May 25, 2011

रमन सिंह को अब कानून की याद सताये !


बिनायक सेन के योजना आयोग में शामिल होते ही छत्तीसगढ़ सरकार को अचानक देश के सारे क़ानून याद आ गए. और इतने ज्यादा कानून याद आ गए कि प्रधानमंत्री को भी क़ानून पढ़ाने चढ़ बैठे...

हिमांशु कुमार

बड़े-बूढों ने कितना सही कहा है कि उसके घर में देर है अंधेर नहीं. हम अब तक छत्तीसगढ़ की सरकार को पानी पी-पीकर कोस रहे थे कि इन्हें कानून की कोई फ़िक्र नहीं है, लेकिन रमन सिंह ने प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखकर हमारे सारे आरोपों को एक झटके में हवा में उड़ा दिया. बिनायक सेन के योजना आयोग में शामिल होते ही छत्तीसगढ़ सरकार को अचानक देश के सारे क़ानून याद आ गए. और इतने ज्यादा कानून याद आ गए कि प्रधानमंत्री को भी क़ानून पढ़ाने चढ़ बैठे. और उन्हें समझा दिया की प्रधानमंत्री ने कितना बड़ा गैरकानूनी काम कर दिया है.
विनायक सेन

आज मेरा दिल खुशी से हवा में जैसे पंख लगाकर उड़ रहा है. वाह! अब हमारे स्वर्णिम छत्तीसगढ़ में सारे काम क़ानून से होंगे.मजदूरों को अब सरकारी मजदूरी दो साल बाद नहीं, बल्कि कानून के मुताबिक पंद्रह दिन में मिल  जाया करेगी. बस्तर में सरकार ने जिन आदिवासियों के घरों की 'सलवा जुडूम' यज्ञ में आहुति दी थी, अब कानून का पालन करके सरकार उन सबको जले मकानों का मुआवजा देगी.
 
अब जिन आदिवासी लड़कियों के बलात्कारी रमन सिंह जी को मिल ही नहीं रहे थे (हालाँकि वही लोग अभी भी नए गाँवों को जलाकर जमीनें उद्योगपतियों के लिए खाली कर रहे थे, स्वामी अग्निवेश और पत्रकारों पर हमला कर रहे थे) वो सब अब मिल जायेंगे. और रमन सिंह जी उन लगातार तनख्वाह ले रहे, पर फरार चल रहे पुलिसवालों और एसपीओ को क़ानून का पालन सुनिश्चित करते हुए क़ानून के हवाले कर देंगे. वाह!  मज़ा आ जायेगा. अब तो कोई भी पत्रकार दंतेवाडा जा सकेगा. आदिवासियों से मिल सकेगा. अब छत्तीसगढ़ में भारत का संविधान फिर लागू हो गया रे!  दुःख भरे दिन बीते रे भैय्या...
 
 

May 24, 2011

प्रतिबंध सिर्फ इंडोसल्फान पर ही क्यों ?


पंजाब के खेतों में रसायनिक उर्वरक और रसायनिक कीटनाशी का प्रयोग बहुत ज्यादा चलन में है। यही वजह है कि यहां के खेत-खलिहान के साथ मनुष्य और पशुओं को बड़ी-बड़ी बीमारियां लग रही हैं...

स्वतंत्र मिश्र                              

विवादास्पद कीटनाशी इंडोसल्फान पर सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश एसएच कपाडिया की अगुवाई वाली खंडपीठ ने 13 मई 2011 को अगले आठ हफ्तों के लिए पूरी तरह प्रतिबंध लगा दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा कि मनुष्य का जीवन सर्वोपरि है और वह किसी भी अन्य बातों से ज्यादा महत्वपूर्ण है। खंडपीठ का निर्देश है कि अगले आदेश तक इस विवादास्पद कीटनाशी के उत्पादकों को आवंटित किए गए लाइसेंस भी जब्त कर लिए जाएं। खंडपीठ ने अगले दो हफ्तों के दौरान दो समिति को इस कीटनाशी के मनुष्य जीवन और पर्यावरण पर प्रतिकूल असर के अध्ययन की जिम्मेदारी सौंपी है।

भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद् (आईसीएमआर) के महानिदेशक और कृषि आयुक्त इन समितियों के प्रमुख होंगे। खंडपीठ ने विशेषज्ञ समिति से अपनी अंतरिम रिपोर्ट में इंडोसल्फान के प्रतिकूल प्रभावों और उसके विकल्पों पर चर्चा करने का निर्देश दिया है। विशेष समिति मुख्यतः इन तीनों बिन्दुओं पर इंडोसल्फान पर प्रतिबंध लगाने, इसके मौजूदा स्टॉक को कई चरणों में समाप्त करने या इसके विकल्प क्या हो सकते हैं, पर चर्चा करेगी।  समिति को अपनी रिपोर्ट इन्हीं आठ हफ्तों यानि मध्य जुलाई तक सौंपनी है। यहां कुछ सवालों पर गौर करना जरूरी होगा। इंडोसल्फान पर प्रतिबंध क्यों लगाया जाना चाहिए? इसका मानव जीवन और पर्यावरण पर क्या प्रतिकूल असर पड़ रहा है? क्या दूसरे कीटनाशी मानव जीवन और पर्यावरण के लिहाज से ठीक हैं? क्या इंडोसल्फान के विकल्प सुरक्षित हैं? इंडोसल्फान की भारतीय बाजार में कितनी हिस्सेदारी है? क्या उस हिस्सेदारी पर कब्जा करने की साजिश के तौर पर तो इसपर प्रतिबंध की बात नहीं की जा रही है?

