May 22, 2011

कैसा समर्थन चाहता है पाकिस्तान?

लाडेन की पाकिस्तान में मौजूदगी ने पाकिस्तान को जितना शर्मसार किया उतना ही शर्मनाक पाकिस्तान के लिए यह भी रहा कि अमेरिका ने पाक सुरक्षा तंत्र को अविश्वास के चलते इस आप्रेशन की कानों-कान भनक तक नहीं लगने दी...

तनवीर जाफरी

पाकिस्तान इन दिनों आतंकवाद को लेकर भीषण संकट के दौर से गुज़र रहा है। पाकिस्तान में आतंकवाद न केवल तीन दशकों से संरक्षित,फल-फूल व पनप रहा है बल्कि पाकिस्तान में अपनी जड़ें  गहरी कर चुके इस आतंकवाद को लेकर स्वयं पाक शासक भी अब अपनी बेचारगी का इज़हार करते हुए दुनिया से बार-बार यह कहते फिर रहे हैं कि ‘दुनिया में पाकिस्तान तो स्वयं आतंकवाद का सबसे बड़ा शिकार है।’ ज़ाहिर है पाकिस्तान को बारूद के इस ढेर तक ले जाने में किसी अन्य देश की उतनी भूमिका नहीं रही है जितनी कि स्वयं पाकिस्तान हुकूमत, वहां के हुक्मरानों की या उनकी गलत नीतियों की रही है।

पिछले  2 मई को पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद में स्थित राष्ट्रीय सैन्य अकादमी के निकट एबटाबाद में अलकायदा प्रमुख ओसामा बिन लाडेन को अमेरिकन कमांडो द्वारा मारे जाने के बाद पाकिस्तान के शासकों से दुनिया को जवाब देते नहीं बन पा रहा है। पाकिस्तान की अवाम तथा हुक्मरान इन दिनों अपनी अलग-अलग किस्म  की उलझनों के शिकार हैं। पाक नागरिक इस बात को लेकर बड़े अचंभे में हैं कि आखिर इस्लामाबाद में आकर अमेरिकी कमांडो लाडेन को मार कर उसकी लाश अपने साथ लेकर चले भी गए और पाकिस्तानी सेना,सुरक्षा तंत्र, ख़ुफ़िया  तंत्र तथा निगरानी तंत्र कुछ भी न कर सका। पाकिस्तान अवाम इसे पाक संप्रभुता पर अमेरिकी सैनिकों का सीधा हमला मान रही है।

कहने को तो पाक शासक भी सार्वजनिक रूप से मजबूरन पाक अवाम की ही भाषा बोल रहे हैं। परंतु उनकी इस ललकार में कोई दम हरगिज़ नहीं है। क्योंकि अमेरिका न सिर्फ इस्लामाबाद में ओसामा बिन लाडेन को मार गिराने के लिए किए गए आप्रेशन जेरोनिमो को उचित ठहरा रहा है बल्कि यह भी कह रहा है कि ज़रूरत पडऩे पर ऐसी ही कार्रवाई पाकिस्तान में दोबारा भी की जा सकती है। यही नहीं बल्कि लाडेन को मारने के अगले ही दिन अमेरिका ने पाक सीमा के भीतर आतंकवादियों को निशाना बनाकर ड्रोन विमान से हमला भी किया। हां इतना ज़रूर है कि पाक सेना ने पाकिस्तानी अवाम को दिखाने के लिए तथा उनका हौसला बढ़ाने के लिए पिछले दिनों अफगानिस्तान सीमा के निकट वायुसीमा का उल्लंघन करने के नाम पर एक अमेरिकी हेलीकॉप्टर पर गोलीबारी ज़रूर की।

यह अलग बात है कि इसके जवाब में अमेरिकी हेलीकॉप्टर से भी गोलियां बरसाई गईं जिससे कई पाकिस्तानी सैनिक घायल हो गए। यही नहीं बल्कि लाडेन की मौत के बाद अमेरिका व पाक के मध्य उपजे तनावपूर्ण वातावरण के बीच अमेरिकी सीनेटर जॉन कैरी ने पाकिस्तान का दौरा किया। उन्होंने भी दो टूक शब्दों में पाकिस्तान को यह बता दिया कि अमेरिका को आप्रेशन जेरोनिमो करने में न कोई अफसोस है न शर्मिंदगी। और वे इसके लिए माफी मांगने पाकिस्तान नहीं आए हैं।

उपरोक्त हालात में पाकिस्तानी शासकों को यह मंथन ज़रूर करना चाहिए कि पाकिस्तान को आज इस नौबत का सामना आखिर क्योंकर करना पड़ रहा है। आज केवल अमेरिका ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया को इस बात का लगभग यकीन हो चुका है कि पाकिस्तान आतंकवाद का दुनिया में सबसे बड़ा पोषक संरक्षक तथा इसकी पनाहगाह है। विश्व मीडिया तो पाकिस्तान को ‘आतंकवादियों का स्वर्ग’ कहकर संबोधित करने लगा है। पाकिस्तान में मौजूद आतंकवादियों के प्रशिक्षण केंद्र व शिविर इस समय पूरी दुनिया की नज़रों में हैं। अब यदि यह आतंकी शिविर पाकिस्तान में बेरोक-टोक व बेखौफ संचालित हो रहे हैं तथा इनके सरगऩा व आक़ा पाकिस्तान में खुलेआम सशस्त्र आतंकियिों के साथ घूमते फिर रहे हैं और कहीं-कहीं तो इन्हें पुलिस सुरक्षा भी मुहैया कराई जा रही है। फिर पाकिस्तान के इन सब हालात के लिए कोई दूसरा देश कैसे और क्यों जि़म्मेदार हो सकता है। पाकिस्तान में लाडेन की गत् 5 वर्षों से मौजूदगी प्रमाणित होने के बाद यह पहला अवसर था जबकि पाकिस्तान को दुनिया को यह दिखाना पड़ा कि हम आतंकवाद को लेकर गंभीर हैं तथा इस विषय को लेकर पाकिस्तान पर लगने वाले आरोपों को लेकर अत्यंत चिंतित हैं।

इसी गरज़ से पाक संसद का विशेष सत्र पिछले दिनों बुलाया गया तथा आइएसआइ  प्रमुख शुजा पाशा को संसद में पेश किया गया। संसद में हुई इस कार्रवाई की वीडियो रिकार्डिंग भी की गई। आइएसआइ प्रमुख शुजा पाशा पर तमाम सांसदों  ने सवालों की झड़ी लगा दी। अधिकांश सांसदों के प्रश्र इसी विषय को लेकर थे कि आइएसआइ व आतंकवाद तथा आइएसआइ व अलकायदा के मध्य गुप्त समझौते का  क्या औचित्य है? ऐसा है या नहीं और है तो क्यों? तथा किन हालात में पाकिस्तान को दुनिया में इतनी रुसवाई, अपमान का सामना करना पड़ रहा है,आदि? शुजा पाशा सांसदों के सवालों में इस कद्र घिरे कि आजिज़ होकर उन्होंने अपने पद से इस्तीफा देने की पेशकश तक कर डाली। जिसे प्रधानमंत्री युसुफ रज़ा गिलानी ने अस्वीकार कर दिया।

गिलानी ने खुलकर आइएसआइ तथा पाक सुरक्षा व्यवस्था व सरकार की पैरवी की। उन्होंने दुनिया के इन इल्ज़ामों को खारिज किया कि अमेरिका द्वारा पाकिस्तान में ओसामा बिन लाडेन को मारा गिराया जाना पाकिस्तान सुरक्षा व्यवस्था की अक्षमता व अयोग्यता को दर्शाता है। गिलानी ने आइएसआइ व अलकायदा के मिलीभगत के आरोपों का भी खंडन किया। दूसरी तरफ़ इन सबके बीच पाक तालिबानों ने पाक सुरक्षाकर्मियों का निशाना बनाकर एक बड़ा धमाका किया जिसमें 80 से अधिक लोगों की मौत हो गई। तालिबानों ने धमाके के बाद यह संदेश भी दिया कि यह घटना लाडेन की मौत के बदले की शुरुआत है।

