Apr 21, 2017

प्रशांत भूषण लडेंगे तमिलनाडू के किसानों का मुकदमा

प्रधानमंत्री आवास के सामने नंगा प्रदर्शन कर चुके तमिलनाडू के सूखाग्रस्त किसानों का मुकदमा सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण लडेंगे। ​दिल्ली के जंतर—मंतर पर 38 दिनों से धरना दे रहे किसानों से मुलाकात के बाद उन्होंने यह फैसला किया। 

 
स्वराज अभियान के अध्यक्ष प्रशांत भूषण पहले से देश के सूखाग्रस्त किसानों को लेकर सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल किए हुए हैं। उनकी याचिका पर सर्वोच्च अदालत में लगातार सुनवाई चल रही है। अदालत कई दफा राज्यों को नोटिस कर चुकी है। किसानों को लेकर अदालत का रूख सकारात्मक है।

प्रशांत भूषण किसानों को यह मुकदमा बिना फीस लिए लड़ेंगे जैसा कि वह जनहित के कई मसलों पर करते आए हैं। 

तमिलनाडू के किसान सदी के सबसे भयंकर सूखे के दौर से गुजर रहे हैं। सूखे की मार और कर्ज़ के बोझ के तले दबे करीब 100 किसान जंतर—मंतर पर 38 दिनों से प्रदर्शन कर रहे हैं। वे मरे हुए किसानों और उनके परिजनों की खोपड़ियां लेकर प्रदर्शन कर रहे हैं।

पर किसानों की मांग पर मोदी सरकार कोई कान नहीं दे रही है। किसानों के मसले पर बहरापन का नाटक कर रही सरकार को सुनाने के लिए इन किसानों जमीन पर खाना खाया और प्रधानमंत्री आवास के सामने नंगा होकर भी प्रदर्शन किया पर उनकी कोई सुनवाई नहीं हुई है।

किसानों के मुताबिक उनपर 50 हज़ार से पांच लाख तक का कर्ज़ है. उनका कहना है, 'दिखावे के लिए सरकार ने छोटे किसानों की मदद की लेकिन ज़्यादातर किसानों को कोई मदद नहीं मिली. हमारी मांग है कर्ज़ माफ़ हों और नए कर्ज़ दिए जाएं कि वो किसानी कर सकें।'

प्रशांत भूषण के अनुसार, 'सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के बावजूद सरकार की इतनी हिम्मत नहीं कि वह करोड़पति कर्जदारों का नाम सार्वजनिक कर सके पर किसान नंगा होकर सरकार के दरवाजे पर प्रदर्शन करते हैं, प्रधानमंत्री उनका कोई जिक्र तक नहीं करते हैं।'

वह आगे कहते हैं, 'मैं तमिलनाडू के किसानों के मसले पर 20 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर ​कर चुका हूं। जहां देश में सभी सरकारें किसानों से आंख चुरा रहीं हैं, वहीं स्वराज इंडिया किसानों की हर लड़ाई में साथ है।' 

राष्ट्रवादी बनने के बीस असरदार तरीक़े

देश में जबसे राष्ट्रवाद की लहर आई है तबसे बहुतेरे मौकापरस्त नेता, अभिनेता, व्यापारी, शिक्षक, पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता स्वत:स्फूर्त तरीके से राष्ट्रवादी बनने की जुगत में जुट गए हैं। ऐसे में उनसे बहुत सी गलतियां हो जा रही हैं। उन्हें असली राष्ट्रवादी पकड़ कर नकली—नकली बोल बेइज्जत कर दे रहे हैं। 

इससे बचने के लिए सामाजिक कार्यकर्ता हिमांशु कुमार ने 'राष्ट्रवादी बनने के बीस असरदार तरीके' खोज निकाले हैं। जनज्वार राष्ट्रवादी हित में इन नुस्खों को साझा कर रहा है। 


1-जोर जोर से नरेंद्र मोदी ज़िंदाबाद बोलें। बीच बीच में योगी ज़िंदाबाद और गांधी मुर्दाबाद बोलते रहें।

2-जो आपसे तर्क करे उसे कांग्रेसी और कम्युनिस्ट कहें।

3-सार्वजनिक रूप से टीका चंदन करें और ग्रुप में गांजा जलाकर पढ़े लिखों के साथ गांधी-नेहरू-अम्बेडकर का मजाक उड़ाते हुए धुआँ छोड़ें। आख़िर ये सब विदेशी जो थे।

4-कोई अगर कहे की "हमें अपने संविधान से प्रेम है" तो उसे सिक्युलर कहें ।

5-एसी में बैठकर बीसलेरी  पीते हुए अपने लिए ठेके और प्रोजेक्ट जुगाड़ें और वर्तमान सरकार की प्रशस्ति करते रहें।

6-हर समस्या के लिए आरक्षण को दोष दें....महंगे होटल के कमरे में बैठकर ब्राह्मण विमर्श करें...जाति आधारित आरक्षण समर्थकों को देशद्रोही करार दें।

7-योग,ध्यान, प्राणायाम के गुण गाएं लेकिन सुबह 9 बजे से पहले न उठें...रात को भारत की दारू पीकर ट्रम्प ज़िंदाबाद का नारा लगाएं और सुबह किसी यूनिवर्सिटी में वबाल का प्लान बनाएं। 

8-मालदा पर खूब चिल्लाएं और पहलू खान पर मनोज तिवारी का पवित्र संगीत सुनें.. बीच बीच में गोडसे को मानवतावादी बताकर नेहरू के शांति अभियान को मनुष्यता के लिए घातक बताएं।

9-भारत के क्रिकेट जीतने पर हल्ला मचायें और फिर स्वदेशी स्वदेशी चिल्लाएं।

10-सड़क पर पान थूककर स्वच्छ भारत अभियान को सफल बताएं और साथ में ये भी जोड़ें कि फैली हुई गंदगी और स्वच्छता  समस्या के जिम्मेदार नेहरू हैं ।

11-वर्तमान सरकार की रोज़ वंदना करें और बताएं कि सत्तर साल में कुछ नहीं हुआ।

12-गोडसे को महात्मा माने और गांधी को दुष्ट आत्मा और हिटलर-मुसोलिनी को पुण्यात्मा जरूर मानें।

13-अभिव्यक्ति के अधिकार पर दिन रात चिंता व्यक्त करें..सेमीनार में व्याख्यान देते हुए सरकार को उदारवादी कहें और कहीं कोई सरकार के ख़िलाफ़ बात करे तो पत्थर फेंके, डंडे चलाएं।

14-गौ सेवा का दावा करें भले घर मे गाय पालने की हिम्मत न हो।

15- यत्र नार्यस्तु पूज्यंते का पाठ करें और जो स्त्री पब्लिक स्पेस में आपके ख़िलाफ़ बोले उसे मां बहन की गाली देते हुए बलात्कार की धमकी दें।

16-गीता,रामायण,महाभारत वेद कभी न पढ़ें...लेकिन इनसे फ़र्ज़ी श्लोक चेंप कर अपनी बात सही साबित करने की कोशिश करें। बक़रीद पर अहिंसक हो जाएं और हिन्दू बलि परम्परा पर आंख मूंद लें।

17-सुबह उठकर फेसबुक पर सरकार की जी भर के आरती करें और जो आपसे सहमत न हो उसे तुरन्त माँ बहन की गाली से अभिषेक करें।

18-किसी सामाजिक काम में हिस्सा न लें लेकिन दिन रात खुद को राष्ट्रभक्त साबित करें।

19-विचार करें या न करें कुछ पढ़ें या न पढ़ें लेकिन हर जगह खुद को सर्व ज्ञाता  पढ़ा लिखा और  सबसे सुलझा और समझदार साबित करते रहें...इसके लिए व्हतसेप से प्राप्त फ़र्ज़ी ज्ञान यहां वहां चेंपते रहें।

