Jul 11, 2011

पीत पत्रकारिता के एक युग का अंत


यह अखबार भले ही ज्यादा बिकता था,लेकिन पाठकों के मन में उसकी कोई इज्जत नहीं थी। लोग उसे चटखारे लेने के लिए ही पढ़ते थे। उसमें रसूखदार लोगों की निजी जिंदगी के चर्चे,अपराध और सेक्स के किस्सों को नमक-मिर्च लगाकर परोसा जाता था...

गोविंद सिंह

ब्रिटेन का सबसे ज्यादा प्रसारित साप्ताहिक टैब्लॉयड अखबार न्यूज ऑफ द वर्ल्ड 168साल की उम्र के बाद बंद हो गया। रविवार को उसका अंतिम अंक निकला। आज भी उसका प्रसार 28लाख था,जो उसे दुनिया के सबसे ज्यादा प्रसार वाले अखबारों की कतार में ला खड़ा करता है। लेकिन अपने प्रसार को बढ़ाए रखने के लिए इस अखबार ने जिस तरह के हथकंडे अपनाए,अंतत:  वे ही उसकी अकाल मृत्यु का कारण बने। जब तक वह ऊंचे रसूखदार लोगों की निजी जिंदगी में थोड़ी-बहुत ताक-झांक करता रहा, तब तक पाठक उसे सिर-आंखों पर बिठाए रहे।


लेकिन जबसे उसने पत्रकारीय नैतिकता को ताक पर रखकर इसी को अपना धर्म मान लिया,तभी से उसके पतन की शुरुआत हो गई। जब 7 जुलाई, 2005 को लंदन के बम धमाकों में मरे लोगों के परिजनों के संवादों को भी गुप्त रूप से टैप करना शुरू कर दिया,तो पाठकों की रही-सही सहानुभूति भी जाती रही। देश भर में उसकी भर्त्सना होने लगी। विज्ञापनदाता अपना हाथ खींचने लगे और गले में कानून का शिकंजा कसने लगा। लिहाजा विवश होकर अखबार के मालिक जेम्स मडरेक को उसे बंद करने की घोषणा करनी पड़ी।

यह अखबार भले ही ज्यादा बिकता था,लेकिन पाठकों के मन में उसकी कोई इज्जत नहीं थी। लोग उसे चटखारे लेने के लिए ही पढ़ते थे। उसमें रसूखदार लोगों की निजी जिंदगी के चर्चे,अपराध और सेक्स के किस्सों को नमक-मिर्च लगाकर परोसा जाता था। स्टिंग ऑपरेशन के जरिये ऑडियो-वीडियो सुबूत इकट्ठे किए जाते और गाहे-बगाहे प्रभावित लोगों को ब्लैकमेल भी किया जाता। इसी क्रम में अखबार के संपादकों ने फोन हैकिंग का हथकंडा अपनाया था। जिन्होंने इस कृत्य को अंजाम दिया,वे तो अखबार छोड़ गए, बंदी का संकट ङोलना पड़ा दूसरों को।

एक अक्टूबर,1843को जब लंदन से यह अखबार शुरू हुआ था,तब इसका पाठक वर्ग नवसाक्षर मजदूर वर्ग था। कम पढ़े-लिखे लोगों की दिलचस्पी वाली हर तरह की खबरें इसमें छपा करती थीं। चटखारे लेने वाली पीत पत्रकारिता तब इसका मकसद नहीं था। तब इसका प्रसार 12,000था। यह एक भरा-पूरा अखबार था, जिसमें हर तरह की सामग्री छपा करती थी। वर्ष 1891 में यह बिका। इसे लोकप्रिय बनाने की कोशिशें और तेज हुईं। मैथ्यू एंजेल ने अपनी पुस्तक-पॉपुलर प्रेस के सौ साल में इसे अपने समय का बहुत सुंदर अखबार कहा है।

 
इसकी देखा देखी कई और अखबार चालू हुए और आज तक चल रहे हैं। 1950 तक आते-आते इसका प्रसार 90 लाख तक पहुंच गया। यह एक बेमिसाल छलांग थी। 1969 में इसे रूपर्ट मडरेक ने खरीद लिया। यहीं से मडरेक ने मीडिया की दुनिया में प्रवेश किया। मडरेक ने भी इसे सुधारने की बजाय पीत पत्रकारिता की ओर ही धकेला और आज यह साबित हो गया कि महज सर्कुलेशन या धन की ताकत ही किसी अखबार के लिए पर्याप्त नहीं होती, जनता की नजर में सम्मान सबसे बड़ी चीज है।


(लेखक हिंदुस्तान अख़बार के कार्यकारी संपादक हैं.यह लेख वहीं से साभार प्रकाशित किया जा रहा है. )


2 comments:

  1. Sanjay ChauhanMonday, July 11, 2011

    Sanjay wrote: ".......sir ji india me bhi yellow journalism ne aapni jaade bahut gahrai se jamma rakhi hai .............. kya hamare desh me bhi yellow journalism khatam ho payega ki nahi....?????"

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  2. Press is called as fourth pillar of democracy.They must know & remember their importance by giving space to real public related issues only.

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