Jun 30, 2010

यह चमकता शहर किसका है?

हैनसन टीके

लगता है दिल्ली राष्ट्रमंडल खेलों के शुरू होने से पहले तक पूरे तौर पर बदल जायेगी। चौड़ी  होती सड़कें,  खूबसूरत नक्काशी के साथ तैयार हो रहे फुटपाथ और ट्रैफिक को रफ्तार देने के लिए एक के बाद एक बन रहे फ्लाईओवरों को देखकर तो यही लगता है। एक तरफ नये पार्कों का निर्माण शहर की चमक में चार चांद लगा रहे हैं, तो दूसरी ओर हवाई अड्डा, एक्सप्रेस-वे समेत पूरे शहर में मेट्रो रेल का जाल बिछ गया है। सड़कों पर चल रही सामान्य और एसी लो-फ्लोर बसें दिल्ली को बिल्कुल नया रूप दे रही हैं। कुल मिलाकर इस सबका मकसद दिल्ली को दुनिया के बेहतरीन शहरों में शुमार करना है।


तैयारियों के बरक्श देखें तो इसमें कोई संदेह नहीं कि दिल्ली जल्द ही दुनिया के बेहतरीन शहरों में शामिल हो जायेगी। होना लाजिमी भी है क्योंकि सरकार ने सालाना  बजट का बड़ा हिस्सा खेलों की तैयारियों में झोंक दिया है, मगर  सवाल यह है कि खेलों के खत्म होने के बाद इस वर्ल्ड क्लास सिटी में रहेगा कौन? वह कौन लोग होंगे जिन्हें यहां रहने की इजाजत मिलेगी और कौन होंगे जो इस महंगे होते शहर में गुजारा कर सकेंगे?

दिल्ली पहले से ही एक ऐसा मेट्रो शहर रहा है जहां आजीविका देश के बाकी शहरों के मुकाबले महंगी रही है। अब जरूरत के वस्तुओं की बढ़ती कीमतें, खासकर खाद्य पदार्थों के महंगे होते जाने से मध्यवर्गीय परिवारों तक की मुश्किलें बढ़ती जा रही हैं। महंगाई तो पूरे देश में बढ़ रही है, मगर दिल्लीवासियों को दूसरे राज्यों के मुकाबले सबसे ज्यादा महंगाई इसलिए भुगतनी पड़ रही है कि यहां सरकार के पास इस समस्या से निपटने के लिए कोई सुचारू कार्यपद्धति नहीं है और न ही कोई ऐसा तरीका है कि वह बाजार में मूल्य  को लेकर प्रभावी हस्तक्षेप कर सके। उदारहण के तौर पर देश के दक्षिणी राज्य केरल को लें, वहां जब अरहर दाल 35 रूपये प्रतिकिलो है तो दिल्ली में उसकी कीमत नब्बे से सौ रूपया किलो तक है। ऐसा तब है जबकि केरल खाद्य आपूर्ति के लिए पूर्णतया दूसरे राज्यों पर निर्भर है।

केरल सरकार ने सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिये दालों और खाद्यानों की कीमतों को नियंत्रित कर रखा है। वहीं दिल्ली सरकार ने कीमतों की बढ़ोत्तरी का कदम उठाते हुए पिछले वर्ष का जो बजट लागू किया उसमें ज्यादातर वस्तुओं का कर बढ़ा। जो वैट पहले 12.5 प्रतिशत था उसे बढ़ाकर 20 प्रतिशत कर दिया गया जिससे वस्तुओं की कीमतों में और इजाफा हो गया। जहां रसोई गैस से सब्सिडी हटा ली गयी, वहीं पहले से ही महंगी हो चुकी सीएनजी गैस को वैट के तहत कर देने से उपभोक्ताओं की मुश्किलें और बढ़ गयीं। हाल में बढ़े पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतें गवाह हैं कि मूल्य नियंत्रण सरकार के हाथों में नहीं है और यह बढ़ोत्तरी फिर एक बार आम आदमी की जेब पर डाका डालने को तैयार है।


पिछली बार सीएनजी गैस की कीमत बढ़ते ही दिल्ली की सरकारी बस सेवा ‘डीटीसी’ ने किराये में पचास प्रतिशत तक बढ़ोत्तरी की तो मेट्रो ने भी काफी किराया बढ़ा दिया। सरकार की निगाह में यह सबकुछ जायज रहा, क्योंकि होने वाले राष्ट्रमंडल खेलों के लिए जो ढांचागत विकास करना है उसका बजट लोगों पर अतिरिक्त अधिभार लगाकर ही संभव है। ऐसे में कहा जा सकता है कि राष्ट्रमंडल खेल आम आदमी की कीमत पर हो रहे हैं. 

अब सरकार की अगली तैयारी बिजली की कीमतों को बढ़ाने की है। हालांकि बिजली कीमतों में सरकार ने बढ़ोत्तरी  दिल्ली बिजली नियंत्रक आयोग के उस सुझाव के बाद रोक रखी थी जिसमें आयोग ने कहा था कि बिजली के निजीकरण के बाद से राज्य में बिजली वितरक कंपनियों को अतिरिक्त मुनाफा हो रहा है। बावजूद इसके सरकार का रवैया ढुलमुल है और वह हमेशा निजी कंपनियों के लाभ का ख्याल करती है, जबकि सरकार में बैठे जनप्रतिनिधियों की पहली जिम्मेदारी आम लोगों के हित की रक्षा होनी चाहिए, जिन्होंने उन्हें चुनकर कुर्सी पर बैठाया होता है। मगर यह उम्मीद बेमानी है। राज्य की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित पहले ही कह चुकी हैं कि ‘बिजली की बढ़ी कीमतों को दिल्लीवासी देने में सक्षम हैं।’ मुख्यमंत्री के संदेश से स्पष्ट है कि वह दिल्ली को दुनिया का ऐसा बेहतरीन शहर बनाना चाहती हैं जहां ऊँची कीमतों को अदा करने वाला अभिजात्य वर्ग रहे और गरीबों का सफाया हो जाये।

इस परिप्रेक्ष्य में मुख्यमंत्री शीला दीक्षित और पूर्व मेयर के उस सार्वजनिक बयान पर भी गौर किया जाना चाहिए, जिसमें उन्होंने कहा था कि जनजीवन के बेहतर हालात बनाये रखने में दिल्ली में बढ़ते अप्रवासी सबसे बड़ी मुश्किल हैं। बयान देते हुए ये नेता भूल गये कि गरीबी और पिछड़े इलाकों से पलायन भी इन्हीं नेताओं की देन है। यह उस ऊटपटांग विकास का नतीजा है जिसके तहत कुछ क्षेत्र तो बहुत विकसित हुए और बाकी बड़े हिस्से को हाशिये पर धकेल दिया गया। जाहिरा तौर पर यह सब वर्गों के बीच वैमनस्यता फैलाने वाले संकुचित राजनीतिक स्वार्थों का ही नतीजा है।
मुंबई में राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे), शिवसेना जैसी पार्टियों ने अप्रवासियों के खिलाफ राजनीतिक विषवमन ही तो किया है। साठ के दशक में जहां मूल और अप्रवासी की मार दक्षिण भारतीयों पर पड़ी, वहीं इस समय मुंबई में बिहार और उत्तर प्रदेश के लोगों को अप्रवासी होने का दंश झेलना पड़ रहा है। मगर कभी ऐसा नहीं हुआ कि राष्ट्रीय पार्टी कही जाने वाली कांग्रेस या भाजपा ने मनसे या शिवसेना के खिलाफ कोई स्पष्ट राय रखी हो। जबकि गरीबों, खासकर अप्रवासी मजदूरों को लूटने के एक-से- एक नायाब तरीके अपनाये जा रहे हैं।


कम आमदनी और अधिक भुगतान से त्रस्त अप्रवासियों की स्थिति यह है कि उनके पास सिर छुपाने के लिए अपनी छत्त तक नहीं है। पिछले दिनों ऑटो भाड़े में हुई बढ़ोत्तरी से भले ही ऑटोचालकों की जिंदगी सुधरती  नज़र आ रही है, मगर सवाल है कि वे बहुतेरे लोग जो कि इस बढ़ी कीमत को दे पाने में अक्षम हैं, क्या ऑटो  की सवारी बंद नहीं कर देंगे?  उनके ऑटो में सवारी बंद करने की स्थिति में ऑटो चालकों के लगभग एक लाख परिवारों की आर्थिकी पर क्या इसका सीधा असर नहीं पड़ेगा? दूसरी तरफ रहने की जगहों के बढ़ते किराये की वजह से लोगों का जीना दूभर होता जा रहा है। दिल्ली की एक बड़ी आबादी जो कि किरायेदार है, उसके लिए ऐसे हालात पैदा किये जा रहे हैं कि उसके लिए यहां गुजारा करना असंभव हो जाये और वे वहीं रवाना हो जायें जहां से आये थे। यानी गरीबों के सफाये के बाद जो ‘बेहतरीन शहर’ बनेगा, उसमें सिर्फ पैसा अदा करने वाले  बेहतरीन लोग (धनवान) ही रहेंगे।

