Mar 29, 2017

पंडितों और ईश्वर की शरण में ​क्रांतिकारी गायक गदर




वामपंथी सांस्कृतिक आंदोलन के 'लाल सितारा' का मंदिर—मंदिर घुटना टेकना बताता है कि आंदोलन में निराशा गहरे पैठ चुकी है...

जनज्वार। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के सम​र्थक कहे जाने वाले सांस्कृतिक संगठन जन नाट्य मंडली के संस्थापक क्रांतिकारी गायक गदर आजकल मंदिर—मंदिर घूम रहे हैं। वे भगवान से अच्छी बारिश और लोगों के दुःख दूर करने की मनौती मांग रहे हैं। वे छात्रों को वेद पढ़ने और विवेकानंद के रास्ते पर चलने का उपदेश दे रहे हैं और जगह जगह अपने नए गुरु मंदिरों में पुजारी के आगे झोली फैलाकर ब्राह्मणवाद के एक सच्चे हिन्दू कार्यकर्ता बनने के लिए आशीर्वाद मांग रहे हैं।

पिछले 5 दशकों से हजारों वामपंथी और सांस्कृतिक कार्यकर्ताओं के प्रेरणास्रोत रहे 67 वर्षीय क्रांतिकारी गायक गदर का वामपंथी आंदोलनों से मोहभंग की खबरें तो कुछ वर्ष पुरानी हैं लेकिन मंदिर—मंदिर मत्था टेकने की जानकारी नई है। हालांकि दिसंबर में भी ऐसी खबरें आई थी जिसमें कहा गया था कि वह जगह—जगह पंडितों के साथ बैठकर पूजा—पाठ कर रहे हैं।

खबरों के मुताबिक वह पिछले हफ्ते भोंगरी जिले के यदाद्रि मंदिर गए और भगवान लक्ष्मीनरसिम्हा की आरती उतारने के बाद उन्होंने मंदिर के पुजारी से आशीर्वाद लिया। इससे पहले जनवरी महीने में उन्होंने पालाकुरथी में प्रसिद्ध सोमनाथ मंदिर में भगवान शिव की भजनों के साथ पूजा की। इससे पहले वे सिद्दिपेट जिले में कोमुरावेल्ली मल्लाना मंदिर भी जा चुके हैं और लोगों को भगवान शिव के भजन सुना चुके हैं।

आंदोलनकारियों और वामपंथी कैडरों के बीच क्रांतिकारी गीतों और व्यवस्था विरोधी सांस्कृतिक आंदोलन के अगुआ माने जाने वाले गदर का यह व्यक्तित्व परिवर्तन बहस का विषय बना हुआ है।

कैडरो और वामपंथ समर्थकों  में सवाल यह भी है कि  जिस ब्राह्मणवाद, पुरोहितगिरी, सामंतवाद  और ईश्वरीय अवधारणा के खिलाफ सांस्कृतिक आंदोलन खड़ा करने में गदर ने अपना जीवन लगाया, उम्र के इस आखिरी पड़ाव पर कौन सी निराशा उन्हें मंदिरों और पुरोहितों के चौखट तक ले गयी ?

Mar 28, 2017

सेना ने दर्ज कराया स्टिंग करने वाली पत्रकार पर मुकदमा

जनज्वार। देश सेवा की भावना से सेना में भर्ती होने वाले सैनिकों का इस्तेमाल सैन्य अधिकारी घरेलू नौकर के रूप में करते हैं, इस बात को स्टिंग के जरिए उजागर करने वाली पत्रकार पूनम अग्रवाल पर सेना ने नासिक में मुकदमा दर्ज कराया है।

 पत्रकार द्वारा सैनिकों के किए स्टिंग के बाद एक सैनिक लांस नायक रॉय मैथ्यू ने आत्महत्या कर ली थी। 

लांस नायक मैथ्यू केरल के कोलम जिले के एझुकोन के रहने वाले थे। उनकी तैनाती  महाराष्ट्र के नासिक जिले के देओलाली छावनी में थी। छावनी में ही सैनिक मैथ्यू का शव खाली बैरक की छत से 4 मार्च को लटकता मिला था। पुलिस बयानों के मुताबिक जवान की मौत करीब 3 दिन पहले हो चुकी थी। 

स्टिंग वीडियो वायरल होने के बाद 25 फरवरी से ही मैथ्यू देओलाली में आर्टिलरी सेंटर से लापता थे। 

मैथ्यू ने भी अन्य सैनिकों की तरह पत्रकार से कहा था कि 'सहायक' के रूप में सैन्य अधिकारी हमारा इस्तेमाल व्यक्तिगत नौकर की तरह करते हैं। पत्रकार के स्टिंग में भी सैनिक अधिकारियों के कुत्ते टहलाते और सब्जी लाते देखे जा सकते हैं।

