Nov 16, 2007
धोखा है
अजय प्रकाश
धोखा है उस मजदूर के साथ
जो हल के पीछे चल रहा है वर्षों से
कि नयी फसल के साथ जिंदगी बेहतर होगी
षड्यंत्र है उस आधी आबादी के साथ
जो सदियों बाद मुक्ति द्वार पर दस्तक दे रही है
निष्क्रियता है तुम्हारे कामों की
जो हरावली होने का दंभ भरते हैं
तुम्हारे कागजी कामों का ही सार है
कि उसके आठ, बारह घंटे हो गये
तुम कमरे में करते रहे विश्लेषण
और वे बाहर टूटते-बिखरते, पीछे हटते रहे
यह कायरता है तुम्हारे बुद्धिजीविता की
जिसने दशकों में भी खून से लथपथ साथी नहीं देखे
और घोषित कर दिया कि
कम्युनिस्ट शिविर विघटित हो चुके हैं
मुनादी करा दी कि तुम अकेले पार्टी हो
और परिवार केंद्रीय कमेटी
मार्क्स की दाढी, एंगेल्स का भौं, लेनिन का नैपकिन
और स्टालिन का बटोरकर
ख्रुश्चेव से लेकर गोर्बोचेव तक पर जब तुम बोल रहे थे
तभी से तुम्हारे पुनर्जागरण्-प्रबोचन का केंद्रीय कर्यभार
धन उगाही रहा
गरियाना मार्क्सवादी रणनीति
पलिहार खेतों के खलिहर चरवाहा बन
बहका रहे हो नयी नस्लों को
अयोध्या ही नहीं गुजरात को भी
सीलबंद कर चुके हो
खैरंलाजी को सोचना ही अवसरवाद है
और विदर्भ की बात करना 'नरोदवाद'
आदिवासियों के लिये लडना
शब्दकोष में शामिल ही नहीं किया
'बोल्शेविज्म' तो तुम्हारे यहां चुप्पी के नाम से ख्यात है
मानो कि याज्ञवल्य के नये संस्करण तुम्ही है
चूं और पों के रूपावतार भी तुम्ही हो
नहीं तो ऐसा क्यों होता कि
तुम शोमैन होती और पार्टी दर्शक
तुम्हीं हो सिक्के गिनने वाले क्रांपा लिमिटेड
मैं कैसे भूल सकता हूं पिछली सदी का वह अंतिम जेठ
थपथपायी थी तुमने पीठ
और सब से पहले मेरी आंखों में देखा था
मगर तुम भूल गये
मार्क्सवाद उबने का नहीं डूबने का दर्शन है
तुम्हें याद है वह दिन
तुमने ब्लैकबोर्ड पर बंकर बनाया था
इस डर से कि कतारें कहीं ज़मीन पर
बारूदी सुरंगें न बिछा दें
और दुश्मन से पहले तुम्हारा वह
रनिवास न ढह जाये
जो तुम्हारी पत्नी के नाम पर है
जिसे कभी पार्टी फंड से बनाया गया था
यह शातिरी है तुम्हारे विचारों की
जो अब विचार ही नहीं रहे
दुकान होकर रह गये हैं
जहां तुम बेच रहे हो
अपनी महत्वाकांक्षायें, कुंठायें और युवा
और युवा कुछ भी कर सकता है
इतना इतिहास तो तुमने पढा ही है
तो आओ
एक प्रकाशन परिकल्पित किया जाये
और प्रकाशनों में क्रांतिकारी, क्रांतिकारियों में प्रकाशन
होनें का निर्विवाद दर्जा लिया जाये
Nov 6, 2007
मैं नक्सली कवि हूं: वरवर राव
वरवर राव से अजय प्रकाश की बातचीत
आपकी साहित्यिक यात्रा की शुरूआत कैसे हुयी?
मैं एक ऐसे परिवार से ताल्लुक रखता हूं जिसने आंध्र प्रदेश के निजाम विरोधी संघर्ष में भागीदारी की आगे चलकर मेरा परिवार कांग्रेसी हो गया इसलिये मैं इस भ्रम में भी रहा कि जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में चल रही कांग्रसी सरकार समाजवाद की स्थापना करेगी १९६०-६२ में श्रीकाकुलम के दमन के बाद मेरा भ्रम क्रमश्: छंटता गया और नेहरू के बारे में मेरी राय १९६४ तक स्पष्ट हो गयी इसी बीच मुझे जनकवि पाणीग्रही ने बेहद प्रभावित किया उन्हीं के प्रभाव में 'सृजना' नाम की साहित्यिक पत्रिका भी निकली उसी दौरान हमने 'विरसम' का गठन किया
किस कविता के पात्र ने आपको अधिक प्रभावित किया है?
आंध्रा के निजामाबाद में एक लोमहर्षक घटना हुई थी। उस पर मैंने 'कसाई' नाम की एक कविता लिखी १९८४ में निजामाबाद के कामारेड्डा कस्बे मे बंद का आहवान किया गया थाजिसमे १९ वर्षीय अमरेंद्र रेड्डी मांस की दुकान बंद कराने पहुंचा बात उलझ गयी और कसाई ने पुलिस को फ़ोन कर दिया पुलिस ने बंद समर्थक को इतना मारा कि उसने मौके पर दम तोड दिया जांच करने गयी कमेटी से कसाई ने बयान किया था कि 'मैंने सोचा पुलिस आयेगी तो उसे पकड ले जायेगी हमें क्या पता था कि उसे गोली मार देंगे मैने कितनी बकरियों का जिबह किया होगा,पर मुझे बकरियों की जात से नफरत नहीं हैलेकिन पुलिसवालों ने बंद समर्थक को जिस वहशियाने अन्दाज मे मारा मुझे लगा असली कसाई मैं नहीं उनकी जमात है'
आप जैसा लिखते हैं वैसा जीते हैं ,क्या एक रचानाकार के लिये यह जरूरी होता है.
रचनाकर्म में रचनायें प्रधान पहलू हैं,उसका व्यक्तिगत जीवन गौण हम रचनाओं से वाकिफ़ हैं और पीढियां भी उसी से वास्ता रखेंगी
आपकी कविताओं से सरकार परेशान हो जाती है, क्या इसलिये कि आप माओवादी कवि हैं?
मैं माओवादी नहीं हूं, रचनाकार हूं बेशक आप मुझे नक्सली कवि कह सकतें हैं
साल भर पहले बनी पीडीएफ़आई {पीपुल्स डेमोक्रेटिक फेडेरेशन ऑफ इंडिया} का क्या
लक्ष्य था.
लोकतांत्रिक हकों को बहाल करने और नये जनवादी अधिकारों को हासिल करने का पीडीएफ़आई एक खुला मोर्चा है सामंती उत्पीडन एव साम्राज्यवादी लूट के खिलाफ़ हमारी एकता ऐतिहासिक है जो 'मुंबई प्रतिरोध मंच' के दो सालों के गंभीर प्रयासों की देन है १७५ संगठनों का यह मोर्चा हमेशा कायम रहेगा या नहीं यह बाद की बात है परंतु आज दरकार इसकी है कि हम सत्ता दमन के खिलाफ़ एक व्यापक एकजुटता कायम करें पीडीएफ़आई आम जनों के शोषण, देशी-विदेशी कंपनियों की लूट, जल-जंगल- ज़मीन पर हक और अर्जित की गयी पूंजी देश में रहे, ऐसे तमाम मौलिक मांगों पर एक आम सहमति रखता है जहां तक इसके भविष्य का प्रश्न है तो यह कहा जा सकता है कि संघर्ष के एक मुकाम के बाद 'वर्ग संघर्ष' के सवाल पर मतभेद उभर सकते हैं
पीडीएफ़आई में आप जैसे संस्कृतिकर्मियों की भागीदारी का औचित्य ?
समानांतर जनसंस्कृति का एक नाम 'विरसम' है विप्लवी रचयिता संग्रामी मंच जनता की संघर्षशील चेतना को उन्नत कर रहा हैइसलिये यह जरूरी नहीं कि हम जहां जायें वे कम्यूनिष्ट ही हों जैसे चिली में १९७३ में एलएनडी के नेतृत्व में संघर्ष हुआ लेकिन वह शुरुआती राजनितिक जीवन में कम्युनिस्ट नहीं था फिर भी उसके रचे गीतों ने जनता की विद्रोही चेतना को सघर्षों से एकरूप किया विशाल गोखले को ही देखें तो उन्होने जो विद्रोही गीत गाये, उन गीतों का गोखले की रजनितिक समझ से कोई तालमेल ही नहीं है इसलिये संस्कृतिकर्मी किसी पार्टी का नहीं बल्कि संघर्षशील सर्वहारा का हरावल होता हैविश्व के कई देशों में इस तरह के उदाहरण देखे जा सकते है
लेकिन सरकार ने 'विरसम' पर यह कहकर प्रतिबंध लगा दिया कि यह नक्सलवादियों का एक मंच है?
सरकार का रवैया फासीवादी है हम नक्सलवादी फ़्रंट नहीं है,परंतु नक्सलबाडी की विरासत को आगे बढाने वाले ज़रूर है
साम्राज्यवाद विरोधी सघर्षों में मुसलमान जनता की भागीदारी न के बराबर है?
'मुंबई प्रतिरोध मंच'२००४ के आयोजन में कम्युनिस्टों के बाद सबसे बडी भागीदारी साम्राज्यवाद विरोधी मुस्लिम सगठनों की थी पीडीएफ़आई मे उनकी भागीदारी नहीं हो सकी हैबेशक यह हमारी कमी है
क्या वजह रही कि 'मुंबई प्रतिरोध मंच' में जहां ३५० संगठन थे वह संख्या पीडीएफ़आई में घटकर १७५ हो गयी है?
यह लोकसंघ्रर्ष का एक मोर्चा हैपीडीएफ़आई जितने संगठनों को फिलहाल अपने साथ ला सकता था उनका उसने साथ लियाभारत जैसे बडे देश मे हज़ारों संगठन छोटे स्तर पर ही सही मगर सम्राज्यवाद-सामंतवाद के खिलाफ़ मुहिम चला रहे है इसलिये सारे संगठनों से पीडीएफ़आई का संपर्क अभी भी होना बाकी है
राष्ट्रीयताओं के सघर्ष यानी 'अलगाववाद' को किस रूप में देखते हैं?
राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चल रहे राष्ट्रीयताओं के संघर्षों का क्रांतिकारी समर्थन करते हैं राष्ट्रीयताओं की मांगों को सरकार को फौरी तौर पर मान लेना चाहिये इतिहास का उदाहरण रूस से लिया जा सकता है जहां लेनिन ने छोटे-छोटे राज्यों को राष्ट्रीयता का दर्जा दे दिया था आगे चलकर हुआ यह कि वे सभी देश फिर रूस में शामिल हो गये और सोवियत संघ का निर्माण हुआ मगर वे अपनी स्वेच्छा से शामिल हुए हैं
आंध्र प्रदेश सरकार से नक्सलवादियों की बातचीत में आप वार्ताकार थे, उसका कोई हल नहीं निकला?
हल निकलता भी कैसे? एक तरफ़ सरकार हमसे शांति वार्ता कर रही थी और दूसरी तरफ़ सरकार इनकाउंटर कर रही थी हम कांबिंग बंद करने तथा फ़र्जी इनकाउंटर पर केस दर्ज करने की मांग कर रहे थे और पुलिस बल अपनी कार्रवाइयां ज़ारी रखे हुए था मेरा स्पष्ट मानना है कि नक्सली नेताओं का फर्जी इनकाउंटर पुलिसिया कार्रवाई मात्र नहीं है बल्कि राज्य प्रयोजित अभियान है १९९० में कांग्रेस मुख्यमंत्री चन्द्रा रेड्डी के कार्यकाल में जनवरी से सितम्बर तक आंध्र प्रदेश में एक भी इनकाउंटर नहीं हुआ ऐसा पुलिस के चलते नहीं राज्य सरकार के चलते हुआ था
प्रमुख मांगें क्या थीं?
जितने भी इनकाउंटर हुए हैं उसमें पुलिस वालों के खिलाफ़ ३०२ और ३०७ द्क मुकदमा दायर किया जाये साथ ही पुलिस बल यह साबित करे कि उसने जो कत्ल किये हैं वह आत्मरक्षा में हुए हैं इस मांग को सरकार ने सिरे से नकार दिया हमारी दूसरी मांग भूमि सुधार की थी आंध्र प्रदेश में लगभग ३५ प्रतिशत ज़मीन सरकार की है पूरी योजना के साथ हमने सरकार को बताया की आंध्र की भूमिहीन जनता को तीन-तीन एकड ज़मीन दी जाये
तो फिर आपकी गिरफ्तारी क्यों हुई?