20- देश की बात करते रहें, विदेशी माल चरते रहें।

चुनाव सड़क, सफाई, स्वास्थ्य का पर मुद्दा आतंकवाद, राष्ट्रवाद, हिंदू—मुसलमान

 सोचने पर मजबूर कर देंगे दिल्ली एमसीडी चुनाव के मुद्दे 

जनज्वार। परंपरागत रूप से स्थानीय निकाय के चुनावों में नाली, पानी, सड़क, सफाई, स्वास्थ्य और सहुलियतें मुद्दा हुआ करती हैं। लोग पार्षदों को इस आधार पर वोट करते हैं कि उनको मच्छर, बदबू, प्रदूषण, अतिक्रमण, बीमारी, अशिक्षा और खराब सीवर सिस्टम से कौन पार्टी बचाएगी। 



पर अबकी दिल्ली एमसीडी चुनाव में ऐसा नहीं है।  

दिल्ली एमसीडी 'म्यूनिसिपल कॉरपोरेशन आॅफ दिल्ली' चुनाव में तीन तलाक, हलाला, कश्मीर में आतंकवाद, वहां के प्रदर्शकारियों से सेना का बर्ताव, योगी का रोमियो स्क्वायड, गोहत्या पर गोरक्षकों की पहल, राष्ट्रवाद और देशद्रोह की बहस आदि मुद्दा बना हुआ है। 

जागरूक वोटरों का एक तबका सीरिया में बच्चों की हत्या, अमेरिका द्वारा अफ​गानिस्तान में  गिराया  गया 10 हजार किलो का बम और पाकिस्तान में कुलभूषण जाधव को दी गयी फांसी के फरमान पर भी बहस कर तय कर रहा है कि दिल्ली एमसीडी चुनावों में किस पार्टी को वोट दिया जाए।  

यही वजह है कि कोई पार्षद जनता के बुनियादी मुद्दों सड़क, पानी, सफाई, स्वास्थ्य आदि पर ज्यादा फोकस कर बात नहीं कर रहा है। अलबत्ता जो पार्टी और पार्षद जनता की बुनियादी जरूरतों पर ज्यादा केंद्रीत कर वोट मांग रहे हैं उनकी जनता के बीच कोई चर्चा नहीं है या है भी तो इस रूप में कि 'उनकी बात ठीक है पर वह टक्कर में नहीं हैं।' 

उदाहरण के तौर पर योगेंद्र यादव के नेतृत्व वाली 'स्वराज पार्टी' को लिया जा सकता है। स्वराज पार्टी अपने 211 पार्षद प्रतिनिधियों के माध्यम से लगातार जनता के ​बुनियादी मुद्दों पर फोकस किए हुए है। आप या कांग्रेस की तरह वह स्थानीय मुद्दों से जरा भी इधर—उधर नहीं हो रही। स्वराज पहली ऐसी पार्टी है जिसने पर्यावरण को दिल्ली की मूल सवालों में शामिल किया है। 

पर 'साफ दिल और साफ दिल्ली' के नारे साथ एमसीडी चुनाव में उतरी स्वराज पार्टी के बारे में पत्रकारों की आम राय है कि मुश्किल से इस पार्टी का खाता खुल पाएगा और ज्यादातर जगहों पर प्रतिनिधियों की जमानत जब्त होगी। सर्वे एजेंसियों का भी यही आकलन है। 

सवाल है कि दिल्ली जैसे प्रोफेशनल शहर का यह हृदय परिवर्तन हुआ कैसे? क्यों वोटरों को जीवन की बुनियादी सुविधाओं की सरकारों से मांग और उनका पूरा कराने का अधिकार रोमांचित—आंदोलित नहीं करता, क्यों उन्हें आंदोलन का सारा आनंद राष्ट्रवाद, कश्मीर, राष्ट्रवाद और हिंदू—मुस्लिम विभाजन पर आने लगा है ?   

वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक ​पीयुष पंत की राय में, 'भाजपा के राष्ट्रवादी शोर—सराबे ने पिछले कुछ चुनावों से लोगों का माइंडसेट चेंज कर दिया है। एक के बाद एक भाजपा की जीत लोगों की इस समझ को मजबूत कर रही है कि बेकारी, गरीबी, अशिक्षा, महंगाई हमारी किस्मत है और मुद्दे जिनसे उन्हें निपटना है वह देशद्रोह, राष्ट्रवाद और हिंदू—मुसलमान हैं।' 

चार एमसीडी चुनाव कवर कर चुके वरिष्ठ पत्रकार अनिरूद्ध शर्मा कहते हैं, 'भाजपा उत्तर प्रदेश में जिस राह जीती है वह उसी को यहां भी आजमा रही है। उत्तर प्रदेश चुनाव राज्य के सवालों—समस्याओं से ज्यादा आतंकवाद, कश्मीर, राष्ट्रवाद, हिंदू—मुस्लिम और केंद्र की उपलब्धियों पर केंद्रीत रहा। एमसीडी चुनावों में कौन पार्टी बहुमत पाएगी इस पर कुछ कहने की बजाए मैं यह कहना चाहुंगा कि 'पब्लिक परसेप्शन' में भाजपा जीती हुई दिख रही है।' 

Apr 20, 2017

पूर्व मंत्री का नाम नकली और डिग्री फर्जी

देश के सबसे बड़े स्वास्थ्य घोटाले 'एनएचआरएम' के आरोपी और बसपा सरकार में हनक वाले मंत्री रहे बाबू सिंह कुशवाहा, बाबू सिंह कुशवाहा नहीं हैं.

जनज्वार। बाबू सिंह कुशवाहा ने अपना असली नाम छुपाकर स्नातक की डिग्री फर्जी तरीके से ले ली है. स्नातक में दाखिले के लिए उन्होंने 12 वीं तक भी नहीं किया. बिना बारहवीं किये ही फर्जी मार्कशीट बनाते हुए उन्होंने स्नातक में दाखिला और फर्जी डिग्री ली. इसके बाद वह एमएलसी बन गये. इस धोखाधड़ी के चलते विजिलेंस झाँसी ने झाँसी के नवाबाद थाना में बाबू सिंह कुशवाहा उर्फ़ चरण सिंह कुशवाहा के खिलाफ 419, 420, 467, 468 व 471 आईपीसी धारा के तहत मुकदमा दर्ज किया है.


बाबू सिंह कुशवाहा नई मुश्किल में फंस गये हैं. विजिलेंस ने जांच में पाया है कि बाबू सिंह कुशवाहा का असली नाम ही बाबू सिंह कुशवाहा नहीं है. उनके माँ-बाप ने उनका नाम चरण सिंह कुशवाहा रखा था. ये नाम प्राथमिक शिक्षा तक चलता रहा, लेकिन 12 वीं में नाम बदल गया.

बाबू सिंह कुशवाहा ने 12वीं किये बिना ही 12 वीं की फर्जी मार्कशीट बनवा ली. फर्जी मार्कशीट में उन्होंने अपना नाम चरण सिंह न लिखवाकर बाबू सिंह कुशवाहा कर लिया, ताकि पहचान न हो सके. इसके बाद उन्होंने झाँसी के बुंदेलखंड महाविद्यालय में इस फर्जी मार्कशीट के आधार पर स्नातक में दाखिला लिया. बीए ग्रेजुएशन में उन्होंने फर्स्ट व सेकंड ईयर में सब्जेक्ट भी अलग अलग रखे. उन्होंने फर्जी तरीके से ग्रेजुएशन की डिग्री लेने के एमएलसी चुनाव लड़ा और एम्एलसी बन गये.

गौरतलब है कि बाबू सिंह कुशवाहा घोटाले में फंसने के बाद उनके बुरे दिन शुरू हुए. करीब चार साल बाद जेल में रहने के बाद वह 2016 में जेल से जमानत पर रिहा हुए. कुछ दिनों पहले ही बेटी की शादी में शामिल होने के लिए उनकी जमानत की मांग को खारिज कर दिया गया था.

बाबू सिंह कुशवाहा 15 मार्च से डासना जेल में बंद हैं. बताया जा रहा है कि उनकी बेटी की शादी लखनऊ में 29 अप्रैल को होनी है, लेकिन उन्हें अब तक जमानत नहीं मिली है. उन्होंने 6 मई तक की जमानत मांगी है.

