May 31, 2017

पत्नी दलित है इसलिए आत्महत्या कर रहा हूं....

क्या वाकई हमारे समाज में जातीय अहं इतने भीतर तक समाया हुआ है कि इस तरह से सवर्ण होने के सामाजिक दंभ और अहसास में आई गिरावट से कोई ख़ुदकुशी भी कर सकता है.....

तैश पोठवारी

"मैं मनप्रीत सिंह बरार हूं। बिचौलिए गुरतेज सिंह बाबा के माध्यम से मेरी शादी तय हुई थी। मैं एक जट लड़का हूं और मेरे ससुर भी जट हैं, लेकिन उनकी पत्नी रामदासिया हैं... पहले मुझे और मेरे परिवार को बताया गया था कि वे (उनकी पत्नी और सास) भी जट हैं।"

मनप्रीत सिंह  बरार  की फाइल फोटो 
यह सुसाइड नोट है एक जट सिख लड़के का, जो सिर्फ इसलिए आत्महत्या कर लेता है, क्योंंकि उसकी पत्नी जट नहीं बल्कि दलित है। एक तरफ हमारी युवा पीढ़ी जहां जाति—पाति से उपर उठने की बात करती है, वहीं जाति की जड़ें उसमें कितनी गहरे तक पैठी हुई हैं उसका एक उदाहरण है पंजाब का यह जट सिख नौजवान। 22 वर्षीय मनप्रीत सिंह जिसकी हाल ही में शादी हुई थी, ने मात्र इसलिए जहरीला पदार्थ खा लिया, क्योंकि उसकी पत्नी जिसे उसने जट सिख समझा था वह दलित जाति से ताल्लुक रखती है।

यह घटना पंजाब के लहरिगागा स्थित खाई गांव की है। यह शादी एक बिचौलिये गुरतेज सिंह निवासी भुटाल कलां के माध्यम से ​हुई थी, जिसने 45000 हजार रुपए लेकर यह शादी करवाई थी। 22 वर्षीय मनप्रीत सिंह बरार की शादी 21 मई को संगरूर निवासी रेणु कौर से हुई थी। 

जैसे ही शादी के बाद मनप्रीत ने यह जाना कि उसकी सास रासदासिया है, और चूंकि उसने उस लड़की से शादी की है जो उसकी कोख से पैदा हुई है तो उसने आत्महत्या कर ली। क्योंकि पत्नी का एक रामदासिया के पेट से पैदा होने से उसके जातीय अहं को चोट पहुंची थी। हालांकि यहां भी सवाल उठता है कि जहां हमारा भारतीय समाज पितृसत्तात्मक है, और पिता के वंश से ही बच्चों की पहचान होती है तो रेणु दलित कैसे हो गयी। आखिर उसकी मां का पति जट सिख है। चाहे फिर उसका अतीत जो रहा हो। क्या वाकई हमारे समाज में जातीय अहं इतने भीतर तक समा चुका है कि इस तरह से सवर्ण होने के सामाजिक दंभ और अहसास में आई गिरावट से कोई ख़ुदकुशी भी कर सकता है। 

मृतक के पिता बघेल सिंह बेटे की मौत के बाद कहते हैं कि सारी गलती बिचौलिए की है, जिसने हमारे साथ धोखा किया। बिचौलिए ने यह कहकर और पैसे लेकर शादी करवाई थी कि रेणु कौर जटों की लड़की है, पर गरीब है। शादी के बाद जब मनप्रीत अपनी मां के साथ रेणु के घर फेरा पाने गया तब उसे पता चला कि वास्तव में रेणु की मां रामदासिया है। रेणु की मां अपने पति की मौत के बाद एक जट सिख के साथ अपने घर में रहती है। 

इसी से परेशान और दुखी मनप्रीत ने लहिरागागा वापिस आकर खेतों में जा सल्फास खाकर आत्महत्या कर ली। मरने से पहले लिखे पत्र में उसने व्यथित होकर लिखा भी है कि 45000 रुपए लेकर उसकी शादी यह कहकर करवाई थी कि वो जट सिख परिवार से है, जबकि हकीकत में वो रविदासी जाती की है, जिस वजह से वो आत्महत्या कर रहा है। 

घटना के बाद लहिरागागा पुलिस के एसएचओ जंगबीर सिंह ने कहा कि उन्होंने आईपीसी की धारा 306 के तहत बिचौलिए गुरतेज सिंह पर केस दर्ज कर लिया है।  

रिश्तों को गालियों से नहीं नजदीकियों से आंकिए !

अगर भक्तों को यह सुनना अच्छा लगता है कि भाजपा देश की नई कांग्रेस है तो उन्हें यह सुनकर भी आह्लादित होना चाहिए कि मोदी देश के नए नेहरु हैं। फिर कांग्रेस तो नेहरु की संस्कृति​ ही बनाएगी जिसमें प्रियंका चोपड़ा का भी एक रोल होगा...


जनज्वार। प्रधानमंत्री मोदी विदेश यात्रा के दौरान बर्लिन में प्रियंका चोपड़ा से भी मिले। मोदी के समक्ष प्रियंका के बैठने के अंदाज से प्रधानमंत्री के भारतीय समर्थक आहत हैं। वह हताशा में प्रियंका को गालियां बक रहे हैं और उन्हें भारतीय संस्कृति की याद दिला रहे हैं। 

मोदी भक्त और समर्थक संस्कार, संस्कृति, लाज, लिहाज और बाप—बेटी के रिश्ते जैसी बातें कर अपने पंरपरावादी नेता का बचाव कर रहे हैं। उन्हें लग रहा है कि इससे मोदी की छवि को छति पहुंचेगी। बर्लिन में प्रियंका और मोदी के मिलने—मिलाने के प्रकरण में वह लगातार प्रियंका को दोषी मान रहे हैं। 

उनकी बातों और ट्वीटर—फेसबुक पर आ रही टिप्पणियों से लग रहा है मानो प्रियंका ने मोदी जैसे वृहत्तम व्यक्तित्व को अपनी दो टांगों के करीब ला पटका है। भक्तों की यह चिंता इसलिए भी दिख रही है कि प्रियंका से उनका मुख्य ऐतराज प्रियंका की दिखती टांगों और बैठने के आत्मविश्वासी अंदाज पर है। 

पर भक्तों और परंपरावादी कट्टरपंथियों को समझना चाहिए कि मोदी जी खुली टांगों को नैतिकता को मानक मानने की राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ के बुद्धिकौशल से उपर उठ चुके हैं, जबकि संघी अभी भी नाभी, जांघ, नितंब, उरोज के उभार, उसके दिखने और न दिखने को नैतिकता की चरम स्थिति मानते हैं। संघ प्रमुख मोहन भागवत समेत कई नेता इस संदर्भ में बयान भी दे चुके हैं।   

इसीलिए वह प्रियंका के लिबास पर अकबक बोलकर जी को शांत कर रहे हैं। पर भक्त इस मामूली बात को नहीं मान रहे कि प्रियंका का यही अंदाज मोदी को आकर्षित करता है जिसकी वजह से वह विदेश यात्रा में भी उनके लिए अलग से समय निकालते हैं। रही बात कपड़े की तो भारतीय महिला फिल्म कलाकारों का यह सामान्य ड्रेस है जो किसी से मिलते-जुलते वक्त पहनती हैं। फिर प्रियंका किसी खाप की गिरफ्त में हैं तो हैं नहीं जो ड्रेस कोड माने।

प्रियंका के प्रति प्रधानमंत्री की आत्मीयता, लगाव और स्नेह एक कलाकार से बढ़कर होगा तभी तो वह मिलें हैं। जैसे प्रियंका प्रधानमंत्री की विदेश यात्रा के इस बार के महत्वपूर्ण और व्यस्ततम कार्यक्रमों का हिस्सा हों, उनके बिना विदेश यात्रा अधूरी रह जाती हो। 

और एक बात आखिर में ! 

