Jul 22, 2010

वे छुपते हैं कि चिलमन से झरता रहे उनका नूर


पिछले दिनों जनज्वार में साहित्य के सरोकार को लेकर एक बहस हुई थी। हमने महसूस किया कि सत्ता के गलियारों में दुम दबाये साहित्यिक बिरादरी के ज्यादातर लोग,कोंकियाने को ही वामपंथ मानते हैं और नरेंद्र मोदी सरीखों पर दो शब्द खर्च कर वे धर्मनिरपेक्षता की ध्वजा लिये,सत्ता के प्रगतिशीलों में सूचीबद्ध कर लिये जाते हैं। उसी बीच सवाल उठा कि साहित्यकारों की इस दुर्गति में बड़ा योगदान क्या उन वामपंथी पार्टियों और संगठनों का है नहीं है जिनका चरित्र जनविरोधी और विचलन ही उनके लिए क्रांतिकारिता हो चुकी है। इस मसले पर पहली टिप्पणी दिल्ली से डाक्टर विवेक  कुमार की तरफ से आयी है। टिप्पणी पर सरोकारी सुझावों को जनज्वार आमंत्रित करता है।

डॉक्टर विवेक कुमार


अरविन्द सिंह
पिछले दिनों मेरे पास एक आमंत्रण आया. विषय था 'इक्किसवीं सदी में भारत का मजदूर आन्दोलन:निरन्तरता और परिवर्तन,दिशा और सम्भावनाएं,समस्याएं और चुनौतियां'. आमंत्रण से ही पता चला कि पूर्वी उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में 26-28जुलाई के बीच बिगुल अखबार से जुड़े रहे मजदूर नेता अरविन्द सिंह की स्मृति में यह कार्यक्रम होगा और इस दौरान अरविन्द स्मृति न्यास व अरविन्द मार्क्सवादी अध्ययन संस्थान की स्थापना भी होगी।


कार्यक्रम के सम्पर्क सूत्र सत्यम, मीनाक्षी, कात्यायनी, अभिनव, सुखविन्दर और तपिश हैं। इस आमंत्रण को पढते हुए मेरे मन कई सवाल उठे,   मसलन-

1- सम्पर्क सूत्र के चार सदस्य (सत्यम, मीनाक्षी, कात्यायनी और अभिनव) जो कि जाहिरा तौर पर आयोजकों में भी है एक ही परिवार के सदस्य हैं। हालाँकि  इस क्रांतिकारी परिवार के मुखिया का नाम नहीं दिया गया है। यह एक रहस्य जैसा मामला है। मुखिया हर एक पुस्तक मेले में किताब बेचते और परिचय की औपचारिकता निबाहते दिख जाते हैं लेकिन इन क्रांतिकारी कार्यक्रमों से नदारद होते हैं। वे छुपते हैं कि चिलमन से झरता रहे उनका नूर। सवाल यही है कि उनका नूर उनके परिवार पर ही क्यों आमद है।


2- कामरेड अरविन्द दायित्वबोध पत्रिका से जुड़े हुए थे और मजदूरों के अखबार बिगुल के प्रकाशन में अहम भूमिका अदा करते थे। ज्ञात हो कि इन दोनों पत्रिकाओं में मार्क्सवादी रचनाएं प्रचुर मात्रा में छपा करती हैं। इन दोनों प्रकाशन के सम्पादक क्रमशः डा विश्वनाथ व डा दूधनाथ हैं। मार्क्सवाद अध्ययन संस्थान निर्माण व मजदूरों के मुददे पर इतने बड़े कार्यक्रम में इन दोनों की अनुपस्थिति का निहितार्थ क्या है। यदि ये दोनों लोग नूर की आमद से बेदखल कर दिये गये हैं तो क्या इनके साथ ये पत्रिकाएं भी बेदखल हो गयी हैं?