वही पुराना बहाना कि मैं नक्सलियों का वर्ताकार था वारंगल में चल रहे 'विरसम' की दो दिनी कांफ़्रेंस पर भी हमला हुआ और १७ अगस्त को विरसम पर प्रतिबंध लगा १९ अगस्त को मुझे गिरफ्तार कर लिया गया
( बातचीत पहले की है, कुच्छ सन्दर्भ पुराने लग सकते हैं)
तबाही की बुनियाद पर बांध
टिहरी तथा नर्मदा के बाद अब एक और बडे बांध को बनाने की तैयारी हो गयी है जो पोल्लावरम बांध परियोजना के रूप में जाना जायेगा़। आंध प्रदेश के तेलंगाना क्षेृ में बनने वाला 150 मीटर की ऊंचाई का यह दुनिया का तीसरा सबसे बडा बांध होगा। यहां गोदावरी नदी बहती है। इस बांध के बन जाने पर तेलंगाना ही नहीं छत्तीसगढ का दंतेवाडा जिला और उडीसा के भी दर्जनों गांव जल समाधि ले लेंगे। डूबने वाले 276 गांवों में 150 फीसदी आदिवासी तथा 15 प्रतिशत अनुसूचित जाति के लोग होंगे। अजीब है कि नर्मदा या टिहरी की तरह इसका विरोध नहीं हो रहा है, न कहीं आंदोलन की सुगबुगाहट है। स्थानीय तौर पर कुछ संगठन जरूर इसकी खिलाफत कर रहे हैं जो नाकाफी है। पोल्लावरम बांध बनने से होने वाली तबाही का जायजा लेने एक फैक्ट फाईडिंग कमेटी ने प्रभावित क्षेतरों का दौरा किया जिसमें दि संडे पोस्ट संवाददाता अजय प्रकाश भी शामिल थे। वहां से लौटकर पेश है उनकी यह रिपोर्ट
किसान विद्रोह और अब अलग राज्य की मांग के लिए आंदोलन तेलंगाना वह क्षेत्र है जहां की मिटटी में पैदा हुआ यूकेलिप्टस का कागज देश को साक्षर बनाता है, कोयले से पैदा हुयी बिजली भारत को रोशन करती है और उस मिटटी में उपजा कपास,धान,मिर्च तथा तम्बाकू तन ढकने के साथ-साथ जीने की खुराक देता है। विस्तार में जायें तो प्राकतिक प्रचुरता की बदौलत जो एहसान बाकि देश पर तेलंगाना ने किया है उसेकी भरपाई के रूप में वह तबाही,गैर बराबरी और विनाश का दंश वर्षों से झेलता रहा है। इस बार आन्ध्र प्रदेश के तटीय क्षेत्र के जिलों और जमीनों के वास्ते जिस पोल्लावरम बांध को बनाने की तैयारी केन्द्र और प्रदेश सरकारें कर रहीं हैं उससे तेलंगाना की आदिवासी जनता की ऐतिहासिक और सांस्ककितिक धरोहरें तो नष्ट होगी ही यहां के सामातिक'आर्थिक ढांचे को भी भारी नुकसान होगा। इसकी भरपाई किसी भी तरह के कितने भी संसाधन उपलब्ध्ा कराकर या पुनर्वास योजना लागू कर सरकारी मशीनरी नहीं कर सकती। बाल एवं महिला विकास मंतरी रेणुका चौधरी के संसदीय क्षेतर खम्मम के कुल सात मंडलों के पूरी तरह डूब जाने या फिर जीवन जीने की परिस्थितियां समाप्त हो जाने की प्रबल संभावना है। इसके अलावा पूर्वी एवं पश्िचमी गोदावरी जिला के एक'एक मंडल भी जलमग्न हो जायेंगे। आंध्र प्रदेश का विशाखापटनम, करष्णना जिला तथा कुछ अन्य क्षेतरों में पानी पहुंचाने लिए यह बांध बनाया जा रहा है। जिसके बाद खम्मम जिले के सातों आदिवासी मंडल डूब जायेंगे। मंडल के नजदीक गोदावरी नदी पर बनाया जा रहा पोल्लावरम बांध जिन लोगों को पानी में डूबो देगा उसमें ज्यादातर कोया और कोयारेडिडस आदिवासी हैं।
150 मीटर ऊंचाई के दुनिया के तीसरे सबसे बडे बांध के रूप में बनने को तैयार पोल्लावरम बांध पर सरकार ने निशानदेहीयां कर दी हैं। बताया जाता है कि अगले कुछ महीनों में इसे बनाने की शुरूआत कर दी जायेगी। बांध के निर्काण में लगने वाली लागत का ठीक'ठाक अनुमान लगाना मुश्िकल है इसलिए 20 हजार करोड से 50 हजार करोड तक के बजट की संभावना विशेषज्ञ जता रहे हैं।
बहरहाल, बांध बनाने की तैयारियां सरकार ने तब पूरी कर ली हैं जबकि अभी तक ज्यादातर संस्तुति देने वाले मंतरालयों और विभागों ने अनुमति भी नहीं दी है। केन्द्रीय जल आयोग ने सुप्रीम कोर्ट में राज्य सरकार को पार्टी बनाते हुए पोल्लावरम प्रोजैक्ट के खिलाफ केस कर दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने आंध्र प्रदेश सरकार को कारण बताओ नोटिस जारी किया है। इसके लिए वन, पर्यावरण, राष्टरीय अनुसूचित जनजाति आयोग तथा कुछ अन्य सरकारी आयोगों से भी अनुमति नहीं ली गयी है। इधर सुप्रीम कोर्ट के कारण बताओ नोटिस के जवाब में प्रदेश सरकार बांध बनाने को लेकर तमाम अंतविरोधी पहलुओं को अन्य सरकारी संस्थाओं की राय के तौर पर रख रही है।
आंकडों की जुबानी की बात करें तो सरकारी स्रोतों के अनुसार डूबने वाले 276 गांवाें में 50 प्रतिशत आदिवासी हैं तथा 95 प्रतिशत अनुसूचित जाति के लोग हैं। दो लाख छत्तीस हजार लोगों को उनकी संस्करति'सभ्यता से उजाडकर दूसरी जगह बसाने की बात करने वाला पोल्लावरम प्रोजेक्ट जिन कोया और कोयारेडिडस आदिवासियों को उजाडने की योजना पर अमल करने की तरु बढ रहा है। यह आदिवासी जमात जंगलों में रहती है। उनकी भाषा आंध्र प्रदेश की आम भाषा हेलगू भी नहीं बल्कि कोया बोलते हैं। ऐसे में यदि इलकों में पुनर्वास के लिए बनाये जा रहे घरों में उन्हें लाकर बसा दिया गया तो या फिर ये दर'बदर हो जायेंगे नहीं तो वे स्वत खत्म हो जायेंगे। आदिवासियों की इन तमाम सांस्करतिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक विविधताओं पर सरकार द्वारा ध्यान न दिया जाना स्पष्ट करता है कि आदिवासियों के हक'हकूक की चिंता न तो सरकार को है और न वहां काम कर रही राजनीतिक पार्टियों को।
आश्चर्यजनक तो यह है कि जिस बांध के बनने के बाद तेलंगाना का समरद मिर्च, धान और तम्बाकू का क्षेतर पानी में तिरोहित हो जायेगा उसका पानी भी इसके किसी जिले को नहीं मिलने वाला है। एक अनुमान के अनुसार सिर्फ खम्मम जिले में 50 लाख एकड जमीन खेती योग्य है किन्तु पानी के अभाव में यह बेकार पडी हुई है। इसके उलट सच्चाई ये है कि गंगा के बाद देश की दूसरी सबसे बडी नदी गोदावरी तेलंगाना के क्षेतर में 77 प्रतिशत तथा इसी क्षेतर में आंध्र प्रदेश की जीवन रेखा मानी जाने वाली नदी करष्णा भी 65 प्रतिशत बहती है। बावजूद इसके यहां का बहुतायात क्षेतर असिंचित रह जाता है क्योंकि आजादी के बाद से लेकर अब तक कोस्टल आंधरा के लिए जल वितरण की व्यवस्थाएं सरकार करती रही है और विकास भी।
1954 में न्यायाधीश फजल अली के नेतत्व में प्रथम राज्य पुनर्गठन कमेटी की जो सिफारिश आयी उसके बाद वरहत आंधरा के कई एक जिले केरल, कर्नाटक राज्य में चले गए तथा आंध प्रदेश के नौ जिले तेलंगाना के हिस्से में आये। महबूबनगर, नालागुण्डा, मेदक, हैदराबाद टवीन सिटी,निजामाबाद, अदीलाबाद, करीमनगर, वारंगल तथा खम्मम जिले वाले तेलंगाना के बारे में न्यायाधीश फजल अली ने भारत सरकार से स्पष्ट कहा कि भौगाेलिक, सांस्करतिक भाषायी फर्क के मददेनजर तेलंगाना को एक अलग राजय का दर्जा दिया जाना चाहिए। कभी सीपीआई के नेतत्व में अलग राज्य की मांग के साथ खडा हुआ तेलंगाना संघर्ष अब तेलंगाना राष्टर समिति के नेतत्व में चल रहा है। तेलंगाना राष्टर समिति के वारंगल विधायक विजय रामा राव ने बातचीत के दौरान बांध का विरोध इसलिए किया क्योंकि सरकार ने अधिकरत विभागों से अनुमति नहीं ली है। सवाल यह उठता है कि क्या यदि सरकार सभी विभागों से मंजूरी ले भी ले तो भी बांध बनाना जनता के हित में होगा। तेलंगाना क्षेतर के नालागुण्डा जिलेके लोग पिछले 25 30 वर्षों से पानी के अभाव में फलोरोसिस के शिकार हैं। इसके लिए बांध बनने से पुनर्वास के इलाकों में जल'स्तर के अत्यधिक ऊपर हो जाने के बाद कोई महामारी नहीं फैलेगी इसकी कोई गारंटी नहीं है। विशेषज्ञों का मानना है कि बांध बनने के बाद जल स्तर इतना ऊपर आ जायेगा कि पीने योग्य पानी कई तरह के रोगों को पैदा करेगा। इतना ही नहीं तेलंगाना के क्षेतरों में बांध या छोअी नहरों के अभाव के चलते हर वर्ष लगभग 2000 से 3000 टीएमसी पानी बंगाल की खाडी में चला जाता है। तेलंगाना के साथ आंध्र प्रदेश सरकार कैसा व्यवहार करती है यह इन चंद उदाहरणो्रं के अलावा कोस्टल आंध्र के करष्णा जिले के बजट से भी समझा जा सकता है। हैदराबाद हाईकोर्ट के वकील चिकडू प्रभाकर बताते हैं कि करष्णा जिला का बजट पूरे तेलंगाना के बजट से अधिक है।
नर्मदा से भी उंचा बनने वाला यह बांध किसी जाति,धर्म या क्षेत्र को खत्म नहीं करेगा बल्कि इस इलाके की संरचना को खत्म कर दे्गा। इसको संरचनात्मक हिंसा कहा जाता है। गैर सरकारी सूत्रों के मुताबिक यहां 276 गांव ही नहीं लगभग 400 गांव डूब जायेंगे। डूबने वाले क्षेत्रों की तुलना उत्तर प्रदेश या बिहार के गांवों से नहीं की जानी चाहिये क्योंकि इन राज्यों में गांवों की बसावट सघन है। तेलंगाना के गांवों के बीच की दूरी उत्तर प्रदेश सरीखे राज्यों की दो तहसीलों के बीच की दूरी से भी अधिक होती है। इसलिये खेती योग्य भूमि, अकूत प्राकृतिक संसाधनों से भरे पडे जंगलों के जो परिक्षेत्र डूब जायेंगे वह लाखों-लाख हेक्टेयर में होगे। महत्वपूर्ण है कि बांध बनने से पहले भी खम्मम जिले के नौ मंडलों में से ज्यादातर मंडल हर साल बाढ में एक-दो हफ़ते के लिये डूब जाते हैं। कल्पना की जा सकती है कि जब बांध बन जायेगा तो जिसकी वजह से हजारों सालों से गोदावरी की गांद में बसी सभ्यतायें नष्ट हो जायेंगी।
Oct 11, 2007
महबूबा ने जो कुछ कहा
'आफ्सपा' को खत्म करो
जम्मू-कश्मीर से सेना वापसी, कश्मीरी स्वायतता,अलगाववादियों के संघर्ष,अफजल की फांसी और आफ्सपा कानून जैसे मसलों पर पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी की अध्यक्ष महबूबा मुफ्ती से अजय प्रकाश की बातचीत
कश्मीर में भारतीय फौजों की मुस्तैदी क्यों नहीं की जाये?
वर्ष २००४ के लोकसभा चुनावों में अस्सी फीसदी वोट पडने से यह साबित होता है कि परिस्थितियां बदल चुकी हैं| हालिया सरकारी आंकडों के मुताबिक़ मात्र ८०० आतंकवादी कश्मीर में सक्रिय हैं जबकि कभी इनकी तादाद हज़ारों में थी और लाखों की संख्या में इनके समर्थक थे| पिछले २००३-०४ से भारी संख्या में पर्यट्कों का आना-जाना शुरू हुअ है| ऐसे में तमाम तथ्य इस बात की गवाही देते हैं के कश्मीरियों को फौज की नहीं, नये सुकूनी माहौल की ज़रूरत है| १७ सालों से अस्पताल्, स्कूल,ऑफिस, मस्जिद यहां तक कि हमारे खेत भी फौजों के साये से ऊब चुके है| नयी पीढियां अब खुली हवा में सांस लेना चाह्ती हैं| एक नागरिक का सम्मान चाहती हैं|
क्या फौज हटाने पर हालात बदतर नहीं होंगे
खौफ में जी रहे लोगों के बीच से सेना चली जायेगी तो जनता, सुरक्षा बलों से भी बेहतर ढंग से संतुलित हालात क़ायम करेगी। क्योंकि उसे फिर से फौज नहीं चाहिये| प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, केन्द्रीय गृहमंत्री और सेना प्रमुख का बार-बार यह कहना कि कश्मीर की आबो-हवा बदली है और लोगों की लोकतंत्र के प्रति आस्था बढी है, इसी बात की गवाही है। जिन पार्टियों या संगठनों को यह लगता है कि फौज हटते ही कश्मीर में आफत आ जायेगी वह लोकतंत्र में सरकार की भूमिका को दरकिनार करते हैं|शांति व्यवस्था बनाये रखने का सारा दारोमदार जब फौज पर ही है तो चुनाव कराने की क्या ज़रूरत। राष्ट्रपति शासन क्यों नहीं लागू करा दिया जाता?
