Mar 13, 2011

जनता की फिक्र करे मीडिया

 
मीडिया पर बाजार भारी है और इससे लड़ने की मीडिया के पास ताकत नहीं है.ऐसी स्थिति में जरुरत है कि मीडिया को बाजार के दबाव से मुक्त कराया जाए...


शनिवार की ढलती गुनगुनी दोपहर के बाद दिल्ली के कमानी ऑडिटोरियम का माहौल तल्ख था. देश के दिग्गज पत्रकारों ने मीडिया की वर्तमान भूमिका को जायज भी ठहराया तो उसकी खामियों को इंगित करते हुए आत्ममंथन की जरूरत भी बतायी.मौका था प्लानमैन मीडिया समूह की समाचार पत्रिका द संडे इंडियन और टाइम्स फाउंडेशन द्वारा आयोजित “जनवाणी से जनता की वाणी” विषयक सेमिनार का.

दरअसल ठीक 25साल पहले सरकार नियंत्रित भारतीय दूरदर्शन पर शुरु हुआ था एक कार्यक्रम जनवाणी,जिसके माध्यम से पहली बार भारत में दर्शकों के राजनीतिज्ञों से सीधे सवाल पूछने का मौका मिला. उसके बाद सरकार की ओपन स्काई पॉलिसी आयी और शुरु हुआ निजी समाचार चैनलों का आगमन. और आज 25 साल बाद भारतीय आकाश में 600 से ज्यादा चैनल हैं, जो हर रोज सवाल पूछ रहें हैं. तो क्या 25 सालों में जनवाणी से शुरु हुए इस सफर में आज के चैनल जनता की वाणी बन गये हैं. या कहीं वे उच्छृंखल तो नहीं हो गये. ऐसे ही मौजूं सवालों पर आयोजित था यह विशेष राष्ट्रीय सेमिनार. जिसका उद्घाटन वरिष्ठ पत्रकार प्रभु चावला ने किया.


बाएं से द संडे इंडियन के संपादक अरिंदम  चौधरी, वरिष्ठ पत्रकार प्रभु चावला और
दीप प्रज्वलित करते  आज समाज के समूह संपादक राहुल देव

खचाखच भरे कमानी सभागार में आयोजित इस ऐतिहासिक सेमिनार का विषय प्रवर्तन  करते हुए द संडे इंडियन के प्रधान संपादक व मैनेजमेंट गुरु प्रो. अरिंदम चौधरी ने सवाल उठाया कि क्या वास्तव में आज की मीडिया जनता की आवाज है?उन्होंने कहा कि 25साल पहले देश में निजी समाचार चैनल नहीं थे, उस समय पहली बार दूरदर्शन पर “जनवाणी” कार्यक्रम शुरू हुआ जिसमें केंद्रीय मंत्री जनता के सवालों से रूबरू होते थे.

आज सैकड़ों की तादाद में समाचार चैनल और अखबार हैं,क्या वास्तव में हम जनता की आवाज उठाते हैं. श्री चौधरी ने कहा कि यह आत्ममंथन की घड़ी है, और जब हम अपने भीतर झांकते हैं तो पाते हैं कि वास्तव में हम अपनी दिशा भूल गये हैं. “जनवाणी” भले ही सरकार द्वारा आयोजित अपने प्रचार का माध्यम रहा, लेकिन उसने भारतीय मीडिया को एक नयी अवधारणा दी. उन्होंने कहा कि अब हमें अपनी दिशा तय करनी होगी और देश के आम लोगों की फिक्र करनी होगी,मीडिया में जनसरोकार वाले मुददों को प्रमुखता देनी होगी वरना हम यूं ही हाय-तौबा मचाते रहेंगे और अपने दायित्वों से मुंह छुपाते रहेंगे.

द न्यू इंडियन एक्सप्रेस के संपादकीय निदेशक प्रभु चावला ने कहा कि आज हम जनता की आवाज नहीं उठाते, ये सही है. हम अपनी दिशा भूल गये हैं, यह भी सही है लेकिन मीडिया ही है, जिसने देश को,देश के लोकतंत्र को बचा कर रखा है.हमें अपनी खामियों को दुरुस्त करना होगा.बाजार के ताकतवर होने से हमारी नैतिकता कमजोर हुई है.

हमें अपनी साख को बरकरार रखते हुए जनोन्मुख होना होगा. “जनवाणी” की नियत अच्छी नहीं थी, लेकिन प्रयास बेहतर था. लेकिन हमें अच्छी नीयत के साथ अच्छे प्रयास करने होंगे.उन्होंने कहा कि यह सेमिनार इस मामले में सभी सेमिनारों से इतर है कि यहां प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक्स मीडिया के सभी दिग्गज मौजूद हैं,ऐसी उपस्थिति तो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा आयोजित संपादकों की बैठक में भी नहीं थी.

सेमिनार की अध्यक्षता वरिष्ठ पत्रकार अच्युतानंद मिश्र ने की.सेमिनार में दूरदर्शन के महानिदेशक लीलाधर मंडलोई,आज समाज के समूह संपादक राहुल देव,अमर उजाला के सलाहकार संपादक अजय उपाध्याय,आईबीएन 7के प्रबंध संपादक आशुतोष,दूरदर्शन के पूर्व डीडीजी एमपी लेले,टाइम्स फाउंडेशन के निदेशक पूरन चंद्र पांडे,जी न्यूज के प्रसिद्ध एंकर व वरिष्ठ पत्रकार पुण्य प्रसून वाजपेयी,साधना न्यूज चैनल के प्रमुख व ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोसियेशन के महासचिव एन के सिंह,इंडिया न्यूज के प्रबंध संपादक कुर्बान अली,एनडीटीवी के कार्यकारी संपादक संजय अहिरवाल,न्यूज एक्सप्रेस चैनल के प्रमुख मुकेश कुमार,वरिष्ठ लेखक व चैनल पी 7के प्रोग्रामिंग हेड शरद दत्त,दूरदर्शन के पूर्व चीफ प्रोड्यूसर कुबेर दत्त और लेखिका व मीडिया समीक्षक वर्तिका नंदा भी मौजूद थीं.


पत्रकार और कवि लीलाधर मंडलोई : जनवाणी के पचीस वर्ष पुरे 

अतिथियों का स्वागत करते हुए प्लानमैन मीडिया के प्रबंध संपादक सुतनु गुरु ने कहा कि मीडिया जनता के लिए होती है और वह जनता प्रति जवाबदेह है और वह अपनी जवाबदेही से नहीं मुकर  सकती. वरिष्ठ   पत्रकार अच्युतानंद मिश्र ने अपने अध्यक्षीय संबोधन में कहा कि भारत में मीडिया अपने सबसे निचले पायदान पर पहुंच गई है. अब इसके साख को बचाने का समय है. किसी लोकतंत्र में मीडिया इतनी मजबूर नहीं होनी चाहिए कि वह बाजार के सामने घुटने टेक दे.इस प्रवृति से बाहर आने की दिशा में कदम उठाने का समय है.

आईबीएन 7 के प्रबंध संपादक आशुतोष ने कहा कि हिंदुस्तान बदल रहा है, इस बदलाव के दौर में मीडिया भी बदल रही है लेकिन यह बदलाव सकारात्मक है.इस पर आंसू बहाने की जरुरत नहीं है. ये बात सच है कि 2004-05 और 2009 में मीडिया के कृत्यों से इसके साख पर बट्टा जरूर लगा. लेकिन इसने फिर खुद को संभाल लिया.दुनिया के जिस कोने में मीडिया स्वतंत्र है वहां मिस्र जैसे हालात पैदा नहीं हो सकते.  मीडिया ही है जिसने भारतीय समाज के मनोबल को ऊंचा रखा है.

आज समाज के समूह संपादक राहुल देव ने कहा कि मीडिया पर बाजार भारी है और इससे लड़ने की मीडिया के पास ताकत नहीं है.ऐसी स्थिति में इससे ज्यादा उम्मीद की कल्पना कैसे की जा सकती है. सबसे पहली जरुरत है कि मीडिया को बाजार के दबाव से मुक्त कराया जाए, हालांकि यह दुरुह कार्य है. लेकिन उम्मीदें बाकी हैं.