महिला अधिकारी के बेडरूम में घुसा बीजेपी वर्कर, योगी के मंत्री बोले अतिउत्साह में था कार्यकर्ता

समाजवादी सरकार में जब बलात्कार की घटना होती थी, तो मुखिया मुलायम सिंह यादव कह दिया करते थे कि बच्चों से ऐसी गलती हो जाया ​करती है। योगी युग में भी बदजुबानी के बोल बदले नहीं हैं, अब उनके मंत्री कहते हैं कि कार्यकर्ताओं से एक्साइटमेंट में गलतियां हो जाया करती हैं....

मंत्री से शिकायत करतीं  बीडीओ
उत्तर प्रदेश के महोबा स्थित जैतपुर ब्लॉक की बीडीओ ने बीजेपी नेता पर बेडरूम में घुसकर बदसलूकी करने का आरोप लगाया है। बीडीओ महिमा विद्यार्थी ने बीजेपी के सेक्टर प्रभारी असमेन्द्र द्विवेदी द्वारा की गयी इस बदसलूकी की शिकायत राज्यमंत्री डॉ. महेंद्र सिंह से की, तो उन्होंने इसे अति उत्साह में आकर की गयी घटना बताकर टालने की कोशिश की।  

जैतपुर में तैनात बीडीओ महिमा विद्यार्थी ने 19 अप्रैल को आरोप लगाया कि जब व​ह आॅफिस के बाद अपने सरकारी आवास पर थीं, तो बीजेपी के सेक्टर प्रभारी असमेन्द्र द्विवेदी जबरन उनके बैडरूम में घुस आए और उनके साथ बदसलूकी करने लगे। महिमा विद्यार्थी के मुताबिक इससे पहले भी बीजेपी नेता मेरे आवास पर आकर मेरे साथ बदसलूकी कर चुका है। मैंने उनसे कई बार ऑफिस में ही मिलने की बात कही, लेकिन वो जबरदस्ती घर में आ जाते हैं और काम करवाने के नाम पर अभद्रता करते हैं।"

महिमा के मुताबिक उन्होंने इस बदसलूकी की शिकायत कुलपहाड़ कोतवाली में की, लेकिन पुलिस ने कार्रवाई तो दूर, उनकी शिकायत दर्ज तक नहीं की। पुलिस ने मामला शांत करने की कोशिश की, लेकिन आरोपी के खिलाफ एक्शन नहीं लिया।

जब महिमा विद्यार्थी की शिकायत पुलिस ने दर्ज नहीं की तो 19 अप्रैल को वह जैतपुर ब्लॉक में आए राज्यमंत्री डॉ महेंद्र सिंह से मिलने पहुंचीं। उन्होंने बीजेपी कार्यकर्ता की शिकायत भी की, लेकिन मंत्री के जवाब ने उन्हें और परेशान कर दिया। मंत्री जी ने कहा- बीजेपी कार्यकर्ता कोई अमर्यादित कार्य नहीं करते। कुछ कार्यकर्ता अति उत्साहित होकर ऐसा कर देते हैं।

Apr 19, 2017

मौत से पहले ही हिटलर को ठहरा दिया गया था युद्ध अपराधों का दोषी

ब्रिटिश लेखक का खुलासा

अमेरिकी और ब्रिटिश सरकार को हिटलर द्वारा किए जा रहे नरसंहार के बारे में पता था लेकिन उन्होंने जानबूझकर रोकने के लिए नहीं उठाया था कोई कदम.....

पुरानी मान्यताओं के विपरीत यह पता चला है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान नाज़ी सरकार द्वारा की गई कार्रवाई के लिए जर्मनी के पूर्व तानाशाह अडोल्फ हिटलर को युद्ध अपराधों का दोषी ठहराया गया था। 

ब्रिटिश शिक्षाविद् डैन प्लैश की नई किताब "हयूमैन राइट्स आफ्टर हिटलर" के अनुसार, दिसंबर 1944 में युद्ध अपराधों के लिए हिटलर को संयुक्त राष्ट्र युद्ध अपराध आयोग की पहली सूची में रखा गया था। साथ ही आयोग ने एक महीने पहले माना था कि नाज़ियों द्वारा की गई कार्रवाई के लिए हिटलर को आपराधिक रूप से ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है। इसके बाद मार्च 1945 के आखिर में और हिटलर की मौत से एक महीने पहले आयोग ने उस पर युद्ध अपराधों के लिए 7 अलग-अलग अभियोग लगाए थे। 

ब्रिटिश वेबसाइट इंडिपेंडेट के मुताबिक 15 दिसंबर 1944 को चेकोस्लोवाकिया द्वारा आयोग को जमा कराए गए दस्तावेज़ो में हिटलर और उसकी सरकार के 5 सदस्यों को आरोपी ठहराया गया था। इसमें हिटलर के जूनियर रुडोल्फ हेस और हेनरिक हिमलर भी थे, जिनको यहूदियों के नरसंहार के लिए सबसे ज़िम्मेदार बताया जाता है। इसके अलावा प्लैश की किताब में यह भी बताया गया है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के मित्र राष्ट्र जर्मनी द्वारा यहूदियों के नरसंहार के स्तर के बारे में ढाई साल पहले ही पता चल चुका था।

साथ ही प्लैश बताते हैं कि अमेरिका और ब्रिटिश सरकारों को हिटलर की नाज़ी सरकार द्वारा यहूदियों के बड़े पैमाने पर किए जा रहे नरसंहार के बारे में पता था, लेकिन उन्होंने जान—बूझकर उसे रोकने के लिए कोई कदम नहीं उठाया। वहीं, नवंबर 1940 में सबसे पहले नाज़ी सरकार के अत्याचार की निंदा चेक और पोलिश सरकार ने संयुक्त वक्तव्य में की थी। इसके बाद 1942 में अमेरिकी, ब्रिटिश और रूसी सरकार ने अपने मित्र राष्ट्रों के साथ एक सार्वजनिक घोषणा कर हिटलर द्वारा यूरोप के यहूदियों पर किए जा रहे अत्याचार की स्पष्ट निंदा की थी।

मनीष सिसौदिया की डिमांड पर भक्त पत्रकार यहां पढ़ें 'राग दरबारी'

मनीष सिसौदिया ने कहा मोदी की आरतियां-चालीसाएं लिखने वाले पत्रकारों को एक बार ज़रूर पढ़ लेना चाहिए राग दरबारी , तो लीजिये पेश है राग दरबारी का सर्फ़री हिस्सा

जनज्वार। भारतीय बैंकों का 9400 करोड़ रुपये डकार कर लंदन भाग जाने वाले किंगफिशर के प्रमुख विजय माल्या के मामले में भक्त पत्रकार 'कमलीय रतौंधी' के शिकार हो गए। उन्हें माल्या की लंदन के कोर्ट में पेशी गिरफ्तारी नजर आई और मुकदमा शुरू होने की प्रकिया की कागजी कार्यवाही को भक्त पत्रकारों ने प्रत्यर्पण की तैयारी कह डाला। 

हालांकि इस बात में कुछ खास नहीं था। देश भक्त पत्रकारों की रतौंधी पिछले दो—तीन वर्षों से रोज—रोज झेल रहा है। सरकार अभी मूंह से बोलती है और उधर चैनल वाले उसे स्टूडियों में लागू करा देते हैं।

पर दिल्ली के उपमुख्यमंत्री और आप नेता मनीष सिसौदिया को पत्रकारों की माल्या में मामले में भक्ति नागवार गुजरी और उन्होंने पत्रकारों को ट्वीट कर यह संदेश दिया, 'सुनवाई के लिए कोर्ट गए आदमी को गिरफ्तार बताकर, मोदी आरतियां-चालीसाएं लिखने वाले पत्रकारों को एक बार रागदरबारी ज़रूर पढ़ लेना चाहिए.'  वैसे भी शीघ्रपतन की तरह ही हुई माल्या की गिरफ्तारी ।

