Dec 21, 2010

'तुम्हारे घर में घुसकर मारा जायेगा'


मां दंतेश्वरी आदिवासी स्वाभिमानी मंच,दंतेवाड़ा की ओर से एक पर्चा प्रसारित हुआ है। इसके प्रसारित किये जाने का मकसद माओवादियों के एजेंट एनजीओ और उन पत्रकारों की असलियत बताना है जो बस्तर में मानवाधिकार का ढोंग रचते हैं। अपनी मूल भावना के साथ, प्रस्तुत है बगैर संपादित पर्चा...

प्रिय जनता

बस्तर के भाकपा(माओवादी)की दरभा डिविजन कमेटी शाखा दंतेवाड़ा की निर्दोष जनता को डरा धमकाकर उनका आर्थिक, शारीरिक, मानसिक शोषण कर रही है। रात के अंधेरों में मासूम जनता के घरों में घुस कर उन्हें बंदूकों की नोक पर गलत काम करवाकर अपना उल्लू सीधा कर रही है।

आंध्र प्रदेश से आकर तथाकथित कामरेडों का चोला ओढ़कर ये नक्सली बस्तर की जनता को गुमराह कर उन्हें विकास से कोसों दूर ले जा रहे हैं। आज बस्तर की जनता इन आतंकी रूपी नक्सलियों के कारण 17वीं शताब्दी में जीने को मजबूर हैं।

ये नक्सली स्कूल तोड़कर बच्चों से शिक्षा का अधिकार छीन रहे हैं। निर्दोष लोगों को मारकर आतंक के साए में जीने का मजबूर कर रहे हैं,रात को जब जनता चैन की नींद सोना चाहती है तो ये कुत्तों की तरह सारी रात जागकर क्षेत्र में आतंक और अशांति फैलाकर ये राक्षस रूपी माओवादी क्या साबित करना चाहते हैं यह तो समझ से परे है। ये भ्रष्ट शोषक  लोग जनता को लूट कर अपना घर भर रहे हैं और अपने बच्चों को बड़ी-बड़ी शिक्षा के लिए दिल्ली, हैदराबाद, बैंगलोर जैसे शहरों में भेज रहे हैं।

मगर बस्तर के के भोले-भाले आदिवासी अपने बच्चों को स्कूल की शिक्षा तक अपने गांव में इन नक्सलियों के कारण नहीं ले पाते हैं। एनएमडीसी,एस्सार और बड़े-बड़े ठेकेदारों से पैसों की मांग कर उनके कामों को बंद करने की धमकी,रात को गाड़ियों की आवाजाही बंद कर लूटपाट का ठेका इन्हीं माओवादियों ने ले रखा है। कथित माओवादियों ने बस्तर की निर्दोष जनता से जीने का हक छीन लिया है।

पर्चे की मूल प्रति: सरकार का गैर सरकारी संगठन


एक कहावत है कि एक अकेला चला भाड़ नहीं फोड़ सकता मगर जब से डीआईजी कल्लूरी साहब पदस्थ हुए हैं तब से इन नक्सलियों का दिन में चैन और रात को नींद उड़ चुकी है। कल्लुरी जैसे जांबाज अधिकारी जिन्हें आज नहीं तो कल दंतेवाड़ा से जाना है फिर भी वे जनता के हित में इन नक्सलियों से मोर्चा ले रहे हैं।

ये दलाल माओवादी जिनकी रोजी-रोटी दलाली से,लोगों को लूटकर, आतंक फैलाकर, बसों में लूटपाट कर चल रही है। इन माओवादियों को समझ लेना चाहिए कि अब से बस्तर के अमन पर ज्यादा दिनों तक डाका डाल नहीं पाएंगे। आज कोई भी नेता या अफसर क्षेत्र के विकास के बारे में सोचकर जनता की सेवा करना चाहता है तो उन्हें गांवों में ना जाने का फरमान जारी कर जनता से दूर रख ये
माओवादी अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं।


किसी भी नेता-अफसर को मारने का फरमान जारी कर ये ज्यादा दिनों तक डरा धमका नहीं सकते। अगर तुममें दम है तो अपना नाम, अपने मांबाप का नाम-पता अगर है तो बताओ, तुम्हें तुम्हारे घर में घुसकर मारा जायेगा। ये क्षेत्र की जनता का दावा है।

तथाकथित पत्रकारों एनजीओ के पिटठू नक्सलियों तुम चाहे हिमांशु कुमार हो या अधुरती राय(अरूंधती राय),चाहे एनआर पिल्लई हो चाहे अनिल यादव या यशवंत मिश्रा सबका एक ना एक दिन हिसाब कर दिया जायेगा। मानव अधिकारी कार्यकर्ता की आड़ में तुम ज्यादा दिन तक खैर नहीं मना सकते, तुम्हें जल्द ही बस्तर छोड़ना होगा। नहीं तो कुत्ते की मौत मारे जाओगे।

 
मां दंतेश्वरी
आदिवासी स्वाभिमानी मंच
दंतेवाड़ा

सुरक्षा बलों के शुक्रगुजार हों नक्सली!

दंतेवाड़ा में NEREGAके पैसे से पुलिस के आदेश पर सड़क किनारे का सैंकड़ों किलोमीटर जंगल साफ़ कर दिया गया था.लाखों सागौन के कीमती पेड़ काट डाले गए.उन पेड़ों की लकड़ी से सुरक्षा बलों के अधिकारियों ने फर्नीचर बनवा कर ट्रकों में कर अपने घर यूपी,राजस्थान,हरियाणा भिजवा दिया.


हिमांशु कुमार

केंद्र  सरकार   और प्रधानमंत्री की ओर से चिदंबरम साहब ने घोषणा की है,' नक्सल प्रभावित जिलों में विकास को बढ़ा कर नक्सलवाद को समाप्त किया जायेगा.जिसके लिए नक्सल प्रभावित,प्रत्येक जिले को पहले साल में पच्चीस करोड़ रुपिया दिया जाएगा.'इन जिलों में दंतेवाड़ा भी शामिल है. अभी हम इस बात की बिलकुल चर्चा नहीं करेंगे की इसके साथ ही साथ उन्होंने छत्तीसगढ़ में कितने सौ करोड़ रुपये हथियार खरीदने के लिए भी बिना किसी शोर शराबे के चुपचाप दे दिए जबकि पच्चीस करोड़ का व्यापक प्रचार किया गया.

