पाठकों की तरफ से राय आ रही है कि और भी वामपंथी पार्टियों में सड़ांध है और नेतृत्व ठस है। खासकर संघर्षों के इस संकट के समय में जबकि राजसत्ता हर जुबान पर असलहा रख रही है,ऐसी भ्रष्ट और जनविरोधी वामपंथी पार्टियों से जनता का संघर्ष आगे बढ़ेगा,कि उम्मीद रखना राजसत्ता की तानाशाही और क्रूरता को बढ़ावा देना है। इस मसले पर पहला लेख दिल्ली के डॉक्टर विवेक कुमार का ‘वे छुपते हैं कि चिलमन से झरता रहे उनका नूर’ आप पढ़ चुके हैं। बहस को आगे बढ़ाते हुए वामपंथी पार्टी कम्युनिस्ट लीग ऑफ इंडिया(रिवाल्यूशनरी)यानी जनचेतना के छात्र संगठन (दिशा )के गोरखपुर से संयोजक रहे अरूण यादव पार्टी में किये काम को साझा कर रहे हैं।
अरुण यादव, पूर्व संयोजक - दिशा छात्र संगठन
वामधारा में यह जानकारी आम है कि जनचेतना जिस वामपंथी पार्टी कम्युनिस्ट लीग ऑफ इंडिया(रिवोल्यूशनरी) की दुकान है,उसके कर्ताधर्ता शशिप्रकाश हैं। लेकिन जिन कार्यकर्ताओं की जवानी और जिंदगी झोंककर (बहुतों की बर्बाद कर)शशिप्रकाश पुस्तक मेलों में दिख जाते हैं,वे बेचारे उन्हें भाई साहब के नाम से ही जानते हैं और पार्टी का नाम तो बहुतेरे जान ही नहीं पाते। सक्रियता का आलम यह है कि शशिप्रकाश ने जितने संगठन बना रखे हैं,उतने पूर्णकालिक कार्यकर्ता भी नहीं हैं। घर-परिवार और कॅरियर छोड़कर हम जैसे किसान और निम्न मध्यवर्गीय परिवारों से आने वाले युवाओं को जबतक यह अहसास होता है कि यहां समाज परिवर्तन का ढांचा नहीं दुकानों के मोहरे सज रहे हैं,वे दुकान के दुश्मन हो चुके होते हैं और उन्हें जान से मारने का प्रयास होता है।
हिंदी की कवयित्री कात्यायनी: कार्यकर्ताओं को जवाब दीजिये. |
सन् 1999 से लेकर 2007 तक मैं भी इस संगठन का सदस्य रहा हूं। इस दौरान गोरखपुर,लखनऊ, इलाहाबाद की पूरी टीम का एक मात्र कार्यभार चंदा मांगना था। ट्रेनों, बसों, ऑफिसों, नुक्कड़ों, और घरों में हम लोग सिर्फ लाखों-लाख का चंदा जुटाते रहे और किताबें बेचते रहे। ट्रेनों में रोज ब रोज चंदा मांगने का आंतक मच गया था। प्रतिदिन चलने वाले यात्री गालियां तक देने लगे थे। लेकिन ये पैसे कहां जाते थे इसका कोई पता नहीं था। पता था तो सिर्फ इतना कि नेतृत्व एक बड़े प्रकाशन संस्थान में तब्दील हो चुका था और हम इस भ्रम थे कि वर्ग संघर्ष का काम आगे बढ़ रहा है। हमारे पास न तो किसी जनसंगठन का कोई औपचारिक ढांचा था और न ही कोई दस्तावेज और न ही जनाधार। लेकिन फिर भी शशिप्रकाश ने अपने दिव्य ज्ञान से एक कार्यशाला में बताया था कि हमारे जनदुर्ग कैसे होंगे। बंकर कैसे बनेंगे और आम बगावत कैसे होगी।
कामरेड अरविन्द की मौत उनके साथ काम करने वाले सभी साथियों को हतप्रभ कर देने वाली थी। बिगुल के संपादक डॉ.