Mar 31, 2017

छात्राओं को नंगा करने वाली वॉर्डन बर्खास्त

आरोपी वार्डन ने रखा अपना पक्ष, कहा यह उन शिक्षकों की साजिश जो पढ़ाना नहीं चाहते 
 

मुजफ्फरनगर से संजीव चौधरी की रिपोर्ट 

उत्तर प्रदेश के मुज़फ्फरनगर के कस्तूरबा गाँधी आवासीय विद्यालय में 30 मार्च को हॉस्टल वार्डन सुरेखा तोमर द्वारा विद्यालय की छात्राओं को निर्वस्त्र कर कक्षा में बैठाने का एक बेहद शर्मनाक मामला सामने आया है। हॉस्टल वार्डन की इस घिनौनी करतूत का पीड़ित छात्राओं ने विरोध किया है। आरोपी वॉर्डन को सरकार ने फिलहाल बर्खास्त कर दिया है। घटना के बाद कई छात्राओं के अभिभावक अपनी बच्चियों को स्कूल से घर ले गए हैं। 

गौरतलब है कि मुज़फ्फरनगर के खतौली थाना क्षेत्र के तिगरी गांव स्थित सरकारी कस्तूरबा गाँधी आवासीय विद्यालय का है। विद्यालय में आमतौर पर गरीब परिवार की बच्चियां पढ़ती हैं। इनमें से कुछ बच्चियां महज आठ वर्ष की हैं, जिन्हें अभी ना खाने का पता है और ना ही पीने का। विद्यालय में आठ साल से लेकर 12 वर्ष की बच्चियां अपने परिवार से दूर शिक्षा ग्रहण कर रही हैं। 

खतौली के कस्तूरबा गाँधी बालिका आवासीय विद्यालय में वार्डन ने रविवार 26 मार्च को विद्यालय में अध्यनरत 65 छात्राओं को संयुक्त रूप से कक्षा में ले जाकर नग्न अवस्था में खड़ा किया। वार्डन सुरेखा ने कई घंटों तक कई छात्राओं को पूर्ण रूप से निर्वस्त्र रखा। छात्रायें खुद को अपमानित महसूस करती रहीं, लेकिन वार्डन ने छात्राओं की एक न सुनी। 

महिला वॉर्डन ने छात्राओं के साथ यह सनकी सलूक क्यों किया, यह तथ्य और चौंकाने वाला है। दरअसल वॉर्डन को विद्यालय के टॉयलेट में ब्लड के धब्बे मिले थे जिसे देख विद्यालय की वार्डन आग बबूला हो गईं। जिसके बाद उसने सभी छात्राओं को क्लास रूम में ले गयीं और कुछ छात्राओं को निर्वस्त्र होने के​ लिए कहा और एक—एक कर छात्राओं के मासिक धर्म होने की जांच करने लगीं। 

इस बीच छात्राएं रोती—बिलखती रहीं, लेकिन हिटलर बनी हॉस्टल की वार्डन न तो शर्मिंदा हुई और न छात्राओं की हालत पर उसे तरस आया। वार्डन टॉयलेट में ब्लड को देख समझ चुकीं थीं कि विद्यालय की किसी छात्रा को मासिक धर्म हुआ है, जिसने ये टॉयलेट गंदा किया है। बस वार्डन ने उस छात्रा को ढूंढने के लिए इस घिनौनी करतूत को अंजाम दिया। 

वार्डन की इस हरकत के बाद छात्राओं ने विद्यालय में जमकर नारेबाजी कर विरोध शुरू कर दिया। बवाल मचने पर पहुंचे बेसिक शिक्षा अधिकारी चंद्रकेश यादव ने आनन—फानन में सात सदस्यों की टीम बनाकर इस पूरे मामले की जाँच कर वार्डन सुरेखा पर आरोप सिद्ध होने तक निलंबित कर दिया था। पर अब सरकार ने आरोपी वॉर्डन को बर्खास्त कर दिया है।  