पच्चीस करोड़ की इस घोषणा को सुनते समय मेरे मन में दंतेवाडा घूमने लगा ओर इस पैसे का वहां कैसे इस्तेमाल किया जाएगा इस की तस्वीर मेरे सामने बनने लगी.दंतेवाडा इस समय पुलिस और सुरक्षा बलों की छावनी बना हुआ है.वहां क्या काम हो सकता है,कहाँ काम किया जायेगा ,कौन करेगा आदि बातें ये बंदूकधारी एजेंसियां तय करती हैं . अब जो गाँव नक्सल प्रभावित है, यानी जहां के लोग सलवा जुडूम कैम्पों में नहीं आये या जो पुलिस के पास जाकर नक्सलियों की मुखबिरी नहीं करते वो सब नक्सल गाँव मान लिए गए हैं.

इन गावों को ये सरकारी सुरक्षा बंदूकधारी एजेंसियां बदमाश गाँव कहती हैं और वहां कोई भी काम जो लोगों को राहत देने वाला हो वो नहीं होने देतीं, जैसे स्कूल, राशन दूकान,स्वास्थ्य सुविधाएं आदि. इसके पीछे वो ये तर्क भी देती हैं की ये राहत गाँव वालों के मार्फ़त नक्सलियों तक पहुँच जायेगी. तो अब पहले तो ये पच्चीस करोड़ की राशि नक्सल प्रभावित गावों में खर्च ही नहीं होगी और गैर नक्सल प्रभावित गावों में इस मद का प्रयोग दिखाया जायेगा. खर्च दिखाई जायेगी. यानी सरकार के मंसूबे पहले कदम पर ही ओंधे मुंह गिर जायेंगे.और नक्सलियों का इससे कोई नुकसान नहीं होगा, (नक्सलियों को इसके लिए सरकारी बलों का शुक्रगुजार होना चाहिए).

दूसरा ये नक्सल उन्मूलन का पैसा खर्च कौन करेगा?ये फैसला भी सुरक्षा बल ही करेंगी.और इन सुरक्षा बलों के कुछ अपने कुछ ख़ास लोग होते हैं. ये वो लोग होते हैं जिनका काम सलवा जुडूम में ना जुड़े गाँव वालों, सलवा जुडूम को पसंद ना करने वाले आदिवासी जनप्रतिनिधियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के विरुद्ध सुरक्षा बलों के कान भरते रहते हैं. कान भरने वाले यही चुगलखोर सरकार के मित्र माने जाते हैं.

ये लोग मुख्यतः गैर आदिवासी हैं और बस्तर में बाहर से आये हैं. ये लोग सलवा जुडूम के नेता हैं, कुछ कांग्रेस में जुड़े हैं, कुछ भाजपा में. इनमें से कई उद्योगपतियों के लिए दलाली का भी काम करते हैं और मुख्यतः ठेकेदारी करते हैं.यही लोग साइड बिजनेस के रूप मैं पत्रकारिता का भी काम करते हैं और सरकार का गुणगान करते हैं और जनता की तकलीफों से जुडी खबरों को छिपाने का काम करते हैं.

नक्सल उन्मूलन का ये पच्चीस करोड़ रुपिया इन्ही लोगों के मार्फ़त खर्च किया जाएगा और वास्तविकता में विकास के लिए तरसते लोग तरसते ही रह जायेंगे.ये जनता के दुश्मन लोग और पैसे वाले हो जायेंगे.लोगों का गुस्सा सरकार के प्रति और बढेगा,आदिवासी और अधिक नक्सलियों की तरफ चले जायेंगे.तो सोचा तो ये गया था की इन पच्चीस करोड़ से नक्सलवाद कम होगा, लेकिन इन पच्चीस करोड़ के खर्च का परिणाम उल्टा आएगा.

अन्य आदिवासी इलाकों की तरह दंतेवाड़ा में भी सरकारी भ्रष्टाचार पर निगरानी रखने वाले गैर सरकारी संगठन योजनाबद्ध तरीके से समाप्त कर दिए गए हैं और जो भी सरकारी गड़बड़ियों के बारे मैं प्रश्न करता है उसे नक्सली कह कर जेलों में डाल दिया जाता है. कोपा कुंजाम,करतम जोगा और बहुत सारे जन नेता जेलों में बंद कर दिए गए हैं. तो इस पच्चीस करोड़ रुपयों की बंदरबांट पर अब बोलने वाला कोई नहीं बचा. सारा पैसा पुलिस, अधिकारी और सलवा जुडूम के नेता मिल कर डकार जायेंगे और नक्सलवाद पहले ही की तरह चलता रहेगा.

मुझे याद है दंतेवाड़ा में NEREGAके पैसे से पुलिस के आदेश पर सड़क किनारे का सैंकड़ों किलोमीटर जंगल साफ़ कर दिया गया था. लाखों सागौन के कीमती पेड़ काट डाले गए. उन पेड़ों की लकड़ी से सुरक्षा बलों के अधिकारियों ने फर्नीचर बनवा कर ट्रकों में कर अपने घर यु पी, राजस्थान, हरियाणा भिजवा दिया और कागजों में वृक्षारोपण का काम दिखा दिया गया.तो इस पच्चीस करोड़ से मुझे पूरा विश्वास है पुलिस के फायदे का काम ही किया जाएगा जनता के फायदे का तो बिलकुल नहीं. इसलिए श्रीमान चिदंबरम साहब जनता की आँखों मैं धूल मत झोंकिये और जनता को ये पता चलने दीजिये की जिन्हें वो अपना रक्षक मानती है,वही उसकी सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा हैं.

अभी तो विकास का पैसा डकारने का एक नया तरीका दंतेवाडा में इजाद किया गया है.अब वहां विकास के काम क्रियान्वित करने की ज़िम्मेदारी पुलिस का एसपी खुद ही ले लेता है और आदिवासी विकास का पैसा एसपी को दे दिया जाता है.जो निश्चित न्यूनतम मजदूरी एक सौ के बजाय बीस रूपये रोज में सलवा जुडूम कैम्प में रहने वाले आदिवासियों से काम करवा कर देता है.

उदाहरण के लिए बीजापुर से गंगलूर की सीसी रोड बनाने की एजेंसी बीजापुर का एसपी था.ये वही लायक एसपी थे जिनके संरक्षण में 12महूआ बीनते हुए लोगों को कुल्हाड़ी से काट दिया गया था.संतसपुर-पोंजेर कांड के नाम से जो नरसंहार मशहूर हुआ था,पहले तो इन एसपी साहब ने सरकार की पालतू मीडिया के मार्फ़त प्रचार किया था की पुलिस ने 12नक्सलियों को मार दिया है मगर लाशें नक्सली उठा कर ले गए.

