सवालों से घबराये आलोक मेहता को नहीं सूझा जवाब,अग्निवेश को आजाद की हत्या का दोषी बताया.
हिंदी की साहित्यिक मासिक पत्रिका ‘हंस’के पचीसवें वर्ष में प्रवेश के मौके पर दिल्ली के ऐवाने गालिब सभागार में आयोजित गोष्ठी वैचारिक स्तर पर काफी हंगामेदार रही।
माओवादियों और सरकार के बीच वार्ता की मध्यस्थता कराने में असफल रहे सामाजिक कार्यकर्ता स्वामी अग्निवेश ने कहा कि मेरी अभी भी चाहत है कि संघर्ष का अंत हो और समाधान ‘गोली से नहीं,बोली से निकले’। मगर पिछले दो जुलाई को आंध्र प्रदेश के अदिलाबाद के जंगलों माओवादी पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता आजाद और उनके साथ पत्रकार हेमचन्द्र पांडे की हत्या के बाद साफ हो गया है कि सरकार वार्ता नहीं चाहती। अग्निवेश ने उन अखबारों की पक्षधरता पर भी सवाल उठाया जिन्होंने हेमचन्द्र पांडे को अपने अखबार में लिखने वाला पत्रकार मानने से इनकार किया था.
गौरतलब है कि हेमचन्द्र पांडे राष्ट्रीय सहारा,नई दुनिया और दैनिक जागरण में लेख लिखते थे। मगर उनकी हत्या के बाद इन तीनों अखबारों ने साफ इनकार कर दिया कि हेमचन्द्र पांडे उर्फ हेमंत पांडे ने कभी उनके यहां लिखा ही नहीं। अपने वक्तव्य के दौरान जैसे ही अग्निवेश ने 'नई दुनिया' का नाम लिया, श्रोताओं ने कार्यक्रम में बैठे 'नई दुनिया' के संपादक से जवाब चाहा और ‘आलोक मेहता शर्म करो’ के स्वर उठने लगे।
इन आरोपों से बौखलाए 'नई दुनिया' के संपादक ने अपने ही अखबार के राजनीतिक संपादक विनोद अग्निहोत्री से मंच पर एक चिट भिजवाकर अपना पक्ष रखने की इच्छा जतायी। मौका मिलने पर मंच की तरफ बढ़े आलोक मेहता के कदम मंच तक पहुंचते, उससे पहले ही ‘पद्मश्री अब राज्यसभा’की आवाजें उनतक पहुंची। बौद्धिक समाज में अबतक इज्जत पाते रहे आलोक मेहता को श्रोताओं का यह रवैया नागवार गुजरा और उन्होंने इसका दोषी संयोग से अग्निवेश को मान लिया। फिर क्या था आलोक मेहता ने न आव देखा न ताव,माओवादी प्रवक्ता आजाद की हत्या के लिए सीधे तौर पर अग्निवेश को ही जिम्मेदार बता दिया। आलोक मेहता ने कहा कि ‘यह भी राजनीति में रहे हैं क्या इनको इतनी भी समझ नहीं थी कि सरकार क्या कर सकती है। क्या जरूरत थी पत्र लेने-देने की। एक निर्दोष आदमी को मरवा दिया।’
आलोक मेहता का इतना कहना था कि पत्रकारों-साहित्यकारों और छात्रों से भरा ऐवाने गालिब सभागार उबल पड़ा और लोग पूछ बैठे कि अदिलाबाद की हत्याओं के लिए आप अग्निवेश को जिम्मेदार मानते हैं? दूसरी बात यह जब आपको पता चल गया कि हेमचन्द्र पांडे ही हेमंत पांडे है तो,क्या आपने अखबार में इस बाबत कोई सफाई छापी?