भारत में इंडोसल्फान के निर्माण में लगी कंपनियां इस कीटनाशी को 200-250 रुपये प्रति लीटर उपलब्ध करा रही हैं। लेकिन इसके विकल्प के तौर पर जिन कीटनाशकों की पैरवी की जा रही है, उसकी कीमत 3200 रुपये प्रति लीटर है। क्या भारत सहित उन गरीब मुल्कों के किसान जहां इंडोसल्फान को उपयोग में लाया जा रहा है, इन महंगे विकल्पों की कीमत चुका पाएंगे? मेरा मानना है कि मानव जीवन और पर्यावरण के लिए नुकसानदेह किसी भी कीटनाशी पर प्रतिबंध जरूर लगाया जाना चाहिए। लेकिन साथ उसके विकल्प सस्ते और मानकों पर सही उतरने वाले होने चाहिए। अन्यथा, ऐसे प्रतिबंधों के पीछे बहुराष्ट्रीय कंपनियों की षड्यंत्रों की संभावना नजर आने लगती है।

इंडोसल्फान के जोखिमों को देखते हुए कुल 87 देशों में प्रतिबंध लगाया जा चुका है। अमेरिका और यूरोपीय संघ में इस रसायन पर ही पूरी तरह प्रतिबंध लगा दिया गया है। कुछ देशों में धान की खेती में इसके इस्तेमाल पर रोक लगाया गया है तो कुछ देशों में दूसरे फसलों की खेती में। एक अनुमान के अनुसार, भारत में इसका कुल कारोबार 500 करोड़ रुपये से ज्यादा का है। नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ ऑक्यूपेशनल हेल्थ (एनआईओएच) ने केरल के कासरगॉड जिले में आयोजित किए गए एक अध्ययन के आधार पर रिपोर्ट तैयार करके केंद्र सरकार को सौंपी थी। एनआईओएच की रिपोर्ट के अनुसार, कासरगॉड जिले में इंडोसल्फान के इस्तेमाल से बच्चों में मंदता, बौद्धिक पिछड़ापन, सुनने की दिक्कतें आदि की समस्याएं पैदा होने लगीं हैं।

इसके अलावे कई अन्य अध्ययनों में यह पाया गया कि यह मानव जीवन और जलीय जीवन (खासकर मछियों) पर नकारात्मक असर डालती है। केरल में इस कीटनाशी की वजह से अबतक 400 से ज्यादा लोगों की जानें जा चुकी हैं। मनुष्य और पशुओं में जन्म के समय विकलांगता या अन्य किस्म की दिक्कतें शुरू हो जाती है। इसका जहर कैंसर जैसे जानलेवा रोग को जन्म दे रहा है। पंजाब के भठिंडा, मानसा और फरीदकोट जिले में कैंसर के व्यापक प्रसार की वजहों में से रसायनिक कीटनाशकों का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल लाया जाना है। भठिंडा के पुहली गांव के किसान और पंजाबी के कथाकार बंत सिंह चट्टा का कहना है, ‘‘राजस्थान में बीकानेर के पास अबोहर में कैंसर अस्पताल के लिए एक स्पेशल ट्रेन चलाई जा रही है, जिसे कैंसर टेªन के नाम से ही इस इलाके में पुकारा जाता है।

पंजाब के खेतों में रसायनिक उर्वरक और रसायनिक कीटनाशी का प्रयोग बहुत ज्यादा चलन में है। यही वजह है कि यहां के खेत-खलिहान के साथ मनुष्य और पशुओं को बड़ी-बड़ी बीमारियां लग रही हैं। कैंसर, नंपुसकता जैसी बीमारियां यहां के लोगों को अपने गिरफ्त में ले रही हैं। इंडोसल्फान ही नहीं बल्कि सभी रसायनिक कीटनाशकों पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए और जैविक खाद और जैविक कीटनाशी के प्रयोग को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।’’ 

दरअसल, इंडोसल्फान पर प्रतिबंध लगाने और उसकी जगह दूसरे रसायनिक कीटनाशकों के प्रयोग की बात जिनेवा सम्मेलन (25 अप्रैल 2011) में किए जाने के पीछे के उद्देश्यों को समझने की कोशिश होनी चाहिए। जैविक खाद और जैविक कीटनाशी के चलन को खत्म करके उसकी जगह रसायनिक खाद व उर्वरकों के उपयोग के जरिये सरकार और बहुराष्ट्रीय कंपनियां खेती को उद्योग में तब्दील करना चाहती है।

खेती के जरिये जीवन जीने के लिए जरूरी फसलों को उगाने की बजाय बहु-राष्ट्रीय कंपनियां नकदी फसलों के उत्पादन, उसमें सस्ते और आसानी से उपलब्ध खाद और कीड़ों को मारने के उपायों की जगह त्वरित असर के नाम पर रसायनों को बढ़ावा दे रही है। क्योंकि रसायनों के बढ़ते चलन से उनका व्यापार बढ़ रहा है। बाजार में हिस्सेदारी बढ़ रही है। इसलिए सरकार को आम किसानों के हित की परवाह करते हुए इस लूट के खेल को समाप्त करने के उपायों पर गौर करना होगा।



पत्रकारिता में जनपक्षधर रूझान के साथ सामाजिक-राजनीतिक विषयों पर लेखन और सामाजिक सक्रियता.

    




मजदूर आत्महत्याओं पर रिपोर्ट जारी


कारखानों में नवयुवतियों को बतौर मजदूर तीन साल के लिए ठेके पर काम दिया जाता है.ठेका अवधि की समाप्ति पर 30000 से 60000 के बीच एक मुश्त रकम दहेज़ के लिए इन नवयुवतियों को थमा दी जाती है...

विष्णु शर्मा

कमिटी ऑफ कंसर्न्ड सिटीजन-स्टुडेंट्स एंड यूथ द्वारा 22मई को दिल्ली के गाँधी शांति प्रतिष्ठान में जारी  तिरुपुर रिपोर्ट वहां के मजदूरों की दुर्दशा जानने का महत्वपूर्ण दस्तावेज है.तमिलनाडू का तिरुपुर शहर कपड़ा उत्पादन के लिए विश्व  प्रसिद्ध है. यह शहर वालमार्ट, सी एंड ए, डीज़ल, फिला रीबौक अदि जैसे बड़े अंतरारष्ट्रीय ब्रांडो के लिए कपड़ों की आपूर्ति करता है.लेकिन दूसरी ओर इसी शहर में पिछले दो सालों में 800से अधिक मजदूरों ने आत्महत्या की है ओर हर रोज आत्महत्या की 20 कोशिश होती है. रिपोर्ट के अनुसार इसके लिए उत्पीडन की वह परिस्थियाँ जिम्मेदार हैं जो अत्यधिक मुनाफे कमाने के लिए वहा के कारखाना मालिकों ने उत्पन्न की हैं.