हमारी संस्था के कार्यकर्ताओं ने जाकर जाँच की और एक मित्र पत्रकार को भी ले गए जिसके वीडियो में सलवा जुडूम से जुड़ा सरपंच जो इस हत्याकांड में शामिल था,वह सच बयान करते हुए कैमरे पर दिख रहा है.बाद में जब और ज्यादा शोर हुआ तो कांग्रेस ने अपना जाँच दल वहां भेजा था,अंत में राज्य मानवाधिकार आयोग के निर्देश पर इन्ही एसपी साहब को गाँव में जाकर वही लाशें खोदनी पडीं जिसे वो नक्सलियों द्वारा ले जाया गया बता चुके थे. उस समय गाँव वालों ने साफ़ साफ़ बयान दिया था कि उनके रिश्तेदारों को पुलिस ने मारा है.जबकि इन्ही एसपी साहब ने एफ़आईआर में लिख दिया था कि गाँव वालों का कहना है कि अज्ञात वर्दीधारियों द्वारा हमारे रिश्तेदारों की हत्या की गयी है.

वो मामला आज तक दबा ही हुआ है,और पुरस्कार स्वरुप इन एसपी साहब को राज्य मानवाधिकार आयोग का सचिव बना दिया गया था.इन्ही एसपी साहब ने सलवा जुडूम के एक नेता मधुकर राव को आदिवासी मानवाधिकार कार्यकर्ता कोपा कुंजाम को मारने की सुपारी दी थी और कोपा ने इस पर इन्ही एसपी साहब के खिलाफ एक एफआईआर भी दर्ज कराई थी और जिसके परिणाम स्वरुप कोपा जेल में है. ऐसे राज्य में विकास का पचीस करोड़ किसके हाथों में जायेगा, यह जरूरतमंद पहले से ही बखूबी जानते हैं हैं.


दंतेवाडा स्थित वनवासी चेतना आश्रम के प्रमुख और सामाजिक कार्यकर्त्ता हिमांशु कुमार का संघर्ष,बदलाव और सुधार की गुंजाईश चाहने वालों के लिए एक मिसाल है.उनसे vcadantewada@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.



Dec 20, 2010

उदय प्रकाश को साहित्य अकादमी


हमारे समय के सर्वाधिक चर्चित कहानीकारों में शुमार उदय प्रकाश को इस वर्ष का साहित्य अकादमी पुरस्कार दिये जाने की घोषणा हुई है।


उदय प्रकाश

जनज्वार से हुई बातचीत में उदय प्रकाश ने बताया कि पुरस्कार दिये जाने की जानकारी बधाई संदेशों से हुई है, जो उन्हें दिये जा रहे हैं। अभी साहित्य अकादमी प्रबंधन की ओर से पुरस्कार दिये जाने की औपचारिक पुष्टि संदेश उदय प्रकाश तक नहीं पहुंच सका है।

साहित्यकार उदय प्रकाश को संभावना है कि यह पुरस्कार उनकी कहानी ‘मोहनदास’ या कविता संग्रह ‘एक भाषा हुआ करती थी’ पर मिला होगा। उनसे यह पूछने पर कि ज्यादा संभावना किस रचना के पुरस्कार मिलने पर है तो उन्होंने ‘मोहनदास’का जिक्र किया।

मोहनदास का कई भाषाओं में अनुवाद हो चुका है और इस कहानी पर आधारित एक फिल्म भी बन चुकी है जिसका निर्देशन मजहर कामरान ने किया था.लम्बे समय बाद कहानीकार निर्मल वर्मा के बाद कहानी में साहित्य अकादमी पुरस्कार उदय प्रकाश को दूसरी बार दिया जायेगा।

मध्यप्रदेश के अनूपपुर जिले के सीतापुर गांव से आनेवाले उदय प्रकाश लंबे समय से दिल्ली में रह रहे हैं। आलोचक और प्रशंसक मानते हैं कि उदय प्रकाश ने अपनी कहानियों में नये आयाम और बिंब गढ़े हैं।

Dec 19, 2010

बलात्कारी सेना, हत्यारी फौज


संभव है यह विडियो देख आप अपने बच्चों की आंखें ढंक लें,परिवार के दूसरे सदस्यों को भी देखने से मनाही करें और खुदा से कहें कि वह आपको इस शोक  से उबरने का साहस दे। शोक और घृणा से भर देने वाला यह विडियो उस श्रीलंकाई सेना की जीत का है जिसकी खुशी में साझीदार हमारी सरकार भी रही है।

यह विडियो लिट्टे विद्रोहियों के 25साल पूराने संघर्ष के खात्मे और 70 वर्ष पूराने इतिहास के छिन्न-भिन्न किये जाने का है जिसकी खुशी हमारे देश के शासकों को भी है। केंद्रीय गृहमंत्री पी.चिदंबरम ने तो बकायदा बयान दिये कि आतंकियों से निपटने में श्रीलंका ने मिसाल कायम की है। गृहमंत्री का यह उत्साही बयान भारतीय संदर्भों में अधिक चिंताजनक है। क्योंकि हमारे देश में भी माओवादी-व्यवस्था परिवर्तन के लिए सरकार के खिलाफ हथियार बंद संघर्ष चला रहे हैं और पूर्वोत्तर और कश्मीर में अलगाववादियों के संघर्ष चरम पर हैं।

लिट्टे विद्रोहियों पर श्रीलंकाई सेना की फैसलाकून जीत की घोषणा के तीन महीने बाद लंदन स्थित चैनल फोर ने यह विडियो प्रसारित किया था। तब श्रीलंका की सरकार ने इसे फर्जी करार दिया था। मगर बाद में संयुक्त राष्ट्र संघ की जांच  में प्रसारित विडियो का सही पाया गया।



दुबारा यह विडियो पहले के मुकाबले ज्यादा विस्तार से इस वर्ष नवंबर माह में चैनल ने उस समय प्रसारित किया जब श्रीलंका के राष्ट्रपति महिंद्रा राजपक्षे लंदन पहुंचे। राजपक्षे लंदन में इस बार व्यक्तिगत कारणों से आये थे। विडियो में साफ सुना जा सकता है कि कैसे मृत नंगी महिलाओं का विडियो बनाते हुए श्रीलंकाई सेना के जवान गालियां दे रहे हैं और उन्हें इसी काबिल बता रहे हैं।

चैनल 4न्यूज के विदेश संवाददाता जोनाथन मिलेर कहते हैं कि ‘हमने पांच मिनट तीस सेकेंड का विडियो संयुक्त राष्ट्र संघ के सदस्यों को भेजा था जिसे देख उन्होंने राय जाहिर किया कि इसकी ‘अंतराष्ट्रीय युद्ध अपराध’के तहत जांच होनी चाहिए।

अंतरराष्ट्रीय गैरसरकारी संस्था एमनेस्टी इंटरनेशल के सैम जैरिफी ने कहा कि ‘हमने नये विडियो में कुछ नये तथ्य ये पाये हैं। विडियों में दिखायी दे रही दो महिला कैदियों की स्थिति देख लग रहा है कि उनके साथ यौन अपराध हुआ है।’जबकि इस विडियो को श्रीलंका के उच्चायोग ने फर्जी बताया है और विडियो को पश्चिम के लिट्टे और अलगाववादी समर्थकों की करतूत करार दिया है।

