Mar 16, 2011

करोड़ों की मिलें, कौड़ियों के मोल

चीनी मिलें एकाएक बीमारू या कम क्षमता की नहीं हुईं। यह प्रक्रिया 1990 में नयी आर्थिक नीतियों की शुरूआत के बाद से शुरू  हुई जब सरकारों ने मिलों की क्षमता बढ़ाने के बजाय निजी मिल मालिकों के लिए पलक बिछाना शुरू किया...


अजय प्रकाश

उत्तर प्रदेश में सरकारी चीनी चीनी मिलों का इतिहास इतनी जल्दी पलटेगा इसका अनुमान किसी को नहीं था। जिन निजी मिल मालिकों की चीनी मिलों को सत्तर और अस्सी के दशक में सरकार ने अधिगृहित कर जान डाली थी,उनकी लॉबी अब इतनी मजबूत हो जायेगी कि सरकार अपनी चीनी मिलों की क्षमता बढ़ाने की बजाय उसे बंद करना राज्य के हित में मानेगी और फिर कौड़ियों के भाव बेचना राज्य की उन्नति, ये अंदाजा भी नहीं था।

वह भी सरकार ऐसा तब करेगी जबकि सुप्रीम कोर्ट ने मिलों की संपत्ति बेचने पर फैसला न दिया हो। मगर ऐसा हो रहा है और राज्य की मायावती सरकार बंद पड़ी सरकारी चीनी मिलों की पूरी संपत्ति को कौड़ियों के भाव अपने नजदीकियों को बेच रही हैं।

उत्तर प्रदेश स्टेट ‘शूगर कॉरपोरशन लिमिटेड (यूपीएसएससीएल),  'शूगर  कॉआपरेटिव मिल और निजी चीनी मिलों को मिलाकर कुल 108 मिलों के साथ यह प्रदेश देश का सबसे बड़ा चीनी उत्पादक राज्य हुआ करता था। जिसमें 35 चीनी मिलें सरकार की, 28    की और शेष निजी घरानों की थीं। जिसमें अब सरकारी एक भी नहीं बची हैं और कोआपरेटिव को भी सरकार ने बेचने का बिगुल बजा दिया है। अब उत्तर प्रदेश शूगर कॉरपोरेशन कर्मचारी संघ के मात्र 200लोग बचे हैं।

भटनी चीनी मिल : कौड़ियों  के मोल बिकी                             फोटो- अनिल मिश्र

 कॉरपोरेशन के एक कर्मचारी ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि ‘अगर सही तहकीकात हो तो प्रदेश की मिलों के बेचने में मुंबई के आदर्श सोसाइटी घोटाला से बड़ा घपला सामने आयेगा। कॉरपोरशन की जिस मिल में 22 करोड़ का सीरा और चीनी थी, उसे मात्र आठ करोड़ में बेच दिया गया, जबकि जमीन, मशीनों और बिल्डिंग की कीमत तो अभी अलग है।’

राज्य विभाजन के बाद उत्तराखंड में जा चुकी किच्छा और देहरादून की मिलों को छोड़ दें तो निगम की हरेक चीनी मिल में हजार से पंद्रह सौ कर्मचारी तो काम करते थे। यानी बेकारी से त्रस्त इस राज्य में सरकार की सिर के बल खड़ी नीतियों ने 33 मिलों के करीब 35 हजार मजदूरों को बेकार कर उनके लाखों आश्रितों को बदहाली में रहने को बाध्य किया।


भटनी और सहारनपुर में किस भाव बिकी मिलें

सहारनपुर                                                                               
चीनी मिल के पास कुल जमीन - 61.84 हेक्टेयर
सर्किल रेट के मुताबिक इसका रेट- 486.70 करोड़
मशीनों और प्लांट का रेट- 1.27 करोड़
बिल्डिंग की कीमत - 2.63 करोड़
चीनी और सीरा के स्टॉक की कीमत - 22.53 करोड़
कुल अनुमानित कीमत- 513.13 करोड़
सरकार द्वारा निर्धारित दर - 70.90 करोड़
कंपनियों द्वारा लगायी गयी अधिकतम कीमत- 35.85 करोड़
कुल घाटा - 513.13 - 35.85 - 477.20 करोड़

भटनी
उत्तर प्रदेश शूगर कॉरपोरेशन लिमिटेड, भटनी यूनिट
चीनी मिल के पास कुल जमीन - 13.873 हेक्टेयर
सर्किल रेट के मुताबिक जमीन की कीमत - 66 करोड़
मशीनों और प्लांट की कीमत - 50 करोड़
बिल्डिंग की कीमत - 1.50 करोड़
कुल अनुमानित कीमत - 117.50 करोड़
त्रिकाल फुड्स एंड एकता प्रोडक्शन प्राइवेट लिमिटेड ने मील की संपत्ति खरीदी- 4.75 करोड़
कुल घाटा- 117.50 - 4.75- 112.75 करोड़
घाटे का कुल योग- 112.75 करोड़
चीनी मिलें एकाएक बीमारू या कम क्षमता की नहीं हुईं। यह प्रक्रिया 1990 में नयी आर्थिक नीतियों की शुरूआत के बाद से शुरू  हुई जब सरकारों ने मिलों की क्षमता बढ़ाने के बजाय निजी मिल मालिकों के लिए पलक बिछाना शुरू किया। नहीं तो 1987-88 तक उत्तर प्रदेश कुल चीनी उत्पादन का करीब 48प्रतिशत पैदा कर देश का सबसे बड़ा चीनी उत्पादक राज्य और देश में कुल गन्ना उत्पादन क्षेत्र 32.87 लाख हेक्टेयर में से सबसे अधिक 18.07 हेक्टेयर गन्ना बोने वाला राज्य रहा है।

अब उसी राज्य की चीनी मिलों की 20हजार करोड़ की संपत्ति को कौड़ियों के भाव बेचने के लिए आखिरकार कौन जिम्मेदार है। देवरिया,भटनी और बैतालपुर चीनी मिल को मात्र 70करोड़ में बेच  दिया गया है। जबकि अकेले भटनी चीनी मिल की संपत्ती लगभग 112 करोड़ की है। भारतीय किसान यूनियन के महासचिव राकेश टिकैत कहते हैं कि ‘निजी कंपनियों को संयंत्र लगाने के लिए बजट देने वाली सरकारें अपने मिलों के लिए बजट देती तो आधुनिक मशीनों के साथ क्या मिलों को बचा नहीं लिया जाता?’

गौरतलब है कि 1988 तक देश की कुल 356 चीनी मिलों में मात्र 109 मिलें निजी घरानों की थीं। लेकिन 1993 में ही प्रदेश की मुलायम सिंह सरकार बीमारू के नाम पर छह सरकारी चीनी मिलों के बंद करने और बेचने का रास्ता खोज निकाला था। इसमें बुढ़वल और बलरामपुर मिल को सिंह शूगर  मिल्स को सरकार ने बेच भी दिया था,जिसे उत्तर प्रदेश कॉरपोरशन कर्मचारी संघ ने अदालत जाकर बचाया था और दोनों कंपनियां फिर कॉरपोरेशन के कब्जे में आयी थीं।

अदालत को संघ ने आगाह कराया था कि सरकार ने बीमारू घोषित करने वाली अद्र्व न्यायिक संस्था डीआइएफआर और बीआइएफआर के इजाजत बगैर ही मिलें बेच दी हैं। इसके बाद मुलायम सरकार राज्य सचिव डीके मित्तल के नेतृत्व में सर्वोच्च न्यायालय पहुंचती है जिसके बाद अबतक का मामला अदालतों में घिसट रहा है। अगर इस बीच कुछ हुआ तो सिर्फ एक के बाद एक सरकारी चीनी मिलों का बंद होना और कौड़ियों के भाव बिकना।

प्रदेश में चीनी मिलों के इतिहास देखें तो जब निजी चीनी मिल घाटे के नाम पर बंद होने लगीं थीं तो 1971 में नारायण दत्त तिवारी की सरकार ने मजदूरों, किसानों, फसलों और उत्पादन को बचाने के लिए चीनी मिल कॉरपोरशन का गठन कर मिलों का सरकारीकरण शुरू किया। यह प्रक्रिया 1984 तक चली और 25मिलों को सरकार ने कॉरपोरेशन की मिल बनाया। इसी प्रक्रिया में 28मीलों को कोआपरेटिव के तहत संचालित कराया।