गौरतलब है कि श्रीलाल शुक्ल का लिखा रागदरबारी एक राजनीतिक उपन्यास है। यह उपन्यास आजादी के बाद विकसित होते भारतीय समाज पर है। उपन्यास में आजादी के बाद बदलती राजनीति, आम आदमी की बढ़ती सामाजिक भागीदारी, उभरते नेता, विकास के नारे, राजनीति का अपराधिकरण, निखरती दलाली, पूंजीपतियों के इशारे पर बनती —बिगड़ती सरकारों का व्यंग्यात्मक विवरण है और हर तरह के ढोंग, पाखंड और आदर्श की कलई खोली गई है।

यहां कबाड़खाना ब्लॉग से साभार 'राग दरबारी का सर्फरी हिस्सा' दिया जा रहा है, जो उपन्यास का ही एक भाग है। आप भी पढ़िए और देखिए इसमें ऐसी क्या अद्भभुत बात है जो दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसौदिया ने चाटुकार पत्रकारों को इसे पढ़ने की राय दे डाली...                        
राग दरबारी से एक 'सर्फरी हिस्सा'
शिवपालगंज गॉंव था, पर वह शहर से नजदीक और सड़क के किनारे था. इसलिए बड़े बड़े नेताओं और अफसरों को वहॉं तक आने में सैद्धान्तिक एतराज नहीं हो सकता था. कुओं के अलावा वहॉं कुछ हैण्डपम्प भी लगे थे, इसलिए बाहर से आने वाले बड़े लोग प्यास लगने पर, अपनी जान को खतरे में डाले बिना, वहॉं का पानी पी सकते थे. खाने का भी सुभीता था. वहॉं के छोटे मोटे अफसरों में कोई न कोई ऐसा निकल ही आता था जिसके ठाठ बाट देख कर वहॉं वाले उसे परले सिरे का बेईमान समझते, पर जिसे देख कर ये बाहरी लोग आपस में कहते, कितना तमीजदार है. बहुत बड़े खानदान का लड़का है. देखो न, इसे चीको साहब की लड़की ब्याही है. इसलिए भूख लगने पर अपनी ईमानदारी को खतरे में डाले बिना वे लोग वहॉं खाना भी खा सकते थे. कारण जो भी रहा हो, उस मौसम में शिवपालगंज में जन नायकों और जन सेवकों का आना जाना बड़े जोर से शुरू हुआ था. उन सबको शिवपालगंज के विकास की चिन्ता थी और नतीजा यह होता था कि वे लेक्चर देते थे.



वे लेक्चर गँजहों के लिए विशेष रूप से दिलचस्प थे, क्योंकि इनमें प्रायः शुरू से ही वक्ता श्रोता को और श्रोता वक्ता को बेवकूफ मानकर चलता था जो कि बातचीत के उद्देश्य से गँजंहों के लिए आदर्श परिस्थिति है. फिर भी लेक्चर इतने ज्यादा होते थे कि दिलचस्पी के बावजूद, लोगों को अपच हो सकता था. लेक्चर का मजा तो तब है जब सुनने वाले भी समझें कि यह बकवास कर रहा है और बोलने वाला भी समझे कि मैं बकवास कर रहा हूं. पर कुछ लेक्चर देने वाले इतनी गम्भीरता से चलते कि सुनने वाले को कभी-कभी लगता था यह आदमी अपने कथन के प्रति सचमुच ईमानदार है. ऐसा सन्देह होते ही लेक्चर गाढ़ा और फीका बन जाता था और उसका श्रोताओं के हाजमे के बहुत खिलाफ पड़ता है. यह सब देख कर गँजंहों ने अपनी-अपनी तन्दुरुस्ती के अनुसार लेक्चर ग्रहण करने का समय चुन लिया था, कोई सवेरे खाना खाने के पहले लेक्चर लेता था, कोई दोपहर को खाना खाने के बाद. ज्यादातर लोग लेक्चर की सबसे बड़ी मात्रा दिन के तीसरे पहर ऊँघने और शाम को जागने के बीच में लेते थे.

उन दिनों गांव में लेक्चर का मुख्य विषय खेती था. इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि पहले कुछ और था. वास्तव में पिछले कुछ कई सालों से गांववालों को फुसलाकर बताया जा रहा था कि भारतवर्ष एक खेतिहर देश है. गांववाले इस बात का विरोध नहीं करते थे, पर प्रत्येक वक्ता शुरू से ही यह मान कर चलता था कि गांववाले इस बात का विरोध करेंगे. इसीलिए वे एक के बाद दूसरा तर्क ढूंढकर लाते थे और यह साबित करने में लगे रहते थे कि भारतवर्ष एक खेतिहर देश है. इसके बाद वे यह बताते थे कि खेती की उन्नति ही देश की उन्नति है. फिर आगे की बात बताने के पहले ही प्रायः दोपहर के खाने का वक्त हो जाता और वह तमीज़दार लड़का, जो बड़े सम्पन्न घराने की औलाद हुआ करता था और जिसको चीको साहब की लड़की ब्याही रहा करती थी, वक्ता की पीठ का कपड़ा खींच-खींचकर इशारे से बताने लगता कि चाचाजी, खाना तैयार है. कभी कभी कुछ वक्तागण आगे की बात भी बता ले जाते थे और तब मालूम होता कि उनकी आगे की और पीछे की बात में कोई फर्क नहीं था, क्योंकि घूम-फिरकर बात यही रहती थी कि भारत एक खेतिहर देश है, तुम खेतिहर हो, तुमको अच्छी खेती करनी चहिए, अधिक अन्न उपजाना चाहिए. प्रत्येक वक्ता इसी सन्देह में गिरफ्तार रहता था कि काश्तकार अधिक अन्न नहीं पैदा करना चाहते.

लेक्चरों की कमी विज्ञापनों से पूरी की जाती थी और एक तरह से शिवपालगंज में दीवारों पर चिपके या लिखे हुए विज्ञापन वहाँ की समस्याओं और उनके समाधानों का सच्चा परिचय देते थे. मिसाल के लिए, समस्या थी कि भारतवर्ष एक खेतिहर देश है और किसान बदमाशी के कारण अधिक अन्न नहीं उपजाते. इसका समाधान यह था कि किसानों के आगे लेक्चर दिया जाये और उन्हे अच्छी अच्छी तस्वीरें दिखायी जायें. उनके द्वारा उन्हे बताया जाये कि तुम अगर अपने लिये अन्न नहीं पैदा करना चाहते तो देश के लिये करो. इसी से जगह जगह पोस्टर चिपके हुए थे जो काश्तकारों से देश के लिये अधिक अन्न पैदा कराना चाहते थे. लेक्चरों और तस्वीरों का मिला जुला असर काश्तकारों पर बड़े जोर से पड़ता था और भोले-से-भोला काश्तकार भी मानने लगता कि हो न हो, इसके पीछे भी कोई चाल है.

शिवपालगंज में उन दिनों एक ऐसा विज्ञापन खासतौर से मशहूर हो रहा था जिसमें एक तन्दुरुस्त काश्तकार सिर पर अँगोछा बाँधे, कानों में बालियाँ लटकाये और बदन पर मिर्जई पहने गेहूँ की ऊँची फसल को हँसिये से काट रहा था. एक औरत उसके पीछे खड़ी हुई, अपने-आपसे बहुत खुश, कृषी विभाग के अफसरों वाली हँसी हंस रही थी. नीचे और ऊपर अंग्रेजी और हिन्दी अक्षरों में लिखा थ, "अधिक अन्न उपजाओ." मिर्जई और बालीवाले काश्तकारों में जो अंग्रेजी के विद्वान थे, उन्हे अंग्रेजी इबारत से और जो हिन्दी के विद्वान थे, उन्हे हिन्दी से परास्त करने की बात सोची गयी थी; और जो दोनों में से एक भी भाषा नहीं जानते थे, वे भी कम-से-कम आदमी और औरत को तो पहचानते ही थे. उनसे आशा की जाती थी कि आदमी के पीछे हँसती हुई औरत की तस्वीर देखते ही उसकी और पीठ फेर कर दीवानों की तरह अधिक अन्न उपजाना शुरू कर देंगे. यह तस्वीर आजकल कई जगह चर्चा का विषय बनी थी, क्योंकि यहाँ वालों कि निगाह में तस्वीर वाले आदमी की शक्ल कुछ-कुछ बद्री पहलवान से मिलती थी. औरत की शक्ल के बारे में गहरा मतभेद था. वह गाँव की देहाती लड़कियों में से किसकी थी, यह अभी तय नहीं हो पाया था.

