अजय प्रकाश
यहां न कोई जज है,न मुंशी और न ही पेशकार। किसी के हाथ में हथकड़ी भी नहीं लगी है फिर भी यह अदालत है, एक जनअदालत।
दूर तक फैले जंगलों के बीच पेड़ों की छांव के नीचे सैकड़ों लोग इकट्ठा हुए तो लगा कि कोई जनसभा है। तभी किसी ने बताया कि यह जनसभा की भीड़ नहीं है बल्कि आदिवासी लोग जनअदालत में आये हैं जहां अपनी शिकायतों, आरोपों-प्रत्यारोपों की सफाई देंगे और समस्याएं सुलझायेंगे।
कोई अच्छे से लिखे या बुरे से मगर मानते सब हैं कि सरकार के समनांतर दण्डकारण्य के विशाल क्षेत्र में माओवादी सरकार चलाते हैं। जब उनकी सरकार है तो जाहिरा तौर पर अदालत भी होगी। जिस तरह सरकार की सेना से अपने को अलग करने के लिए वे जन सेना लिखते हैं वैसे ही उनकी अदालतें जन अदालतों के नाम से जानी जाती हैं।
एक अदालत जन के बीच : दूरियां कम हैं फोटो: अजय प्रकाश |
संयोग से हमें भी दण्डकारण्य यात्रा के दौरान एक जनअदालत को देखने का मौका मिला। जहां जनअदालत लगी थी वह जगह कौन सी थी, यह तो याद नहीं मगर पता चला कि सावनार और मनकेली गांव के दो मामले इस जनअदालत में निपटाये जाने हैं। लोगों का लगातार आना जारी था और इस क्षेत्र से अनभिज्ञ हम ‘ाहरी मानुषों का सवाल भी उसी रफ्तार से जारी था। जो भी थोड़ी-बहुत हिंदी जानता उससे हमलोग पूछताछ शुरू कर देते। पांचवीं तक पढ़ा शुकलू जो कि अब जनमीलिशिया सदस्य है,ने बताया कि ‘गांव के लोगों को खुली छूट होती है कि जन अदालत में वे अपनी समस्या रखें। यहां कोई किसी पर धौंस जमाकर बयान नहीं बदलवा सकता है क्योंकि बयान माओवादी पार्टी के सीधे देखरेख में होते हैं जिसकी जिम्मेदारी जनमिलीशिया के लोग उठाते हैं।’
अब हमारी दिलचस्पी यहां होने वाले अपराधों की प्रकृति जानने की थी। साथ ही हम यह भी जानना चाहते थे कि यहां पार्टी सदस्यों यानी दलम पर लगे आरोपों पर भी क्या वैसी ही खुली सुनवाई होती है जैसे ग्रामीणों की। इस जवाब के लिए हमने एरिया कमांडर हरेराम को चुना। हरेराम ने अपनी बात एक उदाहरण से शुरू किया,- ‘दो वर्ष पूर्व इसी क्षेत्र में काम करने वाले एक पार्टी सदस्य (दलम)पर पास के गांव की एक लड़की ने धोखाधड़ी का आरोप लगाया। दलम पर लगा आरोप पार्टी संज्ञान में आने पर आज जैसे जनअदालत लगी है वैसे ही ग्रामीणों की मांग पर अदालत लगी और आरोप सच साबित होने पर उस दोषी दलम को न सिर्फ पार्टी से एक समय सीमा के लिए निष्कासित कर दिया गया बल्कि सश्रम कारावास की सजा भी अदालत ने मुकर्रर की। गौरतलब है कि दलम माओवादी पार्टी के हथियार बंद सदस्य होते हैं जो लाल सेना के सिपाही भी होते हैं।
बहरहाल कमांडर के जवाब ने फिर हमारे लिये दो सवाल छोड़ दिये। पहला यह कि सजाएं किस आधार पर दी जाती हैं और जब जेल ही नहीं है तो कारावास कैसा होता है? हमारे पहले सवाल जवाब कुछ यूं मिला,- सजा तय करने में जनता की भूमिका अहम होती है। जनता की वोटिंग के आधार पर पार्टी सजायें सुनाती है। किसी व्यक्ति को कितनी कड़ी सजा दी जायेगी यह बहुत हद तक उसके वर्गीय चरित्र और पिछले व्यवहार पर निर्भर करता है।