रिपोर्ट जारी होने के बाद अपनी बात रखते टीम के सदस्य

तिरुपुर के कारखाना मालिकों ने उत्पीडन के नए नए प्रयोग किये है.इसमें से एक है सुमंगली योजना. यह योजना विवाह योग्य लड़कियों के लिए है. कारखानों में नवयुवतियों को बतौर मजदूर तीन साल के लिए ठेके पर काम दिया जाता है. ठेका अवधि की समाप्ति पर 30000 से 60000 के बीच एक मुश्त रकम दहेज़ के लिए इन नवयुवतियों को थमा दी जाती है. यदि इस अवधि में इन में से कोई बीमारी या किन्ही कारणोंवश काम में उपस्थित नहीं हो पता तो मालिक रकम देने से इनकार कर सकता है. ठेके की अवधि के दौरान लड़कियां हॉस्टल में रहती है ओर अपने निकट के परिचितों (जिनका नाम और फोटो उनके रजिस्टर में दर्ज है) के आलावा किसी से नहीं मिल सकती. उनके बहार जाने में पाबन्दी होती है.हॉस्टल में घटिया किस्म का खाना दिया जाता है जो लगातार इनके स्वस्थ पर बुरा असर डालता है. सुमंगली के रूप में काम करने वाली लड़कियों को 'प्रशिक्षार्थी' या 'प्रशिक्षु' में वर्गीकृत किया जाता है और इस तरह वे नियमित मजदूरी दरों की हकदार नहीं होती.

एक अन्य 'कैम्प कूली' व्यवस्था के तहत श्रम ठेकेदार बिहार, झारखण्ड, उड़ीसा तथा राजस्थान से सस्ते मजदूर लाते है.ठेकेदार इन मजदूरों पर नज़र रखते है तथा प्रबंधन ठेकेदारों के माध्यम से मजदूरों के साथ सम्बन्ध रखते है. यह मजदूर फेक्टरी मालिक द्वारा उपलब्ध शयनशाला में रखे जाते है. ये मजदूर युनियन से नहीं जुड़ सकते. इस तरह तिरुपुर के करीब 4 लाख मजदूरों में से केवल 10 प्रतिशत ही युनियन के सदस्य है. यहाँ के मजदूरों को सप्ताह में करीब 1710 रु की मजदूरी मिलती है और ये अन्य किसी प्रकार की सुविधा के हकदार नहीं है.यहाँ के मजदूर अलगाव का जीवन जीने को मजबूर है. ये अपने परिवार के साथ नहीं रह सकते सप्ताह में 6 दिन १२ से १८ घंटे के बीच काम करना पड़ता है.

रिपोर्ट के अनुसार, 'तिरुपुर की कामयाबी मजदूरों की लूटखसोट पर आधारित है. तिरुपुर के कपडा उद्योग के मजदूरों के रहने-सहने वा काम करने की परिस्थितियाँ उनके जीवन को भारी नुक्सान पहुचती है. मजदूरों को न केवल उद्योग से सम्बंधित पेशागत जोखिम उठाना पड़ता है बल्कि उनसे जो अत्यधिक काम किया जाता है उसके चलते कम उम्र में ही उनके काम करने की क्षमता का ह्रास हो जाता है.'

कार्यक्रम में बोलते हुए अशोक ने कहा कि यह घटना तिरुपुर की नहीं बल्कि पूरे देश की है. देश के राजनीतिज्ञ, साहित्यकार देश को विकसित देश बताते है जबकि वे उत्पीडन की इन परिस्थितियों को नजरंदाज करते है. उन्होंने कहा कि देश में जहाँ भी विकास हुआ है वहां उसकी की कीमत किसानो और मजदूरों को चुकानी पड़ रही है.बिहार के रोहतास को धन का कटोरा कहा जाता है और वहां लोग बेरोजगार हो गये है. बिहार में कहावत है कि 'नरेगा जो करेगा वो मरेगा' इसका मतलब है कि नरेगा योजना के अंतर्गत काम करने वालों को 2वर्षों तक भुगतान नहीं किया जाता.और जब भुगतान होता है तो आमदनी का 30 प्रतिशत सरकारी अधिकार ले लेते है.

संतोष ने इस अवसर पर कहा कि आर्थिक नव उदारवाद की नीतियों ने हमें दो वक्त से एक वक्त का खाना खाने की स्थिति में पंहुचा दिया है.और अब सरकार यह कह रही है कि एक वक्त का खाना खाने वाले गरीब नहीं है! राजनितिक कार्यकर्त्ता  अंजनी कुमार ने बताया कि तिरुपुर में जो हालत है उसका एक कारण मजदूर आन्दोलन का न होना है और किसानों के लिए भी ऐसा ही कहा जा सकता है.उन्होंने कहा कि मजदूरों और किसानों के बीच अंतर सम्बन्ध है और हमें सही दिशा में आन्दोलन को ले जाने के लिए इस लिंक को समझना होगा.उन्होंने कहा कि गुडगाँव और अन्य जगह के आंदोलनों से पता चलता है कि वहां के मजदूरों के बीच एकता पुराने ट्रेड युनियन के खिलाफ बनी है.इन आन्दोलनों में जो मांगे प्रमुखता से उठी है वे है, एक संगठन, ऊँची मजदूरी और मजदूरों के बीच बराबरी.जो मजदूर संगठन खुद को वामपंथी मानते है वे मजदूरों की मांगो पर काम करने की बजाये आंदोलनों को अपनी सुविधा के अनुसार आगे ले जाना चाहते है.

 
पीडीएफआई के संयोजक अर्जुन सिंह ने कहा कि देश के कपडा उद्योग में बहुत बदलाव आया है. कानपुर पूरी तरह उजाड़ गया है और सूरत, कोयंबटूर के हालत भी ख़राब है. मजदूर एकता कमिटी के सतीश ने कहा कि इस रिपोर्ट को विस्तार से लोगो के पास ले जाना चाहिए. नागरिक पत्रिका के संपादक श्यामवीर ने कहा की फक्ट्रियों में युनियन बनाना मुश्किल है.ठेकेदारी प्रथा का बोल बाला है. मजदूरों के साथ मार पीट, गली गलौज आम चलन है. भारत में पूंजीवाद, सामंतवाद, दास प्रथा सब घुल मिल गई है.कम्युनिस्ट  ग़दर पार्टी की कामरेड रेखा ने कहा कि आज के दौर में मजदूर और किसानों को एक साथ खड़े होना होगा.इस कार्यक्रम के शुरू  में पार्थ  सरकार ने तिरुपुर रिपोर्ट को प्रस्तुत किया और अंत में धन्यवाद ज्ञापन जाँच समिति के  के संतोष ने दिया.




May 23, 2011

42 हत्याएं, 140 गवाह और 24 साल का हाशिमपुरा


मेरी समझ में आ गया कि उसके थाना क्षेत्र में कहीं नहर के किनारे पीएसी ने कुछ मुसलमानों को मार दिया है, इसके बाद की कथा एक लंबा और यातनादायक प्रतीक्षा का वृतांत है...