भारतीय फौज की छवि कश्मीरियों के बीच कैसी है?
कश्मीर के मामले में ये सच है कि कभी फौजों ने सडक या पुल निर्माण जैसे बेहतर काम भी किये हैं। मगर सैकडों फर्जी मुठभेडें भी फौजी जवानों ने ही की हैं|
आजादी से लेकर अब तक कश्मीर समस्या के समाधान के प्रति राज्य और केन्द्र में से बेहतर रोल किसका रहा है?
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने हिन्दुस्तान-पाकिस्तान के बीच जिस वार्ता की शुरूआत की उसे ही मैं समाधान की तरफ बढा पहला क़दम मानती हूं| हां यह सच है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह उसी को सावधानी और सफलतापूर्वक आगे बढा रहे हैं| अवाम को समझ में आ गया है कि कश्मीर समस्या का समाधान हिन्दुस्तान, पाकिस्तान और कश्मीरी प्रतिनिधियों की त्रिपक्षीय वार्ता से संभव है,हथियारों से नहीं |
एक मत ऐसा भी है कि जम्मू कश्मीर में जारी अशांति और खौफ हिन्दुस्तान पाकिस्तान का सियासती मुआमला है।
यह बीते समय की बात है| अब भारत और पाकिस्तान में होने वाली सियासतों के साथ-साथ आर्थिक ज़रूरतें भी महत्वपूर्ण हो गयीं हैं| सही मायनें में बाजार की ज़रूरतों ने उन सरहदों को तोडना शुरू कर दिया है जिनका राजनीतिक हल नहीं निकल सका| क्या यह अच्छा नहीं होगा कि लोग सरहद पार पाकिस्तान के मुजफ्फराबाद से खरीदारी करें और पाकिस्तान के लोग भी कश्मीरियों को गले लगायें| दोनों देशों में जारी भूमण्डलीकरण ने जो नयी सामाजिक-आर्थिक परिघटना पैदा की है उससे भारत-पाकिस्तान के बीच एक नये सौहार्दपूर्ण भविष्य का निर्माण होगा।
अनगाववादियों के संघर्ष से पीडीपी के कैसे रिश्ते हैं। कश्मीर देश बनाने की मांग आज के समय में कहां खड़ी है?
लोकतंत्र में सभी को अपने मत के हिसाब से संगठन बनाने का अधिकार है। मैं अलगावादियों की मांगों को सिर्फ इसी रूप में देखती हूं। स्वायत्त कश्मीर की मांग पीडीपी कभी नहीं किया। यह मुद्दा नेशनल कांफ्रेंस का है। पीडीपी का मानना है कि स्वायत्तता से बड़ा प्रश्न जनता के सशक्तीकरण और नागरिक अधिकारों को बहाल कराने का है। साथ ही राज्य के लोग एक लंबे अनुभवसे यह समझ चुके हैं कि अलग कश्मीर समस्या का समाधान नहीं है।
कहा जा रहा है कि अफजल की फांसी, एक बार फिर कश्मीरी युवाओं के हाथों में हथियार थमा सकती है।
१९८४ में मकबूल बट्ट को फांसी दिये जाने के बाद युवाओं ने हिन्दुस्तानी हुकूमत के खिलाफ हथियार उठा लिये थे। खुदा-न-खास्ता ऐसा हुआ तो कहा नहीं जा सकता कि कैसे हालात बनेंगे? पीडीपी की मांग रही है कि अफजल को फांसी न दी जाये। पहले फेयर ट्रायल हो फिर सजा मुकर्रर की जाये।
कश्मीर में लागू आफ्सपा के बारे में आपका मत ?
आफ्सपा अलोकतांत्रिक कानून है । इसमें न्यूनतम नागरिक अधिकार खत्म हो जाते हैं। हिन्दुस्तान-पाकिस्तान वार्ता सुचारू हो,कश्मीरी भारतीय सरकार में विश्वास करें,इसके लिए जरूरी है कि सरकार जन विरोधी कानून को तत्काल रद्द करे। आफ्सपा की दहशत को हम दिल्ली या किसी दूसरे राज्य में रहकर महसूस नहीं कर सकते। कोई कश्मीर मे जाकर देखे कि शादी के मंडप से लेकर अस्पताल तक संगीनों और कैंपों की इजाजत के मोहताज होते हैं।
कश्मीर के पैंतीस फीसदी शिक्षित युवा बेरोजगार हैं, इसके लिये कोई प्रयास।
अभी राज्य को हम एक असामान्य से सामान्य राज्य की तरफ ले जा रहे हैं। पूरी ताकत से रोजगार सृजन और साधन संपन्न कश्मीर बनाने की तैयारी है। गौर करने लायक यह है कि देश-दुनिया के दूसरे हिस्सों के उद्योगपति कश्मीर में कल-कारखाने खोलने से हिचक रहे हैं। कारण कि यहाँ फौज है। जब तक फौज रहेगी, पुरस्कार के लिये कश्मीरी युवा पाकिस्तानी आतंकवादी बताकर मारे जाते रहेंगे और उद्योगपति कश्मीरी सीमा में प्रवेश ही नहीं करेंगे। जहाँ घाटी के एक लाख कनाल जमीन पर सुरक्षा बल अबैध रूप से कब्जा जमाये हुये हैं वहीं लद्दाख के दो लाख कनाल पर उनका ही कब्जा है। सभी जानते हैं कि लद्दाख आतंक प्रभावित क्षेत्र नहीं है। साथ ही हिन्दुस्ता-पाकिस्तान में हुयी इन्डस ट्रीटी संधि से हर साल ६,००० करोड़ रुपये का नुकसान होता है जिसका प्रत्यक्ष असर कश्मीर की अथर्व्यवस्था पर पड़ता है।
राज्य में कश्मीरी हिन्दुओं पर हुये जुल्मों के लिये मुस्लिम कट्टरपंथ कितना जिम्मेदार है?
जो जुल्म हुआ उसमें सिर्फ कश्मीरी हिन्दू ही तबाह-बबार्द नहीं हुये बल्कि मुस्लिम भी आतंकवादी और फौजी हमलों में मारे गये। कश्मीरी हिन्दुओं के जाने से स्कूलों के मौलवी बेरोजगार हुये, क्षेत्र की अथर्व्यवस्था चौपट हुयी। बहरहाल सौहार्द का माहौल कायम हो रहा है। इस वर्ष खीर वाड़ी पर्व पर हजारों कश्मीरी हिन्दुओं का पहुंचना इसी का प्रमाण है।
पीडीपी पर यह आरोप है कि वह कट्टरवादी शक्तियों का समथर्न करती रही है?
हमेशा से पीडीपी आरोपों का जवाब अपने काम से देती आ रही है। हमारा समथर्न सुकून और सौहादर् कायम करने वालों के साथ है, आरोप चाहे जो लगें।
Sep 7, 2007
लोग बीमार हैं,चलो डाक्टर को छुड़ा लायें
अजय प्रकाश<
डॉक्टर विनायक मेन, शिशुरोग विशेषज्ञ आजकल अपने अस्पताल बगरूमवाला में नहीं रायपुर केंद्रीय कारागार में मिलते हैं। जहां मरीज नहीं बल्कि डॉक्टर सेन को जेल से मुक्त कराने में प्रयासरत वकील बुद्धिजीवी, सामाजिक कायर्कतार् और दो बेटियां एवं पत्नी इलीना सेन पहुंचती हैं. छत्तीसगढ़ सरकार की निगाह में विनायक सेन राजद्रोही हैं। क्योंकि उन्होंने डॉक्टरी के साथ-साथ एक जागरूक नागरिक के बतौर सामाजिक कायर्कतार् की भी भूमिका निभायी है। विनायक सेन को राजद्रोह, छत्तीसगढ़ विशेष जनसुरक्षा कानून 2005 और गैरकानूनी गतिविधि (निवारक) कानून जैसी संगीन धाराओं के तहत गिरफ्तार किया गया है। डॉक्टर विनायक पीयूसीएल के छत्तीसगढ़ इकाई के महासचिव से वहां नक्सलियों के मास्टरमाण्ड उस समय हो गये जब रायपुर रेलवे स्टेशन से गिरफ्तार पीयूष गुहा ने यह बताया कि उससे जब्त तीनों चिट्ठियां (जो अंग्रेजी एक बंग्ला) नक्सली कमाण्डर को सुपुदर् करने के लिये थीं मगर उसमें यह तथ्य नहीं है चिट्ठियां विनायक सेन से प्राप्त हुयीं। दूसरी बात जिसे कईबार कोटर् में पीयूष गुहाने कहा भी है कि उसे एक मई को गिरफ्तार किया गया जबकि एफआईआऱ छह मई को दजर् हुयी। मतलब साफ है कि पुलिस ने पीयूष को छह दिन अवैध हिरासत में रखा है।
पुलिस को पीयूष गुहा के बयान के अलावा और कोई भी पुख्ता सुबूत विनायक सेन के खिलाफ नहीं मिल सका है। बुजुगर् नक्सली नेता नारायण सन्याल से तैंतीस बार मिलने को तथा उन चिट्ठियों को भी पुलिस ने आधार बनाया है जो नारायण ने जेल में मुलाकात के दौरान विनायक को सौंपी थी। विनायक सेन के घर से प्राप्त हुयी सभी चिट्ठियों पर जेल की मुहरहै और जेलरने पत्र को अग्रसारित किया है। विनायकसेन के पदार्फास की कुछ उम्मीद पुलिसको उनके घर से जब्त सीडीसे बंधी लेकिन वह भी मददगार साबित न हो सकी। यही नहीं सनसनीखेज सुबूत का दावा तब किया गया जब सेन के कम्प्यूटर को पुलिस उठा लायी। इसके अलावा नक्सली सहयोगी होने के जो प्रमाण उनके घर से जब्त हुए हैं उस आधार पर देश के लाखों बुद्धिजीवियों और करोंड़ों नागरिकों को सरकार गिरफ्तार कर सकती है। हालात जब इस तरह के हो तो सरकार के लिए बेहतर यही होगा कि वह सरकारी नीतियों को बदले।
विनायक सेन की गिरफ्तारी को जायज ठहराने में लगा बल सुबूतों को जुटाने के मामलों मुखर्ताओं की हदें पार कर गया है। पीयूष माचर् पत्रिका, के एक प्रति और एक वामपंथी पत्रिका, अमेरिकी साम्राज्यवाद के खिलाफ अंग्रेजी में लिखा गया हस्तलिखित पचार्, लेनिन की पत्नी कुस्पकाया द्वारा लिखित पुस्तक लेनिन रायपुर जेन में सजायाफ्ता माओवादी मदनलाल का पत्र जिसमें उसने जेल को अराजकताओं-अनियमितताओं उजागर किया हैं तथा कल्पना कन्नावीरम का इपीडब्ल्यू (इकॉनोमिकल एण्ड पोलिटिकल वीकलीः में छपे लेख को भी उसने जब्त किया है। विनायक सेन के खिलाफ ढीले पड़ते सुबूतों के मद्देनजरपुलिस ने कुछ नये तथ्य भी कोटर् को बताये हैं जिसमें राजनादगांव और दंतेवाड़ा के पुलिस अधीक्षकोंने नक्सलियों से ऐसे साहित्य बरामद हुए हैं जिनमें विनायक सेन की चचार् है। यान कल को माओवादियों के साहित्य या राजनीतिक पुस्तकों में किसी साहित्यकार, इतिहासकार या समाजिक आन्दोलनों से जुड़े लोंगों की चचार् हो तो वे आतंकवाद निरोधक कानूनों के तहत गिरफ्तार किये जा सकते हैं।
विनायक देश के पहले नागरिक हैं जिन्होंने छत्तीगढ़ राज्य द्वारा चलाये जा रहे दमनकारी अभियान सलवा जुहूम का विरोध किया। इतना ही नहीं राष्ट्रीय स्तर पर फैक्ट फाइडिंग टीम गठित कर दुनियाभरको इतना किया कि यह नक्सलवादियों के खिलाफआदवासियों का स्वतः स्फूतर् आंदोलन नहीं बल्कि टाटा, एस्सार, टेक्सास आद के लिये उन जल, जंगल, जमीनों को खाली कराना है जिसपर कि माओंवादी के चलते साम्राज्यवादियों का कब्जा नहीं हो सका है। माओवादी हथियारबंद हो जनता को गोलबंद किये हुये हैं इसलिये पुंजीपरस्त सरकार के लिये संभव ही नहीं है कि उनके आधार इलाकों मे कत्लेआम मचाये बिना कब्जा कर ले। खासकर, तब जब जनता भी अपने संसाधनो को देने से पहले अंतिम दम तक लड़ने के लिये तैयार है। दमनकारी हुजूम यानी सलवा जुडूम की नंगी सच्चाई के सामने आने से राज्य सरकार तिलमिला गयी। जिसके ठीक बाद बस्तर क्षेत्र के तत्कालीन डीजीपी स्वगीर्य राठौड़ ने कहा था कि मैं विनायक सेन और पीयीसीएल दोनों को देख लूंगा। यहां तक कि इलिना विनायक सेन की पत्नी पर भी पुलिस ने आरोप लगाया कि उन्होंने अनिता श्रीवास्तव नामक फरार नक्सली महिला की मदद की। यह सब चल ही रहा था कि इसी बीच विनायक सेन पर धमर्सेना ने धमार्न्तरण का आरोप मढ़ना शुरू कर दिया। धमर्सेना के इस कुत्साप्रचार का दजर्नों गांवों के हजारों नागरिकों ने विरोध किया।