गौरतलब है कि सेना ने स्टिंग ऑपरेशन करने वाली वेबसाइट 'द क्वींट' की भूमिका पर उसी समय सवाल उठाए थे। कहा था कि सेना के ​ठीकानों पर गुप्त कैमरों से स्टिंग करना और उसे सार्वजनकि करना प्रतिबंधित है। इस मामले में रक्षा राज्य मंत्री सुभाष भामरे ने मैथ्यू की रहस्यमय मौत संसद में बयान देना पड़ा था। वहीं तत्कालीन गृहमंत्री मनमोहन पर्रिकर ने सैनिक की आत्महत्या को 'छिटफुट घटना' बताकर सरकार की किरकिरी करा दी थी। 

नासिक में सेना ने पत्रकार पूनम अग्रवाल के खिलाफ विभागीय गुप्त मामलों का खुलासा करने और आत्महत्या के लिए उकसाने के मामले में मुकदमा दर्ज कराया है। यह सेना के उस पत्र के बाद हुआ था जिसमें पुलिस को कहा गया था कि पत्रकार पर उचित धाराओं के तहत मुकदमा कर कार्यवाही करे। 

पत्रकार पूनम अग्रवाल ने इंडियन एक्सप्रेस मुकदमा दर्ज होने के बाद हुई बातचीत में बताया, 'इस मामले में मेरी सैन्य अधिकारियों से मुलाकात हुई। स्टिंग का जरिया और बातचीत दिखा दिया था। पर उस दौरान अधिकारियों ने यह नहीं ​कहा कि यह सब प्रतिबंधित है।' 

Mar 27, 2017

मम्मी पापा का सर्जिकल स्ट्राईक, रोमियो और योगी

ललित सती

एक अंग्रेज़ी गाना है - आई एम किसिंग यू। बढ़िया गाना है। ऊपी का रोमियो भी किस करना चाहता है, जूलियट भी चाहती है। लेकिन कहाँ करे। अपने घर में? जूलियट के घर में? वहाँ तो कोई स्कोप नहीं है। स्कूल में? वहाँ भी कोई स्कोप नहीं। सड़कों पर, किसी झील के किनारे? समाज की आँखें सजग हैं। कहीं कोई स्कोप नहीं। 

होटल में कमरा लेने के पैसे नहीं। वे पार्क पहुँचते हैं। किसी झाड़ की आड़ में बैठते हैं। वहाँ पुलिस आ टपकती है। छुप के इसलिए करते हैं लगता है जैसे कोई अपराध करने जा रहे हों। अपराध ही ठैरा। दोनों ने अपने-अपने माँ-बाप को कभी एक दूसरे को बाँहों में लेते नहीं देखा, चूमते हुए देखना तो बहुत दूर की बात है। स्त्री पुरुष संबंध क्या होते हैं वे क्या जानें।

बचपन में पता चला था कि भगवान जी की वजह से बच्चा हो जाता है, बाद में लगा नहीं, कुछ ऐसा नहीं। बस, इतना समझ आया कि रात के अँधेरे में कोई सर्जिकल स्ट्राइक होती है और बच्चे हो जाते हैं, और बस इत्ता ही होता है स्त्री-पुरुष संबंध। लड़का मसें भींजने के साथ अँधेरे में छाती पर हाथ मारना, दबोच लेना टाइप शिक्षा तो अपने सीनियरों से पा लेता है, इससे अधिक परिवार से उसे कुछ ज्ञान नहीं मिल पाता, न स्कूल में कि किसी स्त्री से कैसे व्यवहार किया जाए। 

ऐसे पिछड़े परिवेश से आने वाले लड़कों से समझदार लोग कहते हैं - ऐ नालायक, प्रेम महज देह नहीं और यदि प्रेम करते हो तो बग़ावत कर डालो। लड़का, न लड़की, समझ नहीं पाते किससे बग़ावत करें। समझदार कहता है- ग़र बग़ावत नहीं कर सकते तो डूब मरो चुल्लू भर पानी में। चुल्लू भर पानी में डूबना संभव नहीं तो एक दिन रोमियो जूलियट फाँसी खा लेते हैं या किसी नदी में डूब मरते हैं हिंदुस्तान में। इति वार्ता हो जाता है, समाज की संस्कृति बची रह जाती है। समझदार की बात भी सही साबित हो जाती है कि ये जनता ही मूरख व कायर है।

जो स्पेस हम अपने नौजवानों का छीन रहे हैं, फ्री सेक्स, देह की भूख टाइप फ़ालतू बातें करके, हम नहीं जानते हम कितने असामान्य इंसान तैयार कर रहे हैं। स्त्रियों की तो मुझे नहीं पता, लेकिन पुरुषों में जिन पुरुषों को स्त्रियों का सानिध्य मिला यानी स्त्री का एक इंसान के रूप में सहज स्वाभाविक सानिध्य मिला। जिन्होंने प्रेम किया। जिनके जीवन में कम पाबंदियाँ रहीं। 

ब्रह्मचर्य के नाम पर पैंतीस-चालीस बरस तक ब्याह होने तक जिन्हें लोहे का लंगोट नहीं पहनना पड़ा, वे कहीं बेहतर पुरुष होते हैं। बूढ़े ठरकियों से अधिक बेहतर ढंग से युवा लोग प्रेम के मायने समझते हैं। युवापन में देह के रहस्य जान लेने की उत्सुकता तो होती है, देह पा लेने की ज़िद नहीं। युवापन में आदमी होता है कहीं अधिक संवेदनशील, कहीं बेहतर इंसान।