अमर उजाला के सलाहकार संपादक अजय उपाध्याय ने कहा कि भारतीय मीडिया अपनी सीमाओं का अतिक्रमण नहीं करती, संतुलित है, लेकिन यह लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है या नहीं, इस पर नये सिरे से मंथन करना होगा. मीडिया की जनपक्षधरता पर हमेशा से सवाल उठाये जाते रहे हैं. यह कोई नई बात नहीं है लेकिन यह भी सही है कि इन सारी चुनौतियों के बीच मीडिया जनता की आवाज को एक मंच जरुर देती है.

वरिष्ठ टीवी पत्रकार पुण्य प्रसून वाजपेयी ने कहा कि आज मीडिया नफा-नुकसान के गणित को ध्यान में रख कर अपनी दिशा तय कर रही है.इसके लिए मीडिया को अकेले जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता,पूरी व्यवस्था ही जिम्मेदार है. नैतिकता कहने की चीज हो गई है अपनाने की नहीं. वास्तव में वैकल्पिक बहस ही बंद हो गई है.

ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन के महासचिव और साधना न्यूज के चैनल हेड एन के सिंह ने कहा कि जहां ज्यादा पैसा है वहीं टैम मीटर लगे हैं और वही समाचार चैनलों की दिशा तय करते हैं. जब तक टीआरपी के झमेले से चैनल मुक्त नहीं होंगे.जनपक्षधरता हाशिये पर रहेगी. उन्होंने कहा कि जहां तक कंटेंट का सवाल है, तो दो वर्षों में भारतीय मीडिया के कंटेंट का स्तर काफी बेहतर होगा, इसका विश्वास दिलाता हूं.

इंडिया न्यूज के प्रबंध संपादक कुर्बान अली ने कहा कि देश मीडिया पर बहुत ज्यादा निर्भर नहीं है. देश की जनता जागरूक है.एनडीए की फील गुड और शाइनिंग इंडिया को नकार कर अयोध्या मामले के फैसले के दिन देश में अमन रख कर जनता ने अपने जागरुक होने का सबूत दे दिया है.इस उपलब्धि में मीडिया का कोई रोल नहीं था.अब समय आ गया है कि मीडिया अपने साख और दायित्व तय करे.

एनडीटीवी इंडिया के कार्यकारी संपादक संजय अहिरवाल ने कहा कि अब खबरिया चैनलों को अपने कंटेंट पर ध्यान देना होगा,नहीं तो देश की जनता उन्हें नकार देगी और इसके साथ ही वे अपनी साख बरकरार नहीं रख पाएंगे.बाजार के दबाव और अपनी नैतिकता के बीच का कोई रास्ता निकालना होगा.

वरिष्ठ पत्रकार जफर आगा ने कहा कि वर्तमान दौर में टीआरपी ने समाचार चैनलों की दिशा तय कर दी है. ऐसे में सवाल उठता है कि क्या पत्रकारिता अब बेमतलब की चीज हो गई है.

मंच संचालन द संडे इंडियन हिंदी व भोजपुरी संस्करण के कार्यकारी संपादक तथा ब्रॉडकास्टर्स क्लब ऑफ इंडिया के कार्यकारी अध्यक्ष ओंकारेश्वर पांडेय ने किया.सेमिनार के समापन से पहले प्रो. अरिंदम चौधरी ने पूरी चर्चा का सार संक्षेप रखा और इस ऐतिहासिक आयोजन में सहभागी बनने के लिए टाइम्स फाउंडेशन के निदेशक पूरन पांडेय तथा सेमिनार में आये मीडिया के दिग्गजों का आभार व्यक्त किया. आखिर में प्रो. अरिंदम चौधरी और श्री पूरन पांडेय ने सभी अतिथियों को स्मृति चिन्ह भेंट कर उन्हें सम्मानित किया.





पिकनिक पार्टी नहीं है महिला दिवस


महिला दिवस पर सौंदर्य प्रसाधन और तरह-तरह के वस्त्राभूषण बनाने वाली कंपनियाँ फैशन शो आयोजित करती हैं।  लेकिन ये समझना जरूरी है कि महिला दिवस सिर्फ औरतों के पहनने-ओढ़ने या सिर्फ पिकनिक-पार्टी का ही दिन नहीं है...


महिला दिवस के कार्यक्रमों की श्रृंखला में भारतीय महिला फेडरेशन और घरेलू कामकाजी महिला संगठन की इंदौर इकाई ने 11 मार्च 2011 को ‘कामकाजी महिलाओं के संघर्ष और उनकी ताकत’ विषय पर व्याख्यान,  नाटक और महिलाओं की रैली का आयोजन किया गया। अर्थशास्त्री डॉ. जया मेहता ने कहा कि एक तरफ सरकार खाद्य सुरक्षा कानून को लगातार टालती जा रही है तो   दूसरी तरफ अनाज को विशाल कंपनियों के चंगुल में फँसाना चाहती है, जिनका मुख्य मकसद गरीब जनता का पेट भरना नहीं बल्कि मुनाफा कमाना है।

जया मेहता ने जोर देते हुए कहा कि देश के लोगों की आधी आबादी को भरपेट अनाज  नसीब नहीं होता। देश की 45प्रतिशत महिलाएँ रक्ताल्पता यानी एनीमिया से पीड़ित हैं। कमजोर माएं  कमजोर बच्चों को जन्म देती हैं। नतीजा ये है कि हमारे देश में कुपोषित बच्चों की तादाद दुनिया में सबसे ज्यादा है। इन कमजोर बच्चों का मस्तिष्क भी पूरी तरह विकसित नहीं हो पाता। जिन्हे भरपेट खाना तक नहीं मिल पाता, वे भला अमीर और मध्यम वर्ग के बच्चों के साथ किस तरह तरक्की की दौड़शामिल हो सकते हैं।

शहीद भवन पर आयोजित इस सभा को संबोधित करते हुए घरेलू कामकाजी महिला संगठन की ओर से सिस्टर रोसेली ने कहा कि महिलाओं को भी ये समझना चाहिए कि उनकी समस्याओं का हल धार्मिक जुलूसों में शामिल होने से नहीं निकलेगा। उन्हें संगठित होकर अपनी लड़ाई लड़नी होगी। हमें उन्हें जोड़ने के और मजबूत उपाय करने चाहिए।

आँगनवाड़ी यूनियन की अनीता  ने कहा कि 21 बरस से लड़ते-लड़ते उन्होंने रु. 275 मासिक से 1500 और अब 3000 का वेतन हासिल हुआ है। ये लड़ाई जारी रखनी होगी नहीं  तो सरकार कुछ नहीं देने वाली। सभा को निर्मला देवरे और मनीषा वोह ने भी संबोधित करते हुए कहा कि हम मजदूर औरतों को एक-दूसरे की मदद के लिए साथ आना चाहिए.



कार्यक्रम की एक अन्य वक्ता  कल्पना मेहताने‘स्वास्थ्य की राजनीति का शिकार बनतीं महिलाएँ’ विषय पर बात रखी .कल्पना ने बताया कि  अमेरिका व अन्य विकसित देश भारत जैसे तीसरी दुनिया के देशों की महिलाओं पर तरह-तरह के गर्भ-निरोधक आजमाते हैं और अशिक्षित व जागरूकताहीन जनता की जिंदगी के साथ नेता,अफसर और कंपनियाँ खिलवाड़ करती हैं।

भारतीय महिला फेडरेशन की सचिव सारिका श्रीवास्तव ने गतिविधियों का ब्यौरा देते हुए पिछले वर्ष  दिवंगत हुए कॉमरेड अनंत लागू और कॉमरेड राजेन्द्र केशरी को सभा की ओर से श्रृद्धांजलि दी। सभा का संचालन पंखुड़ी मिश्रा ने किया।

सभा के अंत में महिला मजदूरों के संघर्षों पर आधारित एक नाटक की प्रस्तुति हुई जिसमें गारमेंट फैक्टरी में काम करने वालीं, बीड़ी बनाने वालीं, भवन निर्माण मजदूरी करने वालीं और जमीन से बेदखली की परेशानियों से लड़ने वाली आम मेहनतकश महिलाओं के जीवट और जोश की कहानियाँ थीं। नाटक का शीर्षक था ‘जब हम चिड़िया की बात करते हैं’। नाटक में पंखुड़ी, रुचिता, सारिका, नेहा, शबाना, रवि और आशीष ने अभिनय किया।




Mar 12, 2011

दोनों निर्दोष आज भी जेल में


गाँव वाले अगले दिन दोनों को चारपाई पर डाल कर सरपंच को साथ में लेकर दंतेवाडा पहुँच गए .हमने पत्रकारों को बुलाया और कहा कि  भाई इनकी भी सुन लो...