शंकर गुहानियोगी के अनुभवों और अपनी वगीर्य दुष्टि की ऊजार् को झोंककर जो संस्थाये विनायक सेन ने खड़ी की हैं वह उदाहरणीय है। कहना गलत न होगा कि विनायक सेन नेता नहीं हैं मगर जनता के आदमी हैं । छत्तीसगढ़ राजधानी रायपुर से लगभग 150किलोमीटर दूर धमतरी जिले के गांवों के उन गरीब आदिवासियों के बीच पहुंचा अपना विनायक बेकारी की मार झेलते हुये वहां नहीं गया। वह देश के दूसरे नम्बरके बड़े आयुविर्ज्ञान संस्थान सीएमसी वेल्लुरसे एमडी, डीसीएच है। विनायक चिकित्सा के क्षेत्र में दिये जाने वाले विश्व स्तर के पुरस्कार पॉल हैरिसन प्राइज से वह नवाजे जा चुके हैं। 1992 से धमतरी जिले के बागरूमवाला गांव में सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र संचालित करने वाले विनायक सेन ने सामान्तर सामुदायिक शिक्षा केन्द्रों की स्थापना की। डॉक्टर को यह साहस और अनुभव छत्तीसगढ़ मुक्ति मोचार् के संस्थापक स्वगीर्य शंकर गुहानियोगी से मिला।
परन्तु क्या यह सब करते हुये विनायक सेन अपने डॉक्टरी कतर्व्य को भी बखूबी निभा पाये। पिछले बारह वषोर् से स्वास्थ्य केंद्र की देखरेख कर रहीं शांतिबाई ने बताया कि डॉक्टर साहब शायद ही कोई मंगलवार होता जबकि नहीं आते। बगरूमनाला स्वास्थ केन्द्र शान्तिबाई ने सवाल किया कि आतकंवादी तो वह होता है जो दंगा-फसाद करे, देश को तोड़े या फिर गरीबों को सताये लेकिन हम डॉक्टर साहब को चौदह साल से जानती हूं। जब मैं जवान थी तबसे आज तक कभी हमारे साथ गलत नहीं किया। हम अकेली नहीं हूं जो डॉक्टर साहब के बारे में ऐसा मानती हूं। यहां से तीन दिन पैदल चलकर जिन गांव-घरों में आप पहुंच सकते हैं उनसे पूछिये डॉक्टर साहब कैसा आदमी है, बगरूमनाला के सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में कैसा इलाज होता है क्योंकि हम नहीं जानती कि यहां इलाज कराने लोग कितने किलोमीटर से आते हैं। लेकिन लोग बताते हैं कि वह तीन दिन पैदल चलकर आये हैं।
1992 में इस गांव में डॉक्टर ने सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र खोला। डॉक्टर साहब की गिरफ्तारी की तीन महीने पूरे होने को हैं। न जाने कितने सौ मरीज लौटकर चले गये। इसी गांव में एक नौजवान लड़का अण्डकोष की बीमारी से दवा के अभाव में मर गया। जबकि गांव से लेकर शहर तक सबकुछ पहले जैसा है सिफर् एक डॉक्टर नहीं हैं। रोते हुए बोली मेरा दिल कहता है अगर हम लोग डॉक्टर को नहीं बचा सके तो अपने बच्चों को भी नहीं बचा पायेंगे।
Sep 6, 2007
विदर्भ के किसानों पर रिपोर्ट
कज्र के कब्रगाह में दफन किसान
अजय
विदर्भ की मिटटी अभी काली है जो हजारों किसानों की मौतों के बाद भी लाल नहीं हुई। इस वर्ष के बीते मात्र तीन महीनों में महाराष्टृ के विदर्भ से जिन 250 किसानों के मरने की सूचना है उन्होंने संविधान सम्मत भाषा में 'आत्महत्या ही की है। इसी के मददेनजर प्रधानमंत्री ने पिछले वर्ष कोलसरी गांव का दौरा कर 3750 करोड रूपये के विशेष पैकेज की घोषणा की। किन्तु किसानों की आत्महत्यायें रूकी नहीं, उल्टे घोषणा के बाद हजार से भी जयादा किसानों ने मौत को गले लगा लिया। जिसके बाद राज्य सरकार पैकेजों की पुर्नसमीक्षा करने के बजाय बयान देते फिर रही है कि विदर्भ के किसान आर्थिक कारणों से नहीं मनोवैज्ञानिक वजहों से आत्महत्या कर रहे हैं। सच यह है कि संसद में पेश किये गये सरकारी आंकडों के अनुसार 11,886 लोग आत्हत्या कर चुके हैं। सरकार भी मोटे तौर पर मानती है कि कर्ज और सूदखोरी आत्महत्याओं की मुख्य वजह है।
हाल ही में महाराष्टर में सम्पन्न हुए जिला परिषद चुनावों पर विदर्भ के किसानों की आत्महत्या के कांग्रेसी सरकार पर घातक असर को नकाते हुए मुख्यमंरी विलासराव देशमुख ने कहा था कि परिषदीय चुनावों पर आत्महत्या की घटनाओं का कोई असर नहीं होगा। लेकिन परिणाम आ चुके हैं और कांग्रेस को मुंह की खानी पडी है। मुख्यमंत्री के अनुसार विदर्भ में किसान आत्महत्याओं की जो खबरें आ रही हैं वह कुछ लोगों की साजिश और विरोधियों की चाल है। वैसे तो सरकार के बयानों में यह पूरा घटनाक्रम ही एक साजिश है जिसे आत्महत्या का नाम दिया जा रहा है। मुख्यमंत्री बिलासराव के हिसाब से किसान आत्महत्यायें आर्थिक कारणों से नहीं मनोवैज्ञानिक वजहों से कर रहे हैं। यही वजह है कि मुख्यमंत्री किसानों को योगासन करने तक की शिक्षा दे डालते हैं। अपनी सोच को कार्यरूप में तब्दील करने की फिराक में मुख्यमंत्री मां अमरतामयी के चरणों में पहुंच जाते हैं। मां अमरतमयी विदर्भ के किसानों को 200 करोड रूपये देने की घोषणा करती है। बदले में अमरतमयी कुछ नहीं चाहिए ऐसा भी नहीं है। अमरतमयी को अपना मठ बनाने के लिए जमीन की दरकार कहां है यह बात उजागर नहीं हो पायी है किन्तु पूर्व में संत रविशंकर की अमरावती के वरूण क्षेत्र में तथा यवतमाल के जरी ताल्लुके में बाबा आम्टे को सरकार ने जमीन दी है। बताया जाता है कि मुख्यमंत्री इन्दौर के भयू जी महाराज के अनन्य भक्त हैं। इतना ही नहीं हर साल राज्य सरकार औपचारिक-अनौपचारिक तरीके से संतों की यात्राओं में करोडों खर्च करती है और किसान हाय-हाय करके मरते हैं।
विदर्भ में प्रतिदिन हो रही तीन से चार किसानों की मौतें मुख्य रूप से बैंकों और सूदखोरों से लिये गये कर्ज को न चुका पाने की असंभव स्थिति के चलते हो रही है। आंकडों से पता चलता है कि बीते माह यानी मार्च में अब तक की सबसे ज्यादा आत्महत्यायें हुई हैं। विदर्भ में कुल ग्यारह जिलों में इन ज्वलंत तथ्यों को हकीकत न मानने वाली कांग्रेसी सरकार की बयानबाजियां तब फरेब लगती हैं जब सालाना बजट पेश होने की तारीख 22 मार्च को अमरावती और भण्डारा जिलों के तीन किसान आत्महत्या करते हैं। आत्महत्या करने वाले तीनों किसान दलित थे। इससे ठीक चार दिन पहले महाराष्टर के प्रमुख पर्व गुडीपाडवा के दिन भी यवतमाल और गुढना जिले के 6 किसानों ने आत्महत्या की थी। एक सर्वेक्षण के अनुसार आत्महत्या करने वालों में 95 प्रतिशत गरीब किसान हैं, इनमें भी बहुतायात संख्या दलितों की है।
अमरावती जिले से नांदगांव तहसील की तरफ बढते हुए रास्ते में सूखी मिटटी, बिना पानी के गडढे और दूर-दूर तक परती पडे खेतों ने उपरी तौर पर आभास करा दिया कि क्षेत्र में किसान आत्महत्याएं क्यों कर रहे हैं। मगर हकीकत जानने दि संडे पोस्ट संवाददाता गांवों में पहुंचा तो क्षेत्र में पानी की कमी आंशिक समस्या जान पडी और कर्ज आत्महत्याओं के मुख्य कारणों में सालों पहले शुमार हो चुका था।धवडसर गांव का दिलीप महादेव देवतडे पिछले साल अगस्त माह में ही विधुर हुआ है। उसके तीनों बच्चों में से सबसे छोटा 6 वर्षीय मनीष अभी भी अपनी मां का इंतजार कर रहा है कि उसकी मां मामा के गांव से हरबरा 'चना' लेकर आयेगी। हमारे पीछे-पीछे आये कुछ बच्चे तो कानाफूसी कर रहे थे कि तुम्हारे मामा आये हैं क्या। हम उस तालाब की तरु नजर दौडाते हैं जिसके किनारे टूट जाने के कारण देवतडे की पत्नी मंदा देवी को 4 एकड फसल बह गयी। मंदा सदमा बर्दाश्त नहीं कर सकी उसने जहर खाकर खेत की मोड पर ही दम तोड दिया। देवतडे की मां बताती है कि फसल अच्छी होने के चलते पूरी उम्मीद थी कि दो साल पहले लिये गये 60 हजार के कर्ज में से कुछ वापस हो जायेगा। इसी भरोसे मौजूदा वर्ष में मंदा के कहने पर देवतडे ने कर्ज लिया था, जिसमें 15 हजार को आपरेटिव बैंक का है बाकी सूदखोरों का। गांव वालों के अनुसार 60 प्रतिशत किसान जहां सूदखोरों से कर्ज लेते हैं वहीं मात्र 40 प्रतिशत किसानों को ही बैंक कर्ज मुहैया कराते हैं।
चांदूर रेलवे तहसील के राजौरा गांव की सरपंच चन्दा रामदास चाकले बताती है कि बैंकों की नीतियां सूदखोरों के हित साधती है किसानों की नहीं। जिला सहकारी समिति के अनुसार एक एकड कपास पैदा करने में मात्र पांच हजार लागत आती है जबकि ग्राम पंचायत सदस्य राजेश वासुदेव निम्बरते बताते हैं कि यह लागत 10 हजार है। ऐसे में किसान पांच हजार बैंक से लेता है तो पांच हजार उसको साहूकार से लेना पडता है। व्यावहारिक सच्चाई यह है कि जिन किसानों ने बैंकों से पहले कर्ज ले रखा है उन्हें बैंक कर्ज देते ही नहीं हैं, जिस कारण सूदखोरों के चक्रव्यूह में फंसे रहना और न चुका पाने की स्थिति में खुद को समाप्त कर लेना ही किसानों के पास अंतिम विकल्प रह जाता है।इसी विकल्प को चांदूर रेलवे तहसील के मांझरखेड गांव के निवासी भीमराव यादवराव सोण्टके ने आजमाया।
सूदखोरों के यंगुल में फंसे किसान तडप रहे हैं और सरकार घोषणाओं से काम चला रही है। विदर्भ क्षेत्र में पिछले दो वर्षों से हो रहे घाटे के मददेनजर भीमराव ने जमीन ही बेच दी। जमीन के बदले मिले 80 हजार रूपये में बडे बेटे के लिए भीमराव ने एक आटो इस लालच में खरीदा कि कर्ज की भरपाई हो जायेगी। हाथ से जमीन जाने की चिंता, पुनाना कर्ज वसूलने के लिए सूदखोरों की बढती दबिश और आटो से अपेक्षित आमदनी न होने के कारण भीमराव तनाव में रहने लगा था। जब एक दिन 14 हजार रूपये वसूलने के लिए बैंक ने अपने कारिंदों को भेजा तो उनकी बात सुनकर भीमराव दहशतजदा हो गया। हमलोगों की घर में मौजूद बहू से हुई बातचीत से साफ हो गया कि सोण्डके ने आत्हत्या बैंक वालों की धमकी के चलते की।आत्महत्या के इस कारण को देखकर यह समझ में आ जाता है कि गरीब किसान अपनी छोटी-मोटी खेती छोड कोई नया धंधा शुरू करना चाहते हैं तो पुराने कर्ज जानलेवा साबित हो रहे हैं।
यह गौर करने लायक तथ्य है कि दि संडे पोस्ट संवाददाता ने विदर्भ के उन दो जिलों अमरावती और यवतमाल के चौदह गांवों का दौरा किया जहां दवा ही जहर बन रही है। मरने वाले ज्यादातर किसान जहर खाकर मर रहे हैं। हां इतना जरूर है कि आत्महत्या करने वाली महिलाओं की बडी संख्या जहां कुंए में कूदकर मरती है, वहीं तीस साल से कम के युवा आमतौर पर गले में फांसी लगाकर अपनी जीवन लीला समाप्त कर रहे हैं। मरने के लिए जहर खरीदना नहीं पडता बल्कि कपास और सोयाबीन के खेतों में डाला जाने वाला कीटनाशक, खरपतवार नाशक ही मौत का काम आसान कर देता है जो विदर्भ के हर किसान के घर में सहज उपलब्ध है।
चांदूर रेलवे तहसील के भूईखेड गांव में किनोलफास और मोनोक्रोटोफास खाकर पिछले चार सालों में तीन लोग मर चुके हैं। फिनोलफास कपास में डाला जाता है तथा मोनोक्रोटाफास सोयाबीन से लगने वाली सफेद मक्खी के खात्मे की दवा है। किसानों को खतरपतवार नाशकों और कीटनाशकों का प्रयोग इसलिए भी अधिक करना पडता है क्योंकि मासेण्टो और कारगिल बीज कंपनियों से पिछले दशकों में भारत सरकार ने जो गेहूं के बीज आयात किये उनके साथ विभिन्न तरह के खरपतवार आये।