वैसे सबसे ज़्यादा जोर-शोर वाले विज्ञापन खेती के लिए नहीं, मलेरिया के बारे में थे. जगह-जगह मकानों की दीवारों पर गेरू से लिखा गया था कि "मलेरिया को खत्म करने में हमरी मदद करो, मच्छरों को समाप्त हो जाने दो." यहाँ भी यह मान कर चल गया था कि किसान गाय-भैंस की तरह मच्छर भी पालने को उत्सुक हैं और उन्हें मारने के पहले किसानों का हृदय-परिवर्तन करना पड़ेगा. हृदय-परिवर्तन के लिए रोब की जरूरत है, रोब के लिए अंग्रेजी की जरूरत है - इस भारतीय तर्क पद्धति के हिसाब से मच्छर मारने और मलेरिया उन्मूलन में सहायता करने की सभी अपीलें प्रायः अंग्रेजी में लिखी गयी थीं. इसीलिए प्रायः सभी लोगों ने इनको कविता के रूप में नहीं, चित्रकला के रूप में स्वीकार किया था और गेरू से दीवार रंगने वालों को मनमानी अंग्रेजी लिखने की छूट दे दी थी. दीवारें रंगती जाती थीं, मच्छर मरते जाते थे. कुत्ते भूँका करते थे, लोग अपनी राह चलते रहते थे.

एक विज्ञापन भोले-भाले ढंग से बताता था कि हमें पैसा बचाना चहिए. पैसा बचाने की बात गांववालों को उनके पूर्वज मरने के पहले ही बता गये थे और लगभग प्रत्येक आदमी को अच्छी तरह मालूम थी. इसमें सिर्फ़ इतनी नवीनता थी कि यहाँ भी देश का जिक्र था, कहीं-कहीं इशारा किया गया था कि अगर तुम अपने लिए पैसा नहीं बचा सकते तो देश के लिए बचाओ. बात बहुत ठीक थी, क्योंकि सेठ-साहूकार, बड़े-बड़े ओहदेदार, वकील डाक्टर - ये सब तो अपने लिए पैसा बचा ही रहे थे, इसलिए छोटे-छोटे किसानों को देश के लिए पैसा बचाने में क्या ऐतराज हो सकता था ! सभी इस बात से सिद्धान्तरूप में सहमत थे कि पैसा बचाना चाहिए. पैसा बचाकर किस तरह कहाँ जमा किया जायेगा, ये बातें भी विज्ञापनों और लेक्चरों में साफतौर से बतायी गयी थीं और लोगों को उनसे भी कोई आपत्ति न थी. सिर्फ़ लोगों को यही नहीं बताया गया था कि कुछ बचाने के पहले तुम्हारी मेहनत के एवज़ में तुम्हे कितना पैसा मिलना चाहिए. पैसे की बचत का सवाल आमदनी और खर्च से जुड़ा हुआ है, इस छोटी सी बात को छोड़कर बाकी सभी बातों पर इन विज्ञापनों में विचार कर लिया गया था और लोगों ने इनको इस भाव से स्वीकार कर लिया था कि ये बिचारे दीवार पर चुपचाप चिपके हुए हैं, न दाना माँगते हैं, न चारा, न कुछ लेते हैं न देते हैं. चलो इन तस्वीरों को छेड़ो नहीं.

पर रंगनाथ को जिन विज्ञापनों ने अपनी ओर खींचा, वे पब्लिक सेक्टर के विज्ञापन न थे, प्राइवेट सेक्टर की देन थे. उनसे प्रकट होने वली बातें कुछ इस प्रकार थी: "उस क्षेत्र में सबसे ज्यादा व्यापक रोग दाद है, एक ऐसी दवा है जिसको दाद पर लगाया जाये तो उसे जड़ से आराम पहुँचता है, मुँह से खाया जाये तो खाँसी-जुकाम दूर होता है, बताशे में डालकर पानी से निगल लिया जाये तो हैजे में लाभ पहुँचता है. ऐसी दवा दुनिया में कहीं नहीं पायी जाती. उसके अविष्कारक अभी तक जिंदा हैं, यह विलायत वालों की शरारत है कि उन्हे आज तक नोबल पुरस्कार नहीं मिला है".

इस देश में और भी बड़े बड़े डॉक्टर हैं जिनको नोबल पुरस्कार नहीं मिला है. एक कस्बा जहानाबाद में रहते हैं और चूँकि वहाँ बिजली आ चुकी है, इसलिए वे नामर्दी का इलाज बिजली से करते हैं. अब नामर्दों को परेशान होने की जरूरत नहीं है. एक दूसरे डॉक्टर, जो कम-से-कम भारतवर्ष-भर में तो मशहूर हैं ही, बिना ऑपरेशन के अण्ड-वृद्धि का इलाज करते हैं. और यह बात शिवपालगंज में किसी भी दीवार पर तारकोल के हरूफ़ में लिखी हुई पायी जा सकती है. वैसे बहुत से विज्ञापन बच्चों में सूखा रोग, आँखों की बीमारी और पेचिश आदि से भी सम्बद्ध हैं, पर असली रोग संख्या में कुल तीन ही हैं- दाद, अण्डवृद्धि और नामर्दी; और इनके इलाज की तरकीब शिवपालगंज के लड़के अक्षर-ज्ञान पा लेने के बाद ही दीवारों पर अंकित लेखों के सहारे जानना शुरू कर देते हैं.

विज्ञापनों की इस भीड़ में वैद्यजी का विज्ञापन 'नवयुवकों के लिए आशा का सन्देश' अपना अलग व्यक्तित्व रखता था. वह दीवारों पर लिखे 'नामर्दी के बिजली से इलाज' जैसे अश्लील लेखों के मुकाबले में नहीं आता था. वह छोटे छोटे नुक्कड़ों, दुकानों और सरकारी इमारतों पर - जिनके पास पेशाब करना और जिन पर विज्ञापन चिपकाना मना था - टीन की खूबसूरत तख्तियों पर लाल-हरे अक्षरों में प्रकट होता था और सिर्फ इतना कहता था, 'नवयुवकों के लिए आशा का सन्देश' नीचे वैद्यजी का नाम था और उनसे मिलने की सलाह थी.

एक दिन रंगनाथ ने देखा, रोगों की चिकित्सा में एक नया आयाम जुड़ रहा है. सवेरे से ही कुछ लोग दीवार पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिख रहे हैं : बवसीर ! शिवपालगंज की उन्नति का लक्षण था. बवासीर के चार आदमकद अक्षर चिल्लाकर कह रहे थे कि यहाँ पेचिश का युग समाप्त हो गया है, मुलायम तबीयत, दफ़्तर की कुर्सी, शिष्टतापूर्ण रहन-सहन, चौबीस घण्टे चलनेवाले खान-पान और हल्के परिश्रम का युग धीरे-धीरे संक्रमण कर रहा है और आधुनिकता के प्रतीक-जैसे बवासीर सर्वव्यापी नामर्दी का मुकाबला करने के लिये मैदान में आ रही है. शाम तक वह दैत्याकार विज्ञापन एक दीवार पर रंग-बिरंगी छाप छोड़ चुका था और दूर दूर तक ऐलान करने लगा था : बवासीर का शर्तिया इलाज !