मगर धीरे-धीरे सरकारी और कोआपरेटिव चीनी मिलों में राजनीतिक पैठ और नौकरशाही का बोलबाला बढ़ा और जनप्रतिनिधि किसानों-मजदूरों के हितैषी होने के बजाय कमीशनखोरी की नैया पर सवार हो निजी मालिकों के पक्ष में कानून बनाने लगे। उसी का असर है कि चीनी के सर्वाधिक उत्पादन वाले जिला कुशीनगर और देवरिया से संबद्ध प्रदेश भाजपा अध्यक्ष शिव प्रताप ‘शाही  पूरे विधान सभा सत्र में एक दिन भी मील का सवाल नहीं उठा पाते। बची कांग्रेस को उसको अपने महासचिव राहुल गांधी बनाम मायावती से फुर्सत ही नहीं है कि वह मुद्दा बना सके।

अगर 1990 के बाद से देखा जाये तो राज्य में वह सत्ताधारी पार्टी हो या विपक्षी किसी ने राज्य की सरकारी चीनी मिलों को बचाने के लिए कभी संजीदा प्रयास नहीं किया। दूसरा कि इससे सिर्फ कर्मचारी ही नहीं प्रभावित हो रहे थे बल्कि राज्य की जनता इन मिलों के बंद होते जाने से बेकारी के भी नजदीक पहुँच  रही थी और पूर्वी उत्तर प्रदेश में कई लाखों किसानों के जिवीका का जरिया छिन गया। जरवल चीनी मिल के पूर्व कर्मचारी राकेश बहादुर कनौजिया बताते हैं,‘अभी 6से 10 चीनी मिलों में जितने कर्मचारी निजी  कंपनियों में काम करते हैं उतने अकेले किसी एक सरकारी मिल के कर्मचारी थे।’

बावजूद इसके 1999से बीमारू और घाटे के नाम पर बंद पड़ी मिलों के बेचने का जो सिलसिला शुरू  हुआ था, उसे मायावती सरकार जारी रखे हुए है। प्रगति इतनी भर है कि मौजूदा सरकार बंद मिलों को पोंटि चड्ढा जैसे अपने नजदीकियों को कबाड़ के भाव बेच रही हैं। अगर बेचने में अदालत या जिम्मेदार संस्थाएं अड़चन डाल रही हैं तो मायावती मुकाबले के लिए प्रसिद्ध वकील और अपने सिपहसालार सतीश चंद्र मिश्र को निपटने के लिए तैनात कर देती हैं। वैसे में जनता क्या यह मान ले कि सर्वजन हिताय का यही ढांचा है।
 
साथ में सेवाकांत शिवेश
द पब्लिक एजेंडा से  साभार 

बीहड़ फिल्म महोत्सव 17 मार्च से और 23 मार्च से मऊ फिल्म महोत्सव


गांव -गिरांव से उठती सिनेमाई लहर

शाह आलम


अवाम का सिनेमा का सफर जो 2006 में अयोध्या से शुरू हुआ, पहले दौर में कुछ खामियों को दूर करने के बाद,अब धीरे धीरे संस्थाबद्ध हो रहा है। इन पांच वर्षों में हमने बहुत सारे उत्साही दोस्त बनाये हैं. शायद यही वजह है कि अयोध्या फिल्म उत्सव ने प्रदेश में एक सांस्कृतिक लहर पैदा की है.ऐसा इसलिए संभव हो सका है कि यहाँ फिल्मे ही नहीं दिखाई जाती बल्कि कला के विभिन्न माध्यमों के जरिये आमजन के बीच बेहतर संवाद बनाने,उनके दुःख में शामिल होने और अपनी खोई विरासत से रु-ब-रु होने का मौका मिलता है.


बहुत सारे शुभचितकों और मित्रों के कारण ही हम कई पहलकदमियां ले पा रहे हैं, जो हमें लगातार इसे बेहतर और व्यापक बनाने के लिए प्रोत्साहित करते रहें हैं। गावं-गिरांव में फिल्म उत्सव का प्रयोग फिल्म सोसाइटी के गठन के साथ फिल्म निर्माण,  प्रदर्शन  , वितरण,प्रकाशन, संग्रहालय, डिजिटल डायरी, फेलोशिप, फिल्म निर्माण प्रशिक्षण  आदि परियोजनाओं पर गंभीरता से काम हो रहा है, ताकि यह व्यापक दायरे में आकार ले सकें।

हम मानते हैं कि यह आन्दोलन तभी सफल होगा जब लोग खुद सिनेमा का निर्माण करें। जिसमें उनकी अपनी सोच हो। हम सच्चे सार्थक सिनेमा को जन-जन तक पहुंचाना चाहते हैं। जिसके तहत हमसे जुड़े साथियों ने 2006 से कई फिल्मों का निर्माण किया, इसे कई उत्सवों में जारी एवं प्रदर्शित किया गया। अयोध्या ,मऊ, जयपुर , औरैया, इटावा में कई स्थानों पर फिल्म उत्सव करते आ रहे हैं। सबसे जरुरी है कि इसकी निरंतरता बनी रहे.

आप से आग्रह है कि आप भी अपने गांव, शहर, कस्बों में ऐसे आयोजन कर अवाम के साथ खड़े हो। इन आयोजनों कि सार्थकता तभी सही साबित होगी जब लोगो के छोटे छोटे सहयोग से इसे हम अपने उत्सव के तौर पर जगह जगह आयोजित कर पाएंगे। निजी कम्पनियों, सरकारी सहायता या किसी एनजीओ के स्पांसरशिप के बिना छोटे-छोटे स्तर पर सहायता लेकर बनने वाली फिल्मों को एक मॉडल के रूप में स्थापित करने की कोशिश की गई।

अवाम का सिनेमा का यह प्रयास रंग ला रहा है। इससे जुड़े कई युवा अब अपने सीमित संसाधनों और छोटे कैमरों की मदद से गांव-कस्बों की समस्याओं,राजनैतिक उथल-पुथल और बदलावों को दुनिया के सामने पेष कर रहे हैं। अवाम का सिनेमा की इस श्रृंखला ने एक माडल रखा है.कि किस तरह जनता कि हिस्सेदारी और सहयोग से सामाजिक परिवर्तन का आन्दोलन खड़ा किया जा सकता है।

सत्रह मार्च से दूसरा बीहड़ और 23मार्च 20011से तीसरा मऊ फिल्म उत्सव शुरु हो रहा है। इस मौके पर ‘हू इज तपसी’फिल्म भी रिलीज की जाएगी। पिछले उत्सव कि तर्ज पर सिनेमा जन सरोकारों पर केन्द्रीत पुस्तक श्रृंखला का प्रकाशन हो रहा है। उम्मीद है कि चम्बल घाटी और मऊ का यह आयोजन आप को पसंद आएगा।




मां-बाप पर होगी करवाई, जायेंगे जेल


आयोग बच्चों पर हिंसा रोकने व उन्हें तनाव से दूर करने के लिए बच्चों की सुरक्षा के लिए शीघ्र ही एक कठोर कानून को भी असली जामा पहनाने जा रहा है...


