Jun 11, 2011

खनन से बेजार बुंदेलखण्ड का पानी


पिछले कुछ सालों से विंध्य बुंदेलखण्ड के बांदा, चित्रकूट, महोबा, झांसी, ललितपुर में चल रहे अधाधुंध खनन ने यहां के पानी, पहाड़, जंगल, वन्यजीवों के प्रवास,खेती, मजदूरों व रहवासियों की सेहत और पर्यावरण को गहरे अंतरमुखी अकाल की ओर धकेल दिया है...

आशीष सागर

बुन्देलखण्ड का पठार प्रीकेम्बियन युग से ताल्लुकात रखता है। पत्थर ज्वालामुखी पर्तदार और रवेदार चट्टानों से निर्मित हैं, इसमें नीस और ग्रेनाइट की अधिकता पाई जाती है. इस पठार की समुद्र तल से ऊँचाई 150मी0 उत्तर और दक्षिण में 400मी0 तक फैली है. इस क्षेत्र को भोगौलिक दृष्टि से 23 सेन्टीग्रेट, 10 अक्षांश उत्तर और 78 सेंटीग्रेट, चार अक्षांश, 81सेन्टीग्रेट से 34 अक्षांश पश्चिम दिशा की ओर रखा जा सकता है। इसका ढाल  दक्षिण से  और उत्तर पूर्व की ओर है। बुंदेलखण्ड की सीमा मे विंध्य उत्तर प्रदेश के 7 व मध्य प्रदेश की सीमा से लगे 6 जनपदों को आमतौर पर स्वीकृत दी गयी है, लेकिन राजनीतिक द्वन्द में फंसे बुंदेलखण्ड राज्य की मांग इसके 21 से 23 जिले को लेकर आंदोलन की मुहिम समयानुकूल छेड़ती रहती है। 

मध्य प्रदेश का टीकमगढ़, छतरपुर, दतिया, ग्वालियर, शिवपुरी, दमोह, पन्ना और सागर तक विस्तृत है। विंध्य बुंदेलखण्ड के हिस्से में झांसी, ललितपुर, महोबा, चित्रकूट, बांदा प्रमुखता से समाहित है। छतरपुर में खनन के अन्तगर्त पाये जाने पत्थर को लाल फार्च्यून के नाम से जाना जाता है वहीं उत्तर प्रदेश के बुन्देलखण्ड के क्षेत्र में ग्रेनाइट को झांसी रेड़ कहा गया है। सिद्धबाबा पहाड़ी 1722 मीटर इस क्षेत्र की सबसे ऊंची पर्वत चोटी है। इन दोनो प्रदेशों की सीमा से लगे बुंदेलखण्ड ग्रेनाइट, ब्लैक स्टोन सामग्री का उपयोग पूरे देश में 80प्रतिशत सजावटी समान,भवन निर्माण आदि के लिये किया जाता है। ललितपुर जनपद में पाये जाने वाले ग्रेनाइट को लौह अयस्क, राक फास्फेट के नाम से जाना जाता है।

जल दोहन और विनाश की इबारत है अवैध खनन- पिछली सर्दियों की बात है आम दिनों की तरह उस दिन भी शाम 4 .30 बजे महोबा जनपद के कस्बा कबरई, जवाहर नगर निवासी 8 वर्षीय उत्तम प्रजापति घर के आंगन में खेल रहा था, जब अवैध ब्लास्टिंग से हवा में उड़कर पांच किलो का पत्थर उत्तम प्रजापति के ऊपर गिरा। मौके पर ही उत्तम की मौत हो गई।

मृतक के पिता के साथ गांव के हजारों लोग जब लाश को लेकर स्थानीय पुलिस चौकी पहुंचे तो थाना इंचार्ज ने एकबारगी तो एफआईआर लिखने से मना ही कर दिया, लेकिन जन दबाव को बढ़ता देख उसे स्थिति का अनुमान हो गया, तो खदान मालिक छोटे राजा के ऊपर आई0पी0सी0की धारा 307, 304 के तहत मुकदमा दर्ज कर लिया गया। एफआईआर की भनक जैसे ही पहाड़ मालिक को लगी, उसने अपनी बिरादरी के लोगों के साथ मृतक के पिता के घर पर एक सप्ताह तक लगातार फायरिंग करवाई जिसके चलते पूरा परिवार गांव से पलायन कर गया। मृतक के पिता के ऊपर मुकदमा वापस लेने की धमकियां और लाश की कीमत बताये जाने का दबाव लगातार बनाया जाता रहा। गरीबी और फांकाकसी के बीच जीवन-यापन कर रहे उत्तम के परिवार ने डेढ़ लाख रूपये में बेटे की लाश का सौदा कर लिया।

दरअसल, यह एकमात्र घटना नहीं है जिससे बुंदेलखण्ड में खनन के नाम पर हो रहे प्राकृतिक तांडव को समझा जा सके, बल्कि इस जनपद की तकरीबन 90 हजार आबादी को इन्ही उड़ते गिरते पत्थरों और 24 घण्टे दम घोंटते स्टोन क्रशरों की उड़ती धूल के बीच रहना पड़ता है। कबरई इलाके की पचपहरा (सिद्ध बाबा) खदान, गंगा मैया खदान इस क्षेत्र की सर्वाधिक जल दोहन करने वाली अवैध खदानें हैं।

इसकी एक बानगी बीते नवंबर 2010में देखने को मिली। जब सर्वे टीम के साथ स्वैच्छिक संगठन प्रवास के कार्यकर्ता मृतक उत्तम के घर से बैठक करने के बाद पचपहरा खदान की तरफ पहुंचे। 200 मीटर ऊंची सिद्ध बाबा पहाड़ी को लगभग 300फिट नीचे तक दबंग माफियाओं ने ग्रेनाइट खनन के नाम पर जमींदोज कर रखा था। वहीं गंगा मैया पहाड़ में खदान के नीचे पंपिग सेट,जनरेटर से मोटर के द्वारा सैकड़ों लीटर पानी बाहर फेंका जा रहा था।

पाताल की सीमा तक खोदी जा चुकी खदानें बुंदेलखण्ड में दिन प्रतिदिन गहराते जा रहे जल संकट का एक बहुत बड़ा कारण है। विंध्याचल पर्वत श्रेणी केन पहाड़ों पर हो रहे खनन के चलते यहां के हालात इतने खराब हो चुके हैं कि लौंड़ा, रमकुंडा, पचपहरा, डहर्रा, मोचीपुरा, गौहारी जैसे दर्जनों पहाड़ तो पहले ही खत्म हो चुके हैं, अब बांदा, चित्रकूट क्षेत्र के पर्यटन स्थल वाले बेशकीमती पहाड़ों को भी तीन-तीन सौ फिट गहरी खाईयों में तब्दील किया जा रहा है।

पहाड़ के खत्म होने का मतलब है भू-जल स्तर में गिरावट। अब जबकि लगातार खनन से यहां पहाडि़यों को निशाना बनाया जा रहा उसके देखते हुए बड़ी आसानी से कहा जा सकता है कि बुंदेलखण्ड पानी की कमी की अंतहीन समस्या की तरफ तेजी से कदम बढ़ा चुका है। जनसूचना अधिकार 2005 के तहत भू-गर्भ जल विभाग से मिली जानकारी के अनुसार बुंदेलखण्ड में तीन मीटर तक जलस्तर नीचे जा चुका है। इसके बाद भी उत्तर प्रदेश की चालीस जनपदीय क्रिटिकल, सेमी क्रिटिकल, सुरक्षित क्षेत्र के अन्तर्गत प्रदेश शासन के द्वारा जारी की गयी सूची में बुंदेलखण्ड क्षेत्र के किसी भी जनपद को स्थान नहीं दिया गया।

प्रदूषण और पर्यावरण संकट- कबरई इलाके के चारों ओर पांच-दस किलोमीटर के क्षेत्र में तेरह गांव बसे हुए हैं। इस तहसील को भी मिला दें तो इनकी कुल आबादी 90 हजार से ज्यादा है इनमें भी करीब 25 हजार खनन मजदूर, दस हजार बाल श्रमिक, चार सैकड़ा बंधुआ मजदूर हैं। उत्तर प्रदेश के इस सबसे पिछड़े और गरीब इलाके में जब खनन उद्योग की शुरूआत हुयी थी तब खेती किसानी जो यहां कभी ज्यादा फायदे का सौदा नहीं रही- उससे ऊबे लोगों में उम्मीद जगी थी कि अब उनके पास आमदनी का एक और जरिया होगा लेकिन वक्त बीतने के साथ साथ यहां खनन का कारोबार मंत्री, विधायकों और प्रशासिनक अधिकारियों के ताकतवर हाथों में आ गया। 