महताब आलम

"जीवन के कुछ अनुभव ऐसे होतें हैं जो जिन्दगी भर आपका पीछा नहीं छोडतें.एक दु:स्वप्न की तरह वे हमेशा आपके साथ चलतें हैं और कई बार तो कर्ज की तरह आपके सर पर सवार रहतें हैं. हाशिमपुरा भी मेरे लिये कुछ ऐसा ही अनुभव है.22-23मई सन 1987की आधी रात दिल्ली गाजियाबाद सीमा पर मकनपुर गाँव से गुजरने वाली नहर की पटरी और किनारे उगे सरकण्डों के बीच टार्च की कमजोर रोशनी में खून से लथपथ धरती पर मृतकों के बीच किसी जीवित को तलाशना सब कुछ मेरे स्मृति पटल पर किसी हॉरर फिल्म की तरह अंकित है,"  ये कहना है महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय   हिंदी विश्वविद्यालय  वर्धा के कुलपति एवं गाजियाबाद के तत्कालीन एसपी विभूति नारायण राय का. उस रात, मेरठ शहर के हाशिमपूरा इलाके में उत्तर प्रदेश पीएसी के जवानों ने 42 मुस्लिमों की निर्मम हत्या कर दी थी.
अभी भी न्याय की आस बाकी

राय आगे कहते है,"उस रात द्स-साढे दस बजे हापुड़  से वापस लौटा था.साथ में जिला मजिस्ट्रेट नसीम जैदी भी थे, जिन्हें उनके बँगले पर उतारता हुआ,मैं पुलिस अधीक्षक निवास पर पहुँचा.निवास के गेट पर जैसे ही कार की हेडलाइट्स पड़ी मुझे घबराया हुआ सब इंसपेक्टर वीबी सिंह दिखायी दिया,जो उस समय लिंक रोड थाने का इंचार्ज था.मेरा अनुभव बता रहा था कि उसके इलाके में कुछ गंभीर घटा है. मैंने ड्राइवर को कार रोकने का इशारा किया और नीचे उतर गया.

वीबी सिंह इतना घबराया हुआ था कि उसके लिये सुसंगत तरीके से कुछ भी बता पाना संभव नहीं लग रहा था.हकलाते हुये और असंबद्ध टुकडों में उसने जो कुछ मुझे बताया वह स्तब्ध कर देने के लिये काफी था.मेरी समझ में आ गया कि उसके थाना क्षेत्र में कहीं नहर के किनारे पीएसी ने कुछ मुसलमानों को मार दिया है, इसके बाद की कथा एक लंबा और यातनादायक प्रतीक्षा का वृतांत है जिसमें भारतीय राज्य और अल्पसंख्यकों के रिश्ते,पुलिस का गैर पेशेवराना रवैया और घिसट घिसट कर चलने वाली उबाऊ न्यायिक प्रणाली जैसे मुद्दे जुडे हुयें हैं”.

तारीख पर तारीख

22 मई 1987 को जो मुकदमा गाजियाबाद के थाना लिंक रोड और मुरादनगर पर दर्ज कराया गया था. पहले तो कई सालों तक यूँ ही बंद रहा और उस पर कोई कार्रवाई नहीं हुई. मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के लगातार कोशिशों के बावजूद भी जब मुकदमे की कार्रवाई शुरू नहीं हुयी तो उच्चतम न्यायालय   में केस को दुसरे राज्य में स्थानान्तरित  करने कि याचिका  दायर की गई. 2002 में, उच्चतम न्यायालय के आदेश पर मुकदमे को दिल्ली के तीस हजारी कोर्ट में स्थानान्तरित कर दिया गया. लेकिन उससे भी बात नहीं बनी क्योंकि  उत्तरप्रदेश सरकार ने केस लड़ने के लिए कोई वकील ही नहीं नियुक्त किया.नरसंहार के बीस वर्षो बाद जब 24 मई 2007 को सूचना के अधिकार के तहत ये पता किया गया कि उस घटना के आरोपियों के साथ क्या हुआ तो डीजीपी कार्यालय ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि सब के सब आरोपी अभी भी नौकरी में बने हैं और यही उनकी सर्विस डायरी में ऐसी किसी घटना का उल्लेख तक नहीं है. पिछले 24 वर्षों से विभिन्न बाधाओं से टकराते हुये अभी भी मामले अदालत में चल रहें हैं और अपनी तार्किक परिणति की प्रतीक्षा कर रहें हैं.

कब मिलेगा न्याय ?

 वो तार्किक परिणति कब आएगी, को जानने के लिए मैंने इस मामले के वकील अकबर अबिदी को फोन किया तो उनका जवाब था. "अगली तारीख, 30 मई को है." दिल्ली के तीस हजारी कोर्ट में इस मामले को देख रहे अकबर अबिदी ने बताया कि मुक़दमा अभी किसी परिणति पर पहुँचने के लिए बाकी  है. ज्यादातर  गवाहियाँ हो चुकी है. इस मामले में लगभग 140 गवाह थे, जिसमे पिछले 24 वर्षो में 20 की मौत हो चुकी. इसी दौरान 19 आरोपियों में से 3 आरोपी भी मर चुके हैं. अबिदी ने आगे कहा कि अगले कुछ महीनों  मुकदमे का फैसला सुना दिया जायेगा.

हाशिमपुरा कि घटना, भारतीय इतिहास में कोई मामूली घटना नहीं थी. एक रात में, एक ही जगह के, एक ही समुदाय के 42 लोगों को मौत के घाट उतर दिया गया था. और ये सब किसी किसी आम व्यक्तियों के गिरोह ने नहीं किया था बल्कि उनलोगों ने किया था जिन पर जनता के रक्षा की जिम्मेवारी है. इस घटना ने पूरे भारत के नागरिकों, खासतौर पर मुसलमानों का दिल दहला दिया था, लेकिन विडम्बना ये है कि आज इस घटना के 24 साल गुज़र चुके हैं. गवाहियों पर गवाहियों हो चुकी है.कितने लोग न्याय का आस लिए इस दुनिया से गुज़र चुके हैं.गवाहों के बाल  सफ़ेद हो चुके हैं. देश की जनता भूल चुकी है और हाशिमपुरा के लोग भी,खास तौर पर नई पीढ़ी भूलने जा रही है.लेकिन नतीजा वही, तारीख पर तारीख. क्या हमारे देश में न्याय का यही भविष्य है ?