हिमांशु कुमार

विनायक तो सरकारी नज़रों में इसलिए नक्सली हो गए क्योंकि उन्होंने 'माओवादी के पत्र किसी को ले जाकर दिए'.  परन्तु सरकार ने एक बार अपना अपराध छिपाने की कोशिश के तहत मुझे भी नक्सलियों का इलाज कराने का इल्ज़ाम लगा कर फंसाने की कोशिश की थी. ऐसी ही एक मज़ेदार घटना बताता हूँ.

एक अख़बार में छपा कि  'बैलाडीला स्थित एस्सार के पाइप लाइन प्लांट के पास पुलिस ने दो नक्सलियों को एक एन्काउन्टर में मार गिराया है.'  परन्तु आस पास के ग्रामीणों का कहना था की पुलिस गप्प मार रही है. नंदनी सुन्दर भी दंतेवाडा आयी हुई थीं !हम दोनों ने घटना की सच्चाई जानने का फैसला किया . और पूछते हुए उनके गाँव पहुंचे . गाँव वालों ने बताया की असली कहानी यह है की खेती का मौसम हो रहा है और इस समय सभी आदिवासी अपने पशुओं को हल चलाने के लिए ढूँढते हैं.
किरंदुल थाने के बाहर इंतजार में परिजन
चार गाँव वाले अपने जानवर ढूंढ कर वापस लौट रहे थे. फ़ोर्स गश्त पर थी पुलिस ने अँधेरे में इन लोगों को देख कर गोली चला दी. दो लोग वही म़र गए. बाकी के दो लोगों में से एक की जांघ में और दूसरे की बाजू में गोली लगी .पुलिस ने फटाफट बयान दे दिया की उसने दो नक्सलियों को मार गिराया है.  बाकी बचे दोनों घायलों को पुलिस ने चुपचाप किरंदुल के सरकारी अस्पताल ले जाकर फर्स्ट ऐड करा कर घर भगा दिया.  

मैंने और नंदिनी ने ग्रामीणों के इस बयान की तस्दीक करने का फैसला किया और बताया की हम दोनों घायलों से मिलना चाहते हैं .गाँव वाले हमें उनके घर ले गए .गाँव वालों का विवरण बिलकुल सच था सच्चाई हमारे सामने पडी कराह रही थी. दोनों आदिवासियों के घावों से मवाद बह रहा था .

दोनों के पास किरंदुल के सरकारी अस्पताल में इलाज होने के सबूत के तौर पर वहां का परचा भी मौजूद था! हमने दोनों की ओर से दो पत्र बनाये. घटना का विवरण देते हुए जाँच की मांग करते हुए एक एसपी के नाम और दूसरा राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के नाम पर .शाम होने लगी थी हमने गाँव वालों से दोनों घायलों को अगले दिन दंतेवाडा लाने का आग्रह किया . गाँव वाले अगले दिन दोनों को चारपाई पर डाल कर सरपंच को साथ में लेकर दंतेवाडा पहुँच गए .हमने पत्रकारों को बुलाया और कहा कि  भाई इनकी भी सुन लो. अखबारों ने दोनों घायलों का बोला हुआ भी छाप दिया.

अब पुलिस घबराई . ये घायल आदिवासी हमारे आश्रम में सपरिवार रह रहे थे और हमारे कार्यकर्ता इनको रोज़ अस्पताल ले जाकर मरहम पट्टी करा कर वापिस आश्रम ले आते थे. एक दिन मैं कहीं से लौटा तो आश्रम में सारे कार्यकर्ता एक जगह खड़े होकर कुछ चर्चा कर रहे थे . पता चला थोड़ी देर पहले आदिवासियों की तरह लूंगी पहन कर एक आदमी आश्रम में आया था और दोनों घायल आदिवासी कहाँ हैं पूछ रहा था और कह रहा कि मैं इनका भाई हूँ और इन्हें घर ले जाने आया हूँ .
नंदिनी सुन्दर

परन्तु उनमें से एक की पत्नी वहीं थी उसने गोंडी भाषा में  बताया की ये तो थाने का पुलिस वाला साहब है,हमारा भाई नहीं है. कार्यकर्ताओं ने उससे कहा की अभी हिमांशु जी नहीं हैं आप थोड़ी देर में आना. और एक कार्यकर्ता उसके पीछे गया तो सचमुच थोड़ी दूर पर हथियारबंद लोगों से भरी पुलिस की एक जीप जंगल में छिप कर खड़ी की गयी थी . इसके बाद हमारे एक पत्रकार मित्र ने कहा की वो इन दोनों को वो बिलासपुर हाईकोर्ट तक ले जायेंगे और इनके विषय में एक रिट दायर करेंगे .

मैं तैयार हो गया दोनों आदिवासियों को उन्हें साथ ले जाने दिया . वो रायपुर गए वहां एक मानवाधिकार कार्यकर्त्ता ने उनसे कहा की इस मामले को वो राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के सामने ले जायेंगे और कोर्ट में ले जाने से न्याय मिलने में बहुत समय लग जायेगा .और वो पत्रकार बंधू उन्हें वहीं से वापिस ले आये और सीधे उन्हें उन के गाँव पहुंचा दिया .पुलिस तो सूंघ ही रही थी . उसने दोनों को पूछताछ के बहाने थाने बुलाया और फरार नक्सलियों का फर्जी केस बना कर दोनों को जेल में डाल दिया. दोनों निर्दोष आदिवासी आज भी जेल में हैं.

मेरा आश्रम टूटने के बाद दंतेवाडा के एस पी मुझसे बोले की हिमांशु जी आपका आश्रम तो हमने इसलिए तोडा की आप वहाँ फरार नक्सलियों को रख कर इलाज कराते थे.मैंने कहा आप मुझ पर केस करिए मैं अदालत में किरंदुल अस्पताल की पर्चियां पेश करूंगा,जिसमें आपने उन्हें फर्स्ट ऐड करा कर घर जाने दिया था.

क्या पुलिस नक्सलियों का फर्स्ट ऐड भी कराती है? और फिर उन्हें आराम से घर भी जाने देती है ? एस पी साहब चुप हो गए . और इस मामले में भी हम बाकी सारे मामलों की तरह उन दोनों निर्दोषों को कोई न्याय नहीं दिलवा पाए. अलबत्ता हमने उन बेचारे आदिवासियों की मुसीबतें और भी ज्यादा बढ़ा दीं थी.

 


दंतेवाडा स्थित वनवासी चेतना आश्रम के प्रमुख और सामाजिक कार्यकर्त्ता हिमांशु कुमार का संघर्ष,बदलाव और सुधार की गुंजाईश चाहने वालों के लिए एक मिसाल है.उनसे vcadantewada@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.





Mar 11, 2011

पूंजीवादी गणतंत्र में वामपंथी विफलता



वामपंथियों को अपना सांगठनिक ढाँचा बदलना पडे़गा और उसे खुला और जनवादी बनाना पड़ेगा।  दूसरा भारत की बड़ी आबादी युवा है,उस युवा वर्ग को वामपंथ क्या ऑफर करता है, उसे देने के लिए क्या है...

