दिल्ली के किसी भी सामाजिक,सांगठनिक कार्यक्रम से दूर रहने वाले शशिप्रकाश के संगठन की सर्वाधिक ताकत और उर्जा हर पुस्तक मेले में दिखती है। इस वर्ष हिंदी-अंग्रेजी को मिलाकर कुल सात स्टाल लगे थे और दर्जनों छात्र-युवा सिर्फ रोजाना के भोजन पर यहां खटे। संवेदनशील मानी जाने वाली किताब की दुनिया के लोग इस पर गौर करें तो अच्छा होगा क्योंकि कार्यकर्ता,सामाजिक बदलाव के सपने को साकार करने के लिए अपनी जिंदगी और जवानी वहां न्योछावर कर रहा होता है।
इस बहस को आगे बढ़ाते हुए वे छुपते हैं कि चिलमन से झरता रहे उनका नूर और सांगठनिक क्रूरता ने ली अरविन्द की जान लेख के बाद अब परिकल्पना प्रकाशन और जनचेतना बस के मालिक सत्येंद कुमार की राय पढ़ें।
सत्येन्द्र कुमार, परिकल्पना प्रकाशन और जनचेतना बस के मालिक
मजदूर संगठनकर्ता अरविन्द सिंह की हत्या के बाद जनचेतना, राहुल फाउंडेशन की ओर से गोरखपुर में होने जा रहे कार्यक्रम के बारे में जनज्वार पर डॉक्टर विवेक कुमार की टिप्पणी पढ़ी और उनकी चिन्ताओं,आशंकाओं को भी जाना।]
मैं कम्युनिस्ट लीग ऑफ इंडिया (रिवाल्यूशनरी) की तमाम शाखाओं में 12 वर्षों तक रहा हूं। इन वर्षों के बीच अपने सूदखोर खानदान का पैसा (शशिप्रकाश के शब्दों में)लगभग 40-45लाख इस पारिवारिक कुनबे को क्रान्ति जैसे महान् कार्य के नाम पर दे चुका हूँ। मैंने भी महसूस किया कि अरविन्द को कामरेड लिखते हुए कलम रुकती नहीं है और अरविन्द के नाम के आगे कामरेड लगाना सही लगता है। मेरा मानना है कि वे इस टाइटिल के हकदार थे। लेकिन जो लोग (शशिप्रकाश) उनके नाम पर न्यास बनाने की घोषणा करके तैयारी भी आरम्भ कर चुके हैं, वे उन्हें कामरेड तो दूर ,एक साधारण इन्सान भी नहीं मानते थे।
उत्तरी बिहार के एक गाँव से बुशर्ट-पैजामा एवं हवाई चप्पल पहन के पढ़ने के लिए गोरखपुर पहुँचे शशिप्रकाश ट्रस्ट-सोसाईटी-जनसंगठन बनाकर आजकल इन सबों के एकमात्र स्वयंभू हैं। बाकी सभी पदाधिकारी रबर स्टैम्प हैं। उनका तथा उनके पारिवारिक कुनबे की जीवन शैली उच्च मध्यमवर्गीय स्तर से भी ऊपर है। उन्हीं के शब्दों में कनाट प्लेस के एक फाइव स्टार रेस्तरां में 400-500 की कॉफी पीने की इच्छा अक्सर बलवती हो जाती है।
शब्दों की बाजीगरी में तो ये ओशो के बाप हैं। आपने सही लिखा है कि 20 साल में संगठन का कोई दस्तावेज नहीं लिखा गया। दस्तावेज इसलिए नहीं लिखा क्योंकि तिकड़म से कभी फुर्सत नहीं मिली। इससे भी महत्वपूर्ण यह कि दस्तावेज लिखने का काम सधे और क्रांति के लिए समर्पित नेतृत्व का होता है, किसी दूकान के पंसारी का नहीं।
मेरा मानना है कि कामरेड अरविन्द को उनके उदारतावाद ने मारा। उनके पास दो ही विकल्प थे। या तो शशिप्रकाश से अलग होते या ज़िन्दगी से,क्योंकि पार्टी तो आवरण है। आखिरकार उन्होंने ज़िन्दगी को ही चुना।
‘‘बिगुल’’ के सम्पादक डॉ0 दूधनाथ ने अपने पत्र में सही सवाल खड़ा किया है कि क्या कारण है कि गोरखपुर में विगत छः महीने से बीमार चल रहे कामरेड अरविन्द अपनी बीमारी की गम्भीरता की सूचना नहीं दिये हों, या ऐसा भी हो सकता है कि शशिप्रकाश अपने जरखरीद गुलाम पर धन खर्च करने की आवश्यकता ही महसूस नहीं किए हों। शायद स्कॉच की बोतल कम पड़ने का डर हो।