पाकिस्तान लगभग प्रतिदिन किसी न किसी आतंकवादी घटना का शिकार बनता रहता है। आत्मघाती दस्तों की पाकिस्तान में गोया बाढ़ सी आ गई है। उधर 9/11 को अमेरिका पर हुए आतंकी हमले के बाद इसी पाकिस्तान ने आतंकवाद के विरुद्ध अमेरिका को सहयोग देने के नाम पर अरबों डॉलर तथा हथियारों का बड़ा ज़खीरा हासिल कर लिया है। अब क्या इसे महज़ एक इत्ते$फा$क समझा जाए या फिर पाकिस्तान हुक्मरानों की सोची-समझी साजि़श अथवा रणनीति कि जबसे पाकिस्तान आतंकवाद के नाम पर अमेरिका से पर्याप्त धन व शस्त्र लेता आ रहा है लगभग इसी समयावधि के दौरान पाकिस्तान स्थित आतंकवादियों के पास शस्त्रों का भंडार भी बढ़ता जा रहा है तथा यह ताकतें आर्थिक रूप से भी दिन-प्रतिदिन सुदृढ़ होती जा रही हैं।

ऐसे में क्या पाक शासकों को दुनिया को इस बात का स्पष्टीकरण नहीं देना चाहिए कि आतंकवाद के विरुद्ध छेड़े गए युद्ध में पाकिस्तान का रचनात्मक रूप से क्या योगदान रहा है। और जब बात ओसामा बिन लाडेन को मारने की आई तो इसकी पूरी गुप्त योजना व मिशन अमेरिका ने अकेले तैयार किया तथा पाकिस्तान को इस आप्रेशन की कानों-कान भनक तक नहीं लगने दी। यानी लाडेन की पाकिस्तान में मौजूदगी ने पाकिस्तान को जितना शर्मसार किया उतना ही शर्मनाक पाकिस्तान के लिए यह भी रहा कि अमेरिका ने पाक सुरक्षा तंत्र को अविश्वास के चलते इस आप्रेशन की कानों-कान भनक तक नहीं लगने दी।

दूसरा, पाकिस्तान आतंकवाद के विरुद्ध दुनिया से किस प्रकार के सहयोग चाहता है? क्या पाकिस्तान को आतंकवाद के नाम पर लडऩे के लिए दुनिया से सिर्फ पैसा और हथियार ही चाहिए? यदि हां तो इसके पिछले परिणाम ठीक नहीं रहे हैं। इसलिए पाकिस्तान को  एक ऐसा चार्टर्ड पेश करना चाहिए जिससे दुनिया यह जान सके कि आतंकवाद के विरुद्ध पाकिस्तान को  किस प्रकार के सहयोग की दरकार है?



लेखक हरियाणा साहित्य अकादमी के भूतपूर्व सदस्य और राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय मसलों के प्रखर टिप्पणीकार हैं.




एक काले कानून की आधी सदी

पिछले 53 वर्षों में एक बार नहीं, बल्कि हजारों बार साबित हो चुका है कि अफ्स्पा कानून नहीं, कानून के नाम पर बर्बरता  है. इस बात को सरकारी कमेटी ने भी दबे मुंह से  स्वीकार किया है...

महताब आलम

आज  बाईस मई की सुबह जब ऑफिस या काम पर जाने की चिंता से बेफिक्र हम सोते रहेंगे, उसी समय नॉर्थ-ईस्ट और कश्मीर की जनता जो सुबह देखेगी, वह कानून के नाम पर बर्बरता की  53 वीं  सालगिरह होगी.  जी हाँ, मैं आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर्स एक्ट (अफ्स्पा) की  बात कर रहा हूँ. कानून के नाम पर, ला-कनूनियत नाफ़िज़ करने का घिनौना हथियार. जिसके खाते में अगर कुछ लिखा है, तो सिर्फ ला-क़नूनियत और बरबरियत की न खत्म होने वाली दास्तानें.

बाईस मई 1958 को नागा लोगों को 'नियंत्रित' करने के लिए ये कानून अमल में लाया गया. नागा जनता के पुरजोर विरोध के बावजूद, अपनी आदत के मुताबिक भारतीय संसद ने 18 अगस्त 1958 को इस कानून पर अपनी मुहर लगा दी. पहले- पहल ये कानून  सिर्फ नागा जनता को 'नियंत्रित' करने के लिए बना और कहा गया कि जल्द ही हटा लिया जायेगा. पर ऐसा कभी हुआ नहीं. बल्कि धीरे-धीरे ये 'कानून' पूर्वोत्तर के 7 राज्यों से निकलता हुआ कश्मीर की घाटी तक पहुँच गया. आख़िरकार, कानून के हाथ लम्बे होते हैं. वैसे भी, अगर भेड़िये को एक बार खून का स्वाद मिल जाये तो फिर उसे कौन रोक सकता है और खासतौर पर खून 'विदेशी' या अलग नस्ल का हो. इस पूरे मामले में भी कुछ ऐसा ही दिखता है.

खैर, ये कानून, प्रसिद्ध किस्सागो महमूद फारुकी और दानिश अहमद के लफ्जों में ' तिलिस्म' है ?' ऐसा क्या है कि ये देश के 'रक्षकों' को भक्षक और राक्षस बना देता है? कानून की बात करें तो ये सरकार द्वारा घोषित 'disturberd' इलाकों में सशस्त्र बल को विशेष अधिकार ही नहीं, बल्कि एकाधिकार देता है. इस काले कानून के बदौलत  सशस्त्र बल जब चाहें, जिसे चाहें, जहाँ चाहें मौत के घाट उतर सकते हैं-- इसमें उम्र और लिंग का कोई भेद नहीं है. कारण, यही कि अमुक व्यक्ति 'गैरकानूनी' कार्य कर रहा था. या फिर अमुक व्यक्ति देश की सत्ता और संप्रभुता के लिए खतरा था...आदि, आदि.

ये अधिकार सिर्फ सशस्त्र बल के उच्च- अधिकारियों को ही नहीं, बल्कि आम जवानों (नॉन-कमीशंड) ऑफिसर्स तक को हासिल हैं. इस कानून की वजह से भारतीय वैधानिक व्यवस्था के तहत जिन नियमों का पालन करना ज़रूरी होता है, सबके सब ख़ारिज हो जाते हैं. इन्हें कुछ उदाहरणों के जरिये समझा जा सकता है.

मणिपुर के पश्चिमी इम्फाल जिले के युम्नुं गाँव कि बात है, 4 मार्च 2009, दोपहर के बारह बजने वाले थे. इसी गाँव के मोहम्मद आजाद खान, जिसकी उम्र मात्र 12 साल थी, अपने घर के बरामदे में एक मित्र कियाम के साथ बैठा अख़बार पढ़ रहा था. तभी मणिपुरी पुलिस कमांडो के कुछ जवान उसके घर में दाखिल हुए. एक जवान ने आजाद के दोनों हाथों को पकड़कर घसीटना शुरू कर दिया. वे उसे उत्तर दिशा में लगभग 70 मीटर दूरी पर एक खेत तक ले गए. इसी बीच एक दूसरे जवान ने आजाद के मित्र कियाम से पूछा कि तुम इसके साथ क्यों रहते हो? तुम्हे मालूम होना चाहिए कि ये एक उग्रवादी संगठन का सदस्य है. इतना कहने के बाद उस जवान ने कियाम के मुंह पर एक जोरदार तमाचा जड दिया.

जवानों ने आजाद को खेत तक ले जाकर पटक दिया. जब आजाद के घरवालों ने जवानों को रोकने की कोशिश की तो उन पर बंदूकें तान बुरा अंजाम भुगतने की धमकियां दी गयीं. आजाद को खेत तक घसीटकर ले जाने के बाद एक जवान ने बन्दूक से उसको वहीँ ढेर कर दिया. उसके बाद एक दूसरी बन्दूक उसकी लाश के पास रख दी, जिसे आजाद के पास से बरामद होना बताया गया. इस काण्ड को अंजाम देने के बाद जवान आज़ाद की लाश को थाने ले गए.

