आशा की जानी चाहिए कि मधुर अपने पूर्व के सिने निर्माताओं से आगे निकलेंगे और उनकी यह फिल्म भी पेज थ्री, फैशन, जेल, सत्ता, कोर्पोरेट जैसी फिल्मों की तरह भारतीय समाज के एक ऐसे पक्ष को सामने लाएगी, जिसकी जानकारी अब तक देश के बुद्धिजीवियों के छोटे हिस्से को है...
तसनीम खान
समाज में होने वाले परिवर्तन सबसे पहले उसकी राजनीतिक भाषा में दर्ज होते हैं और फिर उस समाज की संस्कृति अथवा लोकाचार में दिखाई पड़ते हैं।
पिछले 70 सालों से भारतीय सिनेमा भारत के बदलते स्वरूप का सबसे प्रमाणिक दस्तावेज है। 1950-60 के दशक में महात्मा गाँधी और जवाहरलाल नेहरू के आदर्शों से प्रेरित भारतीय समाज हो या 1970 का बागी हिन्दुस्तान या 1990 में परंपरा को तोड़ता भारत, भारतीय सिनेमा में सभी आयामों को दर्ज कर लेने की अनूठी क्षमता है।
आजाद भारत के इतिहास में वर्ष 2014 भारतीय समाज में परिवर्तन के एक चक्र के पूरा होने के रूप में याद किया जाएगा। हम देख सकते हैं कि तीन साल पहले आजादी का बिगबैंग अंततः थम ही गया। बुझी हुई राख में फूंंक मारने से उड़ने वाली धूल को आग मानना एक तरह का बचपना है। लाख कोशिश करने पर भी बीता ज़माना वापस नहीं आने वाला।
मधुर भण्डारकर की आने वाली फिल्म इंदू सरकार सिनेमा के मोदी युग में प्रवेश की खुली घोषणा है। ये फिल्म लोकतंत्र भारत के उस कालखण्ड से संबंधित है, जिसे राजनीति और राजनीतिक विज्ञान की भाषा में आपातकाल कहा जाता है। मधुर भण्डारकर की इस पहल का स्वागत किया जाना चाहिए और आशा की जानी चाहिए कि मधुर अपने पूर्व के सिने निर्माताओं से आगे निकलेंगे और उनकी यह फिल्म भी पेज थ्री, फैशन, जेल, सत्ता, कोर्पोरेट जैसी फिल्मों की तरह भारतीय समाज के एक ऐसे पक्ष को सामने लाएगी, जिसकी जानकारी अब तक देश के बुद्धिजीवियों के छोटे हिस्से को है।
यह छोटा सा बुद्विजीवी वर्ग इसकी याद करता था और असंख्य प्रतीकों का हवाला देकर इस दौर की बुराईंयो को बताता था। कम से कम इस फिल्म के बाद 'अघोषित आपातकाल' जैसे मुहावरों को समझाना आसान होगा।
मोदी युग से पहले के दौर में भी भारतीय इतिहास पर आधारित साहित्य रचा गया है। लेकिन सभी निर्माता इतिहास को सीधे संबोधित करने से डरते रहे। भारत में हिस्टारिकल या ऐतिहासिक कालखण्ड पर आधारित सिनेमा निमार्ण की पुरानी परंपरा है। लेकिन निर्माताओं ने इतिहास को कभी सामने से संबोधित नहीं किया।
1959 की सम्राट पृथ्वीराज चौहान, 1960 की मुगले आजाम, 1965 में शहीद और इन फिल्मों के पहले और बाद में कई फिल्में बनी जिनमें रचनात्मक स्वतंत्रता (आर्टिस्टिक फ्रीडम) के नाम पर इतिहास के साथ हास्यास्पद स्तर तक छेड़छाड़ की गई। पिछले दिनों आई दम लगा के हैशा, बजरंगी भाईजान, बाजीराव मस्तानी, बाहूबली आदि फिल्मों में जहां मोदी युग की एक धुंधली सी झलक दिखाई देती है वहीं मधुर की इंदू सरकार एक स्पष्ट लकीर खींचने का काम करती है। ऐसा इसलिए संभव हुआ है कि इस सरकार की तरह साहित्य रचने वालों के अंदर भी इस सरकार के लंबे समय तक बने रहने का आत्मविश्वास आया है। इस ‘टिके रहने के विश्वास’ को युग कह कर परिभाषित किया जा सकता है।
भारतीय फिल्म जगत में आपातकाल को सीधे कठघरे में खड़ा करने वाली यह पहली फिल्म होगी। पूर्व में ‘समानांतर सिनेमा’ में इस विषय पर काम हुआ लेकिन सीधे तौर पर इस पर सवाल नहीं उठाया गया। शायद इसलिए भी कि समानांतर सिनेमा अक्सर केन्द्रीय फिल्म बोर्ड द्वारा प्रायोजित रहीं। आज भी फिल्म निर्माण क्षेत्र में कोई बड़ा बदलाव नहीं आया है और सरकार का प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष प्रभाव बना हुआ है। इसलिए इस महत्वपूर्ण विषय पर फिल्म भी बनाई जा सकी है।
हम तो बस इतनी ही उम्मीद कर सकते हैं कि मधुर भण्डारकर ने अपने से पूर्व के सिने निर्माताओं की गलत परंपरा से सबक लिया होगा और उनकी इंदू सरकार राजनीतिक प्रोपोगेंडा से उपर उठा कर पूर्ववर्ती पेज थ्री या फैशन जैसी कालजयी रचना होगी।
(तसनीम खान लोयड लाॅ कालेज, ग्रेटर नोएडा में सहायक प्राध्यापक और जामिया मिलिया इस्लामिया, दिल्ली से सिनेमा पर पीएचडी कर रहीं हैं।)
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