लिखने और लड़ने की जरुरत को एक समान मानने वाले महताब, उन पत्रकारों में हैं जो जनसंघर्षों को मजबूत करने के लिए कभी कलम पकड़ते हैं तो कभी संघर्षों के हमसफ़र होते हैं.



भाकियू के नए अध्यक्ष नरेश टिकैत


नरेश  की ताजपोशी करते रालोद नेता अजित सिंह

जनज्वार.भारतीय किसान यूनियन के नेता और अध्यक्ष रहे महेंद्र सिंह टिकैत की 15 मई को हुई मौत के बाद आज मुज़फ्फरनगर के सिसोली में नरेश टिकैत को भारतीय किसान यूनियन का अध्यक्ष बनाया गया. नरेश चौधरी, महेंद्र सिंह टिकैत के बड़े बेटे हैं और किसान राजनीति में सक्रिय रहे हैं.हालाँकि किसान मामलों में नरेश टिकैत से अधिक सक्रियता उनके छोटे बेटे राकेश टिकैत की रही है, मगर बड़ा बेटा होने के नाते महेंद्र सिंह टिकैत की तेरहवीं में जुटे जाट और किसान प्रतिनिधियों ने नरेश को ही अपना प्रतिनिधि चुना.

महेंद्र सिंह टिकैत की तेरहवीं के दौरान हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री ओम प्रकाश चौटाला, भाजपा नेता लालकृष्ण अडवाणी  और लोकदल प्रमुख अजित सिंह समेत हजारों जाट बिरादरी के समर्थकों की उपस्थिति में नरेश टिकैत की ताजपोशी की गयी. नरेश टिकैत को भी किसान यूनियन का अध्यक्ष बगैर किसी चुनाव के हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाट प्रतिनिधियों की उपस्थिति में  उसी तरह से चुना  गया, जैसे महेंद्र सिंह टिकैत की ताजपोशी 1986 में  हुई थी.साथ ही  नरेश को बालियान खाप का चौधरी बना पगड़ी पहनाई गयी.गौरतलब है कि महेंद्र सिंह टिकैत भी अपने पिता के मरने के बाद से बालियान खाप के आजीवन प्रतिनिधि रहे थे.

पुतिन की राह में मेदवेदेव के रोड़े


एक ओर पुतिन जहाँ राज्य के नियंत्रण को प्राथमिकता देते है,वहीं मेदवेदेव उदारीकरण को विकास के लिए जरूरी मानते है...

विष्णु शर्मा

अगर रूस के राष्ट्रपति देमेत्री मेदवेदेव की 18 मई की प्रेस वार्ता ने किसी बात का संकेत दिया है तो वह यह कि वे 2012के राष्ट्रपति चुनाव में पुतिन के खिलाफ मैदान में उतर सकते है.उन्होंने रूस के पूर्व राष्ट्रपति और वर्तमान प्रधानमंत्री पुतिन की ओर इशारा करते हुए कहा कि रूस के राजनीतिक ढांचे  को एक व्यक्ति के आस-पास केन्द्रित करना देश के हित में नहीं है.उन्होंने आगे कहा कि रूस में पहले भी ऐसा हुआ है और इसकी कीमत रूसियों को चुकानी पड़ी है.

मेदवेदेव और पुतिन : सतह पर विवाद
रूसी फेडरेशन के तीसरे और वर्तमान राष्ट्रपति मेदवेदेव 2008 में पद पर निर्वाचित हुए थे. इसी वर्ष पुतिन का दूसरा कार्यकाल समाप्त हुआ था और संविधान के तहत वे तीसरी बार पद में नहीं बने रह सकते थे.अपने उत्तराधिकारी के बतौर मेदवेदेव का चयन पुतिन ने  इस योजना के तहत किया था कि वे पद सँभालने के बाद संविधान में संशोधन करेंगे और तीसरी बार पुतिन के राष्ट्रपति बनने का रास्ता तैयार करेंगे.

पुतिन रूस के चहेते नेता हैं  और लोग इस बात के लिए उनका सम्मान करते हैं  कि उन्होंने देश की बिगड़ती  अर्थव्यवस्था को संभाला और सोवियत संघ के विघटन के बाद अंतर्राष्ट्रीय स्तर में लगातार कमजोर होती रूस की दावेदारी को पुनर्स्थापित कर सके थे.यदि संविधान उनके सामने अवरोध खड़ा नहीं करता तो तीसरी बार भी उनका जीतना तय था.

मेदवेदेव ने राष्ट्रपति का पदभार सँभालते ही सबसे  पहले संविधान में संशोधन कर पुतिन की वापसी का रास्ता तैयार किया था.पिछले चार साल तक उन्होंने कभी भी पुतिन के विकल्प के रूप में खुद को प्रस्तुत नहीं किया क्योंकि  वे अच्छी तरह समझते थे कि केजीबी (रूस की खुफिया एजेंसी)  के पूर्व एजेंट पुतिन की पकड़ यूनाइटेड रशिया  पार्टी में बहुत मजबूत है.

लेकिन अब मेदवेदेव ने जरूरी आत्म विश्वास और साहस  हासिल कर लिया है.इस बात का संकेत उसी  वक्त मिल गया था  जब लीबिया में नाटो की बमबारी का विरोध कर रहे पुतिन को मेदवेदेव ने संयम रखने की सलाह दी. इसके बाद 22 अप्रैल 2011 को दूमा में अपने भाषण में प्रधान मंत्री पुतिन ने मेदवेदेव की आर्थिक नीतियों को यह कह कर ख़ारिज किया कि देश में हो रहे 'उदार प्रयोग' रूस की पांच बड़े शक्तिशाली देशों में शामिल होने की उसके संभावना को कमजोर कर रहे है.

इससे पहले 2 अप्रैल को राष्ट्रपति ने उप प्रधानमंत्री तथा 7 अन्य पुतिन समर्थकों को राज्य संचालित उद्योग की अध्यक्षता से मुक्त कर दिया था. दोनों ही नेताओं की आर्थिक प्राथमिकतायें अलग हैं. एक ओर पुतिन जहाँ राज्य के नियंत्रण को प्राथमिकता देते है,वहीं मेदवेदेव उदारीकरण को विकास के लिए जरूरी मानते है.


 

May 22, 2011

कैसा समर्थन चाहता है पाकिस्तान?