जब एक बार फिर आज़ाद के घर और गांव के लोगों ने थाने तक जाने की कोशिश की तो फिर उन्हें रोक दिया गया. हो सकता है किसी को ये हिन्दी फिल्म की कहानी लगे, मगर ये एक तल्ख हकीकत है. इन स्थितियों से मणिपुर से लेकर कश्मीर तक की जनता दोचार हो रही है. अगर सिर्फ मणिपुर ही की बात करें तो फर्जी मुठभेड़ में मार डालना, बेवजह सताना, बलात्कार समेत विभिन्न प्रकार की यातनाएं सहना यहाँ के लोगों की नियति बन चुकी है.

यही हाल नागालैंड, मिजोरम, असम, त्रिपुरा, मिजोरम, अरुणाचल और कश्मीर के ज्यादातर हिस्सों का है. और इन सबका तात्कालिक कारण है-- अफ्स्पा. इस कानून को हटाने की मांग को लेकर पिछले 11 वर्षों से इरोम शर्मिला भूख हड़ताल पर हैं. इरोम ने अपनी बात और लाखों जनता की मांग को भारत के नीति-निर्धारकों तक अपनी बात पहुँचाने के लिए दिल्ली तक का सफर किया. वो भारतीय जनतन्त्र का बैरोमीटर कहे जाने वाले जन्तर मन्तर पर भी बैठी, लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात.

पिछले 53 वर्षों में एक बार नहीं, बल्कि हजारों बार साबित हो चुका है कि अफ्स्पा कानून नहीं, कानून के नाम पर धब्बा है. इस बात को सरकारी कमेटी ने भी दबे मुंह से  सही, मगर स्वीकार किया है. वर्ष 2004 में, भारत सरकार द्वारा गठित जस्टिस जीवन रेड्डी अध्यक्षता वाली कमिटी के रिपोर्ट में इसको कबूल किया गया है. जून 2005 में आई इस रिपोर्ट में लिखा है, 'चाहे जो भी कारण रहे हों, ये कानून उत्पीड़न, नफरत, भेदभाव और मनमानी का साधन का एक प्रतीक बन गया है.'

ऐसे समय में जब कश्मीर से लेकर मणिपुर की जनता इस कानून की वजह से (ये सिर्फ एक वजह है) आपातकाल की स्थिति में जी रही हो, उनके बुनियादी अधिकार स्थगित कर दिए गए हों, ला-कनूनियत का राज हो, लोकतंत्र फ़ौजतंत्र में बदल गया हो, 'आज़ादी' का सुख भोग रहे हम लोगों का कर्तव्य बनता है कि इन सबकी आवाज़ में आवाज़ मिलाकर कहें कि  अफ्स्पा जैसे अलोकतांत्रिक कानून को अविलम्ब रद्द किया जाये. इसी में हम सब का भविष्य है, अन्यथा वो दिन दूर नहीं जब आग की लपटें हमारे घरों तक भी पहुँच जाएँगी. वैसे भी छत्तीसगढ़, झारखण्ड, ओड़िसा आदि तक तो पहुँच ही चुकी है.




लिखने और लड़ने की जरुरत को एक समान मानने वाले महताब, उन पत्रकारों में हैं जो जनसंघर्षों को मजबूत करने के लिए कभी कलम पकड़ते हैं तो कभी संघर्षों के हमसफ़र होते हैं. 





May 21, 2011

सरकार का पत्थर देख, सरल चल बसे

                     
राम बरन के पास महज 11 कट्ठा जमीन थी। जिसमें से नौ कट्ठा जमीन रेल पटरी के लिए ले ली गई। सब्जी की खेती कर गुजारा करने वाले राम बरन के सामने बाकी बची दो कट्ठा जमीन पर गुजारा करना संभव नहीं रह गया था...
                                                   
वरुण शैलेश

भूमि अधिग्रहण का संकट केवल भट्ठा-पारसौल तक सीमित नहीं है, जहाँ उग्र आन्दोलन के बाद जमीन अधिग्रहण राष्ट्रीय स्तर की सुर्खियाँ बन पाया है । आज देश में ऐसे कई अधिग्रहण क्षेत्र हैं जहाँ बिल्ली की चाल की तरह  किसानों की भूमि कब्जे में की  जा रही है, लेकिन वह खबर नहीं बन पा रहे हैं।  भूमि अधिग्रहण से जुड़ी त्रासदी की एक कहानी उत्तर प्रदेश और बिहार को जोड़ने वाले  हथुआ-भटनी प्रस्तावित रेलमार्ग के सहारे लिखी जा रही है। हथुआ से भटनी तक रेल पटरी बिछाने को लेकर 112.49 एकड़ जमीन के अधिग्रहण का नोटिस किसानों को मिल चुका है, लेकिन किसान अपनी जमीन देने को तैयार नहीं हैं।

किसानों की चिंता : कहाँ  बोयेंगे, क्या खायेंगे
भूमि अधिग्रहण के खिलाफ पूर्वांचल के किसान लामबंद होकर भटनी में  पिछले तीन महीने से क्रमिक अनशन पर बैठे हैं। हथुआ-भटनी प्रस्तावित रेलमार्ग के लिए अधिग्रहित की जाने वाली जमीन की चपेट में 14  गांव आ रहे हैं। जमीन अधिग्रहण की घोषणा होने के बाद इलाके में घटित कुछेक घटनाएं किसानों के सामने पैदा हुए संकट का आभास कराती हैं। घटना इस साल 22 फरवरी की है, जब भूमि अधिग्रहण के विरोध में क्रमिक अनशन पर बैठे देवरिया जिले में बनकटा गांव के राम बरन चौहान की हार्टअटैक से मौत हो गई। पचपन  वर्षीय राम बरन के पास महज 11 कट्ठा जमीन थी, जिसमें से नौ कट्ठा जमीन रेल पटरी के लिए ले ली गई।

सब्जी की खेती कर गुजारा करने वाले राम बरन के सामने बाकी बची 2 कट्ठा जमीन पर गुजारा करना संभव नहीं रह गया था। जमीन जाने की पीड़ा और भविष्य की आशंका ने इस कदर घेरा कि उनकी जिंदगी पर  बन आयी। वैसे राम बरन की मौत इलाके में उजागर हुई पहली घटना नहीं है। प्रस्तावित रेलमार्ग के लिए वर्ष 2006  में जमीन की पैमाइश के दौरान अपनी जमीन पर पत्थर गाड़ते देख रायबरी चौरिया गांव के सरल खेत में ही गिर पड़े। सरल भी जमीन छिनने के सदमे का शिकार हुए और दिल का दौरा मौत का कारण बना।

दिल के दौरे से दो किसानों की मौत यह बताने के लिए काफी है कि किसी किसान के लिए जमीन का मामला महज आर्थिक नहीं है। किसान का जमीन से भावनात्मक नाता भी होता है। एक किसान अपने खेतों के कई नाम रखकर पुकारता है। कहें तो जमीन के साथ रिश्तों की तमाम कड़ियां जोड़ता है। ऐसे में जमीन छिनने का मतलब चट्टान के दरकने की तरह होता है,जिससे किसान का पूरा जीवन अनिश्चितता की खाई में चला जाता है। जमीन से मानवीय संवेदनाएं इस कदर जुड़ी हुई हैं कि जमीन बेचने वालों को समाज सम्मान की निगाह से नहीं देखता है। जमीन का होना हैसियत तय करता है। यहां तक कि शादी-ब्याह  का निर्णायक पहलू बनता है, लेकिन विकास की आयातित व्याख्या में किसानों व आदिवासियों की इस मार्मिकता की कोई जगह नहीं है।

जमीन अधिग्रहण के समय छोटे किसान व भूमिहीन किसानों का संकट सबसे ज्यादा बढ़ जाता है, जिन्हें मिला मुआवजा किसी धोखे से कम नहीं होता है। वैसे भी  भारतीय कृषि  परंपरा में किसान के लिए जमीन महज जीविका ही नहींबल्कि सोचने-समझने की ताकत होती है। यानी एक किसान खेती के काम के लिए ही कुशल होता है, लेकिन जब उसकी जमीन छिनती है तो उसकी परंपरागत  कुशलता भी खारिज होती है। जिसके चलते राम बरन और सरल  जैसे तमाम किसान अकुशलता वाला पेशा करने शहर जाने या दूसरा रोजगार अपनाने के लिए मजबूर होते हैं।

