Jun 20, 2010

गुरिल्ला जीवन के चौबीस घंटे

दण्डकारण्य के जंगलों में माओवादी पार्टी के सैनिक जिन्हें लाल सेना या जन सेना कहते हैं, उनके चौबीस घंटे पर  अजय प्रकाश की रिपोर्ट

अगर मोर्चे पर डटे रहने की चुनौती न हो तो गुरिल्ला दस्ता आमतौर पर रात के ग्यारह बजे तक सो जाता है। सोने से ठीक पहले प्लाटून (गुरिल्लों का समूह)के चारो ओर कमांडर,प्रहरियों की तैनाती करता है। चिड़ियों की चहचहाहट के साथ मुंह अंधेरे किसी एक साथी की जिम्मेदारी होती है कि वह सीटी बजाकर सभी को जगा देगा।


एक लम्बी लड़ाई :  रोटी और संघर्ष दोनों का है.                 फोटो - अजय प्रकाश
गुरिल्लों में सैन्य चुस्ती सुबह देखने को मिलती है। उठने के आधे घंटे के भीतर प्लाटून के सभी सैनिक नित्यकर्म से निवृत्त होकर परेड ग्राउंड में एक तरफ खड़े होने लगते हैं। परेड ग्राउंड आमतौर पर कोई पक्की बनायी जगह नहीं होती, बल्कि वह सुबह के समय ही थोड़ी साफ-सुथरा किया हुआ समतल मैदान होता है। बीमार होने की स्थिति को छोड़ दें तो सामान्य स्थिति में हर महिला-पुरूष सैनिक को कम से कम डेढ़ घंटा व्यायाम करना आवश्यक होता है।

सात बजे तक व्यायाम खत्म होने के साथ ही नाश्ता तैयार रहता है। नाश्ता तैयार करने की जिम्मेदारी उन्हीं में से दो-तीन गुरिल्लों की होती है। नाश्ते में पोहा या रोटी-सब्जी में से कोई एक चीज ही आमतौर पर मिलती है। बातचीत में गुरिल्लों ने हंसते हुए बताया चाय तो कभी-कभार ही मिल पाती है, वह भी लाल।

इतना सब होते साढ़े सात बज चुके होते हैं और अब गुरिल्लों का तीन-तीन,चार-चार का समूह बना लिया जाता है।यह समूह पढ़ने-लिखने वालों का होता है। महिला दलम बद्री कहती है कि ‘हमने पढ़ना-लिखना पार्टी में आकर ही सीखा है। हम साथियों में से जो थोड़ी-बहुत हिंदी पढ़ना-लिखना जाता है वह अपने निरक्षर साथियों को पढ़ाता है। वैसे तो गांवों में पार्टी पांचवी तक की शिक्षा देती है,मगर गुरिल्ला दस्तों में इस तरह की कोई पाबंदी नहीं है।’

दिन के दस बजने के साथ ही प्लाटून में गुरिल्ले कागज-कलम समेटने लगते हैं। इस बीच तीन-चार लोग पानी लेने जाते हैं और कुछ दलम खाना बनाना के लिए लकड़ी फाड़ने और समेटने में जुट जाते हैं। उन्हीं में से एक को बगल के गांव से आग ले आने के लिए भेजा जाता है। इन गुरिल्लों के काम में तेजी और सामूहिकता इतनी कमाल की होती है कि ग्यारह बजे तक खाना खाकर दस्ते गांवों की ओर चल पड़ते हैं। कमांडर बताता है कि कोशिश यह होती है कि कभी भी कोई गुरिल्ला कहीं अकेला न जाये। यह सावधानी इसलिए बरतनी पड़ती है क्योंकि दुश्मन के हमले की स्थिति में दूसरा गुरिल्ला बाकी साथियों तक खबर ले जाये।

इस क्षेत्र में आदिवासिओं ने खेती के नए तरीके सीखे  हैं        
गांवों की ओर बढ़ने से पहले हर दलम सुनिश्चित करता है कि उसके पास एक बंदूक, चाकू, घड़ी, किट और बरसाती है। बंदूक कंधे पर, चाकू बगल की जेब में,किट पीठ पर और बरसाती पीछे की जेब में हर वक्त मौजूद होती है। एक्का नाम के दलम ने बताया कि ‘किट में मलेरिया की दवा, एक बिस्कुट का पैकेट, पार्टी साहित्य, एक टार्च, माचिस, कलम-कापी और फस्र्टएड बॉक्स जरूर होता है।हां घड़ी हर आदमी के हाथ में नहीं  होती मगर टीम में एक के पास होती है। दूसरी बात ये कि रात में ठहरने के लिए जब प्लाटून रूकता है तो तब एक-दो रेडियों समाचार सुनने के लिए रखना आवश्यक होता है।’

अब क्षेत्र में रवाना होने को तैयार दलम टीम के हर सदस्य का पहला काम किट से कॉपी निकाल उन गांवों का नाम देखना होता है जहां पहले से मीटिंगें तय होती हैं। एक दलम जो अपना परिचय पार्टी स्क्वायड के तौर पर देता है,वह कहता है,‘हमारा काम सिर्फ गांवों में जाकर भाषण देना या बैठक करना नहीं होता बल्कि वहां चल रहे सुधार कार्यक्रमों में भी भागीदारी करना पार्टी नियमों में एक है।’