रहा कारावास का सवाल तो इस बारे में महीला दलम सदस्य लक्की बताती हैं कि हम एक नये समाज के लिए संघर्ष कर रहे हैं। पूंजीवादी समाज की बनायी सुधार व्यवस्था या सजा दोनों ही जनविरोधी हैं,बेहतर विकल्पों का प्रयोग ही हमारी मंजिल है। पार्टी मानती है कि मित्रवत वर्ग और व्यक्ति से वैसे ही नहीं निपटा जाना चाहिए जैसे दुश्मनों की पांत में खड़े जनद्रोहियों से। जैसे गांव के सामान्य नियमों को भंग करने पर जनमिलीशिया की देखरेख में तीन माह तक श्रम करने की सजा है। लेकिन श्रम तो सारे ही करते होंगे फिर यह सजा कैसे हुई,के बारे में पूछने पर जनअदालत में मनकेली से आयी युवती सोमाली बताती है-‘सजा पाये लोग देखरेख में काम करते हैं और अपने मन से कहीं आ जा नहीं सकते। और जो वह मेहनत कर पैदा करेंगे उस पर पार्टी का अधिकार होगा और अपराधी के बीबी-बच्चों के देखरेख की जिम्मेदारी जनमलिशिया की होगी।’सोमाली से ही पता चला कि इस छोटी सजा से लेकर वर्ग शत्रुओं को गोली मारने की सजा तक दी जाती है। गोली की सजा के दायरे में बड़े सामंत और सत्ता के सहयोग से जनता को सुसंगठित तरीके से भड़काने वाले आते हैं। हालांकि सुकु यहीं सोमाली की बात काटता है और बताता है कि ‘बड़ी सजा दिये जाने से पहले आमतौर पर जन अदालत अपराधी को सुधरने के तीन मौके देती है।’
सुनवाई करती महिला दलम फोटो: अजय प्रकाश |
जिस जन अदालत में हम मौजूद थे उसमें पहला मामला एक लड़की के साथ छेड़खानी का था। लड़की के पिता का कहना था कि लड़के ने उसकी बेटी साथ जबरदस्ती की है। मगर लड़के-लड़की की बयानों से स्पष्ट हुआ कि हमबिस्तरी में दोनों की मर्जी थी और उन्होंने शादी की इच्छा जाहिर की। दोनों पक्षों की बात सुनकर पहले ग्रामीणों ने, फिर जनमिलिशिया और मीलिशिया ने और अंत में अदालत में फैसला लेने के अधिकारी तीन दलम सदस्यों ने अपनी बात रखी। सुनवाई का नतीजा यह निकला कि परंपरा के अनुसार अगले मंगलवार को शादी की तारीख पक्की कर दी गयी।
हमारे लिए तो यह आश्चर्य या कहें कि सपने जैसा था कि इतने आसानी से भी कोई मुकदमा किसी अदालत में निपट सकता है? हमारी अदालतों में तो सालों-साल, कोर्ट-दर-कोर्ट के चक्कर लगाने के बाद बाल-बच्चे हो जाते हैं और मुकदमा चलता ही रहता है। सुकु ने माओवादियों की उपस्थिति से आये सामाजिक बदलाव के बारे में चर्चा के दौरान कहा कि ‘पार्टी के आने से हमारे गांवों में अब लड़कियों की शादी बचपन में नहीं होती और न ही कोई पटेल या सरपंच जबरन उठाकर शादी ही कर पाता है। सबको जनअदालत का डर रहता है।’सावनार गांव का बुद्धिया याद करते हुए कहता है, ‘जब दादा लोग (माओवादी)हमारे गांवों में आये तो पहले उन्होंने सीधे सजा देने के बजाय गलत कामों को रोकने के लिए जागरूकता अभियान चलाये जिसका बहुत असर हुआ।’