विकास के मौजूदा मॉडल जनभावनाओं का ख्याल रख पाने में नाकाम हैं। यही वजह है कि सरकारों के विकास के दावे महज आर्थिक विकास दर तक केंद्रित होकर रह गये हैं। जनजीवन की गुणवत्ता में सुधार के दावे विज्ञापननुमा हैंजिसकी सच्चाई भूख से होने वाली मौतें बयान करती हैं। कुल मिलाकर लागू आर्थिक नीतियों में भारतीय जनता की भलाई न के बराबर है। लिहाजा न केवल भूमि अधिग्रहण कानून में संसोधन की मांग होनी चाहिएबल्कि इसके साथ-साथ शोषणकारी व्यवस्था को पोषित करने वाली आर्थिक नीतियों की समीक्षा की भी मांग होनी चाहिए। ताकि जनता व उसकी भावनाओं को बेदम होने से रोका जा सके।


बनारस हिंदू विश्वविद्यालय और भारतीय जनसंचार संस्थान से शिक्षा-दीक्षा. अब जनपक्षधर पत्रकारिता में रमने की तैयारी.

May 20, 2011

किसान आंदोलन के राष्ट्रीय नेता थे टिकैत

बोट क्लब के ऐतिहासिक धरने में प्रसिद्ध समाजवादी नेता किशन पटनायक और हरियाणा के घासीराम मैन समेत सैकड़ों किसान नेता शामिल हुए थे। इस धरने में टिकैत ने कहा था, 'इंडिया वालों संभल जाओ, अब दिल्ली में भारत आ गया है' ...

अजय प्रकाश 

महेंद्र सिंह टिकैत : बहुत याद आयेगी  
किसान नेता महेंद्र सिंह टिकैत की 15मई की सुबह हुई मौत देश के उन सभी लोगों और संगठनों के लिए गहरा सद्मा है जो किसानों की समस्या और आंदोलनों से जुड़े हैं। नीजिकरण-उदारीकरण के मौजूदा दौर में किसानों के बीच टिकैत की उपस्थिति एक ढाल थी,जिसके कारण केंद्र हो या राज्य सरकारें किसान हितों को रौंदने वाले कदम उठाने से पहले सौ बार सोचती थीं।

पिछली यूपीए सरकार द्वारा किसान कर्ज माफी योजना हो या कम ब्याज पर कृशि ऋण या फिर बीज विधेयक का लंबित होना,इन सबमें महेंद्र सिंह टिकैत की अध्यक्षता वाली भारतीय किसान यूनियन की केंद्रीय भूमिका रही है। टिकैत के बड़े बेटे राकेश टिकैत ने बताया कि ‘पिताजी लंबे समय से आंत के केंसर से पीड़ित थे,जो उनकी मौत का कारण बना।’

उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले के सिसौली कस्बा में 1935 में जन्में टिकैत ने अपने सामाजिक जीवन की शुरूआत सर्वखाप पंचायतों के सुधारवादी पहलकदमियों से की। पश्चिमी  उत्तर प्रदेश और हरियाणा के इलाके में अदालतों के समानांतर चलने वाली खाप पंचायतों में से बालियान खाप के मुखिया बनने के बाद टिकैत ने दहेज,भ्रुण हत्या,दिखावा और मृत्यु भोज जैसी कई प्रवृत्तियों के खिलाफ जनहित में फैसले लिये, तो वहीं सर्वखाप पंचायतों में उनके लिये कई फैसलों को स्त्री विरोधी और दलित विरोधी भी करार दिया जाता रहा।

मात्र सातवीं तक पढ़े टिकैत के राजनीतिक चुनौतियों की शुरूआत 1986 में भारतीय किसान यूनियन के बनने के साथ हुई जब उन्हें यूनियन का राष्ट्रीय अध्यक्ष चुना गया। यूनियन का गठन सिसौली में 17 अक्टूबर 1986 में कई राज्यों के किसान और सर्वखाप नेताओं की उपस्थिति में हुआ। युवा महेंद्र सिंह टिकैत के नेतृत्व में किसानों ने पहला आंदोलन उनके गृह जनपद खेड़ीकरमू बिजली घर के घेराव से किया और उत्तर प्रदेश  सरकार को बिजली दरें कम करनी पड़ी थीं। उसके बाद महेंद्र सिंह टिकैत ने 22 सफल आंदोलन किये और 23 बार गिरफ्तार हुए। वर्ष 2001 से 2010 के बीच दिल्ली के जंतर-मंतर पर विश्व व्यापार संगठन, बीज विधेयक 2004, जैव परिवर्तित बीज, कर्ज माफी, उचित लाभकारी मूल्य जैसे मसलों पर वह आजीवन संघर्ष  करते रहे।

दिल्ली के इंडिया गेट के पास 1988 में पांच दिन तक चले ‘बोट क्लब’ ऐतिहासिक धरने का असर इतना व्यापक रहा कि एक साल बाद ही धरने की जगह बोट क्लब से बदलकर जंतर-मंतर करना पड़ा था। इस धरने में प्रसिद्ध किसान नेता किशन पटनायक और हरियाणा से घासीराम मैन समेत सैकड़ों किसान नेता शामिल हुए थे। इस प्रसिद्ध धरने में टिकैत ने कहा था,‘इंडिया वालों संभल जाओ, अब दिल्ली में भारत आ गया है।’ टिकैत के नेतृत्व में चले इन्हीं ऐतिहासिक धरनों की कड़ी में 3 अगस्त 1989 को नईमा काण्ड में उत्तर प्रदेश सरकार के विरूद्ध 39 दिन तक भोपा गंगनहर पर धरना भी है, जिसमें उत्तर प्रदेश सरकार को झूकना पड़ा तथा किसानों की पांच मांगे माननी पड़ी थीं।

अब टिकैत की मौत के बाद अगर कोई यह पूछे कि किसान आंदोलन का राष्ट्रीय  नेता कौन,तो शायद कोई दूसरा नाम बता पाना संभव न हो। क्योंकि दिल्ली से लेकर मुंबई और हैदराबाद से लेकर उड़ीसा तक में किसान नेता के तौर पर अगर किसी की स्वीकार्यता थी तो वह टिकैत ही थे। वैसे टिकैत के दौर में कई किसान नेता उभरे और डूबे मगर किसी का कद टिकैत के करीब संभवतया इसलिए नहीं पहुंच सका कि कभी टिकैत किसी राजनीतिक दल के प्यादे कभी नहीं बने।

टिकैत के मिलने वालों में शामिल मुतफ्फरनगर के पत्रकार संजीव वर्मा कहते हैं कि ‘टिकैत बड़े ठेठ आदमी थे। कहा करते थे- अन्न अगर हम उपजाते हैं, देश हम चलाते हैं तो हमतक चलकर वो आयें जो हमारे भरोसे पलते हैं।’ किसान नेता बलवीर सिंह उनको याद करते हुए कहते हैं, ‘टिकैत घोड़ों के बड़े शौकीन थे और मिलने वालों को बैल के कोल्हू का गन्ने का रस जरूर पिलाते थे।’अब जबकि करोड़ों किसानों के चहेते टिकैत हमारे बीच नहीं रहे,उम्मीद की जानी चाहिए कि उनका व्यक्तित्व और कृतित्व पीढ़ियों के लिए उदाहरण बनेगा।
द  पब्लिक एजेंडा से साभार

और उसका इंतज़ार भी म़र गया !

पुलिस वालों और एसपीओ ने पहले जम कर शराब पी और फिर  इनके  घरों में घुस कर इन्हें बाहर निकाला  ! इनकी पत्नियों ने जब  बचाने की कोशिश की तो उन्हें भी बन्दूक के बट से मार-मार कर लहूलुहान कर दिया गया...