3- कामरेड अरविन्द मजदूर आन्दोलन से जुड़े रहे। उनका मुख्य कार्यक्षेत्र दिल्ली, उत्तराखंड, हरियाणा व पूर्वी उत्तर प्रदेश रहा। उन्होंने हरियाणा में खेत मजदूरों, दिल्ली में फैक्टरी मजदूरों व मजदूरों के रिहाइश अधिकार,उत्तराखंड में होंडा मजदूरों व पूर्वी उत्तर प्रदेश में छात्रों व मजदूरों के अधिकार की लड़ाइयां लड़ी। इन क्षेत्रों से प्रतिनिधित्व करने वाला कोई मजदूर साथी आपका आयोजक क्यों नहीं बन सका।

4- कामरेड अरविन्द मुख्यतः एक जनसंगठनकर्ता और मजदूर आन्दोलनकर्ता के रूप में याद किया जाता है। उनकी शोक सभा व पिछले साल के उनकी स्मृति में किये गये कार्यक्रम में उनके इसी रूप को याद किया गया। उनके नाम पर मार्क्सवादी अध्ययन संस्थान का निर्माण न केवल उनकी वस्तुगत जन छवि को धुंधला बनाती है साथ ही जन आन्दोलनों की परम्परा का का्रन्तिकारी बातों के तले निषेध करती है। यह मुददा इसलिए भी शक के घेरे में आता है कि इन आयोजकों के पास पहले से ही मार्क्सवाद जिन्दाबाद मंच है। कामरेड अरविन्द के नाम पर मार्क्सवादी संस्थान का निर्माण का निहितार्थ निश्चय ही कुछ और है।

5- आयोजन समिति के अनुसार अरविन्द स्मृति न्यास की स्थापना की घोषणा इसी कार्यक्रम में होगी। इन आयोजकों ने राहुल जन्मशती पर उनके नाम से एक न्यास बना रखा है। इसकी स्थापना में कार्यकर्ताओं की सम्पत्ति की बलि ली गयी और बाद में उन्हें स्वर्ग से विदाई दे दी गई। ऐसे में इस न्यास पर सवाल बनता है। यह न्यास किन मामलों में राहुल फाउंडेशन से भिन्न होगा। कामरेड अरविन्द की लोकप्रियता को न्यास में समेट देने की इस योजना के पीछे जो भी मंशा हो यह अरविन्द के उस फक्कड़पने के साथ क्रूर मजाक है जिसके तले वे जीते रहे और एक दिन चल हमारे बीच से हमेशा के लिए चले गये।

इन सवालों से रूबरू होते हुए मुझे कामरेडअरविन्द के साथ बिताये गये वे लम्हें याद आ रहे हैं जिनके दौरान उन्होंने कुछ महत्वपुर्ण बातें साझा कीं। उन बातों की पुष्टि उनके गुजर जाने के बाद उनके साथ रहे साथियों ने की। मैंने उपर बताया है कि उन्होंने व्यापक इलाकों में काम किया। काम की व्यापकता से आप को लग सकता है कि वे मुख्य नेतृत्व थे। लेकिन ऐसा नहीं था।

उन्हें हरियाणा व दिल्ली के काम में असफल घोषित कर उत्तराखंड भेजा गया और कुछ ही दिन बाद प्रकाशन का काम सम्भालनें वाले व्यक्ति ने उन्हें गोरखपुर शहर जाने का संदेश पकड़ाया। आलोचना आत्मालोचना की प्रकिया में वे बाहर फेंक दिये गये। कठिन हालात, अकेलापन, जीवन साथी की अनुपस्थिति और दुत्कार से त्र्रस्त इस साथी के मन में क्रांतिकारी के रूप में बने रहने की इच्छा ही मुख्य थी। जन संगठन व कार्यकर्ताओं के बीच जीने वाले इस साथी का अंतिम समय घोर उपेक्षा के बीच गुजरा।

जिस समय वे अपने इन हालात के बारे में बता रहे थे ठीक उसी समय संगठन के भाई साहब अपने बेटे को लेनिन का दर्जा नवाज रहे थे। ठीक इसी समय संगठन की कार्यशैली व विचार के मुददे पर वरिष्ठ साथियों को पतित लम्पट बताकर बाहर किया जा रहा था। इस पूरे प्रकरण में विचार व संगठन का मानक भाईसाहब बने रहे। बीस सालों से घोषणापत्र, संविधान, कार्यक्रम इत्यादि के अभाव को बनाये रखने के पीछे जो भी मंशा हो लेकिन कांशीराम की तरह वाचिक परम्परा को निबाहते हुए भाईसाहब ने सबको अपनी कुर्सी के पाये के नीचे ही रखा और अपनी सम्पति व उत्तराधिकार को सुरक्षित रखा।