यह विडियो लंबे समय तक यूट्यबू पर भी था। बाद में इसे कश्मीर में सेना की ज्यादतियों को लेकर जारी विडियो के साथ ही वहां से हटा दिया गया। विडियो देख साफ हो जाता है कि श्रीलंकाई सरकार गृहयुद्ध में अपने ही देश के नागरिकों के विद्रोह से कैसे निपटी।

ऐसे में सवाल है कि क्या हमारे देश में भी विद्रोहियों से निपटने का यही तरीका अपनाया जायेगा या अपनाया जा रहा है। क्योंकि केंद्रीय गृहमंत्री पी चिदंबरम ने तमिल विद्राहियों के खिलाफ श्रीलंकाई सरकार और सेना की कार्यवाही की वाहवाही की थी और उसे कार्रवाई का जायज तरीका बताया था।

Dec 17, 2010

और मैं ठगी रह गयी !


करीब तीन घंटे के बाद मेरे नंबर पर घंटी बजी। एक अनजान नंबर देख मेरी उत्सुकता वैसी ही थी जैसी उस अनजान व्यक्ति के दरवाजा खटकाने पर हुई थी...


विभा सचदेवा

जब भी  किसी घर का दरवाजा खुलता है तो दरवाजा खोलने वाले को उत्सुकता होती है कि आखिर कौन है। वही उत्सुकता मुझे भी हुई। दरवाजा खोलते ही मैंने पूछा, ‘कौन, किससे मिलना है?’

जवाब में सामने वाले ने कहा,मैडम मैं आपके दूधवाले का भाई हूं। मैं बताने आया था हमारी मां बहुत बीमार हो गई है और हमलोग मां को आल इंडिया मेडिकल (एम्स)ले जा रहे हैं। उसने मुझसे बताया है चार-पांच दिन नहीं आ पाएगा, तब तक आप कहीं और से दूध ले लेना।

तब मेरे मन में ख्याल आया कि अब थैली वाला दूध पीना पड़ेगा। दूसरे ही पल मेरे मन की भावनाऐं उस बीमार मां के प्रति जाग उठी और वो बोली,‘कोई बात नहीं भईया, हम मैनेज कर लेंगे।’ ये सुनते ही उस आदमी ने कहा ‘मैडम अपना फोन नंबर दे दीजिए,वो आने से पहले आपको बता देगा’। तब मैंने एक पल के लिए सोचा कि नम्बर दूँ की नहीं, फिर   दूसरे ही पल में फोन नंबर दे दिया और वह नंबर लेकर चला गया।

करीब तीन घंटे के बाद मेरे नंबर पर घंटी बजी। एक अनजान नंबर देख मेरी उत्सुकता वैसी ही थी जैसी उस अनजान व्यक्ति के दरवाजा खटकाने पर हुई थी। मेरे फोन उठाते ही दूसरी तरफ से आवाज आई, ‘मैडम मैं आपका दूध वाला बोल रहा हूं,मेरी मां बहुत बीमार है। प्लीज आप मेरे भाई को कुछ पैसे दे दीजिएगा,बाकी मैं आकर हिसाब कर लूंगा।’ मैंने ठीक है कह, फोन रख दिया। थोड़ी देर बाद वही आदमी आया जो सुबह आया था।

उसे देख मैं बटुआ लेने चली गयी। बटुआ खोलते वक्त मैं दुविधा में रही कि इसको कितने पैसे दूं। एक तरफ दिमाग आ रहा था उतना ही दूं जितने दूध के बनते हैं तो दूसरी तरफ दिल बोल रहा था,‘बेचारे को जरूरत है,इतने से उसका क्या होगा।’ दिल और दिमाग दोनों के इस द्वंद में मैंने अपनी सुनी और 600 रुपये निकालकर दे दिए। बाहर जाकर उसके ये बोलने की देर थी कि पैसा, तो मैंने कहा ये लो भईया। हाथ में नोट लेते हुए उसने कहा ‘मैडम बस इतने से,इतने में तो कुछ नहीं होगा।’

थोडे और दे दीजिए।’ फिर मैंने 500 रुपये और निकाल कर उसे दे दिये। पहले के छह सौ रूपये और अभी दिये 500 रुपये और मिलते ही वह व्यक्ति वहां से छूमंतर हो गया और मैं भी संतुष्टि की भावना के साथ अंदर चली गई। अंदर जाते ही बाहर से किसी के आने की आवाज आई। बाहर की तरफ देखा तो मेरी मां थी। मैंने पूरी बात मां को बताई तो उन्होंने पूछा ‘उसको फोन नंबर कैसे पता चला हमने तो कभी दिया नहीं था।’तब मैंने मां को बताया कि आज ही सुबह मैने ही दिया था। उसके बाद पूरी बात बतायी।

मां चौंकते हुए बोली,‘तुझे कैसे पता वो दूधवाला ही था? तूने पहले कभी उसकी आवाज फोन पर सुनी है।’इस सवाल का मेरे पास कोई जवाब नहीं था। मैंने उस नंबर पर फोन मिलाया जिससे उस दूधवाले का फोन आया था। लेकिन जो जवाब मुझे मिला उससे मैं ठगी रह गयी। जिस नंबर से फोन आया था वो मेरी गली के अगली गली में स्थित एसटीडी का नंबर था। जबकि दूधवाला तो शहर से 25 किलोमीटर किसी गांव से आत है।

फोन रखते ही मेरी मां ने पूछा और जवाब सुनने के बाद बोली,‘इतने पढ़े-लिखे होने के बाद भी तेरे में अकल नहीं आई। लड़की के अंदर की अच्छी लड़की जैसे टूट-सी गई थी और बुरी लड़की उसको बार-बार कह रही थी कि देख लिया मेरी बात न मानने का नतीजा। फिर भी उस लड़की ने अपने मन को तसल्ली दी और वो यही दुआ करती रही कि,‘हे भगवान कल दूधवाला न आये और मेरा शक  झूठा साबित हो।

सुबह रोज की तरह आज भी दरवाजा खटकने की आवाज आयी। मैं झट से उठकर बाहर की तरफ भागी तो देखती हूं सामने कि दूधवाला खड़ा है। तभी मेरी मां भी बाहर आ गयी और बोलने लगी ‘और करो अच्छाई। ये कलयुग है रामयुग नहीं, किसी दिन इस अच्छाई के चक्कर मे घर मत लूटवा देना।

इतना बोल मां ने दूधवाले के सामने बर्तन रख दिया। दूधवाला भी मां के गुस्से को ताड़ गया और पूछा,‘अरे क्यों डांट रहीं हैं बीटिया को।’उसके पूछते ही मां षुरू हो गयीं। पूरा किस्सा सुनते ही वह जोर-जोर से हंसने लगा। उसके बाद दूधवाले ने ठगी के ऐसे इतने मामले बताये कि मुझे एकबारगी लगने लगा कि भले लोगों की जगह समाज में बहुत कम रह गयी है। हालांकि मन में द्वंद भी था कि अगर मैंने इसे मान्यता बना ली तो वह बहुतेरे लोग जिन्हें कभी मदद की जरूरत होगी वे भी वंचित रह जायेंगे. 