हिमांशु कुमार

आज दंतेवाडा से एक फ़ोन आया कि   सोमड़ू म़र गया ! मैंने पूछा कैसे ? तो मुझे बताया गया कि  तेंदू पत्ता तोड़ते समय कल उसे सांप ने काट लिया और कुछ ही देर में वो म़र गया!  तभी  मुझे  ध्यान  आया कि अरे यह तो वही सोमड़ू है ,जिसे एक मामले में न्याय का  इंतजार  था.आइये जाने  कौन था ये सोमड़ू ?

तीन साल पहले की ये घटना है ! भैरमगढ़ से बीजापुर जाने के रास्ते में माटवाडा नाम का एक सलवा जुडूम कैंप है ! 18 मार्च 2008 को स्थानीय  अखबार में खबर छपी कि माटवाडा सलवा जुडूम कैंप में रहने वाले तीन आदिवासियों की नक्सलियों ने कैंप में घुस कर हत्या कर दी है! खबर पर विश्वास नहीं हुआ ! क्योंकि  ये एक छोटा सा कैंप है! सड़क के किनारे सारे आदिवासी अपनी झोपडी में रहते हैं !  बीच में एक पतली सी सड़क और सड़क के इस तरफ पुलिस चौकी ! आदिवासीयों की झोपड़ियों के पीछे की तरफ सीआरपीएफ़ का कैंप ! लेकिन सच्चाई कैसे पता चले ? उस क्षेत्र का जानकार  कोपा भी अचानक  गायब हो गया था ! कोपा के बिना बताये गायब होने पर मैं आश्रम  में चिंतित हो रहा था. लेकिन  दो दिन के बाद कोपा मुस्कुराते हुए  सामने आ गया !

कोपा के  साथ एक नौजवान और भी था ! मैंने प्रश्नवाचक दृष्टि से पूछा, -  ये कौन है? कोपा ने कहा, आप ही पूछ लीजिये ! उस लड़के ने दिल दहला देने वाली कहानी सुनायी ! उसने बताया कि  तीन आदिवासियों के नक्सलियों  के हाथों मारे जाने का जो समाचार छपा है, उनमें से एक  मेरा भाई है और इन तीनों को नक्सलियों ने नहीं पुलिस ने मारा है !

लेकिन हम लोग कभी भी बिना पूरी तहकीकात के किसी मामले में कार्यवाही नहीं करते थे ! इसलिए मैंने उस नौजवान से कहा की मारे गए तीनो लोगो की पत्नियाँ कहाँ हैं ? उसने कहा की सलवा जुडूम कैंप में ! मैंने कहा उन्हें लाना होगा ! कोपा बोला ये ज़िम्मेदारी मैं  लेता हूँ ! और अगले दिन सुबह मारे गए उन तीनों आदिवासियों की पत्नियां हमारे आश्रम में आ गयीं. साथ में कोपा उनके गाँव के सरपंच और पटेल को भी लेता आया था ! उन लोगों को मैंने अलग- अलग बैठा कर पूरी घटना का विवरण देने को कहा ! अन्य गवाहों से भी पूछा ! अब संदेह की कोई भी गुंजाइश नहीं बची थी ! सब का विवरण एक ही जैसा था ! अब सिद्ध हो गया था की ये सलवा जुडूम राहत  शिविर नहीं यातना शिविर हैं !

घटना इस प्रकार से  थी ! इस गाँव के लोगों को जबरन तीन साल पहले गाँव के आठ लोगों की हत्या करने के बाद, घरों को जला कर इस कैंप में लाया गया था ! ये लोग तब से इन कैम्पों में रह रहे थे ! सरकार ने शुरू में तो कैंप बसते समय  कहा था कि  कैंप में खाना पीना सब मिलेगा लेकिन वो सब तो जुडूम के नेता बीच में ही गटक जाते थे ! इस पर गांव वालों ने पेट भरने के लिए आस पास सरकारी सड़क बनाने के नरेगा के काम में जाना शुरू किया पर उसमे भी आधी मजदूरी नेता और पुलिस वाले मार देते थे ! तब लोगों ने गावों में जाकर महुआ बीनना और धान उगाना शुरू कर दिया !

लेकिन सब को रात होने से पहले कैंप में वापिस आकर पुलिस के सामने हाजिरी लगानी पड़ती थी! ज्यादा रात हो जाने वाले की पिटाई की जाती थी कि तुम लोग गाँव जाने के बहाने ज़रूर नक्सलियों की बैठक में गए होंगे ! एक रात  मारे  गए ये  तीनों  आदिवासी ज्यादा रात हो जाने पर पिटाई के डर से गांव में ही रुक गए ! इन्होंने  सोचा कि कल दिन में चुपचाप अपने घर में घुस जायेंगे और बोल देंगे की हम तो कल शाम को ही आ गए थे ! और इन्होंने ऐसा ही किया ! लेकिन इसकी जानकारी वहां के एसपीओ  को चल गयी ! उन्होंने वहां पुलिस चौकी के इंचार्ज एएसआई पटेल के साथ मिल कर इन चारों को अनुशासन तोड़ने की सजा देने का निर्णय किया ! सजा देने के लिए पुलिस वालों और एसपीओ ने पहले जम कर शराब पी और उसके बाद इन चारों को घरों में घुस कर खींच कर बाहर लाया गया ! इनकी पत्नियों ने जब इन्हें बचाने की कोशिश की तो उन्हें भी बन्दूक के बट से मार-मार कर लहूलुहान कर दिया गया दिया गया !

फिर इन चारों आदिवासियों के हाथ उन्ही की लुंगियां को खोल कर पीछे बांध दिए गए ! और इन्हें सड़क पर लाया गया और डंडों से चारों की पिटाई शुरू की गयी ! थोड़ी देर में चारों बेहोश हो गए! बाल्टी भर पानी मंगाया गया और उन चारों पर डाला गया ! उन्हें थोडा होश आया ! उन चारों में सोमड़ू भी एक था ! अँधेरा हो गया था ! सोमड़ू मौके का फायदा  उठाकर सरकते हुए एक झाड़ी में चला गया और हाथों में बंधी लूंगी खोल कर गिरता पड़ता कुछ दूर पहुंचा ! वहाँ गाँव वालों ने उसे पानी पिलाया ! किसी ने उसे अपने घर में बकरियों के साथ छिपा दिया ! इधर इन तीनो की पिटाई शाम से रात के आठ बजे तक चलती रही ! अंत में लगभग सब शांत हो गए थे ! फिर उनकी सज़ा पूरी करने का वक़्त आया ! चाकू से तीनो की आँखे निकाली गयीं ! और फिर माथे पर चाकू खड़ा कर के पत्थर से उसे सर में ठोक दिया गया ! इसके बाद तीनो की लाशों को पास में नदी के किनारे रेत में दबा दिया गया !

हमने इन तीनों आदिवासियों की पत्नियों को मीडिया के सामने बैठा दिया और कहा कि आप भी सच्चाई निकालने की कोशिश करिए ! इसके बाद ये मामला छत्तीसगढ़ हाइकोर्ट में दायर किया गया ! इन तीनों महिलाओं को मैं अपने प्रदेश के सह्रदय साहित्यकार डीजीपी श्री विश्वरंजन  के पास ले गया ! वो बोले ठीक है मुझे अब कुछ नहीं पूछना है, लेकिन बाद में उन्होंने पत्रकारों से कहा की इन महिलाओं के पतियों को नक्सलियों ने ही मारा है, पर ये नक्सलियों के कहने से पुलिस पर झूठा इल्ज़ाम लगा रही हैं ! इस विषय में मेधा पाटकर ने भी डीजीपी साहब को एक पत्र लिखा जिसके जवाब में उन्होंने कहा की हिमांशु तो झूठ बोलता है! बाद में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की जांच में भी इस मामले में पुलिस की भूमिका पर संदेह व्यक्त किया गया !