 अनिल राजिमवाले

भारतीय सन्दर्भों में वामपंथ को समझना पडे़गा कि चूक कहाँ हुई है?उसने अवसरों का फायदा क्यों नहीं   उठाया? आजादी के बाद भारतीय राजनीति में वामपंथ का उभार एक शक्ति, एक विकल्प के रुप में हुआ जिसमें आगे चलकर ठहराव आ गया और अन्ततोगत्वा अब उसका जनाधार तुलनात्मक रूप से लगातार घट रहा है।

केरल में 1957 में कम्युनिस्ट दुनिया में पहली बार चुनकर सत्ता में आए यह वामपंथी आंदोलन के लिए नया अनुभव और भारतीय वामपंथ का दुनिया के कम्युनिस्ट इतिहास में बड़ा योगदान था।  पश्चिम बंगाल में कम्युनिस्ट सरकार का चुना जाना और लम्बे समय तक शासन करना भी एक बड़ी उपलब्धि थी परन्तु भारतीय वामपंथ की यह उपलब्धियाँ देश की राजनीति में कोई विकल्प नहीं बन सकीं । हालाँकि  भूमि सुधार, कानून व्यवस्था को दुरुस्त करने और साम्प्रदायिक सद्भाव बनाए रखने जैसे अच्छे काम भी किए।

दरअसल देश में वामपंथ को माडल बनाने के जो  मौके मिले जिसका कम्युनिस्ट फायदा नहीं उठा पाए। उन्हें समझना चाहिए था कि पूँजीवादी संविधान के दायरे में रहते हुए वे क्या बेहतर कर सकते थे, जिससे वामपंथ को देश की राजनीति में एक विकल्प के तौर पर उभरने का मौका मिल पाता। इसके अलावा हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि वर्तमान भारतीय संविधान की बहुत सारी बातें वाम जनवादी संघर्षों  का ही नतीजा हैं।

मसलन भारतीय संविधान और गणराज्य का धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी स्वरूप जिसे आज दक्षिणपंथी शक्तियाँ और पूँजीवाद लाख कोशिशों के बाद भी बदलवाने में सक्षम नहीं हो सके हैं। इसी संविधान के दायरे में रहते हुए वामपंथ जहाँ वह सत्ता में है,विकास का एक नया एवं वैकल्पिक मॉडल   तैयार कर सकता था। उसके पास शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं  का एक सार्वजनिक तंत्र विकसित करने का अवसर हमेशा था जिसका वामपंथ ने लाभ नहीं उठाया। वे सत्ताधारी राज्यों में सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों का एक बेहतरीन मॉडल  बनाकर पेश कर सकते थे। सार्वजनिक क्षेत्र की यातायात व्यवस्था का विकास किया जाना चाहिए था.

वामपंथी लैटिन अमरीकी माडल

लैटिन अमरीका के वामपंथ की अपनी कुछ विशेषताएँ हैं। उन्होंने पार्टी, सरकार और जनवाद से जुड़ी हुई कुछ स्थापित परम्पराओं और अवधारणाओं को छोड़ा है। लैटिन अमरीका में एक तरह से वामपंथ का नवीनीकरण हुआ है, विशेषतया चुनावों के संदर्भ में उन्होंने शानदार कामयाबी हासिल की है। कई वामपंथी नेता बार-बार चुनकर आ रहे हैं और उस पर कमाल यह कि लैटिन अमरीकी देशों की सेनाएँ भी उनका साथ दे रही हैं। इस वामपंथ की एक और विशेषता है कि इन बदलावों में युवा और महिलाओं की खास भागीदारी है।

पूरे लैटिन अमरीका के वामपंथी बदलाव में एक समान कारक भी हैं कि ये आंदोलन मूल रुप से साम्राज्यवाद विरोधी हैं। लैटिन अमरीकी घटनाएँ पूंजीवाद की भीतरी संभावनाओं का कैसे इस्तेमाल किया जा सकता है,उसका नायाब उदाहरण हैं। ये वामपंथी आंदोलन पूँजीवाद को उखाड़ फेंकने का नारा नहीं दे रहे हैं,केवल साम्राज्यवाद विरोध का नारा दे रहे हैं और यहाँ वामपंथ समाज का स्वाभाविक हिस्सा बनकर उभरा है.

दक्षिण अफ्रीकी वामपंथ

दुनिया में वामपंथ के इन दो रूपों के अलावा वामपंथ का तीसरा प्रयोग दक्षिण अफ्रीका है। इस दक्षिण अफ्रीकी वामपंथ की जडे़ं उसकी आजादी के राष्ट्रीय आंदोलन में हैं। दक्षिण अफ्रीकी वामपंथ के अभिन्न अंग कम्युनिस्ट पार्टी की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि वह कभी भी दक्षिणी अफ्रीकी राष्ट्रीय आंदोलन से अलग नहीं हुई.

राष्ट्रीय आंदोलन में भागीदारी के प्रमुख हिस्से के तौर पर कम्युनिस्ट पार्टी हमेशा अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस का हिस्सा रही है। सरकार संचालन और देश के विकास की नीतियों को प्रभावित करने के बाद भी कम्युनिस्ट पार्टी दक्षिण अफ्रीका के राजनैतिक जीवन का स्वाभाविक अंग बनी रही और उसने कभी ऐसा महसूस नहीं होने दिया कि कुछ भी असामान्य हो रहा है।


गौरतलब है कि पश्चिम बंगाल की यातायात व्यवस्था का अधिकांश हिस्सा निजी हाथों में है। आज दिल्ली की मेट्रो जो देशभर में चर्चा का विषय है. उसकी जगह उससे कहीं बहुत पहले बनी कलकत्ता की मेट्रो को अधिक विकसित करके देशभर के सामने एक उदाहरण  की तरह पेश किया जा सकता था। आज के बडे़-बड़े माल्स की जगह सुपर मार्केट्स का निर्माण किया जा सकता था जो पहले कईं जगह पर रहे भी हैं। वाम शासित राज्यों  खासतौर पर पश्चिमी बंगाल में बेहतर न्युनतम् वेतन देने और उसे ईमानदारी से लागू करवाने का विकल्प बनाकर देश के सामने एक प्रेरणाप्रद काम किया जा सकता था, जिसमें वामपंथ विफल रहा है।

असल में एक वामपंथी सरकार को एक मॉडल  की तरह होना चाहिए था। परन्तु अपनी कईं विशेषताओं के बावजूद पश्चिमी बंगाल दूसरे राज्यों से ज्यादा पिछड़ा राज्य बनकर रह गया। जिस कारण भ्रष्टाचार संस्थागत रूप धारण कर गया और एक विशेष सुविधा प्राप्त शासकीय वर्ग पैदा हो गया जिसने जनता को अन्ततोगत्वा अपना दुश्मन बना डाला। इससे यह भी सीख मिलती है कि एक सही वामपंथी मोर्चा और गलत वामपंथी मोर्चा चलाने में क्या फर्क होता है। वामपंथी मोर्चा केवल पार्टियों का नहीं आम तबको का, आम आदमी का मोर्चा होना चाहिए।

जब तक वामपंथ इस व्यवस्था की खूबियों और खामियों को नहीं समझेगा तब तक इस व्यवस्था को अपने पक्ष,अपने फायदे में प्रयोग करने में नाकाम रहेगा। इसी संसदीय व्यवस्था के तहत ही दक्षिणपंथी शक्तियों को कमजोर किया जा सकता है क्योंकि दक्षिणपंथ बुनियादी तौर पर लोकतंत्र और लोकतान्त्रिक संसदीय व्यवस्था के खिलाफ होता है। यही कारण है कि दक्षिणपंथ समय-समय पर लोकतंत्र व संसदीय व्यवस्था की धर्मनिरपेक्ष एवं जनवादी परम्पराओं और अवधारणाओ पर हमले करता है। 

 वामपंथ की जिम्मेदारी है कि वह संसदीय व्यवस्था की खूबियों का इस्तेमाल करे और दक्षिणपंथ को कमजोर करते हुए जनता के पक्ष में काम करने के लिए इस व्यवस्था का उपयोग करे और उसकी कमियों को दूर करने के लिए संघर्ष भी करे। वामपंथी जब संसदीय व्यवस्था में शामिल होते हैं तो उनके लिए सारे संदर्भ बदल जाते हैं और इन्हीं नए संदर्भों में वामपक्ष को समझना पड़ेगा  कि उन्हें इस व्यवस्था में काम कैसे करना पडे़गा। 1957 में संसदीय राजनीति में आने के साथ ही सत्ता में आया वामपंथ अभी भी संसदीय जनतंत्र को समझने में पिछड़ रहा है।

गणतंत्र जनता का हथियार है और उसे जनता के अनुसार उसकी बेहतरी के लिए ही मास्टर करना पडे़गा क्योंकि जनता कोई काल्पनिक चीज नहीं है। इसके लिए वामपंथियों को अपना सांगठनिक ढाँचा भी बदलना पडे़गा और उसे खुला और जनवादी बनाना पडे़गा। कुछ भी छिपाकर आज के दौर में काम नहीं चलेगा. अब तो पूँजीवादी दल तक छिपा पाने में असमर्थ हैं। कुछ नेताओं और गुटों तक सांगठनिक सत्ता को नियन्त्रित एवं केंद्रित वाली कार्यप्रणाली को बदलना ही होगा। इसके अलावा भारत की बड़ी आबादी युवा है.अब सवाल यह है कि उस युवा वर्ग को वामपंथ क्या ऑफर करता है, उसे देने के लिए उसके पास क्या है। इन सवालों को हल किए बगैर वामपंथ आगे नहीं बढ़ सकता है।

इसके अलावा भ्रष्टाचार भी आज एक बड़ा सवाल है कि क्या भ्रष्टाचार से मुक्त सरकार चलाई जा सकती है। सी0अच्युतामेनन की सरकार ने 1969में यह करके दिखा दिया जिससे सीख ली जा सकती है। इसके अलावा जनहित में भी कईं काम अच्युतामेनन सरकार ने किए जिनसे सीख ली जा सकती है,जैसे पूर्ण भूमि सुधार,सबको शिक्षा की उपलब्धि और दलितों के लिए एक लाख आवास आदि।

(महेश राठी से बातचीत पर आधारित)  

 
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के शिक्षा विभाग से संबद्ध और मार्क्सवादी बुद्धिजीवी. समय-समय पर मार्क्सवादी दर्शन को नए वैज्ञानिक विकास से जोड़कर विकसित करने की कोशिश.