  •      पुणे स्थित इंटरनेशनल स्कूल ऑफ़ ब्रोडकास्टिंग एंड जर्नलिज्म से इसी वर्ष पत्रकारिता  कर लेखन की शुरुआत. सामाजिक विषयों  और फ़िल्मी  लेखन  में रूची.उनसे sachdeva.vibha@yahoo.com पर संपर्क किया जा सकता है.

Dec 16, 2010

सपा और कांग्रेस की शांति में 'पीस पार्टी ' का दखल

मुसलमानों के पक्ष में उलेमा काउंसिल बनी, नेशनल लोकतांत्रिक पार्टी(नेलोपा) ने लड़ाई लड़ी और अब भविष्य की उम्मीदें लेकर पीस पार्टी उभरी है। मुसलमानों को लगता है कि इन तीनों पार्टियों के नेतृत्वकर्ता मुस्लिम है,इसलिए वह समुदाय को संदिग्ध बनाने की कोशिश के खिलाफ मैदान में उतरेंगे।

अजय प्रकाश की रिपोर्ट

बाटला हाउस कांड के बाद उत्तर प्रदेश के मुसलमानों में राजनीतिक नेतृत्व की चाहत पहले के मुकाबले ज्यादा ताकतवर ढंग से उभर कर आयी है। यह चाहत उत्तर प्रदेश में उन दलों के लिये चुनौती साबित होने जा रही है जो अपने को धर्मनिरपेक्ष राजनीति के अलंबरदार कहते रहे हैं। धर्मनिरपेक्ष पार्टियों से मुसलमानों का भरोसा उठने के तर्कसंगत कारण हैं और अब उनके बीच यह साफ हो चुका है कि सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का जवाब एक नया मुस्लिम ध्रुवीकरण ही है।

मुस्लिम समुदाय ने प्रदेश के दो विधानसभा सीटों के लिए हाल ही में हुए उपचुनावों में पीस पार्टी को मुकाबले में खड़ाकर और कांग्रेस को लड़ाई से बाहर कर अपनी मंशा जाहिर कर दी है। वहीं दोनों सीटों डुमरियागंज और लखीमपुरपर जीत हासिल करने वाली समाजवादी पार्टी भी इस नये राजनीतिक उभार से सकते में है और आरोप लगा रही है कि पीस पार्टी को गोरखपुर के मठाधीश और सांसद आदित्यनाथ से शह मिल रही है।

मुस्लिम समुदाय की इस तरह की चाहत के कारण पहले भी उत्तर प्रदेश और दूसरे राज्यों में ऐसी कई पार्टियों या संगठनों का उदय होता रहा है जो मुसलमानों का हिमायती होने की कोशिश में लगे रहे हैं। एक अनुमान के मुताबिक देश भर में पंजीकृत कुल एक हजार पार्टियों में मुसलमानों की हिमायती करीब 35हैं। केवल उत्तर प्रदेश में पीपुल्स डेमोके्रटिक फ्रंट,   पीस पार्टी ऑफ  इंडिया, मजलिस ए मशवरत, नेशनल लोकतांत्रिक पार्टी, भारतीय परचम पार्टी,इंसान दोस्त पार्टी सक्रिय हैं।

मगर दोबारा से इस अहसास को मुकम्मिल जमीन बाटला हाउस कांड ने दी। कारण कि अयोध्या में हुए बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद पहला मौका था जब उत्तर प्रदेश (खासकर पूर्वी)के मुसलमानों को लगा कि उन्हें नागरिक नहीं मुसलमान समझा जाता है।

आजमगढ़ के युवाओं को जब दिल्ली पुलिस ने आतंकवादी होने के आरोप में जामिया इलाके के बाटला हाउस में मार गिराया और गिरफ्तार किया था तो मुस्लिमों की नुमांईदगी का दावा करने वाली सपा और कांग्रेस ने खुफिया एजेंसियों के दावों के करीब खड़ा होना मुनासिब समझा। यहां तक कि पार्टियों के स्थानीय और छोटे नेताओं ने आजमगढ़ और आसपास के जिलों से पार्टी समर्थक मुसलमानों से बातचीत बंद कर दी और दिल्ली में बैठे बड़े नेता किंतु-परंतु में बयान देते रहे और फायदा आखिरकार खुफिया एजेंसियों और पुलिस को ही होता रहा।

दिल्ली में 13 सितंबर को हुए श्रृंखलाबद्ध बम धमाकों में शामिल रहने के संदेह में 19 सितंबर 2008 को बाटला हाउस में मारे गये साजिद और आतिफ,और उसके बाद एक टीवी चैनल के बाहर से गिरफ्तार आरोपी सैफ की वजह से पूरे आजमगढ़ की तस्वीर तकरीबन आतंकवादियों के गढ़ के तौर पर उभरने लगी।

राजधानी दिल्ली में इस घटना के बाद मुसलमानों को खासकर आजमगढ़ से ताल्लुक रखने वालों को हर स्तर पर सामाजिक बहिष्कार और लानत-मलानत झेलनी पड़ी। दिल्ली में रहकर पढ़ाई और नौकरी कर रहे ज्यादातर युवा अपने घर भाग गये,या गुमनाम होने को मजबूर हुए। प्राइमरी स्कूल के शिक्षक परवेज अहमद बताते हैं कि ‘इस पूरे घटनाक्रम ने धर्मनिरपेक्ष और न्याय की आस रखनेवालों को संदेह भर दिया और मुस्लिमों ने मजबूरी में ही सही मुस्लिम नेतृत्व को फिर गले लगाया।’

आजमगढ़ के सामाजिक कार्यकर्ता मसीउद्दीन के मुताबिक,‘भारत के जिन नागरिकों के परिजन देश की उन्नती और विकास में सदियों से लगे रहे उन्हें इन आरोपों ने जब संदिग्ध बना दिया तो उनकी अंतिम उम्मीद उन जनप्रतिनिधियों पर टिकी जो उनसे वोट लेते हैं। मगर वह भी ताल ठोककर खुफिया एजेंसियों के गलत तौर-तरीकों के खिलाफ मैदान में नहीं उतरे। यहां तक कि सैफ की गिरफ्तारी के बाद जब यह उजागर हुआ कि उसके पिता समाजवादी पार्टी के नेता हैं तो तत्काल प्रभाव से सपा ने इससे इनकार कर दिया था।’