निम्बा गांव के मनोहर मानिकराव देशमुख ने बीटी कॉटन की खेती की। बीटी काटन बोते ही खेती में निराई गुडाई का खर्च बढ गया क्योंकि पूरे खेत को गाजरगौंत नामक घास ने अपने आगोश में ले लिया था। देशमुख के बेटे माणिकराव निकटराव देशमुख ने बताया कि एक एकड कपास बोने में 4500 से 4700 रूपये की लागत आयी थी। किसान बताता है कि बीटी काटन बीज की खरीद 18 सौ रूपये किलो पडता है। इतना ही नहीं बीटी काटन अपने साथ तरह-तरह के खरपतवार लेकर आ रहा है जिसके चलते लागत की राशि बिक्री से भी ज्यादा पडती है। इलाकों के ज्यादातर किसानों से बातचीत में यह स्पष्ट ढंग से उभरकर सामने आया कि बीटी काटन की खेती करने वाले किसानों की आत्हत्याओं का प्रतिशत सवार्धिक है। परंपरागत बीजों से खेती करने वाले किसान इसलिए भी कम मरते हैं क्योंकि बीज की कीमत 400 से 600 के बीच ही होती है। तीन वर्षों से बीटी काटन बो रहे निम्बा गांव के मनोहर बागमोर इस बात का ज्वलंत उदाहरण है जिन्होंने इण्डोसल्फास खाकर आत्हत्या कर ली। बीटी काटन जहां एक तरफ महंगा पड रहा है वहीं वह परंपरागत बीजों के संरक्षण को तो नष्ट कर ही रहा है अपने को उत्पादित करने वाली मिटटी की उर्वरता को भी समाप्त कर रहा है बावजूद इसके सरकार ने बीटी काटन को प्रतिबंधित नहीं किया है।
अब तक हुयी आत्महत्याओं में 62 प्रतिशत अमरावती और यवतमाल जिले के किसान हैं। आत्महत्याओं का सिलसिला 1994 95 से शुरू हुआ जो आज सामूहिक का रूप ले चुका है। उल्लेखनीय है कि मरने वाले ज्यादातर किसान कपास और सोयाबीन पैदा करने वाले हैं। वैसे तो तुवर और गेहूं, ज्वार की भी खेती होती है किन्तु तत्काल मुनाफा देने वाली फसल कपास बोने का प्रचलन तेजी के साथ बढा है। प्रचलन बढने का एक कारण क्षेतर में लगातार विकराल होती पानी की समस्या है। कपास, सोयाबीन ऐसी फसलें हैं जिनका काली मिटटी से ज्यादा उत्पादन होता है और पानी की जरूरत बाकी फसलों के मुकाबले कम होती है। सरकार विदर्घ्भ को लेकर कितनी लापरवाह है इसका अंदाजा पिछले बारह सालों से लंबित बांधों की योजनाओं से लगाया जा सकता है। यह अलग पहलू है कि बांधों के बचने के बाद भी विदर्भ की बीस प्रतिशत जमीन असिंचित रहेगी। कारण कि उतनी उंचाई पर पानी पहुंचना फिलहाल की तैयारियों के हिसाब से असंभव होगा। अभी भी विदर्भ में 57 प्रतिशत खेती योग्य जमीन का ही उपयोग हो पाता है। यहां जितनी बारिश होती है उससे मातर पांच प्रतिशत भूमि ही सिंचित हो सकती है। रहा सवाल नलकूपों, कुओं या पंपिंगसेटों का तो कम से कम अमरावती और यवतमाल में असंभव जान पडता है क्योंकि यह क्षेतर वर्षों से रेन फेडेड घोषित है। हालांकि विदर्भ में नदियां भी हैं किन्तु बेमडा जैसी नदियां पानी की कमी के चलते साल के छह महीने सडक के रूप में इस्तेमाल होती है। इसके अलावा वर्धा, वैगंगा, कोटपूर्णा नदियों को नहरों से न जोडे जाने के कारण किसानों को लाभ नहीं पहुंच पाता।
इन तथ्यों पर ध्यान दें तो किसान जहां एक तरफ सिर के बल खडी सरकारी नीतियों के कारण आत्हत्या करने को मजबूर हैं वहीं मोसेन्टो और कारगिल जैसी कंपनियों के बीजों से भी तरस्त हैं। यह सच्चाई किसी से छुपी नहीं है कि गाजारगौंत, पहुनिया, हराड, गोण्डेल, लालगाण्डी, वासन, लई, केन्ना और जितनी भी किस्मों की घासों के नाम गिना लें यह सभी विदेशी बीजों और खादों के प्रयोग के बाद से ही पनपनी शुरू हई।
आत्महत्या रोकने के सरकारी प्रयासों में एक है सब्सिडी का प्रावधान। सरकार द्वारा दी जा रही सब्सिडी के बावजूद किसानों को सरकारी खरीद महंगी पड रही है, जो कि सरकारी नीतियों की पोल खोलती है। पिछले वर्ष विदर्भ के सहकारी केन्द्रों पर चने का बीज 1260 रूपये प्रति किलाे के हिसाब से बिक रहा था और दुकानदार 760 रूपये प्रति किलो के हिसाब से बेच रहे थे। सरकारी कारस्तानी का खुलासा तो तब हुआ जक तीन हॉर्स पावर के विजय डीजल पंप की कीमत खुले बाजार में 6680 रूपये थी जबकि को आपरेटिव बैंक उसे दस हजार रूपये में बेच रहा था। ध्यान रहे कि उक्त कीमत छूट के बाद थी, सरकार ने उसका न्यूनतम मूल्य पन्द्रह हजार रूपये निर्धारित किया था। यह मामला मीडिया में भी उछला ािा। हद तो तब हो गयी जब महाराष्टर के अकोला संसदीय क्षेतर के आरपीआई सांसद प्रकाश अंबेडकर के सुप्रीम कोर्ट में डाले गये केस के जवाब में महाराष्टर सरकार ने अंबेडकर के सुप्रीम कोर्ट में डाले गये केस के जवाब में महाराष्टर सरकार ने बयान बदला। हुआ यह कि सांसद प्रकाश अम्बेडकर ने विदर्भ में पैकेजों की घोषणाओं की असलियत जानने के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। न्यायालय ने सुनवासी के दौरान राज्य सरकार से जानना चाहा कि प्रधानमंतरी ने जो पैकेज दिया था वह किसानों में बंटा कि नहीं। राज्य सरकार ने कोर्ट में जवाब दिया कि केन्द्र से पैसा मिला ही नहीं। किन्तु ठीक चार दिन बाद सरकारी सचिव ने हलफनामा दायर किया और न्यायालय में सफाई दी कि यह एक क्लर्कियल मिस्टेक थी। सरकार के सच झूठ में गर्दन किसान की फंसी हुई है।
बहरहाल, इन विवादों को यदि छोड भी दिया जाये तो जारी हुए पैकेज किसानों को और अधिक कर्ज में फंसाने के ही उपक्रम साबित हो रहे हैं। किसानों की मांग है कि सरकार कर्ज माफ करे जबकि सरकार ने कर्ज का दायरा बढा दिया है। पहले मातर सात प्रतिशत किसानों को सरकारी कर्ज उपलब्ध हो पाता था जिसका बजट 7000 करोड का था। अब उसे बढाकर 1800 करोड कर दिया गया है। इसका दायरा 20 प्रतिशत किसानों को अपने यंगुल में ले लेगा। चंगुल में इसलिए क्योंकि नये कर्जों को देना आत्महत्या रोकने का माकूल उपाय नहीं हो सकता। कम से कम प्रधानमंतरी के कोलसरी दौरे के बाद 950 किसानों की हुई आत्मत्याओं ने इसको स्वत साबित कर दिया है। दूसरी तरु मुआवजे का सच है कि पैकेज का सबसे बडा हिस्सा 910 करोड बैंकों ने किसानों द्वारा पिछले वर्षों में लिए गए कर्जों के बदले रख लिया। किन्तु इससे यह कतई समझने की जरूरत नहीं है कि किसानों के माथे सरकारी कर्ज का भार उतर चुका है।
जमीनी सच्चाई तो यह है कि अभी भी सिर्फ ज्यादातर किसानों का ब्याज ही माफ हो पाया है। इसके अलावा यह भी हो रहा है कि किसान फिर नये कर्ज के चंगुल में फंस रहे हैं।
विदर्भ जनांदोलन समिति के नेता किशोर तिवारी ने बताया कि क्षेतर के 80 प्रतिशत किसान सूदखोरों के चंगुल से उबर नहीं पाये हैं। वैसे सरकार ने आत्महत्याओं के बढते प्रतिशत के दबाव में आदेश जारी किया है कि सूदखोर किसानों से सूद न वसूलें। किन्तु इस पर गरीब किसानों के बीच अमल नहीं हो रहा है। उल्टे सूदखोरी और बढ रही क्योंकि रकारी बैंक ज्यादातर कर्जदार किसानों को कर्ज देने से बच रहे हैं। आत्महत्याओं के खिलाफ इलाके में जागरूकता फैला रहे किशोर तिवारी का कहना है कि अप्रैल 2006 से जून तक 17 लाख किसानों पर कराये गये सरकारी सर्वेक्षण की रिपोर्ट के अनुसार विदर्भ के 75 प्रतिशत किसान अवसादग्रस्त हैं। बावजूद इसके सरकार नये'नये सर्वेक्षण करा रही है जिसमें लाखों रूपये बर्बाद किये जा रहे हैं।
कर्जदार की नियति मौत है
चौबीस मार्च के दिन अमरावती के ब्राहमण वाडा थाडी गांव का गरीब किसान देवीदास तयाडे अपनी मंझली बेटी ज्योति को विदा कर हा था। बेटी को चौहददी के बारह भी नहीं छोड पाया कि उसका दम चौखट पर ही निकल गया। दूसरी बेटी के विवाह के खातिर लिये गये कर्ज के दबाव में पीये गये जहर ने आशीर्वाद देने की बारी भी नहीं आने दी।
उस बेटी का क्या गुनाह था जिसके सुहागन होते ही मां बेवा हो गयी। उसने अपनी डोली उठने से पहले पिता की अर्थी जाते देखी। तयाउे ने कर्ज ही लिया था तो फिर उसने जहर क्यों खाया क्या यह मान लिया जाना चाहिए कि कर्जदार की नियति मौत है। जिस तरह देश का हर आदमी 22,000 रूपये का कर्जदार है ऐसे में मातर 12 हजार का कर्जदार तयाडे ही क्यों आत्महत्या करे। फिर वह ही अकेला ऐसा इंसान नहीं है बल्कि दहेज से संबंधित मामलों में अब तक विदर्भ क्षेतर में 4500 लोग आत्महत्या कर चुके हैं।
देहातों में दहेज के बढते प्रचलन की मजबूरी में तयाडे दो बेटियों पूनम और ज्योति की शादी तक तीन एकड जमीन बेच चुका था। जमीन बिक जाने के बाद यह सोचकर अवसादग्रस्त था कि छोटी बेटी वर्षा की शादी किस भरोसे होगी। बेटे मनोज को पढाने की जिम्मेदारी दीगर थी। यहां तक कि 30 जून 2006 में प्रधानमंतरी द्वारा की गयी 3750 करोड की घोषणा भी तयाडे के किसी काम न आ सकी। काम आ भी नहीं सकती थी क्योंकि घोषणा के कई महीनों बाद भी मातर 10 प्रतिशत किसानों को ही योजना का लाभ मिल सका है, वह भी अप्रतयक्ष रूप से।
मौत की ऐसी ही वारदात चांदूर रेलवे तहसील के बग्गी गांव में भी हुई। फर्क सिर्फ इतना था कि बारात अभी आने वाली थी, आत्महत्या से वहां कोई विधवा नहीं हुई, विधुर हो गया। गुलाबराव खडेकर की पत्नी को शादी की तय तारीख तक दहेज जुटाने के कोई आसार नहीं दिख रहे थे क्योंकि इससे पहले भी बेटे की शादी में खडेकर बीस हजार का कर्जदार बन चुका था। खडेकर की पत्नी भांप चुकी थी कि दहेज पूरा न देने पर दरवाजे पर क्या बावेला होगा। दरवाजे पर बाल मुडवाये बैठे विधुर हो चुके तीन बच्चों के पिता ने बताया कि पिछले दो वर्षों से बारिश न होने के कारण कपास में घाटा हो रहा था। घाटा बीटी कॉटन बोले की वजह से हुआ। खेती में घाटे का एक महत्वपूर्ण कारण कपास की कम कीमत होनातो है ही साथ ही सरकारी खरीद में होने वाली अराजकता भी इसके लिए जिम्मेदार मानी जाती है। कपास का सरकारी रेट जहां पिछले अटठारह सौ रूपये प्रति क्िवंटन था बावजूद इसके किसानों ने कपास साहूकारों को बेचा। क्योंकि वे किसानों को नगद भुगतान कर रहे थे।
Apr 11, 2007
'रामायण हमारा महाकाव्य नहीं हो सकता'- शरण कुमार लिंबाले
जो महाभारत एकलव्य का अंगूठा ले लेता है,जिस रामायण में शम्बूक की हत्या कर दी जाती है वह भगवत गीता जिसमें दलितों की चर्चा तक नहीं है, वह हमारा महाग्रंथ नहीं हो सकता। दलितों का महाकाव्य रचा जाना तो अभी शेष है...