बंद हो शादी के लिए पढाई


शिक्षा में आ रही बाधाओं के निराकरण के लिए जिला स्तर पर समिति का गठन हो और गांव में शिक्षा व्यवस्था को दुरूस्त करने के साथ ही तकनीकी शिक्षा से लड़कियों को जोड़ा जाये...

संजीव कुमार

पहले महिलाओं के लिए शिक्षा का उद्देश्य अच्छा वर पाने की संभावना और सामाजिक प्रतिष्ठा के लिए पढ़ाई करना ही था, जिसका रास्ता शादी के बाद रूक जाता था। लेकिन दशक भर से शिक्षा के प्रसार से गांव-देहात और शहरों के पिछडे -गरीब  परिवारों में स्कूल भेजने का चलन धीरे-धीरे बढ़ा है. दूसरा लोगों को भी लगने लगा है कि  महिलाओं के लिए शिक्षा का सशक्तिकरण ही समाज में बराबरी का असल तरीका है.


शिक्षित महिला : सशक्त समाज
 उन्हें घर में चौकाबर्तन और सिलाई, कढ़ाई, के कार्यों तक ही सीमित कर दिया जाता था। सन् 1946 में अविभाजित भारत के विश्वविद्यालयों में या उनके विभिन्न शाखाओं में 45000 स्त्रियां ही थी।उस समय की स्थिति के अनुसार विद्यार्थियों के प्रतिशत के हिसाब से 100पुरुष विद्यार्थियों के पीछे करीब 11 महिला विद्यार्थी ही शिक्षा ग्रहण कर रही थी। आठवें  दशक के अंत में शिक्षा ग्रहण करने वाली लड़कियों की संख्या आठ लाख तक पहुंच गयी।

देश की आजादी के बाद और पाकिस्तान के निर्माण के साथ ही यह अनुपात 11 से बढ़कर 29 तक पहुंचा। आज यहां देश में लड़कियां पारिवारिक व सामाजिक परम्पराओं को निभाती हुई कला, साहित्य, तकनीक के क्षेत्र में आगे बढ़ रही है। वहीं महिलाएं पुरुषों के मुकाबले बौद्धिक क्षेत्र. में कहीं भी पीछे नहीं है।

प्रशासनिक सेवा राजनीतिक क्षेत्र में तमाम ऐसे महिलाओं के व्यक्तित्व है जो महिला सशक्तिकरण के लिए मिसाल बने हुए हैं,लेकिन इन सब बढ़ोत्तरी के बाद भी संसार के सभी निरीक्षरों में भारत प्रमुख  है। इसमें महिलाएं सबसे अधिक है। महिला को साक्षर और शिक्षा के अभियान में अब तक जितना आगे आ जाने चाहिए था वह इतना आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं।

एसोसिएशन आफ इंडियन यूनिवर्सिटीज के आंकड़ों के अनुसार देश में 35 प्रतिशत महिलाएं जो कि 15 वर्ष से अधिक की है शिक्षा प्राप्त कर सकी है, जबकि दुनिया के अन्य देशों में यह आंकड़ा 85 और 90 प्रतिशत तक है। उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान और मध्यप्रदेश में महिला निरीक्षरता आज भी अत्यधिक है। जबकि इनके मुकाबले केरल, हिमाचल, कर्नाटक, तमिलनाडू, गोवा में महिलाएं शिक्षा के सहारे आत्मनिर्भर बनी हुई है।

हाल ही में जनगणना अभियान 2011 द्वितीय चरण पूरा हुआ है। इस बार इस जनगणना के द्वारा देश भर के शैक्षिक सामाजिक और आर्थिक महिलओं से जुड़े हुए आंकड़े सामने आयेंगे। जनगणना 2001 के अनुसार महिला साक्षरता का राष्ट्रीय औसत 53.7 था। राष्ट्रीय स्तर पर जुटाये गये आंकड़ों के अनुसार नगरीय क्षेत्र में महिला साक्षरता दर जहां 72.9थी,वहीं ग्रामीण अंचलों में यह 46.1 प्रतिशत थी। यही स्थिति महिला कार्य सहभागिता दर के साथ ही लिंगानुपात में भी है।

महिला सशक्तिकरण के लिए सबसे पहले समाज में लिंग अनुपात में आ रहे असंतुलन को ठीक करना होगा। इसके लिए कन्या भ्रूण हत्या के विरूद्ध समाज की मानसिकता बदलनी होगी। क्योंकि बेटियां भी अपनी आंखों में लड़कों जैसे सपने रखती है और आत्मनिर्भर बनना चाहती है।

सरकारी स्तर पर महिलाओं के कल्याण के लिए संवैधानिक और नैतिक तरीकों से महिला सशक्तिकरण व उनके शिक्षा के सशक्तिकरण के लिए काम करने की अधिक आवश्यकता है। महिलाओं को शिक्षित करने के लिए उन्हें स्नातक स्तर तक अनिवार्य मुफ्त शिक्षा दी जाये। सामाजिक और पारिवारिक कारणों से शिक्षा में आ रही बाधाओं के निराकरण के लिए जिला स्तर पर समिति का गठन हो और गांव में शिक्षा व्यवस्था को दुरूस्त करने के साथ ही तकनीकी शिक्षा से लड़कियों को जोड़ा जाये।

लिंग समानता के साथ ही बालिकाओं के पोषण पर ध्यान दिया जाये। तभी समाज में महिला और बालिकाओं की शिक्षा में प्रगति होगी और महिला सशक्तिकरण का एक नया रूप देखने को मिलेगा।


(लेखक पत्रकार हैं, उनसे    goldygeeta@gmail.com  पर संपर्क किया जा सकता है.)

Mar 10, 2011

डाका डालती मोबाइल कम्पनियां


कमोबेश  सभी मोबाईल कंपनियों  के उपभोक्ता अपनी-अपनी मोबाईल फ़ोन कंपनी द्वारा की जाने वाली  नाजायज़ वसूली तथा लालच परोसने के तरीकों से अत्यंत दु:खी हैं...

निर्मल रानी

एक दशक पूर्व जब भारत में मोबाईल फोन सेवा प्रदान करने वाली कंपनियों ने कदम रखा उस समय भारतीय उपभोक्ताओं को यह सेवा किसी चमत्कार से कम नहीं लगी। शुरु-शुरु में मोबाईल फोन सेट बेचने वाली कंपनियों ने जहां अपने पुराने मॉडल के भारी-भरकम मोबाईल सेट मंहगे व मुंह मांगे दामों पर भारतीय उपभोक्ताओं के हाथों बेच डाले वहीं मोबाईल फोन सेवा प्रदान करने वाली संचार कंपनियों ने भी आऊट गोइंग व इनकमिंग कॉल्स के अलग-अलग मोटे पैसे वसूल कर भारतीय उपभोक्ताओं की जेबे खूब खाली कीं।

अब इन दस वर्षों में चूंकि संचार क्षेत्र में अत्यधिक प्रतिस्पर्धा देखी जा रही है तथा एक से बढ़ कर एक स्वदेशी तथा विदेशी कंपनियां भारत जैसे दुनिया के सबसे बड़े उपभोक्ता बाज़ार में अपने  जाल फैला रही हैं इसलिए जनता को इस प्रतिस्पर्धा का लाभ ज़रूर प्राप्त हो रहा है। अब मोबाईल सुविधा उपलब्ध कराने वाली कंपनियों में शुल्क घटाने को लेकर प्रतिस्पर्धा मची देखी जा सकती है। मोबाईल फोन सेट भी पहले की तुलना में कहां अधिक सस्ते हो गए हैं।