हे भगवान! गिर गया है स्तरइन दोनों सवालों पर जवाब न बनता देख पहले तो आलोक मेहता ने डपटने के अंदाज में लोगों को चुप कराने की कोशिश की।असफल रहे तो बड़ी तेजी में श्रोताओं को भला-बुरा कहते हुए कार्यक्रम से निकल लिये। जवाब दिये बगैर उनको सभा से जाते देख श्रोता उनके पीछे हो लिये। मगर जब उन्होंने जवाब देने से इनकार कर दिया तो ‘आलोक मेहता सत्ता की दलाली बंद करो','आलोक मेहता मुर्दाबाद'और 'शर्म करो-शर्म करो’से उनकी अप्रत्याशित विदाई हुई। इस सबके बीच उन्हें यह कहते हुए सुना गया कि ‘पत्रकारिता का स्तर बहुत गिर चुका है।’
फिर भी अभी लोग हॉल में थे। संचालक आनंद प्रधान ने जैसे ही श्रोताओं को सवाल पूछने के लिए आमंत्रित किया वैसे ही मंच और कुर्सियों के बीच से कुलपति विभूति नारायण राय सरकते हुए नजर आये। सवालों और हंगामे के बीच जबतक लोगों की निगाह विभूति पर पड़ती वह आगे निकल चुके थे और भारत भारद्वाज उनको सुरक्षित निकालने के प्रयास में लगे हुए थे।
भारत भारद्वाज की वफादारी
ऐवाने गालिब के लॉन में विभूति नारायण से पत्रकारों ने कहा कि जो बातें आपने कहीं हैं,उनको लेकर हमारे भी कुछ सवाल हैं,जिसके जवाब आपको देने चाहिए। पत्रकारों ने उनसे आग्रह भी किया कि हमने आपको सुना अब आप हमारी सुनें और जवाब दें।
इसी बीच संयोग से विभूति नारायण पुलिसिया रोब में आ गये और जवाब देने से मना कर दिया. फिर क्या था, उनकी जो फजीहत हुई कि वीसी साहब को बकायदा भागना पड़ा। 'विभूति कुछ तो शर्म करो,सत्ता की दलाली बंद करो' नारे के साथ श्रोता उनको दसियों मिनट तक लॉन में रोके रहे और वे लगातार यहां से निकलने के प्रयास में लगे रहे। इतना ही नहीं उस समय वीसी के सुरक्षा गार्ड की भूमिका में आ चुके और कुछ ज्यादे ही आगे पीछे हो रहे भारत भारद्वाज को डांट भी खानी पड़ी ‘सटअप योर माउथ,हु इज यू।’दरअसल भारत भारद्वाज काफी तेजी से पत्रकारों पर बड़बड़ा रहे थे।
विचार की हिंसा "मार्क्सवाद"
पत्रिका के संपादक राजेंद्र यादव ने गोष्ठी का विषय ‘वैदिकी हिंसा,हिंसा न भवति’को स्पष्ट करते हुए कार्यक्रम की शुरूआत में बताया कि आज हमलोग राजसत्ता,धर्म और विचार की हिंसा पर बातचीत करेंगे। राजेंद्र यादव ने कहा कि राजसत्ता वर्तमान को बरकरार रखने के लिए,धर्म अतीत के लिए और विचार भविष्य की सत्ता के लिए हिंसा को जायज ठहराता है। जाहिरा तौर पर विचार की हिंसा मार्क्सवाद ही है। आज हमलोग इन मसलों पर गहन और जोरदार बातचीत करेंगे।
नक्सली आदिवासियों के
गोष्ठी में दूसरी वक्ता के तौर पर बोलने आयीं छत्तीसगढ़ में पत्रकार रह चुकीं इरा झा ने कहा कि बस्तर में नक्सलवाद से बड़ा सवाल इंसानियत और बुनियादी अधिकारों की रक्षा का रहा है। मैने वहां पत्रकारिता के दौरान देखा है कि किस तरह पुलिस वहां के आदिवासियों पर अत्याचार किया करती थी। इरा झा ने ऐतिहासिक संदर्भों का जिक्र करते हुए कहा कि सरकार पर भरोसा या कहें कि शहरी मानुशों पर ऐतबार तो आदिवासियों ने 1962के बाद ही छोड़ दिया था जब पुलिस ने तेईस आदिवासियों की नृशंशता से हत्या कर दी थी। उसके बाद उस क्षेत्र के राजा प्रवीर सिंह भजदेव ने सरकार की शर्तों को मानने से इनकार कर दिया तो1966में उनकी भी हत्या कर दी गयी। सन् 1966के बाद अब ऐसा पहली बार हो पाया है कि आदिवासी नक्सलियों के माध्यम से यह जान पाये हैं कि उनका भी कोई अधिकार है।
