हौसला बुलंद पुलिस ने 21 अगस्त 2002 को बीजपुर थाना क्षेत्र के महुली के जंगल में दो युवकों को पुनः नक्सली बताकर मार दिया। इसमें एक चपकी निवासी महेश्वर गोड़ था,जिसका लड़का बसंत चार माह पूर्व करहिया मुठभेड़ में मारा गया था... अंतिम किस्त
विजय विनीत
अप्रैल 2002 में सोनभद्र के बीजपुर थाना क्षेत्र के करहिया गॉंव में पुलिस ने ठीक भवानीपुर की तर्ज पर चार युवकों को गोली मार दी। इनमें से बसंत,राजू और सुरेश नामक युवक की ही शिनाख्त हुई जो चपकी गॉंव के थे। बाद में सुरेश जिन्दा निकला। आज वह अपने गाँव में है। इस मुठभेड़ में मारे गये अन्य दो लड़के कहां के थे, आज तक पता नहीं चल पाया है।
नक्सली होने के आरोप में पुलिस मुठभेड़ के शिकार |
इस मामले को तत्कालीन विधायक परमेश्वर दयाल ने विधानसभा में उठाया,लेकिन दोषी पुलिस वालों के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं हुई। मुठभेड़ों में दलित और निर्दोष युवकों के मारे जाने पर सवाल उठते रहे,मगर सोनभद्र पुलिस की कार्यप्रणाली में जरा भी परिवर्तन नहीं आया। पुलिस एक-एक कर घटनाओं को अंजाम देती रही।
हौसला बुलंद पुलिस ने 21 अगस्त 2002 को बीजपुर थाना क्षेत्र के महुली के जंगल में दो युवकों को पुनः नक्सली बताकर मार दिया। इसमें एक चपकी निवासी महेश्वर गोड़ था, जिसका लड़का बसंत चार माह पूर्व करहिया मुठभेड़ में मारा गया था। इसी बीच कुछ युवक चन्दौली और मीजपुर जिलों में भी मारे गये। इस मामले को राष्ट्रीय वन जन श्रमजीवी मंच,भाकपा (माले) के ने जोर-शोर से उठाया। इस मुद्दे पर भी कैमूर क्षेत्र मज़दूर महिला किसान संघर्ष समिति एवं राष्ट्रीय वन जन श्रमजीवी मंच द्वारा सन् 2002 दिसम्बर में दो दिवसीय मानवाधिकार सम्मेलन के तहत जन सुनवाई की गई। जिसमे देश के जाने-माने मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने हिस्सा लिया।
जनसुनवाई में फर्जी मुठभेड़ में मारे गये लोगों के परिजन,पोटा कानून के तहत निरुद्ध बेगुनाह दलित-आदिवासी और भूमि विवाद से सम्बन्धित दलित आदिवासियों ने अपने वक्तव्य प्रस्तुत किये। इस सम्मेलन के बाद 2003में बसपा सरकार के सत्तासीन होते ही तमाम 42 पोटा कानून के केसों को वापिस ले लिया गया। मानवाधिकार संगठनों के लगातार आवाज़ उठाने पर भी मानवाधिकार हनन के मामले थमे नहीं।
नौ मार्च 2003 को राबर्ट्सगंज कोतवाली पुलिस ने कुसुम्हा गॉंव निवासी श्यामबिहारी और गोइठहरी गॉंव निवासी कान्ता को परसौना गॉंव के जंगल में घाघर नदी के किनारे मार गिराया। पुलिस का कहना था कि यह दोनों नक्सली भवानीपुर घटना की बरसी मनाने के लिए किसी बड़ी घटना को अंजाम देने की फ़िराक में थे। मारे गये श्यामबिहारी के परिजनों ने जब आवाज़ उठायी तो उसके 11 वर्षीय भाई ओमप्रकाश पर पोटा समेत कई मामले लाद दिये गये। उसके चाचा हनुमान, चचेरे भाई विपिन और 9 वर्षीय सुशील को पुलिस अभिलेखों में हार्डकोर नक्सली बना दिया गया।