आठवीं पढ़ने वाली छात्रा ने बताया, 'बाथरूम की कुण्डी में खून लग गया था। बड़ी मैम 'वार्डन मैम' ने उसका कुछ उल्टा मतलब निकाला। फिर बड़ी मैम ने हम सभी लड़कियों के कपड़े उतरवाए और दो लड़कियों के गुप्तांग दबाकर चेक करने को कहा। इस बीच मैम लगातार धमकाती रहीं कि जल्दी बताओ कि किसका डेट आया है, नहीं तो सबको पीटूंगी। 

छठवीं कक्षा की छात्रा के मुताबिक, 'मैम ने हमें नीचे बुलाया और कहा कि जिसके—जिसके मासिक धर्म हो रहे हैं वह खड़े हो जाओ। फिर नंगा होने का कहा। हमने बीएसए से इनकी शिकायत कर दी है। अगर यह रहेंगी तो हम लड़कियां यहां नहीं रहेंगी।' 

बवाल मचने के बाद मौके पर पहुंचे परिजन संजीव त्यागी कहते हैं, 'मेरी बेटी कक्षा 6 में है। उसने मुझे पर बताया कि मैडम बच्चियों से कपड़े उतारने को बोल रही हैं। बेटी ने फोन पर बताया कि किसी बच्ची के मासिक धर्म आने पर बाथरूम में कहीं खून का धब्बा लग गया था, जिसके कारण वार्डन ने ऐसा किया। 

आरोपी वार्डन सुनिता का कहना है, 'मैंने ऐसा कुछ नहीं किया, यह सब यहां के स्टाफ की साजिश है। वह नहीं चाहता कि मैं स्कूल में रहूं। उन्हें मेरे होने से ड्यूटी करनी पड़ती है। नंगा कराने वाली बात झूठ है। बाथरूम की दीवार पर खून लगा था इसलिए मैंने जानने के लिए बच्चियों को बुलाया कि किसी के साथ कोई समस्या तो नहीं। कई बार 10—12 साल की लड़कियों का ​मासिक धर्म होता है पर उन्हें कुछ पता नहीं रहता। दूसरा लड़कियां पैड ट्वायलेट के कमोड में डाल देती हैं फिर सैनीटेशन की भारी समस्या हो जाती है। मैंने इस बारे में भी बात की।'

अब ओशो का लिखा छापने पर पत्रकार को हुई जेल

पत्रकार दीपक असीम को 12 दिन तक सिर्फ इसलिए जेल की सींखचों के पीछे रहना पड़ा क्योंकि उन्होंने बतौर विज्ञापन अपने अखबार में ओशो की ​चर्चित पुस्तक 'बिन बाती बिन तेल' का एक हिस्सा प्रकाशित कर दिया था.....

प्रेमा नेगी

अभिव्यक्ति की आजादी पर हो रहे हमलों के बीच प्रसिद्ध भारतीय विचारक—दार्शनिक ओशो का लिखा भी अब पुनर्प्रकाशित करने पर जेल हो जा रही है। मध्य प्रदेश के इंदौर से निकलने वाले अखबार खजराना लाइव के संपादक दीपक असीम को 12 दिन तक हिंदूवादियों की शिकायत पर सिर्फ इसलिए जेल की सींखचों के पीछे रहना पड़ा क्योंकि उन्होंने बतौर विज्ञापन के रूप में ओशो की ​चर्चित पुस्तक 'बिन बाती बिन तेल' का एक हिस्सा प्रकाशित कर दिया था।