ठरकी बुड्ढे क्या ज्ञान पेलते हैं, इसे छोड़िए। अपने नौजवानों को स्पेस दीजिए। पार्कों में नहीं है तो घरों में ही दीजिए। यकीन मानिए ये कोई पाप नहीं।

न तो मजनू के पिंजड़े लड़कियों से होने वाली छेड़छाड़ को रोक सके, न कोई एंटी-रोमियो स्क्वाड रोक पाएगा। बस एक भ्रम अवश्य कुछ समय, कुछ बरसों के लिए क्रिएट हो जाएगा, जैसा विमुद्रीकरण के मामले में हुआ।

एकदम नारकीय जीवन में पशुवत जीवन जीते आदमी को प्रेम तो इंसान बना सकता है, मगर कोई डंडा नहीं। न कोई लोहे की लंगोट।

पाखंड के लिए आप भले किसी योगी, साधु, संत, मौलवी, "समझदार" के भक्त बने रहें, अपने बच्चों को तो जीवन दें। सुख मिलेगा।
(ललित सती सामाजिक मसलों पर रोचक टिप्पणियां लिखते हैं. यह टिप्पणी उनके वॉल से )

कमाई ​कला के दलालों के हिस्से और बेगारी आर्टिस्टों के

विश्व थियेटर दिवस पर विशेष 

कुछेक अपवादों को छोड़ दिया जाये तो सार्थक और मूल्यवान रंगमंच कभी भी अनुदान पर निर्भर होकर नहीं हुआ है। इन अपवादों की भी छानबीन करें तो हमें पता चलता है कि जिन रंगकर्मियों ने अनुदान लेकर बेहतर नाटक किये वे अनुदान के बिना भी बेहतर थियेटर करने की क़ाबिलियत रखते रहे हैं...

राजेश चंद्र

हबीब तनवीर अनुदान लेते थे, पर उनका थियेटर अनुदान की वजह से नहीं था। पोंगा पंडित जैसे नाटक अनुदान के बग़ैर भी उसी प्रभावशीलता के साथ हो सकते हैं, जिस तरह अनुदान लेकर। पर ज़्यादातर अनुदानकर्मी रंगकर्मी करते क्या हैं? 5-5 लाख लेकर दो कौड़ी के नाटक नहीं करते। 


कुछ ठेके पर नाटक का मंचन करवा लेते हैं। कुछ पुराने नाटक को दुहरा कर काम चला लेते हैं। कुछ नाटक ही नहीं करते, पूरा हजम कर जाते हैं। कुछ बीच का रास्ता निकालने की कोशिश करते हैं। यानी कुछ नाटक में भी लगा दो और कुछ अपने लिये भी रख लो। यह अनुपात रंगकर्मी में बचे ज़मीर का समानुपाती हुआ करता है, जो वैसे भी सैकड़ों में से किसी एक में मिलता है।

यह हाल तो प्रस्तुति अनुदान का है, पर अगर सैलरी ग्रांट या वेतन अनुदान की बात करें, जिसके अंतर्गत देश में सैकड़ों निर्देशकों को प्रतिवर्ष 10 से 25 लाख रुपये सरकार देती है, उसकी लूट का पैमाना व्यापम जैसे किसी भी महाघोटाले से छोटा नहीं होगा। यह अनुदान अभिनेताओं के वेतन के लिये है, पर उसका 60-70 फीसदी, और कहीं-कहीं तो 90 फीसदी हिस्सा रंगमंडल संचालक या निर्देशक हजम कर जाते हैं।

अभिनेताओं की हैसियत ज़्यादातर रंगमंडलों में दास या बेग़ार खटने वाले मज़दूर से अधिक नहीं होती। देश भर में कुकुरमुत्तों की तरह उग आने वाले इन  रंगमंडलों का, जिनमें से ज्यादातर केवल काग़ज पर हैं, आपसी नेटवर्क इतना मज़बूत है कि इस गोरखधंधे का विरोध करने वाले अभिनेता को फिर कभी किसी रंगमंडल में काम नहीं मिलता। सी.ए. से फर्जी प्रमाणपत्र बनवा कर, तस्वीरें भेज कर और मंत्रालय के बाबुओं को खुश कर अनुदान हड़प लिये जाते हैं। 

मंत्रालयों में पैठ रखने वाले ताक़तवर रंगकर्मियों ने अलग-अलग लोगों के नाम से कई-कई रंगमंडल बना रखे हैं और वे नये रंगमंडलों के लिये ग्रांट पास करवाने के बदले भरपूर कमीशन भी खा रहे हैं। ऐसे सफेदपोश रंगकर्मी आज सभी राज्यों में कमीशन एजेन्ट का काम कर रहे हैं।