Jun 26, 2010

इस सर्वे पर संदेह करें


अजय प्रकाश

दिल्ली स्थित सर्वे कंपनी ‘मार्केटिंग एंड डेवेलपमेंट रिसर्च एसोशिएट्स’(एमडीआरए)मौलवियों और मुस्लिम युवा धार्मिक नेताओं से एक सर्वे कर रही है.सर्वे कंपनी ने पूछने के लिए जो सवाल तय किये हैं उनमें से बहुतेरे आपत्तिजनक, खतरनाक और षडयंत्रकारी हैं.सवालों की प्रकृति और क्रम जाहिर करता है कि सर्वे  कंपनी के पीछे जो ताकत लगी है उसने मुस्लिम धार्मिक नेताओं की राय पहले खुद ही तय कर ली है और मकसद देश में सांप्रदायिक भावना को और तीखा करना है. नमूने के तौर पर तीन सवालों का क्रम देखिये-

1. क्या आप सोचते हैं कि पाकिस्तानी आतंकवादी आमिर अजमल कसाब को फांसी देना उचित था या कुछ ज्यादा ही कठोर है?

2. क्या आप और आपके दोस्त सोचते हैं कि मुंबई केस में कसाब को स्पष्ट सुनवाई मिली है या यह पक्षपातपूर्ण था?

3. क्या आप सोचते हैं कि मुंबई आतंकवाद के लिए कसाब की फांसी की सजा पर दुबारा से सुनवाई करके आजीवन कारावास में बदल दिया जाये, वापस पाकिस्तान भेज दिया जाये या फांसी की सजा को बरकरार रखना चाहिए?

एमडीआरए सर्वे कंपनी द्वारा पुछवाये जा रहे इन नमूना सवालों पर गौर करें तो चिंता और कोफ्त दोनों होती है. साथ ही देश के खुफिया विभाग की मुस्तैदी पर भी सवाल उठता है कि आखिर वह कहां है जब समाज में एक नये ढंग के विष फैलाने की तैयारी एक निजी कंपनी कर रही है?

कसाब का  प्रश्न इसी पेज पर है.
इन सवालों पर कोई मौलवी या मुस्लिम धर्मगुरु जवाब दे इससे ज्यादा जरूरी है कि सर्वे करने वालों से पूछा जाये कि कसाब से संबंधित प्रश्न आखिर क्यों किया जा रहा है, जबकि मुंबई की एक अदालत ने इस मामले में स्पष्ट फांसी का फैसला अभियुक्त को सुना दिया.तो फिर क्या कंपनी को संदेह है कि धार्मिक नेता अदालत के फैसले के कुछ उलट जवाब देंगे? अगर नहीं तो इन्हीं को इन सवालों के लिए विशेष तौर पर क्यों चुना गया? वहीं कंपनी के मालिकान क्या इस बात से अनभिज्ञ हैं कि एक स्तर पर कोर्ट की यह अवमानना भी है.

दूसरी महत्वपूर्ण बात और इस मामले को प्रकाश में लाने वाले दिल्ली स्थित भारतीय मुस्लिम सांस्कृतिक केंद्र के प्रवक्ता वदूद साजिद बताते हैं-‘कसाब एक आतंकी है जो हमारे मुल्क में दहशतगर्दी का नुमांइदा है.दूसरा वह हमारा कोई रिश्तेदार तो लगता नहीं. रिश्तेदार होने पर किसी की सहानुभूति हो सकती है, मगर एक विदेशी के मामले में ऐसे सवाल वह भी सिर्फ मुस्लिम धार्मिक गुरूओं से, संदेह को गहरा करता है.’

सर्वे कंपनी की नियत पर संदेह को लेकर हम अपनी तरफ से कुछ और कहें उससे पहले उनके द्वारा पूछे जाने वाले महत्वपूर्ण सवाल यहां चस्पा कर देना ठीक समझते हैं जो देशभर के मुस्लिम धार्मिक गुरूओं और मुस्लिम युवा धार्मिक नेताओं से पूछे जाने हैं.सवालों की सूची इसलिए भी जरूरी है कि खुली बहस में आसानी हो,इस चिंता में आपकी भागीदारी हो सके और ऐसे होने वाले हर धार्मिक-सामाजिक षड्यंत्र के खिलाफ हम ताकत के साथ खड़े हो सकें.

बस इन प्रश्नों के साथ कुछ टिप्पणियों की इजाजत चाहेंगे जिससे हमें संदर्भ को समझने में आसानी हो. ध्यान रहे कि सर्वे टीम ने ज्यादातर प्रश्नों के जवाब के विकल्प हां, ना, नहीं कह सकते और नहीं जानते की शैली में सुझाया है.
प्रश्न इस प्रकार से हैं-

1. न्यायमूर्ति राजेंद्र सच्चर कमेटी रिपोर्ट के बारे में आपकी क्या राय है? क्या यह मुसलमानों की मदद कर रही है या नुकसान कर रही है?
टिप्पणी- जब लागू ही नहीं हुई तो मदद या नुकसान कैसे करेगी. सवाल यह बनता था कि लागू क्यों नहीं हो रही है?

2. आपके समुदाय में धार्मिक नेताओं के प्रशंसक घट रहे हैं, पहले जैसे ही हैं या पहले से बेहतर हैं?
टिप्पणी- धार्मिक गुरु इसी की रोटी खाता है इसलिए कम तो आंकेगा नहीं.बढ़ाकर आंका तो खुफिया और मीडिया के एक तबके की मान्यता को बल मिलेगा जो यह मानते हैं कि मुस्लिम समाज धार्मिक दायरे से ही संचालित होता है. ऐसे में  पुरातनपंथी, धार्मिक कट्टर और अपने में डूबे रहने वाले हैं, कहना और आसान हो जायेगा और  मुल्क के मुकाबले धर्म वहां सर्वोपरि है, का फ़तवा देने में भी आसानी होगी. 

3. आपकी राय में आज मुस्लिम युवा धर्म तथा धर्म गुरुओं से प्रेरित होते हैं या बाजारी ताकतें जिसमें इंटरनेट और टीवी शामिल हैं, प्रभावित कर रहे हैं?
टिप्पणी-यह भी उनके रोटी से जुड़ा सवाल है. दूसरा कि इसका जवाब सर्वे कंपनी के पास होना चाहिए, धार्मिक गुरूओं के पास ऐसे सर्वे का कोई ढांचा नहीं होता.

4. पूरे देश और देश से बाहर मुस्लिम नेताओं से संपर्क के लिए आप इंटरनेट का इस्तेमाल ज्यादा कर रहे हैं या नहीं?
टिप्पणी-कई बम विस्फोटों में जो मुस्लिम पकड़े गये हैं उन पर यह आरोप है कि वे विदेशी आकाओं से इंटरनेट के जरिये संपर्क करते थे। ऐसे में इस सवाल का क्या मायने हो सकता है?

4ए. आपकी राय में समुदाय सामाजिक मामलों में राजनीतिक  नेताओं से ज्यादा प्रभावित है या धार्मिक नेताओं से?
टिप्पणी- इस  प्रश्न का  बेहतर जवाब जनता  दे सकती है.

5. आपकी राय में हिंसा, गैर कानूनी गतिविधियां और आतंकवादी गतिविधियां क्यों बढ़ रही हैं, इस प्रवृति को क्यों बढ़ावा मिल रहा है?

टिप्पणी- सभी जानते हैं कि यह सरकारी नीतियों की देन है, लेकिन मुस्लिम धार्मिक नेता इस बात को जैसे ही बोलेगा तो वैमनस्य की ताकतें ओसामा से लेकर हूजी के नेटवर्क से उसे कैसे जोड़ेंगी? यह तथ्य हम सभी को पिछले अनुभवों से बखूबी पता है.

सच्चर कमेटी रिपोर्ट लागु होने से पहले ही सवाल
 6. क्या आप सोचते हैं कि युवा मुस्लिम को राजनीति में ज्यादा भाग लेना चाहिए या धर्म के प्रचार में सक्रिय रहना चाहिए या दोनों में?
टिप्पणी- यह भी रोटी से जुड़ा सवाल है इसलिए जवाब सर्वे कंपनी को भी पता है और मकसद सबको.

 7. मुस्लिम युवाओं की नकारात्मक छवि हर तरफ क्यों फैल रही है. इसके लिए कौन और कौन सी बातें जिम्मेदार हैं, क्या आप कुछ ऐसी बातें बता सकते हैं?
टिप्पणी- इसका सर्वे कब हुआ है कि मुस्लिम युवाओं की छवि नकारात्मक है.दूसरे बात यह कि अगर सवालकर्ता यह मान चुका है कि छवि नकारात्मक है तो उससे बेहतर जवाब और कौन दे सकता है.