लाडेन की पाकिस्तान में मौजूदगी ने पाकिस्तान को जितना शर्मसार किया उतना ही शर्मनाक पाकिस्तान के लिए यह भी रहा कि अमेरिका ने पाक सुरक्षा तंत्र को अविश्वास के चलते इस आप्रेशन की कानों-कान भनक तक नहीं लगने दी...

तनवीर जाफरी

पाकिस्तान इन दिनों आतंकवाद को लेकर भीषण संकट के दौर से गुज़र रहा है। पाकिस्तान में आतंकवाद न केवल तीन दशकों से संरक्षित,फल-फूल व पनप रहा है बल्कि पाकिस्तान में अपनी जड़ें  गहरी कर चुके इस आतंकवाद को लेकर स्वयं पाक शासक भी अब अपनी बेचारगी का इज़हार करते हुए दुनिया से बार-बार यह कहते फिर रहे हैं कि ‘दुनिया में पाकिस्तान तो स्वयं आतंकवाद का सबसे बड़ा शिकार है।’ ज़ाहिर है पाकिस्तान को बारूद के इस ढेर तक ले जाने में किसी अन्य देश की उतनी भूमिका नहीं रही है जितनी कि स्वयं पाकिस्तान हुकूमत, वहां के हुक्मरानों की या उनकी गलत नीतियों की रही है।

पिछले  2 मई को पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद में स्थित राष्ट्रीय सैन्य अकादमी के निकट एबटाबाद में अलकायदा प्रमुख ओसामा बिन लाडेन को अमेरिकन कमांडो द्वारा मारे जाने के बाद पाकिस्तान के शासकों से दुनिया को जवाब देते नहीं बन पा रहा है। पाकिस्तान की अवाम तथा हुक्मरान इन दिनों अपनी अलग-अलग किस्म  की उलझनों के शिकार हैं। पाक नागरिक इस बात को लेकर बड़े अचंभे में हैं कि आखिर इस्लामाबाद में आकर अमेरिकी कमांडो लाडेन को मार कर उसकी लाश अपने साथ लेकर चले भी गए और पाकिस्तानी सेना,सुरक्षा तंत्र, ख़ुफ़िया  तंत्र तथा निगरानी तंत्र कुछ भी न कर सका। पाकिस्तान अवाम इसे पाक संप्रभुता पर अमेरिकी सैनिकों का सीधा हमला मान रही है।

कहने को तो पाक शासक भी सार्वजनिक रूप से मजबूरन पाक अवाम की ही भाषा बोल रहे हैं। परंतु उनकी इस ललकार में कोई दम हरगिज़ नहीं है। क्योंकि अमेरिका न सिर्फ इस्लामाबाद में ओसामा बिन लाडेन को मार गिराने के लिए किए गए आप्रेशन जेरोनिमो को उचित ठहरा रहा है बल्कि यह भी कह रहा है कि ज़रूरत पडऩे पर ऐसी ही कार्रवाई पाकिस्तान में दोबारा भी की जा सकती है। यही नहीं बल्कि लाडेन को मारने के अगले ही दिन अमेरिका ने पाक सीमा के भीतर आतंकवादियों को निशाना बनाकर ड्रोन विमान से हमला भी किया। हां इतना ज़रूर है कि पाक सेना ने पाकिस्तानी अवाम को दिखाने के लिए तथा उनका हौसला बढ़ाने के लिए पिछले दिनों अफगानिस्तान सीमा के निकट वायुसीमा का उल्लंघन करने के नाम पर एक अमेरिकी हेलीकॉप्टर पर गोलीबारी ज़रूर की।

यह अलग बात है कि इसके जवाब में अमेरिकी हेलीकॉप्टर से भी गोलियां बरसाई गईं जिससे कई पाकिस्तानी सैनिक घायल हो गए। यही नहीं बल्कि लाडेन की मौत के बाद अमेरिका व पाक के मध्य उपजे तनावपूर्ण वातावरण के बीच अमेरिकी सीनेटर जॉन कैरी ने पाकिस्तान का दौरा किया। उन्होंने भी दो टूक शब्दों में पाकिस्तान को यह बता दिया कि अमेरिका को आप्रेशन जेरोनिमो करने में न कोई अफसोस है न शर्मिंदगी। और वे इसके लिए माफी मांगने पाकिस्तान नहीं आए हैं।

उपरोक्त हालात में पाकिस्तानी शासकों को यह मंथन ज़रूर करना चाहिए कि पाकिस्तान को आज इस नौबत का सामना आखिर क्योंकर करना पड़ रहा है। आज केवल अमेरिका ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया को इस बात का लगभग यकीन हो चुका है कि पाकिस्तान आतंकवाद का दुनिया में सबसे बड़ा पोषक संरक्षक तथा इसकी पनाहगाह है। विश्व मीडिया तो पाकिस्तान को ‘आतंकवादियों का स्वर्ग’ कहकर संबोधित करने लगा है। पाकिस्तान में मौजूद आतंकवादियों के प्रशिक्षण केंद्र व शिविर इस समय पूरी दुनिया की नज़रों में हैं। अब यदि यह आतंकी शिविर पाकिस्तान में बेरोक-टोक व बेखौफ संचालित हो रहे हैं तथा इनके सरगऩा व आक़ा पाकिस्तान में खुलेआम सशस्त्र आतंकियिों के साथ घूमते फिर रहे हैं और कहीं-कहीं तो इन्हें पुलिस सुरक्षा भी मुहैया कराई जा रही है। फिर पाकिस्तान के इन सब हालात के लिए कोई दूसरा देश कैसे और क्यों जि़म्मेदार हो सकता है। पाकिस्तान में लाडेन की गत् 5 वर्षों से मौजूदगी प्रमाणित होने के बाद यह पहला अवसर था जबकि पाकिस्तान को दुनिया को यह दिखाना पड़ा कि हम आतंकवाद को लेकर गंभीर हैं तथा इस विषय को लेकर पाकिस्तान पर लगने वाले आरोपों को लेकर अत्यंत चिंतित हैं।