मराठी के प्रसिद्ध लेखक और चिंतक शरण कुमार लिंबाले से अजय प्रकाश की बातचीत
अलग से दलित साहित्य आंदोलन की ही जरूरत क्यों पडी ?
भारतीय रचनाशीलता के हजारों साल के इतिहास में आजादी के बाद पहली बार ऐसा हुआ कि दलितों के बीच से पढने-लिखने वाला एक वर्ग उभरकर सामने आया। दलितों के अगुवाओं और वर्ण समाज की आकंठ मूल्य-मान्यताओं के बीच उभर रहे रचनाकारों ने दलितों के लिये जो छिटपुट कहीं लिखा भी तो वह सहानुभूति और दया की अनुभूति से आगे नहीं जा सका। क्योंकि जो वर्ग लिखता-पढता है वह उसी के हितों-संबंधों को व्यक्त करता है।
जो महाभारत एकलव्य का अंगूठा ले लेता है,जिस रामायण में शम्बूक की हत्या कर दी जाती है वह भगवत गीता जिसमें दलितों की चर्चा तक नहीं है, वह हमारा महाग्रंथ नहीं हो सकता। दलितों का महाकाव्य रचा जाना तो अभी शेष है। हमने महसूस किया कि अपने तबके के करोडों लोगों को इस सडियल सामाजिक व्यवस्था से बाहर निकलने और उससे प्रतिरोध करने के लिये साहित्यिक रचनाकर्म को भी माध्यम बनाना होगा। आजादी के बाद से लेकर अब तक जो दलित साहित्य में आंदोलन है उसके केंद्र में विद्रोह है।
क्या कोई गैर दलित लेखक दलित पीड़ा को सही ढंग से पूरी प्रभावत्मकता के साथ अभिव्यक्त नहीं कर सकता ?
नहीं, अभिव्यक्त कर सकता है। कारण कि वह सोचकर लिखता है। दलित लेखन जबसे शुरू हुआ है उस अंतर को स्पष्ट देखा जा सकता है। कराठी से लेकर हिन्दी तक में सैकडों कहानियां,दर्जनों दलित उपन्यास दशक भर में प्रकाशित हुये हैं जिसने यह साबित कर दिया है कि अब तक का जो दलित उपन्यास था जिसे गैर दलितों ने लिखा था वह आभासी था, अब जो दलित साहित्य आ रहा है उसे खुद दलित लिख रहे हैं वह आनुभावकि है।
मगर यह प्रश्न जिस ढंग से बार-बार आ रहा है उससे कभी-कभी तो यह लगता है कि हमने गैर दलितों को दलितों पर लिखने से प्रतिबंधित कर दिया है। आज जब दलित अपने को व्यक्त करने लगा है तभी यह सवाल क्यों। हजारों साल के इतिहास में दलितों के लिये क्यों नहीं लिखा गया। तब वे कहां थे जिन्होंने दलितों की अमानवीय स्थितियों पर कलम चलाना भी जरूरी नहीं समझा।
दरअसल,यह गैर दलितों का खौफ है जो उनके प्रयोगशील साहित्य के मुकाबले जीवंत पहलुओं पर लिखने का प्रयोग करता है। मगर दलितों द्वारा रचा जा रहा हर साहित्य हमारा इतिहास है जिसकी भूमि पर खडे होकर बराबरी और सम्मान की लडाई लडी जानी चाहिये।
हिन्दी साहित्य और मराठी साहित्य में दलित चेतना के स्तर पर क्या संभावनायें एवं भिन्नतायें हैं ?
दलित समाज के अगुवा अंबेडकर की कर्मभूमि महाराष्ट को व्यक्त करने वाला मराठी साहित्य दलित चेतना के स्तर पर हिन्दी साहित्य से कई मायनों में भिन्न है। महाराष्ट में 60 के दशक से लेकर 2000तक दलित नौजवानों का एक मजबूत संघर्ष रहा है जिसका मूर्त रूप 'दलित वैभर्स' नामक संगठन है।
महाराष्ट में दलित लेखक आंदोलनों में भी उतना सक्रिय रहता है जितना कि अपनी लेखनी में। लोगों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि दलित वैभर्स का गठन करने वाले दलित कवि और लेखक थे। स्पष्ट तौर पर कहा जाये तो मराठी का लेखक कार्यकर्ता कलावंत है। कार्यकर्ता कलावंत होना ही एक लेखक को उत्तरदायित्व से लबरेज करता है जो दूसरे साहित्य में नहीं है।
जिस ढंग का सामाजिक आंदोलन मराठी में रहा है वैसा कोई आंदोलन हिन्दी में नहीं दिखायी पडता है जिसके कारण इस साहित्य में आक्रामकता की भी कमी है। इसका एक दूसरा महत्वपूर्ण कारण यह भी है कि मराठी में दलित साहित्य का एक लंबा इतिहास है जबकि हिन्दी में एक शुरूआत हो रही है। यह दीगर बात है कि हिन्दी के राश्टभाषा होने के चलते कानूनन इस भाषा का दलित लेखक एक ही उपन्यास में ख्याति प्राप्त कर लेता है जबकि मैं तीस किताबें लिखने के बाद अब हिन्दी में आया हूं।
प्रेमचंद को आप किस रूप में देखते हैं, खासकर दलित संवेदना के स्तर पर ?
मैं जब भी दिल्ली आता हूं प्रेमचंद को लेकर सवाल अवश्य ही पूछा जाता है क्योंकि प्रेमचंद के लेखन के संदर्भ में कुछ लेखकों ने आपत्ति की है। इस सवाल में मुझे दलितों की आलोचना करने की मानसिकता दिखती है।
प्रेमचंद के उपन्यास रंगभूमि को कुछ दलित लेखकों ने जलाया तो ज्यादातर ने उसकी भर्त्सना की लेकिन उसकी चर्चा नहीं की जा सकती। जहां तक लेखन का सवाल है तो हमारा मानना है कि प्रेमचंद ने प्रगतिशील रचनाशीलता की नींव रखी है। प्रेमचंद ने हजारों सालों से समाज के जिन बंद दरवाजों को थपथपाया था उसी को तोड्कर हम आगे बैठे हैं।
बेशक प्रेमचंद को लेकर हमारा ममूल्यांकन करने का बार-बार आग्रह तानाशाही है जिसे दलित लेखकों की नयी धारा से पैदा हुयी चुनौती के रूप में देखा जाना चाहिये।
दलित साहित्य पीडा के साहित्य से आगे का कदम क्यों नहीं पा रहा है ?
हजारों सालों की पीडा को हम सवर्णों की व्यग्रता के चलते एक-दो दशक में कैसे व्यक्त कर सकते हैं। दलित साहित्य का मात्र चालीस साल पुराना इतिहास है और यह हमारे लेखकों की पहली पीढी है। इसलिये लेखकों की जो दूसरी पीढी आयेगी उसके स्वर में फर्क होगा और हमारी पीडा की अभिव्यक्ति की आग्रामकता और बढेगी। साथ ही दलित साहित्य में जो लोकतांत्रिक मूल्यों की बात हो रही है,साथ ही एक नये सामाजिक संरचना के जो बीच दिखायी दे रहे हैं उसको भी गौर करना होगा।
हिन्दू संस्क़ति के मुकाबले दलित संस्कृति का क्या अभिप्राय है् ?
हिन्दू संस्कृति के मुकाबले दलित संस्कृति का निर्माण्ा हो रहा है। हमारे पास संस्कृति,भाषा, साहित्य, सौंदर्य नहीं था। जिस कारण आज तक हमें नकारा गया था अब हहहम नकार रहे हैं। इस पारंपरिक व्यवस्था को बाबा साहब अंबेडकर ने बौद्ध धर्म अपनाया और उसी समय से दलित संस्कृति की नींव पडी। आज दलित लेखक आधुनिकता की जीवन शैली को अपना रहा है और हम वैदिक संस्कृति की विरासत को आगे बढा रहे हैं।
दलित साहित्य ओर स्त्री साहित्य अलग-अलग क्यों संघर्ष कर रहा है ?
दलित साहित्य और स्त्री साहित्य अलग ही रहेगा क्योंकि हमारे समाज की सवर्ण लेखिका दलितों के प्रति वही रूख अपनाती है जो सवर्ण पुरूष लेखक। ऐसा इसलिये हो रहा है क्योंकि सवर्ण स्त्री दलितों की अधिकार की भाशा नहीं जानते हैं।
दलित साहित्य में स्त्रियां हाशिये पर क्यों हैं ?
मोटी सी बात यह है कि जहां दलित लेखकों की संख्या हजारों में है वहीं दलित स्त्री लेखिकाओं की संख्या दस की संख्या भी पार नहीं कर सकी है। ऐसे में यह स्थिति तो बनी रहेगी। दलित पुरूषों से पीडित तो स्त्रियां भी हैं। इसलिये यह भी जरूरी है कि दलित स्त्री लेखिकाओं की एक पीढी तैयार हो। तभी जाकर वह हाशिये से केंद्र में आ सकती है जैसे आज दलित लेखकों ने करके दिखाया है।
दलित ही दलित के बारे में लिखेगा तो क्या पढेगा भी वही ?
सच तो यह है कि दलित लिख रहा है और सवर्ण पढ रहा है। हमें तो मलाल है कि जिसके लिये हम लिख रहे हैं वह नहीं पढ रहा है क्योंकि उनके बीच शिक्षा का अभाव है। दलित साहित्य कोई क्षेत्रीय साहित्य नहीं रह गया है बल्कि हर एक भाषाओं में मांग बढी है ओर हर वर्ग इसे पढ रहा है। पाठयग्रम से लेकर पुरस्कारों तक में शामिल हमारे साहित्य ने दलित ही दलित को पढेगा जैसी सोच को सिर के बल खडा कर दिया है।
दलित चेतना को आगे बढाने में प्रगतिशील साहित्य का क्या योगदान है ?
प्रगतिशील साहित्य के अभाव में यह संभव ही नहीं था कि हम दलित चेतना की बात करते। साहित्य लेखन की यह दोनों धारायें एक ही रथ के दो पहिये हैं जिनमें से किसी एक की भी एकांगिकता हमारे संघर्षों और बदलाव की लडाई को कमजोर करेगा।
Mar 28, 2007
बहू बाजार की औरतें
वे रोती हैं,बिसरती हैं मगर सहानुभूति जताने वाला कोई नहीं होता.यह न कोठे पर हैं,न बाजार में. घर और परिवार के बीच बेबसी की बुत बनी इन औरतों की पीडा और इस क्रम में टूटते जातीय-सामंती दुर्ग को चित्रित करती यह रिपोर्ट...