8. कुछ के अनुसार न्यूज मीडिया और विदेशी एजेंसी शिक्षित युवा मुस्लिम को गैर कानूनी गतिविधियों के लिए भर्ती कर रही हैं, क्या इस पर आप विश्वास करते हैं या इस तरह की घटना आपको पता है?

9. क्या इस तरह की गतिविधियां हर तरफ हैं?

टिप्पणी- सर्वेधारी को यह सवाल पहले उन ‘कुछ’ से पूछना चाहिए जिसकी जानकारी सर्वे करने वालों के पास पहले से है. उसके बाद मौलवी के पास समय गंवाने की बजाय सीधे खुफिया आधिकारियों को जानकारी मुहैय्या कराना चाहिए जो करोड़ों खर्च करने के बाद भी मकसद में सफल नहीं हो पा रहे हैं.

10. क्या आप देवबंद द्वारा हाल ही जारी फतवे का समर्थन करते हैं जिसमें उन्होंने मुस्लिम महिलाओं का पुरुषों के साथ काम करने का विरोध किया था,या आप इसे मुस्लिम समाज के विकास में नुकसानदेह मानते हैं?
टिप्पणी -सवाल ही झूठा है, क्योंकि देश जानता है देवबंद ने ऐसे किसी बयान से इनकार किया है.

11. भारत 21 मई के दिन आतंकवाद के खिलाफ (आतंकवादी निरोधी दिन) मनाता है. आपकी राय में इसको मनाने का क्या कारण है?
टिप्पणी- फर्ज करें अगर जवाब यह हुआ कि इससे देश की सुरक्षा होगी, तब तो सुभान अल्लाह. अन्यथा इसके अलावा मौलवी जो भी जवाब देगा जैसे यह खानापूर्ति है, इससे कुछ नहीं होता आदि,तो उसकी व्याख्या कैसी होगी इसको जानने के लिए जवाब की नहीं,बल्कि मुल्क में मुसलमानों ने ऐसे भ्रम फैलाने वालों के नाते जो भुगता है उस पर एक बार निगाह डालने की दरकार है.

12. क्या आप सोचते हैं कि बिना सबूत के भारत में मुसलमानों को हिंसा और आतंक के लिए जिम्मेदार ठहराया जाता है?
टिप्पणी- पिछले वर्षों से लेकर अब तक आतंक के नाम पर जो गिरफ्तारियां हुई हैं और उसके बाद आरोपितों में कुछ बाइज्जत छूटते रहे हैं उस आधार पर तो यह कहा जा सकता है, मगर इस कहने के साथ जो दूसरा जवाब जुड़ता है वह यह कि सरकार यानी संविधान की कार्यवाहियों पर मुस्लिम धर्मगुरुओं का विश्वास नहीं है. ऐसे में यह परिणाम तपाक से निकाला जा सकता है कि जब गुरुओं का विश्वास नहीं है तो समुदाय क्यों करे, जबकि समुदाय तो मौलवियों की ही बातों को तवज्जो देता है.

13. क्या आप कुछ लोगों के विचार से सहमत हैं कि वैश्विकी जिहाद का भारत में कोई स्थान नहीं है या आपके विचार इससे भिन्न हैं?

14. कुछ लोगों का कहना है कि आइएसआइ (पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी) जैसी एजेंसी हाल में युवाओं को भारत में आतंकवादी गतिविधियों के लिए भर्ती कर रही है, क्या आप इस बात से सहमत हैं?

टिप्पणी- अब तो हद हो गयी. सवाल पढ़कर लगता है कि एमडीआरए एक सर्वे कंपनी की बजाय सांप्रदायिक मुहिम का हिस्सा है. एमडीआरए वालो वो जो ‘कुछ’ मुखबीर तुम्हारे जानने वाले हैं उनसे मिली जानकारी को गृह मंत्रालय से साझा क्यों नहीं करते कि देश आइएसआइ के आतंकी चंगुल से चैन की सांस ले सके.और अगर जानकारी के बावजूद (जैसा कि सर्वे के सवालों से जाहिर है) नहीं बताते हो तो, देश आइएसआइ से बड़ा आतंकी तुम्हारी कंपनी को मानता है, जो सरकार को सुझाव देने की बजाय मौलवियों से सवाल कर देश की सुरक्षा को खतरे में डाल रहे हैं.


भरे तो फंसे
बहरहाल इन प्रश्नों के अलावा दस और सवाल जो सर्वे कंपनी ने मौलवियों और मुस्लिम युवा धार्मिक नेताओं से पूछे हैं,उन प्रश्नों की सूची देखने के लिए आप रिपोर्ट के साथ चस्पां की तस्वीरों को देख सकते हैं.

अब जरा एमडीआरए के सर्वे इतिहास पर नजर डालें तो इसकी वेबसाइट देखकर पता चलता है कि यह कंपनी मूलतः बाजारू मसलों पर सर्वे का काम करती है जिसके कई सर्वे अंग्रेजी पत्रिका ‘आउटलुक’में प्रकाशित हुए हैं. कंपनी के बाकी सर्वे के सच-झूठ में जाना एक लंबा काम है,इसलिए फिलहाल मोहरे के तौर पर अलग तेलंगाना राज्य की मांग, महिला आरक्षण पर मुस्लिम महिलाओं की राय और नक्सलवाद के मसले पर एमडीआरए के सर्वे को देखते हैं जो आउटलुक अंग्रेजी पत्रिका में प्रकाशित हुए हैं.

पत्रिका के जिस मार्च अंक में अरूंधति राय का दंतेवाड़ा से लौटने के बाद लिखा लेख  छपा है उसी में महिला आरक्षण को लेकर मुस्लिम महिलाओं की राय छपी है.पत्रिका और एमडीआरए के संयुक्त सर्वे ने दावा किया है कि 68 फीसदी मुस्लिम महिलाएं महिला आरक्षण के पक्ष में हैं. कई रंगों और बड़े अक्षरों में सजे इस प्रतिशत से जब हम हकीकत में उतरते हैं तो कहीं एक तरफ प्रतिशत के अक्षरों के मुकाबले बड़ी हीन स्थिति में सच पड़ा होता है। पता चलता है कि इस विशाल प्रतिशत का खेल मात्र ५१८ महानगरीय महिलाओं के बीच दो दिन में खेला गया है जो महिला मुस्लिम आबादी का हजारवां हिस्सा भी नहीं है.

सर्वे खेल का दूसरा मामला नक्सलवाद को लेकर है जो इसी पत्रिका में प्रकाशित हुआ है.लंबी दूरी की एक ट्रेन, एक समय में जितनी आबादी लेकर चलती है उससे लगभग एक चौथाई यानी ५१९ लोगों से राय लेकर पत्रिका और एमडीआरए ने दावा किया कि प्रधानमंत्री की राय यानी ‘नक्सलवाद आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा है’,पर अस्सी फीसदी से ज्यादा लोग सहमत हैं.यानी बेकारी,महंगाई और बुनियादी सुविधाओं से महरूम जनता के लिए माओवाद ही सबसे बड़ा खतरा है.

तीसरा उदाहरण अलग तेलंगाना राज्य की मांग का है. तेलंगाना राज्य की मांग के सर्वे के लिए कंपनी ने हैदराबाद शहर को चुना है जिसमें छः सौ से अधिक लोगों को सर्वे में शामिल किया गया है.पहली बात तो यह है कि सर्वे में तेलंगाना क्षेत्र में आने वाले किसी एक जिले को क्यों नहीं शामिल किया गया? दूसरी बात यह कि करोंड़ों की मांग  को समझने के लिए कुछ सौ से जानकारी के आधार पर करोड़ों की राय कैसे बतायी जा सकती है, आखिर यह कौन सा लोकतंत्र है?

बहरहाल,अभी मौजूं सवाल सर्वे कंपनी एमडीआरए से ये है कि  मौलवियों और युवा धार्मिक नेताओं के हो रहे इस षड्यंत्रकारी सर्वे का असली मकसद क्या है?


कंपनी के शातिरी के खिलाफ निम्न पते, ईमेल, फ़ोन पर विरोध दर्ज कराएँ.

Corporate Office:

MDRA, 34-B, Community Centre, Saket, New Delhi-110 017
Phone +91-11-26522244/55; Fax: +91-11-26968282
Email: info@mdraonline.com



Jun 22, 2010

'फ्लेम्सम ऑफ दी स्नो' के प्रदर्शन पर रोक


युद्धरत आम आदमी के संघर्षोंपरकेन्द्रित  नेपाली समाजके बदलाव की कहानी कहती फिल्म  ''फ्लेम्स ऑफ दि स्नो'' के सार्वजनिक प्रदर्शन पर सेंसर बोर्ड ने रोक लगा दी है. फिल्म को प्रमाणपत्र देने से इनकार कर सेंसर बोर्ड ने कहा है,'फिल्म माओवाद का प्रचार करती है.'

