अच्युतानंद मिश्र
क्या राजेंद्र यादव सचमुच चाहते थे कि माओवाद को लेकर सार्थक बहस हो.यह बात गले नहीं उतरती. ऐसा इसलिए कि राजेंद्र यादव 'हंस'के संपादक भी हैं.अगर सचमुच वे चाहते थे कि इस मुद्दे पर बहस हो तो वे पत्रिका के माध्यम से भी बहस चला सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया.
उन्होंने ऐसा इसलिए नहीं किया क्योंकि वह उनका पक्ष नहीं था.दूसरी बात संपादकीय लिखने मात्र से ही संपादक का पक्ष उजागर नहीं होता,वह उस सामग्री से भी जाहिर होता है जिसे वह छापता है.और इस अर्थ में तो राजेंद्र यादव के पक्ष से सभी वाकिफ हैं, जो वाकिफ न भी हों वे 'हंस' के कुछ अंक देखकर वाकिफ हो सकते हैं.
मुखौटों में दर्शन. तहलका से साभार. |
राजेंद्र यादव जैसे लोग साहित्य की चर्चा में बने रहने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं.आज साहित्य में अगर इस तरह की परम्परा बनी है कि लेखक एक दूसरे की प्रसंशा ही लिखते हैं,तो मत भूलिए की इस परम्परा के संस्थापकों में से एक राजेंद्र यादव भी हैं.नई कहानी के दौर में 'मेरा हमदम मेरा दोस्त'नाम से जो कॉलम लिखा गया था उसमें नयी कहानी की त्रयी राजेन्द्र यादव, मोहन राकेश और कमलेश्वर ने पहले ही तय कर रखा था कि वे एक दूसरे को उठाने के लिए ही लिखेंगे. कहना बस इतना है कि राजेंद्र जी साहित्य में इन मूल्यों को लेकर आये थे.
जहाँ तक बहस का प्रश्न है तो बहस किसके बीच होगी,यह तय कौन करेगा ?क्या वास्तव में विश्वरंजन से कोई सार्थक बहस हो सकती थी.अगर विश्वरंजन यह तय कर पाते कि उनका पक्ष गलत है तो क्या उनके कहने पर सरकार दमन छोड़ देती ?जहाँ तक लोकतान्त्रिक मूल्यों का सवाल है तो क्या सरकार की आस्था लोकतान्त्रिक मूल्यों में बची हुई है ?अगर ऐसा होता तो जेएनयू से बहस से लौटने के बाद गृहमंत्री पी चिदंबरम के मंत्रालय ने बयान नहीं जारी किया होता कि जो भी पत्रकार,बुद्धिजीवी या एनजीओ माओवादियों का किसी भी तरह से समर्थन करेगा उसे दस वर्ष की कैद और आर्थिक दंड हो सकता है.
जिस सरकार की आस्था किसी लोकतान्त्रिक परम्परा में न रही हो उस सरकार के एक छोटे से पुर्जे से बहस कर क्या उम्मीद पाली जा सकती है ? क्या राजेंद्र जी इतने भोले हैं कि वे इस बात को नहीं समझ पा रहे थे ? जाहिर है ऐसा नहीं है.राजेंद्र जी का शातिरपन तो जगजाहिर है. हकीकत में राजेंद्र जी चाहते थे की इसी बहाने उनकी चर्चा हो और वे ख़बरों में बने रहें.
हत्यारों के साझीदार हुए लेखक ? |
क्या नई कहानी के दौर का एक संवेदनशील लेखक इतना असंवेदनशील हो सकता है कि वह हत्याओं के इस चरम अमानवीय दौर में अपनी चर्चा के लिए परेशान हो?क्या हम इस हद तक जा सकते हैं.मुक्तिबोध से शब्द उधार लें तो प्रश्न बेहद गंभीर.हत्याओं के इस दौर में लेखक,कलाकार अगर हत्यारों के साथ चाय पियें या तस्वीरें खिचवाएं तो उनका पक्ष जाहिर होता है. बकौल रघुवीर सहाय 'लेखक क्या हत्यारों के साझीदार हुए.'
sahi hai ki rajendra yadav charcha ke liye hee sabkuch karte hain ...........
ReplyDeleteक्या मुखौटा है........... माओवाद का मुखौटा बिलकुल ताज़ा है.
ReplyDeleteIs tasweer mein bilkul dahine Alokdhanwa to nahin?
ReplyDeleteHe bhagwan. Yah sab kya ho raha hai ?
Kahan se kahan tak aa panhuche ham ?
Yakeen nahin hota.