संजीव कुमार वर्मा


 राष्ट्रीय बाल संरक्षण आयोग बच्चों पर हो रही हिंसा के मामलों को लेकर बेहद गंभीर है। माता-पिता द्वारा अपने तनाव को बच्चों पर निकालना अब माता-पिता को काफी महंगा पड़ सकता है। बच्चों पर अनावश्यक दबाव बनाने और उन पर हिंसा करने के मामलों को लेकर राष्ट्रीय बाल आयोग बहुत सख्त कदम उठा रहा है।

आयोग बच्चों पर हिंसा रोकने व उन्हें तनाव से दूर करने के लिए बच्चों की सुरक्षा के लिए शीघ्र ही एक कठोर कानून को भी असली जामा पहनाने जा रहा है। इस कानून के अस्तित्व में आने के बाद यदि घर की चार दीवारी में बच्चों के माता-पिता,अभिभावक केयर टेकर, बच्चों के ऊपर हाथ उठाते हैं तो ऐसी शिकायत मिलने पर संबंधित व्यक्ति के विरूद्ध कठोर कार्रवाई होगी और उसे जेल की सलाखों के पीछे भेज दिया जायेगा।

पिछले दिनों राष्ट्रीय बाल संरक्षण आयोग की अध्यक्षा शांता सिन्हा एक कार्यक्रम में भाग लेने मेरठ में आयी थी। चाइल्ड लाइन संस्था के इस कार्यक्रम में उन्होंने बच्चों की पिटाई और हिंसा पर नाराजगी व्यक्त की। साथ ही माता-पिता और अभिभावकों से भी कहा कि वो अपने जीने का अंदाज बदल लें। अपना तनाव बच्चों पर हिंसा कर न उतारे।

बच्चों की पिटाई करने पर उनके मन मस्तिष्क पर गलत प्रभाव पड़ता है। घरों के अंदर खुद माता-पिता ही बच्चों पर हिंसा कर उनका मन कमजोर करते हैं। बच्चों पर हो रही घरेलू हिंसा पर आयोग दृष्टि केन्द्रीत किये हुए हैं। बच्चों की सुरक्षा और विकास के लिए उन्हें हिंसा मुक्त रखने के लिए शीघ्र ही प्रस्तावित कानून जल्द घोषित कर दिया जायेगा। स्कूलों में बच्चों पर हिंसा के मामले पहले ही कानूनी कार्रवाई की सीमा में आ चुके हैं।

शांता सिन्हा उस दर्द को महसूस कर रही थी,जिसमें बगैर किसी ठोस कारण के अधिकतर माता-पिता घर से बाहर के अपने तनाव को बच्चों की पिटाई कर निकालते हैं। यह सब बहुत गलत तरीके से होते हैं। कई बार कोमल बच्चों का जीवन उनकी राह को ही बदल देता है। इन घटनाओं की अनुमति नहीं दी जा सकती।

मेरठ में  बाल अधिकार पर बोलतीं शांता सिन्हा
 माता-पिता और अभिभावकों को बच्चों को हिंसा मुक्त माहौल देने के लिए अपने घर से ही पहल करनी होगी। गुमशुदा बच्चों के जो मामले आते हैं। उनमें 95 प्रतिशत बच्चे तो माता-पिता की हिंसा खीज व तनाव देने के कारण अपना घर छोड़ते हैं। ऐसे बच्चे माता-पिता से डरने लगते हैं और अपने जीवन में घबराहट और असुरक्षा की भावना का अनुभव करते हैं।

इसलिए जिस घर में बच्चे का जन्म हुआ है,वहीं अगर हिंसा की पाठशाला व जुल्म का कारखाना बन जाये तो बच्चे कहां सुरक्षित रह पायेंगे। बच्चों पर हो रही इस तरह की घटना ही बाल अपराध का भी प्रमुख कारण है। घरों में बच्चों के प्रति हिंसा पर विदेशों में कई सख्त कानून है। वहां माता-पिता अभिभावक को जेल जुर्माना या दोनों सजाएं तक भोगनी पड़ जाती है।

 देश में भी इस कानून को लागू करने के लिए विदेशों के बाल अधिकारों से संबंधित बाल कानूनों का अध्ययन किया जा रहा है। उन्होंने उम्मीद जताई कि इस कानून के लागू होने के बाद माता-पिता अभिभावक बच्चों पर हिंसा नहीं कर पायेंगे। बच्चों को अपने घर में ही सुरक्षित वातावरण मिलेगा और इससे बच्चों के गुमशुदगी के मामलों में भी कमी आयेगी,क्योंकि अधिकतर बच्चों के घर से जाने के पीछे माता-पिता की हिंसा और घरेलू कारण सामने आते हैं।




(लेखक पत्रकार हैं, उनसे   goldygeeta@gmail.com  पर संपर्क किया जा सकता है. )  


Mar 15, 2011

नौकरशाहों को बचाने में जुटा सूचना आयोग


बड़ा सवाल तो यह है कि आखिर इन लोक सूचना अधिकारियों एवं प्रथम अपील अधिकारियों का इतना साहस कैसे बढ़ गया कि वे उपलब्ध एवं वांछित सूचना को आवेदकों को उपलब्ध नहीं करवा रहे हैं...

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'

कुछ समय पहले उत्तर प्रदेश में राज्य सूचना आयोग ने एक तरह से अपने हाथ खड़े करते हुए सार्वजनिक रूप से कहा कि ‘अब हम इन लोक सूचना अधिकारियों का कुछ नहीं कर सकते.' यह निराशापूर्ण बयान   उत्तर प्रदेश के सूचना आयुक्त वीरेन्द्र सक्सेना ने बनारस में सूचना अधिकार पर आधारित एक कार्यक्रम में दिया. उन्होंने कहा कि   'उत्तर प्रदेश सूचना आयोग में हरेक आयुक्त 30 से 100 अपील रोज़ाना सुनता है, लेकिन इसके बावजूद लम्बित मामलों की संख्या लगातार बढ़ती ही चली जा रही है.'

उन्होंने यह भी स्वीकार किया कि ‘राज्य में सूचना का अधिकार कानून का इस्तेमाल करने वाले 90 प्रतिशत लोगों को राज्य सूचना आयोग में अपील दायर करनी पड़ती है, जिससे आयोग का काम लगातार बढ़ता जा रहा है. ऐसा  लोगों को इसलिए करना पड़ता है कि जिम्मेदार विभाग के अधिकारी सुचना ही मुहैया नहीं कराते और थककर लोग आयोग में अपील करने को मजबूर होते हैं.

अकेले   यह स्थिति उत्तर प्रदेश की नहीं है, बल्कि देश के सभी राज्यों और केन्द्रीय सूचना आयोग में भी यही हालात हैं. यहाँ पर प्रतिदिन अपीलों का अम्बार लगातार बढ़ता जा रहा है, लेकिन दु:खद बात यह है कि अपीलों के इस  बढ़ते अम्बार के लिये सूचना आयोगों के आयुक्त अपील करने वाले आवेदकों को जिम्मेदार ठहराकर असल बात से मीडिया एवं लोगों को भटकाने का प्रयास कर रहे हैं और अपनी कानूनी जिम्मेदारी से मुक्त होते हुए दिखने का प्रयास कर रहे हैं.


सच्चाई इससे उलट  है.  बड़ा सवाल तो यह है कि आखिर इन लोक सूचना अधिकारियों एवं प्रथम अपील अधिकारियों का इतना साहस कैसे बढ गया कि वे उपलब्ध एवं वांछित सूचना को आवेदकों को उपलब्ध नहीं करवा रहे है, जिसके कारण व्यथित होकर 90प्रतिशत आवेदकों को सूचना आयोग के समक्ष अपील पेश करने को विवश होना पड़ रहा है.

इन सबकी हिम्मत किसने बढ़ाई है?सूचना न देने वाले अधिकारियों और प्रथम अपील अधिकारियों की बदनीयत का पता लग जाने एवं जानबूझकर आवेदकों को उपलब्ध सूचना,उपलब्ध नहीं करवाने का अवैधानिक कृत्य प्रमाणित हो जाने के बाद भी उनके विरुद्ध सूचना आयोगों द्वारा जुर्माना न लगाना या नाम-मात्र का जुर्माना लगाना तथा जुर्माने की तत्काल वसूली को सुनिश्‍चित नहीं करना, क्या सूचना नहीं देने वाले अफसरों को, स्वयं सूचना आयोग द्वारा प्रोत्साहित करना नहीं है

इसके अलावा अपील पेश करके और अपना किराया-भाड़ा खर्च करके सूचना आयोग के समक्ष उपस्थित होने वाले आवेदकों को स्वयं सूचना आयुक्तों द्वारा सार्वजनिक रूप से डांटना-डपटना क्या सूचना नहीं देने वाली ब्यूरोक्रसी को सूचना नहीं देने को प्रोत्साहित नहीं करता है?सूचना आयोग निर्धारित अधिकतम पच्चीस हजार रुपये के जुर्माने के स्थान पर मात्र दो से पॉंच हजार का जुर्माना अदा करने के आदेश करते हैं और जानबूझकर सूचना नहीं देना प्रमाणित होने के बाद भी सूचना अधिकारियों के विरुद्ध विभागीय अनुशासनिक कार्यवाही के बारे में सम्बद्ध विभाग को निर्देश नहीं देते हैं.