इनके अनुसार क्रांतिकारी कैंप विघटित हो चुके है,सीपीआई माओवादी आतंकवादी पार्टी है व शेष संशोधनवादी हैं, पार्टी बनाने के लिए सांस्कृतिक पुनर्जागरण जरूरी है,आदि आदि। इस ढांचे के भीतर दो ही सत्य थे। एक भाईसाहब और दूसरी  किताबें। शेष निमित मात्र थे और  संगठन कार्यकर्ताओं की औकात इन दोनों   के बरक्स थी। यह बताना जरूरी है कि यहां लोगों से अधिक संगठन बनाये गये। यहां न्यास,संगठन,और प्रकाशन की तिकड़ी बनाई गई जिसमें पार्टी के पूर्णकालिक और अवैतनिक कार्यकर्ता न केवल 16 से 18 घंटे काम करते हैं अपितु उपरोक्त तिकड़ी के लिए आम जन से पैसा मांगने का भी काम करते हैं। इसकी बदौलत आज इनके पास करोड़ों रूपये की परिसम्पत्ति खड़ी हो चुकी है।

वहीं कार्यकर्ताओं की समय समय पर स्वर्ग से विदाई का कार्यक्रम भी चलता रहता है। महाराजगंज के कामरेड रघुवंश मणि की हत्या की तो इस संगठन ने सार्वजनिक चर्चा तक नहीं की और उनका परिवार इस समय तबाही के कगार पर है.यह अलग बात है कि ये कार्यकर्ता गोरख पांडे की कविता के वर्णित मजदूर की तरह अड़ कर यह नहीं कह सके कि अब बस,अधिशेष निचोड़ने का यह नया तरीका अब नहीं चलेगा।

दरअसल कामरेड अरविन्द की स्मृति में किया जा रहा यह कार्यक्रम उपर से देखने पर मजदूर,आन्दोलन,जन संगठन व पहलकदमी से जुड़ा हुआ दिखता है जबकि इसके अर्न्तवस्तु में न्यास व संस्थान बनाना है। जिसका निहितार्थ है आर्थिक लाभ। यह कामरेड अरविन्द की स्मृति के साथ क्रूर  मजाक है। ये आयोजक उनकी स्मृति को एक ऐसे ढोल में बदल देना चाहते हैं जिसे पीट पीट कर पैसा बनाया जा सके। आप सभी से गुजारिश है कि न केवल इस कार्यक्रम का बहिष्कार करें साथ ही आयोजकों के बुरे मंशा का भी पर्दाफाश करें।

6 comments:

  1. बनिया बामपंथी की लाइन
    मध्य वर्ग और किसान
    छि ... छि ... छि ...
    बाकी कमुनिस्ट आन्दोलन
    थू पतित .. थू विघटित .. थू आतंकवादी ..
    एन जी ओ वाले और मीडियाकर्मी
    धिक् .. धिक् .. धिक्.. ..
    बुद्धिजीवी और साहित्यकार
    लानत है .. लानत है.. लानत है ..
    पुनर्जागरण और प्रबोधन
    क्रांति कर्म का अदभूत यह नारा
    बाकी सब से करो किनारा
    बोलो क्रन्तिकारी धंधेबाजी की
    जय हो..
    जय हो..
    जय हो..

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  2. अब तोड़ने ही होंगे दुर्ग सब ,ढहाने ही होंगे मठ और गढ,करनी ही होगी शिखरों की यात्रा!