अजय प्रकाश
नब्बे के दशक के उतरार्द्ध में इस तरह की शादियों का चलन शुरू हुआ। हरियाणा के मेवात क्षेत्र में खरीदकर ब्याही गयी दुल्हनों को 'पारो' कहा जाता है। बेशक इस इलाके की हर पारो का चन्द्रमुखी के एहसास से गुजरना नियती है। यहां कौन अपना, कौन पराया वे किसको कहें। यहां के रिवाज नये हैं, बोली और माहौल नया है। पति है मगर उससे वह दो बात नहीं कर सकती।
करे भी तो कैसे आखिर भाषा जो अपनी नहीं है। हरियाणा के कई जिलों में ब्याह के लिए लडकियां नहीं मिल पा रहीं हैं। दूसरे राज्यों से खरीदी गयी गरीब आदिवासी लडकियों को बहू बनाने की मजबूरी से ठसक वाले जाट भी गुजर रहे हैं। जाटों के जातीय गर्व का सिंहासन डोलने लगा है।
वह खरीदी गयी पुजा है जो आज करनाल के झुण्डला गांव की बहू है। चूल्हे पर दूध गरमा रही साहब सिंह की पत्नी पुजा का एक बार नहीं पांच बार मोलभाव हो चुका है। उसकी यह छठी शादी है।दरवाजे पर खडी गाय से कम कीमत इसलिए लगी क्योंकि वह कुंआरी नहीं थी। अन्यथा हरियाणा के बहू बाजार में पुजा के बदले दलालों को पन्द्रह-बीस हजार जरूर मिलते। पुजा पश्चिम बंगाल से आने के बाद से दलालों के हाथों बिन ब्याहों के आंगनों में घुमायी जाती रही है। उन चौखटों को उसने पार किया जो कैदखानों से भी बदतर थे।
करे भी तो कैसे आखिर भाषा जो अपनी नहीं है। हरियाणा के कई जिलों में ब्याह के लिए लडकियां नहीं मिल पा रहीं हैं। दूसरे राज्यों से खरीदी गयी गरीब आदिवासी लडकियों को बहू बनाने की मजबूरी से ठसक वाले जाट भी गुजर रहे हैं। जाटों के जातीय गर्व का सिंहासन डोलने लगा है।
वह खरीदी गयी पुजा है जो आज करनाल के झुण्डला गांव की बहू है। चूल्हे पर दूध गरमा रही साहब सिंह की पत्नी पुजा का एक बार नहीं पांच बार मोलभाव हो चुका है। उसकी यह छठी शादी है।दरवाजे पर खडी गाय से कम कीमत इसलिए लगी क्योंकि वह कुंआरी नहीं थी। अन्यथा हरियाणा के बहू बाजार में पुजा के बदले दलालों को पन्द्रह-बीस हजार जरूर मिलते। पुजा पश्चिम बंगाल से आने के बाद से दलालों के हाथों बिन ब्याहों के आंगनों में घुमायी जाती रही है। उन चौखटों को उसने पार किया जो कैदखानों से भी बदतर थे।
हरियाणा,पंजाब,राजस्थान तथा पश्चिमी उतर-प्रदेश के सैकडों गांवों में देश निकाला का जीवन बसर कर रही हजारों महिलाओं की यह पीडा शब्द किस तरह बयां कर पायेंगे। जब वह पानी भरती है तो गांव के युवक ऐसे घुरते हैं जैसे वह सबकी रखैल हो। सच कहा जाये तो 'नानजात के मेहरारू गांव भर की भौजाई'वाली हालत में रहना भी इनके नारकीय जीवन के दैनन्दिन में शामिल है। पानी के लिए कुंए पर जमा महिलाएं बातों-बातों में कितने तरीके से बेइज्जत करती हैं उसका अहसास जीते जी पारो को मार डालता है। फिर भी जीती है।
'बबीता' अपने गांव का हनुमान मंदिर पार करते वक्त मन्नत मांगी थी कि बच्चा लेकर वापस आयेगी तो लडडू चढायेगी। इस बीच बबीता को दो बच्चे हुए मगर उसे याद नहीं कि जी भर कर कभी उन बच्चों को देख पायी हो। होठों को भींचते हुए बबीता कहती है 'दूध पिलवाकर सास उठा ले जाती है,सास को डर है कि मेरे साथ रहकर बच्चा काला हो जायेगा।'पूछने पर कि क्या वह गांव वापस जायेगी। वह कहती है,'क्या करूंगी घर जाकर चाय बागान बंद हो गये, दूसरा मेहनत-मजदूरी का कुछ रहा नहीं। वहां मैं भूखों मर जाउंगी और यहां जीते जी मर रही हूं।'
यह कहना गलत बयानी होगी कि पूजा को इस बीच कुछ नहीं मिला। हर नये घर में उसे लोग मिले,पानी की जगह दूध और साथ में बख्शीश के तौर पर दो से तीन साल तक पति का प्यार। वह इसलिए क्योंकि इतना वक्त एक बच्चे को पैदा होने और उसे छोड्कर जाने में लग ही जाता है। ऐसे में दी जाने वाली कठोर यातना तथा यंत्रणा कई बार दिमागी रूप से असंतुलित भी बना देती है।
यह सब कुछ हरियाणा के दर्जनों गांवों का नया यथार्थ है। आखिरकर ताउ ने खरीदा भी इसीलिए था कि सूने घर में किलकारी गूंजे, न कि खरीदी गयी औरत की अटखेलियां और हंसी की खनखनाहट। 'उसकी' हंसी की खनखनाहट ताउ के कानों को बर्दाश्त नहीं है क्योंकि वह अपनी कुल बिरादरी की नहीं है। ताउ की नाक फनफना उठती है जब वह बंगाल के न्यू जलपाईगुडी में बहू के खोज का संस्मरण सुनाता है।
माछभात की गंध,कालेठिगने लोगों के सामने दयनीय सा चेहरा बनाकर ताउ को यह कहना कि 'हम तुम्हारी बेटी के साथ ब्याह करने के बाद जीवन भर रहेंगे ताऊ को बेहद नागवर गुजरा था।'अब नागवार गुजर रही है दीपा। शादी के दो साल बाद भी वह मां नहीं बन सकी है। घरूंडा गांव का कुलवीर इस फिराक में है कि अब कोई बंगाली,बिहारी या असमिया लड्की सस्ते रेट में मिले कि वह दूसरी को ले आये और दीपा को खदेडे। 16वर्ष की दीपा की शादी 40 वर्षीय कुलवीर से 2004 में हुई थी।
कुछ वर्षों से घटित हो रही सामाजिक परिघटना का मुख्य कारण हरियाणा,पंजाब में घटता लिंगानुपात है। आंकडों की माने तो हरियाणा में एक हजार में एक सौ तीस बिना शादी के रह जाते हैं। विशेष तौर पर हरियाणा के हिसार जिले में एक हजार लडकों के मुकाबले 851लडकियां ही हैं। लडकियों की यह संख्या दलित जातियों में लिंगानुपात एक तक सुतुलित होने के चलते है। नहीं तो सिर्फ हरियाणा के सवर्ण और पिछडी जातियों के लिंगानुपात के औसत आनुमानित से भी काफी कम होंगे।
दूसरी तरफ विडम्बना यह है कि टैफिकिंग की गिरफत में आने वाली ज्यादातर लडकियां दलित समुदाय की होती हैं। 2004में बिहार की 'भूमिका'नामक स्वयं सेवी संस्था ने 173मामलों का अध्ययन किया। अपनी जारी रिपोर्ट में संस्था ने लिखा कि टैफिकिंग में जहां 85प्रतिशत किशोरी हैं वहीं इतना ही प्रतिशत दलित लडकियों का भी है।
कुलवीर कहता है 'म्हारी जाति में बंगाली से ब्याह जात्ते हैं। पांच दस हजार देवे हैं और बहू घर मैं। अपणी जाति की छोरी रही कहां। जो थोडी हैं वे भी जमींदारों की बहू हौवे हैं। म्हारी हरियाणा की तो तस्वीर बदलै है, छोरियों के बाप्पों को दुल्हा वाला पैसा देवै हैं।
हरियाणवी में कुलवार की कही ये बातें न सिर्फ उसकी कहानी बयां करती हैं बल्कि इसका भी प्रमाण हैं कि भ्रूण हत्याओं के बाद शादी के लिये लड्कियों की कमी ने बहुत हद तक हरियाणा के सामाजिक'सांस्क2तिक परिवेश की संरचना को तोडा है और समाज पहले के मुकाबले और स्ृी विरोधी हुआ है। पूरे हरियाणा में टैफिकिंग करके ब्याहने का पिछले कुछ सालों में चलन बढा है। शुरू के वर्षों में काम्बोज, रोर, डोबर गडरिया और ब्राहमण युवक ही बहका के लायी गयी लडकियों को खरीदकर ब्याहते थे। अब जाटों में भी यह चलन तेजी के साथ फैल रहा है।
हरियाणा के जिला जींद का सण्डील गांव जहां ऐ जाट को गांव से बाहर बसना पडा था,क्योंकि उसने उपयुक्त गोतर में शादी नहीं की थी। आमतौर पर जाति को लेकर कटटरता बघारने वाले हरियाणवी जाटों के यहां मातर दो'तीन वर्षों के दौरान इतना परिवर्तन हुआ कि सण्डील गांव के ही तीन जाट परिवारों के यहां झारखण्ड के पलामू और गुमला जिले से लायी गयी आदिवासी लडकियों की शादी हुई है।
सण्डील गांव में जब 'दि संडे पोस्ट संवाददाता'ने जाटों से ब्याही आदिवासी लडकियों से बातचीत करनी चाही तो घर वालों ने मना किया। बताते हैं कि इस गांव के बगल वाले गांव में किसी ने बहकाकर लायी गयी नाबालिग लनडकी से शादी की थी। बाद में असम के डिग्रूगढ जिले से आये उसके मां'बाप अपने साथ ले गये। उल्लेखनीय है कि गांव वाले जब इस घटना को सुना रहे थे तो उन्हें अफसोस इस बात का नहीं था कि फलां गांव की इज्जत चली गयी बल्कि उनकी चिंता का विषय वह पैसा था जो उसके घर वालों ने शादी से पहले लडकी के बदले दलालों को दिया था।
सरकार द्वारा आदिवासियों की उपेक्षा के बाद से उजी बहुमंडी का प्रमुख क्षेतर पूर्वोत्तर के सभी राज्यों असम, मणिपुर, नागालैंड, सिक्किम, अरूणाचल प्रदेश और आंध प्रदेश का भी है। इक्कसवीं सदी की इस नयी मानव मंडी के खरीददार देश के समद राज्य पंजाब,हरियाणा और पश्िचमी उत्तर प्रदेश के क्षेतर हैं। ऐसा नहीं है कि यह तीन ही क्षेतर हैं बल्कि बहू मंडी के नये बाजार में राजस्थान का हनुमाननगर और श्रीगंगानगर जिला भी शामिल है। पाकिस्तान की सीमा से लगा श्रींगंगानगर राजस्थान का वह जिला है जहां लैंगिक अनुपात सबसे कम है।
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की 2003में जारी एक रिपोर्ट में कहा गया है कि हर वर्ष दर्ज किये गुमशुदा लोगों में ग्यारह हजार महिलाएं तथा पांच हजार बच्चे शामिल हैं। आयोग की रिपोर्ट तैयार करने में शामिल वरिष्ठ पुलिस अधिकारी पीएम नायर ने यह भी कहा था कि सह संख्या तब है जबकि ज्यादातर केस दर्ज नहीं किये जाते। रिपोर्ट के अनुसार ऐसा इसलिए होता है क्योंकि मातर 7 प्रतिशत पुलिसकर्मी इस तरह के मामलों को गंभीरता से लेते हैं।
गंडगांव के मेवात गांव के बारे में यह नहीं बताया जा सकता कि वहां टरेफिकिंग करके लायी गयी लडकियों की ठीक'ठीक संख्या कितनी है। हजारों की संख्या में बहू के तौर पर दर्जा पायी औरतें इस गांव में रह रही हैं। इस गांव में ही तीन बच्चों की मां बन चुकी रेहाना झारखण्ड की है। शारीरिक बनावट से आदिवासी लगी रेहाना ने बताया कि वह संथाल आदिवासी है। नाम इसलिए रेहाना हुआ कि शादी मुस्लिम परिवार में हुई। अपने हालात पर बोलने के लिए उसके पास कुछ नहीं है।
वह कहती है कि बताने वाली क्या बात है। पूरे मेवात में हर दो घर छोड आदिवासी ही तो बहू हैा मेरा शौहर अच्छा है वरना कई तो बच्चे होने के बाद छोड देते हैं। छोडने के बाद वे औरतें कहां जाती हैं,के जवाब में वह कहती है कि वहीं जायेंगी जहां एक अबला की जगह होती है। औरत बाप की है,पति की है अगर इन दोनों की नहीं है तो कोठे की है।
एक आंकडे के अनुसार देश में चल रहे देह व्यापार के धंधे में 80प्रतिशत बहकाकर लायी गयी महिलाओं को भरा जाता है। कहा जाता है कि टरेफिकिंग एक भूमंडलीय समस्या के रूप में उभरकर सामने आया है जिसने महिलाओं को देह की नयी मंडी में ला खडा किया है। संगठित अपराध और डरग के धंधे को बढाने में टरेपिफकिंग तीसरे सबसे बडे सहयोगी की भूमिका निभाता है।बकरियों व गायों के रेट पर खरीदी जाने वाली इन लडकियों की कीमत चार हजार से बीस हजार के बीच है।
पूर्वोतर के राज्यों तथा पश्चिम बंगाल क्षेत्र में जहां असम बडी मंडी है वहीं देश की राजधानी दिल्ली वितरण का प्रमुख केन्द्र है। जगजाहिर तथ्य है कि दिल्ली में हजारों की संख्या में कुकुरमुत्तों जैसी प्लेसमेंट एजेंसियां मुख्य तौर पर टरेफिकिंग का ही काम करती है। शारीरिक बनावट और सुंदरता के हिसाब से दिल्ली में उनकी कीमत लगती है और वे खरीददारों के घर रवाना कर दी जाती है।द्य वैसे एक बडी संख्या खरीददारों की ऐसी भी है जो सीधे आदिवासी क्षेतरों में पहुंचते हैं,नाबालिगों से शादी करते हैं,मां'बाप को कुछ हजार रुपये देते हैं और ले आते हैं एक बच्चा पैदा करने की मशीन।
जब दलाल उन्हें दो'तीन हजार किलोमीटर दूर से दिल्ली तक लेकर आते हैं,उस बीच कम से कम चार'पांच बार उनका बलात्कार हो चुका होता है। इस बात को उन मर्दों की निगाहें जानती हैं जो खरीदने के बाद उन लडकियों से शादी करते हैं। इसलिए कभी वे उन्हें मानसिक तौर पर अपनी पत्नी का दर्जा नहीं देते।
उदाहरण के लिए हरियाणा के शाहाबाद गांव का अविवाहित बीए पास युवक जब यह कहता है कि उन्हें हम पत्नी के रूप में कैसे स्वीकार कर सकते हैं जो औरत बिन मां'बाप के इतनी दूर लायी गयी हो जिसकी न मिटद्यटी अपनी हो न भाषा। वह पता नहीं पहले कितनों की पत्नी रह चुकी है। लेकिन इक्कीसवीं सदी में वेश्यावरति की इस नयी मंडी ने सामाजिक जकडबंदी को और ज्यादा बल दिया है। औरत धंधे में अपने को बचाने के लिए तो आजाद है। मगर यह बाजार तो बंधुआ देह व्यापार के चलन को पैदा कर रहा है।दिल्ली के जीबी रोड स्थित कोठा नम्बर इकतालिस पर कुछ महीने पहले आयी मोना कभी पंजाब के मंसा गांव की बहू रही थी जो शादी के बाद अपने तथाकिाित पति के अलावा देवरों और ससुर के हवस का शिकार होती रही। वह इस कोठे पर भाग कर आयी है.