फिल्म के निर्माता एएस वर्मा

नेपाली  जनांदोलन को केंद्र में रखकर बनी फिल्म 'फ्लेम्सम ऑफ दी स्नो'के दर्शकों को जिस बात का संदेह था आख़िरकार भारत सरकार ने फिल्म के सार्वजानिक प्रदर्शन पर रोक लगा उसको पुष्ट ही किया है.   सेंसर बोर्ड का मानना है कि 'यह फिल्म नेपाल के माओवादी आंदोलन की जानकारी देती है और उसकी विचारधारा को न्यायोचित ठहराती है।'बोर्ड की राय में हाल के दिनों में देश के कुछ हिस्सों में फैली माओवादी हिंसा को देखते हुए इस फिल्म के सार्वजनिक प्रदर्शन की अनुमति नहीं दी जा सकती.

'ग्रिन्सो' और 'थर्ड वर्ल्ड मीडिया'के बैनर तले बनी  इस 125 मिनट की फिल्म के निर्माता ,पटकथा लेखक - पत्रकार आनंद स्वरूप वर्मा नेबोर्ड के फैसले पर हैरानी प्रकट करते हुए कहा कि फिल्म में भारत में चल रहे माओवादी आंदोलन का जिक्र तक नहीं है। इसमें बस निरंकुश राजतंत्र और राणाशाही के खिलाफ नेपाली जनता के संघर्ष को दिखाया गया है। 1770 ई. में पृथ्वी नारायण शाह द्वारा नेपाल राज्य की स्थापना के साथ राजतंत्र की शुरुआत हुई जिसकी समाप्ति 2008में गणराज्य की घोषणा के साथ हुई। इन 238 वर्षों के दौरान 105 वर्ष तक राणाशाही का भी दौर था जिसे नेपाल के इतिहास के एक काले अध्याय के रूप में याद किया जाता है।

फिल्म के निर्देशक आशीष श्रीवास्तव ने कहा कि फिल्म में दिखाया गया है कि किस प्रकार १८७६ में गोरखा जिले के एक युवक लखन थापा ने राणाशाही के अत्याचारों के खिलाफ किसानों को संगठित किया जिसे राणा शासकों ने मृत्युदंड दिया। लखन थापा को नेपाल के प्रथम शहीद के रूप में याद किया जाता है। निरंकुश तानाशाही व्यवस्था के खिलाफ 'प्रजा परिषद'और 'नेपाली कांग्रेस' के नेतृत्व में चले आंदोलनों का जिक्र करते हुए फिल्म माओवादियों के नेतृत्व में 10वर्षों तक ले सशस्त्र संघर्ष पर केंद्रित होती है और बताती है कि किस प्रकार इसने ग्रामीण क्षेत्रों में सामंतवाद की जड़ों पर प्रहार करते हुए शहरी क्षेत्रों में जन आंदोलन के जरिए जनता को जागृत किया।

फिल्म राजतंत्र की स्थापना से शुरू हो कर,संविधान सभा के चुनाव,चुनाव में माओवादियों के सबसे बड़ी पार्टी के रूप में स्थापित होने,राजतंत्र के अवसान और गणराज्य की घोषणा के साथ समाप्त होती है। सेंसर बोर्ड की आपत्ति को ध्यान में रखें तो ऐसा लगता है कि भारत,नेपाल पर कोई राजनीतिक फिल्म बनाने की यह अनुमति नहीं देगा।कारण कि आज माओवादियों की प्रमुख भूमिका को रेखांकित किए बिना नेपाल पर कोई राजनीतिक फिल्म बनाना संभव ही नहीं है।

नेपाल में माओवादी पार्टी की मई 2009तक सरकार थी और इस पार्टी के अध्यक्ष पुष्प कमल दहाल उर्फ प्रचंड प्रधनमंत्री की हैसियत से भारत सरकार के निमंत्रण पर भारत की यात्रा पर आए थे। नेपाल की मौजूदा संविधान सभा में माओवादी पार्टी सबसे बड़ी पार्टी है और प्रमुख विपक्षी दल है।

सेंसर बोर्ड के इस रवैये के खिलाफ फिल्म के निर्माता आनंद स्वरुप वर्मा  अब  फिल्म को बोर्ड की पुनरीक्षण समिति के सामने विचारार्थ प्रस्तुत करने जा रहे हैं.

Jun 20, 2010

गुरिल्ला जीवन के चौबीस घंटे

दण्डकारण्य के जंगलों में माओवादी पार्टी के सैनिक जिन्हें लाल सेना या जन सेना कहते हैं, उनके चौबीस घंटे पर  अजय प्रकाश की रिपोर्ट

अगर मोर्चे पर डटे रहने की चुनौती न हो तो गुरिल्ला दस्ता आमतौर पर रात के ग्यारह बजे तक सो जाता है। सोने से ठीक पहले प्लाटून (गुरिल्लों का समूह)के चारो ओर कमांडर,प्रहरियों की तैनाती करता है। चिड़ियों की चहचहाहट के साथ मुंह अंधेरे किसी एक साथी की जिम्मेदारी होती है कि वह सीटी बजाकर सभी को जगा देगा।


एक लम्बी लड़ाई :  रोटी और संघर्ष दोनों का है.                 फोटो - अजय प्रकाश
गुरिल्लों में सैन्य चुस्ती सुबह देखने को मिलती है। उठने के आधे घंटे के भीतर प्लाटून के सभी सैनिक नित्यकर्म से निवृत्त होकर परेड ग्राउंड में एक तरफ खड़े होने लगते हैं। परेड ग्राउंड आमतौर पर कोई पक्की बनायी जगह नहीं होती, बल्कि वह सुबह के समय ही थोड़ी साफ-सुथरा किया हुआ समतल मैदान होता है। बीमार होने की स्थिति को छोड़ दें तो सामान्य स्थिति में हर महिला-पुरूष सैनिक को कम से कम डेढ़ घंटा व्यायाम करना आवश्यक होता है।

सात बजे तक व्यायाम खत्म होने के साथ ही नाश्ता तैयार रहता है। नाश्ता तैयार करने की जिम्मेदारी उन्हीं में से दो-तीन गुरिल्लों की होती है। नाश्ते में पोहा या रोटी-सब्जी में से कोई एक चीज ही आमतौर पर मिलती है। बातचीत में गुरिल्लों ने हंसते हुए बताया चाय तो कभी-कभार ही मिल पाती है, वह भी लाल।

इतना सब होते साढ़े सात बज चुके होते हैं और अब गुरिल्लों का तीन-तीन,चार-चार का समूह बना लिया जाता है।यह समूह पढ़ने-लिखने वालों का होता है। महिला दलम बद्री कहती है कि ‘हमने पढ़ना-लिखना पार्टी में आकर ही सीखा है। हम साथियों में से जो थोड़ी-बहुत हिंदी पढ़ना-लिखना जाता है वह अपने निरक्षर साथियों को पढ़ाता है। वैसे तो गांवों में पार्टी पांचवी तक की शिक्षा देती है,मगर गुरिल्ला दस्तों में इस तरह की कोई पाबंदी नहीं है।’

दिन के दस बजने के साथ ही प्लाटून में गुरिल्ले कागज-कलम समेटने लगते हैं। इस बीच तीन-चार लोग पानी लेने जाते हैं और कुछ दलम खाना बनाना के लिए लकड़ी फाड़ने और समेटने में जुट जाते हैं। उन्हीं में से एक को बगल के गांव से आग ले आने के लिए भेजा जाता है। इन गुरिल्लों के काम में तेजी और सामूहिकता इतनी कमाल की होती है कि ग्यारह बजे तक खाना खाकर दस्ते गांवों की ओर चल पड़ते हैं। कमांडर बताता है कि कोशिश यह होती है कि कभी भी कोई गुरिल्ला कहीं अकेला न जाये। यह सावधानी इसलिए बरतनी पड़ती है क्योंकि दुश्मन के हमले की स्थिति में दूसरा गुरिल्ला बाकी साथियों तक खबर ले जाये।