ऐसे हालात में अगर अपीलों का अम्बार बढ रहा है तो इसके लिये केवल और केवल सूचना आयोग ही जिम्मेदार हैं. उसे सूचना अधिकार कानून का उपयोग करने वाले लोगों पर जिम्मेदारी डालने के बजाय,स्वयं का आत्मालोचना करना होगा और अपनी वैधानिक जिम्मेदारी का कानून के अनुसार निर्वाह करना होगा. दूसरा सूचना उपलब्ध होने पर भी कोई अधिकारी निर्धारित तीस दिन की अवधि में सूचना नहीं देता है, तो उस पर अधिकतम आर्थिक दण्ड अधिरोपित करने के साथ-साथ ऐसे अफसरों के विरुद्ध तत्काल अनुशासनिक कार्यवाही करके दण्ड की सूचना प्राप्त कराने के लिये भी उनके विभाग को सूचना आयोग द्वारा निर्देशित करना होगा


सूचना आयोग अफसरशाही के प्रति इस प्रकार का रुख अपनाने लगे तो एक साल के अन्दर दूसरी अपीलों में 90 प्रतिशत कमी लायी जा सकती है . साथ ही सूचना का अधिकार कानून के अनुसार सभी सूचनाओं को जनता के लिये सार्वजनिक कर दिया जावे तो सूचना चाहने वालों की संख्या में भी भारी कमी लायी जा सकती है.



(लेखक राजस्थान के सामाजिक कार्यकर्ता हैं, उनसे  dr.purushottammeena@yahoo.in  पर संपर्क किया  जा सकता है.)  

गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल 23 मार्च से


गोरखपुर.प्रतिरोध का सिनेमा अभियान का सोलहवां और गोरखपुर का छठा फिल्म फेस्टिवल इस बार आधी दुनिया के संघर्षों की शताब्दी और लेखक-पत्रकार अनिल सिन्हा की स्मृति को समर्पित होगा. २३ मार्च की शाम को ५ बजे प्रमुख नारीवादी चिन्तक उमा चक्रवर्ती के भाषण से फेस्टिवल की शुरुआत होगी.


चौथे फिल्म फेस्टिवल में पहुंची लेखिका अरुंधती राय

यह वर्ष अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस का शताब्दी वर्ष है.इस मौके बहाने इस बार गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल में महिला फिल्मकारों और महिला मुद्दों को ही प्रमुखता दी जा रही है.इसके अलावा जन संस्कृति मंच के संस्थापक सदस्य और लेखक-पत्रकार अनिल सिन्हा सिन्हा स्मृति को भी छठा फेस्टिवल समर्पित है.गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल से ही पहले अनिल सिन्हा स्मृति व्याख्यान की शुरुआत होगी.पहला अनिल सिन्हा स्मृति व्याख्यान फेस्टिवल के दूसरे दिन २४ मार्च को शाम मशहूर भारतीय चित्रकार अशोक भौमिक "चित्तप्रसाद और भारतीय चित्रकला की प्रगतिशीलधारा" पर देंगे.

पांच दिन तक चलने वाले छठे गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल में इस बार १६ भारतीय महिला फिल्मकारों की फिल्मों को जगह दी गयी है. इन फिल्मकारों में से इफ़त फातिमा, शाजिया इल्मी, पारोमिता वोहरा और बेला नेगी समारोह में शामिल भी होंगी.छठे गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल को पिछले फेस्टिवल की तरह ही इस बार फिर दो नयी फिल्मों के पहले प्रदर्शन का गौरव हासिल हुआ है. ये फिल्में हैं - नितिन के की "मैं तुम्हारा कवि हूँ "और दिल्ली शहर और एक औरत के रिश्ते की खोज करती समीरा जैन की फिल्म "मेरा अपना शहर".बेला नेगी की चर्चित कथा फिल्म "दायें या बाएं" से फेस्टिवल का समापन होगा.

इस बार के फेस्टिवल के साथ-साथ दूसरी कला विधाओं को भी प्रमुखता दी गयी है. अशोक भौमिक के व्याख्यान के अलावा उदघाटन वाले दिन उमा चक्रवर्ती पोस्टरों के अपने निजी संग्रह के हवाले महिला आन्दोलनों और राजनैतिक इतिहास के पहलुओं को खोलेंगी.मशहूर कवि बल्ली सिंह चीमा और विद्रोही का एकल काव्य पाठ फेस्टिवल का प्रमुख आकर्षण होगा.

पटना और बलिया की सांस्कृतिक मंडलियाँ हिरावल और संकल्प के गीतों का आनंद भी दर्शक ले सकेंगे.महिला शताब्दी वर्ष के खास मौके पर हमारे विशेष अनुरोध पर संकल्प की टीम ने भिखारी ठाकुर के ख्यात नाटक बिदेशिया के गीतों की एक घंटे की प्रस्तुति तैयार की है.बच्चों के सत्र में रविवार के दिन उषा श्रीनिवासन बच्चों को चाँद -तारों की सैर करवाएंगी.

फिल्म फेस्टिवल में ताजा मुद्दों पर बहस शुरू करने के इरादे से इस बार भोजपुरी सिनेमा के ५० साल और समकालीन मीडिया की चुनौती पर बहस के दो सत्र संचालित किये जायेंगे. इन बहसों में देश भर से पत्रकारों के भाग लेने की उम्मीद है.

गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल से ही 2006 में प्रतिरोध का सिनेमाका अभियान शुरू हुआ था.पांच वर्ष फिर से गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल ने ही इस बार एक महत्वपुर्ण पहलकदमी ली है. यह पहल है देश भर में स्वंतंत्र रूप से काम कर रही फिल्म सोसाइटियों के पहले राष्ट्रीय सम्मेलन की.फेस्टिवल के दूसरे दिन इन सोसाइटियों का पहल सम्मेलन होगा जिसमे प्रतिरोध का सिनेमा अभियान के बारे में महत्वपूर्ण विचार विमर्श होगा और के राष्ट्रीय नेटवर्क का निर्माण भी होगा.

इरानी फिल्मकार जफ़र पनाही के संघर्ष को सलाम करते हुए उनकी दो महत्वपूर्ण कथा फिल्मों ऑफ़साइड और द व्हाइट बैलून को फेस्टिवल में शामिल किया गया है.गौरतलब है कि इरान की निरंकुश सरकार ने जफ़र पनाही के राजनैतिक मतभेद के चलते उन्हें ६ साल की कैद और २० साल तक किसी भी प्रकार की अभिव्यक्ति पर पाबंदी लगा दी है.

प्रतिरोध का सिनेमा की मूल भावना का सम्मान करते हुए इस बार का फेस्टिवल भी स्पांसरशिप से परे है और पूरी तरह जन सहयोग के आधार पर संचालित किया जा रहा है.आयोजन गोकुल अतिथि भवन,सिविल लाइंस, गोरखपुर में सम्पन्न होगा. आयोजन में शामिल होने के लिए किसी भी तरह के प्रवेश पत्र या औपचारिकता की जरुरत नही है.आप सब सपरिवार सादर आमंत्रित हैं.सलंग्न फ़ाइल में फेस्टिवल का विस्तृत विवरण देखें.


आजादी के सफ़र में रोहिंगा


अराकान को स्वतंत्र कराने के लिए पाकिस्तान से मिलने वाली मदद के लिए रोहिंगा उसके इशारे पर भारत के खिलाफ गतिविधियों में शामिल होने को मजबूर हैं, तो वहीं अराकान में म्‍यांमारी जुंटा सैनिकों द्वारा किये जा रहे अत्याचारों के खिलाफ वे लड़ रहे हैं...


श्रीराजेश

म्यांमार में उत्तरी अराकान प्रदेश को स्वतंत्र राष्ट्र बनाने के लिए दो दशक से संघर्ष कर रहे सुन्नी मुस्लिम संप्रदाय के रोहिंगा अब भारत के लिए खतरा बनते जा रहे हैं. म्यांमार की सेना की सख्त कार्रवाई से रोहिंगाओं को म्यांमार से पलायन के लिए बाध्य होना पड़ा है. कई रोहिंगा नेता यूरोपीय देशों में तो भारी संख्या में रोहिंगा लड़ाके बांग्लादेश में शरण लिए हुए हैं. बांग्लादेश सरकार ने 'काक्स बाजार' जिले में इन शरणार्थियों के लिए दो शिविर भी लगाए हैं. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक इन शिविरों में करीब 28 हजार रोहिंगा सपरिवार रह रहे हैं.