देखते-देखते चार-छः दिन मे ही सारा जमाना बवासीर और उसके शर्तिया इलाज के नीचे दब गया. हर जगह वही विज्ञापन चमकने लगा. रंगनाथ को सबसे बड़ा अचम्भा तब हुआ जब उसने देखा, वही विज्ञापन एक दैनिक समाचार-पत्र में आ गया है. यह समाचारपत्र रोज़ दस बजे दिन तक शहर से शिवपालगंज आता था और लोगों को बताने में सहायक होता था कि स्कूटर और ट्रक कहाँ भिड़ा, अब्बासी नामक कथित गुण्डे ने इरशाद नामक कथित सब्जी-फरोश पर कथित छुरी से कहाँ कथित रूप से वार किया. रंगनाथ ने देखा कि उस दिन अखबार के पहले पृष्ठ का एक बहुत बड़ा हिस्सा काले रंग में रंगा हुआ है और उस पर बड़े-बड़े सफेद अक्षरों में चमक रहा है : बवासीर ! अक्षरों की बनावट वही है जो यहाँ दीवारों पर लिखे विज्ञापन में है. उन अक्षरों ने बवासीर को एक नया रूप दे दिया था, जिसके कारण आसपास की सभी चीजें बवासीर की मातहती में आ गयी थीं. काली पृष्ठभूमि में अखबार के पन्ने पर चमकता हुआ 'बवासीर' दूर से ही आदमी को अपने में समेट लेता था. यहां तक कि सनीचर, जिसे बड़े-बड़े अक्षर पढ़ने में भी आंतरिक कष्ट होता था, अखबार के पास खिंच आया और उस पर निगाह गड़ाकर बैठ गया. बहुत देर तक गौर करने के बाद वह रंगनाथ से बोला, "वही चीज है."

इसमें अभिमान की खनक थी. मतलब यह था कि शिवपालगंज की दीवारों पर चमकने वले विज्ञापन कोई मामूली चीज़ नहीं हैं. ये बाहर अख़बारों में छपते हैं, और इस तरह जो शिवपालगंज में है, वही बाहर अख़बारों में है.

रंगनाथ तख्त पर बैठा रहा. उसके सामने अख़बार का पन्ना तिरछा होकर पड़ा था. अमरीका ने एक नया उपग्रह छोड़ा था, पाकिस्तान-भारत सीमा पर गोलियां चल रही थीं, गेहूँ की कमी के कारण राज्यों का कोटा कम किया जाने वाला था, सुरक्षा-समिति में दक्षिण अफ्रीका के कुछ मसलों पर बहस हो रही थी, इन सब अबाबीलों को अपने पंजे में किसी दैत्याकार बाज़ की तरह दबाकर वह काला-सफेद विज्ञापन अपने तिरछे हरूफ में चीख रहा था: बवासीर ! बवासीर ! इस विज्ञापन के अखबार में छपते ही बवासीर शिवपालगंज और अन्तर्र्राष्ट्रीय जगत के बीच सम्पर्क का एक सफल माध्यम बन चुकी थी.

डाकुओं का आदेश था कि एक विशेष तिथि को विशेष स्थान पर जाकर रामाधीन की तरफ से रुपये की थैली एकान्त में रख दी जाये. डाका डालने की यह पद्धति आज भी देश के कुछ हिस्सों में काफी लोकप्रिय है. पर वास्तव में है यह मध्यकालीन ही, क्योंकि इसके लिये चांदी या गिलट के रुपये और थैली का होना आवश्यक है, जबकि आजकल रुपया नोटों की शक्ल में दिया जा सकता है और पांच हजार रुपये प्रेम-पत्र की तरह किसी लिफाफे में भी आ सकते हैं. ज़रूरत पड़ने पर चेक से भी रुपयों का भुगतान किया जा सकता है. इन कारणों से परसों रात अमुक टीले पर पांच हजार रुपये की थैली रखकर चुपचाप चले जाओ, यह आदेश मानने में व्यावहारिक कठिनाइयां हो सकती हैं. टीले पर छोड़ा हुआ नोटों का लिफाफा हवा में उड़ सकता है, चेक जाली हो सकता है. संक्षेप में, जैसे कला, साहित्य, प्रशासन, शिक्षा आदि के क्षेत्रों में, वैसे ही डकैती के क्षेत्र में भी मध्यकलीन पद्धतियों को आधुनिक युग में लागू करने से व्यावहारिक कठिनाइयां पैदा हो सकती हैं.
थे.

जो भी हो, डकैतों ने इन बातों पर विचार नहीं किया था क्योंकि रामाधीन के यहां डाके की चिट्ठी भेजने वाले असली डकैत न थे. उन दिनों गांव-सभा और कॉलेज की राजनीति को लेकर रामाधीन भीखमखेड़वी और वैद्यजी में कुछ तनातनी हो गयी थी. अगर शहर होता और राजनीति ऊँचे दरजे की होती तो ऐसे मौके पर रामाधीन के खिलाफ किसी महिला की तरफ से पुलिस में यह रिपोर्ट आ गयी होती उन्होंने उसका शीलभंग करने की सक्रिय चेष्टा की, पर महिला के सक्रिय विरोध के कारण वे कुछ नहीं कर पाये और वह अपना शील समूचा-का-समूचा लिये हुए सीधे थाने तक आ गयी. पर यह देहात था जहां अभी महिलाओं के शीलभंग को राजनीतिक युद्ध में हैण्डग्रेनेड की मान्यता नहीं मिली थी, इसीलिए वहां कुछ पुरानी तरकीबों का ही प्रयोग किया गया था और बाबू रामाधीन के ऊपर डाकुओं का संकट पैदा करके उन्हें कुछ दिन तिलमिलाने के लिये छोड़ दिया गया था.

पुलिस, रामाधीन भीखमखेड़वी और वैद्यजी का पूरा गिरोह- ये सभी जानते थे कि चिट्ठी फर्जी है. ऐसी चिट्ठियां कई बार कई लोगों के पास आ चुकी थीं. इसलिए रामाधीन पर यह मजबूरी नहीं थी कि वह नीयत तिथि और समय पर रुपये के साथ टीले पर पहुंच जाये. चिट्ठी फर्जी न होती, तब भी रामाधीन शायद चुपचाप रुपया दे देने के मुकाबले घर पर डाका डलवा लेना ज्यादा अच्छा समझते. पर चूंकि रिपोर्ट थाने में दर्ज हो गयी थी, इसलिए पुलिस अपनी ओर से कुछ करने को मजबूर थी.

उस दिन टीले से लेकर गांव तक का स्टेज पुलिस के लिये समर्पित कर दिया गया और उसमें वे डाकू-डाकू का खेल खेलते रहे. टीले पर तो एक थाना-का-थाना ही खुल गया. उन्होंने आसपास के ऊसर, जंगल, खेत-खलिहान सभी कुछ छान डाले, पर डाकुओं का कहीं निशान नहीं मिला. टीले के पास उन्होने पेड़ों की टहनियां हिला कर, लोमड़ियों के बिलों में संगीनें घुसेड़कर और सपाट जगहों को अपनी आंखों से हिप्नोटाइज़ करके इत्मिनान कर लिया कि वहां जो है, वे डाकू नहीं हैं; क्रमशः चिड़ियां, लोमड़ियां और कीड़े मकोड़े हैं. रात को जब बड़े जोर से कुछ प्राणी चिल्लाये तो पता चला कि वे भी डाकू नहीं, सियार हैं और पड़ोस के बाग टीले में जब दूसरे प्राणी बोले तो कुछ देर बाद समझ आ गया कि वे कुछ नहीं, सिर्फ चमगादड़ हैं. उस रात डाकुओं और रामाधीन भीखमखेड़वी के बीच की कुश्ती बराबर पर छूटी, क्योंकि टीले पर न डाकू रुपया लेने के लिये आये और न रामाधीन देने के लिये गये.

थाने के छोटे दरोगा को नौकरी पर आये अभी थोड़े ही दिन हुए थे. टीले पर डाकुओं को पकड़ने का काम उन्हें ही सौंपा गया था, पर सब कुछ करने पर भी वे अपनी माँ को भेजे जाने वाली चिट्ठियों की अगली किश्त में यह लिखने लायक नहीं हुए थे कि माँ, डाकुओं ने मशीनगन तक का इस्तेमाल किया, पर इस भयंकर गोलीकाण्ड में भी तेरे आशीर्वाद से तेरे बेटे का बाल तक बाँका नहीं हुआ. वे रात को लगभग एक बजे टीले से उतरकर मैदान में आये; और चूंकि सर्दी होने लगी थी और अंधेरा था और उन्हे अपनी नगरवासिनी प्रिया की याद आने लगी थी और चूंकि उन्होंने बी. ए. में हिन्दी-साहित्य भी पढ़ा था; इन सब मिले-जुले कारणों से उन्होंने धीरे धीरे कुछ गुनगुनाना शुरू कर दिया और आखिर में गाने लगे, "हाय मेरा दिल ! हाय मेरा दिल !

