Apr 2, 2011

महिला संघर्ष के नाम रहा प्रतिरोध का सिनेमा



छठा गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल अपने जन सांस्कृतिक अभियान के क्रम में इस बार 23 से 27 मार्च तक चला। जनसंस्कृति मंच और गोरखपुर फिल्म सोसाइटी के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित प्रतिरोध का सिनेमा समारोह इस बार अंतरराष्ट्रीय   महिला दिवस की 100वी जयंती के उल्लेखनीय संयोग को सार्थक अभिव्यक्ति देने के लिए स्त्री प्रश्न और स्त्री विमर्श पर केन्द्रित था। यह सालाना जलसा जन संस्कृति मंच से जुड़े  साहित्यकार-पत्रकार अनिल सिन्हा की याद के साथ भी घनिष्ठ रूप से जुड़ा था,जो अब हमारे बीच में नहीं रहे। वहीं शहीद-ए-आजम भगत सिंह और साथियों तथा क्रांतिकारी धारा के प्रखर कवि अवतार सिंह पाश की पुण्यतिथि का संयोग भी 23 मार्च से जुड़ा हुआ है।

पहला दिन
गोरखपुर के गोकुल अतिथि भवन में आयोजित फिल्म फेस्टिवल के  मंच पर इतिहासकार उमा चक्रवर्ती, चित्रकला की दुनिया के हस्ताक्षर और जसम के संस्थापक सदस्यों में एक अशोक भौमिक तथा उत्तराखंड से आए कलाकार बी मोहन नेगी की उपस्थिति अहम् थी। इस कार्यक्रम का संचालन जसम के आशुतोष कुमार ने किया।

आयोजन समिति के अध्यक्ष प्रो रामकृष्ण मणि त्रिपाठी ने स्वागत भाषण में कहा कि भूमण्डीकरण के इस सर्वसत्तावादी दौर में विचारों और सपनों के मर जाने के दुश्चक्र के जवाब में प्रतिरोध की शक्ति और जनशक्ति कायम रखते हुए प्रतिरोध का सिनेमा जनांदोलनों के लिए जमीन तैयार कर रहा है। उद्घाटन सत्र में साहित्यकर्मी भगवान स्वरूप कटियार ने स्वर्गीय अनिल सिन्हा की पत्नी आशा का मार्मिक कवितामय संबोधन प्रस्तुत किया। इसी मौके उन्होंने स्वर्गीय अनिल सिन्हा  को समर्पित एक कविता पोस्टर अनावरण के लिए प्रस्तुत किया।

उद्घाटन सत्र का महत्वपूर्ण पक्ष रखते हुए फिल्मकार संजय जोशी ने विचार और व्यवहार के स्तर पर फिल्म फेस्टिवल की संकल्पना,आवश्यकता और अभियान के रूप में महत्व को सामने रखा और सभी कसौटियों पर देश के विभिन्न शहरों में फेस्टिवल के आयोजनों की सार्थकता को सिद्ध किया। उन्होंने इसे प्रयोग के बतौर मानते हुए जनता पर भरोसे को अपने संसाधनों का स्रोत बताते हुए कहा कि प्रतिरोध का सिनेमा पूंजी और सत्ता के प्रयोजन पर नहीं खड़ा है। आज गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल के लिहाज से केन्द्रीय भूमिका निभा रहा है तो इसी समझ के कारण जनता के बलबूते अपनी फिल्मों के निर्माण की स्थिति में भी पहुंच चुका है।

आयोजन के केन्द्रीय विषय स्त्री विमर्श उमा चक्रवर्ती  ने उदाहरणों के साथ कहा कि स्त्री प्रश्न भी अपनी शुरूआत से ही दो धाराओं में विभाजित रहा है-पहला समाज सुधारों वाली जिसके केन्द्र में पुरूष थे और दूसरी विद्रोही धारा थी जिसके केन्द्र में स्वयं स्त्रियां थीं। उन्होंने स्त्री संघर्ष के विभिन्न रूपों को ऐतिहासिक क्रम में रखते हुए एक स्लाइड शो के माध्यम से दर्शकों के समाने अपने वक्तव्य के साथ पेश किया। इसी क्रम हिरावल की टीम को उमा जी ने सम्मानित किया।