थियेटर में ग्रांट के वितरण और प्रबंध के लिये सरकार ने एनएसडी को नोडल एजेन्सी बना रखा है। थियेटर में बहने वाली भ्रष्टाचार और लूट की महागंगा की गंगोत्री यही ब्राह्मणवादी संस्था है।एनएसडी आज नाटक करने की, कथ्य समझने की तमीज़ नहीं सिखाती, वह उन्हें कुछ ट्रिक्स और फारमूले सिखा देती है, पांच लाख-दस लाख के अनुदान को खपाना सिखाती है, गलत-सही बिल बनाना और प्रोजेक्ट प्रपोज़ल बनाना सिखाती है, ताकि अनुदान के लिये फ़ाइट करने लायक नाटक उसके प्रशिक्षित लोग किसी प्रकार कर लें। एनएसडी प्रशिक्षण के नाम पर आज देश को धोखा देने के अलावा कुछ नहीं करती। इस पर कभी और बात होगी।

आज थियेटर में अनुदान बंद हो जाये तो 80 फीसदी रंगकर्मी रंगकर्म छोड़ देंगे। अनुदान अपने साथ एक संस्कृति भी लेकर आता है, भ्रष्टाचार, समझौतापरस्ती, अवसरवाद और लोलुपता की! रंगकर्मी एक बार समझौतापरस्त और बेईमान हो गया तो फिर वह रंगकर्मी कहां रह गया! जब आप अनुदान की पात्रता के हिसाब से अपने रंगकर्म का स्वरूप निर्धारित करते हैं, कथ्य और शैली चुनते हैं, तो फिर कथ्य और नीयत और क्वालिटी तो पहले ही संदिग्ध हो जाती है। अगली बार के अनुदान की फिक़्र तो और जानलेवा होती है।

विकास परियोजनाओं के नाम पर देश भर के आदिवासी और दलित विस्थापित हो रहे हैं, उजाड़े जा रहे हैं, उनके जल, जंगल, ज़मीन और संस्कृति की जैसी भयावह तबाही रची जा रही है, वह रंगमंच से क्यों गायब है? बस्तर और दन्तेवाड़ा जैसी जगहों पर, मणिपुर में, असम में, कश्मीर में मानव अधिकारों को बर्बर तरीके से कुचला जा रहा है, वह हमारे नाटकों का विषय क्यों नहीं है? कभी अखलाक, कभी पानसरे, कभी कलबुर्गी और कभी किरवले। रोज़ समाज के सोचने समझने वाले, हाशिये पर जीने वाले लोग मारे जा रहे हैं, दलितों की बस्तियां जलायी जा रहीं हैं, उनको आत्महत्या के लिये मजबूर किया जा रहा है, नंगा कर घुमाया जा रहा है, ये हमारे नाटकों में क्यों नहीं आता? किसानों की इतने बड़े पैमाने पर हो रही आत्महत्याएं रंगमंच में क्यों जगह नहीं पातीं?

इन सवालों का अकेला जवाब यही है कि अनुदान लेकर आप इन मुद्दों पर सवाल नहीं उठा सकते। आपको अनुदान और पुरस्कार मिलता ही इसीलिये है कि आप यह सब नाटक और रंगमंच में नहीं आने दें। जनता के सामने व्यवस्था को कठघरे में खड़ा नहीं कर सकते आप अनुदान लेकर। अनुदान सरकार इसी मकसद से देती है। लोग यह मकसद आगे बढ़ कर पूरा कर रहे हैं।

अनुदान-विमर्श आज रंगमंच का सबसे अपरिहार्य और प्राथमिक सरोकार बन गया है! सारी मेधा और प्रतिबद्धता इसी जोड़-तोड़ और बचाव में चुक रही है! इससे पता चलता है कि हम जिसे रंगकर्म मान रहे हैं उस मान्यता और समझ में ही बहुत भारी लोचा उत्पन्न हो गया है! अगर रंगमंच को, उसकी सामाजिक-राजनीतिक भूमिका को, उसके गौरवशाली इतिहास को बचाना है तो रंगकर्म को सरकारी बैसाखी से मुक्त करना अपरिहार्य हो गया है। इस दिशा में संगठित होना आज एक बड़ा कार्यभार है।

एनएसडी आज तमाम संसाधनों पर वर्चस्व और एकाधिकार की वजह से केन्द्र में नहीं है! वह श्रेष्ठ और विशिष्ट थी,  तभी रंगमंच के सारे संसाधन और शक्तियां उसके पास हैं! एनएसडी के स्नातक श्रेष्ठ और विशिष्ट होते हैं, इसीलिये उनका सारे संसाधनों और अवसरों पर पहला और नैसर्गिक अधिकार है! यह सोच क्या वैसी नहीं है कि ब्राह्मण जन्म से ही श्रेष्ठ होते हैं, इसलिये उन्हें शेष समाज पर वर्चस्व और नियंत्रण का नैसर्गिक और दैवीय अधिकार है! जैसे अंग्रेज हमसे श्रेष्ठ और महान थे, इसलिये हम पर अपना शासन और अन्याय-उत्पीड़न थोपना उनका विशेष और नैसर्गिक अधिकार था! 