मोदी के सामने प्रियंका के बैठने का अंदाज बहुत कुछ कहता है। और इतना स्पष्ट रूप से कहता है कि मोदी प्रियंका को यह अधिकार देते हैं और जिससे वह एक शक्तिशाली महिला के रूप में उनके सामने पेश हो पा रही हैं। नहीं तो उनके कैबिनेट के वरिष्ठ मंत्री भी मोदी के समक्ष हाथ पीछे किए ऐसे खड़े रहते हैं जैसे अर्दली खड़ा होता है। 

इससे भी बड़ा सवाल यह है कि क्या प्रियंका ने मोदी से मुलाकात की तस्वीर ट्वीटर पर प्रधानमंत्री की इजाजत के बगैर शेयर की होगी?

या अंदाज भारतीय पूंजीपति मुकेश अंबानी वाला रहा होगा कि अंबानी ने अपने नेटवर्क 'जियो' के प्रचार का ब्रांडआइकॉन बनाकर मीडिया में मोदी को पेश कर दिया था जिसपर ऐतराज होने पर पीएमओ ने एक फर्जी सफाई दे दी थी और अंबानी पर एक हवाई जुर्माना लगा दिया था। 

May 29, 2017

तुम इतने कट्टर क्यों हो भक्तो!

कौन हैं ये भक्त और क्या वे रातोंरात कट्टर भक्ति लिये पैदा हो गए? अमेरिका के नस्ली गोरे और भारत के सवर्ण दावेदार! वे जो इतिहास को नकारना चाहते हैं और क्रमशः ट्रम्प और मोदी में अपने मुक्तिदाता को देखते हैं...

अमेरिका से जनज्वार के लिए विकास नारायण राय 

अमेरिका और भारत दुनिया में लोकतंत्र के मानक कहे जाते हैं। प्रधानमत्रंत्री मोदी और राष्ट्रपति ट्रम्प के पूर्ववर्तियों, मनमोहन सिंह और बराक ओबामा को सारी दुनिया सार्वजनिक जीवन में शिष्टता का प्रतीक मानती रही है। इस सन्दर्भ में मोदी का पिछले वर्ष का अमेरिकी दौरा याद कीजिये। सैन फ्रांसिस्को में फेसबुक मुख्यालय पर भारतीयों से मुलाकात के दौरान स्वयं होस्ट मार्क जुकरबर्ग को मोदी ने कैमरे की जद से धक्का मारकर किनारे कर दिया था। 

ऐसी ही सड़कछाप उजड्डता ट्रम्प ने भी हालिया पहले विदेशी दौरे में सहयोगी नाटो राष्ट्राध्यक्षों के जमावड़े में दिखायी, जब वे मोंटेनीग्रो के प्रधानमंत्री को धकियाते हुए कैमरे के केंद्र में पहुँच गए। क्या दोनों भक्त समूहों के लिए यह विचलन की घड़ी हो सकती थी? नहीं, जरा भी नहीं। उनके लिए तो यह उनके नायकों की सहज चेष्टा ही रही।

उत्तर पश्चिमी अमेरिका के बारिश भरे प्रान्त ऑरेगोन की सबवे ट्रेन में नस्ली गुरूर में डूबे एक व्हाइट अमेरिकी ने हिजाब पहनी हुयी दो अमेरिकी मुस्लिम औरतों को अनाप-शनाप दुत्कारना शुरू कर दिया। टोकने पर उसने एक के बाद एक तीन व्हाइट सहयात्रियों को चाकू मार दिया, जिनमें दो की मृत्यु हो गयी। 

उत्तर पश्चिमी भारत के पशु बहुल राजस्थान प्रान्त में मुस्लिम गाय व्यापारियों के एक समूह पर स्वयंभू गौ-रक्षक को सरेआम लाठियों से ताबड़तोड़ हमला कर हत्या करने में रत्ती भर भी संकोच नहीं हुआ। अमेरिका का राष्ट्रपति संभावित आतंकवाद रोकने के नाम पर अपने ही देश के मुस्लिम नागरिकों को देश में प्रवेश पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगा देता है। भारत का सेनाध्यक्ष पत्थर फेंकते कश्मीरी मुस्लिम युवकों को देश के ‘दुश्मन’ की संज्ञा से संबोधित करता है। ट्रम्प और मोदी समर्थकों के लिए यह सब राष्ट्रीय शर्म का नहीं, अपने नायकों के प्रति प्रतिबद्धता दिखाने का अवसर सरीखा है।

कौन हैं ये भक्त और क्या वे रातोंरात कट्टर भक्ति लिये पैदा हो गए? अमेरिका के नस्ली गोरे और भारत के सवर्ण दावेदार! वे जो इतिहास को नकारना चाहते हैं और क्रमशः ट्रम्प और मोदी में अपने मुक्तिदाता को देखते हैं। इसे विसंगति मत समझिये कि अमेरिकी गृहयुद्ध के नायक और दास प्रथा को समाप्त करने वाले अब्राहम लिंकन नहीं, कॉर्पोरेट एनपीए में अमेरिका को डुबाने वाले रोनाल्ड रीगन हैं ट्रम्प के आदर्श।।

नस्ली गोरों का एजेंडा रहा है काले और लातीनी समुदाय को अमेरिका से खदेड़ना, जो उनके हिसाब से अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर बोझ हैं। उन्हें भावी अप्रवासियों को भी अमेरिका में आने से रोकना है जो उनके ख्याल से उनका रोजगार खा रहे हैं। आखिर ट्रम्प की राजनीति भी इसी तरह अमेरिका को महान बनाने की ही तो है।

भक्तों के लिए उस मोदी में भी कोई विसंगति नहीं है जो गाँधी को तो राष्ट्रपिता कहता है पर गाँधी के घोषित उत्तराधिकारी और आधुनिक भारत के निर्माता नेहरू को कोसने और गाँधी के वैचारिक हत्यारे सावरकर को महिमामंडित करने में पूरी ऊर्जा लगा देता है। सोचिये, स्वतंत्र भारत में सवर्ण सपने क्या रहे हैं? मुसलमानों और ईसाइयों का दमन, पाकिस्तान की पिटाई, दलित शोषण, आरक्षण की समाप्ति, कम्युनिस्ट दमन, मर्द अधीन स्त्री, मनुवाद और परलोकवाद की स्थापना! उसके हिसाब से भारत की सनातनी श्रेष्ठता के लिए आवश्यक तत्व यही हैं। क्या मोदी शासन उसके सपनों को ही हवा नहीं देता! 