पत्रिका के संपादक राजेंद्र यादव ने गोष्ठी का विषय ‘वैदिकी हिंसा,हिंसा न भवति’को स्पष्ट करते हुए कार्यक्रम की शुरूआत में बताया कि आज हमलोग राजसत्ता,धर्म और विचार की हिंसा पर बातचीत करेंगे। राजेंद्र यादव ने कहा कि राजसत्ता वर्तमान को बरकरार रखने के लिए,धर्म अतीत के लिए और विचार भविष्य की सत्ता के लिए हिंसा को जायज ठहराता है। जाहिरा तौर पर विचार की हिंसा मार्क्सवाद ही है। आज हमलोग इन मसलों पर गहन और जोरदार बातचीत करेंगे।
नक्सली आदिवासियों के
गोष्ठी में दूसरी वक्ता के तौर पर बोलने आयीं छत्तीसगढ़ में पत्रकार रह चुकीं इरा झा ने कहा कि बस्तर में नक्सलवाद से बड़ा सवाल इंसानियत और बुनियादी अधिकारों की रक्षा का रहा है। मैने वहां पत्रकारिता के दौरान देखा है कि किस तरह पुलिस वहां के आदिवासियों पर अत्याचार किया करती थी। इरा झा ने ऐतिहासिक संदर्भों का जिक्र करते हुए कहा कि सरकार पर भरोसा या कहें कि शहरी मानुशों पर ऐतबार तो आदिवासियों ने 1962के बाद ही छोड़ दिया था जब पुलिस ने तेईस आदिवासियों की नृशंशता से हत्या कर दी थी। उसके बाद उस क्षेत्र के राजा प्रवीर सिंह भजदेव ने सरकार की शर्तों को मानने से इनकार कर दिया तो1966में उनकी भी हत्या कर दी गयी। सन् 1966के बाद अब ऐसा पहली बार हो पाया है कि आदिवासी नक्सलियों के माध्यम से यह जान पाये हैं कि उनका भी कोई अधिकार है।
मंच संचालन कर रहे पत्रकार आनंद प्रधान ने तीसरे वक्ता के तौर पर जब विभूति नारायण को बुलाया तो उन्होंने आते ही कहा कि ‘मेरा नाम वक्ताओं में नहीं था,मगर विश्वरंजन के नहीं आने पर राजेंद्र यादव ने मेरा इस्तेमाल स्टेपनी के तौर पर किया है। मैं पूरे तौर पर विश्वरंजन का पक्ष नहीं रखूंगा,लेकिन उनसे विरोध का भी मामला नहीं है।’यह बात विभूति को इसलिए कहनी पड़ी क्योंकि छत्तीसगढ़ के डीजीपी विश्वरंजन को राजेंद्र यादव बुलाने वाले थे। मगर पत्रकारों, साहित्यकारों और बुद्धिजीवियों के व्यापक विरोध की वजह से बुला पाने में असफल रहे।
राजकीय आतंकवाद बेहतर
विभूति ने कहा हमलोग अतिरंजना में जीते हैं इसलिए हम मान लेते हैं कि सरकार तानाशाह हो गयी है। अब अगर कोइ विश्वरंजन के आने पर उन्हें जूते की माला पहनाता तोवह पैदल तो नहीं आते, मगर ऐसा भी नहीं है कि सरकार के विरोध में बोलने वालों को प्रसाशन उठाकर जेलों में ठूस रहा है। इन सारी हिदायतों के पूर्व पुलिस अधिकारी ने अपनी बात के अंत में कहा कि कोई भी राजसत्ता कभी भी सशसत्र आंदोलन को नहीं बर्दाश्त कर सकती। उन्होंने कहा कि कश्मीर में इस्लामिक आतंकवाद के मुकाबले राजकीय आतंकवाद बेहतर है,क्योंकि हम इस्लामिक आतंकवाद से कभी मुक्त नहीं हो सकते। कार्यक्रम में सवालों से पीछा छुड़ाकर भागे और एक पार्टी में पहुंचे वीएन राय ने गोष्ठी का अनुभव कुछ साझा किया -'कुछ माओवादी टाइप छात्र वहां हंगामा करने लगे.'वीएन राय कि प्रतिक्रिया सुनने वालों ने महसूस किया कि वीएन राय बेहद घबराये हुए थे और उनकी घबराहट को भारत भारद्वाज दूर करने में लगे हुए थे.
वहीं वरिष्ठ पत्रकार रामशरण जोशी ने सरकार के विकास के ढांचे पर सवाल उठाया और कहा कि विकास कैसा और किसके लिए हो,यह प्रश्न सबसे महत्वपूर्ण है। जब सरकार खुद ही जनतांत्रिक मूल्यों का हनन कर रही है तो माओवादियों को कैसे दोषी ठहराया जा सकता है। समाजविज्ञानी सत्र को रेखांकित करते हुए रामशरण जोशी ने कहा कि ‘जब किसान हथियार उठाता है तो वह मानवता की निशानी है।’
आलोक मेहता को सरेआम करने के लिए धन्यवाद जनज्वार........... दिल खुश हुआ
ReplyDeletechinal ke chakkar men alok mehta fir nishane par aane se bach raha hai. hamare beech ka vah sabse bada apradhi hai. swami ji ko badhai
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