फिल्म उत्सव सभागार के बाहरी परिसर में इस बार कला चित्रकारों के दो नए चेहरे बी मोहन नेगी और अनुपम राय थे। नेगी उत्तराखंड और देश के अन्य हिस्सों में अपनी कला, खासकर कविता पोस्टरों के चित्रांकन में विशिष्ट व्यक्तित्व के धनी हैं। ऐसी ही प्रभावित करने वाली लगभग 100 कविता पोस्टरों से उन्होंने गोरखपुर के दर्शकों और मीडिया का खूब ध्यान खींचा। उनका चयन प्रतिरोध की कविताएं हैं जिनमें सभी विर्मशों की गुंजाइश रहती है।

दूसरा दिन
मुख्य रूप से प्रतिरोध के सिनेमा बैनर तले देश के विभिन्न शहरों में फिल्म फेस्टिवल आयोजित करने वाले फिल्म समूहों के प्रतिनिधियों के सम्मेलन को समर्पित रहा। छह वर्षों से गोरखपुर और अन्य स्थानों पर विस्तारित प्रतिरोध का सिनेमा अभियान को संयोजित करने की मंशा और राष्टीय स्तर पर नए ढांचे की जरूरत सम्मेलन का मुख्य उद्देश्य था। इसी के मद्देनजर आयोजकों ने राष्ट्रीय  स्तर की कार्यकारिणी के गठन का प्रस्ताव रखा जिस पर देशभर से आए फिल्म सोसाइटियों के 22प्रतिनिधियों ने सहमती दी। एक कार्यकारिणी का गठन कर संजय जोशी को संयोजक चुना गया।

जनकवि बलि सिंह चीमा
दूसरे दिन के सम्मेलन की अध्यक्षता हिन्दी के कथाकार मदन मोहन ने की। गोरखपुर फिल्म सोसाइटी के सदस्य अशोक चौधरी और मनोज सिंह ने यहां के प्रयोग की सफलता की सीमाओं, दबावों और जरूरतों को रेखांकित करते हुए भविष्य में आगे बढ़ने की चुनौतियों के मद्देनजर राष्ट्रीय अभियान संचालित किए जाने को महत्व दिया। इसी सत्र में हिरावल पटना के संतोष झा व समता, लखनऊ के सुभाष चंद्र कुशवाह, भगवान स्वरूप कटियार, उदयपुर के शैलेन्द्र, बलिया से आशीष, दिल्ली से नितिन, वर्धा से अवंतिका, आजमगढ से संजय मुजपफरपुर से स्वाधीन दास और उत्तराखंड से मदन मोहन चमोली ने भी अपने विचार रखे। 

दूसरे दिन के सायंकालीन सत्र में  जनकवि बल्ली सिंह चीमा का काव्य पाठ और सम्मान हुआ। सत्तर के दशक से अपने जनगीतों से जन-जन तक पहुंच चुके चीमा जनांदोलनों का एक प्रमुख स्वर रहे हैं, जिन्होंने अपने गीत, कविताओं गजलों से प्रतिरोध की राजनीतिक संस्कृति गति दी है। उन्होंने भारत-अमरीकी शासक वर्ग के गठजोड़ पर व्यंग्य करते हुए कहा- 'मैं अमरीका का पिट्ठू और तू अमरीका का लाला है, आजा मिलकर राज करेंगे कौन रोकने वाला है।' इसके बाद बलिया से आई संकल्प की टीम ने भिखारी ठाकुर के नाट्य गीत 'विदेशिया' गाकर हमारे समाज के स्त्री की विडम्बना, संघर्ष और प्रतिरोध के क्षेत्र को बेहतर कलात्मक ढंग से प्रस्तुत किया।

इसी सत्र में नयी मीडिया अर्थात ग्लोबल दौर के सूचना संचार माध्यमों  पर परिचर्चा भी हुई जिसमें प्रो. रामकृष्ण मणि त्रिपाठी, कुमार हर्ष, कपिलदेव और आशुतोष कुमार ने भागीदारी की। प्रो. त्रिपाठी ने कहा कि हर दौर अपना जवाब ढूंढता है क्योंकि उसमें प्रतिरोध जारी रहता है।