इसी गरज़ से पाक संसद का विशेष सत्र पिछले दिनों बुलाया गया तथा आइएसआइ  प्रमुख शुजा पाशा को संसद में पेश किया गया। संसद में हुई इस कार्रवाई की वीडियो रिकार्डिंग भी की गई। आइएसआइ प्रमुख शुजा पाशा पर तमाम सांसदों  ने सवालों की झड़ी लगा दी। अधिकांश सांसदों के प्रश्र इसी विषय को लेकर थे कि आइएसआइ व आतंकवाद तथा आइएसआइ व अलकायदा के मध्य गुप्त समझौते का  क्या औचित्य है? ऐसा है या नहीं और है तो क्यों? तथा किन हालात में पाकिस्तान को दुनिया में इतनी रुसवाई, अपमान का सामना करना पड़ रहा है,आदि? शुजा पाशा सांसदों के सवालों में इस कद्र घिरे कि आजिज़ होकर उन्होंने अपने पद से इस्तीफा देने की पेशकश तक कर डाली। जिसे प्रधानमंत्री युसुफ रज़ा गिलानी ने अस्वीकार कर दिया।

गिलानी ने खुलकर आइएसआइ तथा पाक सुरक्षा व्यवस्था व सरकार की पैरवी की। उन्होंने दुनिया के इन इल्ज़ामों को खारिज किया कि अमेरिका द्वारा पाकिस्तान में ओसामा बिन लाडेन को मारा गिराया जाना पाकिस्तान सुरक्षा व्यवस्था की अक्षमता व अयोग्यता को दर्शाता है। गिलानी ने आइएसआइ व अलकायदा के मिलीभगत के आरोपों का भी खंडन किया। दूसरी तरफ़ इन सबके बीच पाक तालिबानों ने पाक सुरक्षाकर्मियों का निशाना बनाकर एक बड़ा धमाका किया जिसमें 80 से अधिक लोगों की मौत हो गई। तालिबानों ने धमाके के बाद यह संदेश भी दिया कि यह घटना लाडेन की मौत के बदले की शुरुआत है।

पाकिस्तान लगभग प्रतिदिन किसी न किसी आतंकवादी घटना का शिकार बनता रहता है। आत्मघाती दस्तों की पाकिस्तान में गोया बाढ़ सी आ गई है। उधर 9/11 को अमेरिका पर हुए आतंकी हमले के बाद इसी पाकिस्तान ने आतंकवाद के विरुद्ध अमेरिका को सहयोग देने के नाम पर अरबों डॉलर तथा हथियारों का बड़ा ज़खीरा हासिल कर लिया है। अब क्या इसे महज़ एक इत्ते$फा$क समझा जाए या फिर पाकिस्तान हुक्मरानों की सोची-समझी साजि़श अथवा रणनीति कि जबसे पाकिस्तान आतंकवाद के नाम पर अमेरिका से पर्याप्त धन व शस्त्र लेता आ रहा है लगभग इसी समयावधि के दौरान पाकिस्तान स्थित आतंकवादियों के पास शस्त्रों का भंडार भी बढ़ता जा रहा है तथा यह ताकतें आर्थिक रूप से भी दिन-प्रतिदिन सुदृढ़ होती जा रही हैं।

ऐसे में क्या पाक शासकों को दुनिया को इस बात का स्पष्टीकरण नहीं देना चाहिए कि आतंकवाद के विरुद्ध छेड़े गए युद्ध में पाकिस्तान का रचनात्मक रूप से क्या योगदान रहा है। और जब बात ओसामा बिन लाडेन को मारने की आई तो इसकी पूरी गुप्त योजना व मिशन अमेरिका ने अकेले तैयार किया तथा पाकिस्तान को इस आप्रेशन की कानों-कान भनक तक नहीं लगने दी। यानी लाडेन की पाकिस्तान में मौजूदगी ने पाकिस्तान को जितना शर्मसार किया उतना ही शर्मनाक पाकिस्तान के लिए यह भी रहा कि अमेरिका ने पाक सुरक्षा तंत्र को अविश्वास के चलते इस आप्रेशन की कानों-कान भनक तक नहीं लगने दी।

दूसरा, पाकिस्तान आतंकवाद के विरुद्ध दुनिया से किस प्रकार के सहयोग चाहता है? क्या पाकिस्तान को आतंकवाद के नाम पर लडऩे के लिए दुनिया से सिर्फ पैसा और हथियार ही चाहिए? यदि हां तो इसके पिछले परिणाम ठीक नहीं रहे हैं। इसलिए पाकिस्तान को  एक ऐसा चार्टर्ड पेश करना चाहिए जिससे दुनिया यह जान सके कि आतंकवाद के विरुद्ध पाकिस्तान को  किस प्रकार के सहयोग की दरकार है?



लेखक हरियाणा साहित्य अकादमी के भूतपूर्व सदस्य और राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय मसलों के प्रखर टिप्पणीकार हैं.




एक काले कानून की आधी सदी

पिछले 53 वर्षों में एक बार नहीं, बल्कि हजारों बार साबित हो चुका है कि अफ्स्पा कानून नहीं, कानून के नाम पर बर्बरता  है. इस बात को सरकारी कमेटी ने भी दबे मुंह से  स्वीकार किया है...

महताब आलम

आज  बाईस मई की सुबह जब ऑफिस या काम पर जाने की चिंता से बेफिक्र हम सोते रहेंगे, उसी समय नॉर्थ-ईस्ट और कश्मीर की जनता जो सुबह देखेगी, वह कानून के नाम पर बर्बरता की  53 वीं  सालगिरह होगी.  जी हाँ, मैं आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर्स एक्ट (अफ्स्पा) की  बात कर रहा हूँ. कानून के नाम पर, ला-कनूनियत नाफ़िज़ करने का घिनौना हथियार. जिसके खाते में अगर कुछ लिखा है, तो सिर्फ ला-क़नूनियत और बरबरियत की न खत्म होने वाली दास्तानें.

बाईस मई 1958 को नागा लोगों को 'नियंत्रित' करने के लिए ये कानून अमल में लाया गया. नागा जनता के पुरजोर विरोध के बावजूद, अपनी आदत के मुताबिक भारतीय संसद ने 18 अगस्त 1958 को इस कानून पर अपनी मुहर लगा दी. पहले- पहल ये कानून  सिर्फ नागा जनता को 'नियंत्रित' करने के लिए बना और कहा गया कि जल्द ही हटा लिया जायेगा. पर ऐसा कभी हुआ नहीं. बल्कि धीरे-धीरे ये 'कानून' पूर्वोत्तर के 7 राज्यों से निकलता हुआ कश्मीर की घाटी तक पहुँच गया. आख़िरकार, कानून के हाथ लम्बे होते हैं. वैसे भी, अगर भेड़िये को एक बार खून का स्वाद मिल जाये तो फिर उसे कौन रोक सकता है और खासतौर पर खून 'विदेशी' या अलग नस्ल का हो. इस पूरे मामले में भी कुछ ऐसा ही दिखता है.