समीकरण सीधा है, लोकतंत्र में हर विचारधारा को अपना राजनीतिक प्रतिनिधि चाहिए। नस्ली और सवर्ण श्रेष्ठता के पैरोकारों को भी। अन्यथा,अमेरिका में नस्ली-धार्मिक और भारत में सांप्रदायिक-जातीय घृणा के जब-तब फूटने वाले हालिया उभार में नया कुछ नहीं है, सिवाय इसके कि आज इन दोनों लोकतांत्रिक देशों के शासन पर जो काबिज हैं, ट्रम्प और मोदी, उन्होंने अपनी विजय यात्रा इसी घृणा की लहर पर सवार होकर तय की है।

यानी स्वाभाविक है, जनसंख्या के एक प्रबल हिस्से का घोषित एजेंडा और शासन में बने रहने का ट्रम्प-मोदी का अघोषित एजेंडा परस्पर गड्मड् होकर दोनों देशों की धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रीय धरोहर को बेशक आशंकित करते रहें, भक्तों को तो आश्वस्त ही रखेंगे। स्पष्टतः न मोदी भक्ति 2014 और न ट्रम्प भक्ति 2016 अचानक या जल्दबाजी में संपन्न हुयी परिघटना हैं|

मोदी और ट्रम्प भक्तों में अद्भुत समानता है। मोदी और ट्रम्प कितना भी फिसलें, उनके भक्तों की कट्टर निष्ठा अडिग रहेगी। बेशक ट्रम्प से चिपके तमाम लैंगिक और नस्ली कलंक उदाहरणों में अब राष्ट्रपति चुनाव अभियान में रूस से मिलीभगत के गंभीर आरोप भी शामिल हो गए हों। बेशक,मोदी के सांप्रदायिक और कॉर्पोरेट-यारी वाले चेहरे को इतिहास के सबसे बड़े फेकू होने का दर्जा मिल रहा हो। 

ये सब बातें भक्तों के लिए बेमानी हैं। मजबूत तर्क और अकाट्य तथ्य उनकी भक्ति को हिला नहीं सकते। दरअसल, मोदी और ट्रम्प अपने इन कट्टर समर्थकों के क्रमशः सोलह आना खरे राजनीतिक प्रतिनिधि सिद्ध हुए हैं। इस हद तक और इतने इंतजार के बाद कि उनके लिए वे एकमात्र विकल्प जैसे हैं।

दोनों के भक्तों के अडिग आचरण को समझने के लिए यहाँ एक और पर्दाफाश जरूरी है। अमेरिका में राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवारी अभियान में माना जाता था कि ट्रम्प ने बड़े आक्रामक अंदाज में रिपब्लिकन पार्टी का नामांकन हथियाया है। लेकिन अब पार्टी का केंद्र और उसका समर्थक मीडिया,ओबामा केयर समाप्त करने और अमीरों को टैक्स छूट देने में ही नहीं, चिर-दुश्मन रूससे मिलीभगत की छानबीन में भी जिस अंदाज में ट्रम्प के साथ खड़े नजर आते हैं, उनके एक दूसरे का पूरक होने में कोई शक नहीं।  

मोदी ने संघ के आशीर्वाद से भाजपा का नेतृत्व हथियाया था। तब भी,उनके कैंप की ओर से,खरीदी मीडिया के माध्यम से, लगातार‘विकास’ के एजेंडे पर इस तरह जोर दिखाया जाता रहा है मानो संघ की हिंदुत्व ध्रुवीकरण की विभाजक पैंतरेबाजियों से मोदी का लेना-देना न हो। जाहिर है,संघ के दलित और मुस्लिम विरोधी एजेंडे पर ही नहीं, किसान और मजदूर की कीमत पर व्यापारियों और पूंजीशाहों के बेशर्म पोषण पर भी, संघ और मोदी की प्रशासनिक एकता इस छद्म प्रचार को अब और अधिक चलने नहीं दे पा रही।

इस आलोक में ट्रम्प और मोदी की चुनावी सफलतायें उतनी आकस्मिक नहीं रह जाती हैं, जितना उनके विरोधी विश्वास करना चाहेंगे। न ही उनके अंधसमर्थकों को ऐसे बरगलाये लोगों का समूह मानना सही होगा, जिन्हें राष्ट्रीय विरासत, लोकतांत्रिक परम्पराओं और संवैधानिक दबावों के रास्ते पर लाने की बात जब-तब बौद्धिक आकलनों में उठाई जाती है। 

दरअसल,समर्थकों की तिरस्कृत पड़ी आकांक्षाओं को मोदी और ट्रम्प ने राष्ट्रीय राजनीति में जैसे प्रतिष्ठित किया है, वे चिर ऋणी क्यों न रहें? समझे, भला भक्त इतने कट्टर क्यों?

May 28, 2017

मोदी देंगे देश को पहला आदिवासी राष्ट्रपति?

तो एक आदिवासी महिला देश की राष्ट्रपति बनेंगी, खबरें तो इसी तरफ इशारा करती हैं। अगर प्रधानमंत्री मोदी की तरफ से सच में द्रौपदी मूर्मू के नाम पर मोहर लग चुकी है तो वह वह देश की राष्ट्रपति बनने वाली पहली आदिवासी बन जाएंगी.....


राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी का कार्यकाल 25 जुलाई, 2017 को पूरा हो रहा है। इसी महीने नये राष्ट्रपति का चुनाव होगा और वह अपना पदभार ग्रहण करेंगे। पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के परिणाम ने भाजपा को बहुमत के करीब ला दिया है। अपनी पसंद का राष्ट्रपति बनाने के लिए भाजपा को 10,98,882 मतों में से 5.49 लाख वोट चाहिए। भाजपा और उसके सहयोगी दलों के पास 4.57 लाख वोट हैं। अगर तीसरा मोर्चा एकजुट हो जाये, तो भी भाजपा के बराबर वोट नहीं ला पायेगा। इसलिए तय है कि भाजपा अपनी पसंद का अगला राष्ट्रपति बनायेगी।

राष्ट्रपति पद की दौड़ में भाजपा की तरफ से पहले कई नाम शामिल थे, जिनमें भाजपा के वयोवृद्ध नेता लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी और यहां तक ​​कि रजनीकांत का नाम भी शामिल था। ऐसे में वरिष्ठ नेताओं को दरकिनार कर द्रौपदी मूर्मू के नाम पर नरेंद्र मोदी का मोहर लगाना ​थोड़ा आश्चर्यचकित भी करता है। एक कारण यह भी रहा कि बाबरी मस्जिद विध्वंस मामले में लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी पर फिर से केस चलाये जाने की सुप्रीम कोर्ट की अनुमति के बाद आडवाणी और जोशी के बाद वो लोग राष्ट्रपति पद की रेस से बाहर हो गए थे। 

महिला और स्वच्छ छवि के चलते विदेश मंत्री सुषमा स्वराज भी दौड़ में रहींं, लेकिन उनकी सेहत ठीक नहीं होने की वजह से उनकी दावेदारी कमजोर पड़ गयी। दक्षिण के पिछड़ी जाति के नेता और केंद्रीय मंत्री वेंकैया नायडू को भी दौड़ में शामिल माना जा रहा है, लेकिन उनके नाम पर विपक्ष सहमत होगा, इस पर भाजपा को संदेह है। इन परिस्थितियों में द्रौपदी मुर्मू की दावेदारी अधिक मजबूत और तार्किक बतायी जा रही है। 


द्रौपदी मूर्मू वर्तमान में झारखंड की राज्यपाल हैं और पिछले दो दशकों से वह राजनीति में सक्रिय हैं। विपक्ष के लिए भी उनकी उम्मीदवारी को खारिज करना मुश्किल होगा। द्रौपदी मूर्मू राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की राष्ट्रपति पद की उम्मीदवार होंगी। द्रौपदी मुर्मू की उम्मीदवारी से झारखंड की मुख्य विपक्षी पार्टी झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) का भी समर्थन भाजपा को हासिल हो सकता है। झारखंड विधानसभा में झामुमो मुख्य विपक्षी पार्टी है। 

इसे भी संयोग ही कहा जाएगा कि द्रौपदी झारखंड और देश की पहली आदिवासी महिला राज्यपाल हैं। द्रौपदी को प्रत्याशी बनाकर भाजपा और सरकार देश को अलग संदेश दे सकती है। 

ओड़िशा के आदिवासी परिवार में 20 जून, 1958 को ओड़िशा के एक आदिवासी परिवार में जन्मी द्रौपदी मूर्मू रामा देवी वीमेंस कॉलेज से बीए की डिग्री लेने के बाद ओड़िशा के राज्य सचिवालय में नौकरी करने लगीं। 1997 में नगर पंचायत का चुनाव जीतकर राजनीति में कदम रखा। पहली बार स्थानीय पार्षद (लोकल काउंसिलर) बनीं. 

