Aug 9, 2010

बड़ी होती लड़कियां


मासिक चक्र के दौरान महिलाओं के प्रति समाज कैसा रवैया रखता है, इस बारे में सरसरी तौर पर जायजा ले रहीं हैं, हरियाणा से विपिन चौधरी


छोटी बच्चियों को माँ की तरह बड़ा होना अच्छा लगता है, तभी मौका मिलते ही वह अपनी माँ की साड़ी अपने शरीर पर लपेट लेती है.शीशे के सामने खड़ी होकर अपने नन्हे से माथे पर बिंदी लगाकर खुश होती हैं.वहीं पास में ही खड़ी हुई उसकी माँ बेटी को चुपचाप देखती हुई मन ही मन उसके  बड़े होने के चाव से डरने लगती है, क्योंकि  माँ जानती है बड़ी होती लड़की को इंसान से ज्यादा एक शरीर की तरह देखा जाता है. यही शरीर हज़ार लानत- मलानतों का कारण बनता रहा है.

दूसरी तरफ एक लड़के का बड़ा होना अनेक खुशियों को जन्म देने का कारण बनता है. बड़ा होना वैसे तो कई नियामतों को साथ लाता है, पर हमारे समाज में लड़कियाँ डर को अपने बगल में लेकर बड़ी होती हैं. कारण अनेक  हैं. हम सब जानते हैं कि कारण होने से कहीं ज्यादा बना दिए जाते हैं.

 एक भारतीय लड़की को उसका परिवार और समाज़ अनेकों हिदायते देता है.ज्यादा ज़ोर से न बोलने की मनाही, लड़कों के साथ ज्यादा घुलने-मिलने की मनाही.खिलखिला कर हँसने तक की मनाही है. और जैसे ही लड़कियाँ 13-14 की उम्र पार करती हैं, तब हर महीने होने वाली माहवारी के कारण बड़ों द्वारा घर में कई चीज़ें न छूने  की सख्त हिदायत दे दी जाती है.खासकर,रसोईघर में न जाने और खाने-पीने की चीज़ें न छूने की मनाही.माहवारी, दरअसल, प्राकृतिक प्रक्रिया है, जो यह संकेत देती है कि एक बच्ची अब माँ बनने काबिल हो गयी है. मासिक धर्म शरीर में हो रहा एक शारीरिक परिवर्तन होता है, जिसमे योनि के माध्यम से गर्भाशय से रक्त का प्रवाह होता है. यह चक्र लगभग पचास साल तक चलता है. मगर इस सहज स्वाभाविक शारीरिक चक्र को समाज ने हव्वा बना दिया है.

ये हिदायतें हमारे शास्त्रों-पुराणों से शुरू हुई और आज तक बनी हुई हैं. पहले माहवारी की शुरुआत लड़की के लिये हैरानी-परेशानी का सबब बन जाती थी.यदि इसके बारे में पहले से ही घर में माँ, भाभी या बड़ी बहन ने न बताया हो तो लड़की अचानक परेशान हो जाती और फिर उस समस्या को अपनी सहेली को बताती थी.सहेली चूंकि उसी की हमउम्र होती,इसलिए अपनी सीमित जानकारी से जो कुछ बताती उससे मामला और उलझ जाता था.मगर आज सूचनातंत्र के व्यापक प्रचार से सब जागरूक हो चुके हैं। आजकल की लड़कियों से कुछ भी ढका-छुपा नहीं है यह तो हमारे समय की बातें हैं. साईंस की क्लास मे टीचर जब reprodective system पढ़ाती थी तो  लड़कियों के कान लाल हो जाते थे.

वर्ष 1900 के प्रारंभ में लड़कियों को आमतौर पर पहली माहवारी 14 या 15 की उम्र में शुरू होती थी, मगर अब बेहतर पोषण और आधुनिक खानपान की वजह से 8 -16 की उम्र के बीच लड़कियां रजस्वला होने की अवस्था में पहुँच जाती हैं. हर महीने माहवारी से पहले लड़कियों में  शारीरिक और भावनात्मक परिवर्तन के कारण चिड़चिड़ापन, तनाव, सूजन इत्यादि लक्षण दिखते हैं,लेकिन वह अपनी तरफ बिलकुल भी ध्यान नहीं देती. महिलाएं खासतौर पर भारतीय समाज खुद से ज्यादा दूसरों का  ख्याल रखती है.