फिलहाल उत्तर प्रदेश सरकार के वर्तमान कैबिनेट मंत्री बादशाह सिंह, पूर्व मंत्री सिद्धगोपाल साहू, शिवनाथ सिंह कुशवाहा, विधायक अशोक सिंह चन्देल, दबंग अरिमर्दन सिंह, पूर्व विधायक कुंवर बहादुर मिश्रा, जयवन्त सिंह, सीरजध्वज सिंह, प्रदेश खनिज मंत्री बाबू सिंह कुशवाहा जैसे आला माफिया खनन की पैमाइश में दर्ज हैं। इनका शुरू से ही एक ही मक्सद रहा कि किसी भी कीमत पर जल्दी से मोटा मुनाफा कमाना, चूंकि कारोबार की कमान ताकतवर लोगों के हाथ में थी इसलिये सारे नियमों को ताक पर रखकर इलाके में तेजी से पहाड़ों के पट्टे बंटने लगे और क्रशरों की तादाद बढ़ने लगी। इसी के चलते तेजी से पर्यावरण कानून भी धराशायी होती चले गये।


अब तक यहां के लोगों को समझ में आ गया था कि जिस खनन उद्योग से वे अतिरिक्त आमदानी का सपना देख रहे थे वे ही उनके जीवन यापन के बुनियादी संसाधन का सबसे बड़ा खतरा हैं। इस दौरान जब कभी स्थिति बिगड़ी और विरोध की आवाजें उठीं तो दबंगों के द्वारा उन्हें बुलट और बैलेट के नाम पर ठगा गया और उनको जमीन के सबसे अंतिम पायेदान पर खड़े होने का एहसास भी कराया गया। पर्यावरण प्रदूषण से लोगों के स्वास्थ्य और कृषि भूमि पर पड़ते विपरीत प्रभाव के विरोध में कई मरतबा धरने प्रदर्शन भी आयोजित हुए।


वर्ष 2000 में ग्रामीण पत्रकार एसोसिएशन के बांदा मण्डल अध्यक्ष दिनेश खरे ने तत्कालीन बांदा मण्डल आयुक्त एस0सी0सक्सेना से शिकायत कर राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से सभी क्रशरों का निरीक्षण करवाया। निरीक्षण के बाद कुल 57 क्रशर में से 11 को कानूनों के उल्लंघन व मानक के विपरीत काम करने के कारण बंद करने के निर्देश दे दिये गये। महोबा के जिलाधिकारी आलोक कुमार ने जब कबरई के आबोहवा में प्रदूषण की मात्रा की जांच करायी तो जांच के निष्कर्ष भयावह थे।

जिलाधिकारी का कहना था कि सामान्य परिस्थितियों में हवा में छोटे छोटे कणों की मात्रा जहां 200 माइक्रग्राम प्रति घनमीटर होनी चाहिए, वहीं कबरई में यह आंकड़ा 1800 माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर था यानि सामान्य से नौ गुना ज्यादा। वर्ष 2000 में महोबा जनपद में कुल 57 क्रशर थे जो अब तीन सौ तीस हो चुके हैं और 2011तक शासन सरकारों ने किसी भी प्रकार से प्रदूषण की जांच नहीं करवायी। हालात बद से बद्तर होते जा रहे हैं। 30 जनवरी 2010 तक पिछले दस सालों में बुंदेलखण्ड क्षेत्र विशेष के अन्तर्गत जनपदवार खनन उद्योग बढ़ोत्तरी को निम्न आंकड़ों से देखा जा सकता है। इस कारोबार से प्रदेश सरकार को सालाना 458करोड़ रूपये राजस्व की आमदनी होती है।

बुंदेलखण्ड के आसपास इलाकों में हो रहे अवैध खनन,माइनिंग कारोबार को प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के मानकों के विपरीत किसी भी क्षेत्र में देखा जा सकता है। हाल ही में लामबंद हुए संगठनों की पहल पर मजदूर किसानों ने जब खान निदेशालय ग्वालियर, गाजियाबाद से मानकों के विपरीत खनन की लिखित शिकायत की तो खनिज डायरेक्टर डॉ, के जैन ने 87 खदानो को बंद करने के आदेश जारी किये हैं लेकिन जिला खनिज अधिकारी मुइनुद्दीन व जिला प्रशासन की मिलीभगत से यह मुनासिब नहीं हो सका है। 


बैरियर पर जिला पंचायत द्वारा निर्गत किये गये ठेकों को यहां के बाहुबली ठेकेदार इस तरह से चलाते हैं कि बीस रूपये से 40 रूपये ट्रक निकासी के नाम पर उनसे 150 रूपये की अवैध वसूली की जाती है और हर ओवर लोडिंग ट्रक से दो हजार रूपये की गुण्डा टैक्स वसूली अलग से रात दिन खनन कारोबार में की जाती है। इन्हीं तमाम ज्वलंत मुद्दो को आधार बनाकर बुंदेलखण्ड स्वैच्छिक संगठन प्रवास ने बीते 2.12.2010 को उच्च न्यायालय इलाहाबाद में जनहित याचिका दाखिल की है जिसकी सुनवाई लगातार की जा रही है और खनन के माफिया दहशत में आकार समाजिक कार्यकताओं के खिलाफ फर्जी मुकदमो की साजिशे रच रहे है।

स्वास्थ्य पर प्रभाव- हालांकि कबरई के प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र में किसी भी दिन जाकर इस बात की पुष्टि की जा सकती है कि जिला अस्पताल से लोगों की सेहत के बारे मे मिली सूचना कितनी थोथी है, प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र कबरई के प्रभारी डाक्टर एसके निगम के मुताबिक अस्पताल की ओपीडी मे हर दिन तकरीबन 100 मरीज आते हैं, जिनमें से ज्यादातर सांस और आंख के रोगी होते हैं, यहां के खनन उद्योगों में काम करने वाले मजदूर के बारे में बात करते हुए डॉ, निगम कहते हैं, ‘कबरई के क्रशर उद्योग में काम कर रहे सारे लोग मौते को गले लगा रहे हैं, इन्हें तो दिहाड़ी के साथ-साथ कफन दिया जाना चाहिए’।


स्टोन क्रशरों से उड़ती धूल के स्वास्थ्य पर घातक प्रभाव की बात कबरई के एक अन्य डॉ. रामकुमार परमार भी मानते हैं, ‘स्टोन क्रशरों केक कारण हवा में हमेशा ही 4-5 माइक्रान के कण मौजूद रहते हैं, जो श्वास नली की एल्वोलाई में जमकर उसे ब्लाक कर देते हैं, जिससे सांस की बीमारी हो जाती है. इससे रक्तशोधन क्षमता भी कम होती जाती है। लोगों का पाचनतंत्र गड़बड़ा जाता है और वे धीरे-धीरे अस्थमा के मरीज बन जाते हैं। डॉ. परमार बताते हैं कि खनन और क्रशर उद्योग से घिरे नब्बे फीसदी लोग एसबेसटोसिस और सिलिकोसिस जैसी बीमारियों से प्रभावित हैं, और हर दिन ऐसे कम से कम एक दर्जन मरीज उनके अस्पताल में आते हैं।



   लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं.




Jun 10, 2011

मजबूत प्रतिरोध और बदहवास सरकार

वास्तविक प्रतिपक्ष गायब है और इसने जो जगहें छोड़ी हैं, उसे ही भरने के लिए नागरिक समाज और जन आंदोलन की शक्तियाँ सामने आई हैं। अन्ना हजारे से लेकर रामदेव इसी यथार्थ की उपज हैं...

कौशल किशोर

‘वे डरते हैं/किस चीज से डरते हैं वे/तमाम धन दौलत/गोला.बारूद.पुलिस.फौज के बावजूद ?वे डरते हैं/कि एक दिननिहत्थे और गरीब लोग/उनसे डरना बंद कर देंगे’- चार जून की मध्यरात्रि में देश की राजधानी दिल्ली में सरकारी दमन का जो कहर बरपाया गया, उसे देखते हुए गोरख पाण्डेय की यह कविता बरबस याद हो आती है। साथ ही यह सवाल उठ रहा है कि क्या 1975 का इतिहास अपने को फिर से दोहराने जा रहा है?