उसके बाद ये सभी नामजद लोग अपना घरबार छोड़कर फरार हो गये। 2007में विपिन के भी मुठभेड़ में मारे जाने का दावा पुलिस ने किया। हनुमान, ओमप्रकाश जमानत पर रिहा हैं। नवम्बर 2003 में सुकृत पुलिस चौकी क्षेत्र के चहलवा के जंगल में जगलाल उर्फ गौरी नामक युवक को मारा गया। अक्टूबर 2005 में नौगढ़ में अशोक कोल को मारा गया। 23 अप्रैल 2005 को चोपन थाना क्षेत्र के भरहरी गॉव के जंगल में सूरज कोल और रामवृक्ष कोल को पुलिस ने मुठभेड़ में मार गिराने का दावा किया।
फर्जी मुठभेड़ में मारा गया कमलेश चौधरी |
इस मुठभेड़ पर भी तमाम मानवाधिकार संगठनों ने सवाल खड़े कर दिये हैं। अब जबकि रनटोला मुठभेड़ काण्ड में 14 पुलिसकर्मियों को सजा हो चुकी है, तो एक बार फिर इलाके में हुई सभी मुठभेड़ों की नये सिरे से जॉंच कराने की आवाजें उठने लगी हैं। सवाल उठता है कि क्या उत्तर प्रदेश सरकार 50 से भी ऊपर दलित एवं आदिवासी युवकों के मारे जाने की जॉंच कराकर उनके परिवार के लोगों के ऑसू पोछने का काम करेगी?
इन सब मामलों की पड़ताल करने से एक बात तो साफ़-साफ़ समझ में आती है कि राज्यों द्वारा सुनियोजित तरीके से हिंसा फैलायी जाती है, नहीं तो महाराष्ट्र में एनकाउन्टर गुरू प्रदीप शर्मा और सोनभद्र में एनकाउन्टर विशेषज्ञ कई दरोगाओं की तैनाती क्यों की जाती? देश में इसी दौरान पुलिस का असली घिनौना चेहरा डीजीपी राठौड़, प्रदीप शर्मा, एनकाउन्टर गुरू या फिर रनटोला काण्ड में सज़ा पाने वाले 14 पुलिसकर्मियों के रूप में खुलकर सामने आया है।
विजय विनीत उन पत्रकारों में हैं,जो थानों पर नित्य घुटने टेकती पत्रकारिता के मुकाबले विवेक को जीवित रखने और सच को सामने लाने की चुनौतीपूर्ण जिम्मेदारी निभाते हैं.
किस्त 1 - फर्जी मुठभेड़ के 14 बहादुरों को आजीवन कारावास
किस्त 2 - और दलित बध का सिलसिला कभी नहीं थमा
किस्त ३- ऐसी मुठभेड़ें तो चलती रहेंगी !
एक सिलसिलेवार और लम्बी रिपोर्ट तनिक उबाऊ नहीं लगी. बहुत शुक्रिया वेबसाइट और लेखक विजय विनीत दोनों को.
ReplyDeleteउत्तर प्रदेश के एक जिले में 10 सालों के भीतर 50 आदिवासी -दलितों की फर्जी मुठभेड़ में हत्या कभी राष्ट्रीय मुद्दा नहीं बन पाती, इसके लिए हमारा जातिवादी समाज किस हद तक दोषी है ?
ReplyDeleteभाई कृष्णकांत. आप जैसों को बार-बार जाती ही क्यों नजर आती है. दलितों की 50 हत्या की इस खबर को क्या किसी दलित ने लिखा है. बेकार की बातों को करने से आखिर आप जैसे प्रगतिशीलों का क्या सधता है. मेरे विश्वविद्यालय में भी एक ऐसा स्टुडेंट था जो अपने को गतिशील कहता और हर समस्या में जाति की बात करता. भाई अगर ऐसा ही है तो पत्रकारिता में जितने पीड़ित जातियां हैं वह क्यों नहीं कोई अपना मीडिया तंत्र खड़ा करती हैं.
ReplyDeletesamay ka intazar kijiye
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