अभी इस मामले में आरोपी एएसआइ  पटेल और दो एसपीओ जेल में हैं ! तीनो महिलाओं को अंतरिम राहत  के रूप में एक एक लाख रुपया अदालत के आदेश से मिला है ! सोमड़ू का एक हाथ और तीन पसलियाँ मार से टूट गयीं थीं ! और वह उसके और उसके साथियों के साथ हुए ज़ुल्म के खिलाफ फैसले के इंतज़ार में था ! लेकिन आज खबर आयी की सोमड़ू मर गया! और उसी के साथ उसका इंतज़ार भी म़र गया !

दंतेवाडा स्थित वनवासी चेतना आश्रम के प्रमुख और सामाजिक कार्यकर्त्ता हिमांशु कुमार का संघर्ष बदलाव और सुधार की गुंजाइश चाहने वालों के लिए एक मिसाल है.




May 19, 2011

'अभी पार्टी नहीं टूटेगी '- किरण

  
नेपाल के राजनीतिक हालात और एकीकृत नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी ) की भूमिका पर  आयोजित यह बहस  ऐसे समय में चल रही है जब वहां संविधान सभा के चुनाव का कार्यकाल 28 मई को खत्म होने जा रहा है. एक दशक के जनयुद्ध के बाद शांति प्रक्रिया में शामिल होकर नया जनपक्षधर संविधान बनाने का सपना लिए सत्ता में भागीदारी की माओवादी पार्टी, अपने लक्ष्य में सफल नहीं हो सकी है.इसे लेकर पार्टी के भीतर और बाहर मत-मतान्तर हैं, नयी तैयारियां  हैं. इसके मद्देनजर जनज्वार ने  नौ लेख अब तक  प्रकाशित किये हैं.

इस कड़ी को आगे बढ़ाते हुए  एनेकपा (माओवादी) के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष  मोहन वैद्य किरण से  अजय प्रकाश  ने साक्षात्कार किया है , पेश है मुख्य  अंश ...                                



संविधान सभा का कार्यकाल 28 मई खत्म हो रहा है, पार्टी की अगली रणनीति क्या होगी ?

वैसे तो हमारी रणनीति पहले से ही निर्धारित है। फिर भी  28 मई तक की  स्थिति देख लें, तब आगे की रणनीति तय की जायेगी ।

बाबुराम, प्रचण्ड और आपकी  लाइन में असल फर्क  क्या है? आपको क्यों  लगता है कि आपकी बात मौजुदा नेपाली और विश्व राजनीतिक परिस्थिति में  सही है ?

लाइन के बीच हमारे मतभेद क्या क्या हैं, सामान्य रूप से दस्तावेज सार्वजनिक हो चुके हैं और  इस अर्थ में आप भी हमारे बीच के लाइन सम्बन्धी मतभेद से परिचित रहे होगें । विशेष रूप में बात यह है  कि हम तीनों एक ही पार्टी में  हैं, इसलिए इस बारे में मूर्त रूप से  बताना उपयुक्त नहीं  होगा । फिर भी मैं इतना कह  सकता हूँ कि जनगणतन्त्र, राष्ट्रीय स्वाधीनता और जनविद्रोह की जो बात मैंने उठायी है, वह वर्तमान राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय  परिवेश में बिलकुल  सही और वैज्ञानिक हैं । 


आपकी निगाह में  नेतृत्वका आपसी मतभेद इतना गहरा चुका है की पार्टी टुट सकती  है, अगर नहीं  तो वह कौन से बिंदु  होंगें जिन पर सहमति बनाते हुए आगे बढा जा सकता है ?

मतभेद तो बहुत गहरे हैं, लेकिन मैं यह नहीं  कह सकता हूँ कि पार्टी अभी टुटेगी । आगे हमारी  सहमति या  एकता का आधार देश और जनता के पक्ष में शान्ति व संविधान, जनगणतन्त्र और राष्ट्रीय  स्वाधीनता को लेकर संघर्ष करना ही है  । 


पिछले पांच  वर्षो में नेपाली माओवादी पार्टी जहाँ पहुंची है, उसमें आप  बराबर  के  भागीदार हैं. आपलोग यही हासिल होना है,सोचकर आगे बढे थे या कहीं चूक गए ?

इस अवधि में मेरी तरफ से भी कुछ कमजोरियां  रही हैं,  फिर भी मैं समान रूप से पार्टी को यहाँ पहुँचाने में भागीदार नहीं हूँ.  कार्यदिशा के क्षेत्र जो गलती, कमी और कमजोरियां  हुई हैं, इन सबको करेक्शन करने और उनसे मुक्त होने के लिए हम लोंगों ने पार्टी में अलग राजनीतिक प्रस्ताव पेश किया, पार्टी के अन्दर भिन्न मत दर्ज किये और स्पष्ट  रूप से जनगणतन्त्र, राष्ट्रीय  स्वाधीनता और जनविद्रोह की लाइन पर  डटे रहे । 


कार्यकर्ता निराश हैं, पीएलए अब उस रूप में बची नही , संगठन में फुट है, वैसे  में जनयुद्ध में  वापस लौट जाने या  शान्ति प्रक्रिया में बने रहने के अलावा कोई तीसरा विकल्प भी हैं ?


स्थिति निश्चय ही जटिल हैं । विकल्प बहुत से हैं, इनमें से हम क्रान्तिकारी विकल्प के पक्ष में हैं । हमलोग सुधारवाद,संसदवाद, राष्ट्रीय आत्मसपर्णवाद और दक्षिणपन्थी संशोधनवाद के दलदल नही फसेंगे । हम क्रान्ति का झण्डा हमेशा ऊंचा  उठाते रहेंगे ।

भारतीय शासक वर्ग को लेकर जो आलोचनात्मक रणनीति नेपाली माओवादी पार्टी को रखनी चाहिए थी, उसमें कहीं  चूक हुई?  

बदली  हुई परिस्थिति को ध्यान में रखकर हम लोगों  ने राष्ट्रीय  स्वाधीनता और जनगणतन्त्र दोनों मुद्दों को प्राथमिक स्थान में रखा और उसी आधार पर आज का प्रधान अन्तर्विरोध निर्धारण किया गया । परन्तु, इस कार्य दिशा को कार्यान्वन करनेमें हम लोग कमजोर पडें हैं । यहाँ  पर अवश्य चूक हुई है. 


नेपाल में दो बार माओवादी सरकार में रहे लेकिन आप एक बार  भी सरकार में शामिल नहीं  हुए, ऐसा क्यों ?

मैं संविधान सभा के सदस्य पद से इस्तीफा  दे चुका हूँ. इस तरह की सरकार में बने  रहने में  मेरी कोई रुचि भी नहीं  है ।

सत्ता में रहते हुए प्रचण्ड और वाद में बाबुराम दिल्ली आये, कभी आपका नहीं  हुआ, यह भी पार्टी की कोई रणनीति थी  या आपका फैसला?

यह संयोग की बात है. 

नेपाली माओवादी नेतृत्व खासकर प्रचण्ड पर आर्थिक भ्रष्टाचार के आरोप लग रहे हैं, कितनी सच्चाई  है  ?

 हमको पता नहीं ।


नेपाली माओवादी पार्टी से सहानुभूति रखने वाले भारतीय पत्रकार आनन्द स्वरुप  वर्मा ने नेपाल की क्रांति को लेकर अपने हालिया लेख में जो टिप्पणी  की है, उसपर आपकी राय ?

मैंने  कभी सोचा ही नहीं  था कि आनन्द स्वरुप वर्मा   हमारे पार्टी के दो लाइन के संघर्ष बारे में  और नेपाल की राजनीति के बारे  में इस तरह पेश आयेंगें ।  कुछ भी हो वर्मा  जी ने 'क्या माओवादी क्रांति की उलटी गिनती शुरू हो गयी ' लेख में जो लिखा  है,  उससे अपनी गरिमा को स्वयं ही बहुत धूमिल बना दिया।

आपकी पार्टी को लेकर भारतीय माओवादीयों की क्या आलोचना हैं, आप उनकी आलोचना को कितना सही मानते हैं ?