वह भी जून का महीना था। न सिर्फ मौसम का तापमान अपने उच्चतम डिग्री पर था बल्कि जनविक्षोभ की ज्वाला भी अपने चरम रूप में धधक रही थी। ऐसी ही हालत तथा वह भी काली रात थी, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने देश में आपातकाल लागू किया था। उस वक्त इंदिरा गाँधी के हाथ से सत्ता  फिसल रही थी और अपनी कुर्सी को बचाने के लिए उनके पास यही विकल्प बचा था कि वे जनता की आजादी छीन लें, उसके लोकतांत्रिक अधिकारों का अपहरण कर ले।

आज देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी चार जून की रात की घटना पर यही कह रहे हैं कि उनके पास इसके सिवाय कोई विकल्प नहीं बचा था। अर्थात निहत्थी जनता के विरुद्ध रैपीड एक्शन फोर्स। यह जनता अपनी चुनी सरकार से यही तो माँग कर रही थी कि देश से भ्रष्टाचार खत्म हो, भ्रष्टाचारियों को मृत्यंदण्ड मिले, देश से ले जाये गये काले धन की एक.एक पाई देश में वापस आये और इसका इस्तेमाल समाज कल्याण के कार्यों में हो। जनता यही तो जानना चाहती थी कि काली कमाई जमा किये और काला धंधा करने वाले ये देशद्रोही कौन हैं ?

दरअसल जनता के इन सवालों का भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी सरकार के पास कोई जवाब नहीं है। भ्रष्टाचार, कालेधन आदि के सवाल को लेकर जो जन आंदोलन उठ खड़ा हुआ है, उससे वह काफी डरी हुई।  1975 में इंदिरा गाँधी द्वारा आपातकाल का लागू किया जाना जन आंदोलनों से डरी सरकार का ही कृत्य था। आज मनमोहन सिंह भी भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से काफी भयभीत हैं। इसीलिए रामलीला मैदान में रामदेव के भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम में शामिल लोगों पर दमन को एक डरी हुई सरकार की कायरतापूर्ण कार्रवाई ही कहा जायेगा।

जहाँ तक हाल के भष्टाचार विरोधी आंदोलन की बात है, इसने देश की मुख्यधारा के राजनीतिक दलों को सवालों के कठघरे में खड़ा कर दिया है। हमारे संसदीय जनतंत्र में पक्ष और प्रतिपक्ष मिलकर मुख्य राजनीति का निर्माण करते हैं। लेकिन इसे विडम्बना ही कहा जायेगा कि ये तमाम सत्ता  की राजनीतिक पार्टिर्यों में बदल गई हैं। उसके अर्थतंत्र का हिस्सा बनकर रह गई हैं। जनता की खबर लेने वाला, उसका दुख.दर्द सुनने व समझने वाला और उसके हितों के लिए लड़ने वाला आज कोई प्रतिपक्ष नहीं हैं।

वास्तविक प्रतिपक्ष गायब है और इसने जो जगहें छोड़ी हैं, उसे ही भरने के लिए नागरिक समाज और जन आंदोलन की शक्तियाँ सामने आई हैं। अन्ना हजारे से लेकर रामदेव इसी यथार्थ की उपज हैं। इस आंदोलन में कमियाँ और कमजोरियाँ हो सकती हैं। फिर भी इनके द्वारा उठाये गये भ्रष्टाचार व कालेधन की वापसी जैसे मुद्दों ने नागरिक समाज को काफी गहरे संवेदित किया है और यही कारण है कि इनके आहवान पर बड़ी संख्या में लोग जुटे हैं।

लेकिन बाबा रामदेव का व्यक्तित्व शुरू से ही विवादित रहा है। अन्ना हजारे ने जब अपना आंदोलन जंतर.मंतर पर खतम किया, उसी समय से बाबा रामदेव की राजनीतिक महत्वकाँक्षा सिर चढ़कर बोल रही थी। इसकी अभिव्यक्ति उनके ढ़ुलमुलपन और अवसरवाद में हो रही थी। कभी तो वे सरकार के साथ मोल.तोल करने वाले बनिये से लगते थे तो कभी नागरिक समाज द्वारा प्रस्तावित विधेयक को कमजोर करने वाले सरकारी प्रतिनिधि नजर आते थे। उन्होंने लोकपाल विधेयक में प्रधानमंत्री और न्यायाधीशों को जाँच के दायरे में शामिल न किये जाने की बात करके सरकार को खुश करने की कोशिश भी की थी। जहाँ अन्ना हजारे ने अपने आन्दोलन को स्वायत बनाये रखा था तथा स्थापित राजनीतिक दलो  से इसकी दूरी थी, वहीं रामदेव ने अपने मुहिम के लिए भाजपा  और संघ परिवार के नेटवर्क का इस्तेमाल किया।

इस सबके वावजूद पुलिसिया दमन और आतंक को कहीं से भी जायज नहीं ठहराया जा सकता। रामदेव के भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम पर हमले ने एक बात साबित कर दिया है कि यह सरकार कारपोरेट हितों के विरुद्ध किसी भी असली या नकली प्रतिरोध को झेल नहीं सकती। एक और बात, चार जून की कार्रवाई को मात्र रामदेव के भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम के दमन के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। अब तो सरकार ने किसी भी आंदोलन, धरना व प्रदर्शन पर दमन का रास्ता साफ कर दिया है। अपने इस कृत्य के द्वारा वह जन आंदोलनों को संदेश भी देना चाहती है कि उनसे निपटने के लिए किसी भी हद तक जा सकती है।

इसीलिए दिल्ली में धारा 144 लागू कर दी गयी है और हर तरह के  धरना.प्रदर्शन पर रोक लगा दिया गया। अपना विरोध जताने और अपनी मांगों को बुलन्द करने के लिए जनता दिल्ली नहीं पहुँच सकती। यदि किसी तरह पहुँच भी गयी तो वहाँ उसके स्वागत के लिए लाठी, आंसूगैस, पानी की तेज बौछारें और जेल है। बहुत हुआ तो आप राजघाट पर उपवास कर सकते हैं। पर यह भी सरकार की इच्छा पर निर्भर है। ऐसे में चार जून की रात की घटना के दमनकारी अभिप्राय को कम करके नहीं आँका जाना चाहिए। क्या यह अघोषित आपातकाल जैसी हालात नहीं है?



जनसंस्कृति मंच लखनऊ के संयोजक और सामाजिक संघर्षों में सक्रिय.



यूनियन की मांग गुनाह


हरियाणा.मानेसर के मारुती सुजुकी इंडिया के प्लाण्ट के विगत छह दिनों से संघर्षरत कामगारों के समर्थन में कल बृहस्पतिवार दिनांक 9जून 2011को गुडगाँव-मानेसर बेल्ट के विभिन्न उद्योगों में कार्यरत मज़दूर भी आ गए.उन्होंने मारुति प्रबंधन के खिलाफ एक विशाल रैली निकाली। दुर्भाग्य से मीडिया में ब्लैकआउट के चलते इन खबरों का गला घोंट दिया गया।

प्रदर्शन करते मारुती के मजदूर
मजदूरनामा ब्लॉग  को मिले समाचार के अनुसार,  वहाँ के विभिन्न कारखानों में कार्यरत यूनियनों के पदाधिकारियों और कामगारों ने मारुती सुजुकी इंडिया के संयंत्र के मुख्यद्वार पर एकत्र होकर सत्याग्रह किया और संघर्षरत मजदूरों की निहायत ही जायज माँग को अविलम्ब माने जाने की माँग की.गुडगाँव के विभिन्न उद्योगों के मजदूरों द्वारा किया गया एकजुटता का यह इजहार एक बहुत ही महत्वपूर्ण घटना हैऔर इससे लड़ाकू साथियों का हौसला बुलन्द हुआ है.

दुनिया भर में चल रहे तमाम उथल पुथल के बावजूद भारतीय शासक वर्ग यह समझने को राजी नहीं है कि मेहनतकश जनता के दमन का रास्ता आखिर भीषण विस्फोट की ओर ले जाता है। भारत में श्रमिक वर्ग के साथ जो अन्याय अत्याचार हो रहा है वह अभूतपूर्व है। और यह रोष ज्वालामुखी बन चुका है। हालत यह हो गई है कि मजदूर यूनियन बनाने की मांग अघोषित तौर पर एक अवैध मांग हो चुकी है जबकि भारतीय संविधान में यह कर्मचारियों का मौलिक अधिकार माना गया है। आखिर यह देश संविधान के अनुसार चल रहा है या पूंजीपतियों के हितों के अनुसार चलाया जा रहा है।

हम आप सभी से मानेसर के संघर्षरत साथियों का हर सम्भव सहयोग और समर्थन करने की अपील करते है.हमारा प्रस्ताव है कि कि आप हरियाणा के मुख्यमंत्री,गृहमंत्री और श्रममंत्री को अधिक से अधिक संख्या में ईमेल और पत्र भेज कर संघर्षरत साथियों कि जायज माँगों को जल्द से जल्द मांगे जाने के लिए दबाव बनायें और यह सुनिश्चित करें कि कम्पनी प्रशासन उनके आन्दोलन का दमन न कर पाये.


मुख्यमंत्री
लेबर कमिश्नर
श्रम मंत्रालय



राजनीति के पहाड़ के नीचे आये रामदेव

बाबा और  बालकृष्ण ने  जिस प्रकार मीडिया के समक्ष रो-रो कर अपना अंतिम ब्रह्मास्त्र राजनीति के प्रथम पाठ के बाद चला दिया है, इससे  उनके ‘बुलंद हौसलों’ का अंदाज़ा लगाया जा सकता है...