ओशो के लेख का वह हिस्सा जिसके लिए दीपक असीम को जाना पड़ा जेल 
15 मार्च को दीपक असीम की जमानत हुई। उसके बाद उन्होंने सीनियर एडवोकेट आनंदमोहन माथुर के माध्यम से हाईकोर्ट में एक रिट दायर कर पूछा कि किसी पत्रकार के लिखने से शांति भंग कैसे हो सकती है। गौरतलब है कि एसडीएम ने धारा 107—16 में शांति भंग करने का हवाला देते हुए दीपक असीम को नोटिस थमाया था कि क्यों न आपसे 10 हजार रुपए का मुचलका और इतनी ही राशि की जमानत ली जाए। साथ ही यह भी सुनिश्चित किया जाए कि आप अगले 6 महीने तक शांति भंग करने वाला कोई काम नहीं करेंगे।  

इंदौर के स्थानीय अखबार खजराना लाइव के 27 फरवरी के अंक में ओशो द्वारा लिखित एक लेख प्रकाशित हुआ। जिसके लिए दीपक असीम के खिलाफ धारा 295—ए के तहत मुकदमा दर्ज कर उन्हें जेल भेज दिया गया। प्रकाशित लेख में शिवपुराण के हवाले से ओशो ने शिव—पार्वती के बीच संभोग का वर्णन किया है। वर्णन में खास बात यह है कि शिव और पार्वती संभोग में इस कदर लिप्त होते हैं कि उनसे मिलने आए ब्रह्मा और विष्णु का वह गौर ही नहीं कर पाते। ओशो ने इस कथा में संभोग और समाधि के बीच एक तारतम्य बैठाने की कोशिश की है।

दीपक असीम कहते हैं, ''अखबार की आर्थिक जरूरतों को पूरा करने के लिए हम विज्ञापन के रूप में ओशो के प्रवचन छापते हैं। प्रवचन जिस स्पेस में छपता है उसका भुगतान जयदेव भट्ट अपने दादा स्वर्गीय भालचंद जी भट्ट की याद में करते हैं। इस बात का डिस्कलेमर भी हम अखबार के हर अंक में छापते हैं। 

दीपक असीम ने कहा, ''ओशो की किताब 'बिना बाती बिन तेल' का अंश अपने अखबार में प्रकाशित करने के बाद जब हिंदुवादियों ने विरोध किया तो मैंने माफी मांग ली। न सिर्फ माफी मांगी बल्कि लिखित तौर पर पूरी सफाई अखबार में भी प्रकाशित की। बावजूद मुझे 3 से 16 मार्च तक जेल में रहना पड़ा। इसका कारण मैं अपनी शादी एक ​मुस्लिम लड़की से होना मानता हूं। हिंदू संगठनों के लोग मानकर चलते हैं कि मैंने मुस्लिम धर्म ज्वाइन कर लिया है, जबकि यह सच नहीं है। जिस तरह यह सच नहीं है कि मैंने हिंदू भावनाओं को ठेस पहुंचाने के लिए कोई लेख प्रकाशित किया है। मुझे बताया गया है कि ओशो ने अपनी पुस्तक 'बिना बाती बिन तेल' में उस किस्से का जिक्र प्रसिद्ध हिंदू धार्मिक ग्रंथ 'शिवपुराण' से साभार किया है। ऐसे में मेरा मुस्लिम लड़की से शादी करना न होता तो ऐसा क्यों होता कि पहले से प्रकाशित, फिर पुनर्प्रकाशित को छापने के जुर्म में मुझे जेल क्यों जाना पड़ता।''

लेख पर माफ़ी मांगने के बावजूद नहीं मिली राहत 
मीडिया की भूमिका

दीपक असीम की गिरफ्तारी को लेकर ज्यादातर हिंंदी के बड़े अखबारों ने अभियोजन पक्ष, पुलिस और हिंदूवादियों का बयान छापा।  प्रभात किरण नाम के अखबार को छोड़ बाकी किसी भी अखबार ने दीपक असीम की गलत गिरफ्तारी का विरोध नहीं किया। न ही यह सवाल उठाया किएक पौराणिक कहानी जो कि शताब्दियों पहले से शिवपुराण में प्रकाशित है, उसके सैकड़ों भाष्य हैं और उनका पुनर्भाष्य है फिर भी असीम दीपक को क्यों गिरफ्तार किया गया।