दूधनाथ और सत्येन्द्र (परिकल्पना प्रकाशन के मालिक)ने अपने पत्र में अरविन्द के मौत के जिन कारणों को बताया है उसे मैं अक्षरषः सही मानता हूं। यह त्रासदी राजनीतिक घुटन और नेतृत्व की अमानवीयता का ही परिणाम है। अरविन्द लम्बे समय से बीमार चल रहे थे। उनका इलाज बहुत पहले शुरु हो जाना चाहिए था, लेकिन नहीं हुआ। ये और बात है कि शशिप्रकाश के इलाज के लिए चंदा मांगने का कार्यक्रम अब भी जारी है। सम्पति की सुरक्षा में प्रकाष काफी चौकन्ने हैं,इसके लिए वे कई मुकदमे भी लड़ रहे हैं। कार्यकर्ता दूसरे संगठनों और पार्टियों से अनुभव साझा न कर पायें,इसलिए उन्होने पूरे आन्दोलन को पतित,विघटित घोषित कर दिया है। लेकिन इधर वामपंथी आन्दोलन की सरगर्मियों ने उनकी चिंता काफी बढ़ा दी है। इसलिए ‘‘आंतकवाद विभ्रम और यथार्थ’ नामक पुस्तिका में राजसत्ता से उनका माफीनामा प्रकाशित हो चुका है और माओवादी पार्टी को सरकार से पहले से ही वे आतंकवादी घोषित कर चुके हैं।
संगठन का मजदूर पत्र: मगर अनुवाद कौन करेगा |
अरविन्द अपने अन्तिम समय में अपने मां,पिता, भाई,बहन किसी से नहीं मिल पाये और पत्नी की बात ही न की जाय तो अच्छा है। क्योंकि उनके लिए तो दिल्ली के किसी फ्लैट में ‘युद्ध का समय रहा होगा। भला वो कैसे मिलती।’ खैर कामरेड अरविन्द जिनके बीच भी काम करते रहे उनके दिलो में हमेशा रहेगें। लेकिन अब अरविन्द के नाम पर गोरखपुर में होने वाले जलसे पर सवालउठाना बेहदजरुरी है। राहुल फॉउण्डेशन,परिकल्पना प्रकाशन, जनचेतना, दिशा छात्र संगठन,बिगुल मजदूर दस्ता,नौजवान भारत सभा, देहाती मजदूर यूनियन,नारी सभा और न जाने कितने ट्रस्ट सोसाइटी,न्यास आदि (संक्षेप में कहें तो शशिप्रकाश एण्ड कात्यायनी प्रा. ली. ) के रुप में जनता और कार्यकर्ताओं से मार्क्सवादी लफ्फाजी के नाम पर खड़ी की गयी अचल संपत्ति और उद्योग धन्धे हैं। यह जलसा अपने पुत्र रत्न को उत्तराधिकार की चाभी सौंपने और नयी संपत्तियों पर कब्जा जमाने तथा चन्दा का आधार तैयार करने का उपक्रम है। इसकी निरन्तरता राहुल फाउण्डेशन,परिकल्पना प्रकाशन,और शशिप्रकाश व कात्यायनी हैं।
सन् 2000 से 2005 के बीच छात्र मोर्चे पर गोरखपुर में काम करने वाले सभी साथियों की पढ़ाई बीच में छुड़ा कर उन्हें नोएडा में मजदुर बनाया गया जिसके पीछे तर्क था कि असली वोल्शेवीकरण मजदुरों के बीच में होगा। लेकिन अपने पुत्र को गोरखपुर से लखनऊ और फिर दिल्ली भेज दिया गया पी.एच.डी. पूरा करने के लिए। वे न तो मजदुर बने और न ही नोएडा के झुग्गियों में रहे। लेकिन चमत्कारी ढ़ंग से उनका वोल्शेवीककरण भी हो चुका है और सचिव बनने की जमींन भी तैयार है।
मैं अपने सांगठनिक सक्रियता के शुरुआती और आखिरी दिनों में अरविन्द के साथ ही था। शुरु में मैंने उनसे पूछा था कि कोई संगठन सही है या गलत इसका फैसला कैसे किया जाय। उनका जवाब था कि संगठन के आय - व्यय के बारे में अगर ठीक से पता चले तो एक हद तक मूल्यांकन किया जा सकता है। आज यह सवाल इस संगठन से पूछा जाना चाहिए। अगर सही जवाब मिले तो स्थिति अपने आप बहुत साफ हो जायेंगी। लेकिन जब किसी ने यह सवाल उठाया तो उसका एक ही जवाब उसे मिला कि इससे सांगठनिक गुप्तता भंग होती है और इसका उत्तर देना वे अपने क्रान्तिकारी शान के खिलाफ समझते हैं। इसलिए इस ग्रुप का कोई भी सदस्य (पारिवारिक कुनबे के कुछ सदस्यों को छोड़ कर) इसका आय - व्यय नहीं जान सकता। जनता के लिए तो बहुत दूर की कौडी़ है ।
अरविन्द: संगठन ही हत्यारा |
