तभी न!)
और "प्रोबोधन" की तो आप बात ही न करें तो बेहतर है. प्रोबोधन-आधुनिकता का आपलोगों का कितना समझ है वो तो आपके पितृसत्तात्मक मुहावोरो को पढने से ही पता लगता है (पेंट गीली हो जाना, बीवी से डरना, पेटीकोट-बाज, मौगा, सम्लेगिगता का विरोध...उसका मजाक बनाना...). इन पितृसत्तात्मक सोच और संस्कृति की विरोध तो "बुर्ज्जुआ नारीवादी " आज से चार दशक पहले ही कर चुकें हैं. और वो भी काफी सफल तरीके से - पच्छिम के देशो में. साम्यवादी होने के नाते आपको तो इनसे और आगे जाना चाहिए था. बुर्जुआ प्रोबोधन की मूल्यों को तो आप अभी हजम नहीं कर पाए; चले समाजवादी प्रोवोधन की बात करने. औकात तो देखो इनका. आपके ही पद्धति का प्रोयोग करे तो ऐसा लगता है- इस अहंकार के पीछे आपके दबंग जाती से belong करना - इसका जरुर कोई ताल्लुक है! ये पढके किस लगा- जरुर बताइयेगा!
अब कात्यायनी को इसका जवाब देना चाहिये…अगर स्मारिका वाली बात ग़लत है तो उसका खण्डन किया जाना चाहिये…वैसे यह उन संस्थानोंख़ के रिकार्ड में उपलब्ध होगा कि कितना विज्ञापन दिया गया? विज्ञापनों के ज़रिये हुई कमाई और सिर्फ़ पैसा कमाने के लिये छापे गये आह्वान के अंको की ख़बर अगर सच है तो यह धौंस-डपट से साहित्यिक बिरादरी को कट्रोल करने वाले इस गिरोह की कलई खोलने के लिये काफी होना चाहिये…उम्मीद की जानी चाहिये कि गाली-गलौज़ और धमकियों से ऊपर उठ कर यह कुनबा कोई ठोस जवाब देगा…
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