विवेक कुमार ने अपने लेख में घुमावदार प्रश्न पूछा है, लेकिन मैं तो इस संगठन को तन-मन-धन एवं ईमानदारी से दिया हूँ इसलिए खुलकर साफ-साफ लिख रहा हूँ। जैसे सुब्रतो राय की सहारा कम्पनी में बेरोजगार नौजवान, रिक्शे वाले, ठेले वाले, छोटे दुकानदारों से साईकिल घसीट-घसीटकर धन इकट्ठा करवाती है, ठीक वैसे ही सहज-सरल कार्यकर्ताओं को क्रान्ति के नाम पर अभियान चलवाकर धन जमा कराया जाता हैं। कोई वेज नहीं।
सीधी बात कहें तो दाल-भात-चोखा खाकर इस नटवरलाल के एय्याशी का सामान इकट्ठा करते हैं। क्रान्ति के नाम पर भावनाओं को उभारकर सहज-सरल कार्यकर्ताओं के श्रम की लूट आज भी जारी है। नटवरलाल के दफ्तर में अध्ययन की बातें बहुत होती थीं। मगर फौज के नियम की तरह कार्यकर्ताओं को पांच मिनट भी खाली नहीं रहने दिया जाता। उन्हें तरंगित करने वाले क्रान्ति की बातें बताकर केवल अभियानों के लिए जोश पैदा किया जाता है ताकि सूखी दाल-रोटी खाकर धन पैदा करने वाली मशीन बन जाएं। यह सही है,कहने के लिए जिस तरह रावण-कंस-दुर्योधन-गोडसे-काउत्सकी-लू-शाई-ची के पास अपना तर्क रहा होगा, वैसा इनके पास भी है।
मेरी जानकारी में ये अरविंद के नाम पर गठित हो रहा सातवां सोसाइटी या ट्रस्ट होगा। इसमें भी बाकी ट्रस्ट और सोसाईटियों की तरह रामबाबू-सुखविन्दर के अलावा बाकी ट्रस्टी पारिवारिक कुनबे के ही सदस्य तय हो गए होंगे। तपीश लाख आन्दोलनात्मक कार्यवाही करें,कभी भी पार्टी के सचिव शशिप्रकाश के विश्वासपात्र नहीं बन सकते क्योंकि कॉमरेड अरविन्द की तरह वह भी वंशीय और राजनीतिक वारिस पर सवाल खड़ा कर सकने का खतरा बन सकते हैं। इस संगठन से निकलने वाले सभी साथियों को कायर, पतित भगोड़ा, गद्दार, मनोरोगी और पेटीकोट में सिर छुपाने वाला, मुंशी, पटवारी और अन्य विशेषणों से नवाजा जाता है।
बस कॉमरेड अरविन्द को सलाम करते हुए।
टिप्पणी- मैंने एक पुस्तिका 12 वर्षों का सफरनामा जारी किया है। चाहें तो हमारे ईमेल एड्रेस पर संपर्क कर मंगा सकतें हैं। ईमेल- satyendrabhiruchi@yahoo.com
प्रिय साथी,
ReplyDeleteसाथी आपने बहुत ही सही सवाल उठाया है। आपके लेखन से यह साफ जाहिर होता है कि जनचेतना और क्रांति के नाम पर दुकान चलाने वाले श्रीश्री 420 महाराजाधिराज शशि प्रकाश जी से आप काफी पीडि़त हैं। साथी आपकी पीड़ा मैं समझ सकता हूं क्योंकि मैं भी इसके शब्दों की बाजीगरी का शिकार बन चुका हूं।
आप जैसे सैकड़ों पीडि़त लोग चाहे जितना भी सवाल उठाएं, शशि प्रकाश की यह दुकान बंद नहीं हो सकती। जब तक कि जनता को मूर्ख बनाने वाले तथाकिथत बुद्धिजीवी उसका सहयोग करते रहेंगे। एक बात तो तय है कि वह कागजी क्रांतिकारी पार्टी ही नहीं बनाया हुआ है बल्कि उसको जस्टीफाई करने की कला में भी महारथ हासिल किए हुए है। एक बात शायद आप भूल रहे हैं कि नटवरलाल की नटवरगिरी पूरे देश में मशहूर है। उसने और तो कुछ नहीं कर पाया लेकिन अपने ही क्षेत्र के शशि प्रकाश के रूप में अपना एक वारिस तो पैदा ही कर दिया। अगर नटवर लाल की आत्मा अपना वारिस पाकर धन्य हो गयी होगी।
नटवरलाल,
अभी तो बड़ा मजा आ रहा है
जनता को मूर्ख बनाने का
लेकिन वह दिन दूर नहीं
जब जनता ऐसे क्रांति के दुश्मनों को
धूल में मिला देगी