उनलोगों की हमारे ऊपर  सामान्यत: यह आलोचना है  कि हम दक्षिणपन्थी संशोधनवादी दलदल में फंस रहें हैं । हमको लगता है  कि उनकी आलोचना सकारात्मक है ।




नेपाल के राजनीतिक हालात और नेपाली माओवादी पार्टी की भूमिका को लेकर आयोजित इस बहस में अबतक आपने पढ़ा - 

1-क्या माओवादी क्रांति की उल्टी गिनती शुरू हो गयी है? 2-क्रांतिकारी लफ्फाजी या अवसरवादी राजनीति 3- दो नावों पर सवार हैं प्रचंड 4- 'प्रचंड' आत्मसमर्पणवाद के बीच उभरती एक धुंधली 'किरण'5- प्रचंड मुग्धता नहीं, शीर्ष को बचाने की कोशिश 6- संक्रमण काल की जलेबी अब सड़ने लगी है कामरेड7- संशोधनवादियों को जनयुद्ध का ब्याज मत खाने दो ! 8- संसदीय दलदल में धंसती नेपाली क्रांति 9- संविधान निर्माण ही प्राथमिक


 

May 18, 2011

प्रचंड गुट ने दी बाबुराम को जान से मारने की धमकी

नेपाल के कैसीनो जनयुद्ध की समाप्ति  के बाद से पार्टी के लिए आय का प्रमुख आधार हैं, इसलिए यहाँ लगातार टकराव की स्थिति बनी रहती है. जनयुद्ध के समय पार्टी कैसीनो संस्कृति के खिलाफ थी, मगर आज यह पार्टी का प्रमुख आर्थिक स्रोत  है...

विष्णु शर्मा

एकीकृत नेपाल कम्युनिस्ट  पार्टी (माओवादी) के उपाध्यक्ष बाबुराम भट्टाराई को नेपाल की राजधानी काठमांडू में 16 मई को उनकी ही पार्टी के एक मजदूर नेता जनक बर्तौला ने जान से मारने  की धमकी दी है. जनक बर्तौला हयात होटल के कैसीनो तारा में बाउन्सर और माओवादी होटल मजदुर इकाई समिति के सदस्य है. बताया जा रहा है की बर्तौला मजदुर संगठन के पूर्व अध्यक्ष और पार्टी के अध्यक्ष प्रचंड के करीबी सालिकराम जमकट्टेल समूह से है.

 कुछ दिन पहले  भट्टाराई के निकट मजदूर यूनियन के सदस्य जानुमान डंगोल पर जमकट्टेल के कार्यकर्ता कल्पदेवराई ने जानलेवा  हमला किया था और इसके बाद पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया था. अपने सहयोगी को रिहा करने के मांग को लेकर पार्टी कार्यालय पहुचे बर्तौला ने तब बाबुराम भट्टाराई  को जान से मारने की धमकी दी, जब उन्होंने कल्पदेवराई के खिलाफ रिपोर्ट वापस लेने से मना कर दिया.

बाबुराम ने धमकी मिलने की सूचना गृहमंत्री कृष्ण बहादुर महरा और पार्टीके महासचिव राम बहादुर थापा 'बादल' को दी है, जिसके बाद  भट्टाराई की सुरक्षा  बढ़ा दी गयी है. भट्टाराई के निकट के कार्यकर्ताओं  का कहना है कि मजदूर संगठन के विस्तार के नाम पर जिस प्रकार से आपराधिक तत्वों का पार्टी में प्रवेश कराया गया है यह उसी का परिणाम है. इस घटना पर बाबुराम का कहना है 'यह दुर्भाग्यपूर्ण है. आज जो लोग मुझे धमकी दे रहे है कल वे अध्यक्ष को धमकी देंगे.पार्टी की आड़ में आपराधिक काम करने वालों पर कड़ी कार्रवाही की जानी चाहिए.'

भट्टाराई के समर्थकों ने कल पार्टी मुख्यालय पेरिस डाँडा में धरना दिया. क्रान्तिकारी पत्रकार संघ के अध्यक्ष और प्रचार राज्य समिति सचिव महेश्वर दहाल ने मांग रखी   कि 'उपाध्यक्ष बाबुराम को पार्टी कार्यालय में जान से मारने की धमकी अत्यंतनिन्दनीय है और धमकी देने वाले पर कड़ी कार्रवाही की जानी चाहिए.'

नेपाल राजनीती के जानकार मानते है कि यह घटना पार्टी के आर्थिक स्रोत पर कब्ज़ा करने की प्रचंड और बाबुराम समर्थकों के बीच लम्बे समय से चल रही होड़ का नतीजा है.  नेपाल के कैसीनो  जनयुद्ध  की सामप्ति के बाद से पार्टी के लिए आय का प्रमुख आधार हैं,  इसलिए यहाँ लगातार टकराव की स्थिति बनी रहतीहै. जनयुद्ध के समय पार्टी कैसीनो संस्कृति के खिलाफ थी मगर आज यह पार्टी का प्रमुख आर्थिक स्त्रोत बनगया है. भले ही राजनीतिक स्तर प्रचंड और बाबुराम के बीच पिछले समय नजदीकी आई हो लेकिनदोनों के समर्थक आर्थिक संसाधनों में अपने कब्जे को जरा भी कम नहीं करना चाहते.

दस साल तक जन्यूद्ध का संचालनकरने के बाद संसदीय राजनीति में प्रवेश करने वाली माओवादी पार्टी नेपाल की संसद में सबसे बड़ी पार्टी है. लेकिन पार्टी के अन्दर लगातार चल रहा 'दो लाइन' और आर्थिक स्त्रोतों का संघर्ष जनता में इसके विश्वास को लागातार कम कर रहा है. आने वाले दिनों में पार्टीके प्रदर्शन पर इसका असर पड़ना तय है.



May 17, 2011

खाने और दिखाने के मुद्दों का फर्क करतीं मायावती

सर्वजन की बात करने वाली सरकार ने सर्वजन को घरों में बंधक बनाकर सीएम के दौरों को पूरा करवाया था। ऐसे में मायावती को इस गुरूर से बाहर जाना चाहिए कि उनकी जुबान इतिहास लिखती है...

डॉ0 आशीष वशिष्ट

भट्ठा पारसौल की घटना ने माया सरकार की दोमुंही नीति को सारे देश के सामने उजागर कर दिया है। मार्च महीने में जाट आरक्षण की मांग कर रहे आंदोलनकारियों को खुली छूट देने वाली माया सरकार जब भट्ठा पारसौल के आंदोलनकारी किसानों पर गोली चलवाती है तो यूपी सरकार की दोमुंही और जनविरोधी नीति का कुरूप चेहरा पूरे देश  के सामने बेपर्दा हो जाता है। वैसे भी माया राज में सरकार और नौकरशाह कानून, मानवाधिकार और जनपक्ष से जुड़े मुद्दों को जूते की नोक पर ही रखते हैं।

बहन मायावती का हर कदम  वोट बैंक और राजनीतिक गुणा-भाग से प्रेरित और संचालित होता है। भट्ठा पारसौल के किसान जमीन के बदले मिलने वाले सरकारी मुआवजे को बढ़ाने की मांग के लिए आंदोलनरत थे। किसानों की जायज मांगों और आंदोलन का प्रशासन लंबे समय से अनसुना और अनदेखा कर रहा था। आखिरकर अपनी मांगे पूरी न होती देख किसानों ने प्रशासन तक अपनी आवाज पहुंचाने के लिए रोडवेज के तीन कर्मचारियों को बंधक बना लिया। जिला प्रषासन को जैसे ही रोडवेज के कर्मचारियों के बंधक बनाए जाने की खबर लगी, वैसे ही एक झटके में सारा प्रशासनिक अमला जाग उठा।

प्रशासन ने किसान नेताओं से वार्ता और समझौते की जरूरी और प्राथमिक कार्रवाई से पहले किसानों पर लाठियां और गोलियां चलाकर दादागिरी और निकम्मेपन का जो उदाहरण पेश  किया वो किसी भी लोकतांत्रिक  देश  के लिए शर्मनाक घटना है। प्रशासन के रवैये से क्षुब्ध किसानों ने भी जवाबी कार्रवाई की जिसमें दोनों पक्षों को जान-माल का नुकसान उठाना पड़ा। असल में देखा जाए तो जो भी हुआ उसकी निंदा होनी चाहिए। क्योंकि कानून को हाथ में लेने की इजाजत किसी को भी नहीं दी जा सकती है। किसानों ने अपनी बात को प्रषासन तक पहुँचाने  के लिए कर्मचारियों को बंधक बनाने का जो रास्ता चुना वो भी सरासर गलत और गैर-कानूनी था और जो नंगा नाच और तांडव पुलिस-प्रषासन ने किया वो भी घोर निंदनीय है।