'जनप्रतिनिधियों का नार्को टेस्ट हो'
राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ अयूब  



पीस पार्टी की कई वैकल्पिक मांगों में से एक ‘नार्को टेस्ट’भी है। पीस पार्टी का मानना है-धार्मिक ग्रंथों  पर हाथ रख नेता झूठी कसमें-वादे करते हैं। इसलिए सभी पार्टियों के अध्यक्षों का नार्को जांच हो कि उनके पार्टी चलाने का मकसद देशहित है या माफियाहित।



ऐसे समय में मुसलमानों के पक्ष में उलेमा काउंसिल बनी,नेशनल लोकतांत्रिक पार्टी(नेलोपा)ने लड़ाई लड़ी और भविष्य की उम्मीदें लेकर पीस पार्टी उभरी। आजमगढ़ के संजरपुर गांव के तारिक कहते हैं,‘मुसलमानों को लगता है कि इन तीनों पार्टियों के नेतृत्वकर्ता मुस्लिम है,इसलिए वह समुदाय को संदिग्ध बनाने की कोशिश के खिलाफ मैदान में उतरेंगे।’

आज यही वजह है कि उत्तर प्रदेश में मुस्लिम प्रतिनिधित्व वाली इन तीनों पार्टियों को राजनीतिक विश्लेषक इसे एक नयी बयार के रूप में देख रहे हैं। हालांकि इन पार्टियों की एक दूसरी ऐतिहासिक सच्चाई कुछ ही दिन मैदान में बने रहने की भी है, जिसका फायदा अंततः दूसरी बड़ी चुनावी पार्टियों को ही होता रहा है।

बाटला हाउस के बाद एक मात्र भरोसेमंद बनी उलेमा काउंसिल के निर्माण के दो साल भी नहीं बीते कि वह खंडित हो गयी और काउंसिल के प्रमुख सदस्य डॉक्टर जावेद अलग हो चुके हैं। आजमगढ़ से  पत्रकार अंबरीश राय कहते हैं,-काउंसिल मुसलमानों का कितना भला कर सकेगी इसका अंदाजा संसदीय चुनाव में आजमगढ़ से भाजपा की जीत से लगाया जा सकता है। जो भाजपा यहां से कभी नहीं जीती थी वह मुस्लिम विरोधी होते हुए भी यहां से पहली बार जीती और सपा हार गयी।’उलेमा काउंसिल के महासचिव असद हयात कहते हैं,‘सपा की हार का कारण काउंसिल नहीं बल्कि सपा का जातिवादी और मुसलमानों को ठगने का इतिहास रहा है।’

उलेमा काउंसिल ने पूर्वी उत्तर प्रदेश की पांच सीटों पर अपने प्रत्याशी खड़े किये थे जिनमें लालगंज और आजमगढ़ सीट पर सपा को हारने का कारण बनी। वहीं पीस पार्टी ने पिछले लोकसभा में कुल इक्कीस प्रत्याशी खड़े किये थे और उसे इन क्षेत्रों में चार फीसदी मतदाताओं ने वोट दिये। जाहिर तौर पर ये दोनों पार्टियां सर्वाधिक नुकसान सपा का करने वाली हैं।

 इसलिए इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि इसका सीधा फायदा भाजपा को होगा। पर इस नजरिये से नेलोपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अरसद खान ऐतराज रखते हैं। उनकी राय में ‘मुस्लिमों और समाज के कमजोर तबके को सभी पार्टियाँ  ठगती रहीं हैं,इसलिए मुस्लिम नेतृत्व का खालिस मतलब यह न निकाला जाये कि हम सिर्फ मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करेंगे।’

आगामी चुनावों में मुस्लिम नेतृत्व की मांग करने वाली इन पार्टियों का प्रदर्शन कैसा होगा,यह तो अभी परखा जाना है। मगर इतना तो साफ है कि पीस पार्टी की बढ़ती ताकत के मद्देनजर बसपा,कांग्रेस और इनसे भी बढ़कर सपा पेरशान है कि प्रदेश में वह अपने को मुसलमानों की हितैषी मानती है।

(पाक्षिक पत्रिका द पब्लिक  एजेंडा से साभार व संपादित)

Dec 14, 2010

कागजों पर पौष्टिक भोजन



कमजोर आदमी ने न्यायालय की अवमानना की होती तो जेल जाना पड़ता,लेकिन सरकार जब ऐसी लापरवाही दिखाती है तो उच्चतम अदालत विवश हो तल्ख टिप्पणियों से अपनी खीझ निकालती है।


संजय स्वदेश


देश की जनता को भुखमरी और कुपोषण से बचाने के लिए सरकार नौ तरह की योजनाएं चला रही है,पर बहुसंख्यक गरीबों को इन योजनाओं के बारे में पता नहीं है। गरीब ही क्यों पढ़े-लिखों को भी पता नहीं होगा कि पांच मंत्रालयों पर देश की भुखमरी और कुपोषण से लड़ने की अलग-अलग जिम्मेदारी है।

इसके लिए हर साल हजारों करोड़ रुपये खर्च हो रहे हैं। इसके जो भी परिणाम आ रहे हैं, वे संतोषजनक नहीं हैं। जिस सरकार की एजेंसियां इन योजनाओं को चला रही हैं, उसी सरकार की अन्य एजेसियां इसे धत्ता साबित करती हैं। निजी एजेंसियां तो हमेशा से ऐसा करती रही हैं।

पिछले राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण की रिपोर्ट से यह खुलासा हुआ कि देश के करीब 46प्रतिशत नौनिहाल कुपोषण की चपेट में हैं। 49प्रतिशत माताएं खून की कमी से जूझ रही हैं। इसके अलावा अन्य कई एजेंसियों के सर्वेक्षणों से आए आंकड़ों ने यह साबित किया कि सरकार देश की जनता को भुखमरी और नौनिहालों को कुपोषण से बचाने के लिए जो प्रयास कर रही है, वह नाकाफी हैं।

इसका मतलब कि सरकार पूरी तरह असफल है। समझ में नहीं आता आखिर सरकार की पांच मंत्रालयों की नौ योजनाएं कहां चल रही हैं। मीडिया की तमाम खबरों के बाद भी विभिन्न योजनाएं भुखमरी और कुपोषण का मुकाबला करने के बजाय मुंह की खा रही हैं।