 निर्मल रानी 

‘जब देश के राष्ट्रपति व प्रधानमंत्री मेरे चरणों में बैठते हों फिर आखिर  मैं प्रधानमंत्री क्यों बनना चाहूंगा’? दंभ व अहंकार भरे यह शब्द अभी कुछ ही समय पूर्व बाबा रामदेव ने बिहार के बेतिया  जि़ले में अपने एक योग शिविर में कहे। सत्ता की चूलें हिला देने तथा देश की 121 करोड़ जनता का समर्थन अपने साथ होने की बात तो वे आमतौर पर करते ही रहे हैं।  बहरहाल गत् 5 वर्षों में भगवा वस्त्र धारण कर लगभग पूरे देश में योग शिविर आयोजित करने के नाम पर घूम-घूम अपने अनुयाईयों की अच्छी-खासी फौज खड़ी कर लेने वाले योग गुरु बाबा रामदेव को ऐसा महसूस होने लगा था कि देश की यदि पूरी नहीं तो अधिकांश जनता तो उनके साथ है ही।

कुछ विपक्षी राजनैतिक दलों विशेषकर भारतीय जनत पार्टी ने अपना समर्थन देकर उन्हें और भी गलतफहमी में डाल दिया। बहरहाल गत् 4 जून को दिल्ली के रामलीला मैदान में बाबा रामदेव का कथित योग शिविर राजनीति का अखाड़ा बन गया। और सरकार की पुलिसिया कार्रवाई के रूप में उस भयानक एवं काली रात में बाबा रामदेव ने राजनीति का वह वास्तविक व भयानक चेहरा देखा कि चंद ही लम्हों में वे उसी विशाल मंच से कूदकर भागते नज़र आए जिस मंच पर बैठकर वे तथा उनके कुछ समर्थक सरकार के घुटने टिकवाने तथा नाक रगड़वाने के दावे कर रहे थे।

राजनीति के इस सीधे साक्षात्कार ने बाबा रामदेव को मंच से अपनी जान बचाने के डर से न केवल छलांग लगाकर भागने के लिए मजबूर किया बल्कि उन्हें आत्मरक्षा के लिए महिलाओं के मध्य जाकर शरण भी  लेनी पड़ी। इतना ही नहीं बल्कि कभी सिले हुए कपड़े   न पहनने का प्रण करने वाले रामदेव ने उस रात एक महिला के सिले हुए पुराने कपड़े पहनकर लुकछिप कर व भेष बदलकर अपनी जान बचाने में ही अकलमंदी में अपनी भलाई समझी।

भ्रष्टाचार व काला धन संग्रह नि:संदेह देश के लिए एक नासूर है। विदेशों में जमा काला धन निश्चित रूप से अपने देश में यथाशीघ्र वापस आना चाहिए। सरकार को बेशक यह भी चाहिए कि वह विदेशों में जमा काले धन को राष्ट्रीय संपत्ति घोषित करे। काला धन संग्रह करने वालों के विरुद्ध कड़ी सज़ा का प्रावधान भी होना चाहिए। परंतु क्या किन्हीं सरकारी कार्रवाईयों को अमल में लाने के लिए सरकार पर इस प्रकार दबाव डालना उचित है कि
अपनी मांगों को मनवाने के लिए आमरण अनशन का सहारा लिया जाए? इतना ही नहीं बल्कि इस प्रकार के आयोजन के लिए सरकार की आंख में धूल झोंक कर तथा उसे गुमराह कर योग शिविर के आयोजन के नाम पर अनुमति ली जाए तथा बाद में उस योग शिविर को आमरण अनशन तथा राजनैतिक मंच का रूप दे दिया जाए?योग गुरु दरअसल अपने योग शिविर में दिए जाने वाले राजनैतिक भाषण में काला धन मुद्दे की बात कर आम लोगों की भावनाओं से खेलने का प्रयास करते हैं।

बहरहाल काला धन जमा करने वालों को फांसी हो या उम्रकैद या फिर पूर्ववत् जारी रहने वाली नाममात्र सज़ाएं, यह तो अब बाद का विषय बन गया है। फिलहाल  तो राजनीति में पदार्पण कर चुके बाबा रामदेव को  सरकार से दो-दो हाथ करने का संभवत: पहले तो खामियाज़ा भुगतना पड़ेगा। कुछ समय पूर्व उनके द्वारा संचलित दिव्य फार्मेसी द्वारा तैयार की जाने वाली दवाईयों में मानवअंगों के भस्म की मिलावट के समाचार आए थे।

परंतु बाबा जी अपने रसूख के बल पर उन आरोपों से उबर गए। परंतु अब जबकि भारतीय  जनता पार्टी तथा राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ व उनके सहयोगी दलों के हाथों का खिलौना बनते हुए वे सीधे तौर पर केंद्र सरकार से टकरा रहे हैं तो ऐसे में निश्चित रूप से सर्वप्रथम उन्हें मात्र दस वर्षों में  स्थापित किए गए अपने लगभग 11,00 करोड़ रूपये के विशाल साम्राज्य का हिसाब ज़रूर देना होगा।

बहरहाल बाबा रामदेव की राजनीति में पदार्पण की पहली पारी अब शुरु हो चुकी है। इसमें जहां अन्ना हज़ारे ने रामदेव के पक्ष में खुलकर आकर तथा उनपर हुए अत्याचार के विरुद्ध राजघाट पर सफल अनशन कर जहां अपना क़द एक बार फिर उनसे ऊंचा कर लिया है वहीं राजनीति के इसी पहले पाठ ने बाबा जी को भगवा वस्त्र उतार फेंकने तथा दूसरी महिला के कपड़े पहनकर तथा भेष बदलकर अपनी जान बचाने का भी मार्ग दिखा दिया है।

बाबा तथा उनके एक परम सहयोगी जिस प्रकार मीडिया के समक्ष रो-रो कर अपना अंतिम ब्रह्मास्त्र राजनीति के प्रथम पाठ के बाद चला दिया है इससे भी उनके ‘बुलंद हौसलों’ का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। बाबा जी ने राजनीति में प्रवेश कर तथा राजनीतिज्ञों से विशेषकर सरकार से पंगा मोल लेकर अच्छा किया या नहीं यह तो या तो उनकी आत्मा बेहतर समझ रही होगी या फिर 4 जून के बाद से उनके चेहरे के भाव बता रहे हैं।



लेखिका उपभोक्ता मामलों की विशेषज्ञ हैं और सामाजिक-राजनीतिक विषयों पर भी लिखती हैं. 

         

Jun 9, 2011

हुसैन को श्रद्धांजलि


लखनऊ, 10 जून। हमें यह दुखद खबर मिली है कि प्रसिद्ध चित्रकार मकबूल फिदा हुसैन नहीं रहे। लन्दन में कल सुबह उनका निधन हुआ। हुसैन हमारे पिकासो थे, कला के लिए पूरी तरह समर्पित। उनके चित्रों को लेकर साम्प्रदायिक ताकतों ने उन्हें निशाना बनाया, सैकड़ों की संख्या में उनके ऊपर मुकदमें दायर किये और हमारे इस कलाकार को मजबूर कर दिया कि वे देश छोड़कर चला जाय।

उन्होंने कतर की नागरिकता ली। लेकिन कतर की नागरिकता लेने के बावजूद वे कहते रहे कि भले मैं हिन्दुस्तान के लिए प्रवासी हो गया हूँ लेकिन मेरी यही पहचान रहेगी कि मैं हिन्दुस्तान का पेन्टर हूँ, यहाँ जन्मा कलाकार हूँ। अर्थात हुसैन के कलाकार की जड़े यहीं है और अपने जड़ो से कटने का जो दर्द होता है, वह हुसैन के अन्दर काफी गहरे था। कलाकार स्वतंत्रता चाहता है। वह प्रतिबन्धों, असुरक्षा में नहीं जीना चाहता है। पर व्यवस्था ऐसी है जो कलाकार को न्यूनतम सुरक्षा की गारण्टी नहीं दे सकती।

फिदा हुसैन नहीं रहे, पर इस व्यवस्था पर सवाल छोड़ गये। हम शायद अपने को माफ न कर पायें। जब भी कलाकार की स्वतंत्रता की बात होगी, हुसैन की बात होगी - यह चीज कहीं न कही हमें टिसती रहेगी। अपने इस कलाकार के जाने का हमें गम है। जन संस्कृति मंच की ओर से अपने इस अजीज कलाकार को इस संकल्प के साथ याद करते हैं और अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं कि फिर कोई हुसैन न बने।

