अशोक चक्रधर
—चौं रे चम्पू! इत्ती देर ते गुम्मा सौ बैठौ ऐ, कभी उदास है जाय, कभी मुस्काय, चक्कर का ऐ?
—चचा, एक पत्रिका-संपादक से सुबह-सुबह फोन पर तथ्याधारित बात हो रही थी, पर अचानक उन्होंने आवेश में आकर, ‘करना है जो कर लो’, कहा और फोन काट दिया।
—तेरे खिलाफ छापौ का कछू?—हां चचा! पिछले कुछ सालों से मेरी निन्दा के बिना उनकी पत्रिका पूरी नहीं होती। मैं जिन क्षेत्रों में जो भी कार्य कर रहा हूं,उनके साथ हास्य-कवि होने पर भी मुझे गर्व है,लेकिन वे हास्य-कवि का इस्तेमाल गाली की तरह करते हैं। इस बार उन्होंने तुम्हारे चम्पू और उसके परिवार के बारे में बड़ा ही नकारात्मक और तथ्यविहीन लेख छाप दिया।
अपमानबोध पर उदासी छा जाती है और उनके अधकचरे ज्ञान और व्यक्तिगत दुराग्रहों की ईर्ष्याजन्य भावनाओं पर हंसी आती है। माना कि इस भूमण्डलीकरण के बाद तनाव दुनियाभर के लिए एक अपरिहार्य अंगरखा है,लेकिन ज़िन्दा रहने की मजबूरी में अंग-प्रत्यंग का हंसना भी अनिवार्य बना रखा है। हमारी कॉलोनी में सुबह-सुबह पार्क में योग की कक्षाएं चलती हैं। लाउडस्पीकर पर बेसुरे प्रवचन होते हैं। चिंतन-मुक्त और निर्विकार होने की सलाह दी.
आपको छेरने वाली यह कौन सी पत्रिका है. बहुत गलत हो रहा है आपके साथ.
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