'तीतर के दो आगे तीतर, तीतर के दो पीछे तीतर' वाली कहावत को चरितार्थ करते उनके आगे भी दो सिपाही थे और पीछे भी. दरोगाजी गाते रहे और सिपही सोचते रहे कि कोई बात नहीं, कुछ दिनों में ठीक हो जायेंगे. मैदान पार करते करते दरोगा जी का गाना कुछ बुलन्दी पर चढ़ गया और साबित करने लगा कि जो बात इतनी बेवकूफी की है कि कही नहीं जा सकती, वह बड़े मजे से गायी जा सकती है.

सड़क पास आ गयी थी. वहीं एक गड्ढे से अचानक आवाज आयी, "कर्फ़ोन है सर्फाला?" दरोगाजी का हाथ अपने रिवाल्वर पर चला गया. सिपहियों ने ठिठक कर राईफलें संभाली; तब तक गड्ढे ने दोबारा आवाज दी "कर्फ़ोन है सर्फाला?"

एक सिपाही ने दरोगाजी के कान में कहा, "गोली चल सकती है. पेड़ के पीछे हो लिया जाये हुजूर!"

पेड़ उनके पास से लगभग पांच गज की दूरी पर था. दरोगाजी ने सिपाही से फुसफुसा कर कहा, "तुम लोग पेड़ के पीछे हो जाओ. मैं देखता हूं."

इतना कहकर उन्होंने कहा, "गड्ढे में कौन है? जो कोई भी हो बाहर आ जाओ." फिर एक सिनेमा में देखे दृश्य को याद करके उन्होंने बात जोड़ी, "तुम लोग घिर गये हो. तुम आघे मिनट में बाहर न आये तो गोली चला दी जायेगी."

गड्ढे में थोड़ी देर खामोशी रही, फिर आवाज आयी, "मर्फ़र गर्फ़ये सर्फ़ाले, गर्फ़ोली चर्फ़लानेवाले."

प्रत्येक भारतीय, जो अपना घर छोड़कर बाहर निकलता है, भाषा के मामले में पत्थर हो जाता है. इतनी तरह की बोलियां उसके कानों में पड़ती हैं कि बाद में हारकर वह सोचना ही छोड़ देता है कि यह नेपाली है या गुजराती. पर इस भाषा ने दरोगाजॊ को चौकन्ना बना दिया और वे सोचने लगे कि क्या मामला है ! इतना तो समझ में आता है कि इसमें कोई गाली है, पर यह क्यों नही समझ में आता कि यह कौन सी बोली है ! इसके बाद ही जहां बात समझ से बाहर होती है वहीं गोली चलती है - इस अन्तर्राष्ट्रिय सिद्धान्त का शिवपालगंज में प्रयोग करते हुए दरोगाजी ने रिवाल्वर तान लिया और कड़ककर बोले, "गड्ढे से बाहर आ जाओ, नहीं तो मैं गोली चलाता हूं."

पर गोली चलाने की जरूरत नहीं पड़ी. एक सिपाही ने पेड़ के पीछे से निकल कर कहा, "गोली मत चलाइए हजूर, यह जोगनथवा है. पीकर गद्ढे में पड़ा है."

सिपाही लोग उत्साह से गद्ढे को घेर कर खड़े हो गए. दरोगाजी ने कहा, " कौन जोगनथवा ?"

एक पुराने सिपाही ने तजुर्बे के साथ कहना शुरू किया, "यह श्री रामनाथ का पुत्र जोगनाथ है. अकेला आदमी है. दारू ज्यादा पीता है."

लोगों ने जोगनाथ को उठाकर उसके पैरों पर खड़ा किया, पर जो खुद अपने पैरों पर खड़ा नहीं होना चाहता उसे दूसरे कहां तक खड़ा करते रहेंगे ! इसलिए वह लड़खड़ा कर एक बार फिर गिरने को हुआ, बीच में रोका गया और अंत में गड्ढे के ऊपर आकर परमहंसों की तरह बैठ गया. बैठकर जब उसने आंखें मिला-मिला कर, हाथ हिलाकर चमगादड़ों और सियारों की कुछ आवाजें गले से निकालकर अपने को मानवीय स्तर पर बात करने लायक बनाया, तो उसके मुंह से फिर वही शब्द निकले, "कर्फ़ोन है सर्फाला?"

दरोगाजी ने पूछा, "यह बोली कौन सी है?"

एक सिपाही ने कहा, "बोली ही से तो हमने पहचाना कि जोगनाथ है. यह सर्फ़री बोली बोलता है. इस वक्त होश में नही है, इसलिए गालॊ बक रहा है."

दरोगाजी शायद गाली देने के प्रति जोगनाथ की इस निष्ठा से बहुत प्रभावित हुए कि वह बेहोशी की हालत में भी कम से कम इतना तो कर ही रहा है. उन्होने उसकी गरदन जोर से हिलायी और पकड़ कर बोले, "होश में आ!"

पर जोगनाथ ने होश में आने से इन्कार कर दिया. सिर्फ इतना कहा, "सर्फ़ाले!"

सिपाही हंसने लगे. जिसने उसे पहले पहचाना था, उसने जोगनाथ के कान में चिल्ला कर कहा, "जर्फ़ोगनाथ, हर्फ़ोश में अर्फ़ाओ."

इसकी भी जोगनाथ पर कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई; पर दरोगाजी ने एकदम से सर्फ़री बोली सीख ली. उन्होंने मुस्कुराकर कहा, "यह साला हम लोगों को साला कह रहा है."
उन्होने उसे मारने के लिये अपना हाथ उठाया, पर सिपाही ने रोक लिया. कहा, "जाने भी दें हजूर."

दरोगाजी को सिपाहियों का मानवतावादी दृष्टिकोण कुछ पसन्द नहीं आ रहा था. उन्होंने अपना हाथ तो रोक लिया, पर आदेश देने के ढंग से कहा, "इसे अपने साथ ले जाओ और हवालात में बंद कर दो. दफा 109 जाब्ता फौजदारी लगा देना."

एक सिपाही ने कहा, "यह नहीं हो पायेगा हुजूर ! यह यहीं का रहने वाला है. दीवरों पर इश्तिहार रंगा करता है और बात बात पर सर्फ़री बोली बोलता है. वैसे बदमाश है, पर दिखाने के लिये कुछ काम तो करता ही है."

वे लोग जोगनाथ को उठा कर अपने पैरों पर चलने के लिये मजबूर करते हुए सड़क की और बढ़ने लगे. दरोगाजी ने कहा, " शायद पी कर गाली बक रहा है. किसी न किसी जुर्म की दफा निकल आयेगी. अभी चलकर इसे बन्द कर दो. कल चालान कर दिया जायेगा."

उस सिपाही ने कहा, "हुजूर! बेमतलब झंझट में पड़ने से क्या फायदा? अभी गांव चलकर इसे इसके घर में ढकेल आयेंगे. इसे हवालात कैसे भेजा जा सकता है? वैद्यजी का आदमी है."

दरोगाजी नौकरी में नये थे, पर सिपाहियों का मानवतावादी दृष्टिकोण अब वे एकदम समझ गये. वे कुछ नहीं बोले . सिपहियों से थोड़ा पीछे हटकर वे फिर अंधेरे, हल्की ठण्डक, नगरवासिनी प्रिया और 'हाय मेरा दिल' से सन्तोष खींचने की कोशिश करने लगे.

Apr 18, 2017

सांप्रदायिकता से 'मोह' बढ़ातीं 'माया'

जातिवादी अस्मिता वाला दलित आंदोलन किसी सेक्यूलर और धर्मनिरपेक्ष समाज के लिए नहीं, बल्कि हिन्दुत्व के ढांचे में समाहित हो सम्मानजनक स्थान पाने के लिए लड़ता है। अपने विचार में वह पहले हिन्दू है फिर दलित है। इसीलिए मौका पाने पर 'हिन्दुत्व’ की गोद में जा बैठता है...