पार्षद से राष्ट्रपति उम्मीदवार बनने तक का उनका सफर देश की सभी आदिवासी महिलाओं के लिए एक आदर्श होगा। वह ऐसे राज्य से ताल्लुक रखती हैं, जहां 2014 के मोदी लहर में भी भाजपा का सिर्फ खाता ही खुला था। राज्य में लोकसभा की 21 सीटें हैं, 20 सीटें बीजद ने जीती थीं। 

साफ-सुथरी राजनीतिक छवि के कारण द्रौपदी को भाजपा आलाकमान ने हमेशा तरजीह दी। वह भाजपा के सामाजिक जनजाति (सोशल ट्राइब) मोर्चा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य के तौर पर काम करती रहीं और वर्ष 2015 में उनको झारखंड का राज्यपाल बना दिया गया। 

द्रौपदी मूर्मू 18 मई, 2015 से झारखंड की राज्यपाल हैं -2000 से 2004 तक ओड़िशा विधानसभा में रायरंगपुर से विधायक और राज्य सरकार में मंत्री रहीं। वह पहली ओड़िया नेता हैं, जिन्हें राज्यपाल बनाया गया -छह मार्च, 2000 से छह अगस्त, 2002 तक वह भाजपा और बीजू जनता दल की गठबंधन सरकार में वाणिज्य और परिवहन के लिए स्वतंत्र प्रभार मंत्री रहीं। छह अगस्त, 2002 से 16 मई, 2004 तक मत्स्य पालन और पशु संसाधन विकास राज्य मंत्री रहीं।

editorjanjwar@gmail.com

गिल के मरने पर गम नहीं गालियों से विदाई दे रही पंजाब की जनता

मीडिया का बहुतायत जहां पंजाब के पूर्व डीजी और खालिस्तानियों के सफाए के लिए चर्चित रहे केपीएस गिल की मौत को 'एक महानायक' की विदाई बता रहा है, वहीं पंजाब के आम लोग सोशल मीडिया पर गालियों, ​फब्तियों से तंज कस रहे हैं और गिल को 'कसाई' की संज्ञा देते नहीं अघा रहे हैं। 

तैश पोठवारी 

(केपीएस गिल की मौत पर सिखों ने बांटे लडडू, पहली बार बंट रहे मरने की खुशी में - ऊपर लिखे का अनुवाद)

इसे आप त्रासदी कह सकते हैं या त्रासदीपूर्ण सच। पर ऐसा ही है। और यह कोई नया नहीं बल्कि हमेशा होता रहा है कि आतंकवाद झेलती और आतंकवाद खत्म होते देखती सत्ता की निगाहों में बड़ा फर्क होता है। भारत में पारंपरिक तौर पर जिस तरह से सरकार आतंकवाद खत्म करती है, उसमें आतंकवादियों से अधिक नुकसान, हत्याएं और मुश्किलें आम जनता को झेलनी पडती हैं। वही फर्क गिल की मौत के मामले में भी दिखाई दे रहा है। 

पंजाब में 1988 से 1995 तक डीजीपी रहे और पद्मश्री से सम्मानित केपीएस गिल की 26 मई को दिल्ली में दिल का दौरा पड़ने से मौत हो गयी। वह 1996 में एक महिला आइपीएस के यौन उत्पीड़न के लिए सजायाफ्ता भी रह चुके थे। 26 मई को उनकी मौत होने के बाद नेताओं, नौकरशाहों और मीडिया के बड़े हिस्से ने गिल को श्रद्धांजलि देते हुए लिखा कि देश ने अपना एक महत्वपूर्ण अधिकारी खो दिया है, जिसकी दूरद्रष्टा गंवाया है। 

एक तरफ देश भर के ज्यादातर मीडिया घराने अलगाववाद के दौर में गिल की सरकारी छवि को राष्ट्रीय व आमजमानस की छवि बनाकर पेश कर रहे हैं, वहीं गिल के जुल्मों की भुक्तभोगी जनता  गिल की मौत पर उनको एक अलग तरह से याद कर रही है।  

(जालिम जुल्म कमाकर चला गया, घर घर आग लगाकर चला गया, उनके सीन  ठंढे होंगे, जिनके डीप बुझाके चला गया - फोटो में लगी कविता का अनुवाद)

पंजाब और देश के अन्य हिस्सों में रहे सिख समुदाय और दूसरे समुदायों के लोग भी सोशल मीडिया पर गिल की मौत पर ख़ुशी जताकर अंतिम विदाई दे रहे हैं। फेसबुक पर हर कोई अपने तरीके से उन्हें गिल को जलील कर रहा है। कोई उनकी मौत को बर्बरता के साथ झूठी मुठभेड़ों में पंजाब की जवानी को मारने वाला कसाई की मौत कह रहा है तो कोई अपनी कविता, नारों और पोस्ट के जरिए व्यंग्य कस रहा है। 

यह पहली बार है किसी अधिकारी की मौत पर जनता इस ​तरह प्रतिक्रिया दे रही है। बहुत से लोग गालियां दे रहे हैं। यह विरोध इतने बड़े पैमाने पर और निर्विरोध है कि उनके समर्थन में पंजाब में फेसबुक पर कहीं कोई एक पोस्ट या कमेंट नहीं है। छात्र ,बूढ़े ,लेखक ,कलाकार ,पत्रकार, महिलाएं व हर वर्ग के लोग बिना लाग लपेट,संकोच के उनके प्रति अपनी नफरत और गुस्से का इजहार कर रहे हैं।  

यही नहीं उनकी मौत से जुड़े सभी कार्यकर्मों के सामाजिक बहिष्कार की भी अपील की गई है। यहां तक कि किसी भी ग्रंथी को उनके अंतिम धार्मिक क्रियाकलापों को न करने और किरतपुर साहिब में उनकी अस्थियों को विसर्जित न करने देने की अपील भी की गई है। 

(जिन सिख सम्पादकों ने केपीएस गिल कसाई के संस्कार और भोग के विज्ञापन छापे हैं क्या उनके खिलाफ कोई कार्रवाई होनी चाहिए ?)

May 27, 2017

बागी विरासत को याद करते हुए चंबल में लगी जनसंसद

पचनदा में बहता पानी भले ही शांत, ठहरा और साफ़-सुथरा दिखता हो, लेकिन हक़ीक़त में बीहड़ों में ज़िंदगी उतनी ही उथल-पुथल भरी है। एक साज़िश के तहत हमेशा ही चम्बल क्षेत्र को ‘डार्क ज़ोन’ बनाकर उपेक्षित रखा गया......