जिस प्रकार हिटलर के जन्मजात महान और श्रेष्ठ लोग दुनिया पर शासन करने निकल पड़े, उसी प्रकार जन्म से ही श्रेष्ठ और विशिष्ट संस्थान एनएसडी के श्रेष्ठ और विशिष्ट स्नातक भारतीय रंगमंच को विजित करने निकल पड़े! सारे संसाधनों पर, सारे ग्रांट पर, सारी कमिटियों पर, सारे पुरस्कारों पर, सारे महोत्सवों पर, सभी संस्थानों पर एकाधिकार करने और थियेटर को अपने अनुसार हांकने का उन्हें महान, विशिष्ट, जन्मजात और दैवीय अधिकार प्राप्त है! 

राजेश चंद्र वरिष्ठ रंग समीक्षक। कई नाटक लिख और निर्देशित कर चुके हैं। 

सरदार जोक्स पर फाइनल फैैसला आज, सबको है इंतजार

जनज्वार। बहुचर्चित और सरदार जोक्स पर प्रतिबंध लगाने के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट आज विस्तृत आदेश पारित करेगा। पिछले दिनों 7 फरवरी, 2017 को हुई सुनवाई के दौरान कोर्ट ने सरदार जोक्स पर प्रतिबंध लगाने से मना कर दिया था। मगर साथ ही यह भी कहा था कि अगर इससे किसी की भावनाएं आहत होती हों तो वह कानूनन केस जरूर दर्ज कर सकता है।

गौरतलब है कि दिल्ली की 54 वर्षीय सिख वकील हरविंदर चौधरी ने सरदार जोक्स पर पिछले साल सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की थी। इस मामले में अदालत ने कहा था कि किसी समुदाय विशेष के लिए गाइडलाइन गठित की जानी काफी पेंचीदा काम है, मगर यह जरूर है कि किसी जोक विशेष से किसी को कोई परेशानी होती है तो वह कानून के अनुसार केस दर्ज करा सकता है।  

7 मार्च, 2017 को इस मामले में की गई सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि अगर अदालत किसी किसी धर्म या जाति विशेष पर कोई दिशा निर्देश जारी कर देगी तो इस फैसले के बाद अन्य दूसरी जातियां और धर्म भी इसी फैसले को आधार बनाकर अपनी मांगें मनवाएंगे। जहां तक हंसी की बात है तो उस पर कोई नियंत्रण नहीं है। कोई हंसता है, कोई नहीं हंसता.

गौरतलब है कि वकील हरविंंदर चौधरी ने सुप्रीम कोर्ट में दायर अपनी याचिका में कहा था कि इंटरनेट पर मौजूद हजारों वेबसाइटें  सरदारों के नाम पर चुटकुले बेचती हैं, जिनमें सरदारों का बुद्धू, पागल, मूर्ख, बेवकूफ़, अनाड़ी और अंग्रेज़ी भाषा की अधूरी जानकारी रखने वाला कहते हुए मजाक उड़ाया जाता है। 

मन की बात में पहले भोजन बर्बादी पर भाषण दिया और फिर भोजन बर्बादी के कार्यक्रम के मेहमान बन गए

मोदी जी 'मन की बात' किस रिश्तेदार को सुनाते हैं, जब खुद वही करते हैं जो दूसरे पैसे वाले मंत्री, विधायक और पूंजीपति करते हैं। क्या उनकी नैतिक जिम्मेदारी नहीं कि ऐसे कार्यक्रमों का बहिष्कार कर अपने रईस मंत्रियों को सबसे पहले भोजन बर्बादी करने से रोकें.....

जनज्वार। मोदी जी ने जब कल मन की बात में खाने की बर्बादी पर भाषण दिया और बचाने की की अपील की तो देश को बहुत अच्छा लगा। देश के आम नागरिकों को लगा कि जिस देश की 80 फीसदी आबादी को ठीक से दो समय का भोजन नहीं मिलता, वहां इस तरह की बर्बादी रोकने पर पहल एक सकारात्मक और जरूरी प्रयास है।  
वैंकेया  नायडू  द्वारा ट्विटर पर शेयर की गई एक फोटो
पर थोड़ी ही देर में उनके बाकि बयानों की तरह यह भी खालिस ड्रामा साबित हुआ। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के शब्दों में कहें तो 'जुमला।' आपको याद होगा कि मोदी जी के हर खाते में पंद्रह लाख के बयान को अमित शाह ने मोदी जी का चुनावी जुमला बता दिया था। तब भाजपा और प्रधानमंत्री की बहुत किरकिरी हुई थी। 

कल 'मन की बात' करने के बाद मोदी जी अपनी सरकार के वरिष्ठ मंत्री वैंकेया नायडू के यहां एक भव्य कार्यक्रम में पहुंचे। वैंकेया नायडू मोदी सरकार में शहरी विकास के साथ शहरी गरीबी उन्मूलन मंत्री हैं। मंत्री ने अपने आवास पर 'उगादि' का आयोजन रखा था जिसमें सैकड़ों की सख्या में मेहमान पहुंचे, जिसमें बड़ी संख्या में मीडियाकर्मी भी थे। उगादि दक्षिण भारत में नववर्ष का दिन होता है। मंत्री का ताल्लुक दक्षिण भारत के आंध्र प्रदेश से इसलिए उन्होंने अपने यहां कार्यक्रम रखा था। 