खैर, ये कानून, प्रसिद्ध किस्सागो महमूद फारुकी और दानिश अहमद के लफ्जों में ' तिलिस्म' है ?' ऐसा क्या है कि ये देश के 'रक्षकों' को भक्षक और राक्षस बना देता है? कानून की बात करें तो ये सरकार द्वारा घोषित 'disturberd' इलाकों में सशस्त्र बल को विशेष अधिकार ही नहीं, बल्कि एकाधिकार देता है. इस काले कानून के बदौलत  सशस्त्र बल जब चाहें, जिसे चाहें, जहाँ चाहें मौत के घाट उतर सकते हैं-- इसमें उम्र और लिंग का कोई भेद नहीं है. कारण, यही कि अमुक व्यक्ति 'गैरकानूनी' कार्य कर रहा था. या फिर अमुक व्यक्ति देश की सत्ता और संप्रभुता के लिए खतरा था...आदि, आदि.

ये अधिकार सिर्फ सशस्त्र बल के उच्च- अधिकारियों को ही नहीं, बल्कि आम जवानों (नॉन-कमीशंड) ऑफिसर्स तक को हासिल हैं. इस कानून की वजह से भारतीय वैधानिक व्यवस्था के तहत जिन नियमों का पालन करना ज़रूरी होता है, सबके सब ख़ारिज हो जाते हैं. इन्हें कुछ उदाहरणों के जरिये समझा जा सकता है.

मणिपुर के पश्चिमी इम्फाल जिले के युम्नुं गाँव कि बात है, 4 मार्च 2009, दोपहर के बारह बजने वाले थे. इसी गाँव के मोहम्मद आजाद खान, जिसकी उम्र मात्र 12 साल थी, अपने घर के बरामदे में एक मित्र कियाम के साथ बैठा अख़बार पढ़ रहा था. तभी मणिपुरी पुलिस कमांडो के कुछ जवान उसके घर में दाखिल हुए. एक जवान ने आजाद के दोनों हाथों को पकड़कर घसीटना शुरू कर दिया. वे उसे उत्तर दिशा में लगभग 70 मीटर दूरी पर एक खेत तक ले गए. इसी बीच एक दूसरे जवान ने आजाद के मित्र कियाम से पूछा कि तुम इसके साथ क्यों रहते हो? तुम्हे मालूम होना चाहिए कि ये एक उग्रवादी संगठन का सदस्य है. इतना कहने के बाद उस जवान ने कियाम के मुंह पर एक जोरदार तमाचा जड दिया.

जवानों ने आजाद को खेत तक ले जाकर पटक दिया. जब आजाद के घरवालों ने जवानों को रोकने की कोशिश की तो उन पर बंदूकें तान बुरा अंजाम भुगतने की धमकियां दी गयीं. आजाद को खेत तक घसीटकर ले जाने के बाद एक जवान ने बन्दूक से उसको वहीँ ढेर कर दिया. उसके बाद एक दूसरी बन्दूक उसकी लाश के पास रख दी, जिसे आजाद के पास से बरामद होना बताया गया. इस काण्ड को अंजाम देने के बाद जवान आज़ाद की लाश को थाने ले गए.

जब एक बार फिर आज़ाद के घर और गांव के लोगों ने थाने तक जाने की कोशिश की तो फिर उन्हें रोक दिया गया. हो सकता है किसी को ये हिन्दी फिल्म की कहानी लगे, मगर ये एक तल्ख हकीकत है. इन स्थितियों से मणिपुर से लेकर कश्मीर तक की जनता दोचार हो रही है. अगर सिर्फ मणिपुर ही की बात करें तो फर्जी मुठभेड़ में मार डालना, बेवजह सताना, बलात्कार समेत विभिन्न प्रकार की यातनाएं सहना यहाँ के लोगों की नियति बन चुकी है.

यही हाल नागालैंड, मिजोरम, असम, त्रिपुरा, मिजोरम, अरुणाचल और कश्मीर के ज्यादातर हिस्सों का है. और इन सबका तात्कालिक कारण है-- अफ्स्पा. इस कानून को हटाने की मांग को लेकर पिछले 11 वर्षों से इरोम शर्मिला भूख हड़ताल पर हैं. इरोम ने अपनी बात और लाखों जनता की मांग को भारत के नीति-निर्धारकों तक अपनी बात पहुँचाने के लिए दिल्ली तक का सफर किया. वो भारतीय जनतन्त्र का बैरोमीटर कहे जाने वाले जन्तर मन्तर पर भी बैठी, लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात.

पिछले 53 वर्षों में एक बार नहीं, बल्कि हजारों बार साबित हो चुका है कि अफ्स्पा कानून नहीं, कानून के नाम पर धब्बा है. इस बात को सरकारी कमेटी ने भी दबे मुंह से  सही, मगर स्वीकार किया है. वर्ष 2004 में, भारत सरकार द्वारा गठित जस्टिस जीवन रेड्डी अध्यक्षता वाली कमिटी के रिपोर्ट में इसको कबूल किया गया है. जून 2005 में आई इस रिपोर्ट में लिखा है, 'चाहे जो भी कारण रहे हों, ये कानून उत्पीड़न, नफरत, भेदभाव और मनमानी का साधन का एक प्रतीक बन गया है.'

ऐसे समय में जब कश्मीर से लेकर मणिपुर की जनता इस कानून की वजह से (ये सिर्फ एक वजह है) आपातकाल की स्थिति में जी रही हो, उनके बुनियादी अधिकार स्थगित कर दिए गए हों, ला-कनूनियत का राज हो, लोकतंत्र फ़ौजतंत्र में बदल गया हो, 'आज़ादी' का सुख भोग रहे हम लोगों का कर्तव्य बनता है कि इन सबकी आवाज़ में आवाज़ मिलाकर कहें कि  अफ्स्पा जैसे अलोकतांत्रिक कानून को अविलम्ब रद्द किया जाये. इसी में हम सब का भविष्य है, अन्यथा वो दिन दूर नहीं जब आग की लपटें हमारे घरों तक भी पहुँच जाएँगी. वैसे भी छत्तीसगढ़, झारखण्ड, ओड़िसा आदि तक तो पहुँच ही चुकी है.




लिखने और लड़ने की जरुरत को एक समान मानने वाले महताब, उन पत्रकारों में हैं जो जनसंघर्षों को मजबूत करने के लिए कभी कलम पकड़ते हैं तो कभी संघर्षों के हमसफ़र होते हैं.