लेकिन ऐसे हालात किसने बनाए और किसने किसानों को अपहरणकर्ता बनने के लिए मजबूर किया। प्रशासन को समय रहते नागरिकों की समस्या की ओर उचित ध्यान देना चाहिए। भट्ठा पारसौल की घटना  प्रशासनिक अक्षमता, अकर्मण्यता, गैर-जिम्मेदाराना रवैया और निकम्मेपन की ही उपज है। क्योंकि जनता से अधिक प्रषासन को जिम्मेदार, संयमी, अनुषासित, गंभीर और समझदारी दिखाने की अपेक्षा की जाती है। लेकिन माया सरकार में लगभग सारा सरकारी अमला कानून को रबड़ की गेंद की भांति उछालने में आनंद अुनभव करता है।

भट्ठा पारसौल से पूर्व आगरा, मथुरा, इलाहाबाद और लखनऊ में भी किसानों और प्रषासन के मध्य कई घटनाएं घट चुकी हैं। प्रदेश में जहां-जहां भी विकास के नाम पर जमीन अधिग्रहण हो रहा है वहां किसान और प्रशासन आमने-सामने खड़े हो रहे हैं। असल समस्या भूमि अधिग्रहण कानून से लेकर प्रषासानिक अनुभवहीनता की है। कारपोरेट, ठेकेदार, गुण्डों और माफियाओं के हाथों बिकी सरकार को पैसा कमाने की इतनी जल्दी है कि विकास के नाम पर धड़ाधड़ खेती वाली जमीनों का अधिग्रहण सरकारी एजेंसियां कर रही है।

माया सरकार में भ्रष्टाचार का बोलबाला है। सरकार को जिस मुद्दे पर व्यक्तिगत तौर पर नफा नजर आता है, वह सरकार की निगाह में विकास हो जाता है। जाट आरक्षण ने पूरे रेल यातायात, यात्रियों और आम आदमी के जीवन को बुरी तरह से प्रभावित किया था। यूपी से होकर निकलने वाली दर्जनों ट्रेनों को रद्द करना पड़ा। होली के त्योहार के कारण पूर्वांचल और देष के अन्य हिस्सों में रहने वाले लाखों लोगो की घर जाने की ख्वाहिष इस बार अधूरी रह गई क्योंकि आंदोलनकारी जाट रेलवे के ट्रेकों पर कब्जा जमाए थे।

जाट आंदोलकारियों को माया सरकार का खुला संदेष था कि जो मन में आए वो करो क्योंकि जाट आरक्षण की आंच कांग्रेस और रालोद का राजनीतिक समीकरण बिगाड़ सकती थी, बसपा और माया सरकार से उसे कोई नुकसान नहीं होना था। हाई कोर्ट के सख्त रवैये के बाद जाट आंदोलनकारियों को रेल ट्रेक से हटाने की सुस्त और मरियल कार्रवाई माया सरकार ने की तो थी लेकिन तब तक लाखों-करोड़ों के राजस्व का नुकसान और लाखों लोगांे का होली का त्योहार खराब हो चुका था।

कदम-कदम पर माया सरकार की दोमुंही नीतियां स्पष्ट दिखाई देती हैं। मेरठ में यांत्रिक कारखानों के खिलाफ आमरण अनषन पर बैठे जैन मुनि श्री मैत्रि सागर को जिस तरह सरकारी मषीनरी ने अनषन से जर्बदस्ती उठाया और बारह घंटे नजरबंद बनाए रखा वो सरकार की कथनी और करनी में अंतर को स्पष्ट उजागर करती है। जैन मुनि की मांग सिर्फ इतनी थी कि सरकार यांत्रिक बूचड़खानों पर रोक लगाए, लेकिन लोकहित और जन समस्या से जुड़े मुद्दे का स्थायी या ठोस हल निकालने की बजाए प्रषासन अनषन तुडवाने के कुत्सित प्रयासों में लगा रहा। अगर कोई संत या देष का आम आदमी चिल्ला-चिल्लाकर अपनी समस्या या मांग प्रषासन के सामने रखता है तो सरकारी अमला उसकी बात को गंभीरता से सुनने की बजाए फौरी कार्रवाई करने में अधिक दिलचस्पी दिखाता है।

मेरठ में बूचड़खानों की काली और अवैध कमाई के पीछे सत्ता पक्ष से जुड़े नेताओं का खुला हाथ और संरक्षण है। इसलिए सरकारी अमला जायज मांग को भी सिरे से खारिज करने में परहेज नहीं करता है। देखा जाए तो जनससमयाओं और मांगों के पीछे कहीं न कहीं राजनीतिक दखलअंदाजी से लेकर प्रषासन की अदूरदर्षिता, निकम्मापन और लेट लतीफी स्पष्ट झलकती है। मायावती सरकार में तार्किक क्षमता का अभाव है। माया अपने विरोधियों को तार्किक या ठोस जवाब देेने की जगह कानूनी डंडे और ताकत का सहारा लेने में अधिक यकीन रखती है। तभी तो सरकारी मषीनरी विरोधी दलों के नेताआंे को जूते से मसलने और अहिंसक प्रदर्षनकारियों पर डंडे और गोलियां चलाने से भी परहेज नहीं करती है।

जब बात माया सरकार के हितों और वोट बैंक की आती है वहां सरकार त्वरित कार्रवाई करने से चूकती नहीं है। लखनऊ के सीएमओ हत्याकांड से लेकर षीलू बलात्कार कांड तक माया सरकार की त्वरित कार्रवाई किसी से छिपी नहीं है। सीएमओ हत्याकांड में तो मांयावती ने अपने दो-दो चहेते मंत्रियों की बलि लेने में कोई संकोच नहीं किया। क्योंकि माया हर चीज और हालात से समझौता कर सकती हैं लेकिन उन्हें ये कतई बर्दाषत नहीं है कि कोई उनके वोट बैंक में सेंध लगाए या उनकी कुर्सी खिसकाने का प्रयास करे।

भट्ठा पारसौल और जाट आरक्षण के मुद्दों पर माया सरकार द्वारा की गई कार्रवाई सरकार की नीति और नीयत का खुला बयान करती है कि सरकार की हर कवायद वोट बैंक को बचाए रखने या फिर अपने विरोधियों को धूल चटाने से प्रेरित होती है। 2007 में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने के बाद से ही माया ने प्रदेष के आम आदमी से दूरी बना रखी है। माया के ष्षासन में जनता से मिलने का कोई कार्यक्रम या एजेंडा नहीं है। पूर्व सरकारों में जनता दर्षन के माध्यम से मुख्यमंत्री प्रदेष की जनता से रूबरू होते थे और उनकी समस्याआंे को सुनते और सुलझाते थे।

पिछले चार साल के कार्यकाल में मायावती ने दो-चार रैलियों के अलावा जनता से मिलने की कोई कवायद नहीं की। मार्च माह में प्रदेष के जनपदों के दौरों पर निकली माया को जगह-जगह जनता के विरोध का सामना करना पड़ा। सर्वजन की बात करने वाली सरकार ने सर्वजन को घरों में बंधक बनाकर सीएम के दौरों को पूरा करवाया था। ऐसे में मायावती को इस गुरूर से बाहर आ जाना चाहिए कि उनकी जुबान इतिहास लिखती है। जब जनता पष्चिम बंगाल में वामपंथियों का 34 साल पुराना किला ढह सकती है तो जनता बसपा का किला भी ढहाने उतनी ही सक्षम है। 


 स्वतंत्र पत्रकार और उत्तर प्रदेश के राजनीतिक- सामाजिक मसलों के लेखक-