Apr 11, 2007

'रामायण हमारा महाकाव्‍य नहीं हो सकता'- शरण कुमार लिंबाले


जो महाभारत एकलव्‍य का अंगूठा ले लेता है,जिस रामायण में शम्‍बूक की हत्‍या कर दी जाती है वह भगवत गीता जिसमें दलितों की चर्चा तक नहीं है, वह हमारा महाग्रंथ नहीं हो सकता। दलितों का महाकाव्‍य रचा जाना तो अभी शेष है...


मराठी के प्रसिद्ध लेखक और चिंतक   शरण कुमार लिंबाले से अजय प्रकाश की बातचीत



अलग से दलित साहित्‍य आंदोलन की ही जरूरत क्‍यों पडी ?

भारतीय रचनाशीलता के हजारों साल के इतिहास में आजादी के बाद पहली बार ऐसा हुआ कि दलितों के बीच से पढने-लिखने वाला एक वर्ग उभरकर सामने आया। दलितों के अगुवाओं और वर्ण समाज की आकंठ मूल्‍य-मान्‍यताओं के बीच उभर रहे रचनाकारों ने दलितों के लिये जो छिटपुट कहीं लिखा भी तो वह सहानुभूति और दया की अनुभूति से आगे नहीं जा सका। क्‍योंकि जो वर्ग लिखता-पढता है वह उसी के हितों-संबंधों को व्‍यक्‍त करता है।

जो महाभारत एकलव्‍य का अंगूठा ले लेता है,जिस रामायण में शम्‍बूक की हत्‍या कर दी जाती है वह भगवत गीता जिसमें दलितों की चर्चा तक नहीं है, वह हमारा महाग्रंथ नहीं हो सकता। दलितों का महाकाव्‍य रचा जाना तो अभी शेष है। हमने महसूस किया कि अपने तबके के करोडों लोगों को इस सडियल सामाजिक व्‍यवस्‍था से बाहर निकलने और उससे प्रतिरोध करने के लिये साहित्यिक रचनाकर्म को भी माध्‍यम बनाना होगा। आजादी के बाद से लेकर अब तक जो दलित साहित्‍य में आंदोलन है उसके केंद्र में विद्रोह है।

क्‍या कोई गैर दलित लेखक दलित पीड़ा  को सही ढंग से पूरी प्रभावत्‍मकता के साथ अभिव्‍यक्‍त नहीं कर सकता ?

नहीं, अभिव्‍यक्‍त कर सकता है। कारण कि वह सोचकर लिखता है। दलित लेखन जबसे शुरू हुआ है उस अंतर को स्‍पष्‍ट देखा जा सकता है। कराठी से लेकर हिन्‍दी तक में सैकडों कहानियां,दर्जनों दलित उपन्‍यास दशक भर में प्रकाशित हुये हैं जिसने यह साबित कर दिया है कि अब तक का जो दलित उपन्‍यास था जिसे गैर दलितों ने लिखा था वह आभासी था, अब जो दलित सा‍हित्‍य आ रहा है उसे खुद दलित लिख रहे हैं वह आनुभावकि है।

मगर यह प्रश्‍न जिस ढंग से बार-बार आ रहा है उससे कभी-कभी तो यह लगता है कि हमने गैर दलितों को दलितों पर लिखने से प्रतिबंधित कर दिया है। आज जब दलित अपने को व्‍यक्‍त करने लगा है तभी यह सवाल क्‍यों। हजारों साल के इतिहास में दलितों के लिये क्‍यों नहीं लिखा गया। तब वे कहां थे जिन्‍होंने दलितों की अमानवीय स्थितियों पर कलम चलाना भी जरूरी नहीं समझा।

दरअसल,यह गैर दलितों का खौफ है जो उनके प्रयोगशील साहित्‍य के मुकाबले जीवंत पहलुओं पर लिखने का प्रयोग करता है। मगर दलितों द्वारा रचा जा रहा हर साहित्‍य हमारा इतिहास है जिसकी भूमि पर खडे होकर बराबरी और सम्‍मान की लडाई लडी जानी चाहिये।

हिन्‍दी साहित्‍य और मराठी साहित्‍य में दलित चेतना के स्‍तर पर क्‍या संभावनायें एवं भिन्‍नतायें हैं ?
दलित समाज के अगुवा अंबेडकर की कर्मभूमि महाराष्‍ट को व्‍यक्‍त करने वाला मराठी साहित्‍य दलित चेतना के स्‍तर पर हिन्‍दी साहित्‍य से कई मायनों में भिन्‍न है। महाराष्‍ट में 60 के दशक से लेकर 2000तक दलित नौजवानों का एक मजबूत संघर्ष रहा है जिसका मूर्त रूप 'दलित वैभर्स' नामक संगठन है।