जनज्वार, चंबल। 1857 की 160वीं वर्षगाँठ पर मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश की सीमा पर स्थित पाँच नदियों के संगम ‘पचनदा’ पर, "ज़ंगे आज़ादी और चम्बल" विषय पर  एक विशाल ‘जनसंसद’ का आयोजन किया गया। 1857 में जब सारा देश ब्रितानिया हुकूमत के अत्याचारों से सुलग उठा था, तब 25 मई 1857 को इसी ‘पचनद घाट’ पर चम्बल के तमाम क्रांतिकारी इकट्ठा हुए थे और यहीं से उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य को नेस्तनाबूंद करने की कसमें खाईं और कूद पड़े थे 1857 के महासमर में। 


जब 1857 में जब पूरे देश में क्रांति के केंद्र ध्वस्त कर दिए गए, हजारों शहादतें हुईं, हजारों महानायकों को कालापानी भेज दिया गया, उस वक्त देशभर के क्रांतिकारी चम्बल के आगोश में खिंचे चले आये। इसलिए तब यह धरती उस महान स्वतंत्रता संग्राम में क्रांतिकारियों का ट्रेनिंग सेंटर बन गई थी। 

जन नायक गंगा सिंह, रूप सिंह सेंगर, निरंजन सिंह चौहान, जंगली-मंगली बाल्मीकि, पीतम सिंह, बंकट सिंह कुशवाह, मारुंन सिंह, चौधरी रामप्रसाद पाठक, गंधर्व सिंह, भैरवी, तेजाबाई, मुराद अली खां, काशीबाई, शेर अंदाज़ अली, चिमना जी, दौलत सिंह कछवाह, बरजोर सिंह, खलक सिंह दौआ इत्यादि हर वर्ग, जाति, लिंग और सम्प्रदाय के लोगों ने चम्बल में 1857 के 10-12 वर्ष बाद भी इस अंचल में आज़ादी की मशाल जलाये रखा था।

पचनदा में बहता पानी भले ही शांत, ठहरा और साफ़-सुथरा दिखता हो, लेकिन हक़ीक़त में बीहड़ों में ज़िंदगी उतनी ही उथल-पुथल भरी है। एक साज़िश के तहत हमेशा ही चम्बल क्षेत्र को ‘डार्क ज़ोन’ बनाकर उपेक्षित रखा गया, जबकि उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान तक फैला यह विशाल बीहड़ क्रांतिकारियों की शरण स्थली के रूप में मशहूर रहा है। 

आज भी आज़ादी के 70 वर्ष बाद क्रांतिकारियों के वारिसों को सत्ता के हाथों उपेक्षा और अपमान के अलावा कुछ भी हाथ नहीं लगा।  यह ‘जन संसद’ चम्बल के इन्हीं गौरव और अपमानों के लेखा-जोखा के निमित्त आयोजित की गई थी। 

जन संसद के इस आयोजन की पृष्ठभूमि तैयार की जुझारू और संघर्षशील युवा सिनेमाकर्मी ‘शाह आलम’ ने, जो अपनी साइकिल से निकले तो थे चम्बल ही नहीं सम्पूर्ण उत्तर भारत के क्रांतिकारियों के पितामह रहे गेंदालाल दीक्षित द्वारा 1916 में स्थापित ‘मातृवेदी संगठन’ के 100 साल पूरे होने के उपलक्ष्य में उसकी स्मृतियों के दस्तावेज़ी करण को लेकर, पर अपनी 2300 कि.मी. की यात्रा में उन्होंने केवल ‘मातृवेदी’ ही नहीं उससे सुदूर 1857 और उससे पहले भी यह दुर्गम अंचल क्रांतिकारियों और जाबांज़ देश भक्तों की खान के रूप में दिखाई पड़ा। 

शाह आलम बाकी के छोड़ चम्बल के इतिहास उत्खनन में जुट गए, किन्तु यह इतिहास उत्खनन मात्र इकहरा न था। उसमें चम्बल के दुरूह जीवन और कष्टकारी स्थितियों की पड़ताल भी शामिल थी। इसलिए जब इस जन संसद का आयोजन हुआ और इसमें स्थानीय इतिहासकार, पत्रकार, समाजसेवी व आम नागरिक शामिल हुए, तब यह मात्र एक रस्म अदायगी तक सीमित रह जाने वाला कार्यक्रम न होकर, जन संवाद के माध्यम से जन समस्याओं की गहन पड़ताल और उनके निवारण की तह तक विस्तार को प्राप्त हुआ। 

‘इंक़लाब जिन्दाबाद’ और ‘आवाज़ दो हम एक हैं’ के गगनभेदी नारों के साथ वरिष्ठ पत्रकार के. पी. सिंह, शाह आलम और तमाम वरिष्ठजनों की अगुवाई में कोई दो सौ-सवा दो सौ लोगों का हुज़ूम पचनदा की रेती में गढ़े उन्नत तिरंगे के नीचे 1857 के चम्बल के तमाम शहीदों को पुष्पों के द्वारा श्रद्धासुमन अर्पित करता राष्ट्रगान के उपरांत वहाँ से चलकर प्राचीन बाबा साहब प्रांगण में आकर आम और नीम की सघन छाया में संसद की वृत्ताकार शैली में दरी पर आकर बैठ गए। कार्यक्रम का संचालन सम्हाला उरई के युवा समाज सेवी कुलदीप कुमार बौद्ध ने और मुख्य वक्ता बने पत्रकार के.पी. सिंह। 

कार्यक्रम के प्रारंभ में बीज वक्तव्य शाह आलम ने दिया, उसके बाद अपने विचार प्रकट करने आये कवि डॉ गोविन्द द्विवेदी ने कहा-"चम्बल वीर प्रसूता भूमि है और इसका वास्तविक स्वरूप हमें देश के सामने लाना ही होगा।  तदुपरांत राज त्रिपाठी ने अपने संक्षिप्त वक्तव्य में कहा, ‘हमें शाह आलम का शुक्रगुज़ार होना चाहिए, जिन्होंने अपने अदम्य साहस और लगन से हमें हमारे लड़ाका पुरखों के शौर्य और साहस से परिचित कराया कि राष्ट्र की बलिदानी परम्परा में हमारा भी कोई अमिट स्थान है।'

उसके बाद औरैया से आये डॉ.अजय शुक्ला ‘अंजाम’ ने मैनपुरी में स्थित शहीद मंदिर और उस पर आयोजित होने तथा सबसे अधिक लम्बा (19 दिन) चलने वाले मेले के बारे में जानकारी देने के बाद बताया कि 1857 में इटावा के तत्कालीन कलेक्टर ए.ओ. ह्यूम ने एक तोंपो और बंदूकों से लैस एक जंगी बेड़ा भेजा था। उस समय साधनहीन हमारे दादा-परदादों ने अपने हँसिया, दरांती, और बरछी-भालों से पहले डभोली घाट फिर भरेह पर उनका कड़ा मुकाबला किया था। हम बहादुर और बाग़ी कौम हैं।

पर देश ने आज़ादी के बाद हमारे साथ छल किया। चम्बल के विकास पर कोई ध्यान नहीं दिया। चम्बल का युवा बेरोजगारी के चलते पलायन को मजबूर है। त्योहारों पर उनकी घर में प्रतीक्षा होती रहती है पर अपने बूढ़े माँ-बाप और जवान बहनों के ब्याह की चिंता में यह आना टालते रहते हैं। 