तीसरा दिन
फेस्टिवल के तीसरे दिन का आगाज 'द अदर सांग' फिल्म से हुई। यह फिल्म बीते दिनों की प्रसिद्ध भैरवी ठुमरी गायिका रसूलन बाई की कला और जीवन को सामने लाती है। अपनी श्रेष्ठ गायकी के बावजूद रसूलन बाई स्वतंत्रता आन्दोलन के दौर में राजनीति और समाज के सामंतों के लिए अछूत बन जाती हैं, यह फिल्म में बखूबी उकेरा गया है।

फेस्टिवल का आनंद लेते दर्शक
फिल्म निर्मात्री सबा दीवान ने रसूलनबाई की प्रसिद्ध ठुमरी गीत 'फूलगेन्दवा न मारो लागत जोबनवा में चोट' की टेक पर अपने अस्तित्व की खोज करती गायिका के उपेक्षित जीवन के चोटों के निशान दिखाए हैं। इसी सत्य की वसुधा जोशी की फिल्म फार माया पहाड़ी जीवन के परिप्रेक्ष्य में चार पीढ़ी की महिलाओं के संघर्ष के स्तरों के साथ सामने रखती है।

वहीं रीना मोहन इस सत्य को दूसरे ढंग से उठाती हैं अपनी फिल्म 'कमलाबाई' में। कमलाबाई पहली महिला थीं जिन्होंने मूक फिल्मों के दौर में मराठी रंगमंच से उभर कर अपनी जगह और पहचान बनाई। आज 88साल की उम्र में जब वह अपने अतीत को देखती हैं तो उन्हें स्वयं को एक अभिनेत्री के रूप में देखना सुखद लगता है, क्योंकि उन्होंने उस दौर में काम किया था जब स्त्रियों को रंगमंच और सेल्यूलाइड में कोई जगह नहीं थी।

प्रसिद्ध मानावाधिकार कार्यकर्ता केजी कन्नारिन के व्यक्तित्व और कृतित्व को उभारती फिल्म 'द एडवोके'ट उनको सच्ची श्रद्धाजंलि थी। अभी हाल ही में कन्नाविरन का निधन हुआ है। सत्तर के दशक से अर्थात आपातकाल के दौर में पीयूसीएल जैसे मानवाधिकार संगठन के अस्तित्व में आने की भूमिका कन्नाविरन जी ने ही बनाई थी। वह कन्ना ही थे जिन्होंने पीयूसीएल का अध्यक्ष रहते हुए आंध्र प्रदेश सरकार और माओवादियों के बीच मध्यस्थता भी की थी। इस फिल्म की निर्माता दीपा धनराज ने फिल्म में मानवाधिकारों के पक्ष की राजनीति को भी स्थापित किया है। 


कवि रमाशंकर : मैं तुम्हारा कवि हूँ  

'मै तुम्हारा कवि हूं' नितिन पमनानी की इस फिल्म में रमाशंकर यादव विद्रोही की क्रांतिचेतस भावभूमि और उबड़खाबड़ जीवन के बीच पलती-रचती कविता अपनी चमक के साथ प्रकट होती झलक के साथ विद्रोही की कविताएं अपना मोर्चा स्वयं  बनाती है-एक कार्यभार के रूप में यह भी फिल्म स्थापित करने में सफल रहती है। फेस्टिवल में कवि विद्रोही की उपस्थिति ने उनको रूबरू होकर सुनने को सुलभ बना दिया। उनके कविता कहने के निराले अंदाज और कविताओं में भरी आग को श्रोताओं ने महसूस किया और अपना कवि मान लिया, उनके इस विश्वास के जवाब में कि मै तुम्हारा कवि हूं।

चौथा दिन
फेस्टिवल के चौथे दिन की पहली फिल्म 'मीरा दीवान की ससुराल थी' फिल्म ससुराल की चौहद्दी से शुरू होकर पागलखाने और शरणालय तक पहुंची स्त्रियों के सत्य को उद्घाटित करने की कोशिश है। दो छोरों से बंधी, पितृसत्ता के अनुकूलन को ढोती स्त्रियां पागल होने की नियति में स्वयं को मुक्त पाती हैं जहां वे पूरी तरह अप्रासगिंक होती हैं। घर से, समाज से और स्वंय स्त्री होने से भी।

