Mar 16, 2011

करोड़ों की मिलें, कौड़ियों के मोल

चीनी मिलें एकाएक बीमारू या कम क्षमता की नहीं हुईं। यह प्रक्रिया 1990 में नयी आर्थिक नीतियों की शुरूआत के बाद से शुरू  हुई जब सरकारों ने मिलों की क्षमता बढ़ाने के बजाय निजी मिल मालिकों के लिए पलक बिछाना शुरू किया...


अजय प्रकाश

उत्तर प्रदेश में सरकारी चीनी चीनी मिलों का इतिहास इतनी जल्दी पलटेगा इसका अनुमान किसी को नहीं था। जिन निजी मिल मालिकों की चीनी मिलों को सत्तर और अस्सी के दशक में सरकार ने अधिगृहित कर जान डाली थी,उनकी लॉबी अब इतनी मजबूत हो जायेगी कि सरकार अपनी चीनी मिलों की क्षमता बढ़ाने की बजाय उसे बंद करना राज्य के हित में मानेगी और फिर कौड़ियों के भाव बेचना राज्य की उन्नति, ये अंदाजा भी नहीं था।

वह भी सरकार ऐसा तब करेगी जबकि सुप्रीम कोर्ट ने मिलों की संपत्ति बेचने पर फैसला न दिया हो। मगर ऐसा हो रहा है और राज्य की मायावती सरकार बंद पड़ी सरकारी चीनी मिलों की पूरी संपत्ति को कौड़ियों के भाव अपने नजदीकियों को बेच रही हैं।

उत्तर प्रदेश स्टेट ‘शूगर कॉरपोरशन लिमिटेड (यूपीएसएससीएल),  'शूगर  कॉआपरेटिव मिल और निजी चीनी मिलों को मिलाकर कुल 108 मिलों के साथ यह प्रदेश देश का सबसे बड़ा चीनी उत्पादक राज्य हुआ करता था। जिसमें 35 चीनी मिलें सरकार की, 28    की और शेष निजी घरानों की थीं। जिसमें अब सरकारी एक भी नहीं बची हैं और कोआपरेटिव को भी सरकार ने बेचने का बिगुल बजा दिया है। अब उत्तर प्रदेश शूगर कॉरपोरेशन कर्मचारी संघ के मात्र 200लोग बचे हैं।

भटनी चीनी मिल : कौड़ियों  के मोल बिकी                             फोटो- अनिल मिश्र

 कॉरपोरेशन के एक कर्मचारी ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि ‘अगर सही तहकीकात हो तो प्रदेश की मिलों के बेचने में मुंबई के आदर्श सोसाइटी घोटाला से बड़ा घपला सामने आयेगा। कॉरपोरशन की जिस मिल में 22 करोड़ का सीरा और चीनी थी, उसे मात्र आठ करोड़ में बेच दिया गया, जबकि जमीन, मशीनों और बिल्डिंग की कीमत तो अभी अलग है।’

राज्य विभाजन के बाद उत्तराखंड में जा चुकी किच्छा और देहरादून की मिलों को छोड़ दें तो निगम की हरेक चीनी मिल में हजार से पंद्रह सौ कर्मचारी तो काम करते थे। यानी बेकारी से त्रस्त इस राज्य में सरकार की सिर के बल खड़ी नीतियों ने 33 मिलों के करीब 35 हजार मजदूरों को बेकार कर उनके लाखों आश्रितों को बदहाली में रहने को बाध्य किया।


भटनी और सहारनपुर में किस भाव बिकी मिलें

सहारनपुर                                                                               
चीनी मिल के पास कुल जमीन - 61.84 हेक्टेयर
सर्किल रेट के मुताबिक इसका रेट- 486.70 करोड़
मशीनों और प्लांट का रेट- 1.27 करोड़
बिल्डिंग की कीमत - 2.63 करोड़
चीनी और सीरा के स्टॉक की कीमत - 22.53 करोड़
कुल अनुमानित कीमत- 513.13 करोड़
सरकार द्वारा निर्धारित दर - 70.90 करोड़
कंपनियों द्वारा लगायी गयी अधिकतम कीमत- 35.85 करोड़
कुल घाटा - 513.13 - 35.85 - 477.20 करोड़

भटनी
उत्तर प्रदेश शूगर कॉरपोरेशन लिमिटेड, भटनी यूनिट
चीनी मिल के पास कुल जमीन - 13.873 हेक्टेयर
सर्किल रेट के मुताबिक जमीन की कीमत - 66 करोड़
मशीनों और प्लांट की कीमत - 50 करोड़
बिल्डिंग की कीमत - 1.50 करोड़
कुल अनुमानित कीमत - 117.50 करोड़
त्रिकाल फुड्स एंड एकता प्रोडक्शन प्राइवेट लिमिटेड ने मील की संपत्ति खरीदी- 4.75 करोड़
कुल घाटा- 117.50 - 4.75- 112.75 करोड़
घाटे का कुल योग- 112.75 करोड़
चीनी मिलें एकाएक बीमारू या कम क्षमता की नहीं हुईं। यह प्रक्रिया 1990 में नयी आर्थिक नीतियों की शुरूआत के बाद से शुरू  हुई जब सरकारों ने मिलों की क्षमता बढ़ाने के बजाय निजी मिल मालिकों के लिए पलक बिछाना शुरू किया। नहीं तो 1987-88 तक उत्तर प्रदेश कुल चीनी उत्पादन का करीब 48प्रतिशत पैदा कर देश का सबसे बड़ा चीनी उत्पादक राज्य और देश में कुल गन्ना उत्पादन क्षेत्र 32.87 लाख हेक्टेयर में से सबसे अधिक 18.07 हेक्टेयर गन्ना बोने वाला राज्य रहा है।