बंगलौर, अहमदाबाद सूरत और अन्य स्थानों पर जोख़िम भरे काम करके यह युवा जब अपने देश लौटते हैं तो कई बीमारियों के साथ और जो पैसा उन्हें घर के खर्च में देना होता है, वो उनके इलाज़ में स्वाहा हो जाता है। हमारा चम्बल आज बहुत बड़े संकट की कगार पर है और इसका यदि कोई जिम्मेवार है तो वे इस देश और प्रदेश के हुक्मरान।'

भिण्ड, मध्य प्रदेश से आये युवा साहित्यकार-इतिहासकार डॉ. जितेन्द्र  विसारिया ने कहा कि पचनद और चम्बल घाटी की अपनी एक साझा संस्कृति और इतिहास है। जब तत्कालीन सयुंक्त प्रान्त स्थित ‘पचनदा’ के क्रांतिकारी अंग्रेजों के दमन के शिकार हुए तब तत्कालीन सिंधिया रियासत के अंतर्गत आने वाले कछवाह घार (भिण्ड) में शरण पाई थी। 

कछवाह घार में पृथ्वी सिंह, चिमनाजी और दौलत सिंह-बरजोर सिंह द्वारा गठित ‘स्वराज मंडल’ में शामिल होकर चम्बल और पचनदा के वीरों ने ग्वालियर तक रानी झाँसी और तात्या टोपे की मदद की और 18 जून 1858 के 10-12 साल बाद तक ब्रिटिश हुकूमत को टक्कर देते रहे थे। पर एक साज़िश के तहत अंग्रेजों की मनोकामना फलीभूत हुई और इस अंचल की बग़ावती परंपरा को लूट-खसोट की डाकू परंपरा से नत्थी कर उसे बदनामी और उपेक्षा के ऐसे दलदल में धकेल दिया कि आज भी देश के अन्य हिस्सों में चम्बल के युवाओं को किराए पर मांगे कमरे नहीं मिलते! हमें चम्बल को इस बदनाम छवि से निकलना ही होगा और विकास के मार्ग पर प्रशस्त करना ही होगा।

 इसके बाद धर्मेंद्र सिंह ने भी आज़ादी के बाद चम्बल के क्रांतिकारियों के साथ हुए छलावे पर अपना आक्रोश प्रकट करते हुए उनकी कुर्बानियों के व्यर्थ न जाने की बात कही। 

 कार्यक्रम में बड़ी संख्या में उपस्थित हुई ग्रामीण महिलाओं ने भी घूँघट की ओट से अपनी और अपने अंचल की दुर्दशा पर गुस्सा प्रकट किया। कंजौसा की मीरा बाई निषाद ने कहा, ‘हियाँ मजूरी है नईं है और सरकार से जो थोरी भौत योजनाएं आती हैं, वे बड़ी जाति के खाये-अघाये लोगन के पेट मेंईं समाय जाती हैं...हमाये मुहल्ला में एक हू हेण्डपंम्प नईं और उनके हियाँ दुइ-दुइ, तीन-तीन।... नरेगा में टाइम से मजूरी नईं मिलत। ....बेहड़ से लकड़ियाँ बीन-बीन लड़िकन कों पढ़ाओ, पर हिया कोई धंधों-रोजगार न होवे और नौकरी न मिलिबे से हमाये लड़िका मजूरी पे जान लगे, तो गाँव के लोग हँसी उड़ाउत कि पढ़ें फ़ारसी बेंचे तेल....तो साब! जि है हमाई दशा? न जीवे में न मरिवे में!!!’ 

एक अन्य महिला जयदेवी ने वर्षों से प्रस्तावित ‘पचनद डैम’ के बनने पर विस्थापित होने वाले 184 गांवों के लोगों के पुनर्वास पर अपनी चिंता प्रकट की-“ साब! पचनदा पर जो बाँध बनाओ गओ तो हम गरीब कहाँ बसाए जैहें? पूरो इलाका बेहड़ है। जो भी खेती हैं, व नदी की तीर में है। बाँध बनो तो सब डूब जैहै, तब हम का खाएँगे, काँ रहेंगे???’ 

स्थानीय प्रौढ़ भग्गूलाल जी ने पचनदा के दलितों की बदहाली पर प्रकाश डालते हुए बताया, ‘अब से पूर्व के मुख्यमंत्री जी सारी योजनाएं अपने गृहनगर सैंफई ले गए। सम्पूर्ण उत्तर प्रदेश में जालौन जिला सबसे अधिक पिछड़ा है। यहाँ के दलित आज भी मैला ढोने को मज़बूर हैं। 

पिछले दिनों कस्बा उमरी के स्वच्छकारों ने जब यह घृणित कार्य छोड़ना चाहा, तो गाँव के दबंगों ने उनका सामाजिक बहिष्कार कर दिया। उन्हें परचून की दुकान से सामान, आटा चक्की पर आटा और बस में सवारी करने से मना किया गया। यहाँ तक कि उनका खेतों में शौच और श्मशान पर मुर्दा जलाने की भी मनाही झेलनी पड़ी। 

प्रशासन ने आनन फानन में 32 हजार की मशीन मँगवाई। रात में राम तलैया के कुछ बाल्मीकि लड़के ले गए, जिसमें चैंबर का ढक्कन खुलते ही ज़हरीली गैस से दो बाल्मीकि युवक मारे गए। उनकी पुलिस में एफआईआर तक नहीं हुई और मामला दबा दिया गया।...दलित वर्ग की यहाँ स्थिति बहुत दयनीय है।

एक अन्य ग्रामीण सन्तोष ने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा, ‘इस जन संसद में जो बात उठी है वो सच्चे मन से उठाई जाएगी तो अवश्य सुनी जाएँगी। ...इतनी सारी नदियां होते हुए भी यहाँ भयंकर पानी की किल्लत पड़ती है। किसान की ज़मीन असिंचित है, क्योंकि गहरी नदियों से लिफ्टिंग कर पानी ऊपर लाने हेतु न कोई बाँध है, न अन्य व्यवस्था। किसानों की स्थिति पानी बिच मीन प्यासी वाली है। बेरोज़गार युवाओं जा पलायन और अपहरण और फिरौती जैसे अपराध पनपने का एक कारण यह भी है।

स्थानीय युवा अवधेश यादव उर्फ पिंकू ने अपना गुस्सा व्यक्त करते हुए कहा कि, पचनद डैम और फोरलेन के लिए यहाँ के स्थानीय नेता सुदामा दीक्षित और मनोज पांडेय से अनुनय विनय की, पर उन्होंने एक बात कान न दी। इंदिरा जी हों या उमा भारती सबसे इस क्षेत्र में पर्यटन क्षेत्र बनाने की विनती की गईं पर कभी कोई सुनाई नहीं हुई। पचनदा का बीहड़ ‘लाइन सफ़ारी’ के लिए सबसे मुफ़ीद था, पर अखिलेश यादव उसे इटावा के समीप ले गए! कुल मिलाकर पचनदा आज भी सत्ता और प्रशासन की गहरी उपेक्षा का शिकार है। विश्व प्रसिद्ध यमुनापारी बकरी और भदावरी भैंस को लेकर कुछ नहीं किया गया।