इसके बाद दिखायी गयी निष्ठा जैन की 'सिटी आफ फोटोज'फिल्म एक नए परिदृश्य को विषय बनाती है। उनकी फिल्म फोटो स्टूडियो की दुनिया में छवि के आकर्षण में बंधे मनोविज्ञान को पकड़ते हुए इच्छाओं, स्मृतियों का अक्स पा लेने की मानवीय गतिविधियों को दर्ज करने की कोशिश है। इनकी पृष्ठिभूमि पथरीली सच्चाइयों से भी निर्मित होती है और खुशी की काल्पनिक यर्थाथ से भी।

फेस्टिवल  में  दिखाई  गयी  फिल्म  :  व्हाइट बैलून का एक दृश्य  

तमिलनाडू के समाज में निम् वर्गीय तबके की तीन महिलाओं के जीवन संघर्ष पर बनी लीना मणिमेक्कलई की फिल्म 'गाडेसज'जिन्दा रहने की लड़ाई की मिसाल प्रस्तुत करती हैं। तीनों महिलाएं लक्ष्मी,कृष्णावेली और सेतुराक अनपढ,गरीब और सौन्दर्यहीन  हैं,लेकिन जीवन को कीमती और खूबसूरत मानते हुए जिन्दा रहने के ऐसे पेशे का चुनाव करती हैं जिनको स्त्रियोचित नहीं माना जाता। लक्ष्मी रूदाली का काम करती है जिसे दूसरों की मौत पर रोने का आडम्बर करना होता है, कृष्णावेणी मुर्दाफरोशी का काम करती है जिसे लावारिस लाशों को ठिकाने लगाना है और सतुराकु समुद्र में मछली पकड़ने का काम करती है। तीनों की जिजीविषाएं तीनों को न्यूनतम संसाधनों में भरपूर जी लेने का उल्लास और मानवीय सभ्यताओं का सृजन करती हैं।

चूंकि छठा गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल स्त्री विषय, स्त्री विमर्श, स्त्री फिल्मकारों और स्त्रीवादी नजरिए पर मुख्य रूप से केन्द्रित था, अतः स्त्रियों की अगुवाई में हुए आन्दोलन के बिना फेस्टिवल का समाहार नहीं हो सकता था। इसकी भरपाई शबनम विरमानी और नाता दुब्बरी की फिल्म 'व्हेन वीमन यूनाईट' यानी स्त्रियां जब एकजुट होती हैं। यह फिल्म 80 और 90 के आधे दशक तक चले शराब विरोधी आन्दोलन को आरम्भ से लेकर अन्त तक समेटती है। नैल्लोर जिले से उठी चिंगारी अन्य कई जिलो के सैकड़ों गांवों तक शराब विरोधी आग का कारण बनती है और आंध्र की तेलगू देशम सत्ता हिल जाती है।

फैजा अहमद खान की 'सुपरपैन आफ मालेगांव' एक पैरोडी फिल्म है जिसमें मालेगांव, महाराष्ट्र  के फिल्मों के शौकीन एक ग्रुप द्वारा सुपरमैन की फैंटेसी को अपने ढंग से सेल्यूलाइड पर उतारने के हैरतअंगेज हौसले को सामने लाती है।

कश्मीर के सवाल से जोड़ती इफत फातिमा की फिल्म 'व्हेयर हैव ये माई क्रिसेन्ट मून' उन वाशिन्दों के संघर्ष, पीड़ा और प्रतिरोध को सामने लाती है जिनके परिवारजन भारतीय सेना के द्वारा लापता किए जा चुके हैं। लगभग एक दशक के दौरान हजारों की तादाद में गायब हुए लोगों को उनकी माएं, परिवारजन ढूंढ  रहे हैं। भारतीय सेना अपने असीमित कानूनों की ताकत से लापता लोगों का तो पता नहीं बताती,उल्ठे पता पूछने वालों को ही अपराधी बना देती है। फिल्म 'काश्मीरी कवियत्री' मुगलमासी के इकलौते बेटे के खो जाने के सवाल को समूची काश्मीरी जमात से जोड़ती है।