प्रधानमंत्री मन की बात करने के बाद जब इस कार्यक्रम में पहुंचे तो वहां मेहमानों को भोजन में बारहों तरह का व्यंजन परोसा गया। मंत्री जी खुद ही खुशी—खुशी दर्जनों व्यंजनों की फोटो लगाते रहे। उपर लगी तस्वीर भी मंत्री जी द्वारा शेयर की गयी तस्वीरों में से एक है। गौरतलब है कि हमारे देश में हर साल भंडारण के अभाव में ही 50,000 करोड़ रुपए यानी कुल खाद्यान्न उत्पादन का 40 फीसदी बर्बाद हो जाता है। यह बर्बादी केंद्र सरकार के मुताबिक ब्रिटेन के सालाना अनाज उत्पाद के बराबर है।  

ऐसे में सवाल बस यह कि फिर मोदी जी 'मन की बात' किस रिश्तेदार को सुनाते हैं, जब खुद वही करते हैं जो दूसरे पैसे वाले मंत्री, विधायक और पूंजीपति करते हैं। क्या उनकी नैतिक जिम्मेदारी नहीं कि ऐसे कार्यक्रमों का बहिष्कार करें और अपने रईस मंत्रियों को सबसे पहले भोजन बर्बादी करने से रोकें। ऐसे कार्यक्रमों में छप्पन भोग क्यों जरूरी हैं, जबकि 3—4 तरह के व्यंजनों से काम चल सकता है। 

हालांकि भोजन की बर्बादी को रोकने के लिए कई प्रदेशों ने स्वाग्तयोग्य कदम भी उठाए हैं। जम्मू कश्मीर सरकार ने तो शादियों में भोजन की बर्बादी को रोकने के लिए कानून तक बनाया है कि हर शादी में मीनू और खाने की मात्रा पहले ही तय कर ली जाए, ताकि खाना बर्बाद न जाए। वहीं सांसद रंजीत रंजन खाने की बर्बादी रोकने के लिए संसद में बिल पेश कर चुके हैं। 

मोदी अपने शहंशाह मानसिकता वाले मंत्रियों को बताएं कि देश का नब्बे फीसदी आमजन आज भी अपने बच्चे को रोज एक गिलास दूध नहीं दे पाता, बुंदेलखंड और विदर्भ रोज अपने बच्चे को दाल नहीं दे पाता और बंगाल, मध्यप्रदेश और उड़ीसा से लेकर उत्तर प्रदेश तक कुपोषित बच्चों वाले राज्यों में आज भी टॉप में आते हैं।

क्या दिखावे की बजाए मोदी को जीवन में उतारने वाली मन की बात नहीं करनी चाहिए। सवाल यह इसलिए भी बड़ा है कि खाने का यह भव्य आयोजन वह मंत्री कर रहा है जो शहरी व गरीबी उन्मूलन के लिए जिम्मेदार है और उन्मूलन की हालत यह है कि आज की तारीख में सरकारी आंकड़ों के मुताबिक बहुतायत शहरी आबादी गरीब है और उसे दो जून का संतुलित भोजन तो छोड़िए, भरपेट भोजन उपलब्ध नहीं है। 

Mar 26, 2017

भाजपा सुशासन का एक सीन यह भी

तस्वीर में दिख रहे युवक 14 किलोमीटर दूर से कंधे पर एक मरीज को लादकर ईलाज कराने के लिए लाए हैं क्योंकि वहां सरकार एंबुलेंस की व्यवस्था नहीं कर सकती।

जी हां, भाजपा शासित छत्तीसगढ़ में फिर एक बार स्वास्थ्य व्यवस्था को तार—तार कर देने वाली तस्वीर सामने आई है। जन सुविधाओं के बड़े—बड़े वायदे करने वाली छत्तीसगढ़ सरकार की हालत यह है कि वह अपने राज्य की सबसे बड़ी आदिवासी आबादी को स्वास्थ्य की बुनियादी सुविधाएं भी नहीं मुहैया करा पा रही है।

आदिवासी बहुतायत वाले दंतेवाड़ा में आज 14 किलोमीटर पैदल चलकर एक मरीज के परिजन उसे अस्पताल लेकर पहुंचे। तस्वीरों से आप अंदाजा लगा सकते हैं कि कैसे  14 किलोमीटर दूर से  कंधे पर मरीज को लेकर लोग पहुंचे होंगे।


सिर्फ 10 कॉरपोरेट 5 लाख करोड़ के कर्जदार और 9 करोड़ किसानों का कर्ज 12 लाख करोड़

बैंकों से लेकर नीति आयोग तक किसानों को कर्ज देने के मसले पर नाक—भौं सिकोड़ रहे हैं, पर सरकार और रिजर्व बैंक 70 हजार करोड़ से अधिक डकार जाने वाले डिफॉल्टरों का नाम बताने की हिम्मत नहीं कर पा रहे...