कार्यक्रम के अंत में मुख्य वक्ता के रूप में के.पी. सिंह जी ने कहा कि, ‘जन संसद के सरोकार स्थानीय मुद्दों से बड़े हैं। शाह आलम ने मातृवेदी को गुमनामी में से खींचकर बाहर नहीं निकाला, अपितु 1857 के चम्बल और पचनदा के वीरों को इतिहास और देश के फ़लक पर प्रतिष्ठित किया है। आज जब सम्पूर्ण समाज का धुर्वीकरण हो रहा है ऐसे में 1857 हमें इसलिए भी याद रखना चाहिए कि वो देश के सामूहिक मुद्दों को लेकर देश के सम्पूर्ण वर्ग द्वारा मिलकर लड़ा गया संग्राम था। इसके दस्तावेज़ इलाहाबाद, दिल्ली और लंदन के अभिलेखागारों में उपलब्ध हैं।' 

अंत में सभी का आभार सदन के स्पीकर अवधेश सिंह चौहान जी ने किया और पुनः अगले साल फरवरी माह में फिर दूसरी जनसंसद में आने का आह्वान कर कार्यक्रम के समापन की औपचारिक घोषणा की गयी।  

editorjanjwar@gmail.com           

May 25, 2017

पुलिस अधिकारियों से पत्रकार पहले लेते हैं डिक्टेशन, फिर करते हैं सहारनपुर हिंसा की रिपोर्टिंग

शब्बीरपुर में घटित जातीय हिंसा की रिपोर्टिंग चाहे प्रिंट हो या इलैक्ट्रॉनिक या फिर डिजिटल मीडिया में ऐसे की गई, जैसे यह जातीय संहार नहीं बल्कि व्यक्तिगत रंजिश में की गई हत्याएं हों.....

जनज्वार सहारनपुर। सहारनपुर के शब्बीरपुर गांव में 5 मई, 2017 को दलितों पर हुए हमले की पहली रिपोर्टिंग जब जनज्वार में छपी तो लोगों को लगा कि क्या ऐसा भी हो सकता है? यह सिर्फ इसलिए नहीं लगा कि सबसे पहले जनज्वार में वीडियो, फोटो और सिलसिलेवार घटनाक्रम में यह रिपोर्ट छपी थी, बल्कि इसलिए भी लगा कि जब शब्बीरपुर गांव में दलितों के घर जलाए जा रहे थे और राजपूत जातियों के लपंट तत्व पूरे गांव में हाहाकार मचाए हुए थे, उस वक्त मौके पर जिले के सभी उच्चाधिकारी मौजूद थे। 


उच्चाधिकारियों डीएम, एसपी, एसएसपी की मौजूदगी में दलितों के घर फूंके गए, उन पर हमले हुए, उनकी गाड़ियां, मोटरसाइकिलें, साइकिलें स्वाहा कर दी गयीं और अनाज के ढेर जला दिए गए। कई मीडियाकर्मियोंं ने इन घटनाओं को अपने कैमरे में कैद भी किया और उच्चाधिकारियों के साथ खड़े रहकर घटनाक्रम के साक्षी भी रहे, पर 5 मई की इस घटना का अगले 5 दिनों तक ठीक से तब तक मीडिया कवरेज नहीं आया, जब तक कि जनज्वार जैसी तमाम दूसरी जनपक्षधर वेबसाइटस और सोशल मीडिया ने इसे एक बड़ा और राष्ट्रीय मुद्दा नहीं बना लिया।

इसी तरह बसपा प्रमुख मायावती के शब्बीरपुर जाने से पहले और उनके जाने के बाद शब्बीरपुर समेत दूसरे तमाम गांवों में हिंसक वारदातें हुईंं, दलितों और राजपूतों में टकराहट हुई, दर्जन भर दलित गंंभीर रूप से घायल हुए, जिसमें से तीन की अब तक मौत हो चुकी है, मगर इस बड़ी घटना की भी रिपोर्टिंग चाहे प्रिंट हो या इलैक्ट्रॉनिक या फिर डिजिटल मीडिया में ऐसे की गई, जैसे यह जातीय संहार नहीं बल्कि व्यक्तिगत रंजिश में की गई हत्याएं हों। शब्बीरपुर में अब तक आधा दर्जन लोग इस जातीय नरसंहार की भेंट चढ़ चुके हैं।

इन दोनों घटनाओं और सहारनपुर में लगातार बने हुए तनाव के बीच जिस तरह की रिपोर्टिंग की जा रही है, उसको समझने के लिए पत्रकार, पत्रकार और अधिकारियों के रिश्ते, स्थानीय स्तर पर पत्रकारों और माफियाओ के रिश्ते और पत्रका​रों की जातीय संरचना को समझना बहुत जरूरी है। बगैर इन चारों चीजों को समझे देश को यह नहीं समझ में आ सकता कि मीडिया चाहे वह राष्ट्रीय हो या स्थानीय, इस खबर को प्राथमिकता और घटनाक्रम की बारीकियों के साथ क्यों नहीं पेश कर रहा।

एक बात और कि जिस तरह मुजफ्फरनगर दंगे की घटना को वृहत रूप देने में ठीक से रिपोर्टिंग न होना भी एक बड़ा कारण रहा, अब ऐसा ही कुछ शब्बीरपुर में हो रहा है। एक दूसरा कारण यह भी माना जा रहा है कि मुजफ्फरपुर दंगे में आजम खां जिस तरह से पहुंचे और शब्बीरपुर में मायावती, उसने दंगे को भड़काने और जातीय हिंसा को बढ़ाने का ही काम किया है। 

5 मई को जब शब्बीरपुर गांव जब रहा था, दलितों पर हमले हो रहे थे तो इस घटनाक्रम की रिपोर्टिंग करने से पहले डीएम, एसएसपी, एसपी ने गांव में पत्रकारों को डिक्टेशन दी। मौके पर आज तक, न्यूज नेशन, जीटीवी, ईटीवी, न्यूज 24, टीवी 100 समेत तमाम न्यूज चैनलों और सभी दैनिकों के पत्रकार डिक्टेशन लेने वालों में मौजूद थे। 


एसएसपी सुभाष चंद्र दुबे, डीएम एनपी सिंह और एसपी देहात ने पत्रकारों को निर्देशित किया कि फलां फलां फुटेज दिखाइये और फलां फलां फुटेज मत दिखाइये। पत्रकार भी उच्चाधिकारियों की बात से सहमत थे इसलिए फुटेज और फैक्ट होने के बावजूद खबर सामने नहीं आई। कुछेक ईमानदार पत्रकारों ने आॅनलाइन मीडिया का सहारा लिया, जिसकी वजह से इस घटनाकम का सच सबके सामने आ पाया। इन्ही पत्रकारों में कुछेक ने जब आपस में कहा कि यह तो गलत है हमें खबर दिखानी चाहिए, कुछेक ने दिल्ली में अपने हैडआॅफिस वीडियो फुटेज भेजी भी, मगर खबर वहां से भी प्रसारित नहीं हो पायी।

गौरतलब है कि सहारनपुर जिले में छोटे—बड़े मीडिया घरानों के तकरीबन 210 पत्रकार काम करते हैं। इन पत्रकारों का बहुतायत बाह्मण, राजपूत और जाट है। 10 प्रतिशत के करीब पत्रकार मुस्लिम भी हैं। ऐसे में घटना मुजफ्फरपुर की हो या शब्बीरपुर की, पत्रकार आमतौर पर अपनी जातिवादी और साम्प्रदायिक समझदारी को ही पत्रकारिता का मूल्य बना लेते हैं। और ये तब और भी आसान हो जाता है जब ​तमाम उच्चाधिकारी भी साम्प्रदायिक और जातिवादी हों। ऐसे में अधिकारियों और पत्रकारों दोनों का गठजोड़ यह मान लेता है कि मुसलमानों और दलितों पर जो जातिवादी और साम्प्रदायिक अत्याचार हुआ है, वह वाजिब है और इसको लेकर खामखां का हल्ला मचाने की कोई जरूरत नहीं है। 