जब हम वहां से चलने को हुए तब उस दिन जनअदालत में बतौर जज मौजूद महिला दलम सदस्यों से हमारी बातचीत हुई। फैसला लेने शामिल सुक्की ने कहा कि ‘फैसले जनविरोधी न हो जायें इससे बचने के लिए पार्टी बाकायदा सजा पाए व्यक्ति पर निगाह रखती है। उसके रूझानों को देखते हुए सजा खत्म भी कर दी जाती है, क्योंकि सजा दिये जाने का मकसद उसको सुधारना होता है।’यहां से प्रस्थान करते वक्त हमने आम चुनाव के बारे में जानना चाहा तो मुक्काबेली गांव से आये एक युवक एक्का गोंड ने बताया कि ‘जनअदालत की तरह ही चुनाव की प्रक्रिया भी सरल होती है। हाथ उठाकर लोग समर्थन या विरोध करते हैं और सरपंच चुन लिया जाता है.हर तीन साल पर गांवों में चुनाव होता है और प्रत्येक साल समीक्षा बैठक होती है। समीक्षा बैठक ही किसी के अगले साल सरपंच बने रहने की सीढ़ी होती है। जो सरपंच उस दौरान गांव के नियमों को भंग करता है तथा जनता के अधिकारों का हनन करता है उसे जन अदालत सजा भी देती है।’
पार्टी मानती है कि मित्रवत वर्ग और व्यक्ति से वैसे ही नहीं निपटा जाना चाहिए जैसे दुश्मनों की पांत में खड़े जनद्रोहियों से।
ReplyDeleteSome people are more equal than others? बन्दूक के जोर पर चलती ऐसी गैरकानूनी अदालतें वाकई शर्मनाक है.
जन-अदालत की यह संरचना हमारे लिए तो अपाच्य है। कुछ-कुछ खाप जैसी है। भारतीस अदालत अपने वर्गीय चरित्र के बावजूद एक बेहतर व्यवस्था है। अभी तो छोटा दल हैं। यदि वह शासन में आ जाएंगे तो भी न्याय का यही माडल रखेंगे ? माबोके्रसी और डेमोक्रेसी में फर्क करना होगा। सुकरात को तो वोटिंग से ही फांसी पर चढ़ाया था !
ReplyDeleteफूलल लाल-लाल....... हम कम से कम बीस बार सनले होब। बड़ा दिन बाद एके सुने के मिल ह। ई लोकगीत हमके कैसे मिली ? एकर कौन साफ्ट वर्जन हो त हमके मेल कर दा। हमार एक मित्र एके और छापक पेड़ छिहुलिया.....के एतना बढ़िया गावे कि हमहन एकर मुरीद हो गयली। बहुत याद जुड़ल ह ए गीतन से।
ReplyDeleteबन्दूक के जोर पर चलती ऐसी गैरकानूनी अदालतें वाकई शर्मनाक है.
ReplyDelete@ हमारा भी यही विचार है |
अद्बुत जानकारी देती पोस्ट लगी ये तो । बहुत ही अच्छा लगा पढकर । ऐसी जनअदालतों के बारे में सुना तो था , आज आपने वर्णन भी कर दिया जीवंत । आभार आपका
ReplyDeleteबहुत ही रोचक जानकारी दी आपने.....जन अदालत के बारे में विस्तार से जानकर बहुत ही अच्छा लगा.......nबधाई.....
ReplyDeleteJan Adalats are infact Kangaroo courts of the Naxalites,alike Judicial corts they only punish the poor ones. They never punished any capitalist till date.
ReplyDeleteRegards;
Rajesh Singh Sisodia
09826921897
bahut bariya ajay ji dil khus ho gaya par kar
ReplyDeletemanoj thakur