अंग्रेजी अखबार इंडियन एक्सप्रेस ने दीपक असीम का पक्ष रखा, वहीं दैनिक भास्कर के प्रसिद्ध और चर्चित स्तंभकार जयप्रकाश चौकसे ने भी दीपक असीम का अपने कॉलम में जिक्र करते हुए बचाव किया।

मीडिया की भूमिका पर दीपक असीम कहते हैं, ''अधिकांश पत्रकार इस मामले में खामोश रहे, लेकिन कुछ लोग थे जो साथ खड़े रहे। आनंदमोहन माथुर और सारिका जैसे लोगों के सहयोग के बिना जमानत तक मुश्किल थी। इनके साथ ही अभय नेमा, संजय वर्मा, अवधेश प्रताप सिंह, विनीत तिवारी और कुछ अन्य लोग भी 12 दिनों तक मेरी रिहाई की अनवरत कोशिश में लगे रहे। कुछ प्रगतिशील संगठन भी साथ रहे।'' 

आप में कुमार विश्वास की हालत क्या हो गयी भगवान!

कभी अरविंद की आत्मा हुआ करते थे विश्वास, लेकिन अब वह आहत मन से बस एक ही धुन गुनगुना रहे हैं....कौन सुनेगा किसको सुनाएं इसलिए चुप रहते हैं...

जनज्वार। लंबे समय से आम आदमी पार्टी में हाशिए पर पड़े कुमार विश्वास का ट्वीट ही इन दिनों उनका भरोसेमंद साथी साबित हो रहा है। पार्टी में उनकी कोई पूछ नहीं दिख रही। पंजाब चुनाव इसका सबसे माकूल उदाहरण है जहां उनको पार्टी द्वारा पूछा ही नहीं गया। और दिल्ली के एमसीडी चुनाव में उनकी राजनीतिक हैसियत इस कदर प्रभावहीन हो गयी है कि टिकट चाहने वाले भी उनके दरवाजे की ओर रुख नहीं कर रहे। 

ऐसे में विश्वास कभी खुद की, कभी उधार की तो कभी किसी और की गजलें—नज्में ट्वीट कर अपना दुख जगसाया कर रहे हैं। पर मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल तवज्जो पाने की हर कोशिश को कुछ यों इनकार कर रहे हैं मानो उनका विश्वास को लेकर स्थायी भाव बन गया हो कि तुम रहो या जाओ हमें क्या, तुम सुनो और सुनाओ हमें क्या?  

27 मार्च को कुमार विश्वास ने एक ट्वीट किया, 

'वो जिनके पास हुकुमत भी है, हुजूम भी है,
वो इस फकीर से क्यों पूछें रास्ता क्या है।' 



कुमार विश्वास के इस ट्वीट पर हमेशा की तरह पाठकों की प्रतिकियाएं आईं। कुछ ने समझा, कुछ समझकर आप के राजनीतिक गलियारों में संदेश लेकर पहुंचे और कुछ ने सीधे विश्वास से मोर्चा लिया।

दिलचस्प यह था कि इस बार मोर्चा किसी और ने नहीं अरविंद केजरीवाल के बहुत नजदीकी और पीएस वैभव ने लिया। बिना किसी लाग—लपेट और छिपाव के वैभव ने सीधे अपने ​ट्वीट में लिखा, 

पिछले चार चुनावों ने सिखाया: 
जब—जब जीते वो पहले फ्रेम में दिखे 'क्रेडिट लेते' 
हारते ही फकीर बन गए, शायद बड़े कलाकार ऐसे ही होते हैं।

मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के बहुत खास माने जाने वाले वैभव के इस ट्वीट के बाद पार्टी के बहुत से कार्यकर्ता कुमार विश्वास के खिलाफ पिल पड़े। 'आम आदमी सेना' के सोशल मीडिया पेज पर विश्वास के खिलाफ तेजी से लिखा जाने लगा। 