इस क्षेत्र में आदिवासिओं ने खेती के नए तरीके सीखे  हैं        
गांवों की ओर बढ़ने से पहले हर दलम सुनिश्चित करता है कि उसके पास एक बंदूक, चाकू, घड़ी, किट और बरसाती है। बंदूक कंधे पर, चाकू बगल की जेब में,किट पीठ पर और बरसाती पीछे की जेब में हर वक्त मौजूद होती है। एक्का नाम के दलम ने बताया कि ‘किट में मलेरिया की दवा, एक बिस्कुट का पैकेट, पार्टी साहित्य, एक टार्च, माचिस, कलम-कापी और फस्र्टएड बॉक्स जरूर होता है।हां घड़ी हर आदमी के हाथ में नहीं  होती मगर टीम में एक के पास होती है। दूसरी बात ये कि रात में ठहरने के लिए जब प्लाटून रूकता है तो तब एक-दो रेडियों समाचार सुनने के लिए रखना आवश्यक होता है।’

अब क्षेत्र में रवाना होने को तैयार दलम टीम के हर सदस्य का पहला काम किट से कॉपी निकाल उन गांवों का नाम देखना होता है जहां पहले से मीटिंगें तय होती हैं। एक दलम जो अपना परिचय पार्टी स्क्वायड के तौर पर देता है,वह कहता है,‘हमारा काम सिर्फ गांवों में जाकर भाषण देना या बैठक करना नहीं होता बल्कि वहां चल रहे सुधार कार्यक्रमों में भी भागीदारी करना पार्टी नियमों में एक है।’

गांवों की बसावट को देखें तो यहां गांवों के बीच दूरियां आम मैदानी इलाकों के मुकाबले बहुत ज्यादा होती हैं। दूरी का अंदाजा लगाने के लिए कोई किलोमीटर तो नहीं होता मगर एक गांव से दूसरे में पहुंचने में कई बार तीन से चार घंटे तक लग जाते हैं। इसलिए माओवादी पार्टी के लड़ाकू दस्ते यानी दलम टीमें शाम होने तक दो-तीन गांवों का ही दौरा कर पाती हैं।

 दलम नाट्य टीम: जागरूकता अभियान पर.     फोटो अजय प्रकाश
गांवो में कम समय दे पाने के बावजूद प्रचारतंत्र का इतना विशाल कार्यभार वे कैसे पूरा करते हैं इस बारे में एक गुरिल्ला बताता है कि ‘हममें से कोई बाहरी नहीं है और हम सभी गोंड हैं। इस कारण आदिवासियों में जल्दी घुल-मिल जाते हैं।’गुरिल्ला आगे बताता है कि ‘यहां जनता को संगठित करना भारत के दूसरे गंवई इलाकों से ज्यादा चुनौतीपूर्ण है। जैसे अगर गांव के सरपंच ने हमारे विकास और सुधार की राजनीति को अस्वीकार कर दिया तो गांव का एक भी आदमी पार्टी के साथ खड़ा नहीं होगा। कई बार यह होता भी है। कारण कि अधिकतर गांवों के सरपंच ग्रामीणों का शोषण करते हैं और वे नहीं चाहते हैं कि गांव के लोग उनके चंगुल से मुक्त हों।’गुरिल्ला लक्का बताता है कि ‘ऐसे गांवों में पहले हम जनता के बीच सामाजिक-सांस्कृतिक गतिविधियों से पैठ करते हैं और फिर जनता के साथ खड़े हो सरपंच की शक्ति को छीनकर जनता के हवाले कर देते हैं।’

सन्देश पढ़ता कमांडर.     फ़ो- अजय प्रकाश
दिन भर जन कार्रवाइयों के बाद गुरिल्ले फिर एक बार गांव से दूर अपना कैंप पिछली रात जैसे ही दो जगह लगाना शुरू करते हैं। एक कैंप महिला दलमों के लिए लगता है और दूसरा पूरूषों के लिए। बरसाती की ही छत और बरसाती का ही बीस्तर लगाने बाद फिर सुबह की ही तरह शाम का व्यायाम होता है। व्यायाम खत्म कर गुरिल्ले फिर एक बार सात से नौ बजे तक पढ़ने बैठ जाते हैं। मगर इस वक्त वे सुबह की तरह पढ़ना-लिखना सिखने की बजाय माक्र्सवाद की शिक्षा लेते हैं और देश-दुनिया में चल रही हालिया हलचलों पर बहस-मुबाहिसा करते हैं। इसके बाद दिनभर की मीटिंगों की समीक्षा और कल की योजनाओं पर बातचीत भी होती है।

इस बीच कुछ लोग अपने फटे कपड़ों की सिलाई करते हैं तो कोई बीमार दवा लेकर आराम कर रहा होता है। गुरिल्ला टीमों के मुखिया अपने एरिया कमांडर को दिनभर की रिपोर्टिंग करते हैं तो कोई कमांडर के आदेश पर दूसरी प्लाटून के पास चिट्ठी ले जाने की जिम्मेदारी निभाता है। इतने में रात के खाने की सीटी बजती है और सभी महिला-पुरुष गुरिल्ले अपनी-अपनी थाली या दोने (पत्तों के) लेकर खुले मैदान में खाना शुरू कर देते हैं। खाने का वक्त सुख-दुख बतियाने का कितना होता है यह तो पता नहीं चल पाया, लेकिन यह वक्त देश और दुनियाभर में घट रही घटनाओं पर चर्चा का पूरा सत्र होता है। गुरिल्ले अंतिम समाचार साढ़े दस बजे बीबीसी पर सुनते हैं, जिस पर बातचीत वह सुबह के नाश्ते के दौरान करते हैं।

जिस कैंप में हमलोगों ने दलम सदस्यों यानी लाल सेना के साथ रात गुजारी उस दिन का विषय लेबनान,सीरिया और इजरायल के बीच जारी संघर्ष था और बहस इस बात पर हो रही थी कि यह संघर्ष किस तरह से नये धु्रवीकरण बना सकता है। बहस खत्म होती उससे पहले सीटी बजी और सभी गुरिल्ले एक पंक्ति में खड़े हो अपनी-अपनी जिम्मेदारियों को कमांडर से समझने में लग गये।


(द संडे पोस्ट से साभार)

Jun 16, 2010

जनता के बीच अदालत


अजय प्रकाश

यहां न कोई जज है,न मुंशी और न ही पेशकार। किसी के हाथ में हथकड़ी भी नहीं लगी है फिर भी यह अदालत है, एक जनअदालत।

दूर तक फैले जंगलों के बीच पेड़ों की छांव के नीचे सैकड़ों लोग इकट्ठा हुए तो लगा कि कोई जनसभा है। तभी किसी ने बताया कि यह जनसभा की भीड़ नहीं है बल्कि आदिवासी लोग जनअदालत में आये हैं जहां अपनी शिकायतों, आरोपों-प्रत्यारोपों की सफाई देंगे और समस्याएं सुलझायेंगे।

कोई अच्छे से लिखे या बुरे से मगर मानते सब हैं कि सरकार के समनांतर दण्डकारण्य के विशाल क्षेत्र में माओवादी सरकार चलाते हैं। जब उनकी सरकार है तो जाहिरा तौर पर अदालत भी होगी। जिस तरह सरकार की सेना से अपने को अलग करने के लिए वे जन सेना लिखते हैं वैसे ही उनकी अदालतें जन अदालतों के नाम से जानी जाती हैं।

एक  अदालत जन के बीच :  दूरियां कम हैं                             फोटो: अजय प्रकाश
संयोग से हमें भी दण्डकारण्य यात्रा के दौरान एक जनअदालत को देखने का मौका मिला। जहां जनअदालत लगी थी वह जगह कौन सी थी, यह तो याद नहीं मगर पता चला कि सावनार और मनकेली गांव के दो मामले इस जनअदालत में निपटाये जाने हैं। लोगों का लगातार आना जारी था और इस क्षेत्र से अनभिज्ञ हम ‘ाहरी मानुषों का सवाल भी उसी रफ्तार से जारी था। जो भी थोड़ी-बहुत हिंदी जानता उससे हमलोग पूछताछ शुरू कर देते। पांचवीं तक पढ़ा शुकलू जो कि अब जनमीलिशिया सदस्य है,ने बताया कि ‘गांव के लोगों को खुली छूट होती है कि जन अदालत में वे अपनी समस्या रखें। यहां कोई किसी पर धौंस जमाकर बयान नहीं बदलवा सकता है क्योंकि बयान माओवादी पार्टी के सीधे देखरेख में होते हैं जिसकी जिम्मेदारी जनमिलीशिया के लोग उठाते हैं।’