लेकिन   मोबाईल सेवाएं उपलब्ध कराने वाली इन निजी संचार कंपनियों को शायद उपभोक्ताओं को मिलने वाली यह रियायत अच्छी नहीं लग रही है। तमाम निजी कंपनियां मोबाईल उपभोक्ताओं की जेबें खाली करने के नाना प्रकार के हथकंडे अपनाने से बाज़ नहीं आ रही हैं। तमाम निजी संचार कंपनियों ने अपने कार्यालय में ऐसे 'बुद्धिमान योजनाकारों'की नियुक्ति की हुई है जो कंपनियों को यह सलाह देते हैं कि किन-किन हथकंडों के द्वारा ग्राहकों की जेबों पर डाका डाला जाए। इस बारे में काफी समय से तमाम उपभोक्ता इन निजी संचार कंपनियों द्वारा उन्हें ठगे जाने के तमाम तरीके अक्सर बताते रहे हैं।

पिछले दिनों मेरा एक परिचित भी निजी मोबाईल सेवा प्रदान करने वाली कंपनी द्वारा की जाने वाली ठगी का शिकार हुआ। सर्वप्रथम तो मोबाईल फोन से प्रतिदिन कभी एक रुपया,कभी दो तो कभी-कभी तीन रुपये कटने लगे। जब उसने इस प्रकार पैसों की अकारण कटौती पर गौर किया तब तक उसके प्रीपेड मोबाईल खाते से काफी पैसे कट चुके थे।

तंग आकर उसने कनेक्शन   कस्टमर केयर सेंटर से संपर्क किया। पूछने पर यह पता चला कि 'आपने जॉब अलर्ट लगा रखा है इसीलिए आपके पैसे काटे जा रहे हैं। उसने जवाब दिया कि 'न तो मैंने कोई ऐसा जॉब अलर्ट लगाया है, न ही मुझे इसकी ज़रूरत है। और सबसे बड़ी बात तो यह कि आज तक मुझे जॉब संबंधी कोई सूचना या एस एम एस भी कंपनी ने नहीं भेजा,फिर पैसा क्यों और किस बात के लिए काटा जा रहा है'।

इस पर भी कस्टमर केयर सेंटर का 'तोता रटंत' कर्मी अपनी ही बात पर कहता रहा 'नहीं' जी आपने जॉब अलर्ट लगाया है और आपको जॉब अलर्ट भेजा जा रहा है। मेरे मना करने के बाद जॉब अलर्ट के नाम पर पैसे कटने का सिलसिला बंद हुआ। अभी यह सिलसिला बंद ही हुआ था कि उसके इसी मोबाईल खाते से पुन:पैसे कटने शुरु हो गए। फिर उसी तरह कभी दो तो कभी तीन रुपये। वह उपभोक्ता फिर विचलित हुआ। क्योंकि वह कोई व्यापारी या धनाढ्य व्यक्ति नहीं जोकि 1-2रुपये की कोई कीमत ही न समझे। उसने पुन:कस्टमर केयर से संपर्क साधा।

इस बार तो उसे बड़ा आश्चर्यचकित करने वाला जवाब सुनने का मिला। उसे बताया गया कि आपने 'करीना कपूर अलर्ट' लगा रखा है। अब ज़रा आप ही बताईए कि देश-दुनिया की उथल-पुथल की चिंताओं को छोड़कर आज के ज़माने में कोई हर पल क्यों यह जानना चाहेगा कि करीना कपूर कब, क्या कर रही है?करीना अलर्ट के नाम पर भी उसके काफी पैसे काट लिए गए।

इस घटना से उसका मन खट्टा हो गया। अब उसने पहली बार यह सोचा कि नंबर पोर्टेब्लिटी सेवा का लाभ उठा कर किसी अन्य कंपनी की सेवाएं ली जाएं। जब उसने इस संबंध में कार्रवाई शुरु की फिर एयरटेल कस्टमर केयर सेंटर से फोन आया कि आप क्यों कंपनी छोड़ रहे हैं। उसने कारण बताए, फिर उसे समझाने की कोशिश की गई।
अब आप ज़रा गौर कीजिए कि नंबर पोर्टेब्लिटी का आवेदन करने के बाद भी कई दिनों तक कंपनी द्वारा उसे यूपीसी अर्थात् पोर्टेब्लिटी कोड नहीं भेजा गया। जबकि परिचित यह बताया गया था कि पोर्टिंग आवेदन के बाद कुछ ही क्षणों में आपको पहली कंपनी द्वारा कोड नंबर उपलब्ध करा दिया जाएगा। जाहिर है ऐसी कंपनियां  साधारण उपभोक्ताओं से जबरन पैसे भी ठग रही हैं और दूसरी कंपनी में जाने भी नहीं दे रही हैं। इसे आप सरेआम डाका डालना या राहज़नी करना नहीं कहेंगे तो और क्या कहेंगे?
इसी कंपनी के कुछ और ठगी के कारनामे सुनिए। हमारे मोबाईल फोन पर कई बार इस प्रकार के संदेश आए कि बताएं-करनाल कहां है, ए-हरियाणा में या बी-बंगाल में। इसी के साथ लिखा होता था कि उत्तर दें -ए-हरियाणा। और जीतिए सेंट्रो कार या जीतिए सोने का सिक्का। अब ज़रा उपरोक्त क्विज़ व उसके बारे में दिए जा रहे हिंट पर गौर कीजिए। कितना घटिया प्रश्र व कितना घटिया हिंट देने का तरीका और इनाम में 'कार'?

शिवरात्रि है तो भजनों की टोन इनसे लीजिए, वेलेन्टाईन डे पर आशिक़ी-माशूकी के तरीके इनसे पता कीजिए,टिप्स व गाने इनसे खरीदिए। ज्योतिषी यह लिए बैठे हैं, एक घंटे पुराने क्रिकेट स्कोर बताने के पैसे यह वसूलते हैं,उल्टे-सीधे सवाल-जवाब क्विज़ के बहाने यह पूछते हैं।  ऐसा लगता है कि इन कंपनियों ने अपभोक्ता के समक्ष लालच परोसने की दुकान सजा रखी हो। और अफसोस की बात तो यह है कि यदि कोई उपभोक्ता इनके द्वारा सुझाई गई स्कीम्स के झांसे में नहीं भी आता तो कंपनियां उपरोक्त परिचित  उपभोक्ता की तरह अपनी योजनाएं ग्राहक के गले स्वयं मढ़ देती हैं।

इसी प्रकार यदि आप दूसरे राज्यों में घूम रहे हैं तो दिन में दो-तीन बार आप के नंबर पर रोमिंग कॉल की चपत भी पड़ सकती है। यह कॉल आपके किसी मित्र, संबंधी या व्यवसाय से संबंधित नहीं बल्कि कंपनी की ओर से अलग-अलग नंबरों से की जाती है।

मोबाईल फोन रिसीव करते ही कभी आपको सुनने को मिलेगा कि हैलो,मैं राजू श्रीवास्तव बोल रहा हूं तो कभी कोई अन्य हीरो या हीरोईन की आवाज़ आपको सुनने को मिलेगी। भले ही इन की आवाज़ सुनकर आपकी व्यस्तताओं में विघ्र पड़ रहा हो। परंतु इन कंपनियों को तो अपनी रोमिंग के नाम पर की जाने वाली एक या दो रुपये की ठगी से ही वास्ता है।

कमोबेश आज सभी मोबाईल कंपनीज़ के तमाम उपभोक्ता अपनी-अपनी मोबाईल फ़ोन कंपनी द्वारा की जाने वाली इस प्रकार की नाजायज़ वसूली तथा लालच परोसने के तरीकों से अत्यंत दु:खी हैं। टेलीकॉम रेगुलेटरी अथॉरिटी अर्थात् ट्राई को चाहिए कि वह ग्राहकों के साथ निजी मोबाईल कंपनियों द्वारा मचाई जाने वाली इस प्रकार की लूट-खसोट पर यथाशीघ्र अंकुश लगाए तथा पोर्टिंग के नियमों को सख्ती से लागू करने की व्यवस्था करे।

इसी के साथ-साथ ज़रूरत इस बात की भी है कि मोबाईल उपभोक्ताओं की दिनों-दिन बढ़ती संख्या तथा उनके साथ कंपनियों द्वारा ठगी के अपनाए जाने वाले नित नए तरीकों के चलते इस समस्या के समाधान हेतु प्रत्येक शहर में एक मोबाईल फोन उपभोक्ता अदालत का विशेष गठन भी किया जाए जहां उपभोक्ता को तत्काल राहत दिए जाने की व्यवस्था हो।



लेखिका सामाजिक-राजनीतिक विषयों पर लिखतीहैं,उनसे nirmalrani@gmail.कॉम  पर संपर्क किया जा सकता है.