हरे राम मिश्र

यूपी चुनाव में अपनी शर्मनाक हार के बाद अंबेडकर जयंती के मौके पर मायावती ने अपने समर्थकों को राजधानी लखनऊ में संबोधित किया। मायावती का यह पूरा संबोधन स्पष्टीकरणों और कई स्तरों पर 'कन्फ्यूजन’ से भरा हुआ था। फिर भी, दो बातें बहुत महत्वपूर्ण थीं जो कि उनके भविष्य की राजनीतिक दिशा का इशारा कर रही थीं। पहला यह कि वह यूपी में सौ मुसलमानों को विधानसभा के टिकट बांटने पर बीजेपी के यूपी को पाकिस्तान बनाने के आरोप पर सफाई दे रही थीं और उपस्थित समर्थकों को यह बता रही थीं कि वह उत्तर प्रदेश को पाकिस्तान नहीं बनने देंगी। दूसरा, ट्रिपल तलाक के मामले में उनका रुख अब एकदम बदला हुआ दिख रहा था। 

गौरतलब है कि ट्रिपल तलाक पर अब तक के अपने रुख से पलटते हुए उन्होंने कहा कि मुस्लिम पर्सनल लाॅ बोर्ड तीन तलाक के मामले को हल करने में नाकामयाब रहा है। मायावती का तीन तलाक के मसले पर अपने पहले के रुख से इस तरह पलट जाना कई इशारे करता है। चुनाव के दौरान तीन तलाक के मामले पर मोदी सरकार की मुखालफत करते हुए वे इसे शरिया कानून और मुसलमानों के धार्मिक जीवन में सीधा हस्तक्षेप बताती थीं। 

अपने चुनावी भाषणों में इसमें किसी संशोधन के खिलाफ उन्होंने सड़क पर उतरने की बात भी कही थी। लेकिन अब, जबकि चुनाव हो चुके हैं- इस मामले में पर्सनल लाॅ बोर्ड पर ही सवाल उठाना यह संकेत करता है कि मायावती अपनी दिशा को बदल चुकी हैं और मुसलमानों के सवाल अब उनकी प्राथमिकता में नहीं हैं। ट्रिपल तलाक के मसले पर मायावती की इस पलटी ने यह साफ कर दिया है कि उन्होंने सौ मुसलमानों को टिकट देकर जो प्रयोग किया, वह एक राजनीतिक गलती थी। अब वे उस गलती को पहले दुरुस्त करेंगी। यूपी को पाकिस्तान बनाने के आरोपों पर उनकी सफाई भी इसी का स्पष्टीकरण था।

हालांकि, पिछले विधानसभा चुनाव में मायावती ने दलित-मुस्लिम समाज की एकता के आधार पर सूबे की सत्ता में भागीदारी का सपना देखा था। उन्हें यह लगता था कि अगर हम मुसलमानों को बहका लें तो बाइस फीसदी दलित वोट के बदौलत बसपा उत्तर प्रदेश में सत्ता में आ सकती है। लेकिन वे भ्रम में थीं कि दलितों का बेस वोट उनके साथ है। मुसलमान मतदाताओं को साधने के लिए मायावती ने बहुत प्रयास किया। उन्होंने चुनाव के दौरान कट्टरपंथी मुसलमानों को खुश करने के लिए ट्रिपल तलाक का मुद्दा उठाया। लेकिन इस प्रयास में उनका दलित वोटर उनसे दूर चला गया। उनके चुनावी भाषणों में मुसलमानों पर ज्यादा फोकस से उनके जमीनी नेता कई बार असहज भी दिखे। 

दरअसल सिर्फ वोट के लिए, दलित-मुस्लिम एकता के नाम पर सत्ता में वापसी का सपना देखने वाली मायावती ने अपने पिछले शासनकाल में इन दोनों समुदायों को सिवाय उत्पीड़न के कुछ नहीं दिया। मुजफ्फरनगर दंगों में बेघर मुसलमानों को मायावती कभी देखने तक नहीं गईं। उन्हें यह लगता था कि सपा के घर में मचे संग्राम से मुसलमान बसपा में खुद ही शिफ्ट हो जाएगा। उनके लिए यह गृहयुद्ध दलित-मुस्लिम एकता का प्रयोग काल बनकर निकला। लेकिन भाजपा के सहयोग के उनके पिछले चरित्र को देखते हुए मुसलमानों ने मायावती पर कोई यकीन नहीं किया और बीजेपी को हराने के लिए ’टैक्टिकल’ वोटिंग कर बैठे। 

वास्तव में दलित मुस्लिम एकता का विचार एकदम अव्यावहारिक है। यह मायावती भी जानती थीं। उनकी समझ में यह एक जुआ था, जिसमें बसपा हार गई। अब मायावती घोर सांप्रदायिक दलित समाज को फिर से जातिगत रूप से इकट्ठा करके अपनी खोई ताकत और जोश पाने का शर्तिया और पुराना 'हकीमी’ नुस्खा आजमाएंगी। यह नुस्खा खुद उनकी सांप्रदायिकता को भी बेनकाब करेगा। क्योंकि एक सेक्यूलर व्यक्ति किसी सांप्रदायिक समाज को संतुष्ट ही नही कर सकता। दलितों की सांप्रदायिकता का खात्मा मायावती के कुव्वत में नहीं है। चुनावी हार के बाद मुसलमानों से उनकी दूरी इस बात को साफ करती है कि अब वह अपने पुराने ढर्रे पर लौट गई हैं।

दरअसल, उत्तर प्रदेश में मायावती का फेल होना 'बुर्जुआ’ राजनीतिक सेटअप में दलित मुस्लिम एकता के विचार का 'गर्भपात’ होना है। यह 'असफलता’ एकदम स्वाभाविक है। दलित और मुस्लिम के बीच कोई स्वाभाविक एकता हो ही नहीं सकती। जातिवादी अस्मिता वाला दलित आंदोलन किसी सेक्यूलर और धर्मनिरपेक्ष समाज के लिए नहीं, बल्कि हिन्दुत्व के ढांचे में समाहित होने और सम्मानजनक स्थान पाने के लिए लड़ता है। अपने विचार में वह पहले हिन्दू है फिर दलित है। इसीलिए वह मौका पाने पर 'हिन्दुत्व’ की गोद में जा बैठता है। 

जहां तक मायावती में आए इस बदलाव का मामला है, वह यह साबित करता है कि मायावती की राजनीति केवल मुस्लिम वोट लेने और उन्हें इस्तेमाल करने के 'विचार’ पर टिकी थी। दलित—मुस्लिम एकता के अवसरवादी प्रयोग के आधार पर वह उत्तर प्रदेश में अपना राजनीतिक उत्थान देख रही थीं जो कि फेल हो गया। इस प्रयोग में वह अपने परंपरागत वोटर्स पर बनी पकड़ भी खो बैठीं। मायावती अब यह मान गयी हैं कि दलित सांप्रदायिकता एक वास्तविक विचार है और अब हमें इसी रूप में उसका इस्तेमाल करना है। यही वजह है कि अब उन्होंने अपने रुख से पलटी मारते हुए मुसलमानों से दूरी बनानी शुरू की है।

लेकिन क्या उनका यह प्रयास उन्हें राजनीति के केन्द्र में वापस ला पाएगा? इस बात की संभावना बहुत कम है। राजनीति एक फुलटाइम और डायनमिक प्रक्रिया है। मायावती ने अपने वोटर्स को दिमागी स्तर पर विकसित नहीं किया। अगर भाजपा फासीवाद के साथ जाति और अस्मिता के सवाल को 'एड्रेस’ करती रहेगी तो फिर दलित मायावती के पास किसलिए लौटेगा? जब तक मायावती के पास भाजपा के खिलाफ कोई ठोस योजना नहीं होगी, तब तक दलितों का भाजपा से मोहभंग नहीं होगा। मायावती में ऐसी क्षमता नहीं है और न ही अभी ऐसी कोई योजना ही है। इसीलिए मायावती का भविष्य संकटग्रस्त है। 
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