वर्ष 2001में उच्चतम न्यायालय ने भूख और कुपोषण से लड़ाई के लिए 60दिशा-निर्देश दिये थे। इन दिशा-निर्देशों को जारी किये हुए एक दशक पूरा  होने वाला  है, पर सब धरे के धरे रह गये। सरकार न्यायालय के दिशा-निर्देशों का पालन करने में नाकाम रही है। कमजोर आदमी ने न्यायालय की अवमानना की होती तो जेल जाना पड़ता,लेकिन सरकार जब ऐसी लापरवाही दिखाती है तो उच्चतम अदालत विवश होकर तल्ख टिप्पणियों से अपनी खीझ निकालती है।

यह कम आश्चर्य की बात नहीं कि सड़ते अनाज पर उच्चतम न्यायालय  की तीखी  टिप्पणी के बाद भी सरकार बेसुध है। जनता तो बेसुध है ही। नहीं तो सड़ते अनाज पर उच्चतम न्यायालय की टिप्पणी एक राष्ट्रव्यापी जनांदोलन   को उकसाने के लिए पर्याप्त थी।

गोदामों में हजारों  क्विंटल अनाज सड़ने की खबर फिर आ रही है। भूख से बेसुध रियाया को सरकार पर भरोसा भी नहीं है। इस रियाया ने कई आंदोलन और विरोध की गति देखी है। उसे मालूम है कि आंदोलित होने तक उसके पेट में सड़ा अनाज भी नहीं मिलने वाला।

कुछ दिन पहले एक मामले में महिला बाल कल्याण विकास मंत्रालय ने उच्चतम न्यायालय से कहा था कि देश में करीब 59प्रतिशत बच्चे 11लाख आंगनवाड़ी केंद्रों के माध्यम से पोषाहार प्राप्त कर रहे हैं। जबकि मंत्रालय की ही एक रिपोर्ट में कहा गया है कि देश के करीब अस्सी प्रतिशत हिस्सों के नौनिहालों को आंगनबाड़ी केंद्रों का लाभ मिल रहा है,महज 20प्रतिशत बच्चे ही इस सुविधा से वंचित है।

सरकारी और अन्य एजेंसियों के आंकड़ों के खेल में ऐसे अंतर भी सामान्य हो चुके हैं। सर्वे के आंकड़े हमेशा यथार्थ के धरातल पर झूठे साबित हो रहे हैं। मध्यप्रदेश के एक सर्वे में यह बात सामने आई कि एक वर्ष में 130 दिन बच्चों को पोषाहार उपलब्ध कराया जा रहा है, वहीं बिहार और असम में 180 दिन पोषाहार उपलब्ध कराने की बात कही गई। उड़ीसा में एक वर्ष में 240 और 242 दिन पोषाहार उपलब्ध कराने का दावा किया गया,जबकि सरकार वर्ष में आवश्यक रूप से 300दिन पोषाहार उपलब्ध कराने की प्रतिबद्धता जताती है।

हकीकत यह है कि पोषाहार की योजना में नियमित चीजों की आपूर्ति ही नहीं होती है। किसी जिले में कर्मचारियों की कमी की बात कही जाती है, तो कहीं पोषाहार के लिए कच्ची वस्तुओं की आपूर्ति नहीं होने की बात कहकर  जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ लिया जाता है।

जब पोषाहार की सामग्री आती है तो नौनिहालों में वितरण कर इतिश्री कर लिया जाता है। सप्ताह भर के पोषाहार की आपूर्ति एक दिन में नहीं की जा सकती है। नियमित संतुलित भोजन से ही नौनिहाल शारीरिक और मानसिक रूप से मजबूत बनेंगे। पढ़ाई में मन लगेगा।

असम, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, उड़ीसा, राजस्थान, महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल के दूर-दराज के क्षेत्रों में कुपोषण और भुखमरी से होने वाली मौतों की खबर तो कई बार मीडिया में आ ही नहीं पाती। जो खबरें आ रही हैं उसे पढ़ते-देखते संवेदनशील मन भी सहज हो चुका है। ऐसी ख़बरें अब इतनी सामान्य हो गई हैं कि बस मन में चंद पल के लिए टिस जरूर उठती है।

मुंह से सरकार के विरोध में दो-चार भले बुरे शब्द निकलते हैं,फिर सबकुछ सामान्य हो जाता है। सब भूल जाते हैं। कहां-क्यों हो रहा है, कोई मतलब नहीं रहता। यह और भी गंभीर चिंता की बात है। फिलहाल सरकारी आंकड़ों के बीच एक हकीकत यह भी है कि आंगनवाड़ी केंद्रों से मिलने वाला भोजन कागजों पर ही ज्यादा पौष्टिक  होता है। जिनके मन में तनिक भी संवदेनशीलता है, उन्हें हकीकत जानकर यह चिंता होती है कि सूखी रोटी, पतली दाल खाकर गुदड़ी के लालों का कल कैसा होगा?


शहर में सफ़र


आपकी धर्मपत्नी की आवाज आती है और वो आपको घर के कामों में रुचि न दिखाने के लिए कोसती है कि आपने  टूटे हुए नल को ठीक कराने के लिए प्लम्बर को नहीं बुलाया। ये अलग बात है कि प्लम्बर सिर्फ सुबह 10से शाम 6बजे तक ही मौजूद होता है और उस समय आप ऑफिस में होते हैं...

हैनसन टीके

हम सभी  रोजमर्रा की जिंदगी में कुछ ऐसी घटनाओं का अनुभव करते हैं,जिससें कभी  बेइज्जत तो कभी खुद को कुंठित महसूस करते है। इसके पीछे कोई आम कारण भले ही न हो,पर हर दिन ऐसी घटनाओं का सामना करना ही पड़ता है। ऐसी घटनाएं यात्रा करते समय,घर पर,रेस्तरां में खाना खाते समय,पान या शराब की दुकान पर,यहां तक कि आप टेलीफोन की लाइन या कहीं और कभी भी घट सकती हैं।

दिल्ली में रहने वालों के लिए ऐसा होना स्वाभाविक है। यहां पर मैं साधारण जनता की बात कर रहा हूं,क्योंकि उच्चवर्ग के जीने के तौर-तरीके और रोजमर्रा की जिंदगी के बारे में मैं कुछ नहीं जानता। आप जब सुबह-सुबह एक अच्छी नींद से उठते हैं तो चाहते हैं कि बाकी का दिन भी इसी सपने की तरह अच्छा हो।

इतने में रसोई से आपकी धर्मपत्नी की आवाज आती है और वो आपको घर के कामों में रुचि न दिखाने के लिए कोसती है,क्योंकि आपने रसोई के टूटे हुए नल को ठीक कराने के लिए प्लम्बर को नहीं बुलाया। ये अलग बात है कि प्लम्बर सिर्फ सुबह 10से शाम 6बजे तक ही मौजूद होता है और उस समय आप ऑफिस में होते हैं। फिर भी आपको सुनना पड़ता है,क्योंकि घर के मुखिया और पुरुष होने के नाते यह आपका कर्तव्य है।