म्यामार सैनिकों के कब्जे में रोहिंगा मुसलमान : चाहें  आज़ादी 
 हाल में ही संयुक्त राष्ट्र की ओर से जारी की गयी रिपोर्ट में बांग्लादेश में तकरीबन तीन लाख रोहिंगा शरण लिए हुए हैं. अराकान की स्वतंत्रता की लड़ाई में इन्‍हें पाकिस्तान की ओर से भी मदद मिलती रही है. अपनी इस मदद के एवज में अब वह इनसे 'कीमत वसूलने' की तैयारी में है. पाकिस्‍तान अब इन रोहिंगाओं को भारत के खिलाफ इस्‍तेमाल करने में जुट गया है. पाक खुफिया एजेंसी आइएसआइ  इन छापामार लड़ाकों को प्रशिक्षण देकर बांग्‍लादेश के रास्‍ते भारतीय सीमा में घुसपैठ करा रही है.

भारतीय खुफिया एजेंसियों  ने यह खुलासा किया है कि बांग्लादेश सीमा से सटे पश्चिम बंगाल और असम से सीमावर्ती मुस्लिम बहुल इलाकों में तकरीबन डेढ़ हजार रोहिंगा लड़ाके छुपे हैं. खुफिया एजेंसी ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि इनके पास विमान और युद्धपोतों को छोड़कर लगभग सभी प्रकार के अत्याधुनिक हथियार उपलब्ध हैं.

खुफिया एजेंसियों  ने पश्चिम बंगाल एवं असम पुलिस को जो सूचना उपलब्ध करायी है उसके अनुसार पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आइएसआइ इन रोहिंगा छापामारों को पाकिस्तान में छापामार युद्ध का प्रशिक्षण देकर बांग्लादेश के रास्ते भारत में घुसपैठ करा रही है.

पिछली  4 मार्च को त्रिपुरा पुलिस ने राजधानी अगरतला से तीन महिलाओं समेत दस रोहिंगाओं को गिरफ्तार किया. ये सभी लोग गैरकानूनी रूप से भारत में घुसे थे. इसके पहले 22जनवरी को अंडमान-निकोबार द्वीप समूह से 700 किलोमीटर दूर समुद्र में थाईलैंड की समुद्री सुरक्षा बल ने भी 91 रोहिंगाओं को गिरफ्तार किया है. इनके पास भी थाई क्षेत्र में प्रवेश के लिए कोई वैध कागजात नहीं थे.

वर्ष 2008 में क्रिसमस की पूर्व संध्या को हावड़ा रेलवे स्टेशन से 32 म्‍यामारी रोहिंगा को बगैर वैध दस्तावेजों के गिरफ्तार किया गया. इनमें महिलाएं और बच्‍चे भी शामिल थे. इसके बाद हिंद महासागर से पांच मई 2010 को भारतीय तटरक्षकों ने 72 छोटी नौकाओं के साथ इन्हें गिरफ्तार किया.

इन गिरफ्तार म्‍यामारी रोहिंगाओं से पूछताछ में खुफिया विभाग को कई चौंकाने वाले तथ्य मिले हैं. खुफिया विभाग के मुताबिक ये रोहिंगा दो मोर्चे पर अपनी लड़ाई एक साथ लड़ रहे हैं. एक तरफ ये अराकान को स्वतंत्र कराने के लिए पाकिस्तान से मिलने वाली मदद के लिए उसके इशारे पर भारत के खिलाफ गतिविधियों में शामिल हो रहे हैं, वहीं अराकान में म्‍यांमारी जुंटा सैनिकों द्वारा रोहिंगाओं पर किये जा रहे कथित अत्याचारों के खिलाफ लड़ रहे हैं.


रोहिंगा मुस्लिमों का जीवन : रैन बसेरों में पल रही पीढियां
 अराकान नेशनल रोहिंगा आर्गेनाइजेशन की ओर से 14 फरवरी, 2011 को एक प्रेस विज्ञप्ति जारी की गयी जिसमें कहा गया, 'ये सभी रोहिंगा गलती से थाई जल क्षेत्र में चले गये थे.थाई सुरक्षा बलों को उनकी मजबूरी को समझना चाहिए.'

यूनियन रोहिंगा कम्यूनिटी ऑफ यूरोप के महासचिव हमदान क्याव नैंग का कहना है कि म्यांमार में रोहिंगाओं पर जुंटा सैनिक दमन नीति चला रहे हैं. वहां खुलेआम मानवाधिकारों का उल्लंघन हो रहा है.मानवाधिकारों के उल्लंघन के मामलों की रोकथाम के लिए उन्होंने विश्व समुदाय से खासकर भारत से एमनेस्टी इंटरनेशनल पर दबाव बनाने का आग्रह किया है. उन्होंने तीन सितंबर 2008 को बांग्लादेशी अखबार दैनिक युगांतर, पूर्वकोण में प्रकाशित खबर और फोटो को सभी देशों को भेजा था.

इस रिपोर्ट के हवाले से बताया गया है कि म्‍यांमार में किस तरह रोहिंगाओं को मस्जिद में नमाज अदा करने से जुटां सैनिकों द्वारा रोका जा रहा है. इसी तरह मांगदोव शहर से सटे रियांगचन गांव के मेई मोहमद रेदान नामक युवक को मानवाधिकार की रक्षा से संबंधित एक पत्रिका का प्रकाशन करने के आरोप में गिरतार किया गया. जुंटा सैनिकों की सहयोगी नसाका फोर्स ने उसे देकीबुनिया शिविर से गिरफ्तार किया और टार्चर किया.  इस क्रम में उसकी जीभ काट ली गई.

इसी तरह यूनियन रोहिंगा कम्यूनिटी ऑफ यूरोप की ओर से जारी एक विज्ञप्ति में बताया गया था कि पिछले दो वर्षों में जुंटा सैनिकों द्वारा 17 रोहिंगा समुदाय के धार्मिक नेताओं को गिरफ्तार किया गया, लेकिन अब वह कहां और कैसे हैं? इसकी जानकारी किसी को नहीं है. इन 17 धार्मिक नेताओं में मौलाना मोहमद सोहाब, मौलाना मोहमद नूर हसन, नैमुल हक भी शामिल हैं.


वर्ष 1991से म्यांमार में रोहिंगा और जुंटा सैनिकों के बीच छापामार युद्ध चल रहा है, लेकिन बीते तीन वर्षों से जुंटा सैनिकों ने रोहिंगाओं के आंदोलन को दमन करने का अभियान छेड़ दिया है.सेना के खिलाफ अपने अभियान के लिए वे अब मुस्लिम राष्‍ट्रों की ओर मदद के लिए देख रहे हैं.

बांग्‍लादेश सरकार अपने उस वादे पर भी अमल करती नजर नहीं आ रही जिसमें उसने यह कहा था कि उनके देश की जमीन का इस्‍तेमाल भारत विरोधी कार्यों के लिए नहीं किया जाएगा. जानकारी के अनुसार बांग्‍लोदशी जमीन पर उन्‍हें हर तरह की मदद मुहैया कराई जा रही है, वहीं आईएसआई भी उन्‍हें हथियार चलाने से लेकर अन्‍य सभी तरह के सैन्य प्रशिक्षण देकर भारत में घुसपैठ कराने में जुटी है.

ख़ुफ़िया अधिकारियों के मुताबिक पश्चिम बंगाल के सुंदर वन के जलमार्ग से बांग्लादेश के खुलना और सतखिरा होकर भारत में घुसपैठ कर रहे हैं. गुप्त सूचना के अनुसार कुछ छापामारों के उत्तर चौबीस परगना के बांग्लादेश सीमा से सटे इलाकों और दक्षिण चौबीस परगना के कैनिन, घुटियारी शरीफ, मगराहाट, संग्रामपुर, देउला, मल्लिकपुर और सोनारपुर में बांग्लादेशी घुसपैठियों के बीच छिपे होने की आशंका है. इनमें भारी संख्या में महिलाएं भी शामिल हैं.



 
लेखक हिंदी  साप्ताहिक  पत्रिका  'द  संडे इंडियन' से जुड़े  हैं, उनसे  rajesh06sri@gmail.com  पर संपर्क किया जा सकता है.