देखते ही देखते गालियों, फब्तियों और कुमार विश्वास की आत्मा 'भाजपाई' होने के दावे आम आदमी सेना के पेज पर होने लगे। लोग कहने लगे इतने रोते क्यों हो, जहां आंसू पोछे जाएँ वहां चले जाओ।

वहीं कुमार विश्वास के भी ट्ववीट पर पाठकों ने खूब कहा—सुना। कुछ ने दुख में दुख जताया तो कुछ ने चुटकियां लीं। कई पाठकों ने कुछ इस भाव में कहा कि अरविंद केजरीवाल नहीं पूछ रहे तो यहां कविता लिखने से कुछ न होगा। कुछ ने सुझाव दिया गलत रास्ता चुनोगे तो यही होगा। 

खैर, बात बढ़े और मीडिया की खबर बने उससे पहले ही समझदारी दिखाते हुए अरविंद केजरीवाल के खास और उनके पीएस की भूमिका निभाने वाले विभव ने अपना ट्वीट हटा दिया। अब उनका ट्वीटर अकाउंट 'ट्वीट्स आर प्रोटेक्टेड' श्रेणी में डाल दिया गया है। जो कुछ इस तरह दिख रहा है,




पर कुमार विश्वास को अरविंद केजरीवाल और पार्टी का यह रवैया लगातार दुखित किए हुए है। राज्यसभा की कुल तीन सीटें दिल्ली से आम आदमी पार्टी के हिस्से हैं। एक समय में विश्वास को एक सीट का प्रबल दावेदार माना जा रहा था, पर ऐसा अब हो पाएगा इस पर खुद विश्वास भी विश्वास नहीं करते।

ऐसे में देखना यह है कि विश्वास का ट्ववीटर आंदोलन कितना साथ दे पाता है, खासकर तब जबकि कार्यकर्ताओं और स​​मर्थकों में उनकी छवि कभी खुद के कारण तो कभी साजिशों के कारण लगातार क्षरित हुई है। 

बहरहाल, विश्वास का एक नया ट्वीट -

Mar 30, 2017

चलो जंतर मंतर

यूनियन बनाने, ठेका मज़दूरों को स्थायी करने की मांग उठाने, मज़दूर हितों के लिए आवाज़ उठाने के अपराध में कई मारुति मजदूरों को हुई उम्रकैद के विरोध में मजदूर अधिकार संघर्ष अभियान (मासा) ने जंतर मंतर चलो का आह्वान किया है। मासा की अगुवाई में कल 31 मार्च, को सुबह 11 बजे जंतर—मंतर को प्रतिवाद सभा आयो​जित की जाएगी।

मासा के मुताबिक मजदूरों के हो रहे उत्पीड़न और उनके हक में आवाज उठाने की एवज में 13 मारुति मज़दूरों को उम्रकैद की सजा दी गई है। इस अभियान के जरिए उनको रिहा किए जाने की मांग उठाई जाएगी, साथ ही इसी अपराध से बरी हुए 117 मारुति मजदूरों को काम पर वापिस लेने की मांग भी उठाई जाएगी।

तमाम मजदूर मुुद्दों को लेकर दिल्ली स्थि​त जंतर मंतर पर यह प्रतिवाद सभा आयोजित की जाएगी। सभा में पूंजीपतियों और सरकार के इशारे पर न्यायपालिका द्वारा मज़दूर विरोधी फैसला देने के खिलाफ भी आवाज उठाई जाएगी। मजदूर उत्पीड़न के खिलाफ विभिन्न विभिन्न जन संगठन कल इस कार्यक्रम में हिस्सा लेंगे। 