गांवों की बसावट को देखें तो यहां गांवों के बीच दूरियां आम मैदानी इलाकों के मुकाबले बहुत ज्यादा होती हैं। दूरी का अंदाजा लगाने के लिए कोई किलोमीटर तो नहीं होता मगर एक गांव से दूसरे में पहुंचने में कई बार तीन से चार घंटे तक लग जाते हैं। इसलिए माओवादी पार्टी के लड़ाकू दस्ते यानी दलम टीमें शाम होने तक दो-तीन गांवों का ही दौरा कर पाती हैं।

 दलम नाट्य टीम: जागरूकता अभियान पर.     फोटो अजय प्रकाश
गांवो में कम समय दे पाने के बावजूद प्रचारतंत्र का इतना विशाल कार्यभार वे कैसे पूरा करते हैं इस बारे में एक गुरिल्ला बताता है कि ‘हममें से कोई बाहरी नहीं है और हम सभी गोंड हैं। इस कारण आदिवासियों में जल्दी घुल-मिल जाते हैं।’गुरिल्ला आगे बताता है कि ‘यहां जनता को संगठित करना भारत के दूसरे गंवई इलाकों से ज्यादा चुनौतीपूर्ण है। जैसे अगर गांव के सरपंच ने हमारे विकास और सुधार की राजनीति को अस्वीकार कर दिया तो गांव का एक भी आदमी पार्टी के साथ खड़ा नहीं होगा। कई बार यह होता भी है। कारण कि अधिकतर गांवों के सरपंच ग्रामीणों का शोषण करते हैं और वे नहीं चाहते हैं कि गांव के लोग उनके चंगुल से मुक्त हों।’गुरिल्ला लक्का बताता है कि ‘ऐसे गांवों में पहले हम जनता के बीच सामाजिक-सांस्कृतिक गतिविधियों से पैठ करते हैं और फिर जनता के साथ खड़े हो सरपंच की शक्ति को छीनकर जनता के हवाले कर देते हैं।’

सन्देश पढ़ता कमांडर.     फ़ो- अजय प्रकाश
दिन भर जन कार्रवाइयों के बाद गुरिल्ले फिर एक बार गांव से दूर अपना कैंप पिछली रात जैसे ही दो जगह लगाना शुरू करते हैं। एक कैंप महिला दलमों के लिए लगता है और दूसरा पूरूषों के लिए। बरसाती की ही छत और बरसाती का ही बीस्तर लगाने बाद फिर सुबह की ही तरह शाम का व्यायाम होता है। व्यायाम खत्म कर गुरिल्ले फिर एक बार सात से नौ बजे तक पढ़ने बैठ जाते हैं। मगर इस वक्त वे सुबह की तरह पढ़ना-लिखना सिखने की बजाय माक्र्सवाद की शिक्षा लेते हैं और देश-दुनिया में चल रही हालिया हलचलों पर बहस-मुबाहिसा करते हैं। इसके बाद दिनभर की मीटिंगों की समीक्षा और कल की योजनाओं पर बातचीत भी होती है।

इस बीच कुछ लोग अपने फटे कपड़ों की सिलाई करते हैं तो कोई बीमार दवा लेकर आराम कर रहा होता है। गुरिल्ला टीमों के मुखिया अपने एरिया कमांडर को दिनभर की रिपोर्टिंग करते हैं तो कोई कमांडर के आदेश पर दूसरी प्लाटून के पास चिट्ठी ले जाने की जिम्मेदारी निभाता है। इतने में रात के खाने की सीटी बजती है और सभी महिला-पुरुष गुरिल्ले अपनी-अपनी थाली या दोने (पत्तों के) लेकर खुले मैदान में खाना शुरू कर देते हैं। खाने का वक्त सुख-दुख बतियाने का कितना होता है यह तो पता नहीं चल पाया, लेकिन यह वक्त देश और दुनियाभर में घट रही घटनाओं पर चर्चा का पूरा सत्र होता है। गुरिल्ले अंतिम समाचार साढ़े दस बजे बीबीसी पर सुनते हैं, जिस पर बातचीत वह सुबह के नाश्ते के दौरान करते हैं।

जिस कैंप में हमलोगों ने दलम सदस्यों यानी लाल सेना के साथ रात गुजारी उस दिन का विषय लेबनान,सीरिया और इजरायल के बीच जारी संघर्ष था और बहस इस बात पर हो रही थी कि यह संघर्ष किस तरह से नये धु्रवीकरण बना सकता है। बहस खत्म होती उससे पहले सीटी बजी और सभी गुरिल्ले एक पंक्ति में खड़े हो अपनी-अपनी जिम्मेदारियों को कमांडर से समझने में लग गये।


(द संडे पोस्ट से साभार)

1 comment:

  1. ajay ji gurilla jeevan ki jeevant tasveer se roo-b-roo karane ke liye bahut bahut dhanywad

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