Mar 14, 2011

आवाम के शायर हबीब जालिब की याद में


हबीब जालिब पहली बार अय्यूब खान के सैनिक शासन में जेल गए। यह जेल अय्यूब खान की पूंजीवादी नीतियों के विरोध का सिला थी। इस दौरान जेल में उन्होंने अपनी मशहूर नज्म ‘दस्तूर’ लिखी...


सचिन  श्रीवास्तव  


यह पोस्ट कल डाली जानी थी,लेकिन वक्त की कमी और अखबारी मसरूफियत की वजह से यह हो न सका। कल हबीब जालिब की पुण्यतिथि थी। 12 मार्च 1993 को वे हमारे बीच नहीं रहे थे, लेकिन वे ऐसे शायर हैं,जिन्हें याद करने के लिए तारीखों की जरूरत नहीं।

हबीब : अवाम की आवाज
हबीब उन चंद नामों में से हैं कि कोई पूछे कि एक शायर, कवि, साहित्यिक या इंसान को कैसा होना चाहिए, तो हम बिना दिमाग पर जोर डाले जिन नामों को जवाब की शक्ल में उछाल सकते हैं,उनमें से एक नाम इस आवाम के शायर का भी है। जिन लोगों ने हबीब को पढा-सुना है वे मेरी बात से सहमत होंगे। हालांकि ऐसे लोग कम ही होंगे,जिन्होंने हबीब जालिब को नहीं पढा। फिर भी उन बदकिस्मत लोगों के लिए अफसोस के अलावा चंद बातें और कुछ नज्में।

पाकिस्तान में 24मार्च 1928 को पैदा हुए जालिब उम्र भर अपनी कविताओं के माध्यम से पाकिस्तान के सैनिक कानून, तानाशाही और राज्य की हिंसा के खिलाफ लिखते, बोलते और तकरीरें करते रहे। उम्र भर सत्ता की आंख में चुभते रहे जालिब की कविताएं पाकिस्तान की सीमा पर कर दुनिया के हर संघर्ष और सत्ता की खिलाफत करने वाले इंसान की आवाज बन गई हैं।

अंग्रेजी राज में पैदा हुए जालिब का शुरुआती नाम हबीब अहमद था। बंटवारे के बाद वे पाकिस्तान का रुख कर गए और कराची से निकलने वाले डेली इमरोज में प्रूफरीडर हो गए। प्रगतिशीलता के पक्षधर जालिब ने इसी दौरान कुछ अंग्रेजी कविताओं का अनुवाद किया, जिनसे वे पाठकों की नजरों में आए। उस दौर के स्थापित नामों से अलग शैली अपनाते हुए उन्हें सपाट बयानी और पाठक को संबोधित करने वाली भाषा की बुनावट में जुल्म,ज्यादती,मुफलिसी और गैर बराबरी को अपनी कविताओं का हिस्सा बनाया। अपने समय की राजनीति पर लयबद्ध कविताओं के जरिए चोट करने वाले जालिब जल्द ही आवाम के शायर हो गए थे।
पाकिस्तान की कम्यूनिस्ट पार्टी के सदस्य रहे जालिब मार्क्सवाद से गहरे प्रभावित थे और अपनी कविताओं के विषय कम्यूनिज्म की बारीकियों से ही चुनते थे। पाकिस्तान में जब कम्यूनिस्ट पार्टी को प्रतिबंधित कर दिया गया था और इसके सदस्य राष्ट्रीय आवामी पार्टी के बैनर तले काम कर रहे थे, तब हबीब जालिब भी एनएपी के साथ जुड़ गए। इस दौरान भी हबीब जालिब के तेवर तीखे ही रहे और इसी कारण उन्हें अपना ज्यादातर समय जेल में बिताना पड़ा।

वे पहली बार अय्यूब खान के सैनिक शासन में जेल गए। यह जेल अय्यूब खान की पूंजीवादी नीतियों के विरोध का सिला थी। इस दौरान जेल में उन्होंने अपनी मशहूर नज्म ‘दस्तूर’लिखी। 1962 में जब अय्यूब खान के संविधान को पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी मुहम्मद अली ने लायलपुर के क्लॉक टॉवर से सराहा,तो हबीब ने इसके जवाब में नज्म ‘मैं नहीं मानता’लिखी। शासन के विरुध अपने तीखे तेवरों के कारण उस दौर के सरकारी मीडिया में जालिब को प्रतिबंधित कर दिया गया था, लेकिन वे झुके नहीं और अन्य मोर्चों पर निरंकुश शासन की खिलाफत करते रहे।
फातिमा जिन्ना ने जब अय्यूब खान के खिलाफ चुनाव लड़ने की तैयारी की,तो तमाम लोकतांत्रिक ताकतें उनके इर्दगिर्द इकट्ठा हो गईं  और सरकारी प्रतिबंध के बावजूद जालिब ने पूरी पाकिस्तानी आवाम के दर्द को अपनी लेखनी में उतारते हुए बड़े जनसमूहों को उस दौर में अपनी शायरी के जरिए संबोधित किया। उस दौर में उन्होंने ‘मां के पांव तले जन्नत है,इधर आ जाओ’ जैसी कविताएं भी लिखीं,जो उनकी भावुकता का चरम मानी जाती है। यूं भी जालिब को अपनी कविताएं पूरी भावुकता के साथ पढ़ने के लिए भी याद किया जाता है।

घटनाएं जालिब को शायरी के लिए किस कदर प्रभावित करती थीं, इसका एक और बड़ा उदाहरण है। यह घटना पाकिस्तान की प्रतिरोधी संस्कृति की लोकगाथाओं में भी शुमार की जाती है। हुआ यूं कि एक बार पश्चिमी पाकिस्तान (तब बांग्लादेश पाकिस्तान का हिस्सा था और मूल पाकिस्तान को पश्चिमी पाकिस्तान कहा जाता था)के गर्वनर से मिलने ईरान के शाह रेजा पहलवी आए। उनके मनोरंजन के लिए गवर्नर ने फिल्म कलाकार नीलू को डांस करने के लिए बुलाया। नीलू ने इससे इंकार कर दिया,तो उसे लेने के लिए पुलिस भेजी गई। जिस पर नीलू ने आत्महत्या का प्रयास किया। इस घटना पर हबीब जालिब ने कविता लिखी,जो बाद में नीलू के पति रियाज शाहिद ने अपनी फिल्म ‘जर्का’ में इस्तेमाल की। ये कविता थी- ‘तू क्या नावाकिफ-ए-आदाब-ए-गुलामी है अभी/ रक्स जंजीर पहन कर भी किया जाता है।’

जब जुल्फिकार अली भुट्टो के शासन 1972 में आने के बाद जालिब के कई साहित्यिक और राजनीतिक साथी सत्ता का लुत्फ लेने लगे और भुट्टो के साथ हो लिए। जालिब ने इस दौरान विपक्ष की भूमिका को ही पसंद किया। बताया जाता है कि एक बार जालिब भुट्टो से मिलने उनके घर पहुंचे। भुट्टो ने अपनी पार्टी में आने का न्यौता देते हुए जालिब से पूछा-‘कब शामिल हो रहे हो?’ जिस पर जालिब ने जवाब दिया-‘क्या कभी समुंदर भी नदियों में गिरा करते हैं?’तब भुट्टो ने जवाब दिया- ‘कभी-कभी समुद्र नदियों की तरफ जाते हैं, लेकिन नदियां ही उन्हें पीछे धकेल देती हैं’। अपनी शासन विरोधी कार्रवाइयों के कारण जालिब को एक बार पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया था, तब जुल्फिकार भुट्टो ने ही उन्हें रिहा करने का आदेश दिया था।



पत्रकार हसन अली के साथ हबीब जालिब  
 इसके बाद जनरल जिया उल हक की तानाशाही के दौरान जालिब ने लोकतांत्रिक आंदोलन में शामिल हुए। इस दौरान उन्होंने अपनी मशहूर कविता ‘क्या लिखना’ लिखी। जिया का अर्थ होता है, प्रकाश और जालिब इसीलिए पूछते हैं, ‘जुल्मत को जिया क्या लिखना’। जिया उल हक के शासन में ज्यादातर वक्त जालिब जेल में रहे।