अखबार वाले कराते हैं सांप्रदायिक हिंसा — शहीद भगत सिंह

 भगत सिंह ने 90 साल पहले लिख दिया था मीडिया का सच

जनज्वार। मीडिया और सरकार के बारे में करीब 90 साल पहले भगत सिंह ने जो कहा था, उसे जब आज पढ़ेंगे तो लगेगा कि भगत सिंह हमारे—आपके समय का सच ही बयान कर रहे हैं। पढ़ते हुए लगेगा कि कोई हमारे बीच का ही आदमी बहुत ही सुचिंतित तरीके से अपनी बात कह रहा और दुष्परिणामों को ध्यान में रखते हुए मीडिया को सांप्रदायीकरण से बाज आने की हिदायत दे रहा है।

भगत सिंह का यह लेख 'सांप्रदायिक दंगे और उनका इलाज' पहले के मुकाबले आज के दौर में बहुत प्रासंगिक हो चुका है। खासकर तब जबकि मीडिया के ज्यादातर माध्यम सत्ताधारी पार्टियों के मुखपत्र बन चुके हैं, पत्रकार उनके प्रवक्ता और संपादक—एंकर पार्टियों के अध्यक्ष की भूमिका निभाने लगे हैं। 

जून 1928 में ‘किरती’ नाम के अख़बार में छपे लेख में भगत सिंह लिखते हैं, 'दंगों के पीछे सांप्रदायिक नेताओं और अख़बारों का हाथ है... वही नेता जिन्होंने भारत को स्वतंत्र कराने का बीड़ा अपने सिरों पर उठाया हुआ था और जो ‘समान राष्ट्रीयता’ और ‘स्वराज-स्वराज’ के दमगजे मारते नहीं थकते थे, वही या तो अपने सिर छिपाए चुपचाप बैठे हैं या इसी धर्मांधता के बहाव में बह चले हैं. सिर छिपाकर बैठने वालों की संख्या भी क्या कम है? लेकिन ऐसे नेता जो सांप्रदायिक आंदोलन में जा मिले हैं, ज़मीन खोदने से सैकड़ों निकल आते हैं. जो नेता हृदय से सबका भला चाहते हैं, ऐसे बहुत ही कम हैं. और सांप्रदायिकता की ऐसी प्रबल बाढ़ आई हुई है कि वे भी इसे रोक नहीं पा रहे. ऐसा लग रहा है कि भारत में नेतृत्व का दिवाला पिट गया है.'

इसी लेख में भगत सिंह मीडिया की भूमिका को और स्पष्ट करते हुए आगे लिखते हैं, 'अख़बार वाले सांप्रदायिक दंगों को भड़काने में विशेष हिस्सा लेते रहे हैं। पत्रकारिता का व्यवसाय, किसी समय बहुत ऊंचा समझा जाता था. आज बहुत ही गंदा हो गया है. यह लोग एक-दूसरे के विरुद्ध बड़े मोटे-मोटे शीर्षक देकर लोगों की भावनाएं भड़काते हैं और परस्पर सिर फुटौवल करवाते हैं. एक-दो जगह ही नहीं, कितनी ही जगहों पर इसलिए दंगे हुए हैं कि स्थानीय अख़बारों ने बड़े उत्तेजनापूर्ण लेख लिखे हैं. ऐसे लेखक बहुत कम हैं, जिनका दिल व दिमाग़ ऐसे दिनों में भी शांत हो.' 

आखिर में शहीद भगत सिंह अखबार और मीडिया के कर्तव्यों को रेखांकित करते हैं, 'अख़बारों का असली कर्तव्य शिक्षा देना, लोगों से संकीर्णता निकालना, सांप्रदायिक भावनाएं हटाना, परस्पर मेल-मिलाप बढ़ाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता बनाना था, लेकिन इन्होंने अपना मुख्य कर्तव्य अज्ञान फैलाना, संकीर्णता का प्रचार करना, सांप्रदायिक बनाना, लड़ाई-झगड़े करवाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता को नष्ट करना बना लिया है. यही कारण है कि भारतवर्ष की वर्तमान दशा पर विचार कर आंखों से रक्त के आंसू बहने लगते हैं और दिल में सवाल उठता है कि ‘भारत का बनेगा क्या?’