शब्बीरपुर मामले में भी हू—ब—हू यही हुआ। ज्यादातर स्थानीय पत्रकार किसान हैं और उन्होंने शब्बीरपुर और आसपास के दूसरे गांवों में दलितों पर हुए हमलों और अत्याचार को इसलिए वाजिब ठहरा दिया कि दलितों की महिलाएं उनके खेतों में जाने वाले पाइपों पर दरारी/​हसुआ मार देती हैं।

सहारनपुर से दूर बैठे और यहां की सामाजिकी, आर्थिकी से अनभिज्ञ व्यक्ति को पत्रकारों और पत्रकारिता के संदर्भ में यह बात मजाकिया लग सकती है, मगर सच यही है। दलित महिलाओं का खेत में जा रही पाइपों पर दराती मार देना, दलितों का राजपूतों के आगे पहले की तरह दंंडवत न होना, कुछेक दलितों की आर्थिक स्थिति मजबूत होना और उनका पढ़ा—लिखा होना भी उन पत्रकारों को गड़ता है या उन्हें सही रिपोर्टिंग नहीं करने देता, जो सहारनपुर की स्थानीय पत्रकारिता के टायकून हैं। 

अधिकारियों की डिक्टेशन और पत्रकारों की जातीय और सामाजिक हैसियत से इतर एक सच और भी है, जहां माफियाओं के आगे पत्रकार जाति—धर्म से परे हटकर सरेंडर किए हुए हैं। सहारनपुर के खनन माफिया मोहम्मद इकबाल जोकि बसपा के पूर्व एमएलसी भी रह चुके हैं और बसपा से ही तत्कालीन एमएलसी और उनके छोटे भाई महमूद अली सहारनपुर की पत्रकारिता को पालते—पोसते हैं। यहां के लोगों में यह सामान्य जानकारी है कि अवैध खनन पर रिपोर्टिंग न करने के बदले कुछेक पत्रकारों को छोड़ दें तो बहुतायत को एमएलसी परिवार से मासिक भत्ता जाता है। हालांकि अब सरकार ने औपचारिक तौर पर खनन बंद करवा दिया है, फिर भी यह जारी है।

देखें वीडियो :



May 23, 2017

आइये! यह गोपाल सर की क्लास है

सड़क दुर्घटना में कमर के नीचे का पूरा हिस्सा खोया, जज्बा नहीं, 18 साल से पढ़ा रहे गरीब बच्चों को, नहीं मिली कोई सरकारी सहायता

गोपाल अपनी कक्षा में गरीब—बेसहारा बच्चों को पढ़ाते हुए
वह मेरे जीवन का बहुत ही भयानक हादसा था बेहतर है कि मैं उसे भूल जाऊं. उसकी यादें व्यग्रता बढ़ाती हैं, हासिल कुछ नहीं होता. वैसे भी वह दौर उस हाथी की तरह था, जो कुछ अंधों से टकराता है। जिसके हाथ में हाथी की पूछ आती रस्सी समझ लेता. जिसके हाथ में पैर वह खंबा. जो टटोलकर पेट तक पहुंच जाता था वह उसे ढोल समझ बैठता था, ऐसा ही जीवन था. लोग अंधों की तरह टटोल रहे थे.'

यह कहानी है नोवल शिक्षा संस्थान चलाने वाले गोपाल सर जी की, जिनका एक सड़क दुर्घटना में कमर से नीचे का हिस्सा बेकार हो चुका है। 19 नवंबर 1996 को हुई एक सड़क दुर्घटना में गोपाल के कमर के नीचे का हिस्सा पूरी तरह से सुन्न हो गया. उस दिन से वह हमेशा के लिए बिस्तर पर आ गया। उसके बाद मेरे कदम जमीन पर नहीं पडे, मगर यह दुर्घटना उनके जज्बे को सुन्न नहीं कर पायी। 

एक दोस्त के सहयोग से उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर स्थित एक कस्बे कछवां के पत्ती के पुरा गांव में आकर रहने लगे और वहीं उन्होंने ​निर्धन बच्चों को शिक्षित करना अपना उद्देश्य बना लिया। करीब 18 साल पहले एक गरीब बच्चे को पढाने से उन्होंने इस सिलसिले की शुरुआत की और यह यात्रा निरंतर जारी है। 

गोपाल इस दुर्घटना के बाद बेहद तनाव में रहे। उनके परिवार की दो पीढ़ियां बिरला परिवार में कार्यरत रहीं और नाते—रिश्तेदार भी उच्च वर्ग से ताल्लुक रखते थे, बावजूद इसके वो एक भयानक तंगहाली के दौर से गुजरे। इस घटना ने उन्हें अपने—पराए का एहसास जरूर कराया। गोपाल कहते हैं, 'तंगहाली से उपजे तिरस्कार और उपेक्षा को उस समय भी बर्दाश्त किया है. और आज भी अपने लोगों द्वारा बोले गए शब्दों से आहत होने के बाद भी मुस्कुराकर जीना पड़ता है. मैंने वैभव के साथ विपन्नता को भी बहुत नजदीक से देखा है, जो जीवन को समझने में बहुत कारगार सिद्ध हो रहा है.'

प्रतिदिन गांव के सैकड़ों बच्चे गोपाल ​सर की कक्षा में निशुल्क ज्ञान प्राप्त करते हैं. इनमें से कुछ तो इतने गरीब परिवारों से ताल्लुक रखते हैं कि उनके पास कापी—पेंसिल—पेन के लिए तक पैसे नहीं होते। ऐसे में उन्हें अध्ययन सामग्री दिलवाने का काम भी गोपाल सर ही करते हैं। 

गोपाल सर से यह पूछने पर कि वह यह व्यवस्था कहां से करते हैं, वह कहते हैं, 'लोगों से जो थोड़ी—बहुत मदद मुझे मिलती है, उन पैसों से मैं इन गरीब बच्चों को पढ़ने की सामग्री दिला देता हूं।'

'क्या सरकार से आज तक आपको किसी तरह की कोई मदद मिली है?' के जवाब में गोपाल सर थोड़ा निराश हो जाते हैं और कहते हैं, सत्ता में चाहे कोई दल आया हो, किसी की भी सरकार रही हो, मुझे कभी किसी तरह की सहायता नहीं मिली। इतना अच्छा कार्य करने के बावजूद ना तो मुझे आज तक पेंशन मिली, ना ही कोई और सरकारी सहायता.' 

उनके पास पढ़ने आने वाले बच्चों के लिए पानी पीने तक की व्यवस्था नहींं है। उन्हें  पानी पीने के लिए करीब 200 मीटर दूर जाना पड़ता है।। गोपाल चाहते हैं कि सरकार और समाज के सहयोग से इन गरीब बच्चों के लिए एक हैंड पंप लगना चाहिए। इसके लिए उन्होंने सोशल ​मीडिया के माध्यम से एक अपील भी जारी की है, और ताकि इन बच्चों का भविष्य बनाने और इनके लिए जरूरी सुविधाएं जुटाने में मदद मिल सके। अपील में उन्होंने अकाउंट नंबर 3637 8382 277, IFSC code 0012303, कछवा मिर्ज़ापुर ब्रांच, उत्तर प्रदेश का विवरण दिया है।