महाराष्‍ट में दलित लेखक आंदोलनों में भी उतना सक्रिय रहता है जितना कि अपनी लेखनी में। लोगों को यह जानकर आश्‍चर्य होगा कि दलित वैभर्स का गठन करने वाले दलित कवि और लेखक थे। स्‍पष्‍ट तौर पर कहा जाये तो मराठी का लेखक कार्यकर्ता कलावंत है। कार्यकर्ता कलावंत होना ही एक लेखक को उत्‍तरदायित्‍व से लबरेज करता है जो दूसरे साहित्‍य में नहीं है।

जिस ढंग का सामाजिक आंदोलन मराठी में रहा है वैसा कोई आंदोलन हिन्‍दी में नहीं दिखायी पडता है जिसके कारण इस साहित्‍य में आक्रामकता की भी कमी है। इसका एक दूसरा महत्‍वपूर्ण कारण यह भी है कि मराठी में दलित साहित्‍य का एक लंबा इतिहास है जबकि हिन्‍दी में एक शुरूआत हो रही है। यह दीगर बात है कि हिन्‍दी के राश्‍टभाषा होने के चलते कानूनन इस भाषा का दलित लेखक एक ही उपन्‍यास में ख्‍याति प्राप्‍त कर लेता है जबकि मैं तीस किताबें लिखने के बाद अब हिन्‍दी में आया हूं।

प्रेमचंद को आप किस रूप में देखते हैं, खासकर दलित संवेदना के स्‍तर पर ?

मैं जब भी दिल्‍ली आता हूं प्रेमचंद को लेकर सवाल अवश्‍य ही पूछा जाता है क्‍योंकि प्रेमचंद के लेखन के संदर्भ में कुछ लेखकों ने आपत्ति की है। इस सवाल में मुझे दलितों की आलोचना करने की मानसिकता दिखती है।

 प्रेमचंद के उपन्‍यास रंगभूमि को कुछ दलित लेखकों ने जलाया तो ज्‍यादातर ने उसकी भर्त्‍सना की लेकिन उसकी चर्चा नहीं की जा सकती। जहां तक लेखन का सवाल है तो हमारा मानना है कि प्रेमचंद ने प्रगतिशील रचनाशीलता की नींव रखी है। प्रेमचंद ने हजारों सालों से समाज के जिन बंद दरवाजों को थपथपाया था उसी को तोड्कर हम आगे बैठे हैं।

बेशक प्रेमचंद को लेकर हमारा ममूल्‍यांकन करने का बार-बार आग्रह तानाशाही है जिसे दलित लेखकों की नयी धारा से पैदा हुयी चुनौती के रूप में देखा जाना चाहिये।

दलित साहित्‍य पीडा के साहित्‍य से आगे का कदम क्‍यों नहीं पा रहा है ?

हजारों सालों की पीडा को हम सवर्णों की व्‍यग्रता के चलते एक-दो दशक में कैसे व्‍यक्‍त कर सकते हैं। दलित साहित्‍य का मात्र चालीस साल पुराना इतिहास है और यह हमारे लेखकों की पहली पीढी है। इसलिये लेखकों की जो दूसरी पीढी आयेगी उसके स्‍वर में फर्क होगा और हमारी पीडा की अभिव्‍यक्ति की आग्रामकता और बढेगी। साथ ही दलित साहित्‍य में जो लोकतांत्रिक मूल्‍यों की बात हो रही है,साथ ही एक नये सामाजिक संरचना के जो बीच दिखायी दे रहे हैं उसको भी गौर करना होगा।
हिन्‍दू संस्‍क़ति के मुकाबले दलित संस्‍कृति का क्‍या अभिप्राय है् ?

हिन्‍दू संस्‍कृति के मुकाबले दलित संस्‍कृति का निर्माण्‍ा हो रहा है। हमारे पास संस्‍कृति,भाषा, साहित्‍य, सौंदर्य नहीं था। जिस कारण आज तक हमें नकारा गया था अब हहहम नकार रहे हैं। इस पारंपरिक व्‍यवस्‍था को बाबा साहब अंबेडकर ने बौद्ध धर्म अपनाया और उसी समय से दलित संस्‍कृति की नींव पडी। आज दलित लेखक आधुनिकता की जीवन शैली को अपना रहा है और हम वैदिक संस्‍कृति की विरासत को आगे बढा रहे हैं।

दलित साहित्‍य ओर स्‍त्री साहित्‍य अलग-अलग क्‍यों संघर्ष कर रहा है ?

दलित साहित्‍य और स्‍त्री साहित्‍य अलग ही रहेगा क्‍योंकि हमारे समाज की सवर्ण लेखिका दलितों के प्रति वही रूख अपनाती है जो सवर्ण पुरूष लेखक। ऐसा इसलिये हो रहा है क्‍योंकि सवर्ण स्‍त्री दलितों की अधिकार की भाशा नहीं जानते हैं।

दलित साहित्‍य में स्त्रियां हाशिये पर क्‍यों हैं ?