इन सभी मामलों से एक अलग ही मामला आया जिसमें घर वाले पुलिस को खरीदकर लायी गयी लडकी को सौंपने के लिए तैयार नहीं थे। हरियाणा के पोपडा गांव में ब्याही गयी नाबालिग लडकी ने मां'बाप के साथ पुलिस ने दबिश दी थी। घर वालों ने कहा कि हम क्यूं दें। हमने इसका पैसा अदा किया है। सासू तो रोने लगी और कहती है कि हमारा तो एक ही लडका है और हमने जमीन बेचकर बारह हजार में लडकी खरीदी है। अब तो यही हमारी संपत्ति है। हमने तो इसलिए ब्याहा था कि इससे एक लडका हो जायेगा,पीढी चल पडेगी।
यह हालात अकेले किसी लडकी की नहीं बल्कि मेवात क्षेतर में ब्याहने वालों की गैंग इतनी सकीरय है कि वे मीडिया की भनक लगते ही सावधान हो जाते हैं। पुलिस वाले भी इन क्षेतरों में घुसने से हिचकते हैं। शक्तिशालिनी के निदेशक ऋषिकांत ने बताया कि सिर्फ चुनौती इतनी नहीं है कि उन लडकियों को चिन्हित किया जाये जो नाबालिग हैं तथा टरेफीकिंग के लिए लायी गयी हैं। बडी चुनौती है उन्हें मुक्त कराने की है। kshetra की पुलिस भी इस तरह के मामलों को गंभीरता से नहीं लेती कारण कि कई बार तो आरोपी पुलिसवालों का रिश्तेदार निकलता है।
यातना की जिंदा लाशें
यातना की जिंदा लाशें
करनाल जिले के सदर क्षेत्र में उपलों से भरी सडकों के बीच एक बडे अहाते वाली इमारत घर जैसी थी। वहां बच्चों की धमाचौकडी के बीच लडके सिलाई करते दिखे और लडकियां अपने कामों में व्यस्त। यह फैक्टरी नहीं थी और न ही किसी बडे परिवार का अहाता ही। वह एमडीडी अनाथाश्रम था जहां भूले-भटके, बेठिकाना बच्चे पनाह पाते हैं।
'लाओ-दे दो---छिपाओ नहीं। मैं जानती हूं तुम लाये हो और उसने भेजा है।' यह कहते हुये एक 15वर्षीय लडकी ने संवाददाता का बैग छीन लिया। अजनबी के साथ की गयी हरकत को देख छोटे बच्चे हंसने लगे और थोडे बडे बच्चे संजीदा हो गये। संचालक पीआर नाथ बैग सुरक्षित वापस ले आये और कहा कि मुमताज,बदला हुआ नाम के इस व्यवहार के लिये माफी चाहूंगा।
जब भी कोई नया आदमी आता है वह उसके साथ इसी तरह करती है। बच्चा मांगती है। नाथ ने बताया कि मुमताज को पुलिस छह महीने पहले सौंप गयी थी। मुमताज की शादी सोनीपत में किसी शुक्ला से हुयी। शादी होने के लगभग सालभर बाद एक रात वह बच्चा लेकर भाग गया। वहां मुमताज शुक्ला के साथ बतौर पत्नी किराये के मकान में रहती थी।
मुमताज से पता चला कि वह असल के सुपली जिला के पानपरी गांव के वाशिंदा मजीद की लडकी है। उसे नहीं पता कि उसे कब और क्यों लाया गया। इतना मालूम है कि जिस अपरिचित के साथ आयी उसने अब्बा को कुछ रूपये दिये और अम्मी उसका पल्ला नहीं छोड रही थी। शायद अम्मी जानती रही हो कि बेटी कहां जा रही है।
आश्रम में कुल चार नाबालिग लडकियां हैं,जिसमें से एक गर्भवती है। ठीक से बातचीत करने की स्थिति में मात्र 11वर्षीय रेखा ही थी। मध्य प्रदेश के रतलाम स्टेशन पर छोडकर वह व्यक्ति चला गया जो रेखा को मामा के घर ले जा रहा था। रेखा एक बुजुर्ग व्यक्ति के हाथ लगी जिसके चलते अभी वह आम लडकियों जैसी हालत में है।
रेखा गांव जाना चाहती है। वह हाथ जोडती हुयी कहती है 'मुझे रतनाम ले चलो।'रेखा की त्रासदी यह है कि घर का पता भूल गयी है। लेकिन खडगिया की गुंजनियां घर जाने के नाम पर रोनी सूरत बना लेती है। संचालक ने बताया कि जब यह आश्रम में तीन महीने पहले आयी थी तो इसकी हालत बेहद खराब थी। गुंजनियां भी अर्द्धविक्षिप्त जैसी है और उसे बच्चों से बेहद लगाव है। मानो उसका भी बच्चा किसी ने छीन लिया हो।
महिला वार्डन के सामने अकेले में की गयी बातचीत के दौरान गुंजनियां ने इशारे में बताया कि सात लोगों ने उसके साथ बलात्कार किया। उसे याद है कि पहली बार उसका बलात्कार बिहार के खडगिया जिले के एक चौराहे पर ठहरने के दौरान दलाल ने किया था। फिर दिल्ली आयी तो हरियाणा के करनाल जिले केकिसी गांव में पत्नी के रूप में रही। भाषायी समस्या के चलते उस व्यति का नाम भी नहीं जानती कि किसके साथ शादी हुई थी।
Feb 9, 2007
कानी बुढिया
निकली मौसी हफ्ते भर पर
चूल्हे-चूल्हे झांकी थी
नहीं कहीं कुछ बची-खुची थी
नहीं कहीं अगीआरी थी
घर आयी तो देखी मामा दुम दबाये बैठे हैं
बडकी मौसी चढी अटारी पेट सुखाये ऐंठी हैं
बात नहीं यह रविवार की सोमवार की बात रही
मामा ने खायी रोटी और मैं खायी थी साथ दही
खूब बजा था नगाडा और बडी नची थी मनुबाई
ओढाया था चादर उसको घुमाया था गली-गली
राम नाम का नारा देकर ले गये उसको नदी-वदी
जोडे-जाडे, फूंके-तापे घर को आये हंसी-खुशी
टुक-टुक मामा देखा करते वह पकवान बनाती थी
घर पर तब वह पहरा देते जब लोटा संग बहरा जाती थी
बिल्ली मौसी बडी सयानी मन बहलाया करती थीं
देकर अपनी अगली पीढी घर उजियारा करती थीं
सालोंसाल रही जिंदा वह बिन मानुष बिन आगम के
कुत्ता बिल्ली रहे हमसफर बिन मानुष बिन आगम के
असली भूतनी कानी बुढिया बच्चे कहते जाते थे
न करना कभी झांका-झांकी सभी हिदायत करते थे
कहते हैं अब लोग गांव के छोड गया वह कानी कहकर
तब से बुढिया जी रही थी भूत, पिशाच, निशाचर बनकर
मर गयी बुढिया बीता हफ्ता घर के दावेदार खडे थे
घर बार बिना वे हुये अभागे जो घर में सालोंसाल रहे थे।
चूल्हे-चूल्हे झांकी थी
नहीं कहीं कुछ बची-खुची थी
नहीं कहीं अगीआरी थी
घर आयी तो देखी मामा दुम दबाये बैठे हैं
बडकी मौसी चढी अटारी पेट सुखाये ऐंठी हैं
बात नहीं यह रविवार की सोमवार की बात रही
मामा ने खायी रोटी और मैं खायी थी साथ दही
खूब बजा था नगाडा और बडी नची थी मनुबाई
ओढाया था चादर उसको घुमाया था गली-गली
राम नाम का नारा देकर ले गये उसको नदी-वदी
जोडे-जाडे, फूंके-तापे घर को आये हंसी-खुशी
टुक-टुक मामा देखा करते वह पकवान बनाती थी
घर पर तब वह पहरा देते जब लोटा संग बहरा जाती थी
बिल्ली मौसी बडी सयानी मन बहलाया करती थीं
देकर अपनी अगली पीढी घर उजियारा करती थीं
सालोंसाल रही जिंदा वह बिन मानुष बिन आगम के
कुत्ता बिल्ली रहे हमसफर बिन मानुष बिन आगम के
असली भूतनी कानी बुढिया बच्चे कहते जाते थे
न करना कभी झांका-झांकी सभी हिदायत करते थे
कहते हैं अब लोग गांव के छोड गया वह कानी कहकर
तब से बुढिया जी रही थी भूत, पिशाच, निशाचर बनकर
मर गयी बुढिया बीता हफ्ता घर के दावेदार खडे थे
घर बार बिना वे हुये अभागे जो घर में सालोंसाल रहे थे।
अजय प्रकाश
साथी
वह किसान का लडका था
लडा, आजाद कौम के लिये
तुम भी मेहनतकश के बेटे हो
लड रहे हो एक बेहतर कल के लिये
वह कल जो तुम्हारी रगों में दौड रहा है
वह सपना बस्तियों में गूंज रहा है
जेल की कालकोठरी में बैठे
जो आंच तुम्हें मिल रही है साथी
वह बेकार नहीं जायेगी
वह बेकार नहीं जायेगी
तख्त नहीं डिगा सकते सपनों को
क्योंकि वे रातों को नहीं रोक सकते
वह सफदर को घूंघरू बांधने से नहीं रोक सकते
नहीं रोक सकते पाश को गलियों में गाने से
वह नाजिम के हाथों को एक होने से नहीं रोक सकते
नहीं रोक सकते पाब्लो की समुद्री लहरों को
तो कैसे रोक लेंगे तुम्हारे सपनों को
साथी
इल्म करा दो ताजदारों को
हरावली सेना मौत से नहीं डरती
और लोग, बख्तरबंद सैनिकों से
अजय प्रकाश
वह किसान का लडका था
लडा, आजाद कौम के लिये
तुम भी मेहनतकश के बेटे हो
लड रहे हो एक बेहतर कल के लिये
वह कल जो तुम्हारी रगों में दौड रहा है
वह सपना बस्तियों में गूंज रहा है
जेल की कालकोठरी में बैठे
जो आंच तुम्हें मिल रही है साथी
वह बेकार नहीं जायेगी
वह बेकार नहीं जायेगी
तख्त नहीं डिगा सकते सपनों को
क्योंकि वे रातों को नहीं रोक सकते
वह सफदर को घूंघरू बांधने से नहीं रोक सकते
नहीं रोक सकते पाश को गलियों में गाने से
वह नाजिम के हाथों को एक होने से नहीं रोक सकते
नहीं रोक सकते पाब्लो की समुद्री लहरों को
तो कैसे रोक लेंगे तुम्हारे सपनों को
साथी
इल्म करा दो ताजदारों को
हरावली सेना मौत से नहीं डरती
और लोग, बख्तरबंद सैनिकों से
अजय प्रकाश
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