बालकृष्ण योगी का झूठ और नेपाल से उजागर होता सच

जनज्वार  विशेष
बालकृष्ण मामले में अबतक का सबसे बड़ा खुलासा
करीब चार साल पहले 2007 में बालकृष्ण योगी के भारतीय नागरिकता मामले में पासपोर्ट को लेकर खुफिया रिपोर्टों के आधार पर विवाद हुआ था और संदेह उठा था कि उन्होंने तकनीकी नियमों का उल्लंघन किया है। उस समय इस रिपोर्ट के लेखक नेपाल में माओवादियों की सत्ता में हुई भागीदारी के बाद की स्थितियों का जायजा लेने के लिए रिपोर्टिंग पर गये हुए थे। उसी दौरान उन्हें बालकृष्ण मामले में खोज करने का भी मौका मिला था। इस मामले के सभी पहलुओं को टटोलती जनज्वार की विशेष  रिपोर्ट... मॉडरेटर


अजय प्रकाश 

बाबा रामदेव के दाहिने हाथ और पातंजलि योगपीठ के मुख्य कर्ताधर्ता बालकृष्ण योगी की नागरिकता को लेकर 5 मई से शुरू  हुआ तमाशा  अभी थमा नहीं है। कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह ने बालकृष्ण को नेपाल का गुण्डा और नेपाल के कई मामलों में अपराधी बताया है। वहीं बालकृष्ण को लेकर उत्तराखण्ड खुफिया पुलिस की स्थानीय ईकाई की ओर से जारी रिपोर्ट में उन्हें नेपाली नागरिक के तौर पर चिन्हित किया गया है और उनके पासपोर्ट को संदेहास्पद। पासपोर्ट के अनुसार बालकृष्ण पुत्र रामकृष्ण , गांव-टिटोरा, थाना-कथौली का पता ही उनके पासपोर्ट के संदेहास्पद होने का आधार है। इसी खुफिया रिपोर्ट के आधार पर कुछ भारतीय चैनल और अखबार दावा कर रहे हैं कि उनके पास बालकृष्ण की असलियत है।

 बालकृष्ण के छोटे भाई और मौसी का लड़का, पहले गेट   फिर घर में                       सभी फोटो - अजय प्रकाश


मीडिया के पास बालकृष्ण  की क्या असलियत है, वह उजागर होता उससे पहले ही बालकृष्ण  ने प्रेस कांफ्रेंस आयोजित कर रोने-धोने के माहौल के साथ जो इमोशनल अत्याचार किया है, जाहिर है उसके पीछे सिर्फ भय है। भय बालकृष्ण  को नेपाली गुण्डा होने का नहीं है, कई मामलों में अपराधी होने का भी नहीं है, बल्कि उनका भय नेपाल के स्यान्जा  जिले के वालिंग कस्बे के उस स्कूल से है, जहां उन्होंने चौथी कक्षा तक पढ़ाई की थी। इसी वजह से यह सवाल महत्वपूर्ण हो जाता है कि क्या भारत का नागरिक बनने के लिए जो तकनीकी खानापूर्ति करनी होती है, उसे बालकृष्ण ने पूरा किया है या नहीं। अगर ऐसा नहीं किया गया है तो बालकृष्ण की मुश्किलें बढ़ सकती हैं।

बालकृष्ण ने मीडिया के सामने आकर कहा कि उनकी पैदाइश  और पढ़ाई भारत में ही हुई है और वे भारत के नागरिक हैं। यह बालकृष्ण का आधा सच है, क्योंकि बालकृष्ण के भारत में पैदा होने की बात तो उनको जानने वाले कहते हैं, मगर पढ़ाई का प्रमाण तो उस रजिस्टर में दर्ज है जो नेपाल के स्यांजा जिले के वालिंग कस्बे के एक प्राथमिक स्कूल में पड़ता है। बालकृष्ण जिस कस्बे के रहने वाले हैं, वहां के लोगों का कहना है कि उनके मां-बाप जब भारतीय तीर्थस्थलों के दर्शन  करने गये थे, उसी समय बालकृष्ण का जन्म भारत में हुआ था।

इस मामले से जुड़ी पहली तथ्यजनक खबर सिर्फ जनज्वार के पास है, लेकिन जनपक्षधरता की अपनी परंपरा को जारी रखते हुए हमें यह वाजिब नहीं लगा कि कालेधन और भ्रष्टाचार के खिलाफ बन रहे एक राष्ट्रव्यापी माहौल के बीच सस्ती लोकप्रियता और सनसनी फैलाने के लिए संघर्ष  में लगे लोगों की खुर्दबीन की जाये। क्योंकि अगर यही खोजी रिपोर्टिंग है तो पहली खोजी खबर अपने उन माफिया मालिकों के खिलाफ लिखनी होगी, जिनके दिये पैसों से हम मीडिया में मुनाफे का बाजार खड़ा करते हैं।

वैसे में सवाल अब यह उठता है कि जनज्वार ने बालकृष्ण  मामले में अपनी खोजी रिपोर्ट को अब जारी करने की जरूरत क्यों समझी। तो जवाब है, ‘सिर्फ इसलिए कि बालकृष्ण को लेकर जो धुंध और धंधा फैलाने की कोशिश हो रही है, उसके सच को सामने लाया जाये, जिससे बालकृष्ण सच का सामना करने को मजबूर हों न कि गुण्डा और अपराधी होने के फर्जी आरोपों की सांसत झेलने में उलझें।


बालकृष्ण के चाचा के लड़के और स्कूल  
भारत की सोनौली सीमा से नेपाल के बुटवल के रास्ते काठमांडू की ओर बढ़ने पर पोखरा जिले से पहले स्यांजा पड़ता है। बालकृष्ण योगी का घर स्यांजा जिले के भरूआ गांव में है और वह स्कूल गांव के ऊपर,जिसके रजिस्टर में बालकृष्ण के चौथी तक पढ़ने का साक्ष्य दर्ज है।

इस सिलसिले में हमारी पहली मुलाकात बालकृष्ण   के चाचा के लड़कों से होती है जो अपने नामों के पीछे सुवेदी लगाते हैं। वालिंग कस्बे में दुकान चला रहे बालकृष्ण  के चाचा के लड़कों से पता चलता है कि भरूआ गांव ब्राह्मणों का है और वहां सुवेदी ब्राह्मणों की तादाद ज्यादा है। उनमें से एक जो फोटो में सबसे किनारे है, वह बालकृष्ण   के साथ ही पढ़ा होता है, लेकिन जब मैं उससे दुबारा उसका नाम पूछता हूं तो उसको मुझ पर संदेह होता है और वह हंसते हुए नाम बताने से इंकार कर देता है।

मैं हाथ में डायरी नहीं निकालता, क्योंकि अपना परिचय उनको मैंने बालकृष्ण के दोस्त के रूप में दिया होता है और रिकॉर्डर तो बिल्कुल भी नहीं। मुझे ऐसा इसलिए करना पड़ता है कि जिनके जरिये यहां मैं पहुंचा हुआ होता हूं उन्होंने हिदायत दे रखी थी कि ऐसी कोई गलती मत करना जिससे तुम गांव न जा सको, जहां वह स्कूल है। तस्वीर में दिख रहे दो लोग जिनकी उम्र ज्यादा है, वह बताते हैं कि जब बालकृष्ण चौथी कक्षा के बाद भारत चले गये थे तो भी वह बाबा रामदेव के साथ आया करते और जंगलों में जड़ी-बूटियां ढूंढ़ा करते थे। उनसे ही पता चला कि पिछले दस-बारह वर्षों से बालकृष्ण यहां नहीं दिखे, हां उनकी कमाई से वालिंग में बनवाई गयी आलीशान कोठी जरूर दिखती है, जो इसी साल तैयार हुई है.