राजेश रपरिया 

भारतीय स्टेट बैंक की प्रमुख अरूंधति भट्टाचार्य के किसानों की कर्जमाफी से वित्तीय अनुशासन बिगड़ने के बयान से तूफान आ गया है। उन्होंने कहा कि चुनावों के वक्त किसानों का कर्ज माफ करना सही नहीं है। अगर ऐसा होता है तो हर चुनाव में कर्ज माफी की उम्मीद की जाएगी। इस बयान ने किसानों के गहरे जख्मों पर नमक तो छिड़का ही है, बल्कि बैंकिंग उद्योग को भी कठघरे में खड़ा कर दिया है। 

बैंको की बढ़ती अनर्जक आस्तियों (नॉन परफार्मिंग एसेट्स —एनसीए) से अर्थव्यवस्था और केंद्र सरकार की परेशानियां बढ़ गयी हैं, जबकि प्रमुख सरकारी बैंक की मुखिया अपने बयानों में ऐसे पेश आ रही हैं मानो देश की बढ़ती आर्थिक मुश्किलों का मुख्य कारण किसान ही हों। मार्च 2016 तक बैंकों की कुल कर्जराशि 70 लाख करोड़ रुपए थी, जिसमें उद्योग की हिस्सेदारी 41.71 फीसदी और कृषि कर्ज 13.49 फीसदी थी।



जाहिर है बड़े लोगों और कारोबारियों पर ही बैंकों का सबसे ज्यादा कर्ज फंसा हुआ है। पिछले 15 महीनों में बैंकों का एनपीए दोगुने से ज्यादा हो गया है। सितंबर 2015 में एनपीए 3 लाख 49 हजार 556 करोड़ रुपए के थे, जो सितंबर 2016 में बढ़कर 6 लाख 68 हजार 825 करोड़ रुपए के हो गए। विश्वविख्यात अंतरराष्ट्रीय वित्त कंपनी 'स्टैंडर्ड एंड पुअर्स' का अनुमान है कि इस वित्त वर्ष में एनपीए बढ़कर 9 लाख करोड़ रुपए के पार कर जाएंगे। रिजर्व बैंक का तर्क है कि आर्थिक हालात खराब होने से कर्ई बार कर्जदार समय से कर्ज नहीं चुका पाता है। पर आर्थिक विकास दर में सुधार आने से एनपीए में कमी आएगी और रिकवरी बढ़ जाएगी। 

लेकिन विडंबना यह है कि रिजर्व बैंक और अन्य बैंक इस तरह के लाभ किसानों को देने को तैयार नहीं हैं। फिर विलफुल डिफॉल्टरों (जो कर्जदाता जानबूझ कर कर्ज वापस नहीं करते, जबकि कर्ज वापस करने की उनकी हैसियत होती है) का आंकड़ा और नाम क्यों छुपाया जाता है, इसका कोई वाजिब तर्क न रिजर्व बैंक के पास है और न ही केंद्र सरकार के पास। यह कर्जदार गलत हथकंडों और सांठगांठ से भारी मात्रा में बैंकों से कर्ज पाते हैं, जो बैंकों, बड़े लोगों और राजनेताओं के कारनामों का जीता—जागता पुराण है। जनता के पैसों पर यह डिफॉल्टर बेनामी संपत्तियां बनाते हैं और विलासिता में करोड़ों—करोड़ रुपए उड़ा देते हैं। गौरतलब है कि 10 बड़े कॉरपोरेट समूहों पर 5 लाख 73 हजार 682 करोड़ रुपए का कर्ज है। यह जानकारी राज्य सभा में वित्त राज्यमंत्री संतोष गंगवार ने दी है। 

अपनी रिपोर्टों के लिए चर्चित न्यूज वेबसाइट न्यूज लॉन्ड्री ने इन डिफॉल्टरों के नाम उजागर किए। समाचार साइट फर्स्ट पोस्ट की एक रिपोर्ट के अनुसार 7129 बैंक खातों को डिफॉल्टर घोषित किया गया है, जिन पर 70 हजार 540 करोड़ का कर्ज है। इस साइट पर 18 बड़े कर्जदारों के नाम भी हैं। मोटा अनुमान है कि तकरीबन एक लाख करोड़ रुपए ये डकार गए हैं। इनमें विजय माल्या का नाम जगजाहिर है। पर उषा इस्पात समूह के 17 हजार करोड़ रुपए के कर्ज डकारने की पूरी दास्तान जानकर न केवल किसी के होश उड़ जाएंगे, बल्कि गुस्सा भी आएगा कि एक छोटा—सा कर्ज देने के लिए बैंक कितने चक्कर लगवाता है, दस्तावेज मांगता है। पर इन डिफॉल्टरों को कर्ज पर कर्ज देने में इन्हें कोई परेशानी नहीं आती है। सच तो यह है कि इन बड़े आदमी के आगे बैंकों की बोलती बंद हो जाती है। ऐसा तब है जबकि रिजर्व बैंक बताता है कि कृषि कर्ज में किसान कर्ज ही नहीं कृषि कारोबार कर्ज भी शामिल रहता है । 