(आरोही पब्लिकेशन की ओर से प्रकाशित संकलन ‘इंकलाब जिंदाबाद’ से साभार और संपादित)

देश में बनेगा 100 करोड़ का पशु चिकित्सालय


पशुओं को बेहतर इलाज मुहैया कराने के लिए टाटा ट्रस्ट ने मुंबई में पीपुल फॉर एनिमल्स 'पेटा' के साथ मिलकर मुंबई के कलंबोली में अत्याधुनिक मल्टी स्पेशलिटी अस्पताल बनाने की घोषणा की है। अनुमान है कि दो साल में बनाए जाने वाले इस अस्पताल के निर्माण में 100 करोड़ से ज्यादा की लागत आएगी।

केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्री मेनका गांधी, महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस और टाटा ट्रस्ट के चेयरमैन रतन टाटा की उपस्थिति में एक कार्यक्रम के दौरान इस अस्पताल को बनाने की घोषणा हुई। 

प्रदेश के मुख्यमंत्री देवेंद्र फणनवीस ने टाटा ग्रुप को धन्यवाद देते हुए कहा, 'मुझे यकीन है कि यह पहल महाराष्ट्र के लोगों को लाभप्रद साबित होगी। मैं आप सबको विश्वास दिलाता हूं कि महाराष्ट्र सरकार हर तरह से इस योजना को पूरा करने में सहयोग करेगी।' 

9,000 वर्ग मीटर बनने जा रहा यह अस्पताल भारत का सबसे अत्याधुनिक पशु अस्पताल होगा, जिसमें इमरजेंसी और आपीडी होगा। इसमें सभी छोटे—बड़े जानवरों का इलाज किया जाएगा। 

Mar 29, 2017

गुजरात में इंजीनियरिंग के 80 प्रतिशत छात्र बेरोजगार

71 हजार इंजीनियरिंग की सीटों में से 27 हजार पर नहीं ले रहा कोई छात्र एडमिशन

देश भर में विकास का डंका पीटने वाले प्रधानमंत्री मोदी के गृहराज्य गुजरात में उच्च शिक्षा हासिल करने वाले युवाओं की बेकारी का आंकड़ा हतप्रभ कर देने वाला है। आॅल इंडिया कॉउंसिल फॉर टे​क्नीकल एजुकेशन 'एआइसीटीई' के अनुसार गुजरात में इंजीनियरिंग पढ़ने वाले 80 प्रतिशत छात्र नौकरी पाने से वंचित रहे जाते हैं, सिर्फ 20 फीसदी छात्रों को ही नौकरी मिल पाती है। 



टाइम्स आॅफ इंडिया में छपी हरिता दवे की रिपोर्ट के मुताबिक गुजरात में इंजीनियरिंग पढ़ रहे छात्रों में सबसे बुरा हाल सिविल इंजीनियरों के प्लेसमेंट का है। इनका सिर्फ 5 फीसदी ही प्लेसमेंट हो पाता है। विशेषज्ञों का कहना है कि यह हालत इसलिए है कि पढ़ाई, कार्स और काम में बहुत फर्क है।

एआइसीटीई के 2015—2016 के आंकड़ों के अनुसार कम्प्यूटर साइंस में 11 हजार 190 छात्र पास हुए लेकिन 3 हजार 407 को केवल काम मिला। उसी तरह मैकेनिकल इंजीनियरिंग में 17 हजार 28 छात्र उत्तीर्ण हुए और 4 हजार 524 को नौकरी मिल पाई। 