बालकृष्ण के चाचा के उन दुकानदार लड़कों से मैं कहता हूं कि उस कोठी तक हमें ले चलो, शायद आप लोगों की वजह से हमसे उनके परिवार के लोग बात कर लेंगे, लेकिन वह नहीं जाते हैं। पते के तौर पर वे बस इतना कहते हैं कि जो कोठी दूर से दिखे और कस्बे में सबसे सुंदर हो उसी में घुस जाना।

कोठी का गेट खटखटाने पर हमारी आवभगत के लिए दो बच्चे आते हैं। उन दोनों से मैं हाथ मिलाता हूं और गेट के अंदर दाखिल होता हूं। उनमें से एक फर्राटेदार हिंदी बोलता है और बताता है कि वह बालकृष्ण का सबसे छोटा भाई नारायण सुवेदी है। फिर साथ के लड़के के बारे में पता चला है कि वह मौसी का लड़का है। अब हम उनके डायनिंग रूम में होते हैं जहां बड़े स्क्रीन की टीवी लगी होती है। हमें लड्डू खाने को दिया जाता है। उस समय मैं बच्चों को अपना परिचय बालकृष्ण के दोस्त के रूप में देता हूं और बताता हूं कि मैं तुम्हारे गांव चलना चाहता हूं। गांव जाने की बात सुन नारायण खुश होता है और आत्मीयता से कहता है ‘गांव यहां से चार किलोमीटर दूर है और पैदल ही पहाड़ियों पर चलना होता है, इसलिए इस समय चलना खतरनाक होगा, कल सुबह यहां से निकल लेंगे।’
बालकृष्ण का स्कूल और भरुआ में उनका घर

तभी अधेड़ उम्र की एक महिला दिखती है। उसको नमस्कार करने के बाद नारायण बताता है कि वह उसकी मौसी है और मां गांव में है। वह महिला थोड़ी देर तक मुझे देखती है और फिर करीब घंटे भर बाद किसी पवन सुवेदी को लेकर आती है, जो खुद को बालकृष्ण की मौसी का बेटा बताता है। वह मुझसे कुछ रुष्ट  दिखता है वह इशारे से बच्चों को अपने पास बुलाता है, जिसके बाद बच्चे वहां नहीं दिखते। थोड़ी देर बाद पवन सुवेदी एक नयी कहानी बताता है कि बालकृष्ण के माता-पिता तीर्थ करने काठमांडू गये हैं और पंद्रह दिनों बाद आयेंगे। मैं फिर भी गांव जाने की बात कहता हूं तो वह शुरू में तो इंकार करता है, फिर कहता है ‘ठीक है सुबह देखेंगे।’ लेकिन वह साफ कह देता है कि इस घर में आप रात नहीं गुजार सकते।

तब तक करीब रात के आठ बज चुके होते हैं और मैं कहीं दूसरी जगह जा पाने में खुद को असमर्थ बताता हूं तो वह मुझे कस्बे के एक होटल में ले जाता है, जहां मैं दो सौ नेपाली रुपये में एक कमरे के बीच तीन लोगों के साथ सोता हूं। होटल कैसा था इसका अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि मैंने सुबह उसके शौचालय  में जाने के मुकाबले खेत में जाना पसंद किया था।

अब मेरी अगली चिंता एक ऐसे आदमी की तलाश  की होती है जो मुझे भरूआ गांव ले जाये,  क्योंकि सुबह बालकृष्ण की आलीशान कोठी में बड़ा ताला जड़ा होता है। बहरहाल, मुझे एक कुरियर मिल जाता है जो मुझे गाँव तक ले जाता है। कुरियर कहता है पहले गांव चलते हैं और लौटते हुए स्कूल। मेरे दिमाग में आता है कि अगर गांव में बात बिगड़ गयी तो स्कूल से मिलने वाली जानकारी से हम लोग चूक जायेंगे।

हम पहले स्कूल के मास्टर से मिलते हैं जो हमें बताता है कि वह नया आया है। वह आगे बताता है कि बालकृष्ण ने बचपन में यहीं पढ़ाई की है। उसके बाद हम मास्टर की मदद से रजिस्टर खोजने में लग जाते हैं। कई वर्षों का रजिस्टर खंगालने के बाद हमें पता चलता है कि बालकृष्ण नाम का कोई छात्र ही नहीं है। हम बालकृष्ण के पिता जयबल्लभ सुवेदी के नाम से खोजते हैं तो एक नाम डंभर प्रसाद  सुवेदी का मिलता है, जिसमें पिता के तौर पर जयबल्लभ सुवेदी नाम दर्ज होता है। बालकृष्ण का असल नाम डंभरदास सुवेदी है, यह इसलिए भी पक्का हो जाता है क्योंकि बालकृष्ण के चाचा के लड़कों ने भी बालकृष्ण का यही नाम बताया होता है। दूसरा प्रमाण यह भी रहा कि बालकृष्ण का चौथी कक्षा के बाद नाम रजिस्टर से कट जाता है, जो अगली कक्षाओं के उपस्थिति रजिस्टरों में नहीं दिखता है। जबकि जयबल्लभ सुवेदी के दूसरे बेटों का नाम रजिस्टर में है.   

जब यह साफ हो जाता है कि बालकृष्ण सुवेदी उर्फ डंभर प्रसाद  सुवेदी ही जयबल्लभ सुवेदी के चार लड़कों में से एक हैं और उनका गांव घाटी में स्थित भरूआ है, तो हम उनके मां-बाप से मिलने भरूआ की ओर चल देते हैं। करीब दो घंटे पैदल चलने के बाद हम बालकृष्ण के घर पहुँचते हैं और हमारी मुलाकात उनकी मां से होती है। अभी हम उनकी मां से कुछ पूछते उससे पहले ही आलीशान कोठी में मिले नारायण सुवेदी और उसकी मौसी का लड़का एक साथ नेपाली में चिल्ला पड़ते हैं और वह औरत घर में घुसकर खुद को अंदर से बंद कर लेती है, लेकिन इस बीच कैमरे ने अपना काम कर लिया होता है और हम बालकृष्ण की मां का फोटो खींच लेते हैं।


 रजिस्टर में ६३ नम्बर पर डंभर प्रसाद सुवेदी है ,

और गाँव में उनकी माँ


घर में छुपी मां से बाहर आने को कहा तो कुरियर ने बताया कि वह गाली दे रही है और कैमरा छिनवाने की बात कह रही है। कुरियर ने आगे कहा कि बालकृष्ण की मां अपने छोटे बेटे नारायण सुवेदी को पिता और भाइयों को बुला लाने की बात कह रही है। दूसरे ही पल हमने देखा कि खेतों में काम कर रहे कुछ लोगों की ओर नारायण बड़ी तेजी से घाटी में उतरता जा रहा है और कुछ चिल्लाता जा रहा है।

हमने कुरियर से पूछा अब क्या करें?उसने कहा कि वह गाँव  में कई लोगों को जानता है और उसकी अच्छी साख है, इसलिए कोई मारपीट तो नहीं कर सकता, लेकिन कैमरा छीन लेंगे। मैंने पूछा ऐसा क्यों? कुरियर का कहना था कि यहां गांव की परंपरा के हिसाब से कोई औरत का फोटो नहीं खींच सकता।

फिर हमने कुरियर के बताये अनुसार निर्णय लिया कि यहां से भागना चाहिए। लेकिन हम घाटी से पहाड़ी पर उस रास्ते से नहीं जा सकते थे, जो सामान्य रास्ता था या जिस रास्ते से आये थे। पकड़ से बचने के लिए हमें जंगल के रास्ते वालिंग कस्बे का रास्ता तय करना पड़ा। हमने दिन के 11 बजे चलना शुरू किया था और दुबारा वालिंग कस्बे में पोखरा के लिए गाड़ी पकड़ने के लिए 4 बजे पहुंच पाये थे।



Jun 7, 2011

कहाँ गयी किसानों की नयी पीढ़ी

नई पीढ़ी के पास किसानी को लेकर कोई व्यवस्थित सोच और तैयारी नहीं है. वे जमीन के बदले पैसे को  सही प्रबंधन मानते हैं. कल तक जो किसान अपने परिवार के साथ-साथ बाकी समाज की भूख को संभालता था, कहीं ऐसा न हो  कि उसे  खुद का पेट भरने के लिए बाजार पर निर्भर होना पड़े ... 

   
गायत्री आर्य

दुनिया के सबसे बड़े कृषि प्रधान देश भारत में दुनिया के एक चौथाई भूखे लोग रहते हैं। निश्चित तौर पर यह तथ्य 1894 के भूमिअधिग्रहण कानून में बदलाव लाते वक्त किसी भी मंत्री के दिमाग में नहीं होगा। हाल ही में ऑॅक्सफैम ने ‘घटते संसाधनों के बीच बेहतर भविष्य के लिए खाद्यन्नों का न्यायसंगत इस्तेमाल‘ नामक एक रिपोर्ट जारी की है। इस रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है कि अगले बीस सालों में दुनिया में खाद्य वस्तुओं की मांग 70 गुना बढने से इनकी कीमतों में दोगुना इजाफा होगा और पूरी दुनिया में भुखमरी विकराल रुप ले लेगी। खाद्यन्न पैदा करने के साथ-साथ 1990 से 2005 तक हमने फ्रांस की आबादी से ज्यादा यानी  6.5 करोड़ भूखे लोग भी पैदा किये हैं। लेकिन अफसोस की अभी भी भूमि अधिग्रहण मुद्दे को सिर्फ मुआवजे, उद्योग और विकास के जुड़ा हुआ मुद्दा ही माना जा रहा है।