नवंबर 2016 में वित्त राज्यमंत्री पुरुषोत्तम रुपाला ने राज्यसभा में बताया कि सितंबर 2016 तक कुल कृषि कर्ज 12 लाख 60 करोड़ रुपए थे। इनमें से 7.75 लाख करोड़ के कृषि ऋ़ण थे और 4.84 लाख करोड़ रुपए के दीर्घकालिक कर्ज। उन्होंने यह भी साफ किया कि कृषि कल्याण कोष में किसानों की कर्ज अदायगी का कोई इरादा सरकार का नहीं है। कागज पर पिछले 15 सालों में कृषि कर्ज 8 गुना से ज्यादा बढ़े हैं, लेकिन उस अनुपात में किसानों खासकर छोटे, लघु और सीमांत किसानों के कर्ज नहीं बढ़े हैं। 

बजट भाषण में किसान 
किसानों के लिए 10 लाख करोड़ के कृषि कर्ज का लक्ष्य रखा गया है, जो लगभग बैंकों के संभावित कुल एनपीए के बराबर है। 

रिजर्व बैंक के आंकड़ों पर मूलत: आधारित आर. राम कुमार और पल्लवी चौहान का शोधपत्र साफ बताता है कि बैंकिंग सेवा के भारी विस्तार और लक्ष्यों के बावजूद सीमांत किसानों की कर्ज निर्भरता सूदखोरों पर बढ़ी है। देश में 95 फीसदी सीमांत, लघु और छोटे किसान हैं जिनके पास एक, दो या पांच हेक्टेयर या उससे कम खेत हैं। देश की कुल कृषियोग्य भूमि का 68.7 फीसदी हिस्सा इन किसानों के पास है। इन किसानों के लिए अरसे से किसानी घाटे का सौदा बन गयी है। बाजार और मौसम की मार से उन्हें कोई कारगर सुरक्षा प्राप्त नहीं है। 


सरकार नहीं जानती किन पूंजीपतियों के कर्ज माफ हुए 
बैंकों ने बड़े कर्जदारों के 1.14 करोड़ रुपए के कर्ज तीन सालों 2013—2015 के कर्ज को बट्टे खाते में डाल दिए। राजनीतिक बयानबाजी में इसे कर्जमाफी कहा जाता है। वित्त राज्यमंत्री संतोष गंगवार ने राज्य सभा में बताया है कि 2015—2016 में भी 59 हजार 547 करोड़ रुपए बैंकों ने बट्टे खाते में डाले हैं। पर आश्चचर्य यह है कि जिन बड़े कर्जदारों के कर्ज बट्टे खाते में डाले गए हैं, इसकी जानकारी न रिजर्व बैंक के पास है न ही केंद्र सरकार के पास है। 

पिछले कुछ सालों में सवा 2 लाख से ज्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं। 2015 में 8 हजार 7 किसानों ने आत्महत्या की। यह प्रवृत्ति बढ़ रही है। इससे साफ जाहिर है कि देश में किसानों की आर्थिक हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं। तमिलनाडु में सदी का सबसे भयंकर सूखा पड़ा है। वहां के किसान 60 फीसदी सूद पर कर्ज लेने को मजबूर हैं, जबकि केंद्र सरकार का निर्देश किसानों को 7 फीसदी पर कर्ज देने का है। वहीं केरल में 115 साल बाद का सबसे भयंकर सूखा पड़ा है, जिसके लिए केंद्र सरकार से 1000 करोड़ रुपए की मदद चाहिए। बैंकों ने पिछले 10—15 सालों में सवा 3 लाख करोड़ रुपए से ज्यादा बट्टे खाते में डाल दिए हैं तो किसानों का कर्ज क्यों नहीं माफ किया जा सकता है। केंद्र सरकार को छोटे, सीमांत और लघु किसानों की कर्ज अदायगी के बारे में संजीदगी से सोचने का वक्त है। उत्तर प्रदेश में फसली ऋणों की घोषणा अपने भाषणों में कर सकते हैं, तो बाकि देश के किसानों ने क्या गुनाह किया है। 

एनपीए का नुकसान छोटे कर्जदारों और किसानों को 
बैंकों के एनपीए पिछले कुछ सालों से बेहिसाब बढ़े हैं। बढ़ते एनपीए से बैंकों की कर्ज देने की क्षमता कम होती है और कर्ज की ब्याज दरें अनावश्यक रूप से ज्यादा बनी रहती हैं। इसका असली खामियाजा छोटे बचतकर्ताओं और कर्जदारों को भुगतना पड़ता है। बैंक की भाषा में छोटे कर्जदारों को 'स्मॉल ब़रोअर' कहा जाता है। 1991 में शुरू हुए उदारीकृत अर्थव्यवस्था के दौर से छोटे कर्जदारों की हिस्सेदारी 63 फीसदी से घटकर 32 फीसदी रह गयी है। टाटा इंस्टीट्यूट आॅफ सोशल साइंसेज के आर रामकुमार और पल्लवी चौहान के शोधपत्र में पुख्ता ढंग से यह बात सामने आयी है कि बैंकिंग उद्योग किसानों से दूर केवल बड़े लोगों और कारोबारियों का बन कर रह गया है। 

(राजेश रपरिया वरिष्ठ आर्थिक पत्रकार हैं। यह लेख दैनिक भास्कर से साभार।)