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  3. प्रिय साथी,
    आपने क्रांति के नाम पर धंधेबाजी करने वालों पर जो कुठाराघात किया है वह काबिले तारीफ है। मात्र इसी लेख से क्रांति के नाम पर धंधा करने वाले भाई साहब धंधेबाजी बंद तो नहीं करेंगे, लेकिन इतना तो जरूर होगा कि उनके इस दुकान में दीमक जरूर लगेगा जो इनकी दुकान को चालकर खत्म कर देगा।
    क्रांति को बदनाम करने वाले इस शख्श को अकेले ही जिम्मेदार नहीं कहा जा सकता बल्कि वह सभी तथाकथित साहित्यकार और बुद्धिजीवी वर्ग जिम्मेदार हैं जो सबकुछ जानते हुए भी पुनर्जागरण, प्रबोधन के नामपर इस तथाकथित क्रांतिकारी संगठन को सहयोग कर रहे हैं। इसके बारे में बस इतना ही नहीं है बल्कि इसकी कार्यशैली घोर क्रांति विरोधी है। यह क्रांति के नाम पर जिंदादिली नौजवानों को इक_ा तो करता है लेकिन उन्हें एक सच्चा कम्युनिस्ट बनाने के बजाय मानवद्रोही बनने की ट्रेनिंग देता है और क्रांतिकारी सहयोग के नाम पर उनसे भीख मंगवाने से लेकर जनता से पैसा छीनने का ट्रेनिंग भी देता है। और बाद में वही क्रांति करने वाले जिंदादिली नौजवान क्रांति को गाली देते हुए क्रांति का दुश्मन बन जाते हैं। जो इससे बच जाते हैं या तो वे फ्रस्टेड हो जाते हैं या फिर पागल हो जाते हैं। शेष और भी बाद में......

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  4. यार यह एक ओपेन सीक्रेट है लेकिन देखिये न आप भी भाई साहब का नाम लेने से, मैं बता दूं- शशि प्रकाश, शर्मा गये…जिन मित्र ने एक्की-दुक्की नाम से कविता कमेंट लगाया है- वह यह कविता मुझे सुना चुके हैं- पर यहां असली नाम देने से शर्मा गये…,जो मुक्तिबोध का जाप कर रहे हैं वे एनानिमस हैं…किससे डर रहे हैं ये लोग्… यार ये शर्म ही सारे किये कराये पर मिट्टी दाल देती है…दूधनाथ 'संगठन' छोड़ गये पर यह नहीं कहेंगे कि बिगुल से उनका कभी कोई लेना-देना नहीं रहा, का विश्वनाथ वर्षों से अपना फ़ुलटाईम औषधालय चला रहे हैं पर इस पर नहीं अड़ेंगे कि उनका नाम दायित्वबोध से हटाया जाय्…ऐसी ही शर्म-और शर्म- यह जब तक ज़ारी रहेगी 'भाई साहब', 'बहन जी' और 'युवराज' की इंक़लाब की दुकान चलती रहेगी…

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  5. JANAB AAP PATRAKAR HAIN AAP SE UMMEED KI JATI HAI KI AAP TATHYON KE SATH BALATKAR NAHIN KARENGE. RAGHUBANS MANI KI HATYA NAHIN HUI THI BALKI WAH EK ACCIDENT THA. BIJALI KA KAM KARTE SAMAY, TAR CHHU JANE SE UNKI MAUT HUI THI.

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  6. पार्टी और कार्यक्रम से पहले सांस्कृतिक प्रबोधन! चीनी स्टालिनवादी, माओ के झूठे निम्न बुर्जुआ कार्यक्रम पर टिका यह नारा सिरे से फिसड्डी है। सांस्कृतिक क्रान्ति, उस महान सामाजिक क्रांति का हिस्सा है, जो सर्वहारा द्वारा सत्ता छीन लेने के बाद शुरू होगी। हमारे दौर में सर्वहारा का कार्यभार, नई संस्कृति की रचना है ही नहीं, यह शशि जैसे निकम्मे, क्षुद्र,निम्न-बुर्जुआ बुद्धिजीवियों द्वारा फैलाई गई प्रगल्प है। सर्वहारा का कार्यभार है पूंजी की सत्ता को ध्वस्त करना। नई मानवीय संस्कृति का निर्माण सिर्फ विजयी, क्रांतिकारी सर्वहारा ही करेगा।

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