युद्धरत आम आदमी के संघर्षोंपरकेन्द्रित नेपाली समाजके बदलाव की कहानी कहती फिल्म ''फ्लेम्स ऑफ दि स्नो'' के सार्वजनिक प्रदर्शन पर सेंसर बोर्ड ने रोक लगा दी है. फिल्म को प्रमाणपत्र देने से इनकार कर सेंसर बोर्ड ने कहा है,'फिल्म माओवाद का प्रचार करती है.'
नेपाली जनांदोलन को केंद्र में रखकर बनी फिल्म 'फ्लेम्सम ऑफ दी स्नो'के दर्शकों को जिस बात का संदेह था आख़िरकार भारत सरकार ने फिल्म के सार्वजानिक प्रदर्शन पर रोक लगा उसको पुष्ट ही किया है. सेंसर बोर्ड का मानना है कि 'यह फिल्म नेपाल के माओवादी आंदोलन की जानकारी देती है और उसकी विचारधारा को न्यायोचित ठहराती है।'बोर्ड की राय में हाल के दिनों में देश के कुछ हिस्सों में फैली माओवादी हिंसा को देखते हुए इस फिल्म के सार्वजनिक प्रदर्शन की अनुमति नहीं दी जा सकती.
'ग्रिन्सो' और 'थर्ड वर्ल्ड मीडिया'के बैनर तले बनी इस 125 मिनट की फिल्म के निर्माता ,पटकथा लेखक - पत्रकार आनंद स्वरूप वर्मा नेबोर्ड के फैसले पर हैरानी प्रकट करते हुए कहा कि फिल्म में भारत में चल रहे माओवादी आंदोलन का जिक्र तक नहीं है। इसमें बस निरंकुश राजतंत्र और राणाशाही के खिलाफ नेपाली जनता के संघर्ष को दिखाया गया है। 1770 ई. में पृथ्वी नारायण शाह द्वारा नेपाल राज्य की स्थापना के साथ राजतंत्र की शुरुआत हुई जिसकी समाप्ति 2008में गणराज्य की घोषणा के साथ हुई। इन 238 वर्षों के दौरान 105 वर्ष तक राणाशाही का भी दौर था जिसे नेपाल के इतिहास के एक काले अध्याय के रूप में याद किया जाता है।
फिल्म के निर्देशक आशीष श्रीवास्तव ने कहा कि फिल्म में दिखाया गया है कि किस प्रकार १८७६ में गोरखा जिले के एक युवक लखन थापा ने राणाशाही के अत्याचारों के खिलाफ किसानों को संगठित किया जिसे राणा शासकों ने मृत्युदंड दिया। लखन थापा को नेपाल के प्रथम शहीद के रूप में याद किया जाता है। निरंकुश तानाशाही व्यवस्था के खिलाफ 'प्रजा परिषद'और 'नेपाली कांग्रेस' के नेतृत्व में चले आंदोलनों का जिक्र करते हुए फिल्म माओवादियों के नेतृत्व में 10वर्षों तक ले सशस्त्र संघर्ष पर केंद्रित होती है और बताती है कि किस प्रकार इसने ग्रामीण क्षेत्रों में सामंतवाद की जड़ों पर प्रहार करते हुए शहरी क्षेत्रों में जन आंदोलन के जरिए जनता को जागृत किया।
फिल्म राजतंत्र की स्थापना से शुरू हो कर,संविधान सभा के चुनाव,चुनाव में माओवादियों के सबसे बड़ी पार्टी के रूप में स्थापित होने,राजतंत्र के अवसान और गणराज्य की घोषणा के साथ समाप्त होती है। सेंसर बोर्ड की आपत्ति को ध्यान में रखें तो ऐसा लगता है कि भारत,नेपाल पर कोई राजनीतिक फिल्म बनाने की यह अनुमति नहीं देगा।कारण कि आज माओवादियों की प्रमुख भूमिका को रेखांकित किए बिना नेपाल पर कोई राजनीतिक फिल्म बनाना संभव ही नहीं है।
नेपाल में माओवादी पार्टी की मई 2009तक सरकार थी और इस पार्टी के अध्यक्ष पुष्प कमल दहाल उर्फ प्रचंड प्रधनमंत्री की हैसियत से भारत सरकार के निमंत्रण पर भारत की यात्रा पर आए थे। नेपाल की मौजूदा संविधान सभा में माओवादी पार्टी सबसे बड़ी पार्टी है और प्रमुख विपक्षी दल है।
सेंसर बोर्ड के इस रवैये के खिलाफ फिल्म के निर्माता आनंद स्वरुप वर्मा अब फिल्म को बोर्ड की पुनरीक्षण समिति के सामने विचारार्थ प्रस्तुत करने जा रहे हैं.
ये तो होना ही था...!
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