1988 में जनरल जिया उल हक की हवाई दुर्घटना में मौत के बाद हुए आम चुनाव जीतकर बेनजीर भुट्टो शासन में आर्इं,उन्होंने हबीब जालिब को जेल से रिहा कराया। तानाशाही के बाद आए लोकतंत्र में कुछ लोगों को राहत मिली,लेकिन आवाम के तरफदारों के लिए यह मुसीबत का दौर था। निरंकुश तानाशाही के बाद लोकतंत्र की बयार में पाकिस्तान के कई लेखकों-शायरों के लिए वैचारिक संकट था।

अगर वे बेनजीर के लोकतंत्र की खिलाफत करते थे,तो उन्हें तानाशाही की याद दिलाई जाती थी, कि उस दौर से तो यह दौर बेहतर है। ऐसे में एक बार जालिब से पूछा गया कि वे इस लोकतंत्र में क्या बदलाव चाहते हें,तो उन्होंने अपनी एक नज्म के जरिए मुल्क पर चढ़े कर्ज और औरतों के हालात का जिक्र करते हुए जवाब दिया-हाल अब तक वही हैं गरीबों के,दिन फिरे हैं फकत वजीरों के हर ‘बिलावल’ है देश का मकरोज पांव नंगे हैं ‘बेनजीरों’ के

जालिब की कविता में उनके दर्शन और जिंदगी की करीबी सच्चाइयों को साफ-साफ पढ़ा जा सकता है। वे कभी अपने रास्ते से नहीं डिगे। वे इंसान से प्यार करते थे,मजलूमों के लिए उनके दिल में हमदर्दी थी और यह उनके हर एक लिखे,बोले हर्फ में दिखाई देती है। हबीब अपने समय के उन दुर्लभ कवियों में शामिल हैं,जिनका अन्याय और क्रूरता के खिलाफ गुस्सा ताजिंदगी रचनात्मक ऊर्जा के साथ एक राजनीतिक हस्तक्षेप भी मुहैया कराता रहा। जालिम हमारे दौर के क्रूर सामाजिक ढांचे के भुक्तभोगी भी हैं। उन्हें कई बार ऐसे अपराधों में फंसाकर जेल भेजा गया, जो उन्होंने किए ही नहीं थे।

अपने आखिरी वक्त तक जालिब पाकिस्तान की कम्यूनिस्ट पार्टी के सदस्य रहे। उनकी मौत के बाद 1994 में कम्यूनिस्ट पार्टी का मजदूर किसान पार्टी में विलय हो गया, अब इसे कम्यूनिस्ट मजदूर किसान पार्टी के नाम से जाना जाता है। कम्यूनिस्ट मजदूर किसान पार्टी के दो सदस्यों शहराम अजहर और तैमूर रहमान ने उनकी याद में एक म्यूजिक वीडियो लांच किया था। जालिब के संघर्ष के रूपक को इस्तेमाल करते पाकिस्तान बैंड ‘लाल’ ने भी काफी काम किया है। 2009 में इस बैंड ने ‘उम्मीद ए सहर’ नाम से भी एक अलबम निकाला। 2009 में 23 मार्च को पाकिस्तान के राष्ट्रपति ने हबीब जालिब को मरणोपरांत सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार दिया।

जालिब के बारे में लिखने-पढ़ने-कहने-सुनने को इतना कुछ है कि उसे एक बार में याद नहीं किया जा सकता। फिलवक्त उनकी चंद नज्मों,गजलों का लुत्फ उठाएं। और इजाजत दें। फिर वक्त मिला तो किसी और फनकार के साथ हाजिर होउंगा। शब्बा खैर।




मेरठ से प्रकाशित दैनिक जनवाणी में फीचर संभाल रहे सचिन पत्रकारिता के साथ साहित्य में दखल रखते हैं. उनसे   chefromindia@gmail.com  पर संपर्क किया जा सकता है.


 
 

 

लीबिया के विद्रोह पर साम्राज्यवादियों की गिद्ध दृष्टि


अमेरिका अगर लीबिया में लोकतंत्र स्थापितकरने का हिमायती है तो उससे   मधुर संबंध रखने  वाले कई  देशों में राजशाही -तानाशाही है। कई देश अमेरिका के मित्र हैं जहां लीबिया से अधिक भूख,बेरोज़गारी, मंहगाई व भ्रष्टाचार है...

तनवीर जाफरी

ट्यूनीशिया तथा मिस्र के जनविद्रोह के बाद लीबिया में उपजे जनाक्रोश से ऐसा लगने लगा था कि  कर्नल मोअमार गद्दाफी भी उन  देशों के राष्ट्र प्रमुखों की ही तरह पद को त्याग कर देश छोड़ अन्यत्र चले जाऐंगे। ईरान सहित कई उन यूरोपिय देशों के नाम भी सामने आने शुरू हो गए थे जहां गद्दाफी को पनाह मिल सकती है। ऐसी ख़बरें भी आयीं   कि गद्दाफी देश छोड़ कर जाने को तैयार हैं बशर्ते   उनके परिवार के किसी भी व्यक्ति को कोई शारीरिक नुकसान न पहुंचाया जाए तथा उनकी धन संपत्ति तथा सोना- आभूषण आदि को उनके पास सुरक्षित रहने दिया जाए।

लेकिन इन खबरों की विश्वसनीयता तब संदिग्ध हो जाती है जब कभी कर्नल गद्दाफी तो कभी उनके पुत्र किसी टीवी चैनल को साक्षात्कार देते समय यह कहते सुनाई देते हैं कि -'मैं लीबिया का हूं और लीबिया में ही जिऊंगा और यहीं मरूंगा।' गद्दाफी का दावा है कि लीबिया में रह रहे तमाम अलग अलग क़बीलों के लोगों को संगठित कर एकजुट रखना केवल उन्हीं जैसे नेता के वश की बात है। बकौल गद्दाफी अगर उनकी पकड़ ढीली हुई तो देश टूट जाएगा तथा इसका हश्र बोसनिया जैसा होगा।


लीबिया में मची उथल पुथल पर नज़र डाली जाए  तो  कोई शक नहीं कि पूरे लीबिया में गद्दाफी के विरुद्ध भारी जनाक्रोश है। कारण वही हैं  भूख,बेरोज़गारी,भ्रष्टाचार,गरीबी तथा मंहगाई जो मिस्र व ट्यूनीशिया में  थे। इतना ज़रूर है कि एक प्रमुख तेल उत्पादक देश होने के कारण लीबिया की आर्थिक स्थिति अन्य इस्लामिक देशों की तुलना में काफी सुदृढ़ ज़रूर है।

 मगर  मिस्र तथा लीबिया  में एक  बड़ा अंतर है.जहां मिस्र के शासक हुस्नी मुबारक को अमेरिका का समर्थन प्राप्त था वहीं कर्नल गद्दाफी दुनिया के उन कुछेक  शासकों में हैं जो अमेरिका के विरुद्ध मुखर हैं. ऐसे में लीबिया जैसा तेल उत्पादक देश और उस देश का गद्दाफी जैसा मुखिया जो कि अमेरिका विरोधी विचारधारा रखता हो, आखिर  अमेरिका ज्य़ादा समय तक यह स्थिति कैसे बर्दाश्त कर सकता है? 
अमेरिकी राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा इस बात को लेकर चिंतित नज़र आ रहे हैं कि कर्नल गद्दाफी अपने विद्रोहियों को कुचलने के लिए सेना के साथ-साथ हवाई हमलों का सहारा भी ले रहे हैं। अमेरिका गद्दाफी द्वारा चलाए जा रहे इस दमनचक्र को रोकने हेतु जहां लीबियाई आकाश को उड़ान निषिध क्षेत्र अर्थात् (नो फलाई ज़ोन ) बनाना चाह रहा है वहीं अमेरिका यह भी चाहता है कि लीबिया में नॉटो सेना दखल अंदाज़ी करे।

ओबामा ने स्वयं पिछले दिनों यह कहा भी कि-'ब्रसेल्स में नॉटो कई विकल्पों पर विचार कर रहा है जिसमें संभावित सैन्य कार्रवाई भी एक विकल्प है। यह लीबिया में जारी हिंसा के जवाब में किया जा रहा है। हम लीबिया की जनता को स्पष्ट संदेश देते हैं कि इस अनचाही हिंसा के सामने हम उनके साथ खड़े होंगे। हम लोकतांत्रिक आदर्शों के जवाब में दमनचक्र देख रहे हैं। उधर लीबिया को नो फ्लाई   ज़ोन बनाने की बात भी  अमेरिका ने  शुरु की थी परंतु बाद में अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् के ऊपर यह निर्णय छोड़ दिया।