मोटी सी बात यह है कि जहां दलित लेखकों की संख्‍या हजारों में है वहीं दलित स्‍त्री लेखिकाओं की संख्‍या दस की संख्‍या भी पार नहीं कर सकी है। ऐसे में यह स्थिति तो बनी रहेगी। दलित पुरूषों से पीडित तो स्त्रियां भी हैं। इसलिये यह भी जरूरी है कि दलित स्‍त्री लेखिकाओं की एक पीढी तैयार हो। तभी जाकर वह हाशिये से केंद्र में आ सकती है जैसे आज दलित लेखकों ने करके दिखाया है।

दलित ही दलित के बारे में लिखेगा तो क्‍या पढेगा भी वही ?

सच तो यह है कि दलित लिख रहा है और सवर्ण पढ रहा है। हमें तो मलाल है कि जिसके लिये हम लिख रहे हैं वह नहीं पढ रहा है क्‍योंकि उनके बीच शिक्षा का अभाव है। दलित साहित्‍य कोई क्षेत्रीय साहित्‍य नहीं रह गया है बल्कि हर एक भाषाओं में मांग बढी है ओर हर वर्ग इसे पढ रहा है। पाठयग्रम से लेकर पुरस्‍कारों तक में शामिल हमारे साहित्‍य ने दलित ही दलित को पढेगा जैसी सोच को सिर के बल खडा कर दिया है।

दलित चेतना को आगे बढाने में प्रगतिशील साहित्‍य का क्‍या योगदान है ?
प्रगतिशील साहित्‍य के अभाव में यह संभव ही नहीं था कि हम दलित चेतना की बात करते। साहित्‍य लेखन की यह दोनों धारायें एक ही रथ के दो पहिये हैं जिनमें से किसी एक की भी एकांगिकता हमारे संघर्षों और बदलाव की लडाई को कमजोर करेगा।




3 comments:

  1. A wonderful and impressive blog. We obeserved that you have published the feed in this blog. But there is no indication of the terms of use.

    Actually we want to put the feed in aggregated form in our network of websites, “www.chhattisgarhnews.info” is one of them. If interested, please guide us about the terms related to the feed published by you

    ReplyDelete
  2. रामायण की महाकाव्यात्मकता पर शक करना उचित नहीं है ....उसमें शाश्वत गुण हैं और बहुतेरे प्रश्न भी हैं जो कालातीत हैं ......दलित चिंतन और लेखन में सबसे बड़ी जरूरत संवाद स्थापित करने के नए और सर्वसुलभ तरीके ढूँढने की है ..... जो बात कही जा रही है ....जिनके लिए बात कही जा रही है ....शब्द खर्च किये जा रहे हैं ....क्या वह धारणा उनको छू पा रही है? ......क्या दलित राजनीतिक प्रयोग सबसे अंतिम आदमी का उद्धार करने में समर्थ हैं? ......केवल सवर्ण विरोध के तेवर दलित उत्थान के महान राजनीतिक उद्देश्य तक हमें नहीं ले जा सकते हैं .....हजारों सालों की रची-पची संस्कृति की गतिकी समझना जरा टेढ़ी खीर है ......अभी समाज को नूतन प्रयोगों की जरूरत है ....साहित्य में भी वही स्वर समवेत करने की जरूरत है ......दलित साहित्य के सामने तुलसीदास, ग़ालिब, प्रेमचंद और रेणु सरीखे रचनाकार उधार हैं जो भाषा को आमजन की बातों तक निचोड़ कर रख देवें .....रैदास और कबीर उधार हैं जो भाषा को तोड़ कर अपनी बात, लोगों के ह्रदय की बात कह पायें ......समकालीन दलित लेखक और चिन्तक भी भाषा की उसी मरीचिका में फंसे हैं ...जो संस्थानीकृत है .....और वो खुद भी कुलक मानसिकता की गिरफ्त में कहीं बंध गए हैं .....वो अपने ही लोगों के लिए बड़े हो गए हैं .....यह उर्ध्व सामाजिक प्रक्रिया के अंतर्गत का द्वंद्व है ...यह रह सकता है ....क्योंकि ये दलित महाचेतना के संक्रमण काल के काव्य-दोष हैं ......पर इन्हें भूलते हुए आगे बढ़ जाने की बात है .....हमारी और आने वाली पीढ़ियों को ऐसे ही लेखकों की जरूरत रहेगी ......बड़ा प्रश्न यह नहीं है कि दलितों को सुसंस्कृतीकरण की ताब से कैसे बचाया जाये....बल्कि बड़ा प्रश्न यह है कि दीमक से बनी लकीरें कैसे कानून और भाषा की किताबों में आयें ........क्योंकि उसके बाद का रास्ता तो आने वाला समाज खुद तय कर लेगा.

    ReplyDelete
  3. what is yr program. cast dimolis in society. rona rone se koi bat nai banti. dalit sahitya mai bhi sateganation ka sikar hai. sadandh aa rahi hai.

    ReplyDelete