नयी पीढ़ी के  खेतिहरों को खोजते खेत                          फोटो - अजय प्रकाश
किसानों की पहली चाहत है कि जमीन उनसे ना छिने और छिने भी तो बाजार भाव के हिसाब से उन्हें ज्यादा से ज्यादा मुआवजा मिले। दूसरी तरफ निवेशकों और उद्योगपतियों की पहली चाहत है कि हर हाल में जमीन उन्हें मिले और कम से कम कीमत पर मिले। सरकार बनाने में जितने जरुरी वोट हैं उससे भी ज्यादा जरुरी पैसा है इसलिए जाहिर है कि सरकारें निवेशकों और उद्योगपतियों की तरफदारी करती हैं। लेकिन बाजार और पैसे की चकाचौंध अब गांवों तक भी पहुंच गई है, इसलिए किसान सस्ते में निबटने को तैयार नहीं। यदि किसानों को जमीन के मनचाहे पैसे मिल जाते तब शायद जमीन अधिग्रहण कोई मुद्दा बनता ही नहीं। तब जमीन बचाने के लिए धरना, प्रदर्शन और विरोध करने की नौबत संभवतः नहीं आती। खेती की जमीन कम होने का सीधा असर  खाद्दान्न पैदावार पर  भी होगा । खाने वाले पेट उतने ही रहेंगे, लेकिन उगाने वले हाथ और जमीन कम से कमतर होते जा रहे हैं, क्योंकि सारी उपजाऊ जमीन पर तो विकास की नजर है।

हाल-फिलहाल में किसानों द्वारा भूमि अधिग्रहण के विरोध में हुए आंदोलनों को देखें तो एक बात साफतौर पर सामने आती है। किसानों की पहली प्राथमिकता जमीन ना देने  के बदले ज्यादा से ज्यादा मुआवजा पाना है। इसका कारण ये है कि किसानों की नई पढ़ी-लिखी पीढ़ी खेती को अपने व्यवसाय के तौर पर नहीं देखती, बल्कि बिना मेहनत के लाभ देने वाली पूंजी के तौर पर देखती है। क्योंकि सिर्फ खेती ही ऐसा काम है जो हाड़तोड़ मेहनत के बावजूद भी ज्यादा लाभ की कोई निश्चित गारंटी नहीं देता। अच्छी फसल भी रातों-रात बारिश, आंधी, तूफान, ओलावृष्टि की भेंट चढ सकती है या फिर बाजार के गिरते-चढ़ते मूल्य के बीच फंस सकती है, ऐसे में कैसी भी नौकरी उनकी पहली पसंद है क्योंकि वहां उन्हे पता है कि महीने के अंत में उन्हें कितना मिलेगा या साल भर में कितना बचा पाएंगे। गांवों में जो युवक प्रत्यक्ष रुप से खेती नहीं करते ना ही नौकरी करते हैं शादी कराने के लिए उन्हें किसान के तौर पर प्रचारित  किया जाता है। असल में वे ‘अदृश्य बेरोजगार‘ हैं जिन्हें हम किसानों में ही गिनने की गलती करते हैं।

भूमि अधिग्रहण की खबर किसान परिवारों में मोटा-मोटी दो तरह की प्रतिक्रिया लाती है। पुरानी पीढ़ी के लोग जो सही मायने में किसान हैं वे अपनी आजीविका को छिनता हुआ देखते हैं। पुश्तैनी जमीन का जाना उन्हें भावनात्मक और आर्थिक दोनों तरह से असुरक्षित करता है। दूसरी तरफ युवा (झूठ-मूठ के किसान) ना तो भावनात्मक स्तर पर ही जमीन से जुड़े होते हैं ना ही सीधे तौर पर उन्हें जमीन आर्थिक आत्मनिर्भरता देती है। उन्हें  जमीन का अधिग्रहण एकमुश्त पैसा कमाने का सुनहरा मौका लगता है। हालाँकि  जमीनी यर्थाथ यह है कि जमीन के बदले  मिलने वाली बड़ी रकम का अक्सर  सदुपयोग नहीं हो पाता।

नए-पुराने किसानों के पास पूंजी के सही निवेश के लिए ना तो कोई सोच होती है, ना ही योजना, ना ही कोई उस तरह का अनुभव और ना ही ऐसा कोई विचार । असली किसान खेती से अलग दूसरे किसी भी काम को शुरु करने की बात सोच भी नहीं सकते। दूसरी तरफ युवकों  ने ऐसी कोई तकनीकी या प्रबंध शिक्षा नहीं ली होती कि वे अपना कोई व्यवसाय करने का सोच सकें। खेती करने वाला किसान अचानक से बेरोजगार हो जाता है और नई पीढ़ी के पास कोई व्यवस्थित सोच और तैयारी नहीं होती, जिस कारण अधिकांशतः जमीन के बदले मिले पैसे का सही प्रबंधन नहीं होता। कल तक जो किसान अपने परिवार के साथ-साथ बाकी  समाज की भूख का भी इलाज करता था, आज वह खुद अपना पेट भरने के लिए दूसरे पर निर्भर होगा।

अमेरिका जैसी महाशक्ति जहां विज्ञान और तकनीक ने अविश्वसनीय चीजें, सुविधाएं और हालात पैदा किये हैं, वहां भी आज भी लोग खाना ही खाते हैं। ऐसी किसी गोली, इंजेक्शन, या टीके की खोज आज भी नहीं हुई जिसे खाने का नियमित विकल्प बनाया गया हो। ऐसी कोई कोशिश भी कहीं नजर नहीं आ रही। बड़े से बड़ा वैज्ञानिक, डॅाक्टर, इंजीनियर, प्रबंधक, उद्योगपति या फिर राष्ट्रपति भी अंततः खाना ही खाता है। यानि के विकास के चरम बिंदू पर भी हम खाने का ना तो कोई विकल्प ढ़ूंढ पाए हैं और ना ही ढूंढना चाहते  हैं। फिर हम विकास के नाम पर खाना पैदा करने वाली जमीनों और हाथों को क्यों काट रहे हैं?

यह कैसा कृषि प्रधान देश है जो अपने 6.5 करोड़ लोगों को खाना नहीं दे पा रहा है? यह कैसा खेतीहर देश है जो किसानों की नई पीढ़ी तैयार ना कर पाने के बावजूद भी खुद को कृषि प्रधान देश ही कहलवा रहा है? क्यों हम 6 दशकों में भी ऐसे हालात नहीं पैदा कर पाए कि नई पीढ़ी सिर्फ विज्ञान, वाणिज्य, प्रबंधन को ही नहीं खेती को भी कैरियर के तौर पर चुने? क्यों सेज से लेकर तमाम ओद्यौगिक इकाइयां उत्पादक जमीन पर खड़ी की जा रही हैं? क्या हम खेती की जमीन जरुरत से ज्यादा होने से त्रस्त है? फिर अनुत्पादक (‘बंजर‘ नहीं क्योंकि जमीन हमेशा कुछ ना कुछ देती है)जमीनों को क्यों उद्योगिकरण के लिए नहीं चुना जा रहा?

जिस उपजाऊ मिट्टी को ऊंचे दाम चुकाकर कंक्रीट में बदला जा रहा है, उससे पैदा होने वाले खाद्यान्न की भरपाई कौन करेगा? मिट्टी की एक परत बनने में एक हजार साल लगते हैं और उसे कंक्रीट बनाने में 100 दिन भी नहीं। लेकिन अभी भी जमीन अधिग्रहण का मुद्दा ज्यादा से ज्यादा दाम लेने और कम से कम दाम में खरीदने के बीच ही झूल रहा है। क्या नई जमीन अधिग्रहण नीति में सरकार जमीन से जुड़े मूल मुद्दे खाद्यान्न उत्पादन और भूख नियंत्रण को ध्यान में रखेगी या फिर वोट बैंक और नोट बैंक के वर्तमान हितों को ही पोसने की कोशिश करेगी? केन्द्र सरकार खाद्य सुरक्षा कानून बनाने जा रही है। इस कानून को लागू करने की पहली शर्त पर्याप्त खाद्यान्न उत्पादन, तत्पश्चात सही भंडारण और न्यायसंगत वितरण है। एक तरफ खाद्यान्न सुरक्षा का लोक लुभावन कानून दूसरी तरफ उपजाऊ जमीन पर गिद्ध दृष्टि!

भूख के भयानक स्तर पर पहुँचने   से पैदा होने वाले भयानक हालातों को ध्यान में रखकर भूमि अधिग्रहण का नया कानून बनाना चाहिए। यह तय है कि सरकारें, उद्योगपति, निवेशक और विकास अंततः भूखे लोगों का शिकार होंगे। आम आदमी तो हर हाल में शिकार होने का अभिशप्त है ही। क्या हमें इतनी मुश्किलों से और इतनी कीमत चुकाकर होने वाले विकास को भूखे लोगों का शिकार होने से नहीं बचाना चाहिए? भूख को दबाकर और भूख की कीमत पर विकास कभी नहीं जीत सकता। हां भूख को जीतकर, सामाजिक शान्ति, सौहार्द स्थापित करके फिर भी स्थाई विकास की प्रबल संभावनाएं पैदा होती हैं।





दिल्ली के जवाहरलाल नेहरु विश्विद्यालय से शोध और मजदूरों -किसानों  से जुड़े मामलों पर लिखती हैं .