अब हमारी दिलचस्पी यहां होने वाले अपराधों की प्रकृति जानने की थी। साथ ही हम यह भी जानना चाहते थे कि यहां पार्टी सदस्यों यानी दलम पर लगे आरोपों पर भी क्या वैसी ही खुली सुनवाई होती है जैसे ग्रामीणों की। इस जवाब के लिए हमने एरिया कमांडर हरेराम को चुना। हरेराम ने अपनी बात एक उदाहरण से शुरू किया,- ‘दो वर्ष पूर्व इसी क्षेत्र में काम करने वाले एक पार्टी सदस्य (दलम)पर पास के गांव की एक लड़की ने धोखाधड़ी का आरोप लगाया। दलम पर लगा आरोप पार्टी संज्ञान में आने पर आज जैसे जनअदालत लगी है वैसे ही ग्रामीणों की मांग पर अदालत लगी और आरोप सच साबित होने पर उस दोषी दलम को न सिर्फ पार्टी से एक समय सीमा के लिए निष्कासित कर दिया गया बल्कि सश्रम कारावास की सजा भी अदालत ने मुकर्रर की। गौरतलब है कि दलम माओवादी पार्टी के हथियार बंद सदस्य होते हैं जो लाल सेना के सिपाही भी होते हैं।

बहरहाल कमांडर के जवाब ने फिर हमारे लिये दो सवाल छोड़ दिये। पहला यह कि सजाएं किस आधार पर दी जाती हैं और जब जेल ही नहीं है तो कारावास कैसा होता है? हमारे पहले सवाल जवाब कुछ यूं मिला,-  सजा तय करने में जनता की भूमिका अहम होती है। जनता की वोटिंग के आधार पर पार्टी सजायें सुनाती है। किसी व्यक्ति को कितनी कड़ी सजा दी जायेगी यह बहुत हद तक उसके वर्गीय चरित्र और पिछले व्यवहार पर निर्भर करता है।

रहा कारावास का सवाल तो इस बारे में महीला दलम सदस्य लक्की बताती हैं कि हम एक नये समाज के लिए संघर्ष कर रहे हैं। पूंजीवादी समाज की बनायी सुधार व्यवस्था या सजा दोनों ही जनविरोधी हैं,बेहतर विकल्पों का प्रयोग ही हमारी मंजिल है। पार्टी मानती है कि मित्रवत वर्ग और व्यक्ति से वैसे ही नहीं निपटा जाना चाहिए जैसे दुश्मनों की पांत में खड़े जनद्रोहियों से। जैसे गांव के सामान्य नियमों को भंग करने पर जनमिलीशिया की देखरेख में तीन माह तक श्रम करने की सजा है। लेकिन श्रम तो सारे ही करते होंगे फिर यह सजा कैसे हुई,के बारे में पूछने पर जनअदालत में मनकेली से आयी युवती सोमाली बताती है-‘सजा पाये लोग देखरेख में काम करते हैं और अपने मन से कहीं आ जा नहीं सकते। और जो वह मेहनत कर पैदा करेंगे उस पर पार्टी का अधिकार होगा और अपराधी के बीबी-बच्चों के देखरेख की जिम्मेदारी जनमलिशिया की होगी।’सोमाली से ही पता चला कि इस छोटी सजा से लेकर वर्ग शत्रुओं को गोली मारने की सजा तक दी जाती है। गोली की सजा के दायरे में बड़े सामंत और सत्ता के सहयोग से जनता को सुसंगठित तरीके से भड़काने वाले आते हैं। हालांकि सुकु यहीं सोमाली की बात काटता है और बताता है कि ‘बड़ी सजा दिये जाने से पहले आमतौर पर जन अदालत अपराधी को सुधरने के तीन मौके देती है।’

सुनवाई करती महिला दलम                                           फोटो: अजय प्रकाश
जिस जन अदालत में हम मौजूद थे उसमें पहला मामला एक लड़की के साथ छेड़खानी का था। लड़की के पिता का कहना था कि लड़के ने उसकी बेटी साथ जबरदस्ती की है। मगर लड़के-लड़की की बयानों से स्पष्ट हुआ कि हमबिस्तरी में दोनों की मर्जी थी और उन्होंने शादी की इच्छा जाहिर की। दोनों पक्षों की बात सुनकर पहले ग्रामीणों ने, फिर जनमिलिशिया और मीलिशिया ने और अंत में अदालत में फैसला लेने के अधिकारी तीन दलम सदस्यों ने अपनी बात रखी। सुनवाई का नतीजा यह निकला कि परंपरा के अनुसार अगले मंगलवार को शादी की तारीख पक्की कर दी गयी।

हमारे लिए तो यह आश्चर्य या कहें कि सपने जैसा था कि इतने आसानी से भी कोई मुकदमा किसी अदालत में निपट सकता है? हमारी अदालतों में तो सालों-साल, कोर्ट-दर-कोर्ट के चक्कर लगाने के बाद बाल-बच्चे हो जाते हैं और मुकदमा चलता ही रहता है। सुकु ने माओवादियों की उपस्थिति से आये सामाजिक बदलाव के बारे में चर्चा के दौरान कहा कि ‘पार्टी के आने से हमारे गांवों में अब लड़कियों की शादी बचपन में नहीं होती और न ही कोई पटेल या सरपंच जबरन उठाकर शादी ही कर पाता है। सबको जनअदालत का डर रहता है।’सावनार गांव का बुद्धिया याद करते हुए कहता है, ‘जब दादा लोग (माओवादी)हमारे गांवों में आये तो पहले उन्होंने सीधे सजा देने के बजाय गलत कामों को रोकने के लिए जागरूकता अभियान चलाये जिसका बहुत असर हुआ।’

जब हम वहां से चलने को हुए तब उस दिन जनअदालत में बतौर जज मौजूद महिला दलम सदस्यों  से  हमारी बातचीत हुई। फैसला लेने शामिल सुक्की ने कहा कि ‘फैसले जनविरोधी न हो जायें इससे बचने के लिए पार्टी बाकायदा सजा पाए  व्यक्ति पर निगाह रखती है। उसके रूझानों को देखते हुए सजा खत्म भी कर दी जाती है, क्योंकि सजा दिये जाने का मकसद उसको सुधारना होता है।’यहां से प्रस्थान करते वक्त हमने आम चुनाव के बारे में जानना चाहा तो मुक्काबेली गांव से आये एक युवक एक्का गोंड ने बताया कि ‘जनअदालत की तरह ही चुनाव की प्रक्रिया भी सरल होती है। हाथ उठाकर लोग समर्थन या विरोध करते हैं और सरपंच चुन लिया जाता है.हर तीन साल पर गांवों में चुनाव होता है और प्रत्येक साल समीक्षा बैठक होती है। समीक्षा बैठक ही किसी के अगले साल सरपंच बने रहने की सीढ़ी होती है। जो सरपंच उस दौरान गांव के नियमों को भंग करता है तथा जनता के अधिकारों का हनन करता है उसे जन अदालत सजा भी देती है।’


 

Jun 12, 2010

खापों में लंपट हैं

डीआर चौधरी


हरियाणा में अच्छी भैंस की कीमत 50हजार है,जबकि बहू (जो वारिस दे सके)बनाने के लिए खरीदी जा रही लड़कियों की बोली दस हजार से शुरू होती है।

खाप पंचायतों का सामाजिक आधार भाईचारा है। एक खाप में जितने भी महिला-पुरूष हैं सभी में खून का रिश्ता माना जाता है। ऐसा मानने के पीछे तर्क यह है कि किसी एक खाप के अंतर्गत आनेवाले लाखों लोग उस एक ही बुजूर्ग की संतान हैं जिसने सैकड़ों साल पहले कोई एक गांव बसाया था। जैसे हरियाणा में हुड्डा खाप के 40गांव हैं, तो यह सभी चालीस गांव के लोग भाई-बहन माने जायेंगे और इनमें शादी नहीं हो सकती।

 हरियाणा में भैंसों के साथ बहुओं का भी बाज़ार है.  
खापों के ये सभी मानदंड उन मध्यकालीन गांवों के हैं जब आधुनिकता का उदय नहीं हुआ था। विदेशी आक्रमणकारियों का भारत में घुसने का यही रास्ता था इसलिए खुद को बचाने और संघर्ष को मुकम्मिल बनाये रखने में हो सकता है खापों का यह तरीका काम आया हो। पर मौजूदा समय में जबकि लोकतांत्रिक प्रक्रिया में जन भागीदारी का पूरा एक ढांचा है,वैसे में गोत्र की शुद्धता का हौवा खड़ा करके युवक-युवतियों की हत्या करना,उनकी जमीन-जायदाद पर कब्जा करना कत्तई बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए। मेरी स्पष्ट राय है कि खाप और जातीय पंचायतों को तत्काल प्रभाव से प्रतिबंधित कर, उनके समर्थकों और नुमाइंदों पर आपराधिक मुकदमें दर्ज हों।