साहित्य के मसखरों का मजावादी आयोजन


कुछ व्यक्तिगत कारणों से पुरस्कार ठुकरा देने या समारोह का बहिष्कार करने का मामला तो देखने में जब तब आता है,लेकिन किसी मुद्दे पर सरकार से टकराव की स्थिति में जाने के किसी मामले का सामने आना अभी बाकी है...

रंजीत वर्मा

रचनाकार की स्थानीयता तो पहले भी छोटी चीज मानी जाती थी,मगर अब तो यह पिछड़ेपन का प्रतीक बनकर रह गयी है। ऐसे में थोड़ा रुककर सोचने की जरूरत है कि पहले और अब के पिछड़ेपन के प्रतीक में कुछ अंतर आया है कि नहीं ?

अब स्थानीयता अपने रूप में विराटता लिए हुए दिखती है। भारी चमक-दमक के बीच देश-विदेश के अनेक लेखक, कवि, पत्रकार इकठ्ठे होते हैं, अनुवाद की आवाजाही तेजी से हो रही होती है। इसमें शामिल रचनाकारों को लगता भी है कि वे दुनिया के कोने-कोने तक पहुंच रहे हैं। मगर यहां दुनियाभर में अपनी सत्ता और अस्तित्व के लिए जद्दोजहद करते इंसान की अभिव्यक्ति के लिए कोई जगह नहीं होती।

यहां सबकुछ उत्सव के रंग में होता है। जाहिर है यह साहित्य का भूमंडलीकरण है, जिसके केंद्र में समस्या नहीं, बौद्धिकता का लिबास पहने मनोरंजन होता है। वहां भाषा पर बात की जाती है, बाजार पर बात की जाती है, लेकिन करवट लेते समय में इंसान की भूमिका पर कोई बात नहीं की जाती। अगर कोई करता है तो उसे हास्यास्पद करार दिया जाता है। उदाहरण के तौर पर जयपुर साहित्य उत्सव पर एक नजर डाली जा सकती है जो अभी हाल में संपन्न हुआ है।

ठेके का काम करने वाली डीएससी कंपनी द्वारा यह आयोजन प्रायोजित किया जाता है। इस कंपनी का नाम अभी हाल में तब सुर्खियों में आया जब राष्ट्रमंडल खेलों में किये गए घपले की जांच कर रहे केंद्रीय सतर्कता आयोग ने पाया कि डीएससी लिमिटेड को 23 प्रतिशत से अधिक की दर से ठेके आवंटित किये गए थे। यहां यह बता देना जरूरी है कि घोटले में इस कंपनी का नाम पहले आ चुका था और जयपुर में साहित्य का आयोजन बाद में हुआ।


 जावेद अख्तर, प्रसून जोशी और गुलजार:  मसखरी का सरोकार

और देखिए,सबकुछ जानते हुए भी इसमें शिरकत करने वाले कौन लोग थे। वहां संगीत कला अकादमी के अध्यक्ष थे। दिल्ली हिंदी अकादमी के अध्यक्ष भी वहां मसखरी करते लगातार उपस्थित थे। एक तरह से जवाबदेह सरकारी नुमाइंदे हैं ये लोग। उसी सरकार के जिसकी जांच एजेंसी ने डीएएसी कंपनी को घोटाले में लिप्त पाया है। और तो और वहां तो बतौर लेखक प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की पुत्री भी उपस्थित थीं। यह है साहित्य की भूमंडलीकृत छटा। विश्व दृष्टि की तो बात जाने दीजिए, यहां तो मामूली नैतिक दृष्टि का ढूंढ़ पाना भी मुश्किल है।

अगर यही एक कंपनी प्रायोजक होती तो कुछ हद तक क्षम्य भी था,लेकिन यहां तो शातिर कंपनियों की कतार थी। रियो टिंटो कंपनी भी इनमें से एक थी। खनन कंपनियों में इसका विश्व में तीसरा स्थान है। इस कंपनी का उसूल है दुनियाभर की फासीवादी और नस्लवादी सरकारों से गठजोड़ कर अपने धंधे को चमकाये रखना। इस पर दुनियाभर में मानवीय, पर्यावरण और श्रमिक अधिकारों के उल्लंघन के कई गंभीर आरोप लग चुके हैं।

एक तीसरी कंपनी भी थी। बड़ी नामी कंपनी है यह भी। ऊर्जा के क्षेत्र में इसका दुनिया में पहला स्थान है। नाम है शेल। इस पर संगीन आरोप है कि यह नाइजीरिया के लेखक और पर्यावरण कार्यकर्ता केन सारो वीवा की हत्या के लिए जवाबदेह है। यानी कि लेखकों,कवियों की हत्यारी कंपनियां साहित्य उत्सव प्रायोजित कर रही हैं।

जयपुर साहित्य उत्सव खत्म होने के एक दिन बाद ही गाले साहित्य उत्सव शुरू हो गया। यह 26 से 30 जनवरी तक चला। श्रीलंका सरकार की सेंसर नीति और अभिव्यक्ति पर हिंसक तरीके से अंकुश लगाने के विरोध में कई लेखकों ने इसका बहिष्कार किया। बहिष्कार करने वालों में आर्हेन पामुक भी थे,लेकिन वे जयपुर साहित्य उत्सव में शामिल थे। क्या उन्हें नहीं लगता कि जिस देश में पिछले पंद्रह सालों में दो लाख से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या की है और जहां माओवाद के नाम पर सरकार आदिवासियों को सीधे अपने निशाने पर ले रही है,वह सरकार श्रीलंका की सरकार से बेहतर नहीं हो सकती।

इनके अलावा ऐसे भी कई लेखक थे जिन्होंने वहां शामिल होने के बाद फिर बहिष्कार का रास्ता पकड़ा;जैसे कि दक्षिण अफ्रीका के डैमन गालगट। गाले में उत्सव शुरू होने के दो दिन पहले 24 जनवरी को प्रगीथ एकनालिगोडा नामक पत्रकार जब अपने दफ््तर से घर लौट रहे थे तो रास्ते में ही उन्हें गायब कर दिया गया। वे श्रीलंका की युद्धनीति के कटु आलोचक थे।

ऐसा माना गया कि इसमें सरकार का हाथ है। सरकार भी इस मामले में चुप्पी साधे रही। 25 तारीख को पत्रकार की पत्नी और पुत्र गाले उत्सव में तख्ती लेकर सरकार के विरोध में बैठ गए और लोगों के बीच पर्चा बांटा। पर्चे में श्रीलंका सरकार की कारस्तानियों का ब्योरा था। यह सब देखकर गालगट ने उत्सव से हटने का ऐलान वहीं कर दिया। कनाडा के लेखक लावरेंस हिल ने भी मंच से घटना की भत्र्सना करते हुए कहा कि इस देश में साहित्य का उत्सव मनाना अनुचित है,क्योंकि कोलम्बो की सरकार प्रतिरोध के स्वर को निशाना बना रही है।

बहिष्कार करने वालों में जिन लेखकों के नाम सबसे पहले सामने आए,उनमें अरुंधती राय शामिल हैं। इन्होंने नॉम चोमस्की आदि के साथ श्रीलंका सरकार पर मानवाधिकार के हनन का आरोप लगाते हुए गाले उत्सव में शामिल होने से इंकार कर दिया था। एक अन्य भारतीय लेखिका अनिता देसाई ने भी उत्सव में शरीक होने से इंकार कर दिया था। ये दोनों भारतीय लेखिकाएं अंग्रेजी में लिखती हैं।

यह दुख की बात है कि ऐसा साहस हिंदी का कोई लेखक आज तक नहीं दिखा पाया है। कुछ व्यक्तिगत कारणों से पुरस्कार ठुकरा देने या समारोह का बहिष्कार करने का मामला तो देखने में जब तब आता है, लेकिन किसी मुद्दे पर सरकार से टकराव की स्थिति में जाने के किसी मामले का अभी सामने आना बाकी है।