राजुला शाह की 'सबद निरंतर' फिल्म भक्ति आंदोलन की प्रतिरोधी अन्तर्वस्तु को पकड़ते हुए कबीर, गोरखनाथ, मीरा, सहजोबाई की परम्परा को मुक्ति के अर्थ में उतराना चाहती है। आज भी उनकी परम्परा के अनुयाई जीवन की दारूणता के बीच शब्द को बीज की तरह बचाए हुए हैं।

फेस्टिवल के अंतिम दिन की शुरूआत इरानी फिल्मकार जफर पनाही को फिल्म 'द व्वहाईट बलून' से हुई। फिल्म छोटी सी बच्ची के नजरिए से दुनिया देखने को सहाबरा बनाकर रखी गई गई, परन्तु फिल्म वस्तुतः ईरानी के रोजमर्रा के दिनों  में से एक दिन को औसत के बतौर दिखा पाने में बेहद सफल होते हैं, बल्कि अच्छाई के प्रति बच्ची की मंशा दरअसल निर्देशक की अपनी मंशा भी है क्योंकि पृष्ठिभूमि में ईरानी सत्ता की अच्छाई को कुचलने की ही महीन कारीगरी भी मौजूद है।


फिल्म फेस्टिवल में गीत पेश करती बलिया की  सांस्कृतिक  टीम संकल्प
 बच्चों के लिए समर्पित अन्तिम दिन का खास आकर्षण उषा श्रीनिवासन द्वारा बच्चों के लिए बेहतर ढंग से परिष्कार किया। पारोमिता वोहरा की 'मोरलिटी टीवी' और लविंग जेहाद मेरठ शहर की अस घटना के सत्य को सामने लाती है,जब वहां की पुलिस द्वारा गांधी पार्क में प्रेमी जोड़ों को पीटे जाने, अपमानित करने और इस बहाने नैतिकता के ठेकेदार बाजार के धंधेबाज सियासत के स्वार्थी सब अपनी असलियत में साथ दिखाई देते हैं।

ठीक इसी विषय को आधुनिक दिल्ली के संदर्भ में निर्देशिका समीरा जैन दूसर फलक से जोड़ते हुए 'मेरा अपना शहर'  में प्रस्तुत करती हैं जहां स्त्रियों पर बर्बरता आधुनिकता का आईना दिखाती है। कानपुर से निकलने वाले उर्दू अखबार 'सियासत' को केन्द्र में रखकर बनी शाजिया इल्मी की फिल्म उर्दू भाषा के संकट को समाज और सत्ता के अन्तर्विरोधों से जोड़कर दिखाती है जो बोली तो जाती है लेकिन लिखे-पढे जाने के संकट से गुजर रही है। उर्दू हिन्दुस्तानी जबान है, लेकिन मुसलमानों से जोड़कर देखे जाने के तंग नजरिए ने उसे काफी हतोत्साहित किया है।

फेस्टिवल की अंतिम फिल्म 'दाए या बाएं'उत्तराखंड के पहाड़ी परिवेश पर बनी है। निर्देशिका बेला नेगी की 'अस' फिल्म ने समीक्षकों का काफी ध्यान खींचा है। उत्तराखंड को यह फिल्म बेहद संजीदा ढंग से छूती है। कल्पना और यथार्थ के टकराव पर बुनी गई यह फिल्म फिल्म परिस्थितियों के चौराहे पर खड़े उत्तराखंड के नौजवानों को नई उम्मीद का लाल सवेरा दिखाने में सफल है।



2 comments:

  1. सत्यम मिश्र, इलाहाबादSunday, April 03, 2011

    जनज्वार के लगातार बेजोड़ होते जाने पर अजय और उनकी टीम को बधाई. मालूम नहीं था, नहीं तो मैं भी जाता फेस्टिवल में.

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  2. भागा-दौड़ी में बस टुकड़ों में देख पाया…हम गोरखपुर वालों के लिये यह आयोजन एक संतोष और गर्व का अवसर है।

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