इस संगठन से निकला या निकाला गया हर व्यक्ति वर्ग शत्रु बन जाता है। क्योंकि वह इसके रहस्यों से पर्दा उठाने का काम करने लगता है। ऐसे ही एक साथी मुकुल (राहुल फाउंडेशन के सचिव)के निकलने के बाद लखनऊ में मींटिग हुई थी। जिसमें तय हुआ था कि राम बाबू धोखे से मुकुल को अपने घर में बुलाएंगे और वहॉ पहले से पूरी टीम मौजूद रहेगी और फिर मुकुल को मार कर हाथ पैर तोड़ दिया जायेगा। इस मींटिग में मैं भी मौजूद था। यह सिर्फ एक उदाहरण है। षषि प्रकाष के लिए यही वर्ग युद्ध है। जो कि गोरखपुर (दिगम्बर 1990)से नोएडा (देवेन्द्र 2007) तक जारी है।
शशिप्रकाश अपनी पत्नी यानी कात्यायनी के नाम पर अपनी कविताएं छपवा कर उन्हें साहित्यकार बनाने के सफल उपक्रम की आशंका से सभी परिचित हैं। लेकिन इसके अतिरिक्त शालिनी के नाम से उनके पिता को लिखा गया पत्र शशिप्रकाश द्वारा ही रचित है। ऐसा घृणित पत्र आन्दोलन तो क्या आज तक किसी आम आदमी ने भी नहीं लिखा होगा । यह पत्र और मुकुल को लिखा गया पत्र अपने आप में शशिप्रकाश के वर्ग संघर्ष की कहानी उन्हीं की जुबानी है।
सभी घटनाओं को नोट पैदा करने का अवसर बना देने में प्रकाश का कोई सानी नही है। भले ही वह एक्सीडेन्ट, बीमारी या मौत ही क्यों न हो। मजदुर आन्दोलन में यह ग्रुप वैसे ही है जैसे भरी बाल्टी के दूध में एक चम्मच टट्टी। मार्क्सवाद, आलोचना, आत्मालोचना, जनवाद, दो लाइनों का संघर्ष, जन संगठन, पार्टी, मजदूर आन्दोलन के आवरण में यह एक आपराधिक नेतृत्व है। ऐसे ही ग्रुप जनता के बीच से वामपंथी आन्दोलनों कि गरिमा लगातार क्षरित करते रहते हैं।
क्रांति की दुकान चलाने वाले धंधेबाज लोगों को बेनकाब करने का प्रयास सराहनीय है. इस सम्बन्ध में स्वस्थ विमर्श की गुंजाइश है. आखिर जनता के सपनों से खिलवाड़ कब तक चलता रहेगा?
ReplyDeleteफिलहाल सिर्फ़ यह कि अरूण के कहे से सहमत हूं…सौ फीसदी…
ReplyDeleteArun jee achha lagaa ki aapane bhee baat rakhee, bahut bahut dhanyavaad is bahas men shaamil hone ke liye.
ReplyDeleteKuch sawaal hain, jinke uttar aapke lekhon se nahi milte-aap log janta se sahyog lene ke sashi prakash ke tareekon aur un tareekon se jutaye gaye dhan ke durupyog-dono ka virodh karte hain ya kewal dhan ke durupyog ka? agar aapka virodh sirf dhan ke durupyog ke liye hai aur aap unke tareeko ko sahee mante hain to kya aap swyam un tareekon ka istemaal karna chahenge?... ya karte hain? Kripya blog me batayen.-Rustam wishwkarma.
ReplyDeleteKuch sawaal hain, jinke uttar aapke lekhon se nahi milte-aap log janta se sahyog lene ke sashi prakash ke tareeke aur us dhan ke durupyog-dono ka virodh karte hain ya kewal dhan ke durupyog ka? agar aapka virodh sirf dhan ke durupyog ke liye hai aur aap unke tareeko ko sahee mante hain to kya aap swyam un tareekon ka istemaal karna chahenge?... ya karte hain? Kripya blog me batayen.-Rustam wishwkarma.
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