अब उसी राज्य की चीनी मिलों की 20हजार करोड़ की संपत्ति को कौड़ियों के भाव बेचने के लिए आखिरकार कौन जिम्मेदार है। देवरिया,भटनी और बैतालपुर चीनी मिल को मात्र 70करोड़ में बेच  दिया गया है। जबकि अकेले भटनी चीनी मिल की संपत्ती लगभग 112 करोड़ की है। भारतीय किसान यूनियन के महासचिव राकेश टिकैत कहते हैं कि ‘निजी कंपनियों को संयंत्र लगाने के लिए बजट देने वाली सरकारें अपने मिलों के लिए बजट देती तो आधुनिक मशीनों के साथ क्या मिलों को बचा नहीं लिया जाता?’

गौरतलब है कि 1988 तक देश की कुल 356 चीनी मिलों में मात्र 109 मिलें निजी घरानों की थीं। लेकिन 1993 में ही प्रदेश की मुलायम सिंह सरकार बीमारू के नाम पर छह सरकारी चीनी मिलों के बंद करने और बेचने का रास्ता खोज निकाला था। इसमें बुढ़वल और बलरामपुर मिल को सिंह शूगर  मिल्स को सरकार ने बेच भी दिया था,जिसे उत्तर प्रदेश कॉरपोरशन कर्मचारी संघ ने अदालत जाकर बचाया था और दोनों कंपनियां फिर कॉरपोरेशन के कब्जे में आयी थीं।

अदालत को संघ ने आगाह कराया था कि सरकार ने बीमारू घोषित करने वाली अद्र्व न्यायिक संस्था डीआइएफआर और बीआइएफआर के इजाजत बगैर ही मिलें बेच दी हैं। इसके बाद मुलायम सरकार राज्य सचिव डीके मित्तल के नेतृत्व में सर्वोच्च न्यायालय पहुंचती है जिसके बाद अबतक का मामला अदालतों में घिसट रहा है। अगर इस बीच कुछ हुआ तो सिर्फ एक के बाद एक सरकारी चीनी मिलों का बंद होना और कौड़ियों के भाव बिकना।

प्रदेश में चीनी मिलों के इतिहास देखें तो जब निजी चीनी मिल घाटे के नाम पर बंद होने लगीं थीं तो 1971 में नारायण दत्त तिवारी की सरकार ने मजदूरों, किसानों, फसलों और उत्पादन को बचाने के लिए चीनी मिल कॉरपोरशन का गठन कर मिलों का सरकारीकरण शुरू किया। यह प्रक्रिया 1984 तक चली और 25मिलों को सरकार ने कॉरपोरेशन की मिल बनाया। इसी प्रक्रिया में 28मीलों को कोआपरेटिव के तहत संचालित कराया।

मगर धीरे-धीरे सरकारी और कोआपरेटिव चीनी मिलों में राजनीतिक पैठ और नौकरशाही का बोलबाला बढ़ा और जनप्रतिनिधि किसानों-मजदूरों के हितैषी होने के बजाय कमीशनखोरी की नैया पर सवार हो निजी मालिकों के पक्ष में कानून बनाने लगे। उसी का असर है कि चीनी के सर्वाधिक उत्पादन वाले जिला कुशीनगर और देवरिया से संबद्ध प्रदेश भाजपा अध्यक्ष शिव प्रताप ‘शाही  पूरे विधान सभा सत्र में एक दिन भी मील का सवाल नहीं उठा पाते। बची कांग्रेस को उसको अपने महासचिव राहुल गांधी बनाम मायावती से फुर्सत ही नहीं है कि वह मुद्दा बना सके।

अगर 1990 के बाद से देखा जाये तो राज्य में वह सत्ताधारी पार्टी हो या विपक्षी किसी ने राज्य की सरकारी चीनी मिलों को बचाने के लिए कभी संजीदा प्रयास नहीं किया। दूसरा कि इससे सिर्फ कर्मचारी ही नहीं प्रभावित हो रहे थे बल्कि राज्य की जनता इन मिलों के बंद होते जाने से बेकारी के भी नजदीक पहुँच  रही थी और पूर्वी उत्तर प्रदेश में कई लाखों किसानों के जिवीका का जरिया छिन गया। जरवल चीनी मिल के पूर्व कर्मचारी राकेश बहादुर कनौजिया बताते हैं,‘अभी 6से 10 चीनी मिलों में जितने कर्मचारी निजी  कंपनियों में काम करते हैं उतने अकेले किसी एक सरकारी मिल के कर्मचारी थे।’

बावजूद इसके 1999से बीमारू और घाटे के नाम पर बंद पड़ी मिलों के बेचने का जो सिलसिला शुरू  हुआ था, उसे मायावती सरकार जारी रखे हुए है। प्रगति इतनी भर है कि मौजूदा सरकार बंद मिलों को पोंटि चड्ढा जैसे अपने नजदीकियों को कबाड़ के भाव बेच रही हैं। अगर बेचने में अदालत या जिम्मेदार संस्थाएं अड़चन डाल रही हैं तो मायावती मुकाबले के लिए प्रसिद्ध वकील और अपने सिपहसालार सतीश चंद्र मिश्र को निपटने के लिए तैनात कर देती हैं। वैसे में जनता क्या यह मान ले कि सर्वजन हिताय का यही ढांचा है।
 
साथ में सेवाकांत शिवेश
द पब्लिक एजेंडा से  साभार 

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