ऐसा लगता है कोर्पोरेट जगत की साम्राज्यवादी नीतियों के सामने हिंदी के तमाम पुरोधा लेखक घुटने टेक चुके हैं। या फिर भारत सरकार की तरह यह मानने लगे हैं कि इसी में उनका कल्याण है। दो लाख से ज्यादा किसानों की आत्महत्या इन्हें विचलित करने के लिए काफी नहीं है,न ही विकास के नाम पर हजारों गांवों का खाली करा दिया जाना इनके लिए कोई मायने नहीं रखता।

हिंदी का लेखक होने का दम भरने वाली एक महिला ने जयपुर साहित्य उत्सव में कहा कि हिंदी वालों को अब अंग्रेजी का रोना बंद कर देना चाहिए। फिर वहां से लौटकर एक अखबार के संपादकीय पृष्ठ पर उन्होंने लिखा कि भारत में 96 प्रतिशत बच्चे स्कूल जा रहे हैं और अंग्रेजी सीख रहे हैं। वो लेखिका अगले पैराग्राफ में लिखती हैं कि विगत में मुठ्ठीभर सवर्णों की भाषा कहलाने वाली संस्कृत ने पूरे देश को सांस्कृतिक रूप से बांधे रखा था और आज हम अंग्रेजी को भले ही कुलीनों की भाषा मानें, लेकिन क्या इसके बिना अहिंदीभाषी भारतीयों से हमारा सार्थक संवाद संभव है।

हालांकि यह लेखिका हिंदी की प्रतिनिधि लेखिका नहीं हैं,लेकिन अफसोस की बात यह है कि हिंदी साहित्य ऐसी ही सोच से जकड़ा हुआ है। यह गरीब का विरोध करता है, गरीबी का नहीं। कानून नहीं मानने वाले नागरिकों का विरोध करता है, कानून का नहीं। चाहे वह अन्यायपूर्ण ही क्यों न हो, वह अंग्रेजी का गुण तो गाता है लेकिन वैसी हिम्मत दिखाने की कभी सोच नहीं पाता जैसा दो भारतीय अंग्रेजी लेखिकाओं ने मुखर होकर विरोध जताया और उत्सव में शामिल होने से इंकार किया। यह साहित्य में व्याप्त पाखंड है जो उसे उत्सव की ओर ले जा रहा है और पाठकविहीन बना रहा है।

कुछ लोग कह सकते हैं कि जयपुर साहित्य महोत्सव में जो भीड़ थी,वह पाठकों की ही तो थी। लेकिन उन्हें जानकर दुख होगा कि वे पाठक नहीं,बल्कि प्रशंसक थे। वे ‘तेरा क्या होगा कालिया‘ जैसी पंक्तियां लिखने वाले या ‘कजरारे कजरारे‘जैसे गीत लिखने वालों के प्रशंसक थे या फिर मजमाप्रेमी थे जो यूं ही तामझाम देखकर मन लगाने चले आए थे। वे उत्सवकर्ता के मनमिजाज के मुताबिक खुद को ढालते हुए वहां आए थे।

इसलिए खुद को गंभीर मानने वाले एकाध वैसे लेखक जो वहां पहुंच गए थे उन्हें लगा कि उनकी अवहेलना की जा रही है, जबकि ऐसा कुछ भी नहीं किया जा रहा था। बात सिर्फ इतनी है कि जिन लेखकों-कवियों को महत्व दिया जा रहा था,वे उनसे भी ज्यादा विचारहीन थे। जैसे कि कभी इन लोगों ने अपनी विचारहीनता से विचारपरक रचनाकारों को दरकिनार करने का काम किया था।




विधि मामलों के टिप्पणीकार और लेखक.कविता को जनता के बीच ले जाने के प्रबल समर्थक और दिल्ली में शुरू हुई कविता यात्रा के संयोजक. उनसे    verma.ranjeet@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है





Mar 9, 2011

महिला सशक्तिकरण की बाधा


महिला अपहरण की तरह ही बलात्कार व अन्य महिला हिंसा की घटनाएं भी महिला सशक्तिकरण में बड़ी बाधा है... 

डा. गीतांजलि वर्मा

महिला सशक्तिकरण और समानता व महिलाओं के सामाजिक कल्याण के लिए देश में अनेक योजनाएं व कानून है,लेकिन इसके बावजूद भी महिला सशक्तिकरण में आज भी सबसे बड़ी बाधा महिला हिंसा बनी हुई है। हालाँकि  घरेलू महिला हिंसा अधिनियम बनने, राष्ट्रीय महिला आयोग, राज्य महिला आयोग, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग जैसी संस्थाओं के विकास के बाद महिला हिंसा,उत्पीड़न की सुनवाई के लिए विभिन्न मंच तो बने हैं लेकिन   महिला हिंसा में  कमी नहीं आयी है।

बीसवी शताब्दी में महिलाओं की समानता को लेकर कुछ जागृति आने लगी थी और सभी महत्वपूर्ण पक्षों को स्वीकार करना पड़ा था कि महिला-पुरुष बराबर हैं . जिसके बाद  संयुक्त राष्ट्र संघ ने  प्रत्येक नागरिक के सम्मान और समानता की स्पष्ट व्याख्या भी की ,मगर हम सिर्फ महिलाओं के हुए अपहरण के अपराध पर ही केन्द्रीत रहें  तो, यही आंकड़े बेहद डरावने लगते  हैं।


देश भर में हुई महिलाओं के अपहरण की 21726वारदातें उत्तर प्रदेश की है। नेशनल क्राइम रिकोर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी)की ताजा रिपोर्ट के अनुसार उत्तर प्रदेश के बाद राजस्थान, पश्चिम बंगाल, असम और बिहार का नंबर आता है। यह आंकड़े तो सिर्फ वे हैं जो थानों में दर्ज होते हैं। ऐसे बहुत से गुमनाम मामले भी है जो थाने की चैखट पर ही दम तोड़ देते हैं।

 डेढ़ माह पूर्व जारी हुई राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो की रिपोर्ट क्राइम इन इंडिया 2009के अनुसार 21726 अपहरणों में 5078 उत्तर प्रदेश के ही है, जो लगभग कुल संख्या का बीस फीसदी है। दूसरे स्थान पर राजस्थान प्रदेश में महिलाओं के अपहरण की संख्या 2310 है। पश्चिम बंगाल में 2187 है। असम में 2092, बिहार में 1986 और आन्ध्रप्रदेश में 1526 महिलाओं का अपहरण किया गया।

नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो ने देश के 70बड़े शहरों में हुए महिलाओं के अपहरण के अपराधों की समीक्षा की,जिसमें पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मेरठ महिलाओं के अपहरण के 79 मामले दर्ज हैं, कानपुर में 227, आगरा में 127 व लखनऊ में 239 महिलाओं के अपहरण के मामले दर्ज है। देश की राजधानी दिल्ली में 1379 महिलाओं के अपहरण के मामले दर्ज है।

महिला अपहरण की तरह ही बलात्कार व अन्य महिला हिंसा की घटनाएं भी महिला सशक्तिकरण में बड़ी बाधा है। बलात्कार के आरोप में  तो सजा का प्रतिशत मात्र 4.5ही है। पुरुष समाज की महिलाओं के प्रति हिंसा और अपराध की प्रवृत्ति से समाज का वातावरण भी प्रदूषित होता है। पुरुष वर्ग अपनी सत्ता और पुरुषवादी मानसिकता के कारण विभिन्न तरह की महिला हिंसा को जन्म देता है,जिससे सशक्तिकरण के मार्ग में अवरोध पैदा होता है।

महिलाएं आज हर क्षेत्र में आगे बढ़ रही है, लेकिन उनके प्रति हिंसा, उनके विकास, आत्म विश्वास में डर पैदा कर रहा है। महिला को शोषण से मुक्ति के लिए समाज के साथ-साथ राज्य सरकारों को भी सख्ती से आगे आना होगा। क्योंकि महिला हिंसा और उसकी सशक्तिकरण में ये बाधाएं सीधा-सीधा मानव अधिकारों का भी उल्लंघन है।

अधिकतर काफी मामलों में यह भी देखा जाता है कि महिला हिंसा को जन्म पुरुष समाज केवल इसीलिए दे जाता है कि वो उसे पुरुषों की तुलना में निम्न दर्जे का मानता है। महिलाओं को अपने मानव अधिकारों की सुरक्षा के लिए समाज में कानून व हौसलों के साथ आगे बढ़ने के लिए प्रेरणा लेती रहनी होगी।