नेता रामदेव यादव अब बूट योग की बारी है


यानी चुत्तड़ योग से समर्थन योग का रास्ता थाने और कचहरी से होकर गुजरता है. आप राजनीति में नए-नए आये हैं, इसलिए इन  योगों के बारे में जानकारी नहीं है। उम्मीद है क्रमशः आप रमते जायेंगे...
 
सुमन

भारतीय राजनीति में बगैर जाति के नेता की कोई पहचान नहीं है, इसलिए बाबा रामदेव के भविष्य को देखते हुए उन्हें रामदेव यादव कहना श्रेयस्कर होगा. योगी, बाबा, औषधि निर्माता और अब राजनेता- रामदेव यादव का राजनीति के क्षेत्र में व्यापक स्वागत है. स्वागत इसलिए है क्योंकि उन्हें  पुलिस ने अपनी लोकतान्त्रिक व्यवस्था का एक छोटा सा कारनामा दिखाया और वे आदमी से औरत की पोशाक में आ गए। हालाँकि  पुलिस ने नरमी दिखाई और अपना  सम्पूर्ण टेलर नहीं दिखाया। अगर हमारे जिले के इस्पात राज्य मंत्री श्री बेनी प्रसाद वर्मा की दिल्ली में चली होती तो वे आपके और समर्थकों के लिए चुत्तड़  योग (जो बाराबंकी जनपद में तो प्रसिद्ध  है )  का  इस्तेमाल  जरुर करवाये होते।


पिछले लोकसभा चुनाव से पहले थाना राम नगर, जिला बाराबंकी में मंत्री जी ने अपने  एक बडबोले विरोधी नेता पर तत्कालीन थाना अध्यक्ष के जरिये चुत्तड़ योग का प्रयोग कराया था। जब न्यायालय में उक्त नेता जी का चालान आया तो पेट के बल वो लेटाये हुए थे और जब माननीय मंत्री जी का चुनाव आया तो वही  नेताजी उनका चुनाव प्रचार कर रहे थे। यानी चुत्तड़ योग से समर्थन योग का रास्ता थाने और कचहरी से होकर  गुजरता है. आप राजनीति में नए-नए आये हैं, इसलिए के योगों के बारे में जानकारी नहीं है। उम्मीद है क्रमशः आप रमते जायेंगे.  

उत्तर प्रदेश में पुलिस पेट्रोल योग, करंट योग, पट्टा योग आये दिन करती रहती है और इसी कारण से प्रदेश में विपक्षी बडबोले नेता चाहे भाजपा के हों या लोकमंच के नेता अमर सिंह हों या क्षत्रिय शिरोमणि रघुराज प्रताप राजा भैया हों, सबको सरकारी योग से डर लगता है और ये सभी नेतागण निंदा करके अपना काम चला लेते हैं। उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में प्रदेश सरकार ने आपके काफिले को रोककर वापस कर दिया। अगर आपने वहां हठ योग किया होता तो आपको उत्तर प्रदेश सरकार भट्ठा-परसोल योग का प्रशिक्षण दे देती। उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने आपका पूरा समर्थन किया है और उन्होंने ने कहा है कि रामलीला मैदान में हुई कार्यवाई की उच्चतम न्यायालय जांच कराये क्योंकि अब केंद्र से न्याय की उम्मीद नहीं है। यह अमानवीय और निंदनीय है।

उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में झुलेलाल पार्क में प्रदेश के सभी धरना अनशन प्रदर्शन कार्यों को इकठ्ठा होकर अपनी बात कहने के लिये स्थल नियत किया गया है। 23 मई से नवीन ओखला ओद्योगिक विकास प्राधिकरण के कर्मचारी अपनी नौकरी के नियमतिकरण लिये धरना दिए हुए थे। शुक्रवार की सुबह धरनाकारी धर्मपाल की मृत्यु हो गयी। एसपी ट्रांस गोमती नितिन तिवारी के कुशल नेतृत्व में सी.ओ महानगर, सी.ओ गुड़म्बा सहित कई थानों के थाना प्रभारी अपने-अपने नेम प्लेट उतारकर धरना स्थल पर बैठे हुए कर्मचारियों पर पुलिस, पीएससी के बल पर लाठी चार्ज कर दिया जिसमें आधा दर्जन कर्मचारियों की हालत गंभीर स्थिति में पहुँच गयी। डेढ़ सौ महिलाओं को इन अधिकारियो के नेतृत्व में पुलिस पीएससी ने जमकर पीटा। सारे कानून नियम धरे के धरे रह गए।

अब मैं आपके लिए  उत्तर प्रदेश के सरकारी योग की कुछ झलकियाँ पेश कर रहा हूँ....

लखनऊ में बहुजन समाज पार्टी की सरकार ने हमेशा समाज के हर तबके के ऊपर लाठी चार्ज किया है और किसी भी मामले में जिम्मेदार किसी भी पुलिस अधिकारी के खिलाफ कोई कार्यवाई नहीं की गयी है। धरना स्थल पर धरनाकारी धर्मपाल की मौत के बाद पुलिस प्रशासन ने जिस तरह से धरनाकारी के ऊपर बुरी तरह से लाठीचार्ज किया है, उससे लगता है की उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ लोकतंत्र का शमशान घाट है और विपक्षी दलों की स्थिति  मुर्दों से भी बदतर  न हिल सकते हैं न डुल सकते हैं अन्यथा सरकार की यह हिम्मत ही नहीं हो सकती थी कि वो हर सत्याग्रही के ऊपर लाठीचार्ज कर सके।

लखनऊ में डीआईजी डी.के.ठाकुर ने समाजवादी पार्टी नेता आनंद सिंह भदौरिया को हजरतगंज में लाठियों से पीटकर सड़क पर लातों से रौंदा, जिससे उत्तर प्रदेश सरकार तथा भारत सरकार के पुलिस अधिकारीयों का वास्तविक चेहरा जनता के सामने आया। कहने के लिये हम आप लोकतांत्रिक समाज का हिस्सा हैं लेकिन वास्तव में राज्य का असली स्वरूप जब सामने आता है तो वह बड़ा वीभत्स होता है। इन स्थितियों  के बाद भारत सरकार में दम है कि इस पुलिस अधिकारी के खिलाफ कोई कार्यवाई कर सके।

रही बात विदेशों से काला धन लाने की तो नेता जी मेरी एक सलाह है कि अगर आज की तारीख से देश में काला धन बनाने की प्रक्रिया रुक जाए तो भी देश काफी खुशहाल हो जायेगा। जब दो करोड़ रुपये की जमीन कोई खरीदता है तो नंबर एक रुपये में 60-70 लाख रुपये का भुगतान होता है बाकी भुगतान बेनामी होता है और इसी तरह हजारो हजार करोड़ रुपये ब्लैक मनी प्रतिदिन तैयार होती है मुख्य समस्या यह है। नेता जी आपने रामलीला मैदान 5000 लोगों को योग सिखाने के लिये लिया था। अनशन प्रदर्शन करने के लिये नहीं लिया था और वहां योग सिखने वाले लोगों को इस तरह की कार्यवाई की भी उम्मीद नहीं थी.

यदि किसी योग प्रशिक्षणार्थी की मृत्यु भी हो जाती तो उसकी भी जिम्मेदारी आपकी ही होती। आपके समर्थन में संघियों की मुखौटा पार्टी भाजपा पूरी तरीके से है। इसका अध्यक्ष बंगारू लक्षमण भी रहा है जिसका हाल आपने टीवी  पर देखा होगा। अगर आपके केंद्र में कांग्रेस की बजाये भाजपा की सरकार होती तो भाजपा आपको इससे बढ़िया नया योग सिखा चुकी होती। कांग्रेस भ्रष्टाचारियों का एक अड्डा है जिसमें शरद पवार जैसे मंत्रियों से लेकर दयानिधि मारन तक अब तक मंत्री हैं।


हम,  नेता जी आपके राजनीति में आने का स्वागत करते हैं लेकिन ये द्रष्टान्त आपके लिये लिखे हैं जिससे आप इन योगों का भी अभ्यास कर लें। जिससे भविष्य में आपको कोई कुंठा या निराशा न हो। राजनीति में सभी महा योगी होते हैं और आप अभी तक सिर्फ योगी हैं।











हिंदी के चर्चित ब्लॉग लोकसंघर्ष  के मॉडरेटर और पेशे से बाराबंकी में वकील