ज्यादातर घरों में शुचिता का आतंक इतना गहरा होता है कि लड़की का रसोईघर में जाना निषेध हो जाता है, इसी सन्दर्भ में मुझे याद आता है जब मेरी एक सहेली के माँ-पिता दोनों गाँव गये थे तो वह "उन दिनों" में अपने नन्हे से भाई से खाना बनवा रही थी और खुद रसोईघर से बाहर खड़ी होकर निर्देश देती जा रही थी, यानि वह भी उसी साफ़-सफाई वाले आतंक से पीडित थी. आज भी मेरी प्रोग्रसिव सहेलियाँ अचार खराब होने का कारण माहवारी के दौरान उनका हाथ लगना बताती हैं तो मुझे आश्चर्य होता है। जरूरत इस बात की है कि माहवारी से अचार खराब होने वाला मिथक भी खतम होना चाहिये, क्योंकि इसके पीछे कोई वैज्ञानिक कारण नहीं हैं।

हरियाणा और पंजाब के ग्रामीण इलाकों में माहवारी के दौरान युवतियाँ कुँए से पानी लाती है. ढोर-डंगरों के लिए चारा तैयार करती हैं, उपले पातथी हैं। लड़कियाँ काम न करें तो घर कैसे चलेगा. महीने के चार-पाँच दिन वे आराम करें, यह संभव नहीं है। खेतों का काम मेहनत का काम है जो शरीर की मजबूती की माँग करता है। इसीलिए यहाँ किसी तरह का छूआछूत देखने को नहीं मिलता। हाँ, पुराने समय में दादी, नानी ने गाँव में अपने घर परिवारों में ऐसा होता देखा है,जबकि शहर में आज भी कहीं-कहीं इस तरह की प्रपंच जरूर देखने को मिलते हैं.

आज सैनिटरी नेपकिन का करोड़ों का बाज़ार है,जबकि अमेरिका जैसे विकसित देश में औरतें इस दौरान सूती कपडे का इस्तेमाल करती है। आज बाजार निर्धारित करता है कि हमें क्या इस्तेमाल करना है और हम आँख मूदकर विश्वास कर लेते हैं. साफ़-सफाई की लिहाज से सैनिटरी नेपकिन साफ़ और सुविधाजनक है, पर गरीब की जेब की मुताबिक नहीं है. इसका मतलब बाजार सिर्फ अमीरों और उच्च मध्यम वर्ग की जरुरत को ध्यान में रखता है. गरीब की उसे परवाह नहीं है.

किसी भी तरह से सहज जीवन में माहवारी की इस सहज शारीरिक प्रक्रिया का हव्वा नहीं बनाया जाना चाहिये. आखिर इसी प्रक्रिया से गुज़रकर एक लड़की जननी बनती है.




5 comments:

  1. विपिन जी हरियाणा पंजाब में महिलाओं को इस दौरान किसी ज्यादती का शिकार नहीं होना पड़ता है, चौकाने वाली बात है.

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  2. ye vakai chaukane wala tthya hai ki hariyana-panjab main mahilaon ka prasav aur mahvari ke dauran jyadti ka shikar nahi hona padta. par mujhe ye galat lagta hai. uttarakhand jaise rajay main itni amanviyta ho sakti hai to ye pardesh isse achhoote kaise rah sakte hain. mujhe lagta hai vipinji ko apni jankariyan pukhta kar leny chahiye.

    Riya prakash
    riyaprakash84@yaoo.in

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  3. vipin ji aapko lagata hai ki jat pradesh men mahilayen, jo khapon ke khauf men jiti hain unko mahvaari ke dinon men pak saf mana jata hoga

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  4. eजिस तरह कंडोम सर्व सुलभ बनाने के लिये मशीनें लगाई गई हैं,इसी तरह सेनेटरी नेपकिन को भी सस्ता व सर्व सुलभ बनाया जाना चाहिए.सरकार को इस दिशा में काम करना चाहिए.

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  5. vipin ne sahi likha hai. kheti badi ke lihaj se samriddha ilakon me ye cheez itni badi nahi raha gayi hai. vahan ki apnee jarurten bhi hain. shiksha bhi badhi hai. mai paschimi uttar pradesh ki green belt se hun, vahan bhi ye itna bada hauvva nahi hai.

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