बीबी का यह विचित्र बर्ताव टूटे हुए नल से शुरू होता है,लेकिन कहां जाकर खत्म होगा ये किसी को नहीं पता। ये तो सिर्फ शुरुआत है। तभी  अचानक आपकी पत्नी टूटे हुए नल से लेकर उस दिन के लिए आपको कोसना शुरू कर देती है जब आप शराब पीकर घर आये थे। चाहे उस शराब ने आपको पियक्कड़ न बनाया हो,फिर भी शराब की वजह से आपकी पत्नी की नाक पूरे समाज के सामने नीची जरूर हो जाती है,ऐसा उसका सोचना होता है।

 कभी-कभी तो वह ये तक कह देती है कि आपने मुझे कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ा और उसकी आंखों में भरे आंसू आपको यह अहसास दिलाते हैं कि आपसे शादी करने से पहले वह कितनी खुश थी। उस समय इतना गुस्सा आता है कि उस पर जोर से चिल्लायें, लेकिन आप ऐसा कुछ नहीं करते क्योंकि आप जानते हैं कि चुप रहने में ही भलाई है। इसलिए अंदर ही अंदर किलसते रहते हैं और यहां से कुंठा का दौर शुरू होता है।

अगले ही पल जब आप देरी की वजह से नजदीकी मेट्रो स्टेशन तक जाने के लिए ऑटो रिक्शा लेने के बारे में सोचते हैं तो कोई भी ऑटो वाला रुकने को तैयार ही नहीं होता। फिर अचानक से एक ऑटो आकर रुकता है तो आपको लगता है कि जल्दी से बैठ जाऊं,लेकिन फिर याद आता है कि दिल्ली में ऑटो में लगे मीटर तो केवल नाम के हैं। इसके बाद शुरू होती है किराए के लिए बहस। ऑटो चालक तो दोगुना किराया मांगता है,लेकिन आप उसके साथ बहस करके बीच का कोई रास्ता निकाल लेते है,क्योंकि देर हो रही होती है। इसके अलावा आपके पास कोई और रास्ता नहीं होता।

ऑटो-रिक्शे में बैठते ही लगता है कि चलो अब ऑफिस समय पर पहुंच जाऊंगा। मैट्रो स्टेशन ऑटो में बैठे-बैठे दिख रहा है,मगर उसी पल ऑटो वाला ऑटो को गैस भरवाने के लिए दूसरी तरफ मोड़ लेता है। तब मन तो करता है कि उसे दो-चार गाली दे दें, लेकिन आप ऐसा नहीं कर सकते क्योंकि आप एक सज्जन इंसान है और गाली-गलौच करना आपको शोभा  नहीं देता। इस समय आपके अंदर एक आग फूट रही होती है,जिसे चाहकर भी आप बाहर नहीं निकाल सकते और इसे चुपचाप पी जाते हैं।

घटनाओं का सिलसिला यहीं खत्म नहीं होता। मैट्रो में अनाउंसमैंट के बाद ट्रेन आती है और आप दरवाजे के बीच में जाकर खड़े हो जाते है,लेकिन जैसे ही दरवाजा खुलता है बाहर से अंदर आने वालों की भीड़ आपको अंदर की तरफ धकेल देती है। जब आप उनको धकेलने की कोशिश करते है तो आपको उनकी तरफ से अभद्र शब्द सुनाई देते हैं, लेकिन आप उस समय कुछ नहीं कर सकते क्योंकि दिल्ली में यह सब चीजें आम हैं।

ऑफिस की तरफ पैदल जाते हुए अचानक से एक कार सामने आकर आपका रास्ता रोक देती है और आपको दूसरा रास्ता लेने को मजबूर करती है। तब आपको लगता है कि क्या ये थोड़ा आगे या पीछे गाड़ी नहीं रोक सकता था। फिर दूसरे ही पल याद आता है कि वह क्यों रोकेगा,वह तो लाखों की गाड़ी में सफर कर रहा है,मेरी दो पहिए वाली गाड़ी उसको दिखाई थोड़े ही देगी। इस बात पर आपको गुस्सा आना लाजिमी है। मगर आपके लिए अच्छा होगा कि आप गाड़ी में बैठे व्यक्ति के साथ किसी तरह की कोई बहस न करें,क्योंकि ऐसा करना आपके लिए भैंस  के आगे बीन बजाने जैसा होगा।

सुबह-सुबह ऑफिस पहुंच लोगों की शुभकामनाएं लेकर और गरम चाय का प्याला पीकर आप अपने केबिन में बैठकर शांति महसूस करते हैं। आपको लगता है कि यही एकमात्र जगह है जहां कोई आपको परेशान नहीं करेगा, लेकिन फिर समय आता है स्टॉफ मीटिंग का। मीटिंग में आपका बॉस आपको उस गलती के लिए सबके सामने डांटता है जो आपने की ही नहीं है। आपको एकबारगी लगता है कि यह सब छोड़कर भाग जाऊं। फिर भी आप सुनते हुए खुद को समझाने लगते हैं कि बॉस तो बॉस होता है, उसमें गलती-सही नहीं होता।

तभी आपको लगता है मेरा फोन काफी समय से बज रहा है। आप फोन उठाते हैं और दूसरी तरफ से आवाज आती है ‘आप कौन बोल रहे हैं?’ आपको लगता है कि सारा गुस्सा इस पर ही निकाल दूं, लेकिन फिर आप सोचते हैं कि यह कोई नयी बात थोड़ी है। दिल्ली में रहकर ऐसी घटनाओं का सामना करना तो आम बात है। इससे बेहतर यह है कि आप खुद ही अपना नाम बताकर पूछ लें कि मैं आपकी क्या मदद कर सकता हूं।

मैं जानता हूं कि जो भी बातें मैंने ऊपर लिखी है उसमें कुछ भी नया नहीं है। ये सारी घटनाएं आपके साथ हर रोज घटती हैं,लेकिन अगर आप हर दिन होनी वाली इन छोटी-छोटी बातों को दिन के खत्म होने पर याद करेंगे तो ये बाते आपको बहुत हास्यास्पद और मजेदार लगेंगी, जो आपको एक अलग-सा एहसास देंगी।
(अंग्रेजी से अनुवाद - विभा सचदेवा)


लेखक सीपीएम के सदस्य हैं और सामाजिक-राजनितिक मसलों पर लिखते हैं,उनसे hanskris@gmail.com   पर संपर्क किया जा सकता है.