डिग्री लेकर कैंपस से बाहर निकलने वाले ज्यादातर छात्रों को पता ही नहीं कि उनकी डिग्री का असल मतलब क्या है? गुजरात चैंबर आॅफ कॉमर्स एंड इं​डस्ट्री के अध्यक्ष विपिन पटेल छात्रों की बेकारी के लिए सरकार को दोषी ठहराते हैं। उनका कहना है कि सरकार रिटायर्ड अधिकारियों को 15 लाख देकर नौकरियों पर रख रही है, लेकिन युवा डि​​ग्रीधारी युवा बेकारी फांक रहे हैं।'   

इस आंकड़े पर संदेह उठाने वालों का कहना है कि छात्रों को रोजगार केवल कैंपस में ही नहीं मिलता बल्कि वह बाहर भी रोजगार करते हैं और कुछ नौकरियां नहीं करते। लेकिन एआइसीटीई इन आंकड़ों को अपने स्रोत में शामिल नहीं करती है,  जिससे बेकारी की भयावहता बड़ी दिखती है।

पंडितों और ईश्वर की शरण में ​क्रांतिकारी गायक गदर




वामपंथी सांस्कृतिक आंदोलन के 'लाल सितारा' का मंदिर—मंदिर घुटना टेकना बताता है कि आंदोलन में निराशा गहरे पैठ चुकी है...

जनज्वार। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के सम​र्थक कहे जाने वाले सांस्कृतिक संगठन जन नाट्य मंडली के संस्थापक क्रांतिकारी गायक गदर आजकल मंदिर—मंदिर घूम रहे हैं। वे भगवान से अच्छी बारिश और लोगों के दुःख दूर करने की मनौती मांग रहे हैं। वे छात्रों को वेद पढ़ने और विवेकानंद के रास्ते पर चलने का उपदेश दे रहे हैं और जगह जगह अपने नए गुरु मंदिरों में पुजारी के आगे झोली फैलाकर ब्राह्मणवाद के एक सच्चे हिन्दू कार्यकर्ता बनने के लिए आशीर्वाद मांग रहे हैं।

पिछले 5 दशकों से हजारों वामपंथी और सांस्कृतिक कार्यकर्ताओं के प्रेरणास्रोत रहे 67 वर्षीय क्रांतिकारी गायक गदर का वामपंथी आंदोलनों से मोहभंग की खबरें तो कुछ वर्ष पुरानी हैं लेकिन मंदिर—मंदिर मत्था टेकने की जानकारी नई है। हालांकि दिसंबर में भी ऐसी खबरें आई थी जिसमें कहा गया था कि वह जगह—जगह पंडितों के साथ बैठकर पूजा—पाठ कर रहे हैं।

खबरों के मुताबिक वह पिछले हफ्ते भोंगरी जिले के यदाद्रि मंदिर गए और भगवान लक्ष्मीनरसिम्हा की आरती उतारने के बाद उन्होंने मंदिर के पुजारी से आशीर्वाद लिया। इससे पहले जनवरी महीने में उन्होंने पालाकुरथी में प्रसिद्ध सोमनाथ मंदिर में भगवान शिव की भजनों के साथ पूजा की। इससे पहले वे सिद्दिपेट जिले में कोमुरावेल्ली मल्लाना मंदिर भी जा चुके हैं और लोगों को भगवान शिव के भजन सुना चुके हैं।

आंदोलनकारियों और वामपंथी कैडरों के बीच क्रांतिकारी गीतों और व्यवस्था विरोधी सांस्कृतिक आंदोलन के अगुआ माने जाने वाले गदर का यह व्यक्तित्व परिवर्तन बहस का विषय बना हुआ है।

कैडरो और वामपंथ समर्थकों  में सवाल यह भी है कि  जिस ब्राह्मणवाद, पुरोहितगिरी, सामंतवाद  और ईश्वरीय अवधारणा के खिलाफ सांस्कृतिक आंदोलन खड़ा करने में गदर ने अपना जीवन लगाया, उम्र के इस आखिरी पड़ाव पर कौन सी निराशा उन्हें मंदिरों और पुरोहितों के चौखट तक ले गयी ?