मैं मानता हूं कि परंपराओं की कद्र होनी चाहिए लेकिन परंपराएं समयानुकूल हों तब। अन्यथा परंपराएं सड़ाध मारने लगती हैं और समाज पर बोझ बन जाती हैं। झज्जर जिले का एक गांव है समचाणा,वहां जाटों के पंन्द्रह गोत्र हैं। कुछ गोत्रों का आपस में भाईचारा माना जाता है। मान, देशवाल, सेहाग और दलाल इन चारों का आपस में भाईचारा है। दंतकथा है कि ये चारो गोत्र एक ही बुजूर्ग की चार संतानों के हैं। यह वर्जना यहीं नहीं रूकती। अब उस गांव में जितने भी गोत्र है उनकी आपस में शादी नहीं हो सकती। साथ ही उस गांव में जितने भी गोत्र हैं उनके गोत्र की लड़की गांव में बहू बनकर नहीं आ सकती। दूसरी तरफ अमानवियता का हद ये है कि हरियाणा में अच्छी भैंस की कीमत 50 हजार है और खरीद कर लायी बहू दस हजार में मिलनी शुरू हो जाती है।

खापों की व्यवस्था के बारे में कुछ इतिहासकारों का मानना है कि यह राजा हर्षवर्धन के समय से है। कहा जाता है कि पहली बार हर्षवर्धन ने सर्वखाप पंचायत बुलायी थी। सर्वखाप का मायने है अलग-अलग खापों के प्रतिनिधियों की पंचायत। मगर मैंने बीस साल के अध्ययन में पाया कि मध्यकालीन समाज में फैली अराजकता और बाहरी आक्रमण से निपटने की चुनौती के साथ खाप पंचायतें अस्तित्व में आयीं। उस समय कानून व्यवस्था चरमारायी हुई थी और लूटपाट आम बात थी। इससे निपटने के लिए घोषित तौर पर खापों के दो कार्यभार निर्धारित किये गये। पहला बाहरी मुल्कों के आक्रमण से खुद को बचाना और दूसरा आपसी विवादों-झगड़ों का निपटारा करना।

अंग्रेजी राज के दौरान ब्रिटिशों ने भी इन कानूनों को नहीं छेड़ा। शायद इसलिए कि राज करने का उनका यह नीतिगत कानून था कि देश विशेष के आंतरिक-सांस्कृतिक मसलों को नहीं छेड़ना है। हां,जिस कूप्रथा के खिलाफ देश के भीतर एक माहौल बना उसके खिलाफ जरूर अंग्रेजों ने पहलकदमी ली। जैसे सती होने की प्रथा को भारतीय समाज से कानूनी तौर पर खत्म किया। मगर सती प्रथा के खिलाफ आवाज देश के अंदर से उठी थी। लेकिन खाप पंचायतों के मामले में ऐसा नहीं था। ब्रिटीश विद्वानों ने कई गजेटियर में इसकी चर्चा भी की है।

दिल्ली से लगा हरियाणा, हरियाणा से लगा राजस्थान का कुछ क्षेत्र, पश्चिमी उत्तर प्रदेश का एक हिस्सा और दिल्ली का देहात ही खाप का मुख्य भौगोलिक दायरा है। हरियाणा में भी सोनीपत, झज्जर, रोहतक, जिंद, कैथल जिले में ही खाप विशेष तौर पर सक्रिय हैं। इसके अलावा जो पंचायतें हैं वह जातीय पंचायतें हैं। इन जातीय पंचायतों की भी स्थापना इतिहास में अपने को ताकतवर किये जाने के लिए ही हुईं। खाप पंचायतों के इतिहास में जायें तो प्रेम करने वालों की हत्या, उनके घर-परिवार वालों की जमीन-जायदाद हड़पकर बेदखली के फरमानों का सिलसिला नया है। हालांकि इसमें कोई शक नहीं कि खाप पंचायतें अपने मूल में दलित और स्त्री विरोधी रही हैं। पंचायतें महिलाओं पर अमानवीय फैसले लेती हैं मगर कभी एक महिला की वहां उपस्थिति नहीं होती। सवाल उठा तो हाल में एक पंचायत के दौरान कुछ महिलाओं को चैधरियों ने बैठाया और महिला शाखा बनाने की बात कही। इससे पहले जितने भी फैसले हुए हैं उनमें कहीं महिला की भागीदारी नहीं रही।

नैतिकता के चौधरी : अनैतिकता ही जीवन शैली
अगर इन खापों में सक्रिय  लोगों की गिनती करें तो ज्यादातर लंपट मिलेंगे जिन्हें गुंडा तत्व कहा जाना चाहिए। खाप के अंदर कोई चुनाव प्रक्रिया नहीं है। जो कोई एक बार किसी पंचायत का स्वयंभू प्रधान बन जाता है तो उसके बेटे-पोते उसे खानदानी सौगात मानकर संभालते हैं। दूसरा तरीका है,मौके पर ही कुछ लोगों की मनमर्जी से किसी को प्रधान बना डालना। इन तमाम कारगुजारियों का लोग विरोध नहीं करते कि खाप के अधिकतर प्रधान रसूखदार ही होते हैं।

खाप और जातीय पंचायतें पुरूष प्रधान समाज का घिनौना रूप हैं। जो दबंग लोग हैं वह अपना वर्चस्व कायम रखने के लिए खोल की तरह खाप का इस्तेमाल कर रहे हैं। प्रशासन की ढिलाई की वजह से इनके हौसले बुलंद हैं। राजस्थान में इसी किस्म की विकास पंचायतें  हुआ करती थीं जिनका पेशा इज्जत के नाम पर हत्याएं करना और फरमान जारी करना ही था। राजस्थान के श्रीगंगानगर, जोधपुर, जैसलमेर, बीकानेर से बाड़मेर तक खाप क्षेत्र से बड़ा इलाका है जहां जाट या राजपूत आबाद हैं। इन क्षेत्रों में भी जातीय पंचायतें इज्जत के नाम पर एक दौर में फतवे जारी किया करती थीं। बढ़ती वारदातों के मद्देनजर राज्य मानवाधिकार आयोग और जयपुर उच्च न्याायालय ने सरकार से अंकुश लगाने की सख्त हिदायत दी। न्यायाल के आदेश पर गृहमंत्रालय ने राज्य के पुलिस अधिक्षकों को निर्देश जारी किया कि ऐसे लोगों  के खिलाफ गुंडा एक्ट के तहत मुकदमा दर्ज किया जाये। सख्ती होते ही राजस्थान में इस तरह के मामले आने बंद हो गये। हरियाणा में सख्ती नहीं है। रही बात हिंदू विवाह अधिनियम के बदलने की मांग की तो,बिल्कुल फिजूल की बात है। हिंदू विवाह परंपरा में कानूनी तौर पर पहले से ही पिता की पांच पीढ़ियों और मां की तीन पीढ़ियों में विवाह वर्जित है।

भारत में जाट तीन धर्मों में होते हैं। हिंदू जाट को छोड़ दें तो सिक्ख और मुसलमान जाटों में एक ही गोत्र में शादियों के मैं तमाम उदाहरण गिना सकता हूं। सबसे अच्छा उदारहण पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल की बेटी की शादी पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह कैरोन के पोते का है। बादल और कैरोन दोनों की गोत्र ढिल्लों है, जबकि शादी हुई है। इतना ही नहीं हरियाणा के जाटों और पंजाब के सिक्ख जाटों में बहुत शादियां होती हैं। रही बात गोत्र की तो जो गोत्र जाटों में मिलते हैं उनमें से दसियों गोत्र सिक्ख जाटों में भी मिलते हैं। इसलिए समान गोत्र में शादी का सवाल कोई सवाल ही नहीं है।

भाई बहन शादी करें तो वैज्ञानिक दिक्कत समझ में आती है लेकिन हत्या उसका समाधान कत्तई नहीं है। गोत्र की शुद्धता की पैरोकारी में घूम रहे लोगों को कौन बताये की जहां जातियों की आपस में इतने मेलजोल हुए हैं वहां खून की शुद्धता की बात बेमानी है। खासकर हरियाणा पंजाब में तो इसका सवाल ही नहीं। इसलिए कि हुण, शाकाज, ग्रीक, मंगोल, सिन्थियन्स और मुगल आक्रमणकारियों से पहला मुकाबला इन्हीं राज्यों का हर बार हुआ। बहुतेरे आक्रमणकारी यहीं के होके रह गये। ऐसे में कितनी शुद्धता बची होगी इसकी मुसलसल जानकारी के लिए खाप समर्थकों को इतिहास पढ़ना चाहिए। मेरे मुताबिक पंजाब-हरियाणा के लोग तो पूर्णरूप से वर्ण संकर हैं।

(अजय प्रकाश से बातचीत पर आधारित)



(द पब्लिक एजेंडा में खाप पर प्रकाशित आवरण कथा का एक संपादित अंश)