गौरतलब है गद्दाफी की सेना विद्रोहियों पर हवाई हमला भी कर रही है. विद्रोहियों व सैनिकों के बीच के इस टकराव में अब तक एक हज़ार से अधिक लोगों के मारे जाने का भी समाचार है। ऐसे में यदि लीबिया को उड़ान निषिध क्षेत्र घोषित कर दिया जाता है फिर किसी भी विमान को लीबियाई आकाश पर उडऩे की इजाज़त नहीं होगी। कोई विमान लीबिया पर उड़ता नज़र आया तो अंतर्राष्ट्रीय सेना उस जहाज़ के विरुद्ध कोई भी कार्रवाई कर सकती है।

लीबिया में नॉटो की दखलअंदाज़ी के विषय में भी फैसला सुरक्षा परिषद् को ही लेना है। सवाल यह है कि लीबिया को लेकर अमेरिका की नीति कितनी स्पष्ट व पारदर्शी है। यदि अमेरिका लोकतंत्र स्थापित करने तथा विद्रोहियों द्वारा राजनैतिक सुधार लागू करने का हिमायती है तो अमेरिका के मधुर संबंध और भी तमाम ऐसे देशों से हैं जहां या तो राजशाही है या तानाशाही है। कई देश अमेरिका के मित्र हैं जहां लीबिया से कहीं अधिक भूख, बेरोज़गारी, मंहगाई व भ्रष्टाचार है।

ऐसे में अमेरिका द्वारा गद्दाफी का हटाने की जि़द क्यों?क्या सिर्फ इसलिए कि कर्नल गद्दाफी अमेरिका की कठपुतली बनकर नहीं रहते?या वास्तव में अमेरिका लीबिया के विद्रोहियों के प्रति हमदर्दी का भाव रखता है?इस मुद्दे पर स्वयं गद्दाफी का यह कहना कि पश्चिमी देशों तथा कई यूरोपीय देशों की नज़रों में लीबिया के तेल भंडार खटक रहे हैं। और इसी जन विद्रोह के बहाने यह देश लीबिया में प्रवेश करना चाह रहे हैं।
गद्दाफी की इस बात को सिरे से खारिज भी नहीं किया जा सकता। क्योंकि 1990 से 2003 में इराक में प्रवेश करने तक अरब व मध्य-पूर्व क्षेत्र को लेकर अमेरिकी नीति को दुनिया बहुत गौर से देख रही है। इराक पर हमले के बाद तो पूरी दुनिया में अमेरिका को इसी नज़र से देखा जाने लगा है कि उसकी गिद्ध दृष्टि प्राय: तेल के भंडारों पर ही रहती है। ऐसे में गद्दाफी द्वारा अमेरिका को संदेह की नज़रों से देखना भी बिल्कुल गलत नहीं आंका जा सकता।

दूसरी तरफ समय बीतने के साथ-साथ लीबिया में गद्दाफी समर्थक सैनिकों तथा विद्रोहियों के बीच लगातार उतार-चढ़ाव तथा एक-दूसरे पर बढ़त लेने की भी खबरें प्राप्त हो रही हैं । ऐसा नहीं है कि लीबिया की शत-प्रतिशत जनता ही गद्दाफी के विरुद्ध हो। तमाम जगहों पर भारी तादाद में आम जनता भी गद्दाफी समर्थक सेना का साथ दे रही है। कई जगहों पर सेना, विद्रोहियों के कब्ज़े से कई कस्बों व शहरों को छुड़ा चुकी है। ज़ाबिया तथा रास लानुफ जैसे प्रमुख तेल उत्पादक शहर जिन पर कि पहले विद्रोहियों का कब्ज़ा था अब पुन:गद्दाफी समर्थकों व सेना के कब्ज़े में वापस आ गये हैं।

इससे यह साफ लगने लगा है कि गद्दाफी को सत्ता से हटाना उतना आसान नहीं है जितना कि दुनिया समझ रही है। परंतु साथ-साथ ऐसा भी महसूस किया जा रहा है कि शायद गद्दाफी को सत्ता मुक्त करने की जितनी जल्दी विद्रोही संगठन अर्थात् नेशनल लीबियन कौंसिल को है उससे भी कहीं ज्य़ादा जल्दी में फ्रांस जैसे देश दिखाई दे रहे हैं। संभवत:यही वजह है कि फ्रांस दुनिया का पहला ऐसा देश बन गया है जिसने कि एनएलसी अर्थात् नेशनल लीबियन कौंसिल को यह मान्यता दे दी है कि एनएलसी ही लीबिया वासियों का वैध प्रतिनिधित्व कर रही है।

 यह फैसला गत् दिनों फ्रांस के राष्ट्रपति निकोलस सरकोज़ी तथा एन एल सी के प्रतिनिधि मंडल के मध्य हुई एक बैठक में लिया गया। हालांकि यूरोपीय संघ सरकोज़ी की इस जल्दबाज़ी के पक्ष में नहीं है। यूरोपीय संघ का मानना है कि अभी लीबिया पर नज़रें रखने की ज़रूरत है तथा यह देखना ज़रूरी है कि विद्रोही कौन हैं, क्या चाहते हैं और यह वास्तव में सच्चे लीबियाई प्रतिनिधि हैं भी या नहीं। यूरोपियन यूनियन इस बात की भी पक्षधर है कि लीबिया के विषय पर अरब लीग के साथ मिलजुल कर काम किया जाए तथा उसकी सहमति से ही कोई निर्णय लिया जाए।

उपरोक्त सभी परिस्थितियों के मध्य लीबिया के ताज़ातरीन हालात यही हैं कि वहां गृह युद्ध जैसे हालात बने हुए हैं। इन्हीं हालात के परिणामस्वरूप तीन लाख से अधिक लोग विस्थापित हो चुके हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ 6लाख विस्थापितों हेतु सोलह करोड़ बीस लाख डॉलर जुटाने की अपील भी कर चुका है। इन सब के बावजूद लीबिया पर लगभग 42वर्षों तक सत्ता पर काबिज़ रहने वाले कर्नल गद्दाफी की पकड़ देश पर अभी भी उतनी कमज़ोर नहीं हुई है जितना कि गद्दाफी विरोधी शासक या देश उम्मीद कर रहे हैं।

वैसे भी राष्ट्रपति ओबामा चाहे लीबिया में नॉटो कार्रवाई के पक्षधर हों या वहां नो फ्लाई  ज़ोन बनाने के। परंतु राष्ट्रपति ओबामा के प्रमुख ख़ुफ़िया  सलाहकार जनरल जेम्स क्लेपर का आखिरकार  यही मानना है कि लीबिया में विद्रोहियों की जीत बहुत मुश्किल है। क्लेपर मानते हैं कि आखिरकार  जीत गद्दाफी की ही होगी। क्योंकि उनके सैनिक ज़्यादा अच्छी तरह से प्रशिक्षित हैं और उनके पास बेहतर हथियार भी हैं। साथ ही साथ न केवल गद्दाफी समर्थकों बल्कि गद्दाफी विरोधियों के मन में भी कहीं न कहीं यह बात समाई हुई है कि कहीं ऐसा न हो कि गद्दाफी को अपदस्थ करने के बहाने तथा विद्रोहियों को समर्थन देने की आड़ में अमेरिकी सेना लीबिया में प्रवेश कर जाए।

ऐसी परिस्थिति उत्पन्न होने से पूर्व ईरान भी अमेरिका को चेतावनी भरे लहज़े में अपना संदेश दे चुका है। कुल मिलाकर यही हालात कर्नल गद्दाफी को उर्जा प्रदान कर रहे हैं ऐसे में आसान नहीं है कर्नल गद्दाफी की बिदाई।




लेखक  हरियाणा साहित्य अकादमी के भूतपूर्व सदस्य और राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय  मसलों के प्रखर टिप्पणीकार हैं.उनसे tanveerjafari1@gmail.com  पर संपर्क किया जा सकता है.