Jun 1, 2010

खाप को चुनौती देते गांव


अजय प्रकाश

हरियाणा में ऐसे दर्जनों गांव हैं जहां खाप पंचायतों का न तो कोई अस्तित्व है,न ही उनका खौफ। ऐसे गांवों में नैतिक मानदंड तय करने वालों का कोई गिरोह नहीं बसता बल्कि लोगों के घर बसें इसकी चाहत वाले पड़ोसी रहते हैं। उन्हीं गांवों की कड़ी का एक सिरमौर गांव है ‘चैटाला’। सिरमौर इसलिए कि उस अकेले गांव में दो सौ से अधिक शादियां गांव के भीतर ही हुई हैं और लोग मजे में परिवार चला रहे हैं। यहां न तो पट्टिदारों ने किसी का दानापानी बंद किया है,न पंचायती गुंडों के डर से किसी की जिंदगी में भाममभाग मची और न ही गिरफ्तारी के अंदेशे में छुपना ही प्रेमी जोड़े की जिंदगी का सार बना। खास बात ये है कि हरियाणा के दो पूर्व मुख्यमंत्रियों और रिश्ते में बाप-बेटे लगने वाले चौधरी देवीलाल और ओम प्रकाश चैटाला का भी यही गांव है।

राकेश और अलका: इनके गाँव में प्रेम विवाह कोई जुर्म नहीं
इस चलन में यह अकेला गांव नहीं है। राज्य के तीन जिलों सिरसा,हिसार और फतेहाबाद के दर्जनों गांव हैं जहां खाप की फरमानशाही नहीं चलती। एक गांव में शादी, बगल के गांव में शादी या प्रेम विवाह कर लेने पर भी, कोई स्वयंभू इज्जत का रखवाला जोड़ों की न तो कत्ल कर सकता है और न ही उनके परिवार की बेदखली। मगर विडंबना यह कि इसी गांव के ओमप्रकाश चैटाला से लेकर उनके पिता,बेटे अजय और अभय चैटाला बर्बर खाप पंचायतों का समर्थन करते रहे हैं। ऐसे में सवाल है कि खापों के समर्थन में बुजूर्गों की बनायी संस्कृति की दुहाई देने वाले चैटाला परिवार को कभी अपने बुजूर्गों की भी संस्कृति याद आयी,जिसे वोटों के लिए उन्होंने दीयारखे पर रख छोड़ा है।

राजस्थान और पंजाब की सीमा से लगे सिरसा जिले के चैटाला गांव के राकेश कुमार गरूआ और सरोज की 2008 में धूमधाम से शादी हुई। इसी जिले के कालवाना गांव में जाट लड़की से एक हरिजन लड़के का प्रेम विवाह हुआ तो इसी साल फरवरी में भारूखेड़ा गांव में अलका और राकेश का प्रेम विवाह हुआ। अलका और राकेश के घरवालों ने तो बकायदा इस शादी का सामूहिक आयोजन किया जिसमें ग्रामीण भी शामिल हुए थे। गांव के भीतर की शादी,प्रेम विवाह और अंतरजातीय विवाह के ये चंद उदाहरण समझने के लिए काफी हैं कि हरियाणवी सामाजिक संस्कृति को किसी एक चश्में में फिट नहीं किया जा सकता।

ग्रामीण जगदीश घोटिया जिन्होंने अपनी बेटी कृष्णा की शादी 1984में अपने ही गांव के एक युवक से की थी। वे जानना चाहते हैं कि विवाहित जोड़ों की हत्याओं का अपराध उनकी बिरादरी वाले क्यों करते हैं। घोटिया के सवाल पर रिश्ते में उनके भतीजा हरि सिंह कहते हैं कि ‘रोहतक, जिंद, कैथल, झज्जर, करनाल और सोनीपत में जिन जोड़ों को बिरादरी वालों ने मारा है वह सगोत्रिय विवाह करना चाहते थे।’हरि सिंह के इस जवाब पर पार्षद का चुनाव लड़ रहे भारूखेड़ा गांव के प्रहलाद सिंह ऐतराज करते हैं और पूछते हैं कि ‘मनोज-बबली हत्याकांड के अलावा कोई बताये कि दूसरी कौन सी शादी सगोत्रिय रही है।’इस सवाल से जो सच उभरकर आता है उसके बाद हर ग्रामीण एक तरफ से खाप पंचायतों को कोसता है और उसकी जरूरत को सिरे से खारिज करता है।

पति-पत्नी एक ही गाँव के:  किसी चौधरी को कोई हर्ज़ नहीं
मौके पर जुटे ग्रामीणों को यह पता चलते पर आश्चर्य होता है कि हरियाणा के खाप बेल्ट में प्रेमी जोड़ों की हत्या का मुख्य कारण एक ही गांव और गवांड (आसपास के गांव)में शादी करना है। राजस्थान के संगरिया में वर्कशॉप चलाने वाले युवक रिजपॉल कहते हैं, ‘हर जगह यही चर्चा है कि खाप पंचायतें सगोत्रीय विवाह का विरोध कर रही हैं,उसके खिलाफ कानून बनाने की मांग कर रही हैं। इसलिए हमलोग भी मौन समर्थन करते रहे हैं। मगर खाप पंचायतें तो हत्याएं गवांड और गांव में शादी करने की वजह से कर रही हैं। ऐसे किसी पंचायत के दायरे में हमारा गांव आता तो न तो मेरा जन्म होता और न ही मेरे पिता का। मेरे तो दादा, पिता और चाचा की इसी गांव में शादी हुई है।’
गांव की महिलांए खापों की बर्बरता को सुनकर सिहर उठती हैं और बेटियां डर से मांओ को पकड़ लेती हैं। यहां भी औरतों की स्थिति ‘घरवाली से गोबरवाली’की ही है जहां औरतें न तो चैपाल पर दिखती हैं और न ही मर्दों की जमात में। समाज के हर मसले पर राय रखने के एकमात्र प्रवक्ता मर्द हैं-चाहे वह मामला आधी आबादी से ही संबंधित क्यों न हो। बड़ी मुश्किल से हमारी बातचीत राकेश कुमार गरूआ की मां से हो पाई। गुरूआ की मां कहती हैं,‘ऐसी पंचायत को दफ्न कर देना चाहिए। पंच हमारी मदद के लिए होते हैं, मारने-काटने के लिए नहीं। मेरे बेटे, बेटी की शादी इसी गांव की है। इससे पहले ससूर, उनकी बहन और सास की मां की भी शादी यहीं से है।’

मार्क्सवादी  कम्यूनिस्ट पार्टी के राज्य समिति सदस्य अवतार सिंह के मुताबिक,‘हरियाणा के इन तीनों जिलों में सगोत्रिय को छोड़ शादियों को लेकर कोई बंदिश नहीं है। अतंरजातीय विवाह पर हंगामा होता है मगर उसका भी अंत हत्याओं में नहीं होता है।’गौरतलब है कि चैटाला गांव में इतनी शादियां एक ही गांव में इसलिए हुई हैं कि हरियाणा के कुछ बड़े गांवों में से एक है। हालांकि खाप क्षेत्रों में इससे बड़े गांव हैं जहां इससे कम गोत्र नहीं बसते। प्रेमी जोड़े जस्सा उर्फ जसविंदर और सुनिता की जिस बला गांव के खाप सदस्यों ने पिछले वर्ष हत्या कर दी थी वह बकायदा एक कस्बा है। बहरहाल दस हजार वोटों वाले चैटाला गांव में जाटों के दो दर्जन से अधिक गोत्र हैं। गोदारा, बेनीवाल, सहारण, गोठिया, सिहास, पुनिया,बंगडुआ, लोछव, खिच्चड़, कणवासरा, लोमरोण, नेण, पायल, ज्याणी, शिवर, घिंटाणा, फगोड़िया, मोयल, मेहला, भंबू, जाखड़,राव, गरूआ, राड़, हुड्डा, मानजू गोत्र के लोग इस गांव में रहते हैं।

हालांकि खाप पंचायतें और उनके कारिंदे कई बार पश्चिमी हरियाणा के इन गांवों के रिवाज को तोड़ने की कोशिश कर चुके हैं। तीन साल पहले सिरसा में जाट महासभा हुई थी। सभा में जाट प्रतिनिधियों और नेताओं ने एक गांव में शादी करने की परंपरा को बंद करने की मंजूरी चाही। ग्रामीण जगदीश घोटिया बताते हैं कि ‘सभा में ऐसी सोच रखने वालों का जबर्दस्त विरोध हुआ था। फिर किसी खाप या जन प्रतिनिधि की हिम्मत नहीं हुई कि वह ऐसी किसी सोच की पैरोकारी कर सके।’इतना ही नहीं खाप पंचायतों के समर्थन में बोलने वाले क्षेत्र के वर्तमान विधायक और ओमप्रकाश चैटाला के बेटे अजय चैटाला भी कभी गलती से इस क्षेत्र में आकर खापों के समर्थन का जिक्र करने की हिम्मत नहीं जुटा पाते।


(द पब्लिक एजेंडा में खाप पर